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सूत्र-विभाग-१२. 'अपरिग्रह अणुव्रत' निबन्ध
महीं होता, वरन् लोभ बढता है। - उत्तरा। ३. सम्पूर्ण लोक • मे सभी जीवो के लिए परिग्रह (प्राण, स्त्री और शेष) से बढकर
और कोई पाश (बन्धन) नहीं हैं। प्रश्न०। ४. मरते समय यहाँ से कोई साथ नहीं चलताउत्तरा० ॥
२. उद्देश्य : धनादि को मूर्छा के दुःख को मिटाना और इच्छा-रहितता के सुख को प्रकट करना।
३. स्थान : स्त्री-राग (मोह) की अपेक्षा धनादि का राग (मोह) मन्द होने से स्त्री-त्याग की अपेक्षा धनादि का त्याग गौण है, अत मैथुन विरमण के पश्चात् परिग्रह विरमरण को पांचवां स्थान दिया है।
४. फल : असीम तृष्णाजन्य सकल्प-विकल्प से मुक्ति । विद्यमान धन मे प्रासक्ति की मन्दता। अभाव में सन्तोष । निद्रा सुख से आवे, यात्रा का कष्ट न हो, नीच की सेवा करनी व पड़े। जन्मान्तर में उक्त फल के साथ निर्धनता और आवश्यक पदार्थों की कमी न हो । स्वतः धन-त्याग की भावना हो।
५. कर्तव्य : अपने से अधिक धनवानों की वेश-भूषा, अलंकार, भोजन पान, धन, भवन, उत्सवादि की ओर ध्यान न देना। राज्यादि का अनुग्रह, व्यापार वृद्धि, गुप्त धन प्राप्ति आदि से धन वृद्धि होने पर उसे मिट्टी के समान समझ कर त्याग देना या धर्म ग्रादि' के निमित्त लगा देना। यदि मर्यादा उपरान्त धन सबधियो को दे, तो उस पर अपनर अधिकार न रखना।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना । सम्पूर्ण अपरिग्रही कब बनूंगा? यह मनोरथ करना । अपरिग्रह की