________________
सूत्र-विभाग-३२ पांच पदो की वन्दनाएँ
। १९३
चवदे पूरब धार, जानत आगमसार, भवियन (जन) के सुखकार, भ्रमता निवारी है। पढाचे भविक जन, स्थिर कर देत मन, तप कर ताव (तपावे) तन, ममता को मारी है। कहत है तिलोकरिख, ज्ञान भानु परतिख, (प्रत्यक्ष) ऐसे उपाध्याय तरकू चन्दना हमारी हैं ।।४।३
ऐसे उपाध्यायजी महाराज, मिथ्यात्वरूप अन्धकार के नाशक, समकित रूप उद्योत के कर्ता, धर्म से डिगते प्राणी करे स्थिर करने वाले, सारए (विस्मृत पाठ का स्मरण कराने वाले) वारए (पाठ की अशुद्धि का निवारण करने वाले) धारए (नये पाठ को धराने वाले) इत्यादि अनेक गुरण सहित हैं ।
ऐसे उपाध्यायजी महाराज ! • ... .. . क्षमा करिये। हाथ जोड मान मोड ........ नमस्कार करता हूँ। तिक्खुत्तो पायाहिरप ..... .. . मत्थएणे वदामि । आप मागलिक हो . .. ... " सदा कयल शरण हो ।
'पाँचवे पद में श्री सर्व साधूजी महाराज
अढाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र रूप लोक मे जघन्य दो सहल (हजार) करोड़, उत्कृष्ट नव सहल (हजार) करोड़ जयवन्त विचरते हैं।
१-५ पाँच महावत पालते हैं, ९-१० पाँच इन्द्रिय जीतते हैं २१-१४ (उदय मे प्राई हुई) चार कषाय टालते हैं
१५. भाव के सच्चे : सयम को अन्तरात्मा से पालते हैं, । १६. करण के सच्चे : तीनो करणो से पालते हैं,
२७. योग के सच्चे : तीनो योगो से पालते हैं, १८ क्षमावान् । कषाय उदय मे अाने नहीं देते हैं,