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सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
उ० • यथा सभव प्रात्मबल बढाकर सभी बडी झूठ त्याग कर यह व्रत लेना चाहिए। यदि किसी से विशेष प्रात्मबल के अभाव मे ऐसा न हो सके, तो जितनी झूठ त्याग सके, उनका ही सही, व्रत अवश्य ले। आगे भी यही समझना।
प्र० रक्षा के लिए झूठी साक्षी देना या नहीं?
उ० रक्षा की भावना उत्तम है, पर रक्षा के लिए भी सापराधी की झूठी साक्षी देना नही चाहिए। कदाचित् इससे अन्य निरपराध की मृत्यु भी हो सकती है। निरपराध को बचाने के लिए भी कूट साक्षी देना अतिचार है। इससे भविष्य के लिए साक्षीत्व का विश्वास उठ जाता है। उसे सत्य से बचा लेने में समर्थ न होने से यदि कूट साक्षी दी हो, तो उस मन्द अतिचार का भी तत्काल प्रायश्चित्त करना चाहिए।
प्र० 'सहसान्भक्खाणे' के अन्य प्रकार बताइए।
उ० जैसे १ क्रोधादि कषाय के आवेश मे आकर बिना विचारे किसी पर हत्या, झूठ, चोरी, जारी आदि अारोप लगाना । -सन्देह होने पर भी कुछ भी प्रमाण मिले विना, सुनी सुनाई बात पर या शुत्ता निकालने के लिए या अपने पर आये आरोप को टालने के लिए आरोप लगाना आदि भी 'सहसाब्भक्खाणे' हैं।
प्र० : 'रहस्साव्भक्खाणे' की व्याख्या कीजिए।
उ० रहस्य-मन्त्रणा आदि किसी भी अधूरे प्रमाण पर एक या अनेक पुरुपो पर आरोप लगाना ।
प्र० : सदारमतभेए की व्याख्या कीजिए।
उ. - स्त्री, मित्र, जाति, राष्ट्र ग्रादि किसी की भी कोई , -भी लज्जनीय या गोपनीय बात अन्य के समक्ष प्रकट करना।