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सूत्र-विभाग--३२ पांच पदो की वन्दनाएँ [ १८९ ६. संग्रह परिज्ञा :१ चातुर्मास योग्य क्षेत्र का,
२ पीठादि के संग्रह का,३ यथा समय कार्य का और ४. गुरुप्रो के मान का
ध्यान रखते हैं। और ६. शिष्य को : १. आचार से, २. श्रुत से, ३. धर्म योग्य बनाना
प्रभावना से और ४. दोष विशुद्धि से इन नव बोलों के प्रत्येक के चार मेद, यों छतीस गुग सहित हैं।
सवैया गुण है छत्तोसपूर, धरत धरम ऊर, मारत करम क्रूर, सुमति विचारी है। शुद्ध सो प्राचारवन्त, सुन्दर है रूप कन्त, भण्या है सब ही सिद्धान्त, वाचणी सुप्यारी है। अधिक मधुर वेण, कोई नही लोपे केण (कथन), सकल जीवो का सैण, (स्वजन) किरति अपारी है। कहत है तिलोकरिख, हितकारी देते सीख, ऐसे आचारज ताक वन्दना हमारी है ॥३॥
ऐसे प्राचार्यजी महाराज ! न्याय पक्ष वाले, भद्रिक परिणामी, परम पूज्य, कल्पनीय अचित्त वस्तु को लेने वाले सचित्त के त्यागी, वैरागी महागुणी, गुणो के अनुरागी, सौभागी
ऐसे श्री प्राचार्य जी महाराज .. .. • क्षमा करिये । हाथ जोड मान मोड .. ...... नमस्कार करता हूँ। तिक्खुत्तो प्रायाहिण • ... • " मत्थएण वदामि । आप मांगलिक हो ....... ...... सदा काल शरण हो।
चौथे पद में श्री उपाध्यायजी महाराज ग्यारह (वारह) अंग : हाथ अादि अगो के समान मुख्य सूत्र