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सुवोध जैन पाठमाला--भाग २
प्र० ये तीनों किसके अतिचार हैं ? उ० . पढने की विधि संवधी अतिचार हैं।
प्र० . इनसे क्या हानि होती है ?
उ० विनयहीनता से प्राप्त ज्ञान यथासमय काम नहीं आता-सफल नही होता, स्तुति-वदनादि क्रियाएँ सफल नहीं होती। योग-हीनता से जान की प्राप्ति शीघ्र नही होती। शुद्ध आवर्तन नहीं होता, पालोचना-प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ सफल नहीं होती। घोष-हीनता से सूत्र का आत्मा पर पूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता। अतः इन तीनो अतिचारो को दूर करना चाहिए और विनय के साथ योगो को एकाग्र करके यथाघोप अध्ययन करना चाहिए ।
प्र० : सुप्ठु ! (न) देना किसे कहते हैं ?
उ० · शिष्य की ग्रहण-स्मरण आदि की जितनी शक्ति हो, उससे उसे न्यूनाधिक ज्ञान देने को, शुद्ध भाव से न देने को, अपात्र को ज्ञान देने को, पात्र को द्वेष आदि से न देने को।
प्र. दुष्ठ ग्रहण करना किसे कहते हैं ?
उ० . अपनी ग्रहण-स्मरण आदि की जितनी शक्ति हो, उससे न्यूनाधिक जान लेने को, शुद्ध भाव से न लेने को, कुगुरु से लेने को, सुगुरु से द्वेपादि से न लेने को।
प्र० इनसे क्या हानि होती है ?
उ० : शक्ति से कम जान लेने से प्राप्त ज्ञान-शक्ति व्यर्य जाती है। अधिक लेने से उस ज्ञान का पाचन नहीं होता। अपात्र को ज्ञान देने से सर्प को दूध पिलाने के समान