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२३४ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ जैसे केश) ५. शीत (ठण्डा, जैसे कान की लोल) ६. उष्ण (गरम, जैसे हृदय) ७. स्निग्ध (चिकना, जैसे आँख की कीकी)
और ८. रूक्ष (रुखा, जैसे जीभ)। स्पर्शेन्द्रिय के आठ मूल विषय । ये पाठ सचित्त, पाठ अचित्त और पाठ मिश्र-ये २४ ॥ ये चौवीस शुभ और चौवीस अशुभ-यों स्पर्णेन्द्रिय के उत्तर । विषय ४८।
श्रोनेन्द्रिय के तीन, चक्षुरिन्द्रिय के पाँच, धारणेन्द्रिय के दो, रसेन्द्रिय के पाँच, और स्पर्शेन्द्रिय के पाठयों सब मूल विषय २३ तथा श्रोत्रेन्द्रिय के छह, चक्षरिन्द्रिय के तीस, प्रारणेन्द्रिय के छह, रसेन्द्रिय के तीस और स्पर्शेन्द्रिय के अड़तालील-यों सब उत्तर विषय १२० ।
विकार : प्रात्मा की विकृत (= अशुद्ध) अवस्था का परिणाम।
इन उक्त (कहे हए) १२० विषयों पर राग तथा १२० ही विषयों पर द्वेष-यों विकार के २४० भेद ।
ये पांच इन्द्रियों के २३ विषय पुद्गल द्रव्य में ही होते हैं। अन्य पांच द्रव्यों में नहीं। इनमें से श्रोत्रेन्द्रिय के तीन विषय छोड़कर शेष वीस विषयों का ही मुख्य रूप से पुद्गलों मे व्यवहार होता है। पुद्गलों के बादर स्कन्ध में ये वीसों विषय (बीस वोल) मिल सकते हैं। किन्तु पुद्गलों के सूक्ष्म स्कघ में पहले के चार १ कर्फश, २ मृदु, ३ गुरु, ४ लघु -ये स्पर्श छोडकर शेष १६ विषय (१६ वोल) ही मिल सकते हैं । जिनमे बीसों विषय मिल सकते हैं, उन्हें रूपी अष्टस्पर्शी (आठफरसी) कहा जाता है। तथा जिनमे १६ विषय मिल सकते हैं, उन्हे रूपी चतुःस्पर्शी (धारफरसी) कहा जाता है। रूपी चतु स्पर्शी और प्ररूपी पांच द्रव्य, इन्द्रियो के विषय नहीं हैं। वे प्रात्मा और मन के विषय हैं।