________________
तत्व विभाग - 'पाँच समिति तीन गुप्ति का स्तोक'
[ २५५
तथा ८. क्लेशकरी ( वचन - युद्ध तथा मानसिक खेद पैदा करने वाली) इन आठ प्रकार को न बोले
२. क्षेत्र से - मार्ग मे चलता हुआ न बोले । 'मार्ग में चलते हुए बोलने से ईर्यासमिति पूर्वक (नीचे जीव प्रजीव देखकर ) चलने मे सम्यक् उपयोग नहीं रहता।' इसलिए तीर्थंकरो ने मार्ग मे चलते हुए बोलने का निषेध किया है ।
-
३. काल से एक प्रहर रात्रि हो जाने के बाद सूर्योदय तक ऊँचे स्वर से (जोर से ) न बोले । ऊँचे स्वर से बोलने से दूसरो की निद्रा मे बाधा पडती है तथा ऊंचे स्वर से कुछ लोग प्रात कालादि मे शीघ्र जागृत होकर जीव हिंसादि अट्ठारह पापो मे लग जाते है । इसलिए तीर्थंकरो ने एक प्रहर रात्रि हो जाने के बाद सूर्योदय तक ऊँचे स्वर से बोलने का निषेध किया है ।
४. भाव से - १ क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ, ५. हास्य, ६. भय, ७: मौखर्य (= वाचालता) और ८. विकथा ( = स्त्रीकथां श्रादि) इन आठ बोलों को वर्जकर राग-द्वेष रहित तथा उपयोग सहित भाषा बोले । क्योकि क्रोध आदि मे ना जाने पर जीव सत्य और व्यवहार भाषा का ध्यान नही रख पाता तथा असत्य और मिश्र भाषा बोल जाता है - जैसे १. क्रोध मे पिता पुत्र को कह देता है कि 'तूं' मेरा पुत्र नही है' । २. मान मे गुणहीन मनुष्य भी कह देता है कि 'गुणो मे मेरी समता करने वाला कोई नही है ।' ३. माया मे पुरुष, अपरिचित स्थान पर अपने पुत्रादिको के विषय मे कह देता है कि 'न तो मेरा यह पुत्र है और न मै इसका पिता हूँ । बरिकादि, पराई वस्तु को भी अपनी कह देते है ।
४. लोभ में
५. हास्य में