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________________ २०४ ] सुवोध जैन पाठमाला - भाग २ प्र० : नित्य क्षमायाचना करे, पर वैर विरोध करना, न छोड़ें, तो ? 'उ० : स्थूल (वडे) वैर विरोध तो छोडने ही चाहिएँ । अन्यथा क्षमायाचना का 'चाहिए उतना लाभ' नही हो सकता । यदि कदाचित् कर्म उदयवश न छूट सके, तो हार्दिक क्षमायाचना से लाभ ही है, क्योकि ऐसी क्षमायाचना करने वाले को वैर विरोध का पाप बँधेगा, पर चिकना पाप नही बँवेगा । प्र० : जीव-योनि किसे कहते हैं ? उ० : जीवो के उत्पत्ति स्थान को । प्र० : पृथ्वी - कायादि के मूल भेद कितने हैं ? उ० : चार स्थावर के ३५०-३५०, प्रत्येक वस्म्पति के ५००, साधारण वनस्पति और मनुष्य के ७००-७००, तीन विकलेन्द्रिय के १०० - १०० तथा शेष नारक, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय श्रोर देवता के २००-२००, मूल भेद है । प्र० : मूल भेद ध्यान मे रखने का सरल उपाय क्या है ? उ० : 'एक लाख के पीछे ५० मूल भेद होते हैं ।' 'यह स्मरणं रखना । प्र० : पृथ्वीकाय आदि के ३५० आदि मूल भेद ७,००,००० आदि उत्तरभेद कैसे बनते हैं ? उ० : इन मूल ३५० यादि भेदों को क्रमशः ५x२×५X २०००, से गुना करने पर, या इनके परस्पर गुरणन से होने वाली ८५ संख्या से गुरणन करने पर बनते है । प्र० : इस प्रकार गुरणन क्यों किया जाता है ?
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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