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जयपुर (खानिया) तत्त्वचची
और
उसकी समीक्षा
प्रथम भाग
( प्रश्नोत्तर १, २, ३, ४ की समीक्षा )
समीक्षा- लेखक
सिद्धान्ताचार्य पण्डित वंशीधर व्याकरणाचार्य
न्यायतीर्थ, जैन दर्शन - साहित्यशास्त्री बीना (सागर), म०प्र०
सम्पादक
न्यायालंकार, न्यायरत्नाकर
डॉ० पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य
वाराणसी, ( उ० प्र०)
प्रकाशक
श्रीमती लक्ष्मीबाई (पत्नी पं० वंशीधर शास्त्री) पारमार्थिक फण्ड बीना (मध्य प्रदेश)
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समर्पण सिद्धान्तरत्न न.पं. रतनचन्द्रजी मुख्तार सहारनपुर
सादर समर्पित
-वंशीषर शास्त्री
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प्रकाशकीय
स्व. श्रीमती लक्ष्मीबाई (पल्नी पं० वंशीधर शास्त्री) पारमार्थिक फण्ड, बोना-इटावासे "पानिया तत्समन और उराकी ग़मीना" भाग १ का प्रकाशन करते ए. मुझे परग हर्ष हो रहा है। यह ग्रन्थ इस फण्डसे प्रकादिति होनेवाला दूसरा ग्रन्थ है। इसके पूर्व इरा फण्डसे "जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार'. ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है, जो अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्री पुरस्कृत है ।
"जन गासनमें निश्चय और व्यवहार" ग्रन्धके प्रकाशकीयमें यह विश्वास प्रगट किया गया था कि "फण्डये ग्रन्थ-प्रकाशनका यह क्रम सतत जारी रहेगा और संभवतः इसका दूसरा प्रकाशन 'सानिया तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा' होगा, जिसमें ४-५ वण्ड हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रश्नवी तत्वचर्चा संबन्धी सामग्रीके साथ ही उसकी समीक्षा सम्बन्धी सामग्रीका उसमें प्रकाशन किया जायंगा।" इराकी क्रियात्मक परिणति प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन है, जो निश्चय ही कम हर्षका विषय नहीं है।
जैन शासन निश्चय और व्यवहार' तथा 'खानिया तत्त्वच की समीक्षा' ये दोनों ग्रन्थ सिद्धांताचार्य पं० वशीधरजी व्याकरणाचार्यकी कृतियां हैं। इनसे पूर्व पं० जीके महत्त्वपूर्ण 'जैन तत्त्व-मीमांसाकी मीमांसा' (भाग १) व 'जन दर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक-व्यवस्था' ये दो अन्य स्त्र १० राजेन्द्रकुमारजी न्यावतीर्थ, मथुराने जन संस्कृति सेवक समाजसे प्रकाशित कराये थे ।
उक्त चारों अन्ध सोनगढ़-मान्यताओं के एकान्त मिथ्यापनको उजागर करनेके लिये लिखे गये है और मेरा विश्वास है कि ये ग्रन्थ इसको पूतिमें सफल सिद्ध होंगे।
सिद्धांताचार्य पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य हमारे पूज्य पिताश्री है। इन्होंन उक्त उद्देश्यकी पूर्ति के लिए हमारी पूज्या माता स्व० श्रीमती लक्ष्मीबाईको चिर-स्मृतिमें पारमार्थिक फण्डकी स्थापना की थी, जिसका आधार और संरचना निम्नांकित रूपमें उनके द्वारा स्वयं लेखबद्ध की गई थी।
"जबसे मैंने सोनगढ़ साहित्य और उसका अनुसरण करनेवाले साहित्यके विरुद्ध सैद्धान्तिक लेखनी चलाना प्रारम्भ किया तभीसे मेरे मस्तिष्कमें इस प्रकारका विकल्प चलता रहा कि यदि मेरे द्वारा निर्मित साहित्य के प्रकाशनको व्यवस्था कदाचित् किसी अन्य स्थलसे न हो सके तो उसके प्रकाशनके लिए एक फण्डका निर्माण किया जाये व उसका उपयोग उपर्युक्त कार्यके अतिरिक्त अन्य कल्याणकारी कार्योंमें भी आवश्यकतानुसार यदि सुविधा हो तो किया जावे, लेकिन मुख्य कार्यको दुर्लक्षित किसी भी हालतमें न किया जाने । ___मैंने ४ जुलाई सन् १९७४ से सामान्य रूपसे फण्ड-निर्माणके अनुकूल अपनी प्रवृत्तियां आरम्भ कर दी थी। इसी बीच २५ सायें भगवान् महावीर निवणि महोत्सवके उपलक्ष्यमें श्री वीरनिर्वाण भारती मेरठने विद्वानोंका सम्मान करमेकी योजना प्रारम्भ की, जिसके अन्तर्गत श्री १०८ उपाध्याय मुनि विद्यानन्दजी महाराजके तत्वाधानमें विद्वत्सम्मान-समारोहका एक आयोजन दिल्लीके विज्ञान-भबनमें दिनांक २५ अक्टूबर, १९७४ को किया गया था । इसमें अन्य १४ विद्वानों
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा के साथ मुझे भी सम्मानित किया गया था। इस सम्मानमें स्वर्णपदक, प्रशस्ति-पत्र व कीमती ऊनी शालके साथ २५००-दो हजार पाँच सौ रुपयोंकी निधि महामहिम उपराष्ट्रपति श्री बी. डी. जत्ती महोदाके करकमलोंसे प्रत्येक तिहानको समर्पित की गई थी।
मैंने २५००-रुपयोंकी इस निधिका उपयोग फण्ड-निर्माणमें करनेकी रूपरेखा निश्चित की थी । अतः दिनांक ९ फरवरो, सन् १९७५ को मेरी पत्नी श्रीमती लक्ष्मीबाईका स्वर्गवास हो जानेपर उनकी स्मृति बनाये रखने के उद्देश्यसे अपनी तरफसे भी उसमें धनराशि मिलाकर मेरे द्वारा फण्डको मूर्तरूप दे दिया गया। इस तरह मिति कार्तिक वदी अमावस संवत् २०३४, दिनांक ११ नवम्बर सन् १९७७ को फण्डकी राशि २०९३७ रुपये ७० पैसे बीस हजार नौ सौ सतीस रुपए सत्तर पैसे है । इस दिन तकका आय-व्ययका हिसाब निम्न प्रकार हैजमाकी विगत
खर्चकी विगत २५००)०० तारीख २-११-७४ को सम्मान-निधि ७५६)०० दिनांक ४-७-७४ से १२७१)५१ तारीख १०--.-७५ को कृषि आय
दिनांक ११-११-७७ तक खर्च १३१५)७३ तारीख १८--७-७६ को कृषि-आय २०९३७)७० शेष रहा दिनांक १५००००० तारीख १२--९--७७ को जमा किया
११-११-७७ को १६.६)४६ तारीख ११-११-७७ तक का व्याज २१६९३)७०
२१६९३)७० अभी तक इस पारमार्थिक फण्डको रांचालन-व्यवस्था लिखित रूपमें तैयार नहीं की गई थी, अतः उसे लिखित रूप दे रहा हूँ। पारमाथिक फण्डको संरचना और संचालन-व्यवस्था
१. फण्डका नाम-इस पारमार्थिक फण्डका नाम "स्व. श्रीमती लक्ष्मीबाई (पत्नी ५० वंशीधर शास्त्रो) पारमार्थिक फण्ड, बीना-इटावा" है ।
२. फण्डका उद्देश्य-- इसका उद्देश्य दिगम्बर जैन संस्कृतिकी मूल-मान्यताओंका संरक्षण व प्रचार करना है । इसकी पूर्ति माहित्य प्रकाशन द्वारा की जायेगी।
३. यतः यह फण्ड वैयक्तिक है अतः इसका संचालन जब तक मैं (वंशीधर शास्त्री) जीवित हूँ तब तक मैं ही करूंगा । मेरी मृत्यु पश्चात् इसका संचालन क्रमशः मेरे पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि तब तक करते रहेंगे जब तक इसमें धनराशिका सदभाव रहेगा।
४. फण्डके मूल उद्देश्यकी पूर्तिके लिए मूल धनराशिका भी उपयोग किया जा सकेगा। इतना अवश्य है कि इसके संवर्धन करनेका यथासंभव प्रयत्न किया जायेगा, जिससे यह अधिक-से अधिक स्थायित्वको प्राप्त कर सके ।
५. संचालकके कर्तव्य(क) संचालक फण्ड-निधिका उपयोग उद्देश्यको पूर्ति में ही करेंगे।
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(ख) फण्ड - निधि में वृद्धि करनेका भी संचालक यथासम्भव प्रयत्न करते रहेंगे। यदि इसके लिये कहीं से आर्थिक सहायता प्राप्त होगी तो उसे भी वे सहर्ष स्वीकार करेंगें !
(ग) फण्डकी उद्देश्य पूतिके प्रयत्न में संचालक सतत जागरूक रहेंगे । (घ) फण्डके आय-व्ययका व्यवस्थित हिसाब लिखित रूप में ही रखेंगे ।
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(ङ) आवश्यकता और अनुकूलता के अनुसार उद्देश्य की पूतिके लिये कार्य-प्रणालीको विस्तृत करनेकी ओर भी लक्ष्य रखेंगे ।
(च) आवश्यकता होनेपर वे इसे पंजीबद्ध भी शासन द्वारा करावेंगे और यदि आवश्यकता हुई तो वे इसे ट्रस्टका रूप देनेमें संकोच नहीं करेंगे ।
फण्डको निधिको व्यवस्था
(क) फण्डकी निधि वर्तमान में फर्म पं० वंशीधर सनतकुमार बीना- इटावा में जमा रखी गई है। भविष्य में भी वहीं जमा रहेगी, जिसके ऊपर फर्म इस पारमार्थिक फण्डको ५० पैसे प्रतिशत माहवारी ब्याज देता है और देता रहेगा ।
(ख) संचालक समझें तो निधिको किसी बैंक में भी जमा करा सकते हैं ।
(ग) फण्ड के आय-व्ययका हिसाब वार्षिक तैयार किया जायेगा । वर्षकी समाप्ति कार्तिक यदी अमावसको मानी जावेगी ।
(घ) उद्देश्य पूर्ति के लिए आवश्यक होनेपर संचालक चाहे जितनी रकम फर्मसे एक मुस्त ले सकेंगे ।
मैं घोषणा करता हूँ कि इस पारमार्थिक फण्डका निर्माण मैंने स्वेच्छासे अपने तन और मनकी पूर्ण स्वस्थ अवस्था में बिना किसी भय व द बावके लिखकर कर दिया सो सनद रहे । दिनांक १२ नवम्बर सन् १९७७ मिति कार्तिक सुदी २, संवत् २०३४ शनिवार व कलम खुद वंशीधर शास्त्रीको ।
दः वंशीधर शास्त्री
गवाहः
१. उपर्युक्त पारमार्थिक फण्डका निर्माण पं० वंशीधरजीने स्वयं लिखकर किया और मेरे सामने स्वेच्छा से हस्ताक्षर किये - - (सही) दः बालचन्द शास्त्री दिनांक १२-११-७७ ।
२. उपर्युक्त पारमार्थिक फण्डका निर्माण पं० वंशीधरजीने स्वयं लिखकर किया और मेरे सामने स्वेच्छासे हस्ताक्षार किये - (सही) द: दुलीचंद्र, दि० १२-११-७७ ।
फण्डको प्रवृत्तियां वर्तमानमें इसी आधार पर हैं।
push आमव्ययका हिसाब दिनांक १२-११-७७ से २७-१०-८१ तकका निम्न प्रकार है
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
नामे
जमा २०९३७०७०पिछली बाकी सिलक रोकड़में दिनांक ६५९८-५६ ग्रन्थस्वाते नामे .७-१०-८१ को १२-११-७७ को २०९३७ = ७० पै०
१. 'जैन शासनमें निश्चय और व्य२०० - ०० थी प्रो० हुकमचन्द जी जैन छतरपुर
बहार', २. 'जैन तत्व-मीमांसाकी से आया दि. ३-६-७८ को २००.००
मीमांसा' (भाग १), ३. 'जैन दर्शनमें
कार्य-करणभाव और कारक-व्यवस्था १००० ००० श्री भा. दि.जैन विद्वत्पषिदरसे प्राप्त
प्रन्थों में लगी पूंजी ६५९८ - ५६ "जन शासनमें निश्चय और व्यवहार''
१४.७ % ६२ फूटकर खर्च १२-११-७७ से २७-१०ग्रन्थपर पुरस्कार-निधि, दिनांक
८१ तक १४-६-८० को १०००=००
५३३१ = ६० कागज खरीद स्मानिया तत्व-चर्चा ४२४५ = ४१ ज्याज दि. १२-११-७७ से २७-१०
और उसकी समीक्षाके मुद्रण के लिये ८१ तकका ४२४५ - ४१ १०७९ - ६५ ग्रन्थ-बिक्री २७-१०-६१ तककी ८४० - १५ थी पं० दरबारीलालजी कोठिया
वाराणसोके पास जमा बाइडिंगके ५३०० = 00 श्रीमती गुणमाला जैन क्लर्क स्टेट
कपड़ा खरीदके लिए २७-१०-८१ को बैंक बीनाका देना दि० २.१-१०-८१ को ५३०० - ००
१९५० आचार्य महावीरकीति "संस्था
आवागढ़से लेना २७-१०-८१ को ३२७६२ = ७६ पैसे
१९५० १६७९५ = ३५फर्म पं० बंशीधर सनसकुमार बीनासे लेना ता. २७-१०-८१ को
१६७९५ - ३५ ३०२९ - ९८ सिलक बाकी रोकड़म २७-१०-८१
३०२९ - ९८
३२७६२७६
'जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार' ग्रन्थको केवल ५०० प्रतियाँ मद्रित कराई गई थी। इसमें यह हेतु बताया गया था कि समाजमें साहित्यिक रुचिका अभाव होने और स्वाध्यायी व्यक्तियों के लिए उपयोगी होनेसे बिक्रीकी संभावना कम है। यही बात 'स्वानिया तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा' प्रन्थके मुद्रणके विषय में भी है। अत: इसको भी मात्र ५०० प्रतियाँ छपवाई गई है। अन्यका मुद्रण सुन्दर और बाइडिंग टिकाऊ होना चाहिए, इस बातका ध्यान 'जन शासनमें निश्चय और व्यवहार' ग्रन्धके प्रकाशनको भौति प्रकृत ग्रन्थ 'जयपुर खानिया) तत्त्वचर्ना और उसकी समीक्षा के प्रकाशनमें भी रखा गया है। अन्य बड़ा होनेसे इसकी पूरी दाइडिंग अढ़िया कपड़ेकी कराई गई है।
इस ग्रन्थ के प्रकाशित हो जानेपर अब फण्डके स्टाकमें इस सहित 'जन शासनमें निदवय और व्ययहार', 'जैन तत्व-मीमांसाकी मीमांसा' (भाग १) और 'जैन दर्शनमें कार्य-कारणभाष और कारकाव्यवस्था' ये
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सभी ग्रन्थ उपलब्ध हैं । ये सोनगढ़ विचारधाराको निःसारताको स्पष्ट कर जैन संस्कृतिके सैद्धांतिक पहलूपर उत्तम प्रकाश डालते हैं ।
आशा एवं विश्वास है कि रामाज के प्रबुद्ध पाठक इसका समादर करेंगे। तथा साहित्य प्रचारके अनुरागी इसको अधिक प्रतियां मंगाकर विद्वानों, साधु-सन्तों और लायब्रेरियोको वितरित करेंगे। दिनांक - २०- २ - ८१
निवेदक— विभव कुमार जैन मंत्री
स्व० श्रीमती लक्ष्मीबाई ( पत्नी पं० बंशीधर शास्त्री ) पारमार्थिक फण्ड, बीना-इटावा ( सागर ) म०प्र०
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अपनी बात
तत्त्वकी पृष्ठभूमि
सन् १९६३ के प्रारंभ में श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनी से बात-चीत के प्रसंग मृझे यह जानकारी मिली कि पं० फूलचंद्रजी सिद्धांतशास्त्री, वाराणसी "जैन तत्व मीमांसा" पुस्तकको सशोधनके साथ पुनः प्रकाशित करना चाहते हैं। मैंने इरा जानकारीके आधार पर पं० फूलचंद्रजी को इस आशयका पत्र लिखा कि यदि आप "जैन तत्त्व - मीमांसा" पुस्तकको संशोधन के साथ पुनः प्रकाशित कर रहे हों तो मेरी हार्दिक भावना कि उसके प्रकवाले पूर्व आप और मैं कुछ तत्त्व-विमर्श कर लें। पं० फूलचंद्रजीका इस संबंध में जो उत्तर आया था उसका आशय यह था कि यदि में सामूहिक तस्वचर्चाका आयोजन करने में उनका सहयोगी बनूँ तो उत्तम होगा ।
यद्यपि मैं सामूहिक तत्त्वचर्चाका पहले से विरोधी ही था, क्योंकि मेरी धारणा थी कि इस आयोजन से कुछ लाभ नहीं होगा । परन्तु पं० फूलचंद्रजीने जब यह विश्वास दिलाया कि उनकी हार्दिक भावना तत्वनिर्णय करने की है तो मैंने उन्हें लिख दिया कि आप जब बोना पधारें तब आपके इस प्रस्तावपर विमर्श कर लिया जायेगा । यतः पं० फुलचंद्रजीको उस समय बीना आनेका शीघ्र योग मिल गया था, अतः उनके आने पर दोनोंने विमर्श करके एक संयुक्त वक्तव्य तैयार कर अल्प कालमें ही समाचारपत्रों में प्रकाशनार्थ भेज दिया था ।
उस समय फूलचंद्रजीने मुझसे यह भी पूछा था कि तत्वचर्चा के लिए कौन-सा स्थान उपयुक्त होगा ? इस पर मेरा उत्तर यह था कि जो स्थान आपको अधिक अनुकूल हो उसे दूसरा पक्ष निर्विवाद स्वोकार कर लेगा । परन्तु जयपुर-खानियां में श्री १०८ आचार्य शिवसागरजी महाराजके समक्ष एकाएक यह निर्णय कर लिया गया कि तत्त्वचर्चा खानियां में हो और उसका प्रारंभ २० अक्टूबर सन् १९६३ से किया जाये | इतना हो नहीं, यह निर्णय होने हो तत्त्वचर्चाके आयोजन में संभाव्य व्ययक बनका भार अपने ऊपर लेकर श्री ० सेठ होरालालजी पाटनी, निवाई वालोंने ब्र लाडमलजीके साथ मिलकर उभयपक्ष के ३४ विद्वानोंको २० अक्टूबर के संकेतपूर्वक तत्त्वचर्चाका आमंत्रण-पत्र तत्काल प्रेषित कर दिया था । तथा तत्त्वचर्चा में रुचि रखने वाले विद्वानोंने अपनी स्वीकृति भी ० लाडमलजी के पास तत्काल भेज दी थी। किन्तु पं० फूलचन्द्रजीने स्वीकृति नहीं भेजी थी। फलतः उनको स्वीकृति प्राप्त करने के लिए व० लाइमलजीको उनके साथ लम्बा पत्राचार करना पड़ा तथा उनको पं० फुलचन्द्रजीकी स्वीकृतिका जब आश्वासन मिला तो समय कम रह जाने के कारण उन्होंने विद्वानोंसे तार द्वारा यह अनुरोध किया कि वे २० अक्टूबर के पूर्व खानिय पहुँचने की कृपा करें। ब्र० जी का तार मिलने पर बहुत से विद्वान तत्काल खानियो यात्रा पर घर से निकल पड़े। शेष कतिपय विद्वान् खानियाँ यात्रा पर चलने वाले ही थे कि उन्हें ब० लाडमलजीका दूसरा तार मिला, जिसका आशय यह था कि पं० फूलचन्द्र जी नहीं आ रहे हैं, इसलिये चर्चा स्थगित कर दी गई है । यह तार मिलने पर उन विद्वानोंने, ( जिनमें मैं भी सम्मिलित था ) अपनी यात्रा स्थगित कर दी थी। परन्तु २० अक्टूबर को पं० फूलचन्द्रजी जब एकाएक खानियाँ पहुँचे तो व्र० लाडमलजीने तीसरी बार तार द्वारा विद्वानों को सूचित किया कि पं० फूलचन्द्रजी खानियाँ पहुँच चुके हैं, अतः शीघ्र खानिय पहुँचें । फलतः पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर और मैं २१ अक्टूबरको चलकर २२ अक्टूबर के प्रातः खानियाँ
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अपनी बात पहुँच सके । श्री पं० अजितकुमारजी शास्त्री आदि कतिपय अन्य विद्वान् भी २२ अक्टूबर के प्रातः ही खानियो पहुंच सके थे । पं० फूलचन्द्रजी सहित जो विद्वान् २० अक्टूबरको स्वानियाँ पहुँच चुके थे उन्होंने २१ अक्टूवरको एक साथ बैठकर तत्त्वच की प्रक्रियाको व्यवस्थित रूपसे सम्पन्न करने के लिए आवश्यक नियम निर्धारित किये थे और उन्हीं नियमोंके आधारपर खानियाँमें २२ अन्नद्रवरसे एक नवम्बर तक तत्वचर्चाक दो दोर सम्पन्न हुए थे।
यहाँ मैं बतलाना चाहता है कि पं० फूलचन्द्रजीने बीनामे मेरे सभक्ष यह प्रस्ताव भी रखा था कि तत्त्वच में उभयपक्षसम्मत प्रश्नही विचार के लिये स्वीकृत होंगे और उनपर विचार करनेकी प्रक्रिया यह होगी कि उन प्रश्नोंपर सर्वप्रथम दोनों पक्ष अपना-अपना मन्तब्य आगम-प्रमाण सहित लिखकर एक दूसरे पक्ष के समक्ष प्रस्तुत करेंगे । इराधा पश्मात् दूसरे दौरमै दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पक्ष से प्राप्त उन मन्तव्यों पर आगम-प्रमाण सहित अपनो लिखित आलोचनायें परस्पर में प्रस्तुत करेंगे और तीसरे (अंतिम) दौर में दोनों ही पक्ष एना-दुसरे पक्षसे प्राप्त उन आलोचनाओंका उत्तर आगम-प्रमाण सहित लिखकर एक-दूसरे पक्षके सामने रखगे।
मन पं० फूलचन्द्रजीके इस प्रस्तात्रको सहर्ष मान लिया था। परन्तु उनसे उक्त प्रस्ताव लिखित रूपमें नहीं लिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि खानियाँ में तत्त्वच के अवसर पर पं० फूलचन्द्र जीने अपने सहयोगी सोनगढके प्रतिनिधि पं० मिचन्द्र जी पाटनो के प्रभाव में आकर अपना उपयक्त प्रस्ताव समाप्त कर दिया था। इस तरह तत्व अपने निर्णीत रूपको खोकर शंका-समाधानकै रूपमें परिवर्तित हो गई थी। फलतः प्रश्नोंका निर्धारण करने में हमारे पक्षका प्रमुख हाथ होनेसे हमारा पक्ष तो शंका-पक्ष बन गया था और सोनगढ़-पक्ष समाधान-पक्ष हो गया था। प्रस्तुतमें पाठकोंसे निवेदन
यहाँ यह ध्यातव्य है कि सोनगढ़पक्ष ने तत्वचमि सर्वत्र शंकापक्षको 'अपरपक्ष' नामसे सम्बोधित किया है और मैंने उस (तत्त्वची) को इस समीक्षामें कांकापक्षको 'पूर्वपक्ष' तथा समाधानपक्षको 'उत्तरपक्ष' नाममे गभिहित किया है। अतः पाठक महानुभाव तत्वचचकिी इस समीक्षाका स्वाध्याय करते समय इन सम्बोधनोंका ध्यान रखेंगे, ऐसा निवेदन है। उनसे मेरा यह भी निवेदन है कि 'अपनी दात' नामसे लिखी प्रस्तुत प्रस्तावना मैंने आमे सोनगढको 'सोनगढ़पक्ष' और इतर पक्षको 'अपरपक्ष' नामोंसे सम्बोधित किया है। वे इसका भी ध्यान रखें। तत्वच क प्रकाशनके सम्बन्धमें---
वानिवौं तत्वच का प्रवाशन आचार्यकल्प पं. श्री टोडरमल अन्धमाल, जयपुरसे हुआ है। वह ग्रन्थमाला सोनगढ़ की ही संस्था है और सोनगढ़ खानियाँ तत्त्वचमि एक पक्ष था। उक्त तत्त्वचर्चाका प्रकाशकीय ग्रन्थमालाके व्यवस्थापक पं० नेमिचन्मजी पाटनीने लिखा है और पाटनीजी उस तत्वचचमि सोनगढ़की ओरसे एक प्रतिनिधि थे। तथा उसका सम्पादकीय पंक फूलचन्द्रजीने लिखा है। पं० फूलचन्द्रजी उस चमि सोनगढ़पक्ष के मध्य प्रतिनिति ।
गद्यपि मैं यह नहीं कहना चाहता कि उस ग्रंथमालाको स्वानिया तत्वचर्चाका प्रकाशन नहीं करना था और न मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि पाटनौजीको उसका प्रकाशकीय व पं० फूलचन्द्रजीको उसका सम्पादकीय नहीं लिखना था । परन्तु तथ्य यह है कि खानिया तत्त्वचाका प्रकाशन करने तथा उसका प्रकाशकीय पसम्पादकीय लिखने से पूर्व उन महानुभावोंको निश्चित ही यह सोचना था कि जिस ग्रन्थका प्रकाधान किया जा रहा है और प्रकाशकीय व सम्पादकीय वे लिख रहे है वह मात्र सोनगढ़का हो ग्रन्थ नहीं है। यदि वे
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जयपुर (खानिया) तत्तचर्चा और उसकी समीक्षा महानुभाव यह सोयनेफा प्रयत्न करते तो विश्वास है कि वे जयपुर खानियां तत्त्वचर्चाको केवल (सोनगढ़) पक्षके प्रचारका साधन नहीं बनाते ।
यहाँ मैं एक बात यह भी कहना चाहता हूँ कि उक्त ग्रन्थमालाकी तरफसे प्रकाशित खानिया तत्त्वचर्चाके दोनों भागोंके प्रारम्भमें जो सातच! समीपरहिकोंगी बोटो पापियां मनिकाली गई हैं उनके उस मुद्रणमें भी हमें यद्यपि कोई आपत्ति नहीं होती, परन्तु उनके उस मुद्रण में इसलिये आपत्ति है कि उसमें उन महानुभावोंका उद्देश्य सोनगढ़पक्ष को प्रामाणिक और उचित सिद्ध करने तथा अपरपक्षको अप्रामाणिक और अनुचित बतानेका रहा है, जो दूपित है। इसकी पुष्टि पं० फूलचन्द्रजीके वक्तव्योंसे होती है । खानिया तत्वचर्चाके सम्पादकीय पृष्ठ ३३ पर उन्होंने लिखा है :
"आगेके लिए भी व्यवस्था यह थी कि प्रत्येक सामग्नी एक पक्ष दूसरेके पास मध्यस्थत माध्यम्स ही भेजेगा । परस्परके पत्रव्यवहार में तो इसका पूरी तरहसे पालन होना संभव नहीं था । हाँ, तत्त्यचर्चा सम्बन्धी पत्रकों पर व्यवस्थानुसार मध्यस्थके हस्ताक्षर होना आवश्यक था 1 हमारी ओरसे तो इस व्यवस्थाको बराबर ध्यान में रखा गया। परन्तु अपरपक्षने इसे विशेष महत्व न देकर पूरी सामग्री मरे पाम सीधी भेज दी । इतना संकेत मात्र इसलिये किया है कि अपरपक्षकी तीसरे दौरको सामग्री पर मव्यस्थवे. हस्ताक्षर नहीं है।"
इसके उपरान्त प्रकाशित जैन तत्त्वमीमामा (द्वितीय संस्करण) के 'आत्मनिवेदन' (पृष्ठ ७ व ८) में भी पं० फूलचंद्र जीने लिखा है
१. "नियमानुसार लिखित चर्वा तीन दौरोंगें पूर्ण होनी थी। उनमेसे दो दौरकी लिखित चर्चा तो वहीं सम्पन्न कर ली गई थी। तीसरे दौरकी चर्चा परोक्षमें लिखित आदान-प्रदानसे सम्पन्न हो सकी । नियम यल्छ था कि लिखित रूपमें जो भी सामग्री एक-दूसरे पक्ष को समर्पित यी जायेगी उरा पर सम्मेलन के समय अपने-अपने पक्ष के निर्णीत प्रतिनिधि हस्ताक्षर करेंगे और मध्यस्थके मार्फत यह एक-दुसरेको समर्पित की जायेगी। किन्तु तीसरे दौरकी सामग्री समर्पित करते समय उस पल को ओरसे इस नियमकी पूर्ण रूपसे उपेक्षा की गई, क्योंकि उस पक्षकी ओरसे जो लिखित सामग्री रजिस्ट्री वारा हमें प्राप्त हुई थी उसपर न तो उस पक्षके पांच से चार प्रतिनिधियों ने अपने हस्ताक्षर ही किये थे और न ही वह मध्यस्थकी मार्फत ही भेजी गई थी, उस पर केवल एक प्रतिनिधिने हस्ताक्षर कर दिये और सीधी हमारे पास भेज दी गई।"
२. "उस पक्षके प्रनिनिधि विद्वानों द्वारा ऐसा क्यों किया गया यह तो हम नहीं जानते । फिर भी इस परसे यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि उस पक्षकी ओरसे तीसरे दौरकी जो लिखित सामग्री तैयार की गयी उसमें उस पक्षके अन्य चार प्रतिनिधि विद्वान् सहमत नहीं होंगें । यदि सहमत होते तो वे नियमानुसार अवश्य ही हस्ताक्षर करते और साथ ही नियमानुसार मध्यस्थकी मार्फत भिजाते भी। उन प्रतिनिधि स्वरूप चार विद्वानोंका हस्ताक्षर न करना अवश्य ही तीसरे दौरकी उस पक्षकी ओरसे प्रस्तुत की गई लिखित पूरी सामग्री पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। तत्काल'इस विषय पर हम और अधिक टिम्गणी नहीं करना चाहते । आवश्यकता पड़ी तो लिखेंगे।"
३. “इस प्रकार तीसरे दौरकी प्रतिशंका सामग्री के प्राप्त होनेपर हमारे सामने अवश्य ही यह सवाल रहा है कि हम इसे स्वीकार कर उसके आधारपर प्रत्युत्तर तैयार करें या नियमविरुद्ध इस लिखित सामग्रीके प्राप्त होनेसे हम उसे वापिस कर दें। अन्त में काफी विचार विनिमयके बाद यही सोचा गया कि भले ही यह लिखित सामग्री नियमविरुद्ध प्राप्त हुई हो उसके प्रत्युत्तर तैयार करना ही प्रकृतमें उपयोगी है। और इस
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अपनी बात
प्रकार प्रत्युत्तर तैयार होनेपर नियमानुसार हमारे पक्षके तीनों प्रतिनिधियोंने उसका वाचन किया । तथा वाचन पूरा होनेपर तीनों प्रतिनिधि विद्वानोंने हस्ताक्षर किये और मध्यस्थकी मार्फत भिजा दिया गया।"
ये वक्तव्य स्पष्ट बतलाते हैं कि उल्लिखित फोटो कापियोंके मुद्रणमें पं० फूलचंद्रजीका उद्देश्य सोनगढ़ पक्षको प्रामाणिक और उचित सिद्ध करने तथा अपरपक्ष को अप्रामाणिव और अनुचित सिद्ध करनेका था । पं० फूलचन्द्रजीका यदि यह उद्देश्य नहीं होता तो वे अवश्य ही सानिया में दो दौरोंकी समाप्तिपर तृतीय दौरकी सामग्रीक विषयमें अपरपक्षके सभी प्रतिनिधियों द्वारा लिखे गये अधिकारपत्रपर ध्यान देते । और नब वे खानिया तत्त्वच के सम्पादकीयके उपर्युक्त वक्तव्य व जैन तत्त्व-मीमांसा (द्वितीय संस्करण) के आत्मनिवेदन के उपर्युक्त वक्तव्योंको कदापि नहीं लिखते । जैन तत्व-मीमांसा (त्रितीय संस्करण) के आत्ममिवंदनके उपयुक्त वस्तयों में तो पं० फूलचन्द्र जीने बहुत कुछ अनर्गल लिखते हुए यहाँ तक लिख डाला है कि "तत्काल इस विषय पर हम और अधिक टिप्पणी नहीं करना चाहतं । आवश्यकता पल्ली तो लिखेंगे।"
उपर्युक्त सभी वक्तव्य देखकर ऐसा लगता है कि ५० फूलचन्द्रजीको इस बातपर उस समय अत्यन्त सोम हो गया था कि अपरपक्ष के तृतीय दौरको सामग्रीपर मात्र एक प्रतिनिधिने हस्ताक्षर किये हैं, शेष चार प्रतिनिधियोंने दरापर हस्तादार नहीं किये है। और इस क्षोभसे उनका चित्त इतना पीड़ित हो गया कि वे अपरपक्षके प्रतिनिधियों द्वारा लिखे गये अधिकारपत्रपर ध्यान नहीं दे सके। उस अधिकारपत्रकी प्रतिलिपि निम्नांकित है :
अधिकार-पत्र "हम नीचे लिखे प्रतिनिधि तत्त्वच के अन्तिम (तृतीय) दौरमें सभी प्रतिशंकाओं व दीगर कागजातपर हस्ताक्षर करनेका अधिकार श्री पं० अजित कुमार जी, दिल्लीको या प्रतिनिधियों से जो भी समयपर उपस्थित रहेगा उसे यह अधिकार देते हैं कि वह हस्ताक्षर कर कागजात का आदान-प्रदान करे । इनमेंसे किसीके भी हस्ताक्षर हम लोगों को मान्य होंगे। कोई भी पत्र व्यवहार निम्नांकित पतोंपर किया जा सकता है ।
१. पंडित अजितकुमार शास्त्री, अभय प्रिटिंग प्रेस, अहाता केदारा, पहाड़ी धीरज, दिल्ली । २. पंडित वंशीधर जी व्याकरणाचार्य, वीना (सागर) म०प्र०
दिनांक १-११-६३ सही-जीवन्धर जैन, सही-बंशीधर शास्त्री, सही-पन्नालाल जैन, सही-मक्खनलाल शास्त्री, सही-माणिकचंद्र।
इस अधिकार पत्र द्वारा मुझे अधिकार दिया गया है वह मुझे स्वीकार हैं। सहीअजितकुमार।
सही-बंशीधर जैन (मध्यस्थ) १-११-६३ प्राप्त कीसही-जगन्मोहनलाल जंन १-११-६३
नोट :-१. इसकी प्रामाणिक एक प्रतिलिपि मैंने प्रतिशंका तीनकी सम्पूर्ण सामग्री के साथ वि० २८-१-६४ को श्री पं० फूलचन्द्र जी वाराणीके मांगने पर उनको रजिस्ट्री द्वारा पुनः भेज दी थी। तथा इसके साथ आवश्यक स्पष्टीकरण भी भेजा था।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा २. इसकी प्रामाणिक दूसरी प्रतिलिपि मैंने प्रतिशंका तीनको सम्पूर्ण सामग्रीके साथ दि० २८-३-६४ को ही पं० वंशीधरजी न्यायालंकार (मध्यस्थ) को भी रजिस्ट्री द्वारा भेज दी थी। तथा इसके साथ भी यावश्यक स्पष्टीकरण भेजा था।
इस तरह अपरपक्षकी ओर से सभी प्रतिनिधियोंके हस्ताक्षर न होते हुए भी जो तृतोय वोरकी सामग्री पं० फूलचन्द्रणी वाराणसीको व पं० घंशीधरजी न्यायालंकार (मध्यस्थ) को मैंने भेजी श्री यह प्रतिनिधियों द्वारा प्रदत्त अधिकार-पत्रके आधारपर ही भेजी गई थी। इसलिये उसके भेजनेमें नियमके उल्लंघनका प्रश्न खड़ा ही नहीं होता। अतः मेरे अतिरिक्त दूसरे चार प्रतिनिधियोंके उसपर हस्ताक्षर न होनेसे पं० फूलचन्द्रजीने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि 'तृतीय दौरकी सामग्रीसे अन्य प्रतिनिधि विद्वान् सहमत नहीं होंगे' उसे कल्पित ही कहा जा गका है। इसके अतिरिका यदि
जी ह मले है कि शेष चार प्रतिनिधि अपरगशकी तृतीय दौरकी सामग्रो संभवतः सहमत नहीं थे । लो जनका इसपर क्षोभ करना या आपत्ति उपस्थित करना व्यर्थ है । इससे तो उन्हें प्रसन्नता ही होनी चाहिए थी, क्योंकि अपरपक्षके चार प्रतिनिधियोंका उनको समझसे सोनगढके अनुकल हो जाना उनकी महत्त्वपूर्ण सफलता थी। परन्तु यह बात स्थलबलि व्यक्तिको समझ में भी आ सकती है कि जो प्रतिनिधि क्विान अपरपक्षको प्रथम और द्वितीय दीरोंकी सामग्रीसे सहमत रहे हैं वे तृतीय दौरकी सामग्रीसे कसे असहमत माने जा सकते है, जब तक कि वे अपने मतपरिवर्तनको स्पष्ट घोषणा न करें। इतने पर भी यक्षि पं. फलचन्द्रजी यह समझते हों या उन्होंने सम विवानोंखे यह जानकारी प्राप्त कर ली हो कि वे विद्वान् सोनगढ़ पक्षकी दृष्टिसे प्रभावित हो गये है तो इसपर अपरपक्षको लिये कुछ कहना नहीं है । किन्तु इसमें सोनगढ़पक्षको या पं० फूलचंद्र जीको ही सोचना है कि इस तरहके कल्पित या महत्त्वहीन आधारोंपर क्या सोनगढ़का पक्ष वास्तविक सिद्ध हो सकता है ' पथार्थमें तो उन महानुभावोंको सोनगढ़का पक्ष वास्तविक सिद्ध करने के लिए मुक्तियों और आगम प्रमाणोंकी ही महायता लेनो आवश्यक होगी। एवं उन्हें अपनी वृत्तियों और प्रवृत्तियोंका समन्वय भी अध्यात्मके साथ करना होगा ।
उन महानुभावोंसे मेरा कहना है कि उनको परस्पर विरोधी निम्न दो घटनाओंके आधारपर अध्यात्मके विषसमें अनेक बार सोचना चाहिए कि एक ओर तो उनके अध्यात्मवादके सूर्यको शारीरिक व्याधि सहन न कर सकने के कारण बम्बईके जसलोक अस्पतालमें सदाके लिये अस्त होना पड़ा और दूसरी ओर प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद गणेशप्रसादजी वर्णीके पैरमें ललितपुरमें जब भयानक विपला फोड़ा प्रगट हुआ तो वे उसकी वेदनाको अपने आध्यात्मिक तेजके आधारपर ही शान्तिपूर्वक सहन करते हए अपनी शान और ध्यान आदिझी दैनिक नामें सामान्य रूपसे प्रवृत्त रहे। इतना ही नहीं, उरा फोड़ेको देखकर लाला राजकृष्णजी, दिल्ली वाले वर्णीजीके पास डॉक्टरको ले आये। जब डॉक्टरने उनसे कहा कि महाराजको आपरेशनके लिये अस्पताल ले चलिये, तब वणींजीने दृढ़ताके साथ अस्पताल जानेसे मना कर दिया। वर्णीजी अस्पताल नहीं गये और डॉक्टरने वहीं क्षेत्रपालमें ही उनका आपरेशन किया था। वर्णीजीने लेटकर आपरेशन कराने तथा क्लोरोफार्म मुंबनसे भी दृढतापूर्वक मना कर दिया था और चर्चा करते हुए बैठे-बैठे ही बड़ी शान्तिसे ऑपरेशन करा लिया था। डॉक्टर वर्णीजीकी इस आध्यात्मिक दृढ़ताको बेखकर बहत प्रभावित हुआ एवं नतास्तत्र हो गया था । आध्यात्मिकताको समझनेके लिये ये दो उदाहरण उपयुक्त एवं पर्याप्त है।
इन परस्पर विरोधी पूर्व और पश्चिम जैसी दोनों घटनाओंके आधारपर सामान्य जन भी अध्यात्मको पष्टतया समझ' सकता है। उसके लिये अध्यात्मके समझने में तत्व-विवेचनाको भी आवश्यकता नहीं है।
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अपनी बात एक बात और है । यह यह कि उपर्युक्त वक्तव्योंमें पं० फूलचन्द्रजीने जो यह लिखा है कि "इस प्रकार तीसरे दौरको प्रतिशंकासामग्री के प्राप्त होनेपर हमारे सामने अवश्य ही यह सवाल रहा है कि हम इसे स्वीकार कर उसके आधारपर प्रत्युत्तर तैयार करें या नियमविरुद्ध इस लिखित सामग्री के प्राप्त होनेसे हम उसे वापिस कर दें।"
मेरा मत है कि पं० फूलचन्द्र जी या समस्त सोनगढ़ पक्ष प्रतिशंका तीनकी उस सामग्रीको नियमविरुद्ध कहकर. कदापि वापिस नहीं करते, क्योंकि उसे वापिस करने के प्रतिकूल परिणामको वे अच्छी तरह समझते थे। अतएवं सामग्रीको जो उन्होंने वापिस नहीं किया वह अपरिपक्षके प्रति उनकी उदारता या दया नहीं थी, अपितु वह उनकी प्रतिष्ठाका प्रश्न थ।। उपर्युक्त लिखनेमें उनका उद्देश्य केवल अपरपक्षको अप्रामाणिक और अयोग्य प्रचारित करना था | मैं पं० फूलचन्द्रजी और समस्त सोनगढ पक्षकी इस मनोवृत्तिको समझता था, अतः मैंने प्रतिशंका तीनकी सामग्रीके साथ पं० फूलचन्द्रजी और मध्यस्थजी दोनोंको जो विवरण पत्रकी प्रति भेजी थी उसमें सभी आवश्यक बातें सष्ट कर दी गई थीं।
इसके अतिरिक्त उस सामग्रीपर मध्यस्थके हस्ताक्षर न होना कोई महत्वपूर्ण श्रुटि नहीं थी, जिसके कारण वह सामग्री सोनगढ़पक्षके लिए विचारके अयोग्य हो जाती । पं० फूलचन्द्र जी और समस्त सोनगढ़ पक्ष इस तथ्यको जानते भी थे । यही कारण है कि उस सामग्रीको वापिस न कर उसपर सोनगढ़ पक्ष द्वारा विचार किया गया।
पं० फूलचन्द्रजीने जयपुर-लानिया तत्त्वचर्चाके सम्पादकीय पृष्ठ ३३ पर उसी जैसे अन्य नियमों के चल्लंघनके विषयमें लिखा है कि 'सम्मेलनकी कार्यवाही तारीख २१-१०-६३ से १-११-६३ तक चली थी। इन दिनोंमें तत्वचर्चा के दो दौर सम्पन्न हो चुके थे। तीसरा दौर होना शेष र । किन्तु सभी विद्वान् अपनेअपने घर जाने के लिये उत्सुक थे। इसलिये तीसरे दौरको सम्पन्न करनेके लिये अलगसे नियम बनाये गये । किन्तु उन नियमोंमेंसे पृष्ठसंख्या और समयकी मर्यादा निश्चित करने वाले नियमोंका दोनों ओरसे समुचित पालन न हो सका । परन्तु इससे तीसरे दौरको सम्पन्न करने में कोई दावा नहीं आयीं ।'
इससे सहज ही इस निष्कर्षपर पहुँचा जा सकता है कि यतः पृष्ठसंख्या और समयकी मर्यादा निश्चित करनेवाले नियमोंका उल्लंघन सोनगढ़ पक्षने भी किया था, फिर भी उसे तो उन्होंने युक्त बतला दिया, लेकिन मध्यस्थ के हस्ताक्षर सम्बन्धी नियमका उल्लंघन बतः केबल अपरपक्षने किया था, अत: उसको ही उन्होंने अयुक्त बतलाया । पं० फूलचन्द्रजी और समस्त सोनगढ़ का यह कार्य न्याय और विवेकके अनुसरणका नहीं माना जा सकता है। मैं तो इरो उनका चातुर्य ही कहूंगा कि उन्होंने अपने अनुकूल और अपरपस के प्रतिकूल प्रचार करने हेतु संगत-असंगत और सच-झूठ सभी उपायोंका सुन्दर ढंगसे उपयोग किया है ! अस्तु । प्रस्तुत समीक्षा-ग्रन्थ
१. प्रस्तुत ग्रन्थ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चाकी संगोक्षाका प्रथम खण्ठ है । इसमें उक्त चर्चाक सभी-१७ प्रश्नोत्तरोंमसे वेबल आदिके चार प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा की गई है। शेष १३ प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा आगामी खण्डोंमें की जायेगी।
२. इस खण्डमें उपत चारों प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षाके चार-चार प्रकरण निर्धारित किये गये है(१) सामान्य समीक्षा, (२) प्रथम दौरकी समीक्षा, (३) द्वितीय दौरकी समीक्षा और (४) तृतीय दौरकी समीक्षा।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
विषय-परिचय
१. अपरपक्ष और मोनगढ़पक्षके मध्य विवादका प्रथम विषय यह था कि जहाँ अपरपक्ष द्रव्यकर्म के उदयको संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण के होने में सहायक मानता है वहाँ सोनगढ़पक्षका कहना हैं कि संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण द्रव्यकर्मके उदयके योगके बिना स्वकीय योग्यता के आधारपर स्वयं (अपने-आप ) ही होता है । द्रव्यकर्मका उदय उसमें सर्वथा अकिंचितकर ही बना रहता है इस विवादको समाप्त करनेके लिये ही वरपर पक्षने सोनगढ़पक्ष के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया था कि "द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं ?" परन्तु इस प्रश्नके उत्तर में सोनगढ़पक्ष ने जो यह लिखा है कि 'द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण में व्यवहारसे निर्मित नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्त्ता कर्म सम्बन्ध नहीं है।' इस उत्तरसे एक तो अपरपक्ष के प्रश्नका समाधान नहीं होता, क्योंकि प्रदनमें यह नहीं पूछा गया है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण में निमित्तनैमित्तिक संबंध व्यवहारसे है या विषयसे ? तथा यह भी नहीं पूछा गया है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुररीतिभ्रमण में कर्तृकर्म सम्बन्ध है या नहीं ? जबकि इनका समाधान ही इस उत्तरवचन से हो सकता है और जो यह पूछा गया है कि द्रव्य कर्मके उदयसे संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं ?" इसका उससे समाधान नहीं होता । दूसरी बात यह है कि अपरपक्ष भी द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको निश्वयसे न मानकर व्यवहारसे हो मानता है तथा सोनगढ़पक्ष के समान उसमें कर्तृकर्म सम्बन्धको अपरपक्ष भी नहीं मानता है और मानता भी है तो सोनगढ़पक्ष के समान ही उपचारसे मानता हूँ। इस तरह सोनगढ़पक्षने प्रश्नके विषयकी उपेक्षा करके अप्रकृत और निर्विवाद विषयको हो अपने उत्तर वचनका विषय बनाया है। सो उसका यह प्रयत्न तत्वचर्चाकी दृष्टिसे अनुचित है । यद्यपि अपरपक्ष अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें इन सब बातों को स्पष्ट किया है परन्तु सोनगढ़ पक्षने उसपर ध्यान नहीं दिया है, इसलिये इस समीक्षाग्रन्थ में इन सब बातोंपर पुनः विस्तारसे प्रकाश डाला गया हूँ ।
२. अपरपक्ष जीवित शरीरकी क्रिया के पृथक् पृथक् दो भेद मान्य करता है - एक है जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवितशरीरकी क्रिया और दूसरा है शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवितशरीरकी क्रिया । इनमेंसे अपरपक्ष भी जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवितशरीरको क्रिया से आत्मामें धर्म-अधर्म नहीं मानता है, परन्तु वह शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे तो आत्मायें धर्म-अधर्म नियमसे मानता है। सोनगढ़पक्ष जीवित शरीरकी क्रियाके उपर्युक्त प्रकार पृथक्-पृथक् दो भेद न मानकर शरीरको क्रियाके रूपमें दोनोंको सम्मिलित कर एक भेद ही स्वीकार करता है और उससे वह आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति नहीं मानता है। इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य विवादका दूसरा विषय यह था कि जहाँ अपरपक्ष शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म मानता है वहाँ सोनगढ़पक्ष एक तो शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियाको शरीरकी क्रियारो पृथक नहीं मानता है। दूसरे, वह उस क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति नहीं मानता है । फलतः इस विवादको समाप्त करनेकी दृष्टिसे ही अपरपक्षने सोनगढ़ पक्षके समक्ष यह प्रश्न उप स्थित किया था कि "जीवित वारीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ?" परन्तु सोनगढ़पक्षने इस प्रश्नका जो यह उत्तर दिया है कि "जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गलदव्यकी पर्याय होनेके कारण उसका अजीत में अन्तर्भाव होता है, इसलिये वह स्वयं जीवका न तो धर्म भाव है और न अधर्म भाव ही है ।"
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अपनी बात
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इस उत्तरसे भी अपरपक्ष के प्रश्नका समाधान नहीं होता, क्योंकिउक्त प्रश्न में यह नहीं पूछा गया है कि जीवित शरीरकी क्रिया आत्माका धर्मभाव है या अधर्मभाव ? जबकि इसका समाधान हो उस उत्तरवचनसे हो सकता है और जो यह पूछा गया है कि जीवितवारीरकी क्रिया से आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? इसका उससे समाधान नहीं होता। दूसरी बात यह है कि अपरपक्ष भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियाको आत्माका धर्मभाव या अधर्मभाव नहीं मानता है। साथ ही वह जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया रूप जीवितशरीरकी क्रियाने आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति भी नहीं मानता है। वह तो केवल शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवितशरीरकी क्रिया हो आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति मानता है । इन राब बातोंको भी अपरपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें स्पष्ट किया है । परन्तु सोनगढ़ पक्षने उसपर भी ध्यान नहीं दिया है। अतः इस समीक्षा में इन सब बातोंपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है।
३. अपरपक्ष और सोनगढ़ पक्षके मध्य विवादका तीसरा विषय यह था कि जहां अपरपक्ष पुण्यभावरूप जीवदया से पृथक् निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म के रूपमें धर्मरूप जीवदया को भी मान्य करता है वहाँ सोनगढ़पक्ष पुण्यभावरूप जीवदया से पृथक् निश्चयधर्मरूप जीवदयाको मान्य करके भी व्यवहारघर्मरूप जीवदयाको निश्चित ही नहीं मानता हूँ । अतः इस विवादको समाप्त करने के लिए ही अपरपक्षने सोनगढ़पक्ष के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया था कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? इस प्रश्नका उसर सोनगढ़पक्षने यह दिया है कि इस प्रश्न में यदि धर्मपदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयावते पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं हूँ ।' तथा 'मदि इस प्रश्नमें धर्मपदका अर्थ वीतरागपरिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है ।' तात्पर्य यह है कि जहाँ अपरपक्ष ने अपने प्रश्न में यह बतलाया है कि जिस तरह जीवदया पुण्यभावरूप होती है उसी तरह वह धर्मरूप भी होती है । परन्तु सोनगढ़ पक्षने प्रश्नका आशय इस रूपमें ग्रहण किया है, मानो अपरपक्ष पुण्यरूप जीवदयाको हो वर्मरूप जीवदया मानता हो । सो यह सोनगढ़पक्षकी भूल हूँ। इसका स्पष्टीकरण अपरपक्षने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें किया है। परन्तु सोनगढ़ पक्षले उसपर ध्यान नहीं दिया । अतः इस समीक्षाग्रन्थ में इसपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है ।
४. अपरपक्ष और सोनगढ़पक्ष के मध्य विवादका चौथा विषय यह था कि जहाँ अपरपक्ष व्यवहारधर्मको निवधर्म में साधक मानता है वहाँ सोनगढ़पक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्म में साधक नहीं मानता। अतः इस विवादको समाप्त करने के लिए अपरपक्षने सोनगपक्षके समक्ष यह प्रश्न प्रस्तुत किया था कि "व्यवहार धर्म निश्चय में साधक है या नहीं ?" इसका उत्तर सोनगढ़पक्ष ने यह दिया है कि "निश्चय रत्नत्रयस्वरूप ती अपेक्षा यदि विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्म की उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है ।" यद्यपि अपरपक्षने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें आगमप्रमाणों के आधारपर यह सिद्ध किया है कि व्यवहारधर्म निश्वयधर्म में साधक है, परन्तु सोनगढ़पक्षने उसपर ध्यान नहीं दिया है | अतः इस समीक्षा में इसपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है ।
अपरपक्षका सोनगढ़ के साथ इसी विषय के अन्तर्गत दूसरा विवाद यह था कि जहाँ अपरपक्ष व्यवहारधर्मको अशुभ प्रवृत्ति निवृत्तिपूर्वक शुभ प्रवृत्ति के रूप में शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रिया मानता है वहाँ सोनगढ़प बहार धर्मको अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिके रूपमे जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रिया मानता है । यद्यपि अपरपक्ष में द्वितीय और तृतीय दौरोंमें इसपर भी विचार करते हुए बतलाया है कि व्यवहारधर्म जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया न होकर शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवको ही क्रिया है । परन्तु सोनगढ़ पक्षने इसपर भी ध्यान नहीं दिया है । अतएव इस समीक्षाग्रंथ में उसपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है ।
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स्वमतकी पुष्टिमें सोनगढ़ पक्षके असम्यक् प्रयत्न
सोनगढ़ पक्ष के मुख्य प्रतिनिधि पं० फूलचन्द जीने तस्वचर्चा होने से पूर्व पत्रव्यवहारमें बार-बार तत्वमें वीतरागभाव अपनाने की बात लिखी थी तथा तत्त्वचर्चाके अवसरपर खानिया में सोनगढ़पक्षकी प्रेरणासे दिनांक २९-१०-६२ की पारित किया गया था कि 'तत्वचर्चा वीतरागभाव से होगी' । परन्तु तस्वचर्चा में शोनगढ़ की ओरसे जो भी प्रयत्न किये गये हैं उन्हें सम्यक् नहीं कहा जा सकता । यहाँ इसी बात को स्पष्ट किया जाता
'
१. सोनगढ़ पक्षने प्रश्नों के उत्तर में यत्र-तत्र ऐसी तर्क-पद्धतिको अपनाया है जो अनुभव और इन्द्रियप्रत्यक्षके विरुद्ध होनेसे तत्व निर्णय करने में ग्राह्य नहीं मानी जा सकती है। बास्तवमे उस तर्कपद्धतिको अनुभव और इन्द्रियप्रत्यक्ष के विरुद्ध होनेसे 'तर्कपद्धति' कहना ही अयुक्त है। उदाहरणार्थ सोनगढ़पक्षने तञ्च०० ६४पर लिखा है कि "अपरपक्ष कोट पहनने की आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिको इच्छा और दर्जीको इच्छाके आधार पर कोटकपड़ा कब कोट बन सका यह निर्णय करके कोटकार्य में बाह्य सामग्री के साम्राज्यकी भले ही घोषणा करे । किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । अपरक्षके उक्त कथनको उलटकर हम यह भी कह सकते हैं कि कोट पहननेको आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिने बाजारसे फोटका कपड़ा खरीदा और बड़ी उत्सुकतापूर्वक वह उसे दर्जीके पास ले भी गया। किन्तु अभी उस कपड़ेका कोटपर्यायरूपसे परिणत होनेका स्वकाल नहीं आया था, इसलिये उसे देखते ही दर्जीकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और जब उस कपड़ेको कोटपर्याय सन्निहित हो गई तो दर्जी, मशीन आदि भी उसकी उत्पत्ति में निर्मित हो गये ।" इस कथन में जो यह तर्क उपस्थित किया गया है कि "अभी उस कपड़े कोटपर्यायरूपसे परिणत होनेका स्वकाल नहीं आया था, इसलिए उसे देखते ही दजोंकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और जब उस कपड़े की पर्याय सन्निहित हो गई तो दर्जा, मशीन आदि भी उसकी उत्पत्ति में निमित्त हो गये ।" सो यह तर्क प्रत्येक मानवके अनुभव और इन्द्रियप्रत्यक्ष दोनोंके विरुद्ध है, क्योंकि अनुभव में और देखने में यही आता है कि जबतक दर्जी और मशीन आदिका व्यपार कपड़े की कोट पर्याय के अनुकूल नहीं होता तबतक उस कपड़े कोटपर्यायका निर्माण नहीं हो सकता है और जब दर्जी और मशीन आदिका व्यापार उसके अनुकूल होने लगता है तो वह कपड़ा भी कोट पर्यायका रूप धारण कर लेता है। मैं इस बातको भो बारम्वार स्पष्ट कर चुका हूँ कि जिसे सोनगढ़पक्ष स्वकाल कहता वह कपड़े दर्जी और मशीन के व्यापार करने पर ही प्रगट होता है। उक्त तर्कको अयुक्तताको इस समीक्षा में पर विस्तारसे स्पष्ट किया गया है।
पृ० १३८
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
२. सोनगढ़पक्ष ने अपरयक्ष के प्रश्नोंके जो उत्तर दिये हैं उनकी उन प्रदनोंके साथ सोनगढ़पक्ष ने संगति बिठलानेका भी ध्यान नहीं रखा है। उदाहरणार्थ - कहा जा सकता है कि सोनगढ़पक्षने प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्रश्नों जो उत्तर दिये हैं उनको संगति उन प्रश्नोंके साथ नहीं बैठती है। इस बातको विषयपरिचय' प्रकरण में ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है ।
३. सोनगढ़ पक्षने तत्वचर्चा में जानते हुए भी यत्र-तत्र अपरपक्ष के अभिप्राय के प्रतिकूल विकल्प उठाकर उनके खण्डन करनेका प्रयत्न किया है, जो असम्यक् हैं । उदाहरणार्थं त०च० पृ० ३२ पर सोनगढ़पक्ष ने लिखा है कि " अपरपशने पद्मनन्त्रिपंचविंशतिका २३, ७ का द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' इस वचनको उद्धृत कर जो विकारको दोका कार्य बतलाया है सो यहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है चढ् किसी एक saयकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंको मिलकर एक विभागपरिणति है ? वह दो क्यों की मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको
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अपनी बात
त्रिकालमें नहीं कर सकतं ।' यह कथन अपरपक्ष के अभिप्रायके प्रतिकूल होनेसे अनावश्यक है । इसका स्पष्टी. करण मैंने इसी समीक्षाग्रन्थगे १० ३३ पर विस्तारसे किया है । इसी तरह सोनगढ़पक्षने तत्वचर्चाक पृ० ३२ पर भी लिखा है कि "इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रथम उत्तर में ही हम यह बतला आये हैं कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमण) द्रव्यक्रमका उदय निमित्त मात्र है । विकारभाव तथा चतुर्गतिपरिभ्रमणका मुख्यकर्ता तो स्वयं श्रात्मा ही है ।" सो सोनगढ़पक्षका यह लिखना भी शक्तिका दुरुपयोग है, क्योंकि अगरपझने कहीं पर भी यह नहीं लिखा है कि अकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाय और चतुर्गतिभ्रमणका मुख्य कर्ता है। यह प्रश्नोत्तर एबके सामान्यसमीक्षा-प्रकरणमें किये गये सोनगढ़पक्ष और अपरपक्षके मतैक्य और मतभेदके स्पष्टीकरणसे समझा जा सकता है।
४, सोनगढ़पक्षने सर्वत्र अधिकतर निरर्षक वितण्डावादका आश्रय लिया है। यह भी प्रत्येक प्रश्नोत्तरको समीक्षासे समझा जा सकता है ।
५. सोनगरपक्षने तत्वचर्चामें अनेक स्थलोंपर |नःसंकोच छलवत्तिको भी अपनाया है। उदाहरणार्थ-उसने त चप०७४-७५ पर लिखा है कि यहाँ अपरपक्षने 'स्वयं' परके 'अपने आप' अर्थका विरोव दिसलान लिये गो प्रमाण दिये हैं उनके विषय में तो हमें विशेष कुछ कहना नहीं है । किन्तु यहाँ हम इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते हैं कि एक तो प्रस्तुत प्रश्नके प्रथम व दूसरे उत्तरमें हमन 'स्वयमेंद' पदका अर्थ 'अपने आप न करके स्वयं ही' किया है। इस पदका 'अपने आप यह अर्थ अपरपक्षने हमारे कथनके रूप में प्रस्तुत प्रश्नकी दूसरी प्रतिकामें मानकर टीका करती प्रारंभ कर दी है जो युक्त नहीं है। हमने इसका विरोध इरालिये नहीं किया कि निश्चयकत्ताक अर्थभं 'स्वयमय पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं । सो अवस्थामें 'अपने आप' पदका अर्थ होगा 'परकी सहायता बिना आप कर्ता होकर' । आशय इतना ही है कि जिसकी क्रिया अपने में हो कार्य अपने में हो वह दूसरेकी सहायता लिये बिना अपने कार्यका आप ही कर्ता होता है अन्य पदार्थ नहीं ।" यहाँ सोनगढ़पक्ष द्वारा अपनाई गई छलवत्तिका मैंने इस समीक्षाके १० १८६-१८७ पर विस्तारसे प्रकाशन किया है।
६. सोनगढ़पक्षने तत्त्वचर्चा में आगमप्रमाणोंका निर्भवताके साथ अनर्थ किया है, यह बात भी तत्त्वचर्चाकी समीक्षा स्वाध्यायसे अवगत हो जायगी।
ये सब तथ्य ऐसे हैं जिनसे सोनगढ़पक्षके स्वमत-समर्थन में किये गये प्रयत्न स्पष्टतया असम्यक् सिद्ध होते हैं । ग्रन्थ-मुद्रणमें कुछ भूलें
१. सानिया तत्त्वचर्चा पृ० १५ पंक्ति ४ में "आगे-पीछे करनेका" इस वाक्यांशके स्थानपर 'आगेपीछे न करनेका" यह मुद्रित हो गया है । इसका मुद्रण पाद-टिप्पणीके रूपमें होना या । यह हमारी अनवधानताके कारण हुआ है।
२. सानिया तत्त्वचर्षा प० १९ पंक्ति ८ में भी “जो परिणमन होता है" इरा वाक्यांशके स्थान पर “जो परिणमित होता है" यह मुद्रित हो गया है । यह भी हमारी अनवधानताकै कारण हुआ है । इसका भी मुद्रण पाद-टिप्पणीके रूपमें होना था।
३. खानिया तत्त्वचर्चा पृ० १९ पर हीपाद-टिप्पणीके रूप में 'पूर्व पक्षके पत्रकमें लाल स्याहीसे चिह्नित वाक्यांश निम्न प्रकार है-यह वाक्य मुद्रित हो गया है जो मुद्रित नहीं होना था। वह भी हमारी अनवघानताके कारण हा है।
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जयपुर (ग्वानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा श्रद्धांजलि , सद्भावना और शुभकामना
१. सानिया तत्त्वचर्चा के प्रथम और द्वितीय दौर खानिया में संघ सहित विराजमान श्री १०८ आचार्य शिवसागरजी महाराजके तत्त्वावधान में सम्पन्न हुए थे । उनका अब स्वर्गारोहण हो गया । उनके प्रति मैं भक्ति और विनयपूर्वक हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित बारमा हूँ।
२. तत्त्वचर्चाको त्र्यवस्थित रूप देनेके लिए दोनों पक्षोंकी सम्मतिसे श्री . वंशीधर न्यायालंकारको मध्यस्थ निर्वाचित किया गया था। वे भी हमारे बीच नहीं है । तथा तस्वचमि अपरपक्षके निर्वाचित प्रतिनिधि सर्वश्री पं० माणिकचंद्रजी न्यायाचार्य, पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार और पं० जीवन्धरजी न्यायतीर्थ भी स्वर्गस्थ हो चुके है । इन सब महाविद्वानोंके प्रति मैं हार्दिक सद्भावना प्रगट करता हूँ।
३. तत्त्वच के आयोजनमें तन, मन और धनकी पूर्ण शक्ति लगानेवाले अ० सेठ हीरालालजी पाटनी निवाई भी स्वर्गस्थ हो चुके हैं, उनके प्रति भी मेरी हार्दिक सद्भावना है ।
४. सि० र०म० पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार सहारनपुरका भी स्वर्गवास हो चुका है । मुख्तार सा० महान आगम ज्ञानी थे और अपरपक्षके तो वे प्राण ही थे। तत्त्वचा अपरपक्षकी सामग्री तैयार करने में उन्होंने बेजोड़ श्रम किया था । तत्त्वचर्चाकी समीक्षका यह प्रथम भाग उन्हें समर्पित करके मैं उनके प्रति हार्दिक सद्भावनाके साथ अपनी कृतज्ञता प्रगट करता हूँ।
५. सौनगढ़के सन्त श्री कानजी स्वामीका भी स्वर्गवास हो चुका है। वे सोनगढ़ विचारधाराके संस्थापक और आधारस्त थे । मैं उनके प्रति भो हार्दिक सद्भावना प्रगट करता है।
६. तत्त्वच में सक्रिय भाग लेनेवाले सर्वश्री पं० राजेन्द्र कुमारजी मथुरा और पं० अजितकुमारजी शास्त्री दिल्ली तथा दिल्ली में प्रतिशंका तीनकी तैयारी में सहयोगी श्री पं० श्याचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री सागर भी हमारे बीच नहीं हैं । इन सबके प्रति भी मैं हार्दिक सद्भावना प्रगट करता हूँ।
७. तत्त्वचर्चाक अवसरपर खानिया अपरपक्षकी ओरसे उपस्थित सर्वधी पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार दिल्ली, पं० इन्द्रलालजी शास्त्री जयपुर और पं० परमानन्दजी शास्त्री दिल्ली उपस्थित थे । इनका भी स्वर्गवास हो गया । इन सबके प्रति भी मेरी हार्दिक सदभावना है ।
८. मैं तत्त्वचर्चामे अपरपनके अन्यतम प्रतिनिधि श्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य और तत्त्वच - मैं सक्रिय भाग लेने वाले बाबू नेमिचन्दजी वकील सहारनपुरके दीर्घ जीवनको शुभकामना करता हूँ ।
९. मैं सोनगपक्षके प्रतिनिधि सर्वश्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वाराणसी, पं. जगन्मोइनलालजी शास्त्री कटनी और पं० नमिचन्द्रजो पाटनी आगराके भी दीर्घ जीवनकी हार्दिक शुभकामना करता हूँ। ये हो तत्वचर्चाकी आघारभूमि थे। यदि ये तत्वचर्चाम सम्मिलित न होते तो सत्त्वचर्चाका आधार ही कोई नहीं रहता।
१०. तत्त्वचर्चाफ आयोजक और व्यवस्थापक श्री ७० लाडमलजी जयपुरवा तत्त्वच में योगदान अत्यन्त सराहनीय रहा । मैं उनके भी दो जीवनको हार्दिक शुभकामना करता हूँ।
११. श्री पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य वाराणसी भी तत्त्वचर्चाके अवसरपर तटस्थभावसे खानिया में उपस्थित थे तथा उभयपके अनेक विद्वान् और श्रीमान् तत्त्वच क अवसरपर सम्मिलित हुए थे । इन सबके दीर्घ जीवनकी भी मैं हार्दिक शुभकामना प्रकट करता हूँ।
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अपनी बात
कृतज्ञता-प्रकाशन
१. श्री डॉ० पं० दरबारीलाल फोदिया वाराणसी मेरे भ्रातृज हैं। उन्होंने इस ग्रन्थके सम्पादनमें अपनी विद्वत्ताका प्रभावपूर्ण परिचय दिया है तथा सम्पादन संलग्नता और श्रमपूर्वक किया है। उनकी इस कर्तव्यनिष्ठाके प्रति मेरे हृदयमें अत्यन्त आदरभाव है।
२. मेरे भ्रातृज पं० दुलीचन्द्र बीना और सेठ रवीन्द्रकुमार जैन, सुदर्शन प्रेस, बीनाने शुद्धिपत्र तयार करनेमें अपना कार्य छोड़कर सहायता की है । इनका यह सेवाभाव स्मरणीय है । धन्यवाद-वचन
सुन्दर मुद्रणके लिए मैं महावीर प्रिटिंग प्रेस, वाराणसीके स्वामी श्री बाबूलालजी फागुल्ल व उनके समस्त परिकरको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। खेद प्रकाश
मैं ऊपर स्पष्ट कर चुका हूँ कि सोनगढ़पक्षने अपरपक्ष के मतखण्डन में और स्वमतपुष्टिमें अनेक असम्यक प्रयत्न किये हैं। मिथ्या तर्कपद्धतिको अपनाना, जानते हए भी अनावश्यक विकल्प उपस्थित कर उनका खण्डन करना. प्रश्नों के अनुसार जसरनारपक्षपर यारो
माहौल फिर उनका खण्डन करना, वितण्डावाद और लवृत्तिका आश्रय लेना एवं आगमप्रमाणोंका अनर्थ करके आगमका अवर्णवाद करना आदि उनके उदाहरण हैं । फलतः समीक्षा करते समय तत्तत्सन्दर्भ में प्रकृत समीक्षासन्धमें कुछ कठोर शब्दों का भी प्रयोग करना पड़ा है, इसका हार्दिक खेद है । अन्तिम वक्तव्य
स्वानिया तत्त्वचर्चाकी सभीशाका प्रकाशन दीर्घ समयके पश्चात् हो रहा है । समयके दीर्घ होने में एक हेतु यह है कि स्वानिया तत्त्वचर्चाकी समीक्षा लिखनेसे पूर्व मैं सोनगढ़ विचारधाराके विषयमें अधिकाधिक गम्भीरतासे विचार कर लेना चाहता था। इस दृष्टि से मैंने खानिया तत्त्वचर्चाकं पूर्व पं० फूलचंद्रजीकी "जैन तत्वमीमांसा" पर "जैन तत्त्वामांसाकी मीमांसा" पुस्तक लिगती और पश्चात् 'जैन दर्शनमें कार्य-कारणभाव और कारकब्यबस्था" अन्थ लिखा । ये दोनों अन्य क्रमशः सन् १९७२ व १९७३ में प्रकाशित हए। इसके अनन्तर "जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार." ग्रन्थ लिखा। इसका प्रकाशन सन् १९७८ में हुआ। इन तीनोका खानिया तत्त्वच की समीक्षा लिखने में अत्यधिक सम्बन्ध है। दूसरा हैतु यह है कि "जैन बासनमें निश्चय और व्यवहार" ग्रन्यकी रचनाके मध्य में अस्वस्थ हो गया और आगे "खानिया तत्त्वचर्चा" के लेखनके समय मेरी अस्वस्थता बढ़ती ही गई, जिसके कारण मेरा शारीरिक दौर्बल्य भी काफी हो गया । इसी मध्य आँखों में मोतियाबिन्द हो जानेके कारण पढ़ने-लिल्लने में नर्वथा असमर्थ हो गया। बादको एक आँखका ऑपरेशन कराना पड़ा । दूसरी आँखका ऑपरेशन कराना है।
इन प्रत्यवायोंके कारण प्रकृत ग्रन्थ यद्यपि अधिक दीर्घकालके पश्चात् प्रकाशित हो रहा है । फिर भी मुझे इसके प्रकाशित होनेका अत्यन्त हर्ष है, क्योंकि आज भी इसका महत्त्व कम नहीं हुआ है और तब तक कम नहीं होगा जब तक सोनगढ़की एकान्त विचारधाराका सदभाव रहेगा। इसके अतिरिक्त इसमें जैन संस्कृति सैद्धान्तिक पहलूको समझनेके लिए विस्तृत सागनी समविष्ट है । मैंने इसका स्वाध्याय करनेवालों को सुविधाके लिए आरंभमें समीक्षाके पूर्व खानिया तत्त्वचर्चाको भी दे दिया है ।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा अब मैं दूसरे नेत्रके मोतियाबिन्दुका आपरेशन करानेके पश्चात् खानिया तत्त्वचर्चा-समीक्षाके दूसरे आदि शेष भागोंको लिखने की सोच रहा हूँ। मेरी हार्दिक भावना है कि जब तक जीवन है और सोचने तथा लिखनकी शक्ति है तबतक मैं इसी कार्यमें संलग्न रहूँ।
इस ग्रन्यको अनुभव, इन्द्रि यप्रत्यक्ष (लोकव्यवहार), तर्क और आगमप्रमाणोंके आधारपर जितना व्यवस्थित बना सकता था, बनानेका प्रयत्न किया है । तथापि मेरी अल्पज्ञताके कारण इसमें श्रुटियां रह जाना स्वाभाविक है । अतएव निष्पक्ष विद्वानोंसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वे सिद्धान्तको सुरक्षाको दृष्टिसे उन त्रुटियोंकी जानकारी मुझे में, ताकि मैं उन्हें परिष्कृत कर सकूँ। श्रुटियोंके परिष्कारसे मुझे अत्यन्त हर्ष होगा। इसके साथ ही मेरा दृढ़ विश्वास है कि सोनगढ़मतसे जैन संस्कृतिका संद्धान्तिक पक्ष विकृत हुआ है, जिसका दूषित प्रभाव दि० जैन संस्कृतिक आचारपक्षपर भी पड़ा है । अन्तिम श्रुतवली भावाहुके समय में जैन संघका प्रथम विघटन हुआ था तथा उसके पश्चात् आगे भी विघटनको प्रक्रिया चालू रही तथापि जैनसंस्कृतिके सैद्धान्तिक पक्षको सभीने सुरक्षित रखा । परन्तु सोनगढ़ने अनुभव, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष (लोक-व्यवहार), तर्क और आगमप्रमाणोंकी उपेक्षा पार का महत्व टारने या है। इसलिये विद्वानोंसे विनम्र अनुरोध है कि वे व्यक्तिगत स्वार्थको त्याग कर जैन संस्कृतिके सैद्धान्तिक पक्षको उजागर करने में अपनी विजुत्ताका उपयोग करें। पाठकोंसे निवेदन है कि वे शुद्धिपत्रको देखकर ही इस ग्रंथका स्वाध्याय करें। तथा अनवधानताके कारण बहुत-सी अशुद्धियोंका शुद्धीकरण न हो सका हो, यह भी सम्भव है । अतः उनकी सूचना मुझे देनेकी कृपा करें। दिनांक २०-२-८२
-वंशोपर पास्त्री
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सम्पादकीय
जैन शासन में वस्तु व्यवस्था या पदार्थज्ञानके लिए दो साधन स्वीकार किये गये हैं। एक है प्रमाण और दूसरा है नय | प्रमाण के दो भेद हैं- १. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । इन्द्रियों और मनकी सहायता से जो अविशद (धूला अस्पष्ट ) ज्ञान होता है वह परोक्ष है तथा इन्द्रिय और मनको सहायता के बिना मात्र मामाकी अपेक्षासे जो विशद ( स्पष्ट ) ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है । आगम में ज्ञानमार्गणाके अन्तर्गत माठ ज्ञानोंका कथन किया गया है। इन आठ ज्ञानोंमें मति श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल ये पांच ज्ञान सम्य ज्ञान तथा विपरीत मति विपरीत श्रुत और विभङ्गावधि ये तोन ज्ञान मिथ्याज्ञान प्रतिपादित किये गये हैं । पांचों सम्मानोंको प्रमाण" और तीनों मिथ्याज्ञानोंको प्रमाणाभास" भी कहा गया हूँ ।
आचायोंने इन सभीका विस्तारपूर्वक अपने मूलग्रन्थों तथा टीकाग्रन्थोंके द्वारा निरूपण किया है । ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त पाँच ज्ञानोंमे श्रुतको छोड़कर अन्य चार (मति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ) ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं । अर्थात् ज्ञाता इन चार ज्ञानोंस ज्ञेयको स्वयं जानता है, दूसरोंको उनसे ज्ञेयका बोध नहीं करा सकता । किन्तु श्रुत प्रमाणकी विशेषता है कि यह स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकारका हूँ | स्वार्थं श्रुत ज्ञानात्मक हैं और परार्थ श्रुत वचनात्मक है । उन्ही के भेद नय हैं । ज्ञाननव स्वार्थ श्रुतके तथा वचननय परार्थ श्रुतके भेद है।
प्रमाण वस्तु (जीवादि पदार्थो को अखण्ड (समय-धर्म श्रम भेदसे रहित ) विषय करता है और नय वस्तु (जीवादि) को खण्ड (धर्म-धर्म के भेद ) रूपमें ग्रहण करता है । इसीसे सकलादेशको प्रमाण और विदेशको नम कहा गया है। वर्मीको विपत्र करने वाला व्यार्थिक तथा धर्म (पर्याय, गुण, स्वभाव ) को ग्रहण करने वाला नय पर्यायार्थिक है। वस्तुको खण्डित करके ग्रहण करनेके कारण द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के रूपमें नयोंका निरूपण किया गया है। प्रमाण और नममें यही भेद है। जहाँ उल्लिखित मति आदि चारों ज्ञान मात्र स्वार्थ प्रतिपत्तिके साधन होनेसे प्रमाण हैं वहाँ थुत स्वार्थ तथा परार्थ दोनों प्रतिपत्तियोंका साघन होनेसे प्रमाण और नय दोनों है । यह जेयमीमांसाकी दृष्टिसे दार्शनिक निरूपण है ।
योगादेमीमांसाकी दृष्टिसे उक्त नयोंसे भिन्न निश्चय और व्यवहार इन दो नयोंका भी विवेचन किया गया है, जिसे आध्यात्मिक निरूपण कहा गया है । अध्यात्मका अर्थ है वस्तुका निजी (असंयोगी) रूप । इस असंयोगी रूपको जो नय जनाता या बतलाता है वह निश्नयनय है और जो वस्तुके संयोगी रूपको प्रदर्शित करता है यह व्यवहारनय है । आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्य श्लोकवात्तिक में जीवादि सभी द्रश्योंमें इन दोनों नयोंका उपयोग किया है। इन नयोंके विवेचनका लक्ष्य यस्तुको परखने और जानने का है। निश्चयतय जहाँ स्वरूपस्पर्शी है वहाँ व्यवहारनय संयोगस्पर्शी है । ये दोनों ही नय यथार्थ हैं- अपने-अपने विषय (असंयोगी और संयोगी रूप) को सही रूप में ग्रहण करनेरो सम्यक नय हैं। इनमें निश्चयको सम्यक् और व्यवहारको मिथ्या मानना या कहना अनेकान्त दृष्टि नहीं है, जो जैन तत्त्वज्ञानका प्राण हैं । आचार्य रामन्तभद्रने निरपेक्षताको मिया और सापेक्षताको सभ्यक् बतलाया है। निश्चयनयका ही उपदेश और व्यवहारनयका अनुपदेश अनेकान्तदर्शनमें नहीं है । उसमें दोनों नयोंका उपदेश है । वास्तव में अनेकान्त और उसके प्रतिपादक स्या
३. वही, १-१२ ।
१. 'प्रमाणनयैरधिगमः ' —त. सू १-६ ॥ ४. यही, १-९ ।
६. स० स० १-६ ।
२. वी. १ ९, १०, १२ ।
५. वही, १ ३१ ।
७. वही, १-६ ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
द्वाददर्शन में परस्पर सापेक्ष ही निश्चय और व्यवहार दोनोंको मान्य किया गया है— किसी एककी भी उपेक्षा उसमें नहीं हैं। इसी तथ्यको व्यक्त करनेवाली निम्न गाथा है, जो पूर्वाचार्योक्त प्राचीनतम है और जिसे आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा १२ की व्याख्यामें उद्धृत किया हूं
जद जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार- पिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिन ति अष्ण उण तच्वं ॥
'जिनकी यदि प्रवृत्ति चाहते हो तो व्यवहार और निश्चयको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारको छोड़ देने पर तीर्थका और निश्चयको त्याग देतेपर तत्त्व-वस्तुस्वरूपका उच्छेद हो जायगा ।
आचार्य अमृतचन्द्र इतना ही नहीं कहा, किन्तु इसी गाया के कलश ४ में समग्र जिनवचनको उभय नयके विरोधको दूर करने वाले 'स्यात्' पदसे युक्त भो कहा है और तभी उन वचनोंसे कल्याण बतलाया हूँ । यही जिनशासन है |
पर इधर ३०-४० वर्षोंसे सोनगढ़ये व्यवहारोपदेशनिरपेक्ष निश्चयनयकी विचारधारा प्रवाहित हुई है। इस विचार धाराका प्रभाव कुछ विद्वानों और अनेक जन-सामान्य पर पड़ा है और वे जिन-वाणीकी अनेकान्तपद्धतिका त्याग करने लगे हैं। भले ही उनके जीवन में वह सुखद अध्यात्म न भी आया हो, किन्तु व्यवहारका पलायन अवश्य ही हुआ। इसके अनेक उदाहरण हैं । कविवर पं० बनारसीदास आरम्भ में बड़े अम्माश थे । एक उपन्यास भी लिखा। किन्तु बादको जब ये सम्हले और आगराके अध्यात्मियोंके सम्पर्क में आये तो अध्यात्मी बन गये तथा व्यवहारको छोड़ दिया। जब उन्हें अपना वह अध्यात्म भी एकान्त मालूम
पड़ा, क्योंकि उसमें व्यवहार न या, तब उन्होंने जीवनशुद्धि स्वीकार कर ली। फलतः उन्होंने जैनी नीतिको, जो सहजगभ्य उसीका प्रचार-प्रसार किया ।
हेतु दोनों नयोंको अपनाकर स्याद्वाद-पद्धति नहीं है, समझा और अपनी रचनाओं द्वारा
इसमें सन्देह नहीं कि जिस अध्यात्मके इने-गिने ज्ञाता थे, श्रीकानजी स्वामीने उसके अनेकों ज्ञाता पैदा कर दिये और अनेकोंकी सर्वथा व्यवहारपरक रुचि एवं प्रवृत्तिको अध्यात्मकी मोर मोड़ दिया। इसके लिए समाजको श्रीकानजी स्वामीका आभार मानना चाहिए।
किन्तु उसे सबसे बड़ी भूल यह हुई कि उन्होंने अध्यात्मका एकाङ्गी उपदेश दिया व प्रचार किया । व्यवहारका कथन भी उसके साथ होना आवश्यक था। बिना तप, त्याग और साधना के सही अर्थ में अध्यात्मकी उपलब्धि नहीं हो सकती । यही कारण है कि वे मृत्युके अन्तमें वेदनाको नहीं सह सके । सुकमाल, सुकीशल आदि सैकड़ों उदाहरण हैं, जिन्हें वेश्नाने विचलित नहीं किया। समयसारी होता बुरा नहीं है, बहुत अच्छा है । मुमुक्षुका लक्ष्य तो नहीं है । किन्तु व्यवहार में उसे उतारना चाहिए। उनकी भूलका परिणाम यहू हुआ कि जिसे देखो उसीके हाथमे समयसार है और उसीका वह प्रवचन करता है। भले ही वह द्रव्यसंग्रह मी न पढ़ा हो, गोम्मटसार, त्रिलोकसार, मूलाचार आदि सिद्धान्तग्रन्थोंकी बात तो दूर है 1
ऐसी स्थिति में उसके विरुद्ध आवाज उठना स्वाभाविक है। बनारसीदासने भूल की। उसका परिमार्जन भी स्वयं कर लिया | नियमसार टीका के कर्ता पद्मप्रभमलधारिने उसकी ५३ वीं गाथाका अर्थ करने मे भूल की। किन्तु ने उसका परिमार्जन नहीं कर सके । उनको भूलको श्रीकानजी स्वामी भी नहीं जान पाये और टीकाके अनुसार उन्होंने प्रवचन प्रस्तुत किये | सोनगढ़ से प्रकाशित नियमसारको टीकाका हिन्दी अनुवाद भी अनुवादकने वैसा ही भूलभश किया। सोनगढ़ और अब जयपुरसे प्रकाशित आत्मधर्म में दिये स्वामीजी के उन मूळ गाथा और टीका दोनों पर किये प्रवचनको भी उसी भूलके साथ प्रकट किया है । सम्पादक डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्लने भी उसका संशोधन नहीं किया ।
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सम्पाद-मीद
यहाँ हम उसे स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते है । नियमसारकी वह गाथा और टीकाकार पमप्रभमलपारिदेवकी उसकी टीका निम्न प्रकार है
सम्मत्तस्य णिमिनं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा ।
अंतरहेऊ भणिदा दसणमोहस्स खयपहुदी ।।५३।। 'अस्य सम्यक्रमपरिणामस्य वाहासहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तुप्रसिपादनसमर्थ द्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षवः तेप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात् अन्तरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीयकमायप्रभृतेः सकाशात् इति ।'--टीका पृ० १०९, सोनगढ़-संस्करण।
गाथा और उसकी इस टीकाका हिन्दी अनुवाद श्री मगनलाल जैनने इस्त्र प्रकार किया है-'सम्यक्त्वका निमित्त, जिनसूत्र है। जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुषोंको (सम्यक्त्वके) अन्तरंगहेतु कहे है । क्योंकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक है।' (गाथार्थ)। 'इस सम्यक्त्व परिणामका बाह्य सहकारी कारण वीतराग सर्वशके मुखकमलसे निकला हुआ समस्त वस्तुके प्रतिपादनमें समर्थ ऐसा द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है। जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचारसे पदार्थनिर्णयके हेतुपनेके कारण (सम्यक्त्व परिणाम) के अन्तरंग हेतु कहे है, क्योंकि उन्हें दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयादिक है।'
ऐसा ही प्रवचन स्वामीजीने भो गाथा ओर टीकाका किया है । उनका यह प्रवचन (सम्भवतः जून १९८१ के) आत्मधर्म में प्रकाशित किया गया है ।
क्रिन्तु उक्त गापाकी टीकाकार द्वारा की गयी टीका, उनका हिन्दी अनुवाद और प्रवचन न मूलकार भाचार्य कुन्दकुन्दके आशयानुसार हैं और न सिद्धान्तके अनुकूल है।।
यथार्थ में इस गाथामें आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यग्दर्शनके बाह्य और अन्तरंग दो कारणोंका निर्देश किया है और कहा है कि सम्यग्दर्शनका बाह्य निमित्त जिनसूत्र और उसके ज्ञाता पुरुष है तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीयकर्मक क्षम, क्षयोपशम और उपशम है। यही सिद्धान्त भी है। आचार्य पूज्यपादने 'निर्देशस्वामित्वसाधन' आदि सूत्रको व्यापामें सम्यग्दर्शन के बाह्य और अम्पन्तर दो साधनोंको बतलाते हुए बाह्य साधन जिनबिम्बदर्शनादिको तथा अभ्यन्तर साधन दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयादिकको प्रतिपादित किया है । जिनगूत्रके ज्ञाता पुरुष जिनसूत्र की तरह एकदम पर (भिन्न) है वे अन्तरंग कारण कदापि नहीं हो सकते। उन्हें अन्तरंग कारण कहना ही गलत है। दर्शनमोहनीयकर्मझे क्षय, क्षयोपशम और उपशमको सम्यक्त्वका अन्तरंग कारण मानना संगत है, क्योंकि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिम उनका साक्षात् सम्बन्ध है।
कुन्दकुन्द भारतोके संकलयिता एवं सम्पादक पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने भी नियमसारको उक्त गाथाका वही अर्थ किया है, जो हमने ऊपर प्रदर्शित किया है । उन्होंने लिखा है कि 'सभ्यक्त्वका बाह्य निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञायक पुरुष हैं तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीमकर्मका क्षय आदि
गया है।' इसका भावार्थ भी उन्होंने दिया है। उसमें लिखा है कि 'निमित्त कारणके दो भेद है-एक बहिरंग निमित्त और दूसरा अन्तरंग निमित्त । सम्परत्वको उत्पत्तिका,बहिरंग निमित्त जिनागम और उसके ज्ञाता पुरुष है तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यभिश्याव तथा सम्यक्त्व प्रकृति एवं अनन्तानुबन्धी क्रोष, मान, माया, लोभ इन प्रकृतियोंका उपशम, क्षय और क्षयोपशमका होना है । बहिरंग निमित्तके मिलनेपर कार्यकी सिद्धि होती भी है और नहीं भी होती । परन्तु अन्तरंग निमित्तके मिलनेपर कार्यको सिद्धि नियमरो होती है।'
इस कथनसे इतना ही अभिप्रेत है कि पद्मप्रभमलधारिदेवने उल्लिखित गाथाके अर्थमें जो महान्
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
भूल की उसीकी पुनरावृत्ति सोनगढ़ने की पता नहीं, इसकी परम्परा कब तक चलेगी। वस्तुतः यह सिद्धान्त विरुद्ध और खतरनाक है ।
पद्मप्रभमचारिदेवकी तरह स्वामीजीने जान-अनजानमें एकाङ्गी अध्यात्मके उपदेश एवं प्रचारको महान भूल की हैं। उसका परिमार्जन हो सकेगा, यह कठिन दिखाई देता है। किन्तु उसका परिमार्जन यथाशीघ्र आवश्यक एवं अनिवार्य है। इस परम्पराको रोकने अथवा उसपर गम्भीरतापूर्वक विचार करनेका प्रयत्न होना ही चाहिए ।
जयपुर (नया) में
निष्य में एक विद्वत्सगोष्टी अक्तूबर चली थी, संगोष्ठी में कई प्रश्नोंपर
१९६३ में आयोजित की गयी थी। यह संगोष्ठी लगभग ११ दिन तक विचार हुआ। सोनगड़पक्ष और इतरपक्ष के रूपमें यह संगोष्ठी आरम्भ हुई। सोनगढ़ के प्रमुख प्रतिनिधि पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री वागणसी और इतर पक्ष के प्रमुख प्रतिनिधि पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य थे । इस संगोष्ठी से आशा थी कि तत्त्वचर्चा वीतरागकथाके रूपमें होगी, जिससे तत्त्व निर्णय हो सके । किन्तु गोष्ठीका रूप विजिगीषुकथाके रूपमें परिणत हो गया, जैसाकि सोनगढ़ पक्षकी ओरसे प्रकाशित 'जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा के दो भागोंके अध्ययनसे अवगत होता है । अन्यथा तत्त्वचर्चाका प्रकाशन, सम्पादन और उसका धुंआवार प्रचार-प्रसार सोनगढ़पक्षकी ओरसे न होता ! दोनों पक्षों की ओरसे ही होता या किसी तटस्थ प्रकाशन संस्था से होता । इसके अतिरिक्त प्रश्नोंके उत्तर घुमा-फिराकर न देकर आगमानुसार दिये जाने चाहिए थे । यह सब विजिगीषुकथा में होता है, वीतरागकथामें नहीं । तत्व निर्णय के लिए की जाने वाली विशिष्ट विद्वानोंकी तत्त्वचर्चा हो वीतरागकथा है। जिस कथा में जय-पराजयकी भावना जागृत रहे और उसके लिए वैसे प्रयत्न भी किये जायें तो यह कथा (चर्चा) वीतरागकथा नही है, विजिगीषुकथा है और विजिगी कथा में तत्त्व-निय नहीं हो पाता ।
हमें खेद है कि जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाने समाजकी उत्सुकतापूर्ण तत्व जिज्ञासाको शान्त नहीं
किया।
अतएव सिद्धान्ताचार्य पण्डित वंशीधरजी सिद्धान्तशास्त्री व्याकरणाचार्य, दीना ( म०प्र०) ने उक्त तस्वचर्चा प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा करना आवश्यक हो नहीं, अनिवार्य भी समझा और उसीके फलस्वरूप उन्होंने प्रारम्भिक चार प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा इस प्रथम खण्ड में प्रस्तुत की है । व्याकरणाचार्यजी के चिन्तनकी यह विशेषता है कि वे हर विषयपर गम्भीरता से विचार करते हैं और जल्दबाजी में वे नहीं लिखते । फलतः उनके चिन्तनमें जहाँ गहराई रहती है वहाँ मौलिकता एवं समतुला भी दृष्टिगोचर होती है। यह सब भी जैनागम, जैन दर्शन और जैन न्याय शास्त्र के समवेत प्रकाश में उन्होंने किया है । इस दृष्टिसे उनका यह समीक्षा ग्रन्थ निश्चय ही तत्त्व निर्णयपरक एवं महत्वपूर्ण है ।
यद्यपि में पूज्य व्याकरणाचार्यजीका भ्रातृज हूँ और उनकी प्रतिभा एवं चिन्तन- दृष्टि के समक्ष नगप्प | किन्तु उनके आदेशको टाल न सका । उसे शिरोधार्य करके उनके इस ग्रन्थका सम्पादक बना । अन्तिम प्रूफ मैंने स्वयं देखा, फिर भी अशुद्धियां रह गयीं। इसके लिए में पाठकों तथा उनसे क्षमा याचना करता हूँ ।
१५-४-१९८२,
चमेली कुटीर, १/१२८, डुमरांव कॉलोनी, अस्सी,
वाराणसी - ५ ( उ० प्र० )
- दरबारीलाल कोठिया सेवानिवृत्त रीडर, जैन बौद्ध दर्शन का० हि० वि० वि०
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी विषय-सूची १. शंका-समाधान १-७५
तृतीय दौर ८०-९३ प्रतिशंका ३
८०-८४ मंगलाचरण
प्रतिशंका ३ का समाधान
८५-९२ प्रथम दौर १.२
१. प्रणम-हितीय पानीसरोका संहार ८५ कांका १ और जगका समाधान
२. प्रतिशंका ३ के आधारसे विचार ८५ द्वितीय दौर ३-१४
३. शंका-समाधान ९३-१२८ प्रतिशंका २ प्रतिशंका का समाधान
प्रथम दौर ९३
शंका ३ और उसका समाधार तृतीय दौर १०-७५
द्वितीय र ९४-१०० प्रतिशंका ३
प्रतिशंका २
९४-९८ प्रतिशंका ३ का समाधान
प्रतिशंका २ का समाधान १. अध्यात्ममें रागादिका पौदगलिक बत
तुतीम और १०१-१९८ लानेका कारण
प्रतिशंका २. ममयलार गाथा ६८ को टीकाका
प्रतिशंका ३ का समाधान
११०-१२८ आशय
१. प्रथम-द्वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार ११० ३. कमंदिय जीवकी अन्तरंग योग्यताका
२. प्रतिशंका ३ के आधारस विचार १११ सूचका है, जोत्र भावका कर्ता नहीं ४२
४, शंका-समाधान १२९-१५७ ४. प्रस्तुत प्रतिशंकामें उल्लिवित अन्य
प्रथम दौर १२९ उरणोंका स्पष्टीकरण शंका ४ और उसका समाधान
१२९ ५. सम्यक नियतिका स्वरूप निर्देश
द्वितीय और १३०-१२३ ६. प्रसंगसे प्रकृतोपयोगी नबोवा खुलासा ४१ प्रतिशंका २
१३०--१३२ ७, क्रन्किर्म आदिका विचार
प्रतिगंका २ का समाधान २. शंका-समाधान ७६-९२।
तृतीय दौर १३३-१५१
प्रतिशंका ३ प्रथम दौर ७६
१. प्रश्न चारका परिशिष्ट शंका २ और उसका समाधान ७६ | प्रतिशंका ३ का समाधान
१४४-१५७ द्वितीय दौर ७७-८०
१. लपसंहार
१४४ प्रतियंका २
१७-७८ २. प्रतिशंका ३ के आधारसे विवेचन १४४ प्रतिशंका २ का समाधान
२८-८० ३. प्रश्न चारके परिशिष्टका महापोह १५७
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पुष्टि
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षाकी विषय-सूची विषय ___पृष्ठांक |
विषय प्रश्नोत्तर १ को समीक्षा १-८९
३.दोनों निमितोंके लक्षणोंका मंगलाचरण
निर्धारण
१३-१४ १. प्रश्नोत्तर १ को सामान्य सभोक्षः १६ .. उप रा सम्मत दोनों प्रश्नोत्तर १ के आवश्यक अंशोंके उद्धारण १-२ निमित्तोंके लक्षण सम्यक् नहीं है १४-१५ इन उसरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका
५. पूर्व पक्ष द्वारा अभिहित दोनों निमित्तोंप्रयोजन
के लक्षण सम्यक है
१५ उत्तर प्रश्न से बाहर है
६. उक्तलक्षणोंके सम्यकपने और उत्तर अप्रासंगिक है
असम्यक् पनेको मागम द्वारा उत्तर अनावश्यक है मतैक्य के विषय
७. प्रकृत विषयका उपसंहार १८-१९ मतभेदके विषय
८. उत्तरपक्षका संभावित भय और उपर्यक्ल विवेचनके आधारपर दो विचार
उसका निराकरण गीय बातें
९.निमित्तोंका कार्य में प्रवेश संभव समीक्षा लिखने हेतु
क्यों नहीं? उत्तरपक्ष द्वारा अपने उत्तरमें विपरीत
१०. निमित्तोंका कार्यमें प्रवेश अनापरिस्थतियोंका निर्माण
वश्यक क्यों?
२०-२१ उत्तरपक्ष का पूर्वपक्षपर उलटा आरोप ७-९
११. कर्ताका लक्षण
२१-२२ २. प्रश्नोत्तर १ के प्रथम वौरकी समीक्षा ५-११ | १२. यहाँ योग्यतासे वस्तकी नित्य उपासमयसार गाथा ८१ को अर्थमें उत्तरपक्ष की भूल ९ दान शक्ति ही अभिप्रेत है २२-२३ प्रश्नके उत्तरमें उक्त गाथामोंकी अनुपयोगिता ९ । १३. कार्योत्पत्तिके विषय में उत्तरपक्षका उपस गाथाएँ उत्तरपक्ष की मान्यताके
एक अन्य दृष्टिकोण और उसका विपरीत हैं
निराकरण प्रश्नके उत्तरमें अन्य प्रमाण भी अनुपयोगी हैं १० । १४. उत्तरपक्ष के दृष्टिकोणका अन्य उक्त प्रमाण भी उत्तरपक्ष की मान्यता के
प्रकारसे निराकरण
२७-२९ विपरीत प्रयोजन सिद्ध करते हैं १०-११ । द्वितीय भागकी समीक्षा ३. प्रश्नोत्तर १ के द्वितीय दौरकी समीक्षा ११-३२ तृतीय भागकी समीक्षा
३०-३१ द्वितीय दौरमें पूर्वपश्नकी स्थिति ११-१२ | | चतुर्थ भागको समीक्षा उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्षके विषयका पाँच
पंचम भागकी समीक्षा भागोंमें विभाजन
४-प्रश्नोसर १ के तृतीय चौरकी समीक्षा ३६-१८९ प्रथम भागकी समीक्षा
१२-२९ १. उत्तरपक्षका कथन
१२ | नृतीय दौर में पूर्वपक्षको स्थिति २. समीक्षा
१२-१३ | तृतीय दौरमै उत्तरपशकी स्थिति ३२-३३
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जयपुर (सानिमा) तत्वचर्चाकी समीक्षाकी विषय-सूची
विषय
उत्तर प्रश्नको सीमासे बाह्म होनेसे अनावश्यक उत्तरपक्षकी उस स्थितिकी समीक्षा
और उसकी पुष्टिका प्रयास भी उत्तरपक्षका ध्यकर्मोदयको प्रकृत कार्यक
अनावश्यक प्रति निमित्त मानना छल पूर्ण है ३४
उत्तरपक्षका एक अन्य कथन और उसकी उत्तर प्रश्नके आवायके विपरीत
३४-३५ । समीक्षा निमित्तको अकिंचिस्कर सिद्ध करनेका प्रश्नोत्तर २ के वित्तीय वोरको समीक्षा १९६-२०४ प्रयत्न अयुक्त
३५-३६ द्वितीय दौरमें पूर्व पक्षकी स्थिति क्या जयभवलाका वचन बाहय कारणका ! द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षके विविध कथन और निषेधक है? ३६-३७ | उनकी समीक्षा
१९६-२०४ उक्त विवादपर सूक्ष्म विमर्श और सिद्धान्त- ४. प्रश्नोत्तर २ के तृतीय वोरको समीक्षा २०५-२३६ का निर्णय ३७-३८ | तृतीय दौर में पूर्वपनकी स्थिति
२०५ उत्तरपक्षके विरोधी वक्तव्योंपर विचार -४० | तृतीय दौरमै उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन उत्तरपक्षका अनुपयोगी वक्तव्य
| और उसकी समीक्षा
२०५ उत्तरपक्षका एक अन्य वक्तव्य और उसपर
सत्तीय दौरमें प्रतिशंका ३ के आधारसे प्रकट विमर्श
४०-४१
उत्तरपक्षके विचारोंकी समीक्षा २०५-२३६
१. कथन १और उसकी समीक्षा २०६.२११ प्रकृतमें पूर्वपक्ष द्वारा उबृत्त 'सदकारणवन्नित्यम्' वचनका प्रयोजन
२ कथन २ और उसकी समीक्षा २११-२१२ संख्या १ से १९ तक कथन और उनकी
३. कथन ३ और उसकी समीक्षा २१२-२१५ समीक्षा
४. कथन ४ और उसकी समीक्षा २१५
४२-१८९ विषयका उपसंहार
५. कथन ५ और उसकी समीक्षा २१५-२१६
१८९ प्रश्नोत्तर २ को समीक्षा १९०-२३६
६, कथन ६ और उसकी समीक्षा २१६-२१७
७. कथन ७ और उसकी समीक्षा २१७-२२० १. प्रश्नोत्तर २ की सामान्य समीक्षा १९०-१९३ पूर्वपक्षके प्रश्नका उद्धरण
८, जयन ८ और उसकी समीक्षा २२०-२२१
९. कथन ९ और उसकी समीक्षा २२१-२२३ उत्तर पक्षफे उत्तरका उद्धरण
१९०
१०. कथन १० और उसकी समीक्षा २२३-२२४ प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षका अभिप्राय १९०
११. कथन ११और उसको समीक्षा २२४-२२५ जीवित शरीरकी क्रियांसे पूर्व पक्षका श्राशय १९० उत्तरपक्षक उत्तरपर विमर्श
१२. कधन १२ और उसकी समीक्षा २२५-२२६
१. कान १३ और ससकी समीक्षा २२६-२३२ उत्तरपक्षके समक्ष एक विचारणीय प्रश्न १९०-१९१
१४. धन १४ और उसकी समीक्षा २३३ प्रकृत विषयके सम्बन्ध कतिपय आधारभूत
१५. कथन १५ और उसकी समीक्षा २३४ सिद्धान्त
१९१-११२
१६. कथन १६ और उसकी समीक्षा २३४-२३५ २. प्रश्नोत्तर २के प्रथम दोरको समीक्षा १९३-१९५ १७. कथन १७और उसकी समीक्षा २३५-२३६ उत्तर प्रश्नके आशयके प्रतिकूल १९३ प्रश्नोतर ३ की समीक्षा २३६-२७२ प्रकृत विषयमें उत्तरपक्षको आगमसे विपरीत | १. प्रश्नोत्तर ३ की सामान्य समीक्षा २३६-२४९ मान्यताएँ
१९३-१९४ | पूर्वपक्षके प्रश्नका उद्धरण
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२७३
काय
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उत्तग्पक्षके उत्तरका उद्धरण
२३६ । प्रश्नोसर ४ की समीक्षा २७२-३०९ जीवदवाके प्रकार
२३६-२३७ । १. प्रश्नोत्तर ४ को सामान्य समीक्षा २७२-२७८ पुण्यभूत प्याका विशेष स्पष्टीकरण २३७ पूर्वपशके प्रश्नका उद्धरण
२७२ निश्चयधर्मरूप दयाका विशेष स्पष्टी
उत्तरपक्षके उत्तरका उद्धरण
२७२ करण
२३७-२३९ धर्मका लक्षण
२५२-२७३ ध्यवहारधर्मरूप दयाका विशेष स्पष्टीकरण २३९ जीबकी भाववती और क्रियावती शक्तियोंके ।
आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सामान्य परिणमनोंका विवेचन २३९-२४,
निवचमधमकी व्याख्या
२७४ जीत्रकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिण
व्यवहारधर्मको व्याख्या
२७४-२७५ मनोका विवेचन २४०-२४१ । प्रासंगिक स्पष्टीकरण
२७५-२७६ जीवको क्रियावती शक्तिके दया और अदया
कतिपय ज्ञातव्य विशेषताएं
२७६-२७७ रूप परिणमन क चन
पक्षकी प्राप्ति निश्चयधर्म पूर्वक व्यवहारचर्मरूप दयाका विश्लेषण और | . होती है
२७७ २४१-२४२ | जीवको निश्चयधर्मकी प्राप्ति व्यवहारधर्मआचार्य वीरसेनके वचन में 'सुह-सुद्ध-परिणा
पूर्थक होती है
२७८ मेहि पदका ग्राह्य अर्थ २४२-२४५ ६. प्रश्नोत्तर ४ के प्रथम वोरको समीक्षा २७८-२८२ प्रकृतमें कोंके आस्रय और बन्ध तथा संवर प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षकी दृष्टि २७८ और निर्जरणको प्रक्रिया २४५-२४७ उत्तरपक्षके उत्तरकी समीक्षा
२७८-२८२ उपर्युक्त विवेचनका फलितार्थ २४७-२४९ ३ प्रश्नोत्तर ४ के वितीयवोरको समीक्षा २८३-२८७ २. प्रश्नोत्तर ३ के प्रथम दौरको समीक्षा २४९-२५०/ द्वितीय दौरमे पुर्वपक्ष की स्थिति प्रश्न प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्ष की दृष्टि २४९ | द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षको स्थिति और उत्तरपक्षका उत्तर विसंगत भी है, अर्धसम्मत
उसकी समीक्षा
२८३-२८७ भी हैं और अनुचित भी है २४९ -३५० ४. प्रश्नोत्तर ४ के तृतीय दौरकी समीक्षा २८७-३०९ ३. प्रश्नोत्तर ३ के द्वितीय दौरकी समीक्षा २५०-२५५ / ततीव दौरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
२८७ द्वितीय दौरमै पूर्वपक्षकी स्थिति २५०-२५१ | ततोय दोरमें उतरपक्षकी स्थिति और द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन
उसकी समीक्षा
२८७-२१९ और उसकी समीक्षा २५१-२५२ | निष्कर्ष
२९९-३०३ प्रकृतमें उत्तरपक्ष द्वारा प्रस्तुत आगमवचनों- जैन शासनमें नयव्यवस्थाका बाधार ३०३-३०६ पर विचार
२५२-२५५ । नयव्यवस्थाको मान्य करना अनिवार्य है ३०६ ४. प्रश्नोत्तर ३ के तृतीय वौरकी समीक्षा २५५-२७२वस्तुविज्ञानको दृष्टि से नयब्यवस्थाका रूप ३०७ तृतीय दौर में पूर्वगक्षकी स्थिति २५५-२५६ | लोकजीवनमें नयव्यवस्थाका रूप तृतीय दोरमें उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन आध्यात्मिक जीवन में नयव्यवस्थाका रूप ३०७-३०८ और उसकी समीक्षा
२५६-२६० आगमद्वारा व्यवहारमयकी उपयोगिताकी ततीस दौरमें निर्दिष्ट उत्तरपक्षके आगेंके
पुष्टि
३०८-३०९ कथनोंकी समीक्षा
२६०-२७२ । मोक्षमार्गमें व्यवहारधर्मका महत्त्व
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श्री वीतरागाय नमः
प्रथम दोर
: १ :
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका १
द्रव्य कर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकार भाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या
नहीं ?
समाधान
द्रव्य कर्मो के उदय और संसारी आत्मा के विकार भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता कर्म सम्बन्ध नहीं है । भगवान् कुन्दकुन्द इसी विषयको स्पष्ट करते हुए समयप्राभूतमें लिखते हैं
जीव परिणामहेदु कम्मतं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तव जीवो वि परिणमद्द ||८०|| वि कुम्बइ कम्मगुणे जोवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोष्णणिमिते दु परिणामं जाण दोन्हं पि ॥ ८१ ॥ | एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण 1 सव्वभावानं ॥ ८२ ॥ पुग्गलकम्मकथाणे ण दु कत्ता
पुद्गल कर्मके अर्थ - पुद्गल जीवके परिणामके निमित्तसे कर्मरूप परिणमित होते हैं तथा जीव भी निमित्तसे परिणमन करता है। जीव कर्ममें विशेषताको (पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता। उसी प्रकार कर्म जीव विशेषताको (पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता, परन्तु परस्पर के निमित्तसे दोनों का परिणाम जानो । इस कारण से आत्मा अपने ही भावसे कर्ता है परन्तु पुद्गल कर्मके द्वारा किये गये समस्त मायोंका कर्ता नहीं है ||८०-८२॥
दो द्रव्योंकी दिक्षित पर्यायों में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहार नयसे है इसका स्पष्टीकरण पञ्चास्तिकायकी गाथा ८९ की श्रीमत् अमृताचन्द्राचार्यकृत टोकासे हो जाता हूँ । टीका इस प्रकार है"तत एकेषामपि गति स्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतु । किन्तु व्यव हारव्यवस्थापितो उदासीनौ ।
इस कारण एकके ही गति और स्थिति देखने में आती है, इसलिए अनुमान होता है कि वे गतिस्थिति के मुख्य हेतु नहीं हैं । किन्तु व्यवहारमय द्वारा स्थापित उदासीन हेतु हैं ।
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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस प्रकार परमागमके इस उद्धरणसे यह फलित होता है कि दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें निमित्तवैगिन्धि व्यहै, नहीं
२
दो द्रव्योंको विवक्षित पर्यायोंमें कर्ता कर्मसंबंध क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण करते हुए प्रवचनसारमें कहा है
कम्मणपाओग्गा खंधर जीवस्स परिणई पप्पा |
गच्छति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥१२- ७७।११६९॥
अर्थ - कर्मस्वके योग्य स्कन्ध जीवकी परिणतिको प्राप्त करके कर्मशावको प्राप्त होते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं है ।। २ ७७। १६९ ।।
इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए अमृतचन्द्र आचार्य उक्त गाथाकी टीकामे लिखते हैंयतो हि तुल्यक्षेत्रावगाहजीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेनापि कर्मत्वपरिणमनशांक योगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधाते न पुद्गल पिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥ १६९॥
अर्थ -- कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध तुल्य क्षेत्रावगाहरो युक्त जीवके परिणाममात्रका - जो कि बहिरंग साधन है उसका आश्रय लेकर जीव उनको गरिमानेवाला नहीं होने पर भी स्वयमेव कर्मभावसे परिणमित होते हैं। इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डोके कांपनेका कर्त्ता आत्मा नहीं है ।। १६९ ।।
इसीप्रकार इस उल्लेखसे यह भी फलित होता है कि कर्मरूप पुद्गलपिण्ड जीवके भावोंका कर्ता नहीं है ।
इसप्रकार दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमे कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है, फिर भी आगममें जहाँ भी दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्ता कर्मसंबंध कहा है सो वह वहाँपर उपचारमात्रसे कहा है ।
जीवहि हेदुभूदे बंधस्स दु परिसदृण परिणामं ।
जीवेण कर्द कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेन ॥ १०५ ॥ ( समयसार )
अर्थ – जीव निमित्तभूत होनेपर कर्मवन्धका परिणाम होता हुआ देखकर जीवने कर्म किया यह उपचारमात्रसे कहा जाता है ।। १०५ ।।
इसकी टीका में इसी विषयको स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं---
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तसुतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्प - विज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचार एव न तु परमार्थः ।। १०५ ||
अर्थ -- इस लोक में वास्तवमे आत्मा स्वभावसे पौद्गलिंक कर्मका निमित्तभूत न होने पर भी अनादि अज्ञान के कारण उसके निमित्तभूत अज्ञान भावरूप परिणमन करनेसे पुद्गल कर्मका निमित्तरूप होनेपर पुद्गल कर्मकी उत्पत्ति होती है, इसलिए आत्माने कर्मको किया ऐसा विकल्प उन जीवोंके होता है जो निर्विकल्प विज्ञानघनसे भ्रष्ट होकर विकल्पपरामण हो रहे हैं । परन्तु आत्माने कर्मको किया यह उपचार ही है, परमार्थ नहीं ।। १०५ ।।
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द्वितीय दौर
: २ :
नमः श्रीवर्द्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां द्विद्या दर्पणायते ॥
शंका १
द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं ? प्रतिशंका २
इस प्रश्नका उत्तर जो आपने यह दिया है कि 'व्यवहारसे निमिस-नमित्तिकसम्बन्ध है, कर्त्ता कर्म सम्बन्ध नहीं हूँ सो यह उत्तर हमारे प्रश्नका नहीं है, क्योंकि हमने द्रव्यकर्म और आत्माका निमित्तनैमित्तिक तथा कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं पूछा है ।
इस विषय में आपने जो समयसारकी गाथा ८०, ८१, ८२ का प्रमाण दिया है वह प्रमाण आपके उत्तरके विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि इन गाथाओंका स्पष्ट अर्थ यह है कि-
'पुद्गलोंका कर्मरूप परिणमन जीवके भावोंके निमित्तसे होता है और जीवके भाषका परिणमन पुद्गल कर्मके निमित्तसे होता है ।' ऐसा ही अर्थ आपने भी किया है। किन्तु ८१वीं गाथाका अर्थ करते हुए आपने जो उसमें विशेषता ( पर्याय) शब्दका प्रयोग किया है यह मूल गाथारो विपरीत है, क्योंकि विशेषता (पर्याय) परिणामको छोड़कर अन्य कुछ नहीं है । इसके सिवाय आपने इन गाथाओंका जो निष्कर्ष निकाला है वह भी बाधित है। साथ ही इस सम्बन्ध में जो कर्तृकर्म सम्बन्धका निषेध किया है वह भ्रम उत्पादक है, क्योंकि हमारा दन निमित्त-कल के उद्देश्यसे ही है उपादान कर्ताके उद्देश्य से नहीं है । जैसा कि पञ्चास्तिकायकी ८८वीं गाथाकी टीकामें श्री अमृतचन्द्र सूरिने स्पष्ट रूपसे ध्वजा फहराने में वायुको हेतुकर्तृता बतलाई है।
यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽऽवलोक्यते । इसी टीका
यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतस्तुरङ्गो अश्वारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते । वाक्य द्वारा घुड़रावारके रुकने में रुके हुए घोड़े को हेतुकर्ता माना है ।
पञ्चास्तिकाय की निम्नलिखित ५५ और ५८वीं गाथाओं में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि कर्म प्रकृतियां जीवके नर-नारकादि पर्यायरूप भावोंके सत्का नाश और असेत्का उत्पाद करती हैं ।
- तिरिय मणुआ देवा इदि णामसंजुदा पयडी । कुब्र्व्वति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ॥ ५५ ॥ कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा । खइयं खओवसमियं लम्हा भावं दु कम्मकर्द ||५८||
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रवचनसारको निम्नलिखित गायामें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने जीवकी मनुष्य आदि पर्यायोंका कर्मको कर्ता माना है
४
कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावेण ।
अभिभूय परं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥११७॥
इसकी टीका श्री अमृतचन्द्र सूरिने भी इसकी पुष्टि की हैं। रामयसारकी निम्नलिखित गाथाकी टीका में श्री अमृतचन्द्र सूरिने निमित्तकर्ता स्वीकृत किया है । यथाअनित्य योगोपयोगाचेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ ।
द्रव्यसंग्रहमें लिखा है
मुनस्यारी पणा वच्हारो दु णिच्छपदी । चेकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥ ८ ॥
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा निम्नलिखित गाया में लिखा है कि पुद्गलमें ऐसी शक्ति है कि यह आत्मा केवलज्ञानका विनाश कर देती है-
कवि अपुत्रा दीसद पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणासहायो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥ २११ ॥
देवागमकी
दोषावरण मोहनिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तलक्षयः ॥४॥ कारिका सम्बन्धी अष्टशती में श्री अकलङ्कदेवने लिखा है कि-वचनसामर्थ्यादज्ञानादिर्दोषः स्वपरपरिणामहेतुः ।
इसकी व्याख्या में श्री विद्यानन्द स्वामीने अष्टसहस्त्री में अज्ञान, मोह आदि दोष तथा ज्ञानावरण, मोहनीय आदि पौद्गलिक कम में परस्पर कार्य कारणभाव विस्तार से बतलाया हूँ ।
समयसारकी गाथा १३ की टीकामें श्री अमृतचन्द्र सूरिने लिखा है
तत्र विकार्य-विकारकोभयं पुण्यं तथा पापं आस्राव्यास्रावको भयमा स्रवः संवार्य संवारको - भयं संवरः ""स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रव संवर निर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः । तदुभयं च जीवाजीवाविति ।
श्री अमृतचन्द्र सूरिने समयसारकलदा १७४ में आत्मा रागादि विकारभाय केवल आत्मामात्र
( उपादान) में नहीं होता। उसके लिए पर (कर्म) सम्बन्ध आवश्यक कारण बतलाया है ।
न जातु रागादिविकारभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥ १७५ ॥ समयसारको निम्नलिखित गाथामें व्यवहारसे जीवको द्रव्यकमका कर्ता बतलाया हैबहारस्स दु आदा पुद्गलकम्मं करेदि णेर्यावहं ॥८४॥
श्री विद्यानन्द स्वामीने कर्मका लक्षण करते हुए आप्तपरीक्षा के पृष्ठ २४६ पर लिखा हैजीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति स परतन्त्रीक्रियते वा यंस्तानि कर्माणि ।
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शंका १ और उसका समाधान
अर्थात् जो आत्माको परतन्त्र करते हैं वे कर्म है।
समयसारकी निम्नलिखित गाथामे श्री कुन्दकुन्दाचार्यने पौद्गलिक कर्मका फल आत्माको दुःख होना बतलाया है
अष्टविहं पि य कम्मं सब्बं पुद्गलमयं जिणा विति ।
जस्स फलं तं बुच्चइ दुक्खं ति बिपञ्चमाणस्स ॥४५॥ चवला पुस्तक ६ पृष्ठ ६ पर लिखा हैतं आवरेदि त्ति पाणावरणीयं कम्म । अर्थात् आत्माके ज्ञानगुणका जो आवरण करता है वह ज्ञानावरण कर्म है।
घवला पुस्तक ५ पृष्ठ १८५ तथा २२३ तथा पुस्तक १६ पृष्ठ ५१२ पर रागादि विभावभावोंको कर्मजनित कहा है
तत्थ ओघभवो णाम अट्ठकम्माणि अट्टकम्मणिदजीवपरिणामो वा।
इनके अतिरिक्त समस्त धवल, जयधवल, महाघवल, राजवातिक, श्लोकवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, तत्त्वार्थसूत्र आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में आत्मा तथा द्रव्यकोका परस्पर विकार्य-विकारभाव स्पष्ट बतलाया है।
इसके आगे आपने जो पञ्चास्तिकायकी गाथा ८९ का उद्धरण दिया है, वह भी हमारे प्रश्नसे संगत नहीं है, क्योंकि यह उखरण उदासीन निमित्त कारणसे सम्बन्धित है। साथ ही स्वयं अमृतचन्द्र सुरिने उसी पञ्चास्तिकायकी ८७ और ९४ वीं गाथाकी टोकामें उदासीनको भी अनिवार्य निमित्तकारण बतलाया है।
गाथा ८७ को टीका
तत्र जीव-पुद्गलो स्वरसत एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नौ । तयोर्यदि गतिपरिणाम तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मों न भवेतां तदा तयोनिरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत ?
अर्थ-वहाँ जीव और पुद्गल स्वभावसे ही गति और स्थिति परिणामको प्राप्त है । सो उनके इस परिणमनको स्वयं अनुभव करते हुए यदि धर्म और अधर्म द्रब्य बहिरङ्ग कारण न हों तो उनका यह परिणमन निरगल-निधि हो जायगा और इस दशामें उनका सदभाव अलोकम भी कौन रोक सकेगा?
गाथा ९४ की टीका
यदि गतिस्थित्योराकाशमेव निमित्तमिष्येत् तदा तस्य सर्वत्र सद्भावाज्जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योनिःसीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको हीयते ।
अर्थ-यदि आकाश ही गति और स्थितिका कारण माना जाय तो उसका सर्वत्र सद्भाव होनेसे जीव और पद्गलकी गति तथा स्थिति सीमा रहित हो जायगी अर्थान् वह अलोकमें भी होने लगेगी और ऐसा होमेसे अलोकका परिमाण प्रति समय कम होता जायगा । . सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ मूत्र २२ में काल द्रव्यकी अनिवार्य उदासीन कारणता बतलाई है
धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्याय निर्वृति प्रति स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वत्यभावात् तत्प्रवर्तनोपलक्षितः कालः ।
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जयपुर ( खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थ- व्य अपनी-अपनी पयरका उत्पतिक प्रति यद्यपि स्वयं ही प्रवृत्ति करते है तथापि बाह्य सहायकके बिना उनकी यह प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अतः उन्हें प्रवर्तानेवाला काल ट्रष्य है ।
आपने जो प्रवचनसारकी गाथा १६९ तथा उसकी भी अमृतचन्द्र सुरिकृत टीकाका उद्धरण दिया है उसमें स्वयं शब्दका अर्थ 'स्वयमेव' (अपने आप) न होकर अपने रूप' है। इसके अतिरिक्त उनसे जो यह फलितार्थ निकाला है कि दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्वायों में कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं है उसका आशम केबल उपादान कारणको दृष्टिसे है, निमित्तकारणकी दृष्टिरो नहीं।
समयसारकी गाथा १०५ में जो उपचार शब्द आया है वह इस अर्थका द्योतक है कि पुद्गलका कर्म रूप परिणमन पुद्गल में ही होता है, जीव रूप नहीं होता। किन्तु जीवये. परिणामोंका निमित्त पाकर होता है अर्थात् जीव पुद्गल कर्मोका उपादान कर्ता नहीं, निमित्त कर्ता है।
आशा है आप हमारे मूल प्रश्नका उत्तर देनकी कृपा करेंगे ।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गोतमो गणी। मंगल कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ||
शंका १ द्रव्य कर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारी भाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या
नहीं?
प्रतिशंका २ का समाधान प्रतिशंका नं० २ में शंकारूपमें उपस्थित किये गये विषयोंका वर्गीकरण
(१) पंचास्ति गा ८८ तथा ५५-५८, प्र० सार० गा० ११५; स० सार गा• १०० को टीका, द्रव्य सं० गा० ८. स्वा० कातिके गा० २११: दे० स्तो लो०४; स० सार गा० १३ टीका; ससार कलश १७५; स० सार गा० ८४; आप्तप० पृ० २४६; स० सार गा० ४५, धवला पु० ६ पृ० ६; और धवला प० ५ पु० १८५-२२३ तथा पुस्तक १६ पृष्ठ ५१२; इस प्रकार विविध ग्रन्थोंके लगभग १७ प्रमाणोंके आधारसे निमित्त हेतुकर्तृता सिद्ध करते हुए संसारी जीप और कर्मोदयमें जो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है उसे गौण दिखानेका प्रयत्न किया गया है ।
(२) पंचास्ति० गा० ८९ का उद्धरण किसी भी प्रकारके निमित्तिको व्यवहार हेतु बतानेके लिए उद्धृत किया गया है, पर उसे प्रकृतमें असंगत बतलाया गया है ।
(३) पंचारित मा० ८७-९४ तथा सर्वा सि., अ० ५ सू० २२ के उद्धरणों द्वारा उदासीन निमित्तोंकी कार्यके प्रति अनिवार्य निमिप्तता सिद्ध की गई है। .
(४) प्र. सार मा० १६९ में स्वयमेव पदका अर्थ प्रति शंकामें अपने आपका निषेधकर 'अपने रूप' किया गया है।
(५) स. सार, गा० १०५ में आये हुए उपचार शब्दके अर्थको बदलनेका प्रयत्न किया गया है ।
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शंका ? और उसका समाधान
समाधान इस प्रकार है-
(१) प्रतिशंका १ में विविध प्रमाण देकर जो संमागे जीव और कर्मोदयमें हेतुकर्तृता सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है सो ऐसा करने में क्या उद्देश्य रहा है यह समझ में नहीं आया। यदि हेतुकर्तृता सिद्ध करते हुए निमित्तों में उदाशीन निमित्त और प्रेरक निमित्त ऐसा भेद करनेका अभिप्राय रहा हो तो वह इष्ट है, क्योंकि पंचास्तिकाय गाथा ८८ में यह भेद स्पष्ट पदोंमें दिखलाया गया है । परन्तु वहाँ ऐसे भेदको दिखलाते हुए भी उक्त वचनके आधारसे यदि यह सिद्ध करनेका अभिप्राय हो कि प्रेरक कारणके बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा, क्योंकि 'हेतुकर्तृ' पदका व्यपदेश निमित्तमात्रमें देखा जाता है ऐसा आगम प्रमाण । सर्वार्थसिद्धि में कहा भी है
यद्येवं कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति । यथा शिष्यो अधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति ? नैष दोषः, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृ व्यपदेशो दृष्टः । यथा का रीषोऽग्निररूपापयति । एवं कालस्य हेतुकर्तृता । अर्थ - शंका – यदि ऐसा है जो काळ क्रियाश्या होता है यया शिष्य पढ़ता है, अध्यापक पढ़ाता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि निमितमात्र में भी हेतुक व्यपदेश देखा गया है । यथाकण्डेको अग्नि पढ़ाती है । इस प्रकार कालको हेतुकर्तॄता है ।
यह आगमवचन है। इससे यह ज्ञात तो होता है कि निमित्तकारण दो प्रकारके हैं - एक वे जो अपनी किया द्वारा अन्य द्रव्यके कार्य में निमित्त होते हैं और दूसरे वे जो चाहे क्रियावान् द्रव्य हों और चाहे अक्रियावान् श्रभ्य हों; परन्तु जो क्रिया के माध्यम से निमित्त न होकर निष्क्रिय क्योंके समान अन्य द्रव्योंके कार्य में निमित्त होते हैं | आचार्य पूज्यपाद सब निमित्तों को समान मानते हैं इस सिद्धान्तकी पुष्टि उनके द्वारा रचित इष्टोपदेशके इस यचनसे भी होती है
नाशो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु गतैर्धर्मास्तिकायवत् ।। ३५ ।।
अर्थ — अज्ञ विज्ञपनेको प्राप्त नहीं होता और विज्ञ अपनेको प्राप्त नहीं होता । किन्तु अन्य द्रव्य अपनी विवक्षित पर्यायके द्वारा उस प्रकार निमित्त है जिस प्रकार धर्मास्तिकाय गतिका निमित्त है ॥ ३५ ॥ इसका स्पष्टीकरण करते हुए इसी श्लोकको टीकामें लिखा है
भद्र ! अज्ञस्तस्त्रज्ञानोत्पत्त्ययोग्योऽभव्यादिविज्ञत्वं तस्वज्ञत्वं धर्माचार्याद्युपदेशसहस्रेणापि न गच्छति । तथा चोक्तम्
स्वाभाविकं हि निष्पत्ती क्रियागुणमपेक्ष्यते । न व्यापारशतेनापि शुकवत्पाठ्यते नकः ॥
तथा विज्ञस्तत्त्वज्ञानपरिणतोऽज्ञत्वं तत्त्वज्ञानात्परिभ्रंशम्पाय सहस्रेणापि न गच्छति । तथा चोक्तम्
बच्चे पतत्यपि भयद्भुतविश्वलोके मुक्ताध्वनि प्रशमिनो न चलन्ति योगात् । बोधप्रदीपहृतमोहमहान्धकाराः सम्यग्दृशः किमुत शेषपरीषहेषु ||
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा नन्वैवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह-अन्यः पुनर्गुरुविपक्षादिः प्रकृतार्थसमुत्पादभ्रंशयोनिमित्तमात्रं स्यात्, तत्र योग्यताया एव साधकत्वात् ।
कस्याः को यथा-~इत्यत्राह-गतेरित्यादि । अयमों यथा युगपद्भाविगतिपरिणामोन्मुखानां भावानां स्वकीया गतिशक्तिरेव गतेः साक्षाज्जनिका । तवैकल्ये तस्याः केनापि कर्तुमशक्यत्वात् । धर्मास्तिकायस्तु गत्युपग्राहकद्रव्यविशेषस्तस्याः सहकारिकारणमात्र स्यात् । एवं प्रकृतेऽपि । अतो व्यवहारादेव गुर्वादेः शुश्रूषा प्रतिपत्तव्या।
हे भद्र ! अज अर्थात् तत्त्वज्ञानको उत्पत्ति के लिए अयोग्य अभव्य आदि विलपनेको अर्थात् तत्त्वज्ञपनेको धर्माचार्य आदिके हजारों उपदेशोंसे भी नहीं प्राप्त होता । कहा भी है
कार्यको उत्पत्तिमें स्वाभाविक क्रिया गुण अपेक्षित हैं, क्योंकि संकड़ों व्यापार करनेपर भी बक तोतेके समान नहीं पढ़ाया जा सकता।
___उसी प्रकार विज्ञ अर्थात् तत्त्वज्ञानरूपसे परिणत हुआ जीव अझपनेको अर्थात् तत्त्वज्ञानसे भ्रंशको हजारों उपायोंके द्वारा भी नहीं मारत होता । दीपगार महा है ..
भयसे भागने हुए समस्त लोकपर बनके गिरनेपर भी मोक्षमार्गमें उपशमको प्राप्त हुए जीव योगसे पलायमान नहीं होते ! तो फिर बोररूपी प्रदीपसे जिनका मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो गया है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव शेष परीषहोंसे चलायमान कैसे हो सकते है।
किस योग्यताका कौन निमित्त है । यथा-इसलिए यहां कहा है-गतेरित्यादि ।
जिस प्रकार एक साथ होनेवाली गति परिणामके सम्मुख हुए पदार्थोकी अपनी गति शक्ति ही गतिकी साक्षात् अनिका है। उसके विरुद्ध योग्यताके होनेपर उसे कोई भी करने में समर्थ नहीं है । धर्मास्तिकाय द्रव्य तो गतिका उपग्राहक वस विशेष होकर उस (योग्यता) का सहकारी कारणमात्र है । इसीप्रकार प्रकृत्तमें भी जानना चाहिये । इसलिए व्यवहारसे ही गुरु आदिकी शुश्रूषा जाननी चाहिए।
इस प्रकार इष्टोपदेशके उक्त आगम वचन और उसकी टीकासे स्पष्ट ज्ञात होता है कि निमित्त कारणों में पूर्वोक्त प्रकारसे दो भेद होनेपर भी जनको निमित्तता प्रस्पैक द्रव्यके कार्यके प्रति समान है । कार्यका साक्षात् उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं ।
यह ठीक है कि प्रश्न १ का उत्तर देते हुए समयभारकी ८० से ८२ तकको जिन तीन गाथाओंका उद्धरण देकर निमित्त-नैमित्तिकभाव दिखलाया गया है वहाँ कर्तृ-कर्म सम्बन्धका निर्देश मात्र इसलिए किया गया है ताकि कोई ऐसे भ्रममें न पड़ जाय कि यदि आगममें निमित्त में कर्तृ पर्नेका व्यवहारसे व्यपदेश किया गया है तो वह यथार्थमें कर्ता बनकर कार्यको उत्पन्न करता होगा। वस्तुतः जैनागममें कर्ता तो उपादानको ही स्वीकार किया है और यही कारण है कि जिनागममें कर्ताका लक्षण 'जो परिणमन करता है वह कर्ता होता है' यह किया गया है । समयसार फलशमें कहा भी है
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म ।
या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया 11५१।। जो परिणमन करता है वह कर्ता है, जो परिणाम होता है वह कर्म है और जो परिणति होती है वह किया है । वास्तवमें ये तीनों अलग नहीं है।
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शंका १ और उसका समाधान अतएव निमित्तकर्ताको व्यवहार (उपचार) से ही कर्ता मानना युक्ति-संगत है, क्योंकि एफ द्रम्पका कर्तधर्म दूसरे द्रध्यमें नहीं उपलब्ध होता । मात्र कार्यमें कौन द्रव्य उस समय निमित्त हेतु है यह दिखलाने के लिए ही कर्ता आदि रूपसे निमित्तका उपचारसे उल्लेख किया जाता है। स्पष्ट है कि प्रथम प्रश्नका जो उत्तर दिया गया है वह यथार्थ है।
(२) पञ्चास्तिकाय माथा ८९ में निःसन्देहरूपसे उदासीन निमित्तकी व्यवहारहेतुप्ता सिद्ध की गई है। पर इतने मात्रने क्रियाके द्वारा निमित्त होनेवाले निमित्तोंको व्यवहार हेतु माननेमें कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि अभी पूर्वमें इन्टोपदेश टीकाका जो उद्धरण दे आये है उसमें स्पष्टरूपसे ऐसे निमित्तोंको व्यवहार हेतु बतलाकर इस दृष्टि से दोनोंमें समानता सिद्ध की गई है।
(३) ऐसा नियत है कि प्रत्येक व्यके किसी भी कार्यका पृथक् उपादान कारणके समान उसके स्वतन्त्र एक या एकसे अधिक निमित्त कारण भी होते हैं । इसीका नाम कारफ-साकल्य है। और इसीलिए जिनागममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभय निमित्त से कार्यको उत्पत्ति होती है। श्री समन्तभद्र स्वामीने इसे द्रव्यगत स्वभाव इसी अभिप्रायसे कहा है । वे लिखते हैं
नाही तगेमाभिमाले कार्येषु ते तव्यमतः स्वभावः ।
नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां तेनाभिवंद्यस्त्वमूषिर्बुधानां ।।-स्वयंभू-स्तोत्र ॥६॥ कार्योंमें बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समयता होती है, यह द्रव्यगत स्वभाव है । अन्यथा अर्थात् . ऐसा स्वीकार नहीं करनेपर पुरुषोंकी मोक्ष-विधि नहीं बन सकती। यही कारण है कि ऋषि स्वरूप आप वृधजनोंके द्वारा वन्दनीय है।
यह तो है कि कार्योमें बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है, क्योंकि ऐसा द्रव्यगत स्वभाव है कि जब निश्चय 'उपादान अपना कार्य करता है तब अन्य द्रव्य पर्यायद्वारा उसका व्यवहार हेतु होता है। पर नियम यह है कि प्रत्येक समयमै निमित्तको प्राप्ति उपादानके अनुसार होती है । तभी जीवोंको मोक्षविधि भी बन सकती है । जैसा कि भावलिंगके होनेपर द्रव्यलिंग होता है इस नियमसे भी सिद्ध होता है । यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंगके प्राप्त होने के पूर्व ही द्रव्यलिंग स्वीकार कर लेता है पर उस द्वारा भावसिंगकी प्राप्ति द्रयलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो ऐसा नहीं है । किन्तु जब उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलिंग रहता ही है । तीर्थकरादि किसी महान पुरुषको दोनोंको एक साथ प्राप्ति होती हो यह बात अलग है, इसलिए प्रत्येक कार्यमें निमित्त अनिवार्म है ऐसा मानना यद्यपि आगमविरुद्ध नहीं है, पर इस परसे यदि कोई यह फलितार्थ निकालना चाहे कि जब जैसे निमित्त मिलते है तब वसा कार्य होता है आगम-संगत नहीं है। उपचारसे ऐसा कथन करना अन्य बात है और उसे यथार्थ मानना अन्य बात है।
(४) प्रवचनसार गाया १६९ में 'स्वयमेंब' पदका अर्थ स्वयं ही है अपने रूप नहीं। इसके लिए समयसार गाथा ११६ आदि तथा १६८ संख्याक गाथाओंका अवलोकन करना प्रकृतमें उपयोगी होगा। आगममें सर्वत्र 'स्वयमेव' पद 'स्वयं ही' इसी अर्थमें व्यवहृत हुआ है । यदि कहीं 'अपने रूप' अर्थ किया गया हो तो वह प्रमाण सामने आना चाहिये ।
(५) ग़मयसार गाथा १०५ में उपचारका जो अर्थ प्रथम प्रश्नके उत्तरमें किया गया है वह अर्थ संगत है । इसकी पुष्टि भवला पुस्तक ६ पृष्ट ५९ मे होती है 1 प्रमाण इस प्रकार है
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और जसकी समीक्षा . मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि ति णासंकणिज्ज, जीवादी अभिण्णम्हि पोग्गलदब्वे कम्मसष्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।
जिसके द्वारा मोहित किया जाता है वह मोहनीय कर्म है। शंका-ऐसा होनेपर जीवको मोहनीय कर्मपना प्राप्त होता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जीवसे अभिन्न (विशेष संयोगरूप, परस्पर विशिष्ट एक क्षेत्रावगाही) कर्मसंजक पृद्गल-द्रव्य में उपचारसे कर्तापनेका आरोप कर नैसा कहा है।
इस आगम घचनमें 'उवयारेण' और 'आरोविय' पद ध्यान देने योग्य हैं । स्पष्ट है कि कार्यका निरुपादक यस्तुतः उपादान कर्ता ही होता है। निमित्त में तो उपचारसे कतपिनेका आरोग किया जाता है ।
वतीय दौर
शंका द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकार भाव और चतुर्गति भ्रमण होता है सा नहीं ?
प्रतिशंका ३ इस प्रश्नका आशय यह था कि जीवमें जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते है क्या वे व्यकर्मोदय के बिना होते हैं या दून्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं। संसारी जीवका जो अन्ममरणरूप चतुर्गति भ्रमण प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है क्या यह भी कर्मोदयके अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतन्त्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गति भ्रमण कर रहा है ?
___ आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें दिया गया है और न इस दूसरे वक्तव्य में दिया गया है-यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्य के ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था । आपने अपने दोनों वक्तव्योंमें निमित्त कतन्किर्मफ्री अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न किया है।
यह तो सर्व सम्मत है कि जीव अनादि कालसे विकारी हो रहा है। विकारका कारण कर्मबन्ध है, क्योंकि दो पदार्थोके परस्पर बन्ध बिना लोकमें विकार नहीं होता । कहा भी है
द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् । -पदमनन्दिपंचविंशति २३-७ । यदि क्रोध आदि विकारी भावोंको कर्मोदय बिना मान लिया जाये तो उपयोगके समान ये भी जीवक स्वभाव भाव हो जायेंगे और ऐसा मानने पर इन विकारी भावोंका नाश न होनेसे मोक्ष अभावका प्रसंग आजावेगा, क्योंकि
सदकारणवन्नित्यम् । -आप्तपरीक्षा कारिका २ टीका जो सत् (मौजूद) है और अकारण है वह नित्य होता है । )
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शंका १ और उसका समाधान अथवा मुक्त जीवके भी विकारी भावोंका प्रसंग ना जायगा। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि किसी में जाना अधिक है और किसी में जान हीन है। एक ही पुरुष जानकी हीनाविकता देखी जाती है। यह तरतमभाव निष्कारण नहीं हो सकता है। अतः ज्ञानमें जो तर-तमभावका कारण है वह ज्ञानावरण कगं ह । कहा भी है--
एदस्स पमाणस्स वटिहाणित रतमभावो ण ताब णिक्कारणो, वढि-हाणोहि विणा एगसरूवेणावठाणप्पसंगादो। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदग्वं । जंतं हाणितर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्ध ।-जयधवल १-५६
इसका तात्पर्य भाव ऊपर दिया जा चुका है ।
इस कर्मोदयसे जीवकी नाना अवस्था तथा विचित्र विकारी भाव हो रहे हैं, जिनका समयसार आदि ग्रन्योंमें विवेचन किया है और वह इस प्रकार है
समयसारकी बत्तीसवीं गाथामें आत्माको 'भाव्य' और फल देनेकी सामर्थ्य सहित उदय होनेवाले मोहनीय कर्मको ‘भावक' बतलाया है। एकसौ-अठानवी गाथामं कर्मोदय विपाकसे उत्पन्न होनेवाले विविध भावोंको आत्मस्वभाव नहीं बतलाया है । गाथा १९९ में
पुम्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हदि एसो। और इसकी टीकामेंअस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविषाकप्रभत्रोऽयं र.गरूपो भावः ।
ये वाक्य दिये हैं, जिनमें बतलाया है कि राग पुद्गलकर्म है और पृद्गल कमके विपाककर उत्पन्न यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर रागरूप भाव है । और गाधा २८१ की टीकामें लिखा है कि रागादिक भाव कर्मविपाक उदयसे उत्पन्न हुए हैं ।
• पंचास्तिकायकी गाथा १३१ की टीका
इह हि दर्शनमोहनीयविपाककल्पपरिणामता मोहः, विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषी।
इन वाक्योंमें बतलाया है कि निश्चयसे इस जीवके जब दर्शनमोहनीय कर्मका उदय होता है तब उसके रस विपाकसे समुत्पन्न अश्रद्धानरूप भावका नाम मोह है।
गाथा १४८ की टीकामे बताया है कि जीवके राग द्वेष मोहरूप परिणाम मोहनीय कर्मके विपाकसे उत्पन्न हए विकार है
जीवभावः पुना रतिरागद्वेषमोहयुतः मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः । • १५० वी गाथाको टीका बतलाया है कि वास्तवमें संसारो जीय अनादि मोहनीय कर्मने उक्ष्यका अनुसरण करनेवाली परिणतिसे अशुद्ध है। और गाथा १५६ में बतलावा है कि वास्तवमै मोहनीय कर्मक उदयका अनुसरण करनेवाली परिणतिके यशसे रंजित उपयोगबाला वर्तता हुआ जीव परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको करता है।
अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहँ वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ॥१-६६11-परमात्मप्रकाश
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
। अर्थ-हे जीव ! यह आस्मा पंगुकै समान है । आप न कहीं जाता है, न आता है । तीन लोकमें इस जीवको कर्म ही ले जाता है, कर्म ही ले आता है ।।१-६६।।
कम्मई दिव-धण-चिक्कणई गवई वज्जसमाई।
पाण-वियक्खणु जीवदा सम्पाहि पाहि ना ॥2.13.2: प. अर्थ-वे ज्ञानावरण आदि कर्म बलबान हैं, बहुत हैं, जिनवा विनाश करना अशक्य है; इसलिये चिकने है, भारी हैं और इनके समान अभेस है, इस ज्ञानादि गुणसे चतुर जीवको खोटे मार्ग पटकते हैं ।।
. कम्माई बलियाई वलिओ कम्माद त्यि कोइ जगे।
सव्व बलाई कम्म मलेदि हत्थीव णलिणि वणं ॥१६२१॥-मूलाराधना अर्थ-जगतमें कर्म ही अतिशय बलवान् है, उससे दूसरा कोई भी बलवान् नहीं है। जैसे हाथी कमलवनका नाश करता है, वैसे ही यह बलवान् कर्म भी सर्व बन्ध विद्या दृश्य शरीर परिवार सामर्थ्य इत्यादिका नाश करता है ।। १६२१॥
का वि अउव्या दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवलणाणसहावे विणासिदो जाइ जीवस्स ।।२११॥-स्वा० का० अ० अर्थ-पुद्गल द्रव्यको कोई ऐसी अपूर्व शाक्ति है जो जीधक केवलज्ञानस्वभावको भी नष्ट कर देती है ।
प्रश्न नं० ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा० का० अ० गाथा ३१९ उद्धत करते हुए आपने स्वय स्वीकार किया है कि जीवका उपकार या अपकार शुभाशुभ कर्म करते हैं। लथा प्रपन नं० १६ के प्रथम सत्तरमें भी आपने यह स्वीकार किया है कि जीवमें बहुतसे धर्म ऐसे हैं जो आगन्तुक है और जो संसारकी विवक्षित भूमिका तक आत्मा दृष्टिगोचर होते है, उसके बाद उसमें उपलब्ध नहीं होते।
इन आगम प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि वास्तव में विकारी भाव व्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं। समयसार माथा ८९ व २७८-२७९ में स्फटिक मणिका दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया गया है कि यद्यपि जीवका परिणमन स्वभाव है तथापि उसके भाव कर्मोदय द्वारा किये जाते है, इसीलिये ५० से ५६ तक की गाथाबों में यह बतलाया है कि ये रागादिक भाव पौद्गलिक है और व्यवहार नय से जीवके हैं। ममयसार गाथा ६८ की टीकामें यह कहा गया है कि जिस प्रकार जोसे जो उत्पन्न होता है उसी प्रकार रागादि पुद्गल कर्मोसे रागादि उत्पन्न होते हैं, इसी कारण निश्चय नयसे रागादिक (भाव) पोद्गलिक हैं। समयसार गाथा ११३११५ में कहा है कि जिस प्रकार उपयोग जीवसे अनन्य है उस प्रकार क्रोध जीवसे अनन्य नहीं है।
___ अन्य कारणों और कर्मोदयरूप कारणोंमें मौलिक अन्तर है, क्योंकि बाह्य सामग्री और अन्तरंगकी योग्यता मिलने पर कार्य होता है । किन्तु घातिया वर्मोदय के साथ ऐसी बात नहीं है, वह तो अन्तरंग योग्यता का सूचक है। जैसा कि स्वयं श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी ने कर्मग्रंथ पुस्तक ६ की प्रस्तावना पृ० ४४ पर लिखा है--
अन्तरंगमें बैसी योग्यताके अभाव में बाह्म सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती है। जिस योगीके राग भाव नष्ट हो गये हैं, उसके सामने प्रबल रागकी सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पंदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरंग योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका मूल्य नहीं है । यद्यपि कर्मके विषयमें भो ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मोलिक अन्तर है।
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शंका १ और उसका समाधान
कर्म वेसी योग्यताका सूचक है, पर बाह्य सामग्नीका वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं । कभी वैसी योग्यता के सद्भावमें भी बाह्य सामना नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है, किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है । उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मामें रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है। अतः कर्मका स्थान वाह्य सामग्री नहीं ले सकती। अत: कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारको अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता आती है। इसी बातको इष्टोपदेश पद्य ७ की टीकामें कहा है
मलविद्धमणेब्यक्तिर्यथा नेकप्रकारतः ।
कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथा नेकप्रकारतः ।। अर्थ-जिस तरह मलके सम्बन्धसे मणिके अनेक रूप दीनने लगते हैं उसी तरह कर्मके सम्बन्धसे आत्माकी भी अनेक अवस्थाएं दीखने लगती है ।।
इसी प्रकार पद्य ७ की टीकामें भी मदिराका दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया है कि जीष मोहनीय कोदयके कारण पदार्थोका वास्तविक स्वरूप नहीं जान सकता । इष्टोपदेशका वह पद्म इस प्रकार है
० मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि ।
मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवः ॥७॥ अर्थ-जिस तरह मादक कोदोके खानसे उन्मत्त हुआ पुरुष पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप नहीं जानता; उसी प्रकार मोहनीय कर्मके द्वारा आच्छादित ज्ञान भी पदार्थोके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान सकता ॥७॥
कर्म बलवान् है, उदयमें आकर नवीन कोका बन्ध जीवके साथ कर देता है । ऐसा ही श्री अमृतचन्द्र मूरिने कहा है
कित्ववापि समुल्लसत्यवशतो यत् कर्म बंधाय तत् ।।११०|-कलश अर्थ-किन्तु आत्मामें अवशपने जो कर्म प्रगट होता है वह बंधका कारण है ।।११।। श्री पं० फूलचन्द्रजी भी कर्मको बलवत्ताको इन शब्दोंमें स्वीकार करते हैं
कर्म तो आत्माकी विविध अवस्थाओंके होने में निमित्त है और उसमें ऐसी योग्यता उत्पन्न करता है जिससे वह अवस्थानुसार शरीर वचन मन और श्वासोच्छ्वासके योग्य पुद्गलोंको योग द्वारा ग्रहण करके तद्रूप परिण माता है। पचाध्यायी पृ० १५९ विशेषार्थ (वर्णी ग्रन्थमाला)
क्रमोंकी सदा एकसी दशा नहीं रहती । कभी कर्म बलवान होता है और कभी जीव बलबान हो जाता है । जब जीव बलवान् होता है तो वह अपना कल्याण कर सकता है । कहा भी है
कत्थ वि बलिओ जीवो कत्थ वि कम्मा इंति बलिया।
जीवस्स य कम्मस्स य पुष विरुद्धाइ वइराइ ।।-इष्टोपदेश गा.३१की टी० अर्थ-कभी यह जीव बलवान हो जाता है और कभी कर्म बलवान् होता है। इस तरह जीव और कमोंका अनादि कालसे परस्पर विरुद्ध बैर है ।।
इस कर्मकी बलवत्ताके कारण यह जीव अनादि कालसे चतुर्गति भ्रमण कर रहा है इस बातको श्री अकलेकेदेव राजवातिक पृ० २ में कहते हैं
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जयपुर खानिया) तरचर्चा और उसकी समीक्षा अथा बलीबर्दपरिभ्रमणापादितारगर्तभ्रान्ति घटीयन्त्रान्तिजनिक बलीवदंपरिभ्रमणाभावे चारगर्तभ्रान्त्यभावाद् घटीयन्त्रभ्रान्तिनिवृत्ति च प्रत्यक्षत उपलभ्य सामान्यतो दृष्टादनुमानाद बलीवदंतुल्यकर्मोदयापादितां चतुर्गत्यरगर्तभ्रान्ति शारीर-मानसबिविधवेदनाघटीयन्त्रभ्रान्तिनिका प्रत्यक्षत उपलभ्य ज्ञानदर्शनचारित्राग्निनिर्दग्धस्य कर्मण उदयाभावे चतुर्गस्यरगर्तभ्रान्त्यभावात् संसारघटीयन्त्रभ्रान्तिनिवृत्त्या भवितव्यमित्यनुमीयते यासी संसारघटीयन्त्रभ्रान्तिनिवृत्तिः स एव मोक्ष इति ।
अर्थात्-जैसे घटीयंत्र (रेहट) का धूमना उसके घुरेके घूमनसे होता है और धुरेका घूमना उसमें जुते हुए बलके घूमने पर । यदि बलका घूमना बन्द हो जाय तो धुरेका घूमना रुक जाता है और धुरेके रुक जाने पर घटीयन्त्रका घू मना बन्द हो जाता है । उसी तरह कर्मोदयरूपी बैलके चलनेपर ही चार गतिरूपी धुरेका चक्र चलता है और चतुर्गतिरूपी घुरा ही अनेक प्रकारको पारीरिक मानसिक आदि वेदनारूपी घटी-यन्त्रको. घुमाता रहता है । कर्मोदयको निवृत्ति होने पर चतुर्ग तिका चक्र रुक जाता है और उसके स्कनेसे संसाररूपी घटीयंत्रका परिचलन समाप्त हो जाता है. इसीका नाम मोक्ष है। इसी सम्बन्धमै निम्न प्रमाण भी द्रष्टव्य है
प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रर्यत कर्मणा ।
एतयोः प्रेरको नान्यो नौमाविकसमानयोः ।।१०६||-उपासकाध्ययन १० २९ अर्थ-जीव कर्मको प्रेरित करता है और कर्म जीवको प्रेरित करता है। इन दोनोंका सम्बन्ध नौका और नाविकके समान है, कोई तीसरा इन दोनोंका प्रेरक नहीं है ॥१०६।।
५ क्लेशाय कारणं कर्म विशुद्धे स्वयमात्मनि ।
गोष्णमम्बु स्वत: किन्तु तदीय ह्निसंश्रयम् ॥२४७॥-उपासकाध्ययन पृ० १२० अर्थ-आत्मा स्वयं विशुद्ध है और कर्म उसके क्लेशका कारण है। जैसे जल स्वयं गरम नहीं होता, आगफे सम्बन्धसे उसमें गर्मी आ जाती है ॥२४७।।।
उत्पाद्य मोहमदविह्वलमेव विश्व वेधाः स्वयं गतगाठकवद्यथेष्टम् !
संसारभीकरमहागहनान्तराले हन्ता निवारयितुमत्र हि का समर्थः ।।७७॥-आत्मानुशासन
अर्थ-कर्मरूपी ब्रह्मा समस्त विश्वको ही मोहरूपी मदिरा मुर्शित करके तत्पश्चात् स्वयं ही ठगके समान निर्दय बनकर इच्छानुसार संसाररूपी भयानक महायनों मध्यमें उसका घात करता है। उससे रक्षा करनेके लिए भला दुसरा कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं ।।७७।।
आपने स्वयं भी प्रश्न नं. ५ के उत्तर में कर्मको बलवत्ता स्वीकार करते हुए माना है कि सुख दुःख भरण आदि सब कर्मोदयके अनुसार होता है। किन्तु इस प्रश्न के उत्तर में आप उसको स्वीकार नहीं कर रहे हैं यह आश्चर्यकी बात है।
यह हमारे प्रश्नका आगम सम्मत उत्तर है। प्रश्नका उत्तर न देकर आपने जो अप्रासंगिक विवेचन एकान्त नियतिवाद तथा नोकर्म आदि निमित्तों के विषयमें कर दिया है अब उस पर भी विचार किया जाता है
आपने लिखा है कि-'प्रेरक कारणसे किसी द्रव्य में कार्य आगे पीछे कभी भी किया जा सकता है, सो यह सिद्ध करना संगत न होगा। आपका ऐसा लिखना उचित नहीं है ।
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शंका १ और उसका समाधान
(अ) सर्व कार्यों का सर्वथा कोई नियत काल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि प्रवचनसारमें घी अमृतचन्द्र आचार्यने कालनय और अकालनप, नियतिनय और अनियतिनय इन गयोंकी अपेक्षा कार्यको सिद्धि बतलाई है और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है, और किसीने कोई काप नियत भी नहीं किया है । अतः आगे पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता।
(आ) कर्मस्थितिबंधके समय निषेक रचना होकर यह निवत हो जाता है कि अमुन कर्म वर्गणा अमुक समय उदयमें आदेगी, किन्तु बन्धावलिके पश्चात् उत्कर्षण, अपकर्षण, स्थितिकांडकवात, उदीरणा, अविपाकमिर्जरा आदि द्वारा कर्मवर्गणा आगे पीछे भी उदयमें आती हैं जिसको कर्भशास्त्र के विशेषज्ञ भलीभांति जानते है । किन्तु इतना नियत है कि कोई भी कर्म स्वभुख या परमखरूपगं अपना फल दिये बिना अकर्मभावको प्राप्त नहीं होता । (जयधवल पु० ३ १०२४५) । इस विषयका विशेष विषेचन प्रश्न नं. ५ के पत्रक में किया जावेगा तथा आगे भी यथा अवसर कूछ लिखा जावेगा।
___ आपने लिखा है कि-'दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें निमित्त-मैमित्तिकराम्बन्ध व्यवहारनयसे है, निश्चयनमसे नहीं ।' सर्वत्र स्थान र पर इसीर और दिया गया है। 'न्यवहारनय के पूर्व 'मात्र' शब्द लगाकर या उसका अर्थ 'उपचार' करके यह भी दर्शाया गया है कि अवहारसे जो कथन है यह वस्तुतः वास्तविक नहीं है।
यदि नयोंके स्वरूप तथा विषयगर ध्यान दिया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धका कथन निश्चयनयसे होनेका प्रसंग ही जान्न नहीं हो सकता है । जो विषय जिस नयका है उसका कथन उस ही नपसे किया जा सकता है, अन्य नयसे नहीं। यदि उस ही विषयको अन्य नयका विषय बना दिया जायगा तो मर्व विष्टव हो जायमा और नय विभाजन अर्थात् नय अयवस्था भी समीचीन नहीं रह सकेगी। जैसे प्रत्येक द्रव्य व्यवहार नयकी अपेक्षारो अनित्य है। यदि निश्चयनय की अपेक्षासे भी द्रव्यको अनित्य कहा जायगा तो व्यवहारनय तथा निश्चयनयम कोई अन्तर ही न रहेगा । दोनों एक ही हो जायेंगे । द्रव्यको नित्य बतलाने वाला कोई नय ही न रहेगा। इस प्रकार द्रव्यके दूसरे धर्मका कथन नहीं हो सकनेके कारण वस्तु स्वरूपका ज्ञान एकांगी (मर्वथा एकान्तरूप) एवं मिथ्या हो जायगा । अर्थात द्रव्य एकान्ततः (सर्वथा) अनित्य हो जायगा और इस प्रकार पूर्ण क्षणिकवाद आ जायगा । अतः अनित्यताका कथन ध्यपहारनयसे ही हो सकता है. निश्चयनयसे नहीं हो सकता है । निश्चयनय तो व्यवहारनय के विषयको प्रण करने में अंघ-पुरुष के समान है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यवहारनयका विषय होनसे अनित्यता प्रामाणिक, वास्तविक या सत्य नहीं है। अनित्यता भी उतनी ही प्रामाणिक, वास्तविक व सत्य है जितनी निस्यला।
• यदि व्यवहारनयके विषयको प्रामाणिक नहीं माना जायगा तो व्यवहार नय मिथ्या हो जायगा, किन्तु आगममें प्रत्येक नय प्रामाणिक माना गया है। जो परनिरपेक्ष कुनय होता है उसीको मिथ्या माना गया है, सम्यक् नयको भिया नहीं माना गया है ।
• एक द्रव्यवे. खण्ड या दो द्रब्योंका सम्बन्ध व्यवहारनवका विषय है । अत: दो द्रव्योंका सम्बन्ध होनेके कारण निमित्त नैमितिक सम्बन्धका कथन' व्यवहारनवसे ही हो सकता है, निश्तयनयसे नहीं । जैसे पर प्रन्यों के साथ जो ज्ञेष-ज्ञायकसम्बन्ध है उमका कथन व्यवहारनयसे ही हो सकता है, निश्चयनयरो नहीं। चूंकि यहाँ भी दो द्रव्योंका सम्बन्ध है। जैसे वर्णको ऑस्त्र ही बतला सकती है, नाक आदि अन्य इन्द्रियाँ नहों ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अतः नाकादि अन्य इन्द्रियोंसे वर्ण नहीं है. यह कहनेका प्रसंग ही नहीं गाता है। इसी प्रकार निमित्त. नैमित्तिकसम्बन्ध निश्चय नयसे नहीं यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि दो द्रव्योंका सम्बन्ध निश्चयनयका विषय ही नहीं है।
पुनश्च-आपने लिखा है कि 'संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गलि भ्रमणम द्रव्य कर्मोक उदयका व्यवहारसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, र्तृकर्मसम्बन्ध नहीं है ।' आगें आपने अपने उत्तरमें एक स्थान पर यह भी लिखा है कि 'योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्तकर्मसम्बन्ध नहीं है, फिर भी आगममें जहाँ भो दो दव्योंकी विवक्षित पर्यायों में कर्नु-कर्मसम्बन्ध कहा है वहीं वह उपचारमात्रसे कहा है। इससे यह तो फलित हो ही जाता है कि आगममें द्रव्यकर्मोक उदयका मात्मा के विकारभाव और चतुगात भ्रमणके साथ कर्तृकर्मसम्बन्धका प्रतिपादन किया गया है और आगमका यह प्रतिपादन आपको भी स्वीकार है । केवल आप उस कर्तृ-कर्मसम्बन्धको उपचारमात्र स्वीकार करके कार्यके प्रति निमित्तको अकिंचि करता सिद्ध कर देना चाहते . है। इस तरह हमारे आपके मध्य मतभेद केवल इतना ही रह जाता है कि जहां हमारा पक्ष आत्मामें उत्पन्न होनेवाले रागादि विकार और चतुर्गतिन मणरूप कार्यको उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मके उदयरूप निमित्तकारण या निमित्तकर्ताको सहकारी कारण या सहकारी कर्ताके रूपमें सार्थक (उपयोगी) मानता है वहाँ आपका पक्ष उसे उपचरित कहकर उक्त कार्यमें अकिवित्कार अर्थात् निरर्थक (निरुपयोगी) मानता है और तब बापका पक्ष अपना यह सिद्धान्त निश्चित कर लेता है कि कार्य केवल उपादानको अपनी सामर्यसे स्वतः ही निष्पन्न हो जाता है। उसकी निष्पत्ति में निमित्त की कुछ भी अपेक्षा नहीं रह जाती है। जब कि हमारा पक्ष यह घोषणा करता है कि अनुभव, तर्क और आगम सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कार्यकी निष्पत्ति उपादानमें हुआ करती है अर्थात् उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है फिर भी उपादान की उस कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकी अपेक्षा बराबर बनी हुई है अर्थात उपादानकी जो परिणति आगममें स्वपरप्रत्यय स्वीकार की गयी है वह परिणति जमादानकी अपनी परिणति होकर भी निमित्तकी सहायतासे ही हुआ करती है, अपने आए नहीं हो जाया करती है। चूंकि आत्माके रागादिरूप परिणमन और चतुर्गति भ्रमणको उसका (आत्माका) स्त्रपरप्रत्यय परिणमन आगम द्वारा प्रतिपादित किया गया है, अतः वह परिणमन आत्माका अपना परिणमन होकर भी द्रव्यकोंक उदयकी सहायतास ही हुमा करता है । जैसे
. न जातु रागादिनिमिनभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः। तस्मिन्निमित्तं परसंग एवं वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५।।
-समयसार आत्मख्याति टीका कलश इसमें अमृत चन्द्रसूरिने स्पष्ट कर दिया है।
कलशका भाव यह है कि आत्मामें उत्पन्न होनेवाले रागादिभावोंका आत्मा स्वयं निमित्त नहीं है, किन्तु परवस्तुके संसर्गसे ही आत्मामें रागादिभाव उत्पन्न होते हैं, जिस प्रकार कि सूर्यकान्तमणि परके संसर्गसे ही तदनुरूप विविध रंगोंके रूप परिणत होता है । वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है कि परवस्तुके संयोगसे बह तदनुरूप परिणमन करती रहती है ।
इसी बातको 'जीवपरिणामहे,'......इत्यादि समयसारकी ८०वीं गाथा भी पुष्ट कर रही है, जिराको आपने अपने पक्षकी पुष्टि के लिये अपने उत्तरमें उपस्थित किया है, लेकिन जिसके विषयमें हम अपनी द्वितीय प्रतिशंकामें लिख चुके हैं कि यह गाथा आपके मन्तव्यके विरुङ्ग ही अभिप्राय प्रकट करती है। याने जीवके
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शंका १ और उसका समाधान
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परिणमनकी सहायताले ही पुद्गल कर्मरूप परिणमन करते हैं और पुयल कर्मको सहायतासे ही जीव रागादि विभावरूप परिणमन करता है।
समयसारको ८२वीं गाथा भी ऐसी बातको मतला रही है कि ८० और ८१वीं गाधाओं के अनुसार चूंकि पुद्गलोंका ही कर्मरूप परिणमन होता है । पुद्गलों में होनेवाला कर्मरूप यह परिणमन आत्माका परिणमन नहीं है, वह तो उस परिणमनमें केवल निमित्तकारण (सहकारी कारण) या निमित्त कर्ता (सहकारी कर्ता) ही होता है। इसी प्रकार आत्माको ही समाविश्य परिजनन होता है। आत्मामें होनेवाला रागादिरूप बह परिणमन पुद्गलका परिणमन नहीं है, वह तो उस परिणमनमें केवल निमित्तकारण ( सहकारी कारण) या निमित्त कर्ता (सहकारी कर्ता) ही होता है, इसलिए आत्मामें जो भी परिणमन होता है उसके होनेमें यद्यपि पुद्गल कर्मका सहयोग अपेक्षित होता है, लेकिन उस परिणमनका उपादान कारण या कर्ता आत्मा ही होता हैं, पुद्गल कर्म नहीं । इसी तरह पुद्गलमें जो भी (कम नोकर्मरूप) परिणमन होता है, यद्यपि उसके होने में आत्माके रागादि भावोंका सहयोग अपेक्षित होता है, लेकिन उस परिगमनका उपादान कारण या कर्ता पुद्गल ही होता है आत्माके रागादिभाव नहीं ।
समयसारकी ८०, ८१ और ८२वीं गाथाओंके उक्त अभिप्रायको लक्ष्यमें रखकर ही समयसारको निम्नलिखित गाथाका अर्थ करना चाहिा
. जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं ।
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उपयारमत्तेण ।। १०५ ॥ यह अर्थ इस प्रकार है कि चूंकि जीवका सह्योग मिलने पर ही पुद्गल कर्मका बन्धरूप परिणमन देखा जाता है, इसलिए जीवने पुद्गलका कर्मरूप परिणमन कर दिया ऐसा उपचारमात्रसे अर्थात् निमित्तनैमित्तिकभावकी अपेक्षारो कहा जाता है । यहाँ पर 'उपचारमात्रसे' इस पदका अर्थ निमिसनमित्तिकभाव से ही उल्लिखित ८२, ८१ और ८२ची गाथाओंके आधार पर करना सुसंगत है । तात्पर्य यह है कि लोकव्यवहारमें जिस प्रकार उपादानीपादेयभावकी अपेक्षा शिष्यका अध्ययन करना और निमित्त-नैमित्तिक भावकी अपेक्षा उपाध्यायका शिष्यको पढ़ाना दोनों ही वास्तविक है उसी प्रकार उपादानोपादेयभावकी अपेक्षा पुद्गल का कर्मरूप परिणत होना और आत्मावा रागादिरूप परिणत होना तथा निमिस-नैमित्तिक भाषकी अपेक्षा जीव द्वारा पदगलका कर्मरूप दिया जाना और पुदगल द्वारा आत्माका रागादिरूप किया जाना दोनों ही बास्तविक है। तत्त्वार्थश्लोकवातिकम सत्त्वार्थसूत्रके अध्याय प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य विद्यानन्दिने भी पट १५१ पर उपादानोपादेयभावके समान निमित्त-नमित्तिक भावको वास्तविक ही कहा है। वह कथन निम्न प्रकार है
सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं तद् ( कार्यकारणत्वम् ) स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत्, कालप्रत्यासत्तिविशेषात् ससिद्धिः । यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम् | न चेदं सहकारित्वं क्वचिद् भावप्रत्यासत्तिः क्षेत्रप्रत्यासत्तिर्वा, नियमाभावात् । निकटदेशस्यापि चक्षुषो रूपज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वदर्शनात्, संदंशकादेश्चासुवर्णस्वभावस्य सौवर्णकटकोत्पत्ती । यदि पुनर्यावत् क्षेत्रं यद्यस्योत्पत्ती सहकारि दृष्टं यथाभावं च तत्तावत् क्षेत्र तथाभावमेव सर्वश्रेति नियता क्षेत्रभातप्रत्यासत्तिः सहकारित्वं कार्ये निगद्यते, तदा न दोषो, विरोधाभावात् । तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपितः, सर्वथाप्यनवद्यत्वात् ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थ सहकारी कारणके साथ कार्यका कार्यकारणभाव कैसे सिद्ध होता है ? क्योंकि सहकारी कारण और कार्यमें एक व्यताका अभाव है, यदि ऐसा कहा जाय तो इसका उत्तर यह है कि सहकारिकारणके साथ कार्यका कार्यकारणभाव कालप्रत्यासत्तिके रूपमें माना गया है, क्योंकि जिसके अनन्तर जो अवश्य होता है यह सहकारी कारण कहा जाता है और दूसरा कार्य कहलाता है ऐगा ही प्रतीत होता है। ऐसा सहकारिस्व कहीं पर भी भावप्रत्यासत्ति अथवा क्षेत्रप्रत्यासत्तिरूप नहीं होता है, क्योंकि इनका नियम बनता नहीं है । देखने में आता है कि निकट देशमें स्थित चक्षुको भी रूपज्ञानको उत्पत्तिमें सहकारिता होती है इसी प्रकार सुवर्णभावसे रहित अर्थात् लोह धातुसे निर्मित संदेशक (संडासी) आदि को भी सुवर्णनिर्मित कटक आदि की उत्पत्ति में सहकारिता होती है। यदि जितने क्षेत्रमें जो जिस कार्य की उत्पत्तिमें सहकारी कारण होता है. इसी प्रकार जो जिस भावरूपसे सहकारी कारण होता है वह उतने में और उस भावरूपमें सहकारी होता है-ऐसी क्षेत्र और भावरूप प्रन्यासत्तिको कार्यमें सहकारित्य कह दिया जाय तो फिर कालप्रत्यासत्तिकी तरह क्षेत्रप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्तिरूप भी सहकारित्वको माना जा सकता है। इसमें कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार व्यवहारनयका आश्रय लन पर दो पदामि रहला कार्यकारणभाव सबन्ध भी संयोग और समवाय आदिके समान प्रतीतिसिद्ध होने के सब पारमार्थिक ही है, कल्पना द्वारा आगेषित नहीं है; कारण कि यह सर्वथा निर्दोष है ।
इसी प्रकार अष्टशतीमें श्रीमद् भट्टाकलंकदेवने भी सहकारी कारणको कार्यके प्रति उपादान के लिए सहयोगदाताके रूपमें प्रतिपादित किया है । वह वचन निम्न प्रकार हैतदसामध्यमखण्डयदकिञ्चित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ?
-अष्टसहस्री पृष्ठ १०५ अर्थ-उसको अर्थात् उपादानकी असामथ्र्यका खण्टन नहीं करते हुए सहकारिकारण यदि अकिंचिकर ही बना रहता है तो उस हालतमें वह सहकारी कारण कहला सकता है क्या ? अर्थात नहीं कहला सकता है।
ये सब आगमके प्रमाण सहकारी कारण को और निमित्तनैमित्तिकभावको वास्तविक तथा कार्यके प्रति सार्थक और उपयोगी ही सिद्ध करते हैं, वेवल कल्पनारोपित या उपचरित नहीं। इसलिए समयसारको 'जीवति लेदभदे-गाथामें पठित उपचार शब्दका अर्थ कल्पना या आरोपन करके निमित्तनैमित्तिकभावरूप जो अर्थ तमने किया है वही सुसंगत है।
इसी प्रकार उक्त गाथाकी ‘इह खलु पौद्गलिककर्मण ................' इत्यादि रूप जो टीका आचार्य अमृतचन्द्रने की है उसमें भी उपचार शब्दका अर्थ निमित्तनमित्तिकभावरूप ही किया गया है। संपूर्ण टीका निम्न प्रकार है--
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यारमन्यनादेरज्ञानान्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिक कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानधनभृष्टानां विकल्पपराणां परेषामस्ति विकल्पः स तूपचार एव न तु परमार्थः ॥१५॥
अर्थ-पद्यपि आत्मा ( शुद्ध ) स्वभावरूपसे पौद्गलिक कर्मका ( पुद्गलके कर्मरूप परिणमनका ) निमित्तभूत नहीं है तथापि अनादिकालसे उसकी विभावस्थिति रहने के कारण पौगलिक कर्ममें निमिनभूत अज्ञान के रूप परिण मन होनेसे उसके ( आत्माके ) निमित्त बन जाने पर ही पुद्गलका कर्मरूप परिणमन
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शंका १ और उसका समाधान होता है, इसलिए आत्मा द्वारा पुदगलका कर्मरूप परिणमन किया गया--ऐसा विकल्प सन लोगोंका होता है जो निर्विकल्प विज्ञानघनसे भृष्ट अर्थात् विकारी परिणति में वर्तमान अतएव विकल्पपरायण हैं। लेकिन 'आत्मा द्वारा पदगलका कर्मरूप किया जाना' यह उपचार ही है अर्थात निमित्तनैमित्तिकभावकी अपेक्षास ही है, परमार्थरूप नहीं है अर्थात् उपादानोपादेयभावकी अपेक्षासे नहीं है ।।१०५।। आचार्य अमृतचन्द्र ने जो यह समवसार कलश रचा है...
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म ।
या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥५१॥ इसमें 'जो परिणमित होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है वह कर्ता है' कर्ताका यह लक्षण उपादानोपादेयभावको रक्ष्यमें रखकर ही माना गया है। परम्स इस पर ध्यान न देते हुए उस लक्षणको सामान्यरूपम् कर्ताका लक्षण मानकर निमित्तनैमित्तिकभावको अपेक्षा आगममें प्रतिपादित कर्तकर्मभावको उपचरित ( कल्पनारोपित ) मानते हए आपके द्वारा निमित्तकर्ताको अकिंचित्कर ( कार्यके प्रति निरुपयोगी ) करार दिया जाना गलत ही है, क्योंकि निमित्तकर्ताको समयसार गाथा १०० में आचार्य कुन्दकुन्दने तथा इसकी टोकामें आचार्य अमृतनन्द्रने सार्थकरूपमें ही स्वीकार किया है, जो निम्न प्रकार है
जोवो ण करेंदि घडं णेव पड़ गव सेसगे दब्वे । जोगुवओगा उप्पादगा य तेसि हवदि कत्ता ॥१००।।
मट, टरषन को नहीं मारता है, किन्तु जीबबे, योग और उपयोग ही उनके का है तथा उनका कर्ता आत्मा है ॥१०॥
टोका-यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कम तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगाद् ध्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषंगात् निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारी, योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मागि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्यात्मककर्मकर्ता स्यात् ।।१०।।
अर्ध- लो घटादि अथवा क्रोधादिरूप परद्रव्यात्मक कर्म है उसको यह आत्मा नामका द्रव्य व्याप्यव्यापकगावसे अर्थात् उगादानोपादेयभायमे तो करता नहीं है, क्योंकि इस तरहसे* उसमें तन्मयत्व ( परदृश्यात्मक घटादि और क्रोधादिरूप कर्ममयत्व ) का प्रसंग उपस्थित होता है तथा वह आत्मा नामका द्रव्य परदन्यात्मक घटादि और क्रोधादिकप कर्मको निमित्तनैमितिकभावरूपसे भी नहीं करता है, क्योंकि निमित्तनैमित्तिकमावरूपसे का मानने पर उसका ( आत्माका शाश्वत होने के कारण परद्रव्यात्मक घटादि और क्रोधादिरूप कर्म करने में नित्यकर्तत्व प्रसस्त हो जायगा; अतः आत्मदव्य स्वयं कर्ता न होकर उसकी अनित्यभूत योग और अयोगरूप पर्याय ही परद्र च्यात्मक घटादि अथवा ब्रोधादिरूप कर्मको निमित्तरूपसे कर्ता होती है। यद्यपि आत्मा स्थफे विकल्प और व्यापाररूप योग तथा उपयोग को कदाचित् अपनी विभाव परिणतिक्के कारण करता है, अतः आत्मा भी का होता है तो भी वह (आत्मा) परद्रव्यात्मक कर्मका कर्ता नहीं होता हैं। अथात् आत्माक अनित्यभूत योग और उपयोग ही परद्रव्यात्मक कर्मक निमित्तरूपसे कर्ता होत हैं ।।१०।।
____ इस प्रकार 'चः परिणमति स कर्ता' कतकि इस लक्षणके आधार पर आपके द्वारा निमित्तकर्तृत्वको उपचारगे (कल्पनारोपितरूपसे) कर्तृत्व बताना असंगत ही है । * पूर्वपक्षके पत्रको लाल स्याहीमे चिलित वाक्यांश निम्न प्रकार है
उसमें ( परद्रव्यात्मक घटादि और क्रोधादिरूप कर्ममें ) तन्मयत्व ( आत्ममयत्व )।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
मापने अपने उत्तरमें निमित्त कर्ताको उपचार से ( कल्पनारोपितरूपसे ) कर्ता मानने में यद्यपि यह युक्ति दी है कि एक इन्यका कर्तृधर्म दूसरे ४ध्यमें नहीं उपलब्ध होता' लेकिन इससे भी निमित्त कर्ताका उपचारसे (कल्पनारोगितरूपसे) कर्तृत्व सथित नहीं होता है, क्योंकि इस युक्तिसे केवल इस बातका ही समर्थन होता है कि निमित्तका कोई भी धर्म वायमें प्रवेश नहीं पाता है. निमित्तरूप कोई कर्ता ही नहीं होता-यह बात इससे समर्थित नहीं होती है और कि ऊपर लिखे अनुसार निमिसरूप कर्ता आगम प्रतिपादित है, इसलिए निमित्स रूप कर्ताको वास्तविक स्वीकार करना गलत नहीं है, बल्कि उसे आपके द्वारा उपचारसे अर्थात् केवल कल्पितरूपसे स्वीकार करना ही गलत है।
आगममें सर्वत्र कार्यकारणभावको अन्यय-व्यतिरेक के आधार पर ही माना गया है अर्थात् जिस वस्तु का जिस कार्यके साथ अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह वस्तु उस कार्य के प्रति कारण होती है ऐसा कथन आगमका है यथा
अन्वयन्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । ती च कार्य प्रति कारणव्यापारसध्यपेक्षावेवोपपद्यते कुलालस्येव कलशं प्रति ।
-प्रमेयरत्नमाला, तृतीय समुदेश, सूत्र ६३ की व्याख्या । कार्यकारणभाव सर्वध अन्वय और व्यतिरेकके आधार पर ही मानना चाहिए। वे अन्चय और व्यतिरेक कार्य के प्रति कारणब्यापारसापेक्ष ही उपपन्न होते हैं, जैसे कि कलशके प्रति कुम्हारके अन्वय और व्यतिरेक उपपन्न होते है।
___ इसमें उपादान कारणके समान निमिसकारणमें भी कार्य के प्रति अन्वय और व्यतिरेक माने गये हैं, अत: जिस प्रकार कार्यके प्रति उपादानभूत वस्तु अपने द्वेगसे अर्थात् आश्रयरूपसे वास्तविक कारण होती है उसी प्रकार कार्यके प्रति निमित्तभत वस्तु भी अपने ढंगसे अर्थात उपादानके सहकारिरूपसे वास्तविक कारण होती है। उसकी ( निमित्तभूत वस्तुकी ) यह उपादान सहकारितारूप कारणता काल्पनिक नहीं है ।
वास्तविक बात यह भी है कि आगममें स्यपरप्रत्यय परिणामरूप कार्यको समानरूपसे उभयशक्तिजन्य माना गया है । यथा
एवं दुसंजोगादिणा अणुभागपरूवणा कायम्बा, जहा ( मट्टिआ) पिंड-दंड-चक्क-चीवर-जलकुंभारादीणं धडप्पायणाणुभागो।
---धवल पु० १३, पृ० ३४९ अर्थ-इसी प्रकार हिसंयोगादिरूपसे अनुभागका कथन करना चाहिए । जैसे-मिट्टी पिड, दण्ड, चक्र, चीवर, जल और कुम्हार आदिका घटोत्पादनरूप अनुभाग ।
धवलाका यह वचन स्वपरप्रत्यय परिणभनकी उभयक्तिजन्यताका स्पष्ट उपदेश दे रहा है। आगममें उपचारकी व्याख्या इस प्रकार की गई हैमुख्याभाबे सति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते ।
--आलापपद्धति अर्थ--मुख्यका अभाव रहते हुए यदि प्रयोजन और निमित्त उपस्थित हों तो उपचारकी प्रवृत्ति होती है।
उपचारकी यह व्याख्या स्पष्ट बतला रही है कि जहाँ अपचारकी प्रवृत्तिके लिए प्रयोजन तथा निमित्त हों वहीं पर वह उपचारप्रवृत्ति हुआ करती है। जैसे अन्नमें प्राणोंका या बालकम सिंहका उपचार लोकम किया जाता है। इन दोनों स्थलोंमें चूकि उपचारप्रवृत्ति के लिए प्रयोजन तथा निमित्त दोनोंका सद्भाव पाया जाता है, अतः अन्नमें प्राणोंका और बालकमें सिंहका उपचार संगत है। अन्नमें प्राणोंका उपचार करने के लिए अन्नमें पायी जानेवाली प्राणसंरक्षकता ही निमित्त है और लोकमें इस तरह
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शंका १ और उसका समाधान
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प्राणसंरक्षकताके रूपमें अन्नका महत्त्व प्रस्थापित करना ही प्रयोजन है। इसी प्रकार बालकमें सिंहका उपचार करनेके लिए बालकम पाया जानेवाला सिंह सदशौर्गही निमित्त है और इस तरह सिंहके सदश शौर्य गुण संपन्नताके रूपमें बालककी प्रसिद्धि करना ही प्रयोजन है। इस तरह निर्मिस और प्रयोजनका सदभाव रहते हुए ही अन्नमें प्राणोंका तथा बालकमें सिंहका उपचार किया गया है । इसी प्रकार आगम में भी उपचार प्रवृत्तिके दृष्टान्त उपलब्ध होते हैं। जैसे परार्थानुमान यद्यपि ज्ञानात्मक ही है, परन्तु उसका उपचार वचनमें किया गया है, क्योंकि वचन ज्ञानरूप परार्थानुमानका कारण होता है ।
तद्वचनमपि तद्धेतुत्वादिति । -परीक्षामुखसूत्र ३-५६ यहाँपर कारणमें कार्यका उपचार किया गया है । इसमें भी उपचार प्रवृत्ति के लिए निमित्त और प्रयोजनका सद्भाव है। इन सब दृष्टान्तोंके आधारपर प्रकृतमें हमारा आपसे यह कहना है कि निमित्त नामकी वस्तुमें कारणत्व वा वर्तृत्वका जब आपको उपचार करना है तो इस उपचार प्रवृत्तिके लिए यहाँपर निमित्त तथा प्रयोजनके सदभावकी भी आपको खोज करनी होगी, जिराका ! निमिन नथा प्रयोजनक सद्भावका ) यहाँपर सर्वथा अभाव है। यदि आपकी दृष्टि में निमित्तमें कारणता या कर रखका उपनार करने के लिए यहाँपर निमित्त तथा प्रयोजनका सद्भाव हो, तो बतलाना चाहिए। यदि आप कहें कि कार्य के प्रति निमित्त नामकी वस्तुका जो उपादान के लिए सह्योग अपेक्षित रहता है यही महापर उपचार प्रवृत्तिमें निमित्त है और इस तरह कार्य के प्रति मिमिन नामकी वस्तु की उपयोगिताको लोकमें प्रस्थापित कर देना ही प्रयोजन है तो इस विषय में हम आपसे केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि निभिसका कार्यके प्रति उपादानको सहयोग देना यदि आपको मान्य हो जाता है तो इससे फिर निमित्तकी वास्तविकता ही सिद्ध हो जाती है। ऐसी हालतमें ससे उपचरित कैसे कहा जा सकता है ?
'उपान्दीयते अनेग' इस विग्रहके आधारपर 'उप' उपसर्गपूर्वक आदानार्थका 'आ' उपसर्ग विशिष्ट 'दा' धातुसे कर्ताके अर्थ में "ल्युट' प्रत्यय होकर उपादान शब्द निम्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ यह होता है कि जो परिणमनको स्वीकार करे, ग्रहण करे या जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते है। इस तरह उपादान कार्यका आश्रय ठहरता है। इसी प्रकार निर्मद्यति' इस विग्रहः आधारपर 'नि' उपसर्ग पूर्वक स्नेहार्थक 'मिद' धातुसे ककि अर्थमें 'क्त' प्रत्यय होकर निमित्त शब्द निष्पन्न हुआ है। मित्र शब्द भी इसो 'मिद्' पातुरो 'क्र' प्रत्यय होकर बना है । इस प्रकार जो मित्र के समान उपादानका स्नेह न करे अर्थात् उसकी कार्यपरिणतिमें जो मित्रके रामान सहयोगी हो वह निमित्त कहलाता है । इस विवेचनरो यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि कार्य के प्रति निमित्त उपचरित ( काल्पनिक ) नहीं है, बल्कि उपादानके सहयोगीके रूपमें वह वास्तविक ही है।
इस प्रकार आगममें जहाँ भी निमित्त मित्तिकभावको लेकर उपचारहेतु या उपचारकर्ता, व्यवहारहेतु या व्यवहारकर्ता, बाह्य हेतु या बाह्य कर्ता, गौण हेतु या गौण कर्ता आदि घाब्दप्रयोग पाये जाते हैं उन सबका अर्थ निमित्तकारण (महकारी कारण) या निमित्तका (सहकारी कर्ता) ही करना चाहिए। उनका आरोपित हेतु (काल्पनिक हेतु) या आरोपित कर्ता (काल्पनिक कर्ता) अर्थ करना असंगत ही जानना चाहिए । इसी प्रकार आगममें जहाँ भी उपादानोपादेयभावको लेकर परमार्थ हेतु या परमार्थ का, निश्चय हत या निश्चय कर्ता, अन्तरंग हेतु या अन्तरंग कर्ता, मुख्य हेतु या मुख्य कर्ता आदि शब्दप्रयोग पाये जाते है उन सबका अर्थ उपादान कारण या अपादान कर्ता ही करना चाहिए। इसका कारण यह है कि कार्यकरणत्वको
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा दृष्टिगे जब विचार किया जाता है तो निमित्त और उपादान दोनों ही कारण स्वपरप्रत्ययरूप कार्यमें समानरूपसे ही अपने-अपने स्वभावानुसार अपने अपने ढंगसे सार्थक या उपयोगी हुआ करते है। ऐसा नहीं है कि उक्त स्वपरप्रत्ययरूप कार्यको केवल :- पादान ही सम्पन्न कर लेता है और निमित्त बंटा-बैठा केवल हाजिरी ही दिया करता है । इस विषममें आचार्य विद्यानन्दिके निम्नलिखित वचनोंपर भी ध्यान देना जरूरी है
गुनि सुमति ट्रम्या देशात देव, केयूरादिसंस्थानपर्यायार्थादेशाच्चासदिति तथा परिणमनशक्तिलक्षणायाः प्रतिविशिष्टान्त:सामग्र्याः, सुवर्णकारकव्यापारादिलक्षणायाश्च बहिःसामयाः सन्निपाते केयूरादिसंस्थानात्मनोत्पद्यते ।
–अष्टसहस्री पृ० १५० अर्थ- सुवर्णत्वादि द्रव्यांश रूपमें सत् और केयूरादिके आकारभूत पर्यायांशरूपमें असत् सुवर्ण द्रव्य हो केयूरादिके आकारोंसे परिणत होने की शक्तिहप अन्तरंग सामग्री और स्वर्णकारके व्यापार आदिरूप बहिरंग सामग्रीका सन्निपात हो जानेपर केयू रादिके आकाररूपसे उत्पन्न होता है ।। . इसके साथ ही इस बातपर भी ध्यान देना आवश्यक है कि उपादान कारणको समानता रहते हुए भी निमित्तकारणोंकी विचित्रताके अवलम्बनसे कार्यों में भी विचित्रता देखी जाती है। स्वामी समन्तभद्रने कहा भी हैकामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः ।।१९।। -देवागमस्तोत्र
___-अष्टसहस्री पृष्ठ २६७ मर्थ-पौद्गलिक कर्मकि बन्धके अनुसार ही जीवोंमें कामादिको विविश्वरूपता हुआ करती है । इस विषयमें प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाकी निम्नलिखित पंक्तियां भी द्रष्टव्य है
यथैकेषामपि बीजानां भूमिवपरीत्यान्निष्पत्तिवपरीत्यं तथकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रत्रपरीत्यात्फलवैपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ।
अर्थ-जिस प्रकार भूमिकी विपरीततासे एक ही प्रकारके श्रीजोंमें कार्योत्पत्तिको विपरीतता देखो जाती है उसी प्रकार एक ही तरहका शुभोपयोग भी पात्रोंकी विपरीतताके कारण फलमें विपरीतता ला देता है, क्योंकि कारणविशेषसे कार्य में विशेषताका होना अवश्यंभावी है ।
इन प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि निमित्तकारण उपादानकी कार्यपरिणतिमें केवल हाजिरी ही नहीं दिया करता है, बल्कि अपने ढंगसे उपादानका अनुरंजन किया करता है।
हमने अपनी द्वितीय प्रतिशंकामें भी ऐसे बहुतसे आगम प्रमाण उपस्थित किये हैं जिनसे सिद्ध होप्ता है कि निमिसोंका कार्य उपादानको कार्यके प्रति सहायता पहुँचाना ही रहा करता है । इसलिए जिस प्रकार उपादानकारण अपने रूपमें याने कार्य के आश्रयरूपमें वास्तविक है, यथार्थ है और सद्भूत है उसी प्रकार निमित्तकारण भी अपने रूपमें याने फार्यके प्रति उपादान सहकारीरूपमें वास्तविक है, यथार्थ है और सद्भूत है।
आपने अपने उत्तरमें उदासीन और प्रेरक ऐसे दो भेद स्वीकार कर लिए, यह तो प्रसन्नताकी बात है, परन्तु आप इन दोनों के कार्यभेदको अभी तक माननेके लिए तैयार नहीं हैं। ऐसी स्थिति में आपकी इस मेदद्वयकी मान्यताका कोई अर्थ ही नहीं रह जाला है। आप लिखते है कि 'पंचास्तिकाय गाथा ८८ में
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शंका १ और उसका समाधान
निमित्तोंके उदासीन और प्रेरक ऐसे दो भेद स्वीकार किये गये है। मालभ पड़ता है कि केवल इसीलिये ही आप निमित्तोंके प्रेरक और उदासीन ये दो भेद मानने के लिए बाध्य हुए है, परन्तु इनमें पाया जानेवाला अन्तर आपको मान्य नहीं है । यही कारण है कि इस प्रसंग में आपने शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयति' इस प्रेरक निमित्तके उदाहरण के साथ कारीषोऽग्निरयापयति' इस उदासीन निमित्तको समकक्ष रख दिया है और अपने इस अभिप्रायको सर्वार्थ सिद्धिके वचन द्वारा समर्थित करनेवा भी प्रयत्न किया है । लेकिन इस प्रयत्नमें आप इसलिए सफल नहीं हो सकते हैं कि सर्वार्थसिद्धिका वह वचन फ्रेवल इतनी ही बात बतलाता है कि
कर्त शब्द का प्रयोग उदासीन और प्रेरक दोनों प्रकारके निमित्तोंके विषयमें आगममें किया गया है, जिसके मानने में हमें भी कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु उनमें पाये जानेवाले अन्तरका निषेध उससे समर्थित नहीं होता है। इस विषय में आपने अपने उत्तरमें सर्वार्थसिद्धिके उस वचनको उद्धत किया है और उसका अर्थ भी किया है, परन्तु उसका अभिप्राय ही आपने गलत लिया है; अतः आप इस पर पुनः ध्यान दें।
आगे आपने लिखा है कि 'निमित्त कारण दो प्रकार के हैं--एक वे जो अपनी क्रिया द्वारा अन्य व्यके कार्यमें निमित्त होते हैं और दूसरे वे जो चाहे क्रियावान् हों और चाहे अक्रियावान् हों, परन्तु जो क्रियाके माध्यमसे निमित्त न होकर निष्क्रिय द्रव्योंके समान ही अन्य द्रव्योंके कार्योमे निमित्त होने है। इस विषयमें हमारा कहना यह है कि यदि सभी प्रकार के निमित्त उपादानके कार्य करते समय केवल हाजिरी ही दिया करते हैं तो क्रियाके माध्यमसे निमित्त होना तथा क्रिया करते हा या न करते हुए भी क्रियाके माध्यमके दिना ही निमित्त होना इन दोनों अवस्थाओं में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। कारण कि आपके मतानुसार सभी निमित्तोंका कार्य उपादानके कार्य करते समय उसकी केवल हाजिरी बजाना ही है, इसलिये जब आगममें प्रेरक और उदासीन दो प्रकारके पृथक-पृथक् निमित्त बतलाये गये है और उन्हें आपने भी निलभावसे स्वीकार कर लिया है तो इन दोनों अन्तरको भी आपको स्वीकार कर लेना चाहिये । वह अन्तर यह है कि जिस अन्य वस्तुके व्यापारके अनुसार उपादानके कार्य में वैशिष्ट्य आता है वह वस्तु प्रेरक निमित्त कहलाती है। जैसे द्वितीय प्रतिशंकामें ऐसे आगम प्रमाणोंका हम उल्लेख कर आये हैं जिनमें प्रेरक निमित्तोंके उदाहरण दिये गये हैं। उनमेंसे एक यह है कि गतिरूपसे परिणत वायु पताकाको गतिमें कारण होती है । इसमें प्रेरकता यह है कि हाका रुख जिस ओर होगा ध्वजा उसी और अवश्य फहराय
आगे आपने लिखा है कि 'प्रेरक कारणके बलसे किसी द्रव्यके कार्यको आगे पीछे कभी भी नहीं किया जा सकता है, सो इस विषयमें हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि कर्मबन्धकी नानारूपतासे कामादिमें भी नानारूपता आ जाती है तथा भूमिको विपरीततासे बोजको उत्पत्तिमें भी विपरीतता आ जाती है । इससे सिद्ध होता है कि प्रेरक निमित्त के बलसे कार्य कभी भी किया जा सकता है। आपने भी प्रश्न नं. ५ के द्वितीय उत्तरमें कर्मानुसार कार्य होना स्वीकार किया है, जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।
थोड़ा विचार कीजिये, कि एक व्यक्तिने शीत हतुके आ जाने पर गर्म (ऊनी) कपडाका कोट बनवाना आवश्यक समझकर बाजारसे कपड़ा खरीदा, परन्तु जब वह उसे दर्जी के पास ले गया तो दर्जन समयाभावके कारण उसकी आकांक्षाके अनुसार शीघ्र कोट बनाने में अपनी असमर्थता बतलायी, इस तरह कोटका बनना तब तक रुका रहा जब तक कि दजाँके पास कोटके बनाने का अवकाश नहीं निकल आया। इस दृष्टान्त में विचारमा यह है कि कोट पहिनने की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति द्वारा खरीदे हए उस कपड़े में, जब कि उसे दर्जीकी मर्जी पर छोड़ दिया गया है, कौनसी ऐसी उपादाननिष्क योग्यताका अभाव बना हुआ है कि वह कपड़ा कोटरूपसे परिणत नहीं हो पा रहा है और जिस समय वह दर्जी कोटके सीनेका व्यापार
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
करने लगता है तो उस कपड़े में कौनसी उपादाननिष्ठ योग्यताका अपने आप सद्भाव हो जाता है कि वह कपड़ा कोट बनकर तैयार हो जाता है। विचार कर देखा जाय तो यह सब साम्राज्य निमित्तकारण सामग्रीका ही है, उपादान तो बेनारा अपनी योग्यता लिये तभी से तैयार बैठा है जब वह दर्जीके पास पहुँचा था । यहाँ पर हम उस कपड़ेकी एक एक क्षणमें होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे है, क्योंकि कोट पर्याय के निर्माणसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । हम तो यह कह रहे हैं कि पहले से ही एक निश्चित आकारवाले कपड़े का वह टुकड़ा कोटके आकारको क्यों तो दर्जीके व्यापार करने पर प्राप्त हो गया और जब तक दर्जीने कोट बनाने रूप अपना व्यापार चालू नहीं किया तब तक वह वयों जैसाका सँसा पड़ा रहा। जिस अन्वय व्यतिरेकाभ्य कार्यकारणभाषकी सिद्धि आगम प्रमाणसे हम पहले कर आये हैं उससे यही सिद्ध होता है कि सिर्फ निमित्तकारणभूत दर्जीकी बदौलत हो उस कपड़ेको कोटरूप पर्याय आगेकी पिछड़ गयी । कोटके निर्माण कार्यकी उस कपड़े की सम्भाव्य क्षणवर्ती क्रमिक पर्यायोंके साथ जोड़ना कहाँतक बुद्धिगम्य हो सकता है ? यह आप ही जानें, क्योंकि एक तो प्रत्येक वस्तुमें अगुरुलघुगुणों के आधार पर क्षणिक पर्यायोंका होना सम्भव प्रतीत होता है, दूसरे कालिक सम्बन्धसे समयादिको अपेक्षा नवीनसे पुराने रूप परिवर्तनके रूपमें पर्यायोंका क्षणिकत्व सम्भव है। इसमें विचारनेकी बात यह है कि क्या इन पर्यायोंकी क्रमोत्पत्तिके आधार पर कपड़े में कोटरूप स्थूल पर्यायका निर्माण सम्भव है? यदि नहीं, तो फिर और कौनसो ऐसी क्षगिक पांयांका तोता उस कपड़े में विद्यमान है जिनको कमिकता के आधार पर कपड़ेकी अन्तिम पर्याय दर्जी आदि बाह्य सामग्रीके व्यापारकी अपेक्षा के बिना ही कोटका रूप धारण करने में समर्थ हो सकी । यह बात अनुभवगम्य है कि दर्जीके द्वारा कपड़े की कोट पर्यायके निर्माणके अनुरूप व्यापार करनेसे पहले उस कपड़े में जो भी पर्यायें कम या अक्रम रूप से होती आ रही हों, उन पर्यायोंके साथ कोट पर्यायका कोई भी क्रमिक सम्बन्ध नहीं जुड़ता है, क्योंकि कोट पर्यायके निर्माणसे पहले जहाँ तक सम्भव है वहीं तक कपड़ेका स्वामी कोटको छोड़कर यदि अन्य कोई वस्तुका निर्माण दर्ज करानेका निर्णय कर लेता है तो दर्जी उस कपड़े विषयमें अपना व्यापार कोट पर्याय के अनुरूप न करके उस वस्तुके अनुरूप करने लगता है जिसको कपड़ेका स्वामी उससे बनवाना चाहता है । इतनी बात अवश्य है कि दर्जी जब फोट पर्यायके निर्माणका कार्य प्रारम्भ करता है तो कोट के जितने अंग
उसे काटने हैं और उनकी सिलाई करना उन सब अंगोंके काटने व सोनेका कोई क्रम न होते हुए भी उनमें से जिस अंगको जब वह काटना व सोना प्रारम्भ करता है तब उस कपड़ेकी उस अंग रूप कटाई और सिलाई में क्रमिकता विद्यमान रहेगी ही याने उस अंगके जितने सिलसिलेवार प्रदेश है उन्हें क्रमसे ही काटेगा और क्रमसे ही उनकी सिलाई होगी, फिर भी इसमें भी यह सम्भव है कि फटाई व सिलाई के व्यापारके विषय स्वतन्त्र होने के कारण वह दर्जी कपड़े की कटाई व सिलाईको बीचमें अधूरी छोड़कर भी दूसरा व्यापार कर सकता है और बादमें कटाई व सिलाईके व्यापारको पुनः चालू कर सकता है। या दूसरा अन्य व्यक्ति भी उस कटाई व सिलाई रूप व्यापारको चालू कर सकता है। हमें आश्चर्य होता है कि यह सब व्यवस्था अनुभवगम्य और आपके पक्ष द्वारा जीवन व्यवहारमें अनिवार्य रूपसे अपनाई जाने पर भी इस वस्तु तत्व व्यवस्था में आप इसकी उपेक्षा कर रहे हैं ।
आगे आपने आचार्य पूज्यपाद के इष्टोपदेशका 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' यह बतलाने का प्रयत्न किया है कि 'जो कुछ होता है वह केवल उपादानकी होता है' परन्तु इसके विषयमें हम आपको बतला देना चाहते हैं कि इससे भी आप में असमर्थ ही रहेंगे । कारण कि उक्त श्लोक एक तो द्रव्यकर्मके विषयमें नहीं है।
इत्यादि लोक उपस्थित करके
अपनी योग्यताके बलपर ही
अपने मत की पुष्टि करने दूसरे वह हमें इतना ही
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शंका और उसका समाधान
२५.
बतलाता है कि जिसमें जिस कारकि निष्पन्न होनेकी योग्यता विद्यमान नहीं है उसमें निमित्त अपने बलसे उस कार्यको उत्पन्न नहीं कर सकता है और यह बात हम भी मानते ही हैं कि मिट्टी में जब पटरूपसे परिणत होनेकी योग्यता नहीं पायी जाती है तो जुलाहा आदि निमित्तोंका सहयोग मिल जाने पर भी मिट्टीसे पटका निर्माण असम्भव ही रहेगा । इराका तात्पर्य यह है कि पादानमें अनुकूल स्वपरप्रन्यय परिणमनकी योग्यता न हो, लेकिन निमित्त सामग्री विद्यमान हो तो कार्य निरपरग नहीं होना । भी सरह उपायाने अनुकूल स्वपरप्रत्यय परिणमनकी योग्यता हो लेकिन निमित्त गामग्री प्राप्त न हो तो कार्य नहीं होगा, यदि जपादानमें उक्त प्रकारकी योग्यता हो और निमित्त सामग्री विद्यमान हो, लेकिन प्रतिबन्धक बाह्य सामग्री उपस्थित हो जाये तो भी कार्य नहीं होगा। इस भौतिक विकासके युग में व्यमित पा राष्ट्र जितनी अभूतपूर्व एवं आश्चर्यमें डालनेवाली वैज्ञानिक खोजें कर रहे हैं ये सब हमें निमित्तोंके असीम शाक्तिबिस्तारको सूचना दे रही हैं।
पूज्यपाद आचार्यके उक्त श्लाकमें जो 'निमित्तमात्रमन्यस्तु' पद पड़ा हुआ है. उसका आशय यह नहीं है कि निमित्त उपादानको कार्य परिणतिमें अकिंचित्कर ही बना रहता है जैसा कि आप मान रहे हैं, किन्तु उसका आशय यह है कि उपादान में यदि कार्योत्पादनकी क्षमता विद्यमान हो तो निमित्त उरो केवल अपना महयोग प्रदान कर सकता है । ऐसा नहीं, कि उपादान में अविद्यमान योग्यताकी निष्पत्ति भी निमित्त द्वारा की जा सकती है। इससे यह तथ्य फलित होता है कि जिस प्रकार जैन संस्कृति वस्तुमें स्त्रप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार करती है उसी प्रकार वह मात्र परप्रत्यय परिणमनका दृढ़ताके साथ निषेध भी करती है । अर्थात् प्रत्येक वस्तुमें स्व अति उपादान और पर अर्थात् निमिन दोनोंके संयुक्त व्यापारसे निष्पन्न होनेवाले स्वपरप्रत्यय परिणमनोक साथ साय जैन संस्कृति ऐसे परिणामन भी स्वीकार करती है जो निमितोंकी अपेक्षाके बिना केवल उादानके अपने बल पर ही उत्पन्न हुआ करते हैं और जिन्हें वहाँ स्वप्रत्यय नाम दिया गया है, परन्तु किसी भी वस्तुमें ऐसा एक भी परिणमन किसी क्षेत्र और किसी कालमें उत्पन्न नहीं हो सकता है जो स्व अर्थात् उपाधानको उपेक्षा करके केवल पर अर्थात् निमित्त के मलपर निष्पन्न हो सकता हो । इस तरह जैन संस्कृतिमें मात्र परप्रत्यय परिणमनको दृढ़ताके साथ अस्वीकृत कर दिया गया है।
इस प्रकार आपका यह लिखना असंगत है कि "निमित कारणोंमें पूर्वोक्त दो भेद होनेपर भी उनकी निमित्तता प्रत्येक व्यके कार्य के प्रति समान है। कार्यका साक्षात् उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं। क्योंकि इस तरहकी मान्यताकी संगति हमारे ऊपर लिखे कथनके अनुसार जैन संस्कृति की मान्यताबे विरुद्ध बैठती है।
आगे आपने स्वामी समन्तभद्रकी 'बाह्येतरोपाधिरामग्रतेय' इस कारिकाका उल्लेख करके बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंकी अर्थात् उपादान और निमित्तकारणों की समग्रताको कार्यात्पत्तिमें साधक मान लिया है यह तो ठीक है, परन्तु कारिकामें पठित 'धगतस्वभावः' पदका अर्थ समझनेमें आपने भूल कर दी है और उस भूलके कारण हो आप निमित्तको उपादानसे कार्योत्पत्ति होने में उपचरित अर्थात कल्पनारोपित कारण मानकर केवल उपादानसे ही कार्योत्पत्ति मान बैठे हैं। इसके साथ अपना एक कल्पित सिद्धान्त भी आपने विना आगमप्रमाणके अनुभव और तक विपरीत प्रस्थापित कर लिया है कि प्रत्येक समयमें निमित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार ही होती है। जिसका आशय सम्भवतः आपने यह लिया है कि उपादान स्वयं कायोत्पत्तिके समय अपने अनकल निमित्तोंको एकत्रित कर लेता है। और इस संभावनावी सत्यता इस आधारपर भी मानी जा सकती है कि आपने
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादलाः ।
सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥ इस पधको अपने अभिप्रायके अनुसार अर्थ कर प्रश्नके उत्तर में प्रमाणरूपसे उपस्थित किया है।
इस पद्य की प्रमाणता और अप्राणता तथा आपके द्वारा स्वीकृत इसके अर्थकी समालोचना सो हम उसी प्रश्न के प्रकरणमें ही करेंगे, यहाँ तो सिर्फ हमें इतना ही कहना है कि स्वामी समन्तभद्रकी 'बाह्म तरोपाधिसमग्रतेय' इस कारिकामें पठिल 'द्रव्यगतस्वभावः' पदका अर्थ जो आपने समझा है यह ठीक नहीं है । उसका अर्थ तो यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें परिणमन करनेके विषय में दो प्रकारके स्वभाव विद्यमान हैं। उनमें से एक स्वभाव तो यह है कि वह कितने ही परिणमनों (पड्गुणहानिबुद्धिरूप परिणमनों) की केवल अपने ही बलपर क्षण-क्षणमें उत्पत्ति होनेकी योग्यता रखता है । और उसका दूसरा स्वभाव यह है कि कितने ही परिणमनोंको अनुकूल निमित्तोंके सहयोगपूर्वक यथायोग्य प्रत्येक क्षणमें अथवा नाना क्षणों के एक समूहमें उत्पत्ति होनेकी योग्यता उसमें पायी जाती है। ये दोनों वस्तुके स्वभाव ही हैं अर्थात् निमित्त की अपेक्षाके बिना फेवल उपादानके अपने ही बलपर परिणमनका होना और निमित्तोंका सहयोग लेकर उपादानके परिणमनका होना ये दोनों ही स्वभाव द्रव्यगत है ।
आगे आपने लिखा है कि 'यदि प्रत्येक क्षणमें निमित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार न मानी जाय तो मोक्ष विधि नहीं बन सकती है।' इस विषयमें हमारा कहना यह है कि जीवकी मोक्षपर्याय स्वप्रत्यय पर्याय न होकर स्वपरप्रत्यय पर्याय ही है । कारण कि मुक्तिका स्वरूप आगमग्रन्धोंमें दृश्यकर्म, नो-कर्म और भावकर्मोके क्षपणके आधारपर ही निश्चित किया गया है।
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। -तत्वा० अ० १०, सूत्र २ ।
अर्थ-संवर और निर्जरापूर्वक सम्पूर्ण कोका क्षय हो जाना ही मोक्ष का स्वरूप है। इस तरह आगामी कर्मोंके आस्रवका निरोध और विद्यमान कर्मोकी निर्जराको आत्माको पूर्ण स्वातंत्र्यदशाके विकसित होने में निमित्त रूपसे जैन संस्कृतिमें स्वीकृत किया गया है। इसी प्रकार चरणानुयोगपर आधारित पंचमहानतादि बाह्म अर्थात् व्यवहार चारित्र और करणानुयोगपर आधारित आत्मविशुद्धि स्वरूप अन्तरंग अर्थात् निश्चय चारित्रके समन्वयको ही मुक्तिका साधन जैन संस्कृति में स्वीकार किया गया है। इस तरह जब जीक चरणातुयोग और करणानुयोगके अनुसार पुरुषार्थ करता हुआ अपने भाव शुद्ध करता है तब इन शुद्ध भादोंके निमित्तसे नवीन कर्मोंका संबर तथा बंधे हुए कोंकी निर्जरा होती है और इस प्रकार घातिया कर्मोका अय कर केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है। तथा अन्तमें शेष सभी प्रकारके कर्मोंका नाश कर मुक्ति प्राप्त कर लेता है | अतः आगम सम्मत सिद्धान्तानुसार तो मोक्ष की प्राप्तिमें कोई बाधा नहीं आती । किन्तु आपके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तके अनुसार जोब पुरुषार्थ करने के लिये स्वतन्त्र नहीं रहता है, वह तो नियतिके अधीन रहता है, अतः मोशकी विधि नहीं बन सकती है।
___ आगे आपने लिखा है कि 'यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंगके प्राप्त होनेके पूर्व ही दयलिंग स्वीकार कर लेता है, पर उस द्वारा भावलिंगकी प्राप्ति द्रव्यलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो, ऐसा नहीं है । किन्तु जब उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त लिंग रहता ही है । तीर्थकरादि किसी महान् पुरुषको दोनोंको एक साथ प्राप्ति होती हो, मह बात अलग है ।'
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शंका १ और उसका समाधान
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इसके विषय में हमारा कहना है कि आगम में व्यवहार चारित्रको निश्चय चारित्रमें कारण स्वीकार किया गया है—
बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरन्स्त्वम् आध्यात्मिकस्य तपसः परिवृर्हणार्थम् ॥
- स्वयंभू स्तोत्र, कुन्थजिन स्तुति, पद्य ८३ अर्थ----३ भगवन् ! आपके लिए हुई बाह्य तपका आवरण किया था । इस विपयके अन्य अनेकों प्रमाण प्रश्न नं ३, ४ व १३ के उत्तरोंमें देखनेको मिलेंगे । उपरोक्त आपके कथनमें भी प्रकारान्तरसे यह तो स्वीकार कर प्राप्ति के लिए द्रव्यलिंग अनिवार्य कारण है अर्थात् द्रव्यलिंग ग्रहण किये सकती है। जहाँ इन दोनोंकी एक साथ प्राप्ति बतलाई गई है किया जाता है और कुछ क्षण पश्चात् ही भावलिंग हो जानेसे, एक साथ प्राप्ति कहलाती है। यदि बिल्कुल एक साथ भी है और भावलिंग कार्य है । जैसे
छहढाला चौथी ढाल छन्द २
युगपत् होते हू प्रकाश दीपक ते होई। भावलिगको प्राप्ति के लिए जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा अनिवार्य कारणरूपसे द्रव्यलिंगको ग्रहण करता है । भावलिंगको प्राप्तिके समय व्यलिंग स्वयमेव, बिना जीनके पुरुषार्थ के आकर उपस्थित नहीं हो जाता है | अतः यह कहना ठीक नहीं है कि 'भावलिंग होने पर लिंग होता है ।' प्रत्युत भावलिंग होने से पूर्व द्रगको तो उसकी उत्पत्ति के लिये कारणरूपसे मिलाया जाता है । द्रव्यलिंगके ग्रहण करनेपर ही भावपत्ति हो सकती है. इसके ग्रहण किये बगैर उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । जैसे धूम्र अग्निके होनेवर ही हो सकता है, अग्निके बिना नहीं हो सकता है अपितु अग्नि के
कारण नहीं है। क्षेत्रकी अपेक्षा
होनेपर हो भी या न भी हो । उसके साथ अन्य कारणोंकी भी कर्मभूमिका आर्य खण्ड, कालकी
किन्तु भाव लिगकी उत्पत्तिके लिए मात्र द्रव्यलिंग ही आवश्यकता है— जैसे चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम अपेक्षा दुषमा- सुषमा या दुषभा काल तथा स्वयं जीवका पुरुषार्थ आदि । यदि अन्य यह सब या इनमें से कोई कारण नहीं मिलेगा तो भावलिंगकी उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति समस्त कारणों के मिलने पर ही होती हैं । किन्तु अन्य कारण न मिलनेपर कार्य न होने का यह अर्थ नहीं कि जो कारण मिले हैं उनमें कारणत्व भाव (धर्म) नहीं है । यदि इनमें कारणत्व न हो तो इनके बगैर भी, अन्य कारणोके मिल जाने मात्र से ही कार्य हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। अतः इनमें स्वभावतः वास्तविकरूप कारणत्व शक्ति सिद्ध हो जाती है और इसी प्रकार अन्य कारणों में भी सिख हो जाती है। कारणका लक्षण भी मात्र इतना ही है कि जिसके बिना कार्य न हो ।'
जेण विणा जंण होदि चैव तं तस्स कारणं 1 - श्री धवल १४ ९०
लिया गया है कि भावलिंग की बिना भावलिंगकी प्राप्ति नहीं हो वहाँ भी वास्तव में द्रव्यलिंग पूर्व में ही ग्रहण वह अन्तर ज्ञानमें नहीं आता है, इस कारण प्राप्ति मानी जाती है, तब भी द्रव्यलिंग कारण
अर्थ - जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है ।
यह बात दूसरी है कि कार्य के हो जाने पर उस कार्यको देखकर यह अनुमान लगा लिया जाय कि इस कार्यके लिए जो-जो कारण आवश्यक ये वह सब मिले हैं, क्योंकि सर्व कारण मिले बिना उस कार्यका होना असम्भव था । यह भी अनुमान हो जाता है कि जो कारण साथ में रहनेवाले हैं वे साथ में हैं और जो दोगकका या धूमको देखकर अग्निका अनुमान
पूर्व में हो जानेवाले हैं वे हो चुके हैं । जैसे प्रकाश को देखकर
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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
लगाया जा सकता है। इस प्रकार कार्यं अपने कारणोंका मात्र शापक ही हो सकता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जब प्रकाश या धूम अपने उपादानके अनुसार उत्पन्न हुआ तो दीपक या अग्निको स्वयमेव ही उसके निर्मित रूपसे उपस्थित होना पड़ा। जिसको प्रकाश या घूमकी आवश्यकता होती उसको उसके कारणभूत दीपक या अग्निको अपने पुरुषार्थ द्वारा जुटाना पड़ता है। अतः आपका उपर्युक्त सिद्धान्त प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध है ।
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यदि आपका उपर्युक्त सिद्धान्त माना जायगा तो कार्य कारणभाव बिल्कुल उल्टा हो जायगा, क्योंकि जब स्वयमेव उपादानसे होनेवाले कार्यके अनुसार कारणों को उपस्थित होना पड़ा तो वह कार्य उन कारणों की उपस्थिति में कारण हो गया अर्थात् कार्य कारण बन गया और कारण कार्य बन गये। इसका फलितार्थ यह हुआ कि उपरोक्त दृष्टान्तोंगे भावलिंग, प्रकाश या धूम (जो कार्य हैं ) द्रव्यलिंग, दीपक या अग्नि के होने में कारण बन गये, क्योंकि जब भावलिंग आदि अपने उपादानसे हुए तो अनिवार्यरूपसे द्रयलिंग आदिको होना पड़ा। यह बात आगम तथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है ।
'उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है। केवल यह मान्यता भी ठीक नहीं है । भावलिंग क्षायोपशमिक भाव है । इसको प्राप्ति चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमरूप निमित्तके अनुसार ही उपादान में होती है ।
तत्र क्षयोपशमेन युक्तः क्षायोपशमिकः । श्री पञ्चास्तिकाय गा० ५६ की टीका अर्थ - फर्मो के क्षयोपशम सहित जो भाव है वह क्षायोपशमिक भाव है ।
इस भाको, पौद्गलिक कर्मके क्षयोपशम द्वारा जन्य होनेके कारण ही कथचित् मूर्तीक तथा अrfeज्ञानका विषय माना है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशम ही भात्रलिंग आत्मामें उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं। अतः आपका यह फलितार्थं निकालना कि निमितकी प्राप्ति उपादान के अनुसार होती है' आगम विरुद्ध है ।
आपके उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार जब उपादान अपने अनुसार कार्य कर ही लेता है, तब निमित्तकी आवश्यकता हो क्या रह जाती है। चूँकि आगम में सर्वत्र यह प्ररूपण किया गया है कि निमित्त तथा उपादान रूप उभय कारणोंसे ही कार्य होता है और निमित्त हेतु कर्ता भी होता है, अतः शब्दों में तो आपने उसे ( निमित्तको ) इन्कार नहीं किया, किन्तु मात्र शब्दों में स्वीकार करते हुए भी आप निमित्तभूत वस्तु में कारणत्वभाव स्वीकार नहीं करते हैं तथा निमित्तको अकिचित्कर बतलाते हुए मात्र उपादानके अनुसार ही अर्थात् एकान्ततः मात्र उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं । आगमके शब्दों को केवल निबाहने के लिये यह कह दिया गया है कि निमित्त की प्राप्ति उपादानके अनुसार हुआ करती है। ताकि यह न समझा जाय कि आगम माननीय नहीं है। इस एकान्त सिद्धान्तको मान्यता से यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्त कारण मात्र दशों में ही माना जा रहा है, वास्तव में उसको कारणरूपने नहीं माना जा रहा है ।
हमने अपनी दूसरी प्रतिशंका में यह स्पष्ट किया था कि प्रवचनसारकी गाथा १६९ तथा उसकी श्री अमृतचन्द्रकृत टीकामें जो 'स्वयं' 'अपने आप' न होकर 'अपने रूप' ही है। इसके अनन्तर पुनः आपने अपने 'स्वयभेव' पदका अर्थ 'स्वयं ही' है अपने रूप नहीं ।
शब्द आया है उसका अर्थ प्रत्युत्तर में यह कहा है कि
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शंका १ और उसका समाधान
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इस विषयमें हमारा कहना यह है कि 'स्वयमेव' पद कुन्दकुन्द स्वामीके अन्थोंमें जहाँ भी कार्यकारणभावके प्रकरणमें आया है वहीं सर्वत्र उसका अर्थ 'अपने रूप' अर्थात् 'स्वयं की वह परिणति है.' 'या स्वयंमें ही बह परिणति होती है। ऐसा ही करा चाहिए । 'बिना सहकारी कारणके अपने आप यह परिणति होती है' ऐसा अर्थ कदापि संगत नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि समयसार गाथा ८० व ८१ में तथा गाथा १०५ में और इसके अतिरिक्त अन्म बहुत स्थानोंमें भी आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा तथा इसी प्रकार समस्त आचार्य परम्पराके आग मसाहित्यमें उपादानकी स्थपरप्रत्ययरूप प्रत्येक परिणति निमित्तसापेक्ष ही स्वीकार की गयी है और यह हम पूर्वमें स्पष्ट कर चुके हैं कि निमित्त भी उपादानकी तरह कार्योत्पत्तिमें सहकारी कारणो रूपमें वास्तविक तथा अनिवार्य ही है, कल्पित नहीं; अतः उपादानकी स्वपरप्रत्यय परिणसि निमित्तकारणके सहयोगके बिना अपने आप ही हो जाया करती हैयह मान्यता आगम विरुद्ध है। इसलिए यही मानना श्रेयस्कर है कि कार्यकारणभावके प्रकरण में जहाँ भी आगम साहित्य में 'स्वयमेव' पद आया है वहां पर उसका अर्थ वही करना चाहिए जो हमने ऊपर लिखा है। ..
___ आपने लिखा है कि प्रवचनसार गाया १६९ में 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'स्वयं ही' है, 'अपने रूप' नहीं । और आगे लिखा है कि इसके लिए समयसार गाथा ११६ आदि तथा १६८ संख्याक गाथाओंका अवलोकन करना प्रकृतमें उपयोगी होगा।'
इस पर हमारा कहना यह है कि किसी भी शब्दका अर्थ प्रकरणके अनुसार निश्चित किया जाता है । जैसे प्रवचनसार गाथा १६८ की श्री अमृतचन्द्र आचार्यकृत टोकामें पठित 'स्वयमेव' शब्दका अर्थ प्रकरणानुसार 'अपने आप ही आपने ठीक माना है और हम भी वहीं इसी अर्थको ठीक समझते हैं । कारण कि वहीं प्रकरणके अनुसार यह दिखलाया गया है कि लोक पुद्गलकायोंसे स्वतः ही व्याप्त हो रहा है, उसका कारण अम्म नहीं है; लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आगममें जहाँ भी 'स्वयमेव' पदका पाठ किया गया है वहाँ सर्वत्र उक्त १६८वी गाथाको टीकाके 'स्वयमेव' पदके समान 'अपने आप' अर्थ करना ही उचित होगा। जैसे भोजनके समय 'सैन्धन' शब्दका नमक अर्थ लोकमें लिया जाता है और युद्धादि कार्योंके अवसर पर 'सैन्धव' शब्द का घोड़ा' ही अर्थ लिया जाता है इसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए ।
समयसार गाथा ११६ आदिमें जो 'स्वयं' शब्द आया है उसका भी अर्थ 'अपने आप' नहीं माना जा सकता है। कारण कि उन माथाओंमें पठित 'स्वयं' शब्दका इतना ही प्रयोजन ग्राह्य है कि पुदगल कर्मवर्गणाएँ ही कर्मरूपसे परिणत होती है, जीवका पुद्गलमे कर्मरूपसे परिणमन नहीं होता। वे गाथाएँ निम्न प्रकार है
जीवे ण सयं बद्धं ण सयं परिणमदि कम्मभावेण । जइ पुग्गलदबमिणं अप्परिणामी तदा होदि ॥११॥ कम्मइयबग्गणासु य अपरिणमंतीसू कम्मभावेण । संसारस्स अभावो पसज्जदे संस्खसमओ. वा ॥११७।। जीवो परिणामयदे पुग्मलदब्वाणि कम्मभावेण । ते सयमारणमंते कहं तु परिणामयदि चेदा ॥११८॥ अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दब्बं । जीवो परिणामयदे कम्म कम्मत्तमिदि मिच्छा ॥११९||
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जयपुर (वानिया) तत्वचर्चा और उसको समीक्षा णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चि य होदि पुग्गलं दन्छ ।
तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव ।।१२०।। (पंचकम्) इन गाथाओं द्वारा आचार्य कुन्दकुन्दने पुद्गस द्रव्यके परिणामी स्वभावकी सिद्धि की है । जैसेअथ पुद्गलद्रव्यस्य परिणामिस्वभावत्वं साधयति सांस्यमतानुयायिशिष्य प्रति ।
-उल्लिखित गाथाओंको अवतरणिका अर्थ-उक्त गाथाओंके द्वारा सांस्यमतानुयायी शिष्वके प्रति पुद्गलद्रव्यका परिणामी स्वभाव सिद्ध करते हैं।
वहाँपर पहली बात तो यह है कि रास्यिमतानुयायी पृद्गल इन्धके परिणामी स्वभावको नहीं मानता है, इसलिए आचार्यको इसके सिद्ध करनेकी आवश्यकताको अनुभूति हुई है। दूसरी बात यह है कि इस . अवतरणिकामें 'स्वयं' शब्दका पाठ नहीं होनेसे भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तुके परिणामी स्वभावकी सिद्धि करना ही आचार्यको अभीष्ट रही है, अपने आप परिणामी स्वभावकी नहीं । अब विधारना यह है कि यदि आचार्य कुन्दकुन्दको उक्त गाथाओंके द्वारा अपने आप अर्थात् अन्य (आत्मा) की सहायताको अपेक्षा रहित पुद्गलद्रव्यका कर्मरूपमे परिणामी स्वभाव सिद्ध करना अभीष्ट होता तो आपार्थ अमृतचन्द्र इनकी उक्त अवतरणिकामें 'स्वयमेव' शब्दका पाठ अवश्य करते । दूसरी बात यह है कि गाथा ११५ के उत्तरार्धमें जो संसारके अभावकी अथवा सांख्यमतको प्रशक्तिरूप आपत्ति उपस्थित की है वह पुद्गलको परिणामी स्वभाव न माननेपर ही उपस्थित हो सकती है 'अपने आप परिणामी स्वभाव' के अभावमें नहीं । कारण कि परिणामी स्वभावके अभावमे तो उक्त दोनों आपत्तियोंको प्रसक्ति सम्भव है, परन्तु 'अपने आप परिणामी स्वभाव' के अभावमें वे आपत्तियां इसलिए सम्भव नहीं मालूम देती कि पुद्गल द्रव्यमें 'अपने आप परिणामी स्वभाव' के अभाव में परसापेक्ष परिणामी स्वभावका सद्भाव सिद्ध हो जायगा। ऐसी हालतमें संसारका अभाव अयवा सांख्य समय कैसे प्रसक्त हो सकेगा? यह बात विचारणीय है। एक बात और विचारणीय है कि यदि इन गाथाओंमें 'स्वयं' शब्दका अर्थ 'अपने अप' ग्राह्य माना जायगा तो गाथा ११७ के पूर्वार्ध में भी 'स्वयं' शब्दके पाठकी आवश्यकता अनिवार्य हो जायगी, ऐसी हालत में उसमें आचार्य कुन्दकुन्द 'स्त्रय' शब्दये. पाठ करनेत्री रेक्षा नहीं कर सकते थे । इन सब कारणों से स्पष्ट है कि ११६ आदि गाथाओंमें आचार्य कुन्दकुन्दको 'स्वयं' शब्दका अर्थ अपने आप' अभीष्ट नहीं था, बल्कि अपने रूप' ही अभीष्ट था । इस निष्कर्षके साथ जो इन गाथाओंका अर्थ होना चाहिए यह निम्न प्रकार है
अर्थ-यदि पुदगल द्रव्य जीवमें अपने रूपसे बद्ध नहीं होता और उसकी अपने रूपसे कर्मरूप परिणति नहीं होती तो ऐसी हालतमें वह अपरिणामी ही ठहरता है । इस तरह जब कार्मणवर्गणाएँ कर्मरूपसे परिणत न हों तो एक तो संसारका अभाव हो जायगा, दूसरे शब्दोंमें परिणामी स्वभावका निषेध करनेवाले सांख्पमत की प्रसक्ति हो जायगी । यदि कहा जाय कि जीवद्रव्य पुद्गल ट्रम्पको कर्मभावसे परिणत करा देगा, इसलिए न तो संसारका अभाव होगा और न सांख्यमतकी प्रसक्ति ही प्राप्त होगी, तो जीवद्रव्य कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता रखनेवाले पुद्गलद्रव्यको कर्मरूपसे परिणत करायगा अथवा ऐसे पुद्गलको कर्मरूपसे परिणत फरायमा जिसमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता विद्यमान नहीं है । यदि जीव उन पुद्गलोंको कर्मरूपसे परिणत करावंगा जिनमें कर्मरूपसे परिणत होनेको योग्यता विद्यमान नहीं है तो जिन पुद्गलोंमें कर्मरूपसे
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शंका १ और उसका समाधान
३१ परिणत होनेकी योग्यता का अभाव है याने जो कभी कर्मरूपसे परिणत हो ही नहीं सकते है उन्हें जीव द्रव्य ' कैसे कर्मरूप बना सकेगा, इसलिए यदि यह माना जाय कि ऐसे पुद्गलोंको जीवद्रश्य कर्म रूपसे परिणत करेगा जिनमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता विदा मान है तो फिर 'जीव अपरिणमनशील अर्थात् परिगमनको यौम्मतासे रहित पुद्गलको कर्मरूपरो परिणमन कराता है, यह करर गाथा ११८ के पूर्वार्द्ध में प्रतिज्ञात सिद्धान्त मिथ्या हो जाता है । इस तरह माथा ११६ से संसूचित यह सिद्धान्त ही लीक है कि जीवके साथ पुद्गलकी अपनी बद्धता होती है । ऐसा नहीं समझना चाहिये कि जीवके साथ संयोग होनेगर भी पुद्गल स्वयं अबद्ध ही बना रहता है। इसी तरह 'जीवके साथ संयुक्त होनेपर पृदगल में स्वयंकी कर्मरूप परिणति हो जाया करती है। ऐसा नहीं समझना चाहिये कि जीवके साथ संयुक्त होकर भी पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणतिसे अलग ही बना रहता है । इस प्रकार यह बात निश्चित हो जाती है कि कर्मरूप परिणतिको प्राप्त पृद्गलद्रव्यको हो कर्मरूप अवस्था है और इस तरह ज्ञानावरणादि आठ फर्मरूप जितनी भी अवस्थाएँ बनती हैं ये सब पुद्गलकी ही अवस्थाएँ हैं।
इस विवेचनसे बिल्कुल स्पष्ट है कि ११६ आदि गाथाओंमें पठित 'स्वयं' शब्दका अर्थ 'अपने आप' न होकर 'अपने रूप' ही करना चाहिये ।
हम आम नागमके एक दो और भी ऐसे प्रमाण यहाँ दे रहे हैं जिनमें 'स्वयमेव' या 'स्वयं' शब्दका 'अपने आप' अर्थ न होकर 'आप हो' अर्थ होता है। इसके लिये समयसारकी ३०६ व ३०७ गाथाओंकी आरमख्याति टीकाको देखिये । इन गाथाओंकी टोकामें पठित 'स्वयमेवापराधत्वात्' तथा 'स्वयममृतकुम्भो भवति' इन वाक्योंमें 'स्वयं' शब्दका 'आप ही' यह अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार समयसारगाथा १३ को आत्मख्याति टीकामें पठित स्वयमेकस्य पुण्यपापास्त्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः' इस वाक्यमें भी 'स्वयं' मान्दका 'आप रूप' अर्थ ही अभीष्ट है।
आगे आपने लिखा है कि 'समयसार गाथा १०५ में उपचारका जो अर्ध प्रथम प्रश्नके उत्तर में किया गया है वह अर्थ संगत है।' इस विषय में हमने द्वितीय प्रतिशंकामें जो आशय व्यक्त किया था, उसके ऊपर आपने गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया। अब इस प्रतिशंकामें भी पूर्वमें उपचारके अर्थक विषयमें हम विस्तार पूर्वक लिख अाये है जिसपर आप अवश्य ही गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे।
आपने उपचार शब्दके अपने द्वारा किये अर्थको संगतिके लिये जो धवल पुस्तक ६ पुष्ठ ११ का प्रमाण उपस्थित किया है उसके विषयमें हमारा कहना यह है कि उक्त प्रकरणमें आत्मामें विद्यमान कर्तत्वका उपचार उससे (आत्मासे) अभिन्न (एक क्षेत्रावगाही) पुद्गलद्रव्यमें किया गया है, इसलिये 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते' उपचारकी यह व्याख्या यहाँपर पटित हो जाती है, परन्तु ऐसा उपचार प्रकृतमें सम्भव नहीं है। कारण कि आत्माके कतत्वका उपचार यदि द्रव्यकर्ममें आप करेंगे तो इस उपचार के लिये सर्वप्रथम आपको निमित्त तथा प्रयोजनको देखना होगा, जिनका कि यहाँपर सर्वथा अभाष है । इस विषयका विवेचन हम इस लेख में पहले कर ही चुके है।
नोट-इस विषयमें प्रश्न ५,६,११ ओर १७ पर भा दृष्टि डालिये।
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो मणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका १ द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या
नहीं?
प्रतिशंका ३ रा समाधान इस प्रश्नका मगाधान करते हुए प्रथम उत्तरमें ही हम यह बतला आये है कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणमें द्रव्यकर्मका लक्ष्य निमित्तमात्र है । विकारभाव तथा चतुर्गति परिभ्रमणका मुख्यकर्ता तो स्वयं आत्मा ही है । इस तथ्य को पुष्टिमें हमने रामयसार, पंचास्तिकायटोका, प्रवचनसार.. और उसको टीकाके अनेक प्रमाण दिये है किन्तु अपर पक्ष इस उत्तरको अपने प्रश्नका समाधान माननेके लिए तगार प्रतीत नहीं होता। एक ओर तो बह द्रध्यकम के उदयको निमित्तरूपसे स्वीकार करता है और दूसरी और द्रब्वकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिपरिभ्रमणमें व्यवहार नयसे बतलाये गये निमित्त नैमित्तिकसम्बन्धको अपने मूल प्रश्नका उत्तर नहीं मानता इसका हमें आश्चर्य है । हमारे प्रथम उत्तरको लक्ष्य कर अपर पक्षकी ओरसे उपस्थित की गई प्रतिशंका २ के उत्तरमें भी हमारी ओरसे अपने प्रथम उत्तरमे निहित अभिप्रायकी ही पुष्टि की गई है।
__ तत्काल हमारे सामने हमारे द्वितीय उत्तरके आधारसे लिखी गई प्रतिशंका ३ विचारके लिए उपस्थित है । इस द्वारा सर्वप्रथम यह शिकायत की गई है कि हमारी ओरसे अपर पक्षने मूल प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें ही दिया गया है और न ही दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है । 'संसारी जीवके विकारभाव और चतुगति परिभ्रमणमें कर्मोदय व्यवहारनपसे निमित्तमात्र है, मुख्य कर्ता नहीं' इस उत्तरको अपर पक्ष अप्रासंगिक मानता है। अब देखना यह है कि वस्तूस्वरूपको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे जो उसर हमारी औरसे दिया गया है वह अप्रासंगिक है या अपर पक्षका वह कथन अप्रासंगिक ही नहीं सिद्धान्तविरुद्ध है जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है।
अपर पक्षने पद्मनन्दि पंचविंशतिका २३, ५ का 'हृयकृतो लोके विकारो भवेत्' इस वचनको उद्धृत कर जो विकारखो दोका कार्य बतलाया है सो यहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्यकी विभाव परिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभाव परिणति है ? यह दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभाव परिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रश्य मिलकर एक कार्यको त्रिकालमें नहीं कर सकते । इसी बातको समयसार आत्मख्याति टीकामें स्पष्ट करते हुए बतलाया है
नोभी परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत ।
उभयोन परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥५३॥ इसकी टीका करते हुए पं० श्री जयचन्द जी लिखते हैं
दो द्रव्य एक होके नहीं परिणमते और दो व्यका एक परिणाम भी नहीं होता तथा दो द्रव्यकी एक परिणति क्रिया भी नहीं होती, क्योंकि जो अनेक द्रव्य हैं वे अनेक ही हैं एक नहीं होते ॥ ५३॥
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शंका १ और उसका समाधान इसके भावार्थ वे लिखते है-- .
दो वस्तु हैं ने सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेश भेदरूप ही हैं, दोनों एकरूप होकर नहीं परिणमती, एक परिणामको भी नहीं उपजातीं और एक क्रिया भी उनकी नहीं होती ऐसा नियम है । जो दो द्रव्य एकरूप हो परिणमैं तो सब द्रव्योंका लोप हो जाय ।।
यह वस्तुस्थिति है। इसके प्रकाशमें 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' । इस वचनका वास्तविक यही अर्थ फलित होता है कि संयोगरूप भूमिकाम एक द्रव्यके विकार परिणतिके करनेपर अन्य द्रष्य विवक्षिप्त पर्यायके द्वारा उसमें निमित्त होता है 1 इससे स्पष्ट विदित हो जाता है कि निश्चय व्यवहार दोनों नयवचनोंको स्वीकार कर 'यकृतो लोके विकारो भवेत' यह वचन लिखा गया है। स्पष्ट है कि मूल प्रश्नका उत्तर लिखते समय जो हम यह सिद्ध कर आये है कि 'संसारी आत्माके विकार भाव और चतुर्गति परिभ्रमणमें द्रव्यकर्मका जदय निमित्तमात्र है। उसका मुख्य कर्ता तो स्वयं आत्मा ही है। वह यथार्थ लिख आये हैं । पचनन्दिपंचविंशतिकाके उक्त वचनसे गी यही सिद्ध होता है।
अपर पक्षका कहना है कि 'यदि क्रोध आदि विकारी भावोंको कर्मोदय बिना मान लिया जावे तो उपयोगके समान ये भी जीवके स्वभाव हो जायेंगे और ऐसा मानने पर इन विकारी भावोंका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आजावेगा।' आदि,
समाधान यह है कि क्रोध आदि विकारी भावोंको जीव स्वयं करता है, इसलिए निश्चयनयसे वे परनिरपेक्ष ही होते हैं इसमें सन्देह नहों। कारण कि एक व्यके स्वचतुष्टयमें अन्य द्रव्यके स्वचतुष्टयका अत्यन्ताभाव है । इसी तगमो कष्टपल में रखार भी जाकण पु: :: पृ० ११७ में कहा है---
बज्झकारणणिरवेक्खो वत्थुपरिणामो। प्रत्येक वस्तुका परिणाम बाह्य कारण निरपेक्ष होता है ।
किन्तु जिस-जिस समय जीव क्रोधादि भावरूपसे परिणमता है उस-उस समय क्रोधादि द्रव्यकर्मके उदयकी नियमसे कालप्रत्यासत्ति होती है, इसलिए ब्यवहार नयसे क्रोधादि कषायके उदयको निमित्तकर क्रोधादि भाव हुए यह कहा जाता है । कारण दो प्रकारके हैं—बाह्य कारण और आम्यन्तर कारण । बाह्य कारणको उपचरित कारण कहा है और आभ्यन्तर कारणकी अनुपचारित कारण संज्ञा है । इन दोनोंकी समप्रतामें कार्यकी उत्पत्ति होनेका नियम है। अतएव न तो संसारका ही अभाव होता है और न ही मोक्षमें क्रोधादि भावोंकी उत्पत्तिका प्रसंग ही उपस्थित होता है।
क्रोधादि कर्मोको निमित्त किये बिना क्रोधादि भाव होते हैं ऐसा मारा कहना नहीं है और न ऐसा प्रागम ही है, । हमारा कहना यह है कि क्रोधादि विकारी भावोंको स्वयं स्वतन्त्र होकर जीव उत्पन्न करता है. क्रोधादि कर्म नहीं । आगमका भी यही अभिप्राय है । यदि ऐसा न माना जायगा तो न तो क्रोधादि भावोंका कभी अभाव होकर इस जीवको मुक्तिको ही प्राप्ति हो सझेगी और न ही दो द्रव्योंमें भिन्नता सिद्ध हो राकेगी । इसी तथाको ध्यान में रखकर तत्वानुशासन में यह बघन उपलब्ध होता है..
अभिन्नकर्तृ कर्मादिविषयो निश्चयो नयः ।
व्यवहारनयो भिन्नकतृ कर्मादिगोचरः ॥२९॥ जिस द्रव्यके उसी द्रव्यमें कर्ता और कर्म आदिको विपय करनेवाला निश्चयनय है तथा विविध द्रव्योंमें एक-दूसरेके कर्ता और कर्म आदिको बिषव करनेवाला व्यवहारनय है ।।२९।।
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जयपुर (खानिया) तश्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यहाँ विविध द्रव्यों में एक-दूसरे के फर्जी आणि धर्मीको व्यवहारनयसे स्वीकार किया गया है सो यह कथन तभी बन सकता है जब एकके धर्मको दूसरे में आरोपित किया जाए। इसोको असद्भूत व्यवहार कहते हैं । इस तथ्य को विशदरूपसे समझने के लिए आलापद्धतिके 'अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणभूतव्यवहाराका अन्यत्र समारोप करना अद्भूत व्यवहार है' इत्यादि चचमपर दृष्टिपात कीजिए ।
अपर पलने आप्तपरीक्षा कारिका २ से 'सदकारणयन्नित्यम्' वचनको क्यों उद्धृत किया, इसका विशेष प्रयोजन हम नहीं समझ सके। क्या ऐसा एकान्त नियम है कि जो-जो जीवका स्वभाव होता है वह सर्वथा नित्य होता है। अपर पक्ष इस बातको भूल जाता है कि जैन दर्शनके अनुसार आप्तपरीक्षा का उक्स बचन ध्यार्थिकनका ही वक्तब्य हो सकता है, पर्यायार्थिकनयका वक्तव्य नहीं, क्योंकि जैन दर्शन में कोई मी वस्तु सर्वथा नित्य नहीं स्वीकार की गई है। और स्वभाव पर्याय सर्वथा कारण के अभाव में होती हो मह - भी नहीं है । वहाँ भी प्रत्येक कार्यके प्रति बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रताको जनदर्शन स्वीकार करता है । जहाँ भी आगम में स्वभाव कार्यको परनिरपेक्ष बतलाया है वहाँ उसका आशय इतना ही है कि जिस प्रकार कोवादि भाव कर्मोक्ष्य आदिको निमित्तकर होते हैं उस प्रकार स्वभाव कार्य कर्मोदय आदिको निमित्तकर नहीं होते । स्पष्ट हैं कि आप्तपरीक्षाका उक्त वचन प्रकृत में उपयोगी नहीं है ।
अपर पक्षने जयमाला १-५६ के बचनको उद्धृतकर जो यह प्रसिद्ध किया है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें होता है सो इसका हमने कहीं निषेध किया है। रागादि भावकी उत्पत्ति में कर्मकी निमित्तताको जैसे अपर पक्ष स्वीकार करता है उसी प्रकार हम भी स्वीकार करते हैं। विवाद इसमें नहीं है । किन्तु विवाद इसमें है कि परद्रव्यको विवक्षित पर्यायको निमिसकर दूसरे द्रध्यमें जो कार्य होता है उसका यथार्थ कर्त्ता कौन है ? अपर पक्षने परमात्मप्रकाश गाथा ६६ और ७८ को उपस्थित कर यह सि करनेका प्रयत्न किया है कि जीवको सुख-दुःख र नरक - निगोद आदि दुर्गति देनेवाला कर्म ही है। आत्मा तो पंगु समान है। यह न कहीं जाता है और न आता है। तीन लोक में इस ओको कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है। शायद अपर पक्ष निमित्त कर्ताका यही अर्थ करता है और इसीको वह अपने प्रतका समुचित उत्तर मानता है। किन्तु वह व्यवहारका वक्तव्य है इसे अपर पक्ष भूल जाता है । परका सम्पर्क करने से जीवको कैसी गति होती है वह इन वचनों द्वारा प्रसिद्ध किया गया है। यहाँ यह स्मरण रखने योग्य बात है कि परका सम्पर्क करना और न करना इसमें जोवकी स्वतन्त्रता है । इसमें उसकी स्वतन्त्रता हैं कि जैसे कोई पुरुष या स्त्री अपने ऊपर किरासन तेल डालकर और अग्नि लगाकर जल मरे । जो ऐसा करता है वह नियमसे मरकर दुर्गतिका पात्र होता है और जो ऐसा नहीं करता वह मरकर दुर्गतिका पात्र नहीं होता। ऐसा ही इनमें निमित्तनैमित्तिक योग है । इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। परमात्मप्रकाशके कर्ता इस संसारी जीवको परके सम्पर्क करनेका क्या फल है यह दिखलाकर उससे विरत करना चाहते हैं। यह तो है कि यह जीव परका सम्पर्क करके नरक- निगोदका पात्र होता है और अपना पुरुषार्थ भूलकर पंगुके समान बना रहता हूँ । पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह जीव परका सम्पर्क तो करे नहीं, फिर भी पर द्रश्य इसे सुखी - दुखी या नरक - निगोद आदिका पात्र बना देवे । परका सम्पर्क करने से जीवका सुखी दुखी होना और बात है और परसे यह जीव सुखी-दुखी होता है, ऐसा मानना और बात है। परमात्मप्रकाश के कर्ताने इनमें से प्रथम वचनको ध्यान में रखकर ही 'अप्पा पंगुह' तथा 'कम्मइँ दिदधणचिक्कणई' इत्यादि वचन
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शंका १ और उसका समाधान कहे है । यद्यपि संमारी जीव परका सम्पर्क करने के फलस्वरून स्वयं सुखी दुखी तथा नरका-निगोद आदि गतियोंका पात्र होता है । पर यह कार्य जिनक सर कम होता है उनकी मिमितता दिखलाने के लिए ही यह कहा गया है कि आत्मा पंगके समान है। बा न आता है और न जाता है। विधि ही तीन लोकमें इरा जोवको ले जाता है और ले आता है । इत्यादि ।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि परमात्मप्रकाश दोहा ६६ में आया हुआ विधि शब्द जहाँ बापकर्मका.सूचक है वहाँ वह परमामाकी प्राप्तिके प्रतिपक्षभत भावकमको भी सूचित करता है। जब इस जीन्यकी दव्य-गर्यायस्वरूप जिस प्रकारको योग्यता होती है तब उसकी उसके अनुगार ही परिणति होती है और उसमें निमित्त होने योग्य बाह्य सामग्री भी उमौके अनका मिलती है ऐसा ही विकालाबाधित नियम है. इसमें कहीं अपवाद नहीं, तथा यदि परको लक्ष्यकर परिणमन होता है तो नियमसे विभाव परिणतिको उत्पत्ति होती है और स्वभावको लक्ष्यकर परिणमन होता है तो नियमसे स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति होती है। जोवके संसारी बने रहने और मुक्ति प्राप्त करने को यह चावी है। इसमें भी कहीं कोई अपवाद नहीं । यहाँ परके सम्पर्क करतंत्रा अभिप्राय ही परको लक्ष्यकर परिणमन करना लिया है। पर वस्तु विभाव परिणतिमें तभी निमित्त होती है जब यह जीन उसको लक्ष्यकर परिणमन करता है, अन्यथा समारी जीव कभी भी मुक्ति प्राप्त करनेका अधिकारी नहीं हो सकता। अतएव प्रकृतग वही समझना चाहिए कि जब विवक्षित ट्रव्य अपना कार्य करता है तब बाह्य मामग्री उसमें यथायोग्ब निमित होती है। परमात्मप्रकाशके उक्त कथनका यही अभिप्राय है। समयसार गाथा २७८ व २७२ रो भी यही सिद्ध होता है। उक्त गाथाओं में यद्यपि यह कहा गया है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि आप शुद्ध है, वह लालिमा आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है। किन्तु वह अन्य रक्त आदि द्रव्यों द्वारा लालिमारूप परिणमाया जाता है उसी प्रकार ज्ञानी आप शुद्ध है, वह राग आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है। किन्तु बह रागादिरूप दोषों द्वारा रागो किया जाता है । परन्तु इस कथनका ठीक आशय क्या है इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्रने 'न जातु रागादि' इत्यादि कलश द्वारा किया है। इसमें पर पदार्थको निमित्त न बतलाकर परके संगमें निमित्तता सुचित की गई है । इससे स्पष्ट विदित होता है कि आगममें जहां-जहाँ इस प्रकारका कथन आता है कि जीवको कर्म सुख-दुख देते हैं, कम बड़े बलवान् है, वे हो इसे नरकादि दुर्गतियोंगे और देवादि सुगतियों में ले जाते हैं वहाँवहाँ उक्त कथनका यही अर्थ करना चाहिए कि जब तक यह जीव कर्मोदयकी संगति करता है तब तक इसे मंगार परिभ्रमणका पात्र होना पड़ता है। वर्गीय जीवके सुख-दूपत्रादिमें निमित्त है इसका आशय इतमा ही है । परमात्मप्रकाशमें इसी आगवको इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि यह जीव पंगु के समान है। वह न कहीं जाता है और न आता है, कर्म ही इसे तीन लोकमें ले जाता है और ले आता है आदि ।
आगममें दोनों प्रकारका कथन उपलब्ध होता है। कहीं उपाशनकी मुख्यतासे कथन किया गया है और कहीं निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य मामग्रीको मुख्यतासे कयन किया गया है । जहाँ उपादानकी मुख्यतासे कथन किया गया है वहाँ उसे निश्चर (वार्य) कथन जानना चाहिए और जहाँ निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री की मुख्यतास कथन किया गया है वहाँ उस असद्भुतम्यवहार (अपरित) कथन जानना चाहिए ।
श्री समयसार गाथा ३२ को टोका निमित्त व्यवहारके योग्य मोहादयको भावक और आत्माको भाव्य कहा गया है सो उसका आशष इतना ही है कि जब तक यह जाच मोहोदय के सम्पर्क में एकत्वबुद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदय भात्रक व्यवहार होता है और आत्मा भाव्य कहा जाता है। यदि ऐसा
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा न माना जाय तो सतत मोहोदयके विद्यमान रहने के कारण यह आत्मा भेदविज्ञानके बलसे कभी भी भाव्यभावक संकर दोषका परिहार नहीं कर सकता 1 इस प्रकार उक्त कथन द्वारा आत्माकी स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है। आत्मा स्वयं स्वतन्त्रपने मोहोदयरो अनुरंजित हो तो ही माहोदय रंजक है, अन्यथा नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
समयसार गाथा १९८ में भी इसी तथ्यको सूचित किया गया है कि जितने अंशमें जीव पुरुषार्थहीन होकर कर्मोदयल्प विपासे युक्त होता है उतन अशमें जीवमें विभाव भाव होते हैं । अतः ये परके सम्पर्क में हुए हैं इसलिए इन्हें परभाव भी कहते है और ये आत्माके विभावरूप भाव होनेसे स्वभावरूप भावोंसे बहिर्भूत है, इसलिए हेय है । यदि इनमें इस जीवको हेय बुद्धि हो जाय तो परके सम्पर्कमें भी हेय बुद्धि हो जाय यह तथ्य इस गाथा वारा सूचित किया गया है । स्पष्ट है कि यहाँ भी आत्माकी स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है। कर्मोदय बलपूर्वक इसे विभावरूप परिणमाता है यह इसका आशय नहीं है । किन्तु जब वह जीव स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक कर्मोदवसे युक्त होता है तब नियमसे विभावरूप परिणमता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। समयसार गाथा १९९ का भी यही आशय है । समयसार माथा २८१ में उक्त कथनसे भिन्न कोई दूसरी बात कही गई हो ऐसा नहीं समझना चाहिए। जिसको निर्मित कर जो भाव होता है, वह उससे जायमान हुआ है ऐसा कहना आगम परिपाटी है जो मात्र किस कार्यमें कौन निमित्त है इसे सूचित करनेके अभिप्रायसे ही आगममें निर्दिष्ट की गई है। विशेष खुलासा हम पूर्वमें ही कर आये हैं। उपादान में होनेवाले व्यापारको पृथक् सताक बाह्म सामग्री त्रिकालमें नहीं कर सकती इस तथ्यको तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेंगा । अतएव आत्मामें उत्पन्न होनेवाले राग, द्वेष और मोह कर्मोदयसे उत्पन्न होते हैं ऐसा कहना व्यवहार कथन ही तो ठहरेगा। इसे परमार्थभूत (यथार्थ) कथन तो किसी भी अवस्थामें नहीं माना जा सकता। समयसारवी उक्त गाथाओंमें इमी सरणिको लक्ष्यमें ररतकर उक्त कथन किया गया है। तथा यही आशय उनको टीका द्वारा भी व्यक्त किया गया है। यदि अपर पक्ष निमित्त व्यबहारके योग्य बाह्य सामग्री में यथार्थ कर्तृत्वकी बुद्धिका त्याग कर दे तो पूरे जिनागमकी संगति बैठ जाय । विशेषु किमविकम् ।
पञ्चास्तिकाय गाथा १३१ की टोकापर हमने दृष्टिपात किया है। इसमें मोह तथा पुण्य-पापके योग्य गुभाशुभ भावोंका निर्देश किया गया है और साथ ही वे विराको निमित्त कर होते हैं मह भी बतलाया गया है। पञ्चास्तिकाय गाथा १४८ का भी यही आशय है इस तथ्यको स्वयं आचार्य अमृतचन्द्र 'बहिरङ्गातरङ्गबन्धकारणाख्यानमेतत्-यह बन्धके बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग कारणका कथन है' इन पदों द्वारा स्वीकार करते हैं। गाथा १५०-१५१ में तो प्रत्यकर्ममोक्षके हेतुभूत परम संवररूपरो भावमोक्ष के स्वरूपका विधान है | गाथा १५६ की टीकाका 'मोहनीयोदयानुवृत्तिवशात्' पद ध्यान देने योग्य है । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जब यह जीव मोहनीयके उदयका अनुवर्तन करता है तभी यह उससे रम्जित उपयोगवाला होता है और तभी यह पर द्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है।
इस प्रकार समयसार और पञ्चास्तिकायके उक्त उल्लेखोसे उसी तथ्यकी पुष्टि होती है जिसका हम पूर्व में निर्देश कर माये हैं। बाहा सामग्री दूसरेको बलात् अन्यथा परिणमाती है यह उक्स वचनोंका आषाय नहीं है, जैसा कि अपर पक्ष उन वचनों द्वारा फलित करना चाहता है।
परमात्मप्रकाशके उल्लेखोंका आशम क्या है इसकी चर्चा हम पूर्वमें ही विस्तारके साथ कर आये हैं । मूलाराधना गा० १६२१ तथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा माथा २११ का भी आशय पूर्वोक्त कथनसे भिन्न
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शंका १ और उसका समाधान
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नहीं है । मूलाराधनामें 'कम्माई बलियाई' यह गाथा उस प्रसंगमें आई है जब निर्यापकाचार्य क्षपकको अपनी समाधिमें दा करने के अभिप्रायसे कर्मकी बलवत्ता बतला रहे हैं और साथ ही उसमें अनुरजायमान न होकर समताभाव धारण करने की प्रेरणा दे रहे हैं । यह तो है कि जिस समय जिस कर्मका उदय-उदीरणा होती है उस समय आत्मा स्वयं उसके अनुरूप परिणामका कर्ता बनता है, क्योंकि अपने उपादानके साथ उस परिणामकी जिस प्रकार अन्तर्व्याप्ति है उसी प्रकार उस कके उदयके साथ उसको बाह्य व्याप्ति है। फिर भी आचार्य ने यहां पर कर्मोदयकी बलवत्ता बतलाकर उसमें अनरंजायमान न होनेकी प्रेरणा इसलिए दी है कि जिससे यह आत्मा अपनी स्वतन्त्रताके भावपूर्वक कर्मोदयको निमित्तकर होनेवाले भावोंमें अपनेको आवर न किये रहे।
स्वाभिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २११ द्वारा पुद्गल द्रश्यकी जिस शक्तिका निर्देश किया है उसका आशय इतना ही है कि जब यह जीव केवलज्ञानवे अभावरूपसे परिणमता है तब केवलज्ञानावरण व्यकर्मका उदय उसमें निमित्त होता है । यदि ऐसा न माना जाय और पुदगल व्यकी सर्वकाल यह शक्ति मानी जाय कि वह केवलज्ञान स्वभावका सर्वदा विनाश करनेकी सामर्थ्य रखता है तो कोई भी जीव केवलज्ञानी नहीं हो सकता । स्पष्ट है कि उक्त वचन द्वारा आचार्य पदमल द्रव्यकी केवलज्ञानावरणरूप उस पर्यायकी उदमशक्तिका निर्देश किया है जिसको निमित्तकर जीष केवलज्ञान स्वभावरूपसे स्वयं नहीं परिणमता । ऐसा ही इनमें निमित्त-नैमित्तिक योग है कि जब यह जीव केवलज्ञानरूपरी नहीं परिणमता तब उसमें केवलज्ञानावरणका उदय राहज निमित्त होता है । इमीको व्यवहारनायसे यों कहा जाता है कि केवलशानावरणके उदयके कारण इस जीवके केवलज्ञानका घात होता है। स्वामिकातिकयानुप्रेक्षाका यह उपकार प्रकरण है । उसी प्रसंगसे उक्त गाथा आई है, अतएव प्रकरणको ध्यानमें छकर उसके हार्दको ग्रहण करना चाहिए ।
शंका के द्वितीय उत्तरम स्वा० का अ० गाथा ३१९ के आधारसे जो हमने यह लिखा कि शुभाशुभ कर्म जीवका उपकार या अपकार करते हैं तो यह कथन शुभाशुभ क्रमक उदयके साथ जीवके उपकार या अपकारको बाध व्याप्तिको ध्यानमें रखकर ही किया गया है । इस जीवको कोई लक्ष्मी देता है मा कोई उपकार करता है यह प्रश्न है । इमी प्रश्नका समाधान गाथा ३१९ मे करते हुए बतलाया है कि लोकमें इस जीवको न तो कोई लक्ष्मी देता है और न अन्य कोई उपकार ही करता है । किन्तु उपकार या अपकार जो भी कुछ होता है वह सब शुभाशुभ कर्मको निमित्त वर होता है।
यह आचार्य वचन है । इरा द्वारा दो बातें स्पष्ट की गई है। पूर्वाधं द्वारा तो जो मनुष्य यह मानते है कि 'अमुक देवी-देवता आदिसे मुझे लक्ष्मी प्राप्त होगो या मेरी अमुक आपत्ति टल जायेगी' उसका निषेध यह कह कर किया गया है कि लोकम' जो कुछ भी होता है वह शुभाशुभ कर्भक उदयको निमित्त कर ही होता है । बाह्य सामग्री के मिलानेकी घिन्तामें आरमवंचना क्यों करता है ? अनुफूल बाह्म सामग्री हो और अपाभ कमका उदय हो तो बाह्य सामग्रीसे क्या लाभ ? उसका होना और न होना बराबर है । तथा वारा यह सूचित किया गया है कि शुभाशुभ कर्म तरी करणीका फल है, इसलिए जैसी तूं करणी उसीके अनुरूप कर्मबन्ध होगा और उत्तर कालमें उसका फल भी उसीके अनुरूप मिलेगा। अतएव तूं अपनी करणीकी ओर ध्यान द । शुभाशुभ कर्म तो उसकार-अपकारम निमित्तमात्र है, वस्तुत: उनका कर्ता तो तूं स्वयं है । यह नय वचन है; इस समझकर यथार्थको ग्रहण करना प्रस्येक सत्पुरुषका कर्तव्य है । अन्यथा शुभाशुभ कर्मका सहभाव सदा रहलेसे कभी भी यह जीव उससे मुक्त न हो सकेगा।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जिसे उपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है और जिसे अपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है । यह संयोगी अवस्था है । अत एव जिसके संयोगमें इसके होनेका नियम है उनका ज्ञान इस वचन द्वारा कराया गया है। इतना ही आशय इस गाथाका लेना चाहिए। हमने शंका ५ के अपने दूसरे उत्तरमें जो कुछ भी लिखा है, इसी आशयको ध्यानमे रखकर लिखा है। अतएव इस परसे अन्य आशय फलित करना उचित नहीं है।
प्रश्न १६ के प्रथम उत्तरमें हमने मोह, राम, द्वेष आदि जिन आगन्तुक भावोंका निर्देश किया है उसका आशय यह नहीं कि वे जीवके स्वयंकृत भाव नहीं हैं। जीव ही स्वयं बाध्य सामग्रीम इष्टानिष्ट या एकत्व वृद्धि कर उन भाळरूप परिणमता है, इसलिए वे जीवके ही परिणाम है । इसी तथ्यको ध्यान में रखकर आचार्य कुन्दकुन्दने प्रबचनसारमें यह वचन कहा है--
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो ।
सुद्धेण तदा सुद्धो हर्वाद हि परिणामसब्भावो ॥९॥ ऐसा इस जीवका परिणामस्वभाव है कि जब यह शुभ या अशुभरूपसे परिणमता है सब शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्धरूपले परिणमता है तब शुभ होता है ।। ९॥
फिर भी मोह, राग, द्वेष आदि भावोंको आगममें जो आगन्तुक कहा गया है उसका कारण इतना ही है कि वे भाव स्वभाबके लक्ष्यसे न होकर परके लक्ष्यसे होते हैं। है वे जोबके ही भाव और जीव ही स्वयं स्वतंत्र कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है, पर वे परके लक्ष्यसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें आगन्तुक कहा गया है यह उक्त कयनका तात्पर्य है।
इस प्रकार अपर पक्षने अपने पक्ष के समर्थनमें यहाँ तक जिलने भी आगम प्रमाण दिये हैं उनसे यह तो त्रिकालमें सिद्ध नही होता कि अन्य द्रव्य तभिन्न अन्य व्यके कार्यका वास्तविक कर्ता होता है। किन्तु उनसे यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं उपादान होकर अपना कार्य करता है और उसके योग्य बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है। समयसार गाथा २७८-९७९ का क्या आशय है इसका विशेष खुलासा हम पूर्वमें ही कर आये हैं। एक जीव ही क्या, प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभाववाला है, अतएव जिस भावरूप वह परिणमता है उसका कर्त्ता वह स्वयं होता है। परिणमन करनेवाला, परिणाम और परिणमन क्रिया में तीनों बस्तुपनेवी अपेक्षा एक है, भिन्न-भिन्न नहीं, इस लिये जब जो परिणाम उत्पन्न होता है उसरूप वह स्वयं परिणम जाता है, इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं । राग, वेष आदि भाव क्रमदियके द्वारा किये जाते हैं. यह व्यवहार कथन है। कर्मका उदय कर्ममें होता है और जीवका परिणाम जीवमें होता है ऐगी दो क्रियाएँ और दो परिणाम दोनों द्रव्यों में एक कालमें होते है, इसलिए कर्मोदयमें निमित्त व्यवहार किया जाता है और इसी निमित्त व्यवहारको लक्ष्यमें रखकर यह कहा जाता है कि इसने इसे किया । यह उसी प्रकारका उपचार वचन है जैसे मिट्टी धड़को घीका बड़ा कहना उपचार पचन है । तभी तो माचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गांथा १०७ में ऐसे कथनको व्यवहारनयका वक्तव्य कहा है।
१. अध्यात्म में रागाधिको पोद्गलिक बतलानेका कारण समयसार ५० से ५६ तक की गाथाओंमें रागादिकको जो पौद्गलिक बतलाया है उसका आशय यह नहीं कि उनका वास्तविक कर्मा पुद्गल है, जीव नहीं; या वे जीवके भाव न होकर पुद्गलकी पर्याय है ।
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शंका १ और उसका समाधान
है तो वे जीवके ही भाव और स्वयं जीव ही उन्हें उत्पन्न करता है। उनकी उत्पत्तिमें पुद्गल अणुमात्र भी व्यापार नहीं करता, क्योंकि एक व्यको परिणाम क्रियाको दुमरा द्रश्च त्रिकालमें नहीं कर सकता, अन्यथा तन्मयपनेका प्रसंग होनेसे दोनों द्रव्यों में एकता प्राप्त होती है । । समयसार गाथा ९९ १, या दो क्रियाओंका कर्ता एक द्रव्यको स्वीकार करना पड़ता है । ममयराार गाथा ८५ } । किन्तु ऐसा मानना जिनाजाके विरुद्ध है। जिनाशा यह है--
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दबने ।
सो अण्णमसंकतो कह तं परिणामए दव्वं ।।१०३।। जो वस्तु जिस द्रव्य और गुणमें वर्तती है व अन्य द्रव्य और गुणमें संक्रमणको नहीं प्राप्त होती, अन्यरूपसे संक्रमणको नहीं प्राप्त होती हुई वह अन्य वस्तुको कैसे परिणमा सकती है, अर्थात् नहीं परिणमा सकती ॥१३॥
ऐसी अवस्थामें जीव में होने वाले मोह, राग और द्वेष आदि भाष अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा विचार करनेपर जीव ही है। यह कथन पथार्थ है, इसमें अणुमात्र भी सन्देह महीं। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर उपस' गाथाओंकी (५०-५६) टीकामे आचार्य जनसेनने अशुद्ध पर्यायाधिक निश्चयनयकी अपेक्षा उन्हें जीव स्वरूप ही स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, कर्ता-कर्म अधिकार गाथा ८८ में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द उन्हें जीव भावरूपसे स्वीकार करो हैं । इसी तथ्यको आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त गाथाको टीकामें इन शब्दों में स्वीकार किया है
यस्तु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादि जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः ||८८||
और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, भवि रति आदि जीव है वे मृर्तीक मुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्य परिणामके विकार हैं ॥८॥
इस प्रकार उक्त विवेचनसे यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि मोह, राग, द्वेष आदि भाव जीवके ही है । 'स्वतन्त्र: कर्ता इस नियमके अनुसार स्वयं जीन हो आप वर्ता होकर उनरूप परिणमता है। फिर भी समयसारमें उन्हें पौदगलिक इसलिए नहीं कहा कि वेरूप, रम, गन्ध और स्पर्शस्त्र रूप है या पद्गल आप कर्ता बनकर जनरूप परिणमता है। उन्हें पौद्गलिक कहनेका कारण अन्य है। बात यह है कि परम पारिजामिक भावको ग्रहण करनेयाले शुद्ध निश्चयनयके विषयभूत चिच्चमत्कार ज्ञायमस्वरूप आत्माके लक्ष्यसे उत्पन्न हुई आत्मानुभूतिमें उनका भान नहीं होता, इसलिए वे रागादिभाव जीवके नहीं ऐसा ममवसार ५० से ५६ तककी गाथाओंमें कहा गया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए उक्त गाथाओंकी टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है
यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नस्वात् । योऽप्रीतिरूपो द्वेषः स संऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलंद्रव्यपरिणाममयत्वं सत्यनुभूतेभिन्नस्वात् । यस्तत्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयरबे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्।
जो प्रीतिरूप राग है यह सई ही जीवका नहीं है, क्योंकि पुद्गल द्रव्यके परिणामरूप होनेसे वह आत्मानुभूतिसे भिन्न है । जो अप्रीतिरूप द्वेष है वह सर्व ही जावका नहीं है, क्योंकि पुद्गलद्रव्य के परिणाम
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा रूप होनेसे वह आत्मानुभूतिसे भिन्न है । जो तत्त्वोंकी अप्रतिपत्तिरूप मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि पुद्गलद्रज्यके परिणामरूप होनेसे वह आत्मानुभूतिसे मिन्न है।
आगममें द्रव्याथिकनयके जितने भेव निविष्ट किये गये है उनमें एक परमभावग्राहक द्रव्याथिकनम भी है । इसके विषयका निर्देश करते हुए आलापपतिमें लिखा है--
परमभावनाहकद्रव्याथिको यथा-ज्ञानस्वरूप आत्मा। आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसे स्वीकार करनेवाला परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय है। इसी तथ्यको नयन क्रादिसंग्रहमें इन शब्दों में व्यक्त किया है
गेलइ दव्वसहावं असुख-सुद्धोवयारपरिचत्तं ।
सो परमभावगाही गायब्वो सिद्धिकामेण ||१९९।। · जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित भावोंसे रहित द्रव्यस्वभावको ग्रहण करता है उसे सिद्धि (मुक्ति) के इक भश्य जीवों द्वारा परमभावनाही द्रव्यार्थिकनय जानना चाहिए ।।१९९॥
तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्गमें अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित भावोंको गौणकर एक त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव आत्मा ही आश्रय करने योग्य बतलाया गया है। जो आसन्न भव्य जीव ऐसे अभेद स्वरूप आत्माको लाकर (ध्येय बनाकर) तन्मय होकर परिणमता है उसे जो आत्मानुभूति होती है उसे उस काल में रागानुभूति त्रिकालमें नहीं होती। यही कारण है कि समयसारको उक्त गाथाओं द्वारा ये रामादि भाव जीवके नहीं हैं यह कहा गया है।
इस प्रकार ये रागादि भाव जीवके नहीं है इस तथ्यका सकारण ज्ञान हो जाने पर भी इन्हें पौद्गलिक कहनेका कारण क्या है यह जान लेना आवश्यक है । यह तो सभी मुमुक्षु जानते है कि जिसे जिनागममें मिध्यादर्शन या मोह कहा गया है उसका फल स्व-परमें एकत्वबुद्धिके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है और जिसे राग-द्वेष कहा गया है उसका फल भी परमें इष्टानिष्ट बुजिके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। यतः परके संयोगमें एकल्व बुद्धि तथा इष्टानिष्ट बुद्धि इस जीवके अनादि कालसे होती आ रही है। इसका कर्ता मह जीव स्वयं है। पर पदार्थ इसका कर्ता नहीं । परका संयोग बना रहे फिर भी यह जीव उसके आश्रयसे एकत्वनुद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि न करे यह तो हैं । किन्तु परपदार्थ स्वयं कर्ता बन कर इस (जीब) में एकत्व बृद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि उत्पन्न कर दे यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। वतः उक्त प्रकारकी एकत्वबुद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि पुद्गलकी विविध प्रकारको रचनाका आलम्बन करनेसे होती है, अन्यथा नहीं होती, यही कारण है कि अध्यात्ममें मोह, राग और द्वेष आदि भावोंको पौद्गलिक कहा गया है ।
यह वस्तुस्थिति है । मोक्षमार्गमें आलम्बन या ध्येयकी दृष्टिसे मोह, सग और द्वेषमें निजस्व बुद्धि करनेका तो निषेध है ही। जेयके करण (ज्ञेयको) मैं जानता हूँ इस प्रकारके विकल्पका भी निषेध है। इतना ही क्यों ? सम्यग्दर्शनादि स्वभाव भाव मेरा स्वरूप है, इन्हें आलम्बन बनानेसे मुझमें मोक्षमार्गका प्रकाश होकर मुक्तिकी प्राप्ति होगी ऐरो विकल्पका भी निषेध है, क्योंकि जहाँ तक विकल्पबुद्धि है वहाँ तक राग की चारतार्थता है। ज्ञायक स्वभाव आस्माके अबलम्बनसे तन्मय परिणमन द्वारा जो सम्यग्दर्शनादिरूप शुद्धि उत्पन्न होती है, तन्मय आत्माकी अनुभूति मन्य वस्तु है और भेद-जुद्धि द्वारा उत्पन्न हुई विकल्पानुभूति अन्य वस्तु है। यह रागानुभूति ही है, आत्मानुभूति नहीं । आचार्य कहते है कि जबतक अवलम्बन ( पंथ ) निर्विकल्प नहीं होगा तबतक निर्विकल्प अनुभूतिफा होना असम्भव है । यही
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शंका १ और उसका समाधान
कारण है कि मोक्षमार्गकी दृष्टिसे सभी प्रकारके व्यवहारको गोणकर एकमात्र निश्चमस्वरूप ज्ञायक आत्माके अवलम्बन करनेका उपदेश दिया गया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार बालशमें कहा भी है
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनस्तन्मन्ये व्यवहार एक निखिलोऽप्यन्याश्रितस्त्याजितः । सम्यक् निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य कि
शुखज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ।।१३।। सर्व वस्तुओंमें जो अध्यवसान होते हैं वे सब जिनेन्द्र देवने पूर्वोक्त रीतिसे त्यागने योग्य कहे है, इसलिए हम यह मानते हैं कि जिनेन्द्रदेव ने अन्यके आश्रयसे होनेवाले समस्त व्यवहार छुड़ाया है । तब फिर, ये सत्पुरुष एक सम्यक निश्चयको ही निचलतया अङ्गीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप निज महिमामे स्थिरता क्यों धारण नहीं करते?
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह का हो जाता हैक वाला समादिको उत्पाड तया पुदगलका आलम्बन करने से ही होती है, स्वभावका आलम्बन करनेसे नहीं होती, इसलिए तो उन्हें अध्यात्ममें पौद्गलिक कहा गया है। पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है या वे पुद्गलकी पर्याय है, इसलिए उन्हें पौद्गलिक नहीं कहा गया है । इस अपेक्षा विचार करनेपर तो जीव आप अपरानी होकर उन्हें उत्पन्न करता है और आप सन्मय होकर मोह, राग, द्वेष आदिरूप परिणमता है, इसलिए चिडिकार ही हैं । फिर भी ज्ञायक स्वभाव आत्माके अवलम्बन वारा उत्पन्न हुई आरमानुभूतिमें उनका प्रकाधा नहीं होता, इसलिए उससे भिन्न होने के कारण व्यवहारनयसे उन्हें जीवका कहा गया है। इस प्रकार समयसारकी उक्त गाथाओंमें वर्णादिके समान रागादिको क्यों तो पौद्गलिक कहा गया है और क्यों चे व्यवहारनयसे जीयके कहे गये है इसका संक्षेपमें विचार किया।
२. समयसार गाया ६८ को टीकाका आशय अब समयसार गाथा ६८ की टीकापर विचार करते हैं । इसमें 'कारणके अनुसार कार्य होता है । जैसे जीपूर्वक उत्पन्न हुए जो जौ ही हैं ।' इस न्यायके अनुसार गुणस्थान या रागादि भावोंको पौद्गलिक सिद्ध किया गया है । इसपरसे अपर पक्ष निश्चयनयसे उन्हें पोद्गलिक स्वीकार करता है । किन्तु अपर पक्ष मदि पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है, इसलिए वे निद चयनमसे पोद्गलिक है मा पुद्गलके सभान रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले होने के कारण निश्चयनयसे ये पौद्गलिक हैं ऐसा मानता हो तो उसका दोनों प्रकारका मानना सर्वथा आगमविरुद्ध है, क्योंकि परके अवलम्बनस उत्पन्न हुए वे जीवके ही चिद्विकार हैं और जीवने आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न किया है । अतएव अशुद्ध पर्यायाथिकनयसे वे जीव ही है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन उक्त गाथाकी टीका लिखते हैं
यद्यप्यशुद्धनिश्चयेन चेतनानि तथापि शुद्धनिश्चयेन नित्यं सर्वकालमचेतनानि । अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकर्मापेक्षयाभ्यन्तररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव।।
गुणस्थान यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयसे चेतन हैं तथापि शुद्ध निश्चयनयसे नित्य-सर्वकाल अचेतन है । द्रव्पकर्मकी अपेक्षा आभ्यन्तर रागादिक चेतन है ऐसा मानकर यद्यपि अनुन निश्चय वास्तवमै निश्चम संज्ञाको प्राप्त होता है तथापि शुद्ध निश्चयकी अपेक्षा वह व्यवहार ही है ।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस प्रकार उक्त कथन से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय कर्मके उदयको आलम्बन ( निमित्त ) कर जो गुणस्थान या रागादि होते हैं वे अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा जीव हो हैं । यहाँ जो उन्हें जीव होनेका निषेध कर अचेतन कहा है वह शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा ही कहा है। तात्पर्य यह है कि (१) त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव आत्मा के अवलम्बनसे उत्पन्न हुई मात्मानुभूति में गुणस्थानभाव या रागादिभावका प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता । ( २ ) थे पुद्गलादि परद्रव्यका अवलम्बन करनेसे उत्पन्न होने के कारण शुद्ध चैतन्य प्रकाश स्वरूप न होकर चिद्विकार स्वरूप है अतएव अचेतन हैं तथा (३) उनकी जीवके साथ कालिक व्याप्ति नहीं पाई जाती, इसलिए शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा वे जीव नहीं हैं, अतएव पौग लिक हैं । ऐसा अध्यात्म परमागममें कहा गया है। यह जीव अनादि कालसे स्वको भूलकर परका अवलम्बन करता आ रहा है और परके अवलम्बन से उत्पन्न चिह्निकारोंमें उपादेय वृद्धि करता जा रहा है, इनमें हेय बुद्धिकर उनसे विरत करना उक्त कथन प्रयोजन है। यही कारण है कि कर्ता-कर्म अधिकार में रागादि भावों का कर्ता स्वतन्त्रपने स्वयं जीव ही है यह बतलाकर भी जीवाजीवाधिकार में परका अबलम्बन करनेसे [य] होनेके कारण उनमें परबुद्धि कराई गई है । आशा है अपर पक्ष समयसार गाया ६८ की टोकासे यही तात्पर्य ग्रहण करेगा, न कि यह कि पुद्गल स्वयं स्वतन्त्रतया आप कर्ता होकर उन गुणस्थान या रागादिको करता है, इसलिए यहाँ उन्हें पौद्गलिक कहा गया है । समयसार गाथा ११३ ११६ में भी यही आशय व्यक्त किया गया है। यदि अपर पक्ष निमित्तनैमिलिकभाव और कर्ता कर्मभाव में निहित अभिप्रायको हृदयङ्गम करनेका प्रयत्न करे तो उसे वस्तुस्थितिको समझने में देर न लगे ।
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३. फर्मोदय जीवको अन्तरंग योग्यताका सूचक है, जीवभावका कर्ता नहीं
आगे अपर पक्षने 'अन्य कारणों और कर्मोदय रूप कारणोंमें मौलिक अन्तर है, क्योंकि बाह्य सामग्री और अन्तरगकी योग्यता मिलने पर कार्य होता है। किन्तु घातिया कर्मोदयके साथ ऐसी बात नहीं है, यह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक हैं | यह वचन लिखकर अपने इस वक्त की पुष्टि में अपनी (पं० फूलचन्द्र शास्त्रीकी) कर्मग्रंथ पु० ६ की प्रस्तावना पु० ४४ का कुछ अंश उद्धृत किया है ।
हमें इस बातकी प्रसन्नता है कि अपर पक्षने अपने उक्त कथन द्वारा घातिया कर्मोदयको जीवकी अन्तरंग योग्यताका सूचक स्वीकार कर लिया है। इससे यह सुतरां फलित हो जाता है कि संसारी जीन कर्म और जीवके अन्योन्यावगाहरूप संयोग कालमें स्वयं कर्ता होकर अपने अज्ञानादिरूप कार्यको करता है और कर्मोदय कर्त्ता न होकर मात्र उसका सूचक होता है । इसीको जीवके अज्ञानादि भावोंमें कर्मोदयकी निमित्तता कही गई है। हमारे जिस वचनको यहाँ प्रमाणरूपमें उपस्थित किया गया है उसका भी यही आशय है ।
किन्तु अपर पक्षने हमारे उक्त वचनों को उद्धृत करते हुए 'अतः कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती ।' इसके बाद उक्त उल्लेखके इस अनको तो छोड़ दिया है.
'फिर भी अन्तरंग में योग्यता के रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलनेपर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है इसलिए निमित्तोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्री की भी गिनती हो जाती है । पर यह परम्परा निमित्त है, इसलिए इसकी परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई हैं ।'
और इसके स्थान में हमारे वक्तव्य के रूप में अपने इस वनको सम्मिलित कर दिया है
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शंका १ और उसका समाधान 'अतः कर्मके निमित्तसे जीवको विविध प्रकारको अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता आः ।
अब हमारे और अपर पक्षवे. उक्त उल्लेखके आधारगर जब अकालमरणका विचार करते हैं तो विदित होता है कि जब जब आत्मामें मनुष्यादि एक पर्यायके व्ययको और देवादिरूप दूसरी पर्यायके उत्पादको अन्तरंग योग्यता होती है तब तब विषभक्षण, गिरिपात आदिबाह्य सामग्री तथा मनुष्यादि आयु. का व्यय और देवादि आयुका उदय उसकी सूचक होती है और ऐसी अवस्थामें आत्मा स्वयं अपनी मनुष्यादि पर्यायका व्यय कर देवादि पर्यावरूपसे उत्पन्न होता है। स्पष्ट है कि एक पर्यायके व्यय और दूसरी पर्यायके उत्पादरूप उपादान योग्यताके कालकी अपेक्षा विचार करने पर मरण की कालमरण संज्ञा है और इसको गोणकर अन्य कर्म तथा नोकर्मरूप सूचक सामग्रीकी अपेक्षा विचार करने पर उसी मरणवी अकालमरण संज्ञा है।
यह वस्तुस्थिति है जो अपर पक्षके उक्त वक्तव्यसे भी फलित होती है। हमें आशा है कि अपर एश अपने वक्तव्य 'किन्तु चातिया कमोदयके साथ ऐसी बात नहीं है, वह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक है।' इस बच्चनको ध्यान में रखकर सर्वत्र कार्य-कारणभावका निर्णय करेगा।
४. प्रस्तुत प्रतिशंकामें उहिलखित अन्य उद्धरणोंका स्पष्टीकरण अब प्रस्तुत प्रतिशंकामें उद्धृत उन उल्लेखोंपर विचार करते है जिन्हें अपर पक्ष अपने पक्षके समर्थनमें समझता है । उनमेंसे प्रथम उल्लेख इष्टोपदेशका श्लोक ७ है । इसमें मोह अर्थात् मिथ्यादर्शनसे सम्पृक्त हुआ ज्ञान अपने स्वभावको नहीं प्राप्त करता है यह कहा गया है और उसकी पुष्टिमें 'मदनकोद्रवको निमित्त कर मत्त हुञा पुरुष पदार्थोंका ठीक-ठीक जान नहीं कर पाता।' यह दृष्टान्त दिया गया है।
दूसरा उल्लेख समयसार कलश ११० का तीसरा चरण है। इसमें बतलाया है कि आत्मामें अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण जो कर्म (भाव कम) प्रगट होता है यह नये कर्मबन्धका हेतु (निमित्त) है।
तीसरा उल्लेख पंचाध्यायी पृ० १५९ के विदोषार्थका है। इसमें कर्मको निमित्तताको स्वीकार कर व्यवहार कर्तारूपसे उसका उल्लेख करके मन, वाणी और श्वासोच्छ्वासके प्रति जीवका भी व्यबहार कर्ता रूपसे उल्लेख किया गया है।
चौथा उल्लेख इष्टोपदेश श्लोक ३१ की संस्कृत टोकासे उक्त किया गया है। इसमें कहीं (अपने परिणामविशेषमें) कर्मको और कहीं (अपने परिणामविशेषमें) जीवको बलवत्ता स्वीकार की गई है ।
पाँचयां उल्लेख तत्त्वार्थबार्तिकका है । इसमें जीवके चतुर्गतिपरिभ्रमणमें कर्मोदयकी हेतुता और उसकी विश्रान्तिमें कर्मक उदयामावको हेतुरूपसे स्वीकार किया गया है।
छठा उल्लेख उपासकाध्ययनका है। इसमें व्यवहारनयसे जीव और कर्मको परस्पर प्रेरक बतलाया गया है । इसकी पुष्टि नौ और नाविको दृष्टान्त द्वारा की गई है। सातवां उद्धरण भी उपासकाध्ययनका ही है। इसमें अग्निके संयोगको निमित्त कर गरम हए जलवे दृष्टान्त द्वारा कर्मको निमित्त कर जीव में संक्लेश भावको स्वीकार किया गया है।
आया उदाहरण आत्मानुशासनका है । इसमें व्यवहारनयसे कमको ब्रह्मा बतला कर संसार-परिपाटी उसका फल बतलाया गया है।
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अपने पक्षके समर्थनमें अपर पक्षने में आठ प्रमाण उपस्थित किये है। इन सब द्वारा किस कार्यमें कौन किस रूपमें निमित्त है इसका व्यवहारनयसे निर्देश किया गया है। इसको स्पष्ट रूपसे समझने के लिये समयसारका वह वचन पर्याप्त है
जह राया ववहारा दोसगणुप्पादगो ति आलविदो।
तह जीवो बवहारा दबगुणुप्पादगो भणिदो ।।१०८।। जिस प्रकार राजा व्यवहारसे प्रजाके दोष-मुणका उत्पादक कहा गया है उसी प्रकार जीव व्यवहारसे पुद्गल द्रव्यके गुणोंका उत्पादक कहा गया है ।।१०८॥
आशय यह है कि यथार्थमें प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य स्वयं करता है और अन्य बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है । फिर भी लोकमें निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीको अपेक्षा यह कहा जाता है कि'इसने यह कार्य किया ।' पूर्वमें अपर पक्षने जो आठ आगम प्रमाण उपस्थित किये है वे सब व्यवहारनयके वचन है, अतः उन द्वारा यही सूचित किया गया है कि किस कार्यमें कौन निमित्त है। प्रत्येक कार्यमें उपादान और निमिस व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीकी युति निवमसे होती है इसमें मन्देह नहीं । परन्तु उपादान जैसे अपने कार्य में स्वयं व्यापारदान होता है वैसे आह्य सामग्री उसके कार्य में व्यापारबान नहीं होती यह सिद्धान्त है । इसे हुदयंगम करके यथार्थका निर्णय करना चाहिए । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पुरुषार्थसिद्धथुपायमें कहा है
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरम्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।।१२।। जीवके द्वारा किये गये परिणामको निमित्तमान करके उससे भिन्न पुग़ल स्वयं ही कर्भरूपसे परिणम जाते हैं ।।१२।।
यहाँ 'जीवकृत' और 'स्वयमेव' ये दोनों पद ध्यान देने योग्य है । जीवके राग-द्वेष आदि परिणामोंकी उत्पत्ति में यद्यपि कर्मोदय निमित्त है फिर भी उन्हें जीवकृत कहा जाता है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि जिस द्रव्यमें जो कार्य होता है उसका मुख्य (निश्चय-यथार्थ) का वही द्रव्य होता है, निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री नहीं । जरो का ऋह्ना उपचार कथन है। जिस द्रनामें जो कार्य होता है उसका मुख्य का वह द्रव्य तो है ही, साथ ही वह परनिरपेक्ष होकर ही उसे करता है यह 'स्वयमेव' पक्ष्से सूचित होता है । प्रस्तुत प्रतिशंकामें अपर पक्षने कर्मोदनको जीवको आन्तरिक योग्यताका सूचक स्वीकार कर लिया है, अतः इससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । स्पष्ट है कि उक्त आठों मागम प्रमाण अपर पक्षके विचारों के समर्थक न होकर समयसारके उक्स कथनका ही समर्थन करते हैं । अतएव उनसे हमारे विचारोंकी ही पुष्टि होती है।
___अपर पक्षने इन प्रमाणोंमें एक प्रमाण 'कत्थ वि बलिओ जीवो' यह वचन भी उपस्थित किया है और इसको उत्थानिकामें लिखा है कि-'जब जीव बलवान् होता है तो वह अपना कल्याण कर सकता है।'
यहाँ विचार यह करना है कि ऐसी अवस्थामै जीव स्वयं अपना कल्याण करता है या बाह्य सामग्री द्वारा उसका कल्याण होता है। यदि बाध सामग्री द्वारा उसका कल्याण होता है यह माना जाम तो 'जीव अपना कल्याण कर सकता है ऐसा लिखना निरर्थक है और यदि वह स्वयं अपना कल्माण कर लेता है यह
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शंका और उसका समाधान माना जाय तो प्रत्येक कार्य अन्यके द्वारा होता है यह लिखना निरर्थक हो जाता है । प्रकृतमें इन दो विकल्पोंके सिवाय तीसरा विकल्प तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि उसके स्वीकार करने पर बाह्य सामग्री अकिंचित्कर माननी पड़ती है। अतएव 'कत्थ वि बलिओ' इत्यादि वचनको व्यवहारनयका कथन ही जानना चाहिए जो क्रमको बलवत्तामें जीवकी पुरुषार्थ हीनताको और कर्मकी हीनतामै जीवको उत्कृष्ट पुरुषार्थताको सूचित करता है । स्पष्ट है कि उक्त कथनसे यह तात्पर्य समझना चाहिए कि जब जीव पुरुषार्थहीन होता है तब स्वयं अपने कारण वह अपना कल्याण करनेमें असमर्थ रहता है और जब उत्कृष्ट पुरुषार्थी होकर आत्मोन्मुख होता है सब वह अपना कल्याण कर लेता है ।
इस प्रकार उक्त आठों आगम प्रमाण किस प्रयोजनसे लिपिवञ्च किये गये हैं और उनका क्या आशय लेना चाहिए इसका खुलासा किया ।
__ ५ सम्यक् नियसिका स्वरूपनिर्देश अब हम अपर परम पविताका ३ को गनमें रखकर नियतिवादके सम्यक स्वरूपपर संक्षेपमें प्रकाश हालगे । इसका विशेष विचार यद्यपि पांचवीं शंकाके तीसरे दौरके उसरमें करेंगे, फिर भी जब प्रस्तुप्त प्रतिशंकामे इसकी चरचा की है तो यहाँ भी उसका विचार कर लेना आवश्यक समझते हैं ।।
अपर पक्षने सभी कार्योका सर्वथा कोई काल नियत नहीं है इसके समर्थन में तीन हेतु दिये हैं
१. आचार्य अमतचन्द्र ने कालनय-अकालनय तथा नियतिनय-अनियतिनय इन नयोंकी अपेक्षा कार्य की सिद्धि बतलाई है, इसलिए सभी कार्योका सर्वथा कोई काल नियत नहीं है।
२. सभी कायोंका काल सर्वथा नियत नहीं है ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है और किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है, अतः आगे-पीछे करनेका प्रश्न ही नहीं उठता ।
३. कर्म स्थितिबन्धके समय निषेक रचना होकर यह नियत हो जाता है कि अमुक कर्मवर्गणा अमुक समय उदयमें आबेंगी, किन्तु बन्धावलिके पश्चात उत्कर्षण, अगकर्षण, 'स्थतिकाण्डकघात, उदीरणा, अविपाक निर्जरा आदिसे फर्मवर्गणा आगे-पीछे भी उदय आती है। इससे भी ज्ञात होता है कि सभी कार्य नियत कालमें ही होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता।
ये तीन हेतु है । इनके आधारसे अपर पक्ष सभी कार्यों के सर्वथा नियत कालका निषेध करता है । अब आगे इनके आधारसे क्रम विचार किया जाता है
१. प्रथम तो प्रबचनसारमै निर्दिष्ट कालनय-अकाउनय तथा नियत्तिनम-अनियतिनयके आधारसे बिचार करते हैं । यहाँ प्रथमतः यह समझने योग्य बात है कि वे दोनों मप्रतिपक्ष नययुगल है, अतः अस्तिनय-नास्तिनय इस सप्रविपक्ष नययुगलके समान ये दोनों नययुगल भी एक ही कालमें एक ही अर्थमें विवक्षाभेदसे लागू पड़ते हैं, अन्यथा वे नय नहीं माने जा सकते । अपर पक्ष इन नययुगलोंको नयरूपसे तो स्वीकार करता है, परन्तु कालभेद आदिको अपेक्षा उनके विषयको अलग-अलग मानना चाहता है इसका हमें आश्चर्य है । वस्तुतः कालनय और अकासनम ये दोनों नय एक कालमें एक ही अर्थको विषय करते हैं। यदि इन दोनोंमें अन्तर है तो इतना ही कि काल नय काल की मुख्यतारो उसी अर्थको विषय करता है और अकालनय कालको गौणकर अन्य हेतुओंकी मुख्यतासे उसी अर्थको विषय करता है । यहाँ भकालका अर्थ है कालके सिवाय अन्य हेतु । इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर सस्वार्थसूत्र में
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'अर्पितानपि सिद्धेः' (५-३२) यह सूत्र निबद्ध हुआ है। स्पष्ट है कि जो पर्याय काल विशेषको मुख्यतासे कालनयका विषय हैं, वही पर्याय कालको गजकर अन्य हेतु का है। . प्रयचनसारकी आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीकामें इन दोनों नवों का यही अभिप्राय लिया गया है।
मुल्ला
इन नया प्रारम्भ करने के पूर्व यह प्रश्न उठा कि आत्मा कौन है और वह से प्राप्त किया जाता है ? इसका समाधान करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि यह आत्मा चैतन्य सामान्यसे व्याप्त अनन्त का अधिष्ठाता एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धर्मोको ग्रहण करनेवाले अनन्त नय हैं और उनमें व्याप्त होकर रहनेवाले एक श्रुतज्ञान प्रमाण पूर्वक स्वानुभयसे वह जाना जाता है ( प्रवचनसार परिशिष्ट ) । इससे स्पष्ट विदित होता है कि यहाँ जिन ४७ नयोंका निर्देश किया गया है उनके विषयभूत ४७ धर्म एक साथ एक आत्मामें उपलब्ध होते हैं, अन्यथा उन नयोंमे एक साथ श्रुतज्ञान प्रमाणको व्याप्ति नहीं बन सकती 1 अतएव प्रकृतमें काल्नय और अकालनय के आधारसे तो यह सिद्ध करना सम्भव नहीं है कि सब कमका सर्वथा कोई नियत काल नहीं है । प्रत्युत इनके आधार से यही सिद्ध होता है कि कालनयकी विषयभूत वस्तु ही उसी समय विवक्षाभेद से अफालनायकी भी विषय है । अतएव सभी कार्य अपने-अपने कालमें नियतक्रमसे ही होते है ऐसा निर्णय करना ही सम्यक् अनेकान्त है ।
यह तो कालनय और अकालनयकी अपेक्षा विचार है। नियतिनय और अनियतनयकी अपेक्षा विचार करनेपर भी उक्त तथ्यकी ही पुष्टि होती है, क्योंकि प्रकृतमं द्रव्योंकी कुछ पर्यायें क्रमनियत हों और कुछ पर्यायें अनियतक्रमसे होती हों यह अर्थ इन नयोंका नहीं है। यदि यह अर्थ इन नयोंका लिया जाता है। सो ये दोनों सप्रतिपक्ष नय नहीं बन सकते । अतएव विवक्षाभेदसे में दोनों नय एक ही कालमें एक हो अर्थको विषय करते हैं यह अर्थ ही प्रकृतमें इन नयका लेना चाहिए । आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसारमें इन नयोंका जो स्पष्टीकरण किया है उससे भी इसी अभिप्रायकी पुष्टि होती है। उनके उक्त कथन के अनुसार नियति पदका अर्थ हं द्रव्यकी सब अवस्थाओं में व्याप्त होकर रहनेवाला त्रिकाली अन्ययरूप द्रव्यस्वभाव और अनियत पदका अर्थ है क्षण-क्षण में परिवर्तनशील पर्याय स्वभाव । 'उत्पाद व्यय श्रीव्ययुक्तं सत्' (त० सू० ५-३० ) तथा 'सद्रव्यलक्षणम्' (त० सू० ९ - २९) इन आगम वचनोंके अनुसार भी प्रत्येक नय प्रत्येक रामयमे जहाँ उक्त दोनों प्रकारके स्वभावोंको लिये हुए है वहीं विवक्षा भेदसे उसे (द्रव्यको ) ग्रहण करनेवाले ये दोनों नय हैं । नियविनय प्रत्येक द्रव्यके द्रव्यस्वभावको विषय करता है और अनियतनय प्रत्येक द्रव्यके पर्याय स्वभावको विषय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अतएव उक्त दोनों नयोंके आघारसे भी यह सिद्ध नहीं होता कि द्रव्योंकी कुछ पर्यायें अनियत क्रमसे होती हैं, प्रत्युत इन नयोंके स्वरूप और विषय पर दृष्टिपात करने से यही सिद्ध होता है कि धर्मादि द्रव्योंके समान जीव और पुद्गल इन दो हव्यों को भी सभी पर्या में अपने-अपने कालमें नियतकरसे ही होती हैं । सत्का अर्थ ही यह है कि जिस कालमें जो जिसरूपमें सत् है उस कालमें वह उस रूपमें स्वरूपसे स्वतः सिद्ध स्वयं सत् है । उसकी परसे प्रसिद्धि करना यह तो मात्र व्यवहार है, जो मात्र इस तथ्य को सूचित करता है कि विवक्षित समय में विवक्षित द्रव्य जिस रूपमें सत् है, उससे अगले समय में सद्रूपमें वह किस प्रकारका होगा । कारण कार्यभावकी चरितार्थता भी इसी व्यवहारको प्रसिद्ध
पर्यायें क्रमनियत होती हैं और कुछ
करने में है | उससे अन्य प्रयोजन फलित करना यह तो सत्के स्वरूप में हैं अपर पक्ष इस तथ्य पर दृष्टिपात कर हृदयसे इस बातको स्वीकार कर
हस्तक्षेप करनेके समान है । आशा लेगा कि जिस द्रव्यकी जो पर्याय
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संका १ और उसका समाधान
७ जिस कालमें जिस देशमें जिस विधिसे होना निश्चित है सस व्यकी यह पर्याय उस कालमें उस देश में उस विधिसे नियमसे होती है।
२. अपर पक्षका अपने पक्ष के समर्थनमें दूसरा तर्क है कि सभी कार्योंका काल सर्वथा नियत है ऐसा प्रत्यक्षसे ज्ञात नहीं होता। इसके साथ उस पक्षका यह भी कहना है कि उनका किसीने कोई क्रम भी नियत नहीं किया है, अतः कौन कार्य पहले होनेवाला बादमें हुआ और बादमें होनेवाला पहले हो गया यह प्रश्न ही नहीं उठता ।
यह अपर पक्षका अपने कथनके समर्थन में वक्तव्यका सार है। इस द्वारा अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में दो तर्क उपस्थित किये है। प्रथम सर्कको उपस्थित कर वह अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यम (जो परोक्ष है) द्वारा यह दावा करता है कि वह अपने उक्त शान द्वारा प्रव्य अवस्थित कार्यकरणक्षम उस योग्यताका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेता है जिसे सभी आचार्योने अतीन्द्रिय कहा है। किन्तु उस पक्षका ऐसा दावा करना उचित नहीं है, क्योंकि सभी आचार्योंने एक स्वरसे कार्यको हेतु मानकर उस द्वारा विवक्षित कार्य करने में समर्थ अन्तरंग योग्यताकं ज्ञान करनेका निर्देश क्रिया है। आचार्य प्रभाचन्द्र प्रमेयममलमार्तण्ड प० २३७ में लिखते है
तत्रापि हि कारणं कार्येऽनुपक्रियमाणं यावत्प्रतिनियतं कार्यमुत्पादयति तावत्सर्व करमान्नोत्पादयतीति चोद्ये योग्यतेव शरणम् ।
उसमें भी कार्यसे उपक्रियमाण न होता हुआ कारण जब तक प्रतिनियत कार्यको उत्पन्न करता है तब तक सबको क्यों उत्पन्न नहीं करता ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य कहते है कि योग्यता ही शरण है ।
इस उल्लेखमें योग्यताको परोक्ष मानकर ही यह प्रश्न किया गया है कि कार्य कारणका तो उपकार करता नहीं, फिर भी वह प्रतिनियत कार्यको ही क्यों उत्पन्न करता है, सब कार्यों को क्यों उत्पन्न नहीं करता? स्पष्ट है कि इस उल्लेख में प्रतिनियत कार्य द्वारा कारणमें निहित प्रतिनियत कार्यकरणक्षम योग्यताका ज्ञान करामा गया है । इस प्रकार प्रकृतमें कार्यहेतुफो ही मान्यता दी गई है, हमारे या अपर पक्ष के प्रत्यक्ष प्रमाणको नहीं।
स्वामी समन्तभद तो इसी तथ्यको और भी स्पष्ट शब्दों में सूचित करते हुए स्वयंभूस्तोत्रमें सुपार्श्व जिनकी स्तुतिके प्रसंगसे कहते हैं
अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा।
अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥३॥ हेतुद्वयसे उत्पन्न होनेवाला कार्य हो जिसका ज्ञापक है ऐसी यह भवितव्यता अध्यशक्ति है । किन्तु मैं इसे कर सकता हूँ ऐसे विकल्पसे पीड़ित हुआ प्राणी बाह्य सामग्रीको मिलाकर भी कार्योंके करने में समर्थ नहीं होता । हे जिन ! आपने यह ठीक ही कहा है ।।३।।
इसमें भी यही बतलाया गया है कि कार्यको देखकर ही यह अनुमान किया जाता है कि इस कारणमें इस कालमें इस कार्यक्रो उत्पन्न करनेकी योग्यता रही है, तभी यह कार्य हुआ है ।
यद्यपि कहीं-कहीं कारणको देखकर भी कार्यका अनुमान किया जाता है, यह सच है, परन्तु इस ' पद्धतिसे कार्यका ज्ञान वहीं पर सम्भव है जहां पर विवक्षित कार्यवे अविकल कारणोंकी उपस्थितिकी
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्षा और उसकी समीक्षा सम्यक् जानकारी हो और साथ ही उससे भिन्न कार्यके कारण उपस्थित न हों। इतने पर भी इस कारणमें इस कार्यके करनेकी आन्तरिक योग्यता है ऐसा ज्ञान तो अनुमान प्रमाणसे ही होता है । अतः सभी कार्योंका काल सर्वथा नियत नहीं है ऐसा दावा अपर पक्ष अपने प्रत्यक्ष प्रमाणके बलपर तो त्रिकालमें कर नहीं सकता।
अब रह गया यह तर्क 'कि किसीने कार्योंका कोई कम नियत भी नहीं किया है, अतः आगे पीछे करनेका प्रश्न ही नहीं उठता।' सो यह तर्क पढ़नेमें जितना सुहावना लगता है उतना यथार्थताको लिये हुए नहीं है, क्योंकि हमारे समान सभी श्रुतज्ञानो 'जं जस्स जम्मि देसे' इत्यादि तथा 'पुब्वपरिणामजुतं कारणभावेण बट्टदे दवं' इत्यादि श्रुति के बलसे यह अच्छी तरहसे जानते है कि जो कार्य जिस कालमें और जिस देशमें जिम विधिसे होता है वह कार्य उस काल और उस देशमें उस विधिसे निग्रमसे होता है इसमें इन्द्र, चक्रवर्ती और स्वयं तीर्थकर भी परिवर्तन नहीं कर सकते । अतएव श्रुतिके बल पर हमारा ऐसा जानना प्रमाण है । और वह श्रुति दिव्यध्वनिके आधारसे लिपिबद्ध हुई है, इसलिए दिव्यध्वनिक बलपर बह श्रुति भी प्रमाण है । और वह दिव्यध्वनि केवलज्ञानके आधारपर प्रवृत्त हुई है, इसलिए केवलज्ञानके बलपर दिव्यध्वनि भी प्रमाण है । और केवलज्ञानकी ऐसी महिमा है कि मह तीन लोक और विकालवर्ती समस्त पदार्थोको वर्तमानके समान जानता है। इसलिए केवलज्ञान प्रमाण है। यहाँ यह तो है कि प्रत्येक पदार्थका जिस कालमें और जिस देशमें जिस विधिसे परिणमन होने का नियम है वह स्वयं होता है, कुछ केवलज्ञानके कारण नहीं होता। परन्तु साथमें बाहरी नियम है ::त्ये:.
से पत्रिका होनेका नियम है उसे केवलज्ञान उसी प्रकार जानता है । ऐसा ही एनमें ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है । अतः कार्योंका किसीने कोई क्रम नियत नहीं किया यह लिखकर सम्यक् नियतिका निषेध करना उचित नहीं है। एक ओर तो अपर पश 'कायौंका किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया' यह लिखकर कार्योका आगे-पीछे होना मानना नहीं चाहता और दूसरी ओर उत्कर्षण आदिके द्वारा कर्मवर्गणाओंका आगे-पीछे उदयमें आना भी स्वीकार करता है । यह क्या है ? इसे उस पक्षकी मान्यताको विडम्बना ही कहनी चाहिए । स्पष्ट है कि अपर पक्षने 'सभी कार्योका काल सर्वथा नियत नहीं है। इत्यादि लिखकर जो सभी कार्योंके क्रम नियमितपनेका निषेध किया है वह उक्त प्रमाणों के बलसे तर्ककी कसौटी पर कसनेपर यथार्थ प्रतीत नहीं होता ।
३. अपर पक्ष ने अपने तीसरे हेतुमें कर्मस्थिति आदिके आधारसे विचार कर यह निष्कर्ष फलित करनेकी चेष्टा की है कि बन्धके समय जो स्थितिबन्ध होता है उसमें बन्धावलिके बाद उत्कर्षणादि देखे जाते है. अतः जो कार्य जिस समय होना है उसे आगे-गीछे किया जा सकता है । यद्यपि इस विषयपर विशेष विचार शंका पाँचके अन्तिम उत्तरमें करनेवाले हैं। यहाँ तो मात्र इवना ही सुचित करना पर्याप्त है कि सत्तामें स्थित जिस कर्मका जिस काल में जिसको निमित्तकर उत्तार्पण आदि होना नियत है उस कर्मका उस काल में उसको निमित्तकर ही वह होता है, अन्यका नहीं ऐसी बन्धके समय ही उसमें योग्यता स्थापित हो जाती है। कर्मशास्त्र में कर्मफी बन्ध, उदय और उत्कर्षणादि जो दस अवस्थाएँ ब्रतलाई है वे इसी आधारपर बतलाई गई हैं । हरे, जिस व्यवस्थाको कर्मशास्त्रमें स्वीकार नहीं किया गया है, कर्ममें ऐसे किसी कार्यका केवल बाह्य सामग्री के बलपर अपर पक्ष होना सिद्ध कर सके तो अवश्य ही यह माना जा सकता है कि यह कार्य बिना उपादानशक्तिके केवल बाहा सामग्रीके बलपर कर्ममें हो गया । व्यवस्था व्यवस्था है । व्यवस्थाके अनुसार कार्यका होना अनियममें नहीं आता । कर्मशास्त्रके प्रगाढ़ अभ्यासका हम दावा तो नहीं करते । परन्तु कर्मशास्त्रके थोड़े बहुत अभ्यासके बलपर इतना अवश्य ही निर्देश कर देना चाहते हैं कि कर्मशास्त्रको व्यवस्थाके
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शंका १ और उसका समाधान
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अनुसार जिस कर्ममें जिस समय जो कार्य होता है वह नियमित क्रमसे ही होता है । अतः कर्मशास्त्र के अनुसार किसी भी कार्यको आगे गीले होने का दावा करना किसी भी अवस्था में उचित नहीं कहा जा सकता ।
इस प्रकार जिन तीन हेतुओंके आधार से अपर पक्षने सम्यक् नियतिका विरोध किया है वे तीनों हेतु यथार्थ कैसे नहीं हैं इसका नागमके आधारसे यहाँ विचार किया । अतएव प्रकृत में यही समझना चाहिए कि सम्यक् नियति आगमसिद्ध है, अन्यथा न तो पदार्थव्यवस्था हो बन सकती है और न ही कार्य-कारणव्यवस्था ही बन सकती है ।
६. प्रसंग प्रकृतोपयोगी नयोंका खुलासा
इसी प्रसंग अपर पक्षने नयोंकी चरचा करते हुए व्यवहार नयको असभूत माननेसे अस्वीकार किया है। उस पक्ष का ऐसा कहना मालूम पड़ता है कि जिसने प्रकारके व्यवहार नय आगममें बतलाये गये हैं वे सब सद्भूत ही हैं। यह प्रश्न अनेक प्रसंगों पर अनेक प्रश्नोंमें उठाया गया है । यदि अपर पक्ष आगमपर दृष्टिपात करता तो उसे स्वयं ज्ञात हो जाता कि आगममें व्यवहारनगके जो चार भेद किये हैं उनमें से दो सद्भूत व्यवहारमय के भेद हैं और दो अद्भूत व्यवहारनयके भेद हैं । जहाँ प्रत्येक द्रव्यको व्यवहारनयसे अनित्य कहा है वहीं वह सद्भूत व्यवहारमय से ही कहा गया है, जिसे आगम पञ्चलिमे पर्यायार्थिक निश्चय नयरूपसे स्वीकार किया गया है। किन्तु जहाँ किसी एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य कार्यको अपेक्षा निमित्त व्यवहार किया गया है वहाँ वह सद्भूत व्यवहारनयका विषय न होकर असद्द्भूत व्यवहारनयका ही विषय हैं । कारण कि एक द्रव्य कार्यका कारण धर्म दुसरे द्रव्यमें रहता हो यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। अतः एक द्रव्यके कार्यका दूसरे द्रव्यको निमित्त अर्थात् कारण कहना उपचरित ही ठहरता है । यही कारण है कि आलापपञ्चतिमें असद्भूत्त व्यवहारका लक्षण करते हुए लिखा है
अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । मसद्भूतव्यवहार एवोपचारः । उपचारादप्युपचारं यः करोति स उपचरितासभूतव्यवहारः ।
अन्यत्र प्रसिद्ध हुए धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भूत व्यवहार है। असद्भूत व्यवहारका नाम ही उपचार है । उपचारके बाद भी जो उपचार करता है वह उपचरितासद्भूतव्यवहार है। (देखो समयसार गाथा ५६ टीका, आलाप पद्धति तथा नयचक्रादिसंग्रह पृ० ७९ गाथा २२३ )
यह ती अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि प्रत्येक द्रव्यके गुणधर्म उसके उसीमें रहते हैं। विचार कीजिए कि कुम्भकार भिन्न वस्तु है और मिट्टी भिन्न वस्तु है। यदि मिट्टी के किसी धर्मको कुम्भकारमें या कुम्भकार किसी धर्मको मिट्टी में परमार्थसे स्वीकार किया जाता है तो इन दोनोंमें एकता प्राप्त होती है । किन्तु मिट्टी अपने स्वचतुष्टयकी अपेक्षा भिन्न वस्तु है, उसमें कुम्भकारके स्वचतुष्टयका अत्यन्त अभाव है | उसी प्रकार कुम्भकार अपने स्वचतुष्टयकी अपेक्षा भिन्न वस्तु है, उसमें मिट्टीओ स्वचतुष्टयका अत्यन्त अभाव हैं । ऐसी अवस्थामें यदि घटका कर्ता कुम्भकारको कहा जाता है वो घटका कर्ता धर्म कुम्भकार में आरोपित हो तो मानना पड़ेगा और इसी प्रकार कुम्भकारका कर्म यदि घटको कहा जाता है तो कुम्भकारका कर्मधर्म घटमें आरोपित ही तो मानना पड़ेगा। यही कारण है कि हमने सर्वत्र निमित्तनैमित्तिक सम्बन्त्रको असद्भूतoreहारनयका विषय बतलाकर उसे उपचारित ही प्रसिद्ध किया है। नय एक विकल्प है । वह सद्भूतको तो विषय करता ही है । कालप्रत्यासत्तिमादिकी अपेक्षा जिसमें निमित्त व्यवहार या नैमित्तिक व्यवहार
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा किया गया है या निक्षेप व्यवस्था अनुसार जो नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेपका विषय है उसे भी विषय करता है।
अश्रवा नैगमनयके स्वरूप द्वारा असदभूत व्यवहारलयको समझा जा सकता है। जिस पर्यायका संकल्प है वह वर्तमानमें अनिष्पन्न हूँ फिर भी उसके आलम्बनसे संकल्पमात्र को ग्रहण करने वाले नयको नंगमनय कहा है। इसी प्रकार असद्भुतम्यवहारनय इष्टार्थका ज्ञान कराने में समर्थ है, इसीलिए उसे सम्यक नयोंमें परिमणित किया है।
भेद द्वारा वस्तुको ग्रहण करना जहाँ सद्भूत व्यवहारनप कहा गया है वहां उसकी विवक्षाभेदसे निश्चयनय संज्ञा भी आगममें प्रतिपादित की गई है। किन्तु निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको (दो द्रव्योंमें) बतलानेवाला व्यवहारनय असदभूत व्यवहारनय ही है, वह किसी भी अवस्थामें निश्चय संज्ञाको प्राप्त करनेका अधिकारी नहीं, अतएव व्यवहार कहकर भेदव्यवहार और निमित्त नैमित्तिक व्यवहार इन दोनों को एक कोटिमें रखकर प्रतिपादन करना उचित नहीं है ।
ज्ञेय स्वरूपसे ज्ञेय और ज्ञायक स्वरूपसे ज्ञामक है। यह आरोपित धर्म नहीं है, असः इनका सम्बन्ध कहना भले ही व्यवहार (उपचार) होओ, इसमें बाधा नहीं, परन्तु है ये दोनों धर्म अपने-अपन में सद्भूत ही, असद्भूत नहीं । किन्तु ऐसी बात निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके विषय में नहीं है । कुम्भकार स्वरूपसे चटका निमित्त नहीं है और न ही घट (मिट्टी) स्वरूपसे कुम्भरकारका कर्म (नैमित्तिक) ही है। फिर भी अन्यके
का अन्यरे मोट करते मिट्टी का कुम्भकारमें और कुम्भकारके कर्म धर्मका घटमें आरोंप करके कुम्भकारको घटका कर्ता और घटको कुम्भकारका कर्म कहना असद्भूत ब्यवहार ही है। यदि यह सद्भुत व्यवहार होता तो विवक्षाभेदसे निश्चय संशाको भी प्राप्त होता। किन्तु यह व्यवहार असद्भुत ही है, अतएव यह विवक्षाभेदमे निश्चय संशाको प्राप्त करनेका भी अधिकारी नहीं और इस अपेक्षासे अपर पक्ष द्वारा दिया गया नेत्रका उदाहरण प्रकृसमें अक्षरशः लागू पड़ता है। नेत्र रूपको ही जानता है, रसको नहीं। फिर भी उसे रसको जाननेवाला कहा जायगा तो वह असद्भूत व्यवहार ही ठहरेगा। उसी प्रकार कुम्भकार अपने योग और विकल्पका ही कर्ता है, चटका नहीं, फिर भी उसे घटका कर्ता कहा जायगा तो यह असद्भूत व्यवहार ही ठहरेगा, क्योंकि निदचपसे जैसे नेत्र रसको जाननेमें असमर्थ है उसी प्रकार कुम्भकार भी निश्चयसे वट की क्रिया करने में सर्वथा असमर्थ है।
इस प्रकार नयोंका प्रसंग उपस्थित कर अपर पक्षने जो हमारे "दो व्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें निमित्त-नैमितिक सम्बन्ध व्यवहारनयसे ई, निश्चयनयसे नहीं।' इस कथन पर टीका की है वह कैसे आगम विरुद्ध है इसका विचार किया ।
७. कता-कर्म आदिका विचार आगे अपर पक्षने कर्ता-कर्म भाव और निमित्त-नैमित्तिक भावकी घरचा उपस्थित कर अपने उन विचारोंको यहां भी दुहरा दिया है जिनकी विशेष चरचा शंका ५ के तीसरे दौर में की है। इसी प्रसंगमें अपर पक्षने लिखा है
'इस तरह हमारे आपके मध्य मतभेद केवल इतना ही रह जाता है कि जहाँ हमारा पक्ष आत्मामें उत्पन्न होनेवाले रागादि विकार और चतुर्गतिभ्रमणरूप कार्यको उत्पत्तिमें द्रव्यकमके उदयरूप निमित्त कारण
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शंका है और उसका समाधान या निमित्त कर्ताको सहकारी कारण या सहकारी कत्त के रूपमें सार्थक (उपयोगी) मानता है यहाँ आपका पक्ष उसे उपचरित कह कर उक्त कार्यमें अकिचिस्कर अर्थात् निरर्थक ( निरुपयोगी ) मानता है और तब आपका पक्ष अपना यह सिद्धान्त निश्चित कर लेता है कि कार्य केवल उपादानको अपनी सामन्यसे स्वतः ही निष्पन्न हो जाता है। उसकी निष्पत्ति में निमित्तकी कुछ भी अपेक्षा नहीं रह जाती है। जब कि हमारा पक्ष यह घोषणा करता है कि अनुभव, तर्क और आगम सभी प्रमाणोंम यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कार्यकी निष्पत्ति उपादानमें ही हुआ करती है अर्थात् उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है फिर भी उपादानकी उस कार्यरूप परिणतिमें निमित्त की अपेक्षा बराबर बनी हुई है अर्थात् उपादानकी जो परिणति आगममें स्व-परप्रत्यय स्वीकार की गई है वह परिणति उपादानकी अपनी परिणति होकर भी निमित्त की सहायतासे ही हुआ करती है, अपने आप नहीं हो जाया करती है। चूंकि आत्माके रागादिरूप परिणमन और चतुर्गति भ्रमणको उसका (आत्माका) स्वपरप्रत्यय परिणमन आगम द्वारा प्रतिपादित किया गया है, अतः वह परिणमन आत्माका अपना परिणमन होकर भी लोके उता"
हाग रता है। यादि । ___ यह अपर पक्षके वक्तव्यका अंश है। इसमें उन सब बातोंका उल्लेख हो गया है जिन्हें अपर पक्ष सिद्ध करनेवे प्रयत्नमें हैं । आगे इसे ध्यानमें रखकर पूरे वक्तव्यापर विचार किया जाता है
यह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक अखण्ड सत्को भेद विचक्षामें तीन भागों में विभक्त किया गया है-द्रव्यगत्, गुणसत् और पर्यायसत् । अपर पक्ष व्यसत् और गुणसत्कं स्वरूपको तो स्वतः सिद्ध मानने के लिए तैयार है, किन्तु पर्यायसत्के विषयमें उसका कहना है कि वह परको सहायतासे अर्थात् परके द्वारा उत्पन्न होता है। उगादान तो स्व है और अभेद विपक्ष में जो उपादान है वही उपादेय है, इसलिए वह अपनेसे, अपनेमें, अपने द्वारा आप फर्ता होकर कर्मरूपसे उत्पन्न हुआ यह कथन यथार्थ बन जाता है । किन्तु जिस बाह्य सामग्रीमें निमिस व्यवहार किया गया है वह ( वह स्वयं परके कार्यका स्वरूपसे निमित्तकारण नहीं है यह बात यहाँ ध्यानमें रखनी चाहिए। ) पर है, अतः उसमें यह कार्य हुआ इसे तो यथार्थ न माना जाय और उसके द्वारा आप कर्ता होकर परके इस कार्यको उसने उत्पन्न किया इसे यथार्थ कैसे गाना जा सकता है, अर्थात् त्रिकालमें यथार्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि दोनोंमें सर्वथा सत्ताभेद है, प्रदेशभेद हैं, कर्ता आदिका सर्वथा भेद तो है हो । परफे द्वारा कार्य हुआ था परफी सहायतासे कार्य हुआ इसे आगम प्रमाणसे यदि हम असद्भुत व्यवहार कथन या उपचरित कथन बतलाते हैं तो अपर पक्ष उसे निरर्थक या निरुपयोगी लिखने में ही अपनी चरितार्थता समझता है, इसका हमें आश्चर्य है। जहाँ उपादान
और उपादेयमें भेद विवक्षा करके उपादानसे उपादेयकी उत्पत्ति हुई यह कथन ही व्यवहार कथन ठहरता है वहां परके द्वारा उससे सईथा भिन्न परके कार्यकी उत्पत्ति होती है से असद्भत व्यवहार कथन न मानकर सद्भुत व्यवहार या निश्चय कथन कैसे माना जा सकता है, इसका स्वमतके समर्थनका पक्ष छोड़कर अपर पक्ष ही विचार करे। क्या यह अपर पक्ष आगममें बतला सकता है कि एक द्रव्यके कार्यके कर्ता आदि कारण धर्म दूसरे द्वन्ध्यमें वास्तव में पाये जाते है ? यदि नहीं तो वह पक्ष कुम्भकार घटका कर्ता है इस कथन को असद्भूतव्यवहारमय । उपचरित्तोपचारलय) का कथन मानने में क्यों हिचकिचाता है : पहले तो उसे इस तथ्यको निःसंकोच रूपमें स्वीकार कर लेना चाहिये और फिर इसके बाद इसकी सार्थकता या उपयोगिता क्या है इस पर विचार करना चाहिये । हमें आशा है कि यदि वह इस पञ्चतिसे विचार करेगा तो उसे इस कथनकी सार्थकता और उपयोगिता भी समझ में आ जायगी। यह कथन इष्टार्थ
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थात् निश्चयका ज्ञान करानेमें समर्थ है, इससे इसकी सार्थकता या उपयोगिता सिद्ध होती है, इससे नहीं कि वह स्वयं अपने में यथार्थ कथन हैं। इसे यथार्थं कथन मानना अन्य बात है और सार्थक अर्थात् उपयोगी मानना अन्य बात है । यह कथन उपयोगी तो है पर यथार्थ नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
आचार्य विद्यानन्दिने तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृष्ठ १५१ में सहकारी कारणका और कार्यका लक्षण करते लिसा है-
हुए
यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति ।
जो जिसके अनन्तर नियमसे होता है वह उसका सहकारी कारण है और इतर कार्य है ।
इसका तात्पर्य ही यह है कि जब जो कार्य होता है तब उसका जो सहकारी कारण कहा गया है। वह नियमसे रहता हैं ऐसी इन दोनों में कालप्रत्यासत्ति है । यह यथार्थ है । अर्थात् उस समय विवक्षित कार्यका होना भी यथार्थ है और जिसमें सहकारी कारणता स्थापित की गई है उसका होना भी यथार्थ है । यह ह दोनोंकी कालप्रत्यासत्ति हूँ ।
किन्तु इसके स्थान में उक्त कथनका यदि यह अर्थ किया जाय कि जिसे सहकारी कारण कहा गया है वह अपने व्यापार द्वारा अन्य द्रव्यके कार्यको उत्पन्न करता है तो उक्त कथनका ऐसा अर्थ करना यथार्थ न होकर उपचारित ही होगा। आचार्यने सहकारी कारणका लक्षण करते हुए जो वाक्य रचना निबद्ध की है थोड़ा उसपर दृष्टिपात कीजिए। वे सहकारी कारणका यह लक्षण नहीं लिख रहे हैं कि जिसका व्यापार जिसे उत्पन्न करता है वह सहकारी कारण है । किन्तु इसके स्थान में यह लिख रहें हैं कि जिसके अनन्तर जो नियम होता है वह सहकारी कारण है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि बाह्य सामग्रीका व्यापार अन्य ब्रव्य में कार्यको त्रिकालमें उत्पन्न नहीं करता यदि उसे अन्य द्रव्यके कार्यका सहकारी कारण कहा भी गया हैं तो केवल इसलिए कि उसके अनन्तर अन्य द्रव्यका यह कार्य नियमसे होता है ।
।
समझ में आ जाता है ।
इससे तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके उक्त कथनका क्या तात्पर्य है यह आसानी से समयसार कलश में जो 'न जातु' इत्यादि कलश निबद्ध किया गया है वह भी इसी अभिप्रायसे निवद्ध किया गया है कि एक द्रव्य दूसरे द्रयमको परिणमाता नहीं। इसमें आया हुआ 'परसंग' पद ध्यान देने योग्य है । अपने रामरूप परिणामके कारण आत्मा परकी संगति अर्थात् परमें रागवृद्धि करता है और इसलिए वह परके संयोग में सुख-दुःखादि रूप फरक्का भोक्ता होता है। यदि वह परमें रामबुद्धि करना छोड़ दे तो परके संयोग में जो उसे सुख-दुःखादि फलका भागी होना पड़ता है उससे अन्य जाय । स्पष्ट है कि यहाँ परको सुख-दुःखादि रूप परिणमानेवाला नहीं कहा गया है, किन्तु परकी संगति करनेरूप अपने अपराधको ही सुखदुःखादिका मूल हेतु कहा गया है ।
समयसारको “जीवपरिणामहेदु" इत्यादि ८०वी गाथा भी यही प्रकट करती है कि किसकी संगति करने के फलस्वरूप किसकी कैसी परिणति होती है। वह परका दोष नहीं है, अपना ही दोष है इस तथ्यको सूचित करने के लिए "ण वि कुध्वद्द" इत्यादि ८१वीं गाथा लिखी है । और अन्त में "एएण कारणेण " इत्यादि ८२वीं गाथा द्वारा उपसंहार करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि सब द्रव्य अपने-अपने परिणाम के ही वास्तव में कर्ता हैं, कोई किसी दूसरेके परिणामका वास्तविक कर्ता नहीं है । फिर भी यदि अपर पक्ष
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शंका और उसका समाधान
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सहकारी कारणका यह अर्थ करता है कि यह दूसरे द्रव्यको क्रियाको सहायक रूपमें करता तो उसे अपने इस सदोष विचारके संशोधनके लिए समयसार गाथा ८५-८६ पर दृष्टिपात करना चाहिए और यदि वह उसका कालप्रत्यासत्तिवश यदनन्तरं यद्भवति' इतना ही अर्थ करता है तो इसमे हमें कोई आपत्ति नहीं। ऐसा अर्थ करना आगमसम्मत है । 'जीवहि हेदुभूदे' इत्यादि गाथा में आया हुआ 'उवयारमरोण' पद 'असद्भूतव्यवहार' इस अर्थका सूचक है जैसा कि हम आलापपद्धतिका उद्धरण उपस्थित कर पूर्व में ही सूचित कर आये हैं। पर द्रव्य अन्य द्रव्यके कार्यका वास्तविक निमित्त नहीं और न वह कार्य उसका नैमितिक है । यह व्यवहार है जो असद्भूत है। यही बात 'उवयारमत्तेन' इस पद द्वारा सूचित की गई है । तत्वार्थश्लोकातिक १० १५१ के उद्धरणका जो अभिप्राय है इसका खुलासा हमने पूर्वमें ही किया है। उससे अधिक उसका दूसरा आशय नहीं है ।
मीमांसादर्शन शब्दको सर्वथा नित्य मानकर सहकारी कारणसे ध्वनिकी प्रसिद्धि मानता है और फिर भी वह कहता है कि इससे शब्द अधिकृत रूपसे नित्य हो बना रहता है। अष्टशती (अष्टसहस्री पृ० १०५) का 'तदसामथ्र्यंम खण्डयत्' इत्यादि वचन इसी प्रसंग में आया है। इस द्वारा भट्टाकलंकदेवने मीमांसा दर्शन पर दोषका आपादान किया है. इस द्वारा जैनदर्शनके सिद्धान्सका उद्घाटन किया गया है ऐसा यदि अपर पक्ष समझता है तो उसे हम उम पक्षको भ्रमपूर्ण स्थिति हो मानेंगे। हमें इसका दुःख है कि उसकी ओरसे अपने पक्ष के समर्थन में ऐसे वचनोंका भी उपयोग किया गया है। सर्वथा नित्यवादी मीमांसक यदि शब्दको सर्वथा नित्य मानता रहे, फिर भी वह उसमें ध्वनि आदि कार्यकी प्रसिद्धि सहकारी कारणोंसे माने और ऐसा होनेपर भी वह शब्दों में विकृतिको स्वीकार न करे तो उसके लिए यही दोष तो दिया जायगा कि सहकारी कारणोंने उसकी सामर्थ्यका यदि खण्डन नहीं किया है तो उन्होंने ध्वनि कार्य किया, यह कैसे कहा जा सकता है, वे तो अर्कचित्कर ही बने रहे। स्पष्ट है कि इस बचनसे अपर पक्षके अभिप्रायकी अणुमात्र भी पुष्टि नहीं होती ।
अपर पक्षने अष्टशती के उक्त वचनमें आये हुए 'तत्' पदका अर्थ उपादान जानबूझ कर किया है । as fh उसका अर्थ 'सर्वथा नित्य शब्द' है । यह सूचना हमने बुद्धिपूर्वक की है और इस अभिप्रायस की है कि जैनदर्शन में उपादानका अर्थ नित्यानित्य वस्तु लिया गया है। किन्तु मीमांसादर्शन शब्दको ऐसा स्वीकार नहीं करता ।
अपर पक्षने रामयसार गाथा १०५ की आत्मख्याति टीकाको उपस्थित कर जो अपने विचारकी पुष्टि करनी चाही हैं वह ठीक नहीं हैं, क्योंकि उक्त टीका के अन्त मे आये हुए 'स तूपचार एव न तु परमार्थः ' इस पदका अर्थ है— 'वह विकल्प तो उपचार ही है अर्थात् उपचरित अर्थको विषय करनेवाला ही है, परमार्थरूप नहीं है अर्थात् यथार्थ अर्थको विषय करनेवाला नहीं है।' किन्तु इसे बदलकर अपर पक्ष से इस वाक्पका यह अर्थ किया है— 'आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह उपचार हो है अर्थात् निमित्तनैमित्तिक भावको अपेक्षा से ही है परमार्थरूप नहीं हूं अर्थात् उपादानोपादेय भावको अपेक्षा से नहीं है । हमें आश्चर्य है कि अपर पक्ष ने उक्त वाक्यके प्रारम्भमें आये हुए 'सः' पदका अर्थ 'विकल्प' न करके 'आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह अर्थ कैसे कर लिया। अपर पक्षको यह स्मरण रखना चाहिए कि निमित्त व्यवहार और नैमित्तिक व्यवहार उपचरित होता है और यह तब बनता है जब परने परके कार्यको किया ऐसे विकल्पकी उत्पत्ति होती है । यही तथ्य उक्त गाया और उसकी टीका द्वारा प्रकट किया गया है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अगर पक्षने 'यः परिणमति स कर्ता' इत्यादि कलशको उद्धृत कर 'यः परिणमति' पदका अर्थ किया है-'जो परिणमित होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है।' जब कि इस पदका वास्तविक अर्थ है- 'जो परिणमता है या परिणमन करता है। उक्त पवमें 'यः परिणमति' पद है 'यत्परिणमन भवति' पद नहीं इं, सिर नहीं गाय, पा, उसने रा एके अर्थको न करके स्वमतिसे अन्यथा अर्थ क्यों किया। स्पष्ट है कि वह पक्ष उपादानको यथार्थ कर्ता बनाये रखने में अपने पक्षकी हानि समझता है तभी तो उस पक्षके द्वारा इस प्रकारसे अर्थमें परिवर्तन किया गया।
आगममें निमित्त व्यवहार या निमित्तका आदि व्यवहारको सूचित करनेवाले बचन पर्याप्त मात्राम उपलब्ध होते है इसमें सन्देह नहीं, पर उसी आगममें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि ये सब बचन असद्धृतव्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर आगममें निबद्ध किये गये हैं। (इसके लिये देखो समयसार गाथा १०५ से १०८ तथा उनकी आत्मख्याति टीका, बृहद्व्यसंग्रह गाथा ८ की टीका आदि ।)
___ यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार आगममें उपादानकर्ता और उपादान कारणके लक्षण उपलब्ध होते हैं और साथ ही उन्हें यथार्थ कहा गया है उस प्रकार आगममें निमिसकर्ता या निमित्त कारणके न तो कहीं लक्षण ही उपलरूप होते हैं और न ही कहीं उन्हें यथार्थ ही कहा गया है । प्रत्युत ऐसे अर्थात् निमित्तकर्ता या निमित्तकारणपरक व्यवहारको अनेक स्थलोंपर अज्ञानियोंका अनादि रूढ़ लोकव्यवहार ही बतलाया गया है (देखो समयसार गाथा ८४ ब उसकी दोनों संस्कृत टीकाएँ आदि)।
अपर पक्षने हमारे कथनको लक्ष्य कर जो यह लिखा है कि 'परन्तु इस पर ध्यान न देते हुए उस लक्षणको सामान्यरूपसे कर्ताका लक्षण मानकर निमित्तन्नमिसिक भावकी अपेक्षा आगममें प्रतिपादित कर्तकर्म भावको उपचरित (कल्पनारोपित) मानते हुए आपके द्वारा निर्मितकर्ताको अकिंचित्कर (कार्यके प्रति निरुपयोगी) करार दिया जाना गलत ही है।'
किन्तु अपर पनकी हमारे कथनपर टिप्पणी करना इसलिए अनुचित है, क्योंकि परमागममें एक कार्यके दो कर्ता वास्तवमें स्वीकार ही नहीं किये गये है । समयसार कलशमें कहा भी है
मैकस्य हि कर्तारी द्वौ स्तोद्वे कर्मणी न चैकस्य ।
नेकस्य च किये द्वे एकमनेक यतो न स्यात् ॥५४|| एक द्रव्य (कार्य) के दो कर्ता नहीं होते, एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते और एक व्यकी दो क्रियाएँ महीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक इभ्यरूप नहीं होता ॥५४॥ . इससे स्पष्ट विदित होता है कि जब एक कार्यके परमात्ररूप दो कर्ता ही नहीं है, ऐसी अवस्थामें परमागममें दो कर्ताओंके दो लक्षण निबद्ध किया जाना किसी भी अवस्थामें सम्भव नहीं है, इसलिए प्रकृतमें मही समझना चाहिए कि 'यः परिणमति स कर्ता' इस रूपमें कर्ताका जो लक्षण निबद्ध किया गया है यह सामान्यरूपसे भी कर्ताका लक्षण है और विशेषरूपसे भी, क्योंकि जहाँ पर दो मा दोसे अधिक एक जातिकी वस्तुएं हों वहाँ पर ही सामान्य और विशेष ऐसा भेद करना सम्भव है । यहाँ जद एक कार्यका कर्ता ही एक है सो एफ कर्ताके दो लक्षण हो ही कैसे सकते हैं ? यही कारण है कि एक कार्यका एक कर्ता होनेसे परमागममें कर्ताका एक ही लक्षण लिपिबद्ध किया गया है । निमित्तफर्सा वास्तवमै कर्ता महीं, इसलिए परभागममें उसका लक्षण भी उपलब्ध नहीं होता । यह तो व्यवहारमात्र है। अतएव इस सम्बन्धमें हमारा जो कुछ भी कथन है वह यथार्थ है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
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शंका है और उसका समाधान अपर पक्षने अपने पक्ष के समर्थनमें समयसार गाथा १०० को उपस्थित किया है, किन्तु यह गाथा विस यानिमायसे निबस का गई है। इसके लिए समसार ०७ गाया अवलोकनीय है। उसके प्रकाशमें इस
पहनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि गाथा १०० में आचार्य कन्दकन्दने जो कुम्भकारके योग और विकल्पको घटका उत्पादक कहा है और आचार्य अमतचन्दने कुम्भकारके योग और विकल्पको जो निमित्त कर्ताकहा है यह किस अभिप्रायसे कहा है। गाथा १०७ में यह स्पष्ट बतलाया गया है कि आत्मा पगल कर्मको उत्पन्न करता है, करता है, धिता है, परिणमाता है और ग्रहण करता है यह सब कथन व्यवहारनय का वक्तव्य है । गाथा १०० में तो मात्र निमित्त कर्ताके अर्थमें किस प्रकारका प्रयोग किया जाता है यह बतलाया गया है। किन्तु गाया १०७ में ऐसा प्रयोग किस नयका विषय है इसे स्पष्ट किया गया है । अतः इस परसे भी अपर पक्षके अभिप्रायकी पुष्टि न होकर हमारे ही अभिप्रायको पुष्टि होती हैं ।
अपर पक्ष यह तो बतलाये कि जब जिसमें निमित्त व्यवहार किया गया है उसका कोई भी धर्म जिसमें नैमित्तिक दवहार किया गया है उसमें प्रविष्ट नहीं होता तो फिर वह उसका यथार्थमें निमित्त कर्ता-कारणरूपसे कर्ता कैसे बन जाता है ? बागममें जब कि ऐसे कथनको उपचरित या उपचरित्तोपचरित स्पष्ट शब्दों में घोषित किया गया है तो अपर पक्षको ऐसे आगमको मान लेनेमें आपत्ति ही क्या है । हमारी रायमें तो उसे ऐसे कथनको बिना हिचकिचाहटके प्रमाण मान लेना चाहिए ।
____ अपर पक्षने प्रमेयरत्नमाला समुद्देश ३ सू० ६३ से 'अन्वय-व्यतिरेक' इत्यादि बचन उद्धत कर अपने पक्षका समर्थन करना चाहा है, किन्तु इस वचनसे भी इतना ही ज्ञात होता है कि जिसके अनम्तर जो होता है वह उसका कारण है और इतर कार्य है। यही बात इसी सूत्रकी व्याख्यामें इन शब्दोंमें कही गई है--
तस्य कारणस्य भावे कार्यस्य भाबित्वं तद्भावभावित्वम् । उसके अर्थात् कारण होने पर कार्यका होना यह तद्भावभावित्व है ।
किन्तु यह सामान्य निर्देश है । इससे बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण क्यों कहा और आम्यन्तर सामग्रीको अनुपचारित कारण क्यों कहा यह ज्ञान नहीं होता । इसका विचार तो उन्हीं प्रमाणोंके आधार पर करना पड़ेगा जिनका हम पूर्व में निर्देश कर आये है ।।
__ यह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक द्रव्यमें एक कालमें एक ही कारण धर्म होता है और उस धर्मके अनुसार वह अपना कार्य भी करता है। जैसे कुम्भकारमें अब अपनी क्रिया और विकल्प करनेका कारण धर्म है तब वह अपनी क्रिया और विकल्प करता है, मिट्टोकी घट निष्पत्तिरूप क्रिया नहीं करता । ऐसी अवस्थामें कुम्भकारको घटका कर्ता उपचारसे ही तो कहा जायगा । और उस उपचारका कारण यह है कि जब कुम्भकारकी विवक्षित किया और विकल्प होता है तब मिट्टी भी उपादान होकर घटरूपरो परिणमती है । इस प्रकार कुम्भकारको विवक्षित क्रियाके साथ घट कार्यका अम्बय-व्यतिरेक बन जाता है । यही कारण है कि कुम्भकारको घटका कर्ता उपचारसे कहा गया है। किन्तु ऐसा उपचार करना तभी सार्थक है जब वह यथार्थका ज्ञान करावे, अन्यथा वह व्यवहाराभास ही होगा। यह वस्तुस्थितिका स्वरूप निर्देश है। इससे बाह्य सामग्रीमें अन्य द्रव्य कार्यकी फारणता काल्पनिक ही है यह ज्ञान हो जाता है। फिर भी आगममें इस कारणताको काल्पनिक न कहकर जो उपपरित कहा है वह सप्रयोजन महा है। खुलासा पूर्व में ही किया है और आगे भी करेंगे।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चवला पु. १३ पृ० ३४९ का उद्धरण (जिसे अपर पक्षने प्रस्तुत किया है) संयोगको भूमिकामें उपचरित अनुभागका ही निरूपण करता है। प्रत्येक व्यका वास्तविक अनुभाग क्या है यह 'तत्य असेसदव्याचगमो जीवाणुभागो' इत्यादि वचनसे ही जाना जाता है।
अपर पक्षने 'मुख्याभावे सति' इत्यादि वचनको उपचारकी व्याख्या माना है जो अयुक्त है । इस वचन वारा सो मात्र उसकी प्रवृत्ति कहाँ होती है यह बतलाया गया है | उपचारको व्याख्या उसी आलापपद्धतिमें इस प्रकार दी है
अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एव उपचारः।
अन्यत्र प्रसिद्ध हुए धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भूत व्यवहार है । असद्भूत व्यवहार ही उपचार है।
अपर पक्षने उपचार कहाँ प्रवृत्त होता है इसके समर्थन में तीन उदाहरण दिये हैं, किन्तु उनका आशय क्या है इसे समझना है। एक उदाहरण बालकका है। बालप में यथार्थमें सिंहपना तो नहीं है । हाँ जिस प्रकार सिंहमें क्रौर्य-शौर्य गुण होता है, उसके समान जिस बालकमें यह गुण उपलब्ध होता है उस बालफमें सिंहका उपचार किया जाता है । यहाँ तत्सदृष्टा गुण उपचारका कारण है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि सिंहमे जो गुण है वहीं गण दालकमें तो नहीं है। फिर भी लाला को जो सिंह कहा गया है वह केवल तत्सदृशा गुणको देखकर ही कहा गया है । अतएव यह उपचार कथन ही है, वास्तविक नहीं । यह दृष्टान्त है अब इसे दार्टान्तपर लागू कीजिए।
प्रकृतमें कार्य-कारणभाषका विचार प्रस्तुत है। कार्य एक है और कारण दो-एक बाह्य सामग्री, जो अपने स्व चतुष्टय द्वारा कार्यक्रे स्वचतुष्टयको स्पर्श करने में सर्वथा असमर्थ है और दूसरी अन्तःसामग्री जी कार्यके अव्यवहित प्राव रूपस्वरूप है । ऐसी अवस्थामें इन दोनों कारणोंमें कार्यका वास्तविक कारण कौन ? दोनों या एक ? इसे यथार्थरूपमें समझने के लिए कारकोंके स्वरूपपर दृष्टिपात करना होगा। कारक दो प्रकारके हैं-एक निश्चय कारक और दूसरे व्यवहार कारक | निश्चय कारक जिस द्रव्यमें कार्य होता है । उससे अभिन्न होते हैं और व्यवहार कारके जिस द्रव्यमें कार्य होता है उससे भिन्न माने गये है । प्रत्येक द्रव्यमें अपना कार्य करने में समर्थ उससे अभिन्न छह कारक नियमसे होते है. इसको समझनेके लिए पंचास्तिकाम गाथा ६२ और उसको टोका देखने योग्य है । इसकी उत्यानिकाका निर्देश करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है
अत्र निश्चयनयेनाभिन्नकारकत्वाकर्मणो जीवस्य च स्वयं स्वरूपकतत्वमुक्तम् ।
निश्चयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म और जीव स्वयं स्वरूपके (अपने-अपने स्वरूपके) कर्ता है ऐसा यहाँ कहा है। आगममें जहाँ स्वरूप प्राप्तिका निवेश किया गया है यहाँ यही कहा गया है।
अयमात्मात्मनात्मानमात्मन्यात्मन आत्मने।
समादधानो हि परां विशुद्धि प्रतिपद्यते ॥ १-११३ ।।-अनगारधर्मामृत । स्वसंवेदनसे सुष्य क्स हुआ यह आत्मा स्वसंवेदनरूप अपने द्वारा शुद्ध चिदानन्दस्वरूप अपनी प्राप्तिके लिए इन्द्रिय ज्ञान और अन्तःकरण ज्ञानरूप अपनेसे भिन्न होकर निर्विकल्पस्यरूप अपनेमें शुद्ध चिदानन्दस्वरूप अपनेको ध्याता हुआ उत्कृष्ट विश विको प्राप्त होता है ।।१-११३।।
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शंका और उसमा समाधान इसी तथ्यको परमात्मप्रकाश अध्याय एकमें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
भवतणुभोयविरत्तमणु जी अप्पा झाएइ ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ॥३२।। संसार, शरीर और भोगोंमें विरक्त मन हुआ जो जीव आत्माको ध्याता है उसकी बड़ी भारी संसाररूपी बेल छिन्न-भिन्न हो जाती है ॥३२॥
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रत्येक समयमें निश्चय षट्कारकरूपसे परिणत हुआ प्रत्येक द्रस्य स्वयं अपना कार्य करनेमें समर्थ है । इसको विशदरूपसे समझने के लिए तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १० ४१० का 'ततः सूक्तं लोकाकाशधर्मादिद्रव्याणामाधाराधेषता' यह बकाव्य दृष्टिपथमें लेने योग्य है । इसमें स्पष्ट बतलाया है कि निश्चयनयसे (यथार्थस्पसे) विचार करनेपर प्रत्येक द्रव्यमें स्थितिरूप, ममनरूप और परिणमन आदि रूप जो भी कार्य होता है उसे यह द्रव्य स्वयं अपने द्वारा अपने में आप कर्ता होकर करनेमें समर्थ है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका उत्साद, यम और प्रौद्यरूप जो भी स्वरूप है वह विनसा है । अभेद विवक्षामें ये तीनों एक है, भेदविवक्षामें ही ये तीन कहे जाते हैं।
इसपर यह प्रश्न होता है कि ये तीनों जब कि द्रव्यस्वरूप है तो कालभेदसे प्रत्येक द्रव्य अन्य-अन्य क्यों प्रतीत होता है, उसे जो प्रथम समयमें है वही दूसरे समयमें रहना चाहिए ? इसी प्रश्नका समाधान व्यवहारनयसे करते हुए यह बचन लिखा है
व्यवहारनयादेव उत्पादादीनां सहेतुकत्वप्रतीतेः । व्यवहारनयसे ही उत्पादादिक सहेतुक प्रतीत होते हैं ।
मह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि व्यवहारनयके दो भेद है-सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय । सद्भूत व्यवहारनयमें भेदविवक्षा मुख्य है और असद्भूतव्यवहारनयमें उपचार विवक्षा मुख्य है । इससे दो तथ्य फलित होते हैं कि सद्भूत व्यवहारनयजी अपेक्षा विचार करनेपर किस पर्याययुक्त द्रव्यके बाद अगले समयमै किस पर्याय युक्त द्रव्य रहेगा यह ज्ञात होता है और असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा विचार करनेपर बाह्म किस प्रकार के संयोगमें किस प्रकारको पर्यायसे युक्त द्रव्य रहेगा यह ज्ञात होता है । यहाँ आचार्य विद्यानन्दिने जो उत्पादादिको व्यवहारनय से सहेतुक कहा है उसका आशय भी यही है । इसी तथ्य को उन्होंने अष्टसहस्री पृ० ११२ में इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
स्वयमुत्पित्सोरपि स्वभावान्तरापेक्षणे विनश्वरस्यापि तदपेक्षणप्रसंगात् । एतेन स्थास्नोः स्वभावान्तरानपेक्षणमुक्तम्, विरसा परिणामिन: कारणान्तरानपेक्षोत्पादादित्रयव्यवस्थानात् । तद्विशेषे एव हेतुव्यापारोपगमात् ।
स्वयं उत्पादशील है फिर भी उसमें यदि स्वभावान्तरकी अपेक्षा मानी जाय तो जो स्वयं विनाशशील है उसमें भी स्वभावान्तरकी अपेक्षा माननेका प्रसंग आता है। इससे स्वयं स्पितिशील में स्वभावान्तरकी अपेक्षा नहीं होती यह कहा गया है, क्योंकि विस्रसा परिणमनशील पदार्थमें कारणान्तरकी अपेक्षा किये बिना उत्पादादित्रयकी व्यवस्था है; तद्विशेषमें ही हेतुका व्यापार स्वीकार किया है।
यहाँ 'तद्विशेषे एवं हेतुल्यापारोपगमात्' इस वचनके तात्पर्यको समझने के लिए अष्टसहस्री
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा प० १५० के परिणमनशक्तिलक्षणायाः प्रतिविशिष्टान्तःसामग्याः सुवर्णकारकव्यापारादिलक्षणायाश्च बहिःसामग्र्याः सन्निपाते' पद ध्यान देने योग्य है 1 इस द्वारा कैसी अन्तः सामग्री और कैसी बाह्य सामग्रीका सन्निपात होने पर कैसा उत्पाद होता है यह बतलाया गया है। शादी पही जण होता है कि स्वभावसे द्रव्य उत्पादादि यस्वरूप होनेके कारण अपने परिणामस्वभावके थालम्बन द्वारा यपि इन तीन रूप स्वयं परिणमता है, अन्य कोई उसे इनरूप परिणमाता नहीं है । फिर भी अन्तः-बाह्य सामग्रीके किस म होने पर किस रूप परिणमता है इसकी प्रसिद्धि उससे होती है, अतः सद्भूत व्यवहारनयसे अन्तःसामग्रीको और असद्भूत व्यवहार नयसे बाह्य सामग्रीको उसका उत्पादक कहा गया है । एकको दूसरेका उत्पादक कहना यह व्यवहार है और स्वयं उत्पन्न होता है कहना निश्चय है । अर्थात् निश्चय नयका विषय है।
यहां सद्भूत व्यवहारनयका खुलासा यह है कि उपादान और उपादेयका स्वरूप स्वतःसिद्ध होनेपर भी यह नय उपादेयको उपादान सापेक्षा स्वीकार करता है ।
असद्भूत व्यवहारनयका खुलासा यह है कि बाह्य सामग्री स्वरूपसे अन्यके कार्यका निमित्त नहीं है फिर भी यह नय उसे अन्य बाह्य सामग्री सापेक्ष स्वीकार करता है।
___ यहाँ इन दोनों क्यवहारोंमें हमने उपचरितोपचारकी विवक्षा नहीं की है । उसकी विवक्षामें उपादान उपादेयका उत्पादक है यह कथन उपररित सद्भूत व्यवहारमयका विषय होगा और कुम्भकार घटका कर्ता है यह कयन उपचरित असद्भूत व्यवहारनयका विषय ठहरेगा। अन्यत्र जहाँ कहीं हमने उपादानसे उपादेयकी उपपतिको यदि निश्चयनयका वक्तव्य कहा भी है तो वहाँ अभेद विवक्षामें ही वसा प्रतिपादन किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
यह वस्तुस्थिति है। इसके प्रकाशमें जब हम बाह्य सामग्रीको अपेक्षा विचार करते हैं तो विदित होता है कि कुम्भकारमें जो षट् कारक धर्म हैं वे अपने है, मिट्टीके नहीं। तथा मिट्टी में जो षट् कारक धर्म है वे मिट्टीके है, कुम्भकारके नहीं। अतएव कुम्भकारको अपने कर्तादि पोंके कारण योग और विकल्पका कर्ता कहना तथा मिट्ठीको अपने कर्तादि धर्मोके कारण घटका कर्ता कहना तो परमार्थभूत है । फिर भी जिस समय मिट्टी अपना अटरूप व्यापार करती है उस समय कुम्भकार भी अपना योग और विकल्परूप ऐसा व्यापार करता है जो घट परिणामके अनुकूल कहा जाता है। वस्तुतः यही कुम्भकारमें घटके फर्तापनेके उपचारका हेतु है । इसी तथ्यको समयसार गाथा ८४ को आत्मरूयाति टीका 'कलशसम्भवानुकुल व्यापारं कुर्वाण:कलशकी उत्पत्तिके अनुकूल व्यापारको करता हुआ' इन शब्दोंमें व्यक्त करती है। जैसे बालक सिंहका कार्य तो नहीं करता, फिर भी वह अपने क्रोर्य-शौर्य गुणके कारण सिंह कहने में आता है । यही उपचार है। वैसे ही कुम्भकार मिट्टीमें घटक्रिया तो नहीं करता, फिर भी वह मिट्टी द्वारा की जानेवाली घदक्रियाक समय अपनी योग और विकल्परूप ऐसी क्रिया करता है जिससे उसे मिट्टीमें घट क्रियाका कर्ता कहा जाता है । यही चपचार है। हमें विश्वास है कि अपर पम पूर्वोक्त उदाहरण द्वारा आगम प्रमाणोंके प्रकाशमें इस तथ्य को ग्रहण करेगा।
__ अपर पक्षने उपचार कहाँ प्रवृत्त होता है यह दिखलानेके लिए जो अन्य दो उदाहरण प्रस्तुत किये हैं उनका प्राशय भी यही है । अन्न अपने परिणाम लक्षण क्रियाका कर्ता है और प्राण अपने परिणाम लक्षण क्रियाके कर्ता है । ये परस्पर एक-दूसरेको क्रिया नहीं करते। फिर भी कालप्रत्यासत्ति वंश यहाँ अन्नमें प्राणोंकी निमित्तता उपचरित की गई है। अतएव अन्न जैसे प्राणोंका उपचरित हेतु है उसी प्रकार प्रकृतमें
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शंका १ और उसका समाधान
जान लेना चाहिए । वचनमें परनुमानका उपचार क्यों किया जाता है इसका खुलासा भी इससे हो जाता है और इस उदाहरणसे यही ज्ञात होता है कि कुम्भकार वास्तवमें घटोत्पत्तिका हेतु नहीं है।
अपर पक्षने अपने प्रकृत विवेचनमें सबसे बड़ी भूल तो यह की है कि उसने बाह्य सामग्रीको स्वरूपसे अन्यके कार्यका निमित स्वीकार करके अपना पक्ष उपस्थित किया है । किन्तु उस पक्षकी ओरसे ऐसा लिखा जाना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त कथनको वास्तविक मानने पर अन्य उदयके कार्यका कारणधर्म दूसरे द्रव्यम वास्तवमें रहता है यह स्वीकार करना पड़ता है और ऐसा स्वीकार करने पर दो द्रव्योंमें एकताका प्रसंग उपस्थित होता है। अतएव अपर पक्षको प्रकृतमै यह स्वीकार करना चाहिए कि बाह्य सामग्रीको अन्यके कार्यका हेतु कहना यह प्रथम उपचार है और उस आधारसे उसे वही कहना या उसका कर्ता कहना यह दूसरा उपचार है । 'अन्नं व प्राणाः' यह वास्तव में उपचरितोपचारका उदाहरण है । सर्वप्रथम तो यहाँ व्यवहार (उपचार) नयसे अन्नमें प्राणोंकी निमित्तता स्वीकार की गई है और उसके बाद पुनः व्यवहार (उपचार) नयका आश्रय कर अन्न प्राण ही है ऐसा कहा गया है । यहाँ व्यवहार पद उपचारका पर्यायवाची है । अतएव आग में जहां भी एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यके कार्यका व्यवहारमयसे निमित्त कहा गया है वहाँ उसे उस कार्यका उपचारनयस निमित्त कहा गया है ऐसा समझना चाहिए ।
___ उपचार और व्यवहार ये एकार्थवाची है। इसके लिए देखो समयसार गाथा १०८ तथा उसको आत्मख्याति टीका। समयसारको उक्त गाथामें 'बबहारा' पद आया है और उसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने उसके स्थानमें 'उपचार' पदका प्रयोग किया है । समयसार गाथा १०६ और १०७ तथा उनकी आत्मख्याति टीकामें भी यही बात कही गई है। इतना ही क्यों, इसी अर्थको बतलाने के लिए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने गाथा १०५ में 'उपचारमात्र' पदका प्रयोग किया है । स्पष्ट है कि आगममें जहाँ जहाँ व्यवहारसे निमित्त है, हेतु है या कारण है ऐसा कहा गया है वहाँ वह कथन उपचारसे किया गया है ऐसा समझना चाहिए ।
तत्त्वार्थवार्तिक अ० ५ ० १२ से भी यही तथ्य फलित होता है । यहाँ भट्टाकलंकदेवने जब 'सब द्रव्य परमार्थसे स्वप्रतिष्ठ है' इस वचनको स्वीकृति दी तब यह प्रश्न उठा कि ऐसा मानने पर तो अन्योन्य आघारके श्याघातका प्रसंग उपस्थित होता है। इसी प्रश्नका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि एक को दुसरेका आधार बतलाना यह व्यवहारनयका वक्तव्य है, परमार्थसे तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही है। यदि कोई शंका करे कि यहाँ परमार्थका अर्थ द्रश्यार्थिक है तो यह बात भी नहीं है | किन्तु यहाँ परमार्थ पदका अर्थ पर्यायाधिक निश्चयरूप एवम्भूतनय ही लिया गया है। इस प्रकार इस विवेचनसे भी यही ज्ञात होता है कि समयसारमें जिस प्रकार व्यवहार पद उपचारके अर्थमें प्रमुक्त हुआ है उसी प्रकार अन्य आचार्योंने भी इस (व्यवहार) पदका उपचारके अर्थ में ही प्रयोग किया है ।
यह तथ्य है । इस तथ्यको ध्यान में रखकर आलापपद्धतिके 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते ।' इस पदका असद्भूत व्यवहारनयसे यह अर्थ फलित होता है कि यदि मुख्य (यथार्थ) प्रयोजन और निमित्त (कारण) का अभाव हो अर्थात् अधिवक्षा हो तथा असद्भूत व्यवहार प्रयोजन और असद्भूत व्यवहार निमित्त की विवक्षा हो तो उपचार प्रवृत्त होता है।
तथा अखण्ड द्रव्यमें भेदविवक्षा वश इसका यह अर्थ होगा कि मुख्य अर्थात् म्याथिक नयका विषयभूत यथार्य प्रयोजन और यथार्थ निमित्त का अभाव हो अर्थात् अविवक्षा हो तथा सद्भूत व्यवहाररूप प्रयोजन और सद्भूत श्यघहाररूप निमित्तकी विवक्षा हो तो उपचार प्रवृप्त होता है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यही कारण है कि 'मुख्याभावे' इत्यादि घचनके बाद उस उपचारको कहीं अधिनाभाव सम्बन्धरूप, कहीं संश्लेषसम्बन्धरूप और कहीं परिणामपरिणामिसम्बन्ध आदि रूप बतलाया गया है।
इसलिए आलापपद्धतिके उक्त वाक्यको ध्यानमें रखकर अपर पक्षने उसके आधारसे यहाँ जो कुछ मी लिखा है वह ठीक नहीं, यह तात्पर्य हमारे उक्त विवेचनसे सुतरां फलित हो जाता है।
अपर पक्षने इसी प्रसंगमें उपादान पदको निरुक्ति तथा व्याकरणसे सिद्धि करते हुए लिखा है कि 'जो परिणमनको स्वीकार करे, ग्रहण करे वा जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते हैं । इस तरह उपादान कार्यका आश्रय ठहरता है।' तथा निमित्त पदको निरुक्ति और रुयाकरणसे सिद्धि करते हुए उसके विषयमें लिखा है कि 'जो मित्रके समान उपादानका स्नेहन करे अर्थात् उसकी कार्यपरिणतिमें जो मित्रके समान सहयोगी हो वह निमित्त कहलाता है।'
उपादान और निमित्तके विषयमें यह अपर पक्षका बक्तव्य है। इससे विदित होता है कि अपर पक्ष उपादानको मात्र प्राथय कारण मानता है और निमित्तको सहयोगी। अतएव प्रश्न होता है कि कार्यका कर्ता कौन होता है ? अपर पक्ष अपने उक्त कथन द्वारा कार्यको उपादानका तो स्वीकार कर लेता है इसमें सन्देह नहीं, अन्यथा वह उपादानके लिए 'उसको कार्यपरिणतिमें' ऐसे शब्दोंका प्रयोग नहीं करता। परन्तु वह उपादानको कार्यका मुरुष (वास्तविक) कर्ता नही मानना चाहता इसका हमें आश्चर्य है । समयसार कलशमें यदि जीव पुद्गलकमको नहीं करता है तो कौन करता है ऐसा प्रश्न उठा कर उसका समाधान करते हुए लिखा है कि यदि तुम अपना तीन मोह (अज्ञान) दूर करना चाहते हो तो कान खोलकर सुनो कि वास्तव में पुद्गल ही अपने कार्यका कर्ता है, जीव नहीं। समयसार कलशका यह वचन इस प्रकार है
जीवः करोति यदि पुद्गलफर्म नंव कस्तहि तत्कुरुत इत्यभिशंकयव ।
एर्ताह तीव्ररयमोहनिबर्हणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्म कर्तृ ॥६३।।
अपर पक्ष जब कि कार्यके प्रति व्यवहार कर्ता या व्यवहार हेत आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त हए बाह्य पदार्थको उपचार कर्ता या उपचारहेतु स्वीकार कर लेता है, ऐसी अवस्थामें उसे आगममें किये गये 'उपचार' पदके अर्थको ध्यानमें रखकर इस कथानको अवास्तविक मान लेनेमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए । इससे उपादानकर्ता वास्तविक है, यह सुतरां फलित हो जाता है । बाह्य सामग्रीमें निमित्त व्यवहारको लक्ष्यमें रखकर उपचार का या उपचार हेतुका आगममें कथन क्यों किया गया है इसका प्रयोजन है और इस प्रयोजनको लक्ष्य में रख कर यह कथन व्यर्थ न होकर सार्थक और उपयोगी भी है। किन्तु इस आधारपर अपर पक्ष द्वारा उस कयनको ही वास्तविक टहराना किसी भी अवस्थामें उचित या परमार्थभूत नहीं कहा जा सकता।
अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में आगमके जो तीन उदाहरण उपस्थित किये है उनमेंसे अष्टसहनी १० १५० का उदाहरण निश्चय उपादानके साथ बाह्य सामग्रीकी मात्र कालप्रत्यासत्तिको सचित करता है। देवामम कारिका ९९ से मात्र इतना ही सूचित होता है कि यह जीव अपने रागादि भावोंको मुख्य कर जैसा कर्मबन्ध करता है उसके अनुसार उसे फलका भागी होना पड़ता है। फलभोगमें कर्म तो निमित्तमात्र है, उसका मुख्य कर्ता तो स्वयं जीव ही है। अपर पक्ष ने इस कारिकाके उत्तरार्ध को छोड़कर उसे आगम प्रमाणके रूपमें उपस्थित क्रिया है। इससे कर्म और जीवके रामादि भावों में
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शंका १ और उसका समाधान
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निमित्तनैमित्तिक योग कैसे बनता है इतना ही सिद्ध होता है, अतएव उससे अन्य अर्थ फलित करना उचित नहीं है। तीसरा उदाहरण प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाका है। किन्तु इस वन्चनको प्रवचनसार गाथा २५४ और उसकी टीकाके प्रकाशमें पढ़ने पर विदित होता है कि इससे उपादानके कार्यकारी पनेका ही समर्थन होता है । रसपाक काल में बीजके समान भूमि फलका स्वयं उपादान भी है इसे अपर पक्ष यदि ध्यान में ले ले तो उसे इस उदाहरण द्वारा आचार्य किस तथ्यको सूचित कर रहे हैं इसका ज्ञान होने में देर न लगे। निमित्तनैमित्तिक भावको अपेक्षा विचार करनेपर इस आगमप्रमाणसे यह विदित होता है कि बीजका जिस रूप अपने कालमें रसपाक होता है तदनुकूल भूमि उसमें निमित्त होती हैं और उपादान -उपादेय भावकी अपेक्षा विचार करने पर इस आगमप्रमाणसे यह विदित होता है कि भूमि बीजके साथ स्वयं उपादान होकर जैसे अपने कालमें इष्टार्थको फलित करतो हे वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिए। स्पष्ट है कि इन तीन आगगप्रमाणोंसे अपर पक्ष मतका समर्थन न होकर हमारे अभिप्रायकी ही पुष्टि होती है। बाह्य सामग्री उपादान कार्यकाल में उपादानकी क्रिया न करके स्वयं उपादान होकर अपनी ही किया करती है, फिर भी बाह्य सामग्री क्रियाकाल में उपादानका वह कार्य होने का योग है, इसलिए बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार किया जाता है। इसे यदि अपर पक्ष निमित्त की हाजिरी समझता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है । निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्री उपादान के कार्यका अनुरंजन करती है, उपकार करती है, सहायक होती है यह सब करार (तार) का ही नत्तव्य है, निश्चयनयका नहीं। अपने प्रतिबेधक स्वभाव के कारण निश्चयनयकी दृष्टिमें यह प्रतिषेध्य ही है । आशा है कि अपर पक्ष इस तथ्य के प्रकाश पादन कार्य कालमें बाह्य सामग्री में किये गये निमित्त व्यवहारको वास्तविक ( यथार्थ ) माननेका आग्रह छोड़ देगा ।
हमने पचास्तिकाय गाथा ८८ के प्रकाशमें बाह्य सामग्री में किये गये निमित्तव्यवहारको जहाँ दो प्रकारका बतलाया है वहाँ उसी टीका बचनसे इन भेदोंको स्वीकार करनेके कारणका भी पता लग जाता है। जो मुख्यतः अपने क्रिया परिणाम द्वारा या राग और क्रिया परिणाम द्वारा उपादान के कार्य में निमित्त व्यवहार पदवीको धारण करता है उसे जागम में निमित्तकर्ता या हेतुकर्ता कहा गया है। इसीको लोकमें प्रेरक कारण भी कहते हैं और जो उक्त प्रकारके सिवाय अन्य प्रकारसे व्यवहार हेतु होता है उसे आगम में उदासीन निमित्त कहने में आया है । यहीं इन दोनोंमें प्रयोगभेदका मुख्य कारण है। पंचास्तिकायके उक्त वचनसे भी यही सिद्ध होता है। इस प्रकार हमने इन दोनों भेदोंको क्यों स्वीकार किया है, इसका यह स्पष्टीकरण है ।
अपर पक्ष इन दोनोंको स्वीकार करने में उपादान के कार्यभेदको मुख्यता देता है सो उपादानमें कार्य भेद तो दोनोंके सद्भावमें होता है। प्रश्न यह नहीं है, किन्तु प्रश्न यह है कि उस कार्यको वास्तव में कौन करता है ? जिसे आगम में हेतुकर्ता कहा गया है यह कि उपादान ? यदि जिसे आगम में हेतुकर्ता कहा गया है वह करता है तो उसे उपादान ही मानना होगा। किन्तु ऐसा मानना स्वयं अपर पक्ष को भी इष्ट नहीं होगा, इसे हम हृदयसे स्वीकार करते हैं। ऐसी अवस्था में फलित तो यही तथ्य होता है कि उपादानने स्वयं यथार्थ कर्ता होकर अपना कार्य किया और बाह्य सामग्री उसमें व्यवहारसे हेतु हुई। इस अपेक्षासे विचार करने पर बाह्य सामग्रीको व्यवहारहेतुता एक ही प्रकारकी है, दो प्रकारकी नहीं, यह सिद्ध होता है। आचार्य पूज्यपादने इष्टोपदेश में 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि वचन इसी अभिप्रायसे लिखा है । इस वचन द्वारा
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा वे यह सूचित कर रहे हैं कि व्यवहारहेतुता किसी प्रकारसे क्यों न मानी गई हो, अन्यके कार्य में वह वास्तविक न होनेसे इस अपेक्षासे समान है। अर्थात् अन्यका कार्य करनेमें धर्मद्रव्यके समान दोनों ही उदासीन है।
अब रही प्रेरक निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री के अनुरूप परिणमनकी बात सो यह हम अपर पक्षसे ही जानना चाहेंगे कि यह अनुरूप परिणमन क्या वस्तु है : उदाहरणार्थ कर्मको निमित्त कर जीवके भायसंसारको सृष्टि होती है और जीवके राग-द्वेषको निमित्त कर कर्मकी सृष्टि होती है । यहाँ कर्म निमित्त है और राग-द्वेष परिणाम नैमित्तिक। इसी प्रकार राग-द्वेष परिणाम निमिप्स हैं और कर्म नैमित्तिक । तो क्या इसका यह अर्थ लिया जाय कि निमित्तमें जो गुणधर्म होते हैं वे नैमित्ति कमें संक्रमित हो जाते हैं, या क्या इसका यह अर्थ लिया जाय कि जिसको उपादान निमित्त बनाता है उस जैसा क्रिया परिणाम या भाव परिणाम अपनी उपादान शक्तिके बलसे वह अपना स्वयं उत्पन्न कर लेता है ? प्रथम पक्ष तो इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि एक द्रब्यके गुण-धर्मका दूसरे व्रव्यमें संक्रमण नहीं होता। ऐसी अवस्थामें दूसरा पक्ष ही स्वीकार करना पड़ता है । समयसार गाथा ८०-८२ की आत्मख्याति टीकामे निमित्तीकृत्य' पदका प्रयोग इसी अभिप्रायसे किया गया है। अन्य दृष्य दुसरेके कार्य में स्वयं निमित नहीं है। किन्तु अन्य प्रश्यको लक्ष्य करआलम्बन कर अन्य जिस द्रव्यका परिणाम होता है उसकी अपेक्षा उसमें प्रेरक निमित्त व्यवहार किया जाता है । पुद्गल द्रव्य अपनी विशिष्ट स्पर्श पर्यायके कारण दूसरेका सम्पर्क करके अपनी उपादान शक्तिके बलसे जिसका सम्पर्क किया है उसके समान कर्मरूपसे परिणम जाता है और जीव अपने कषायके कारण दूसरेको लक्ष्य करके अपनी उपादान शक्तिके बलसे जिसको लक्ष्य किया है वैसा रागपरिणाम अपनेमें उत्पन्न कर लेता है । यही संसार और तदनुरूप कर्मबन्धका बीज है। यही कारण है कि प्रत्येक मोक्षार्थीको बारमस्वभावको लक्ष्यमें लेने का उपदेश आगममें दिया गया है, इसलिए प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि प्रत्येक उपादानके वायमें जो वैशिष्टय आता है उसे अपनी आन्तरिक योग्यता वश स्वयं उपादान ही उत्पन्न करता है, बाह्य सामग्री नहीं। फिर भी कालप्रत्यासत्ति वश क्रियाकी और परिणामकी सदृशता देखकर जिसके लक्ष्यसे वह परिणाम होता है उसमें प्रेरक निमित्त व्यवहार किया जाता है। अन्य व्यके कार्य में प्रेरक निमित्त श्यवहार करनेकी यह सार्थकता है । इसके सिवाय अपर पक्ष ने इसके सम्बन्धमें अन्य जो कुछ भी लिखा है वह पथार्थ नहीं है।
हमने जो यह लिखा है कि प्रेरक कारणले बलसे किसी व्यके कार्यको आगे-पीछे कभी भी नहीं किया जा सकता है, वह म ार्थ लिखा है, क्योंकि उपादानके अभावमें जब कि बाए सामग्रीमें प्रेरक निमित्त व्यवहार भी नहीं किया जा सकता तो उसके द्वारा कार्यका आगे-पीछे किया जाना तो अत्यन्त ही असम्भव है। कर्मकी नानारूपता भावसंसारके उपादानकी नानारूपताको तथा भूमिको विपरीतता बीजकी वैसी उपादानताको ही सचित करती है। अतएच उपादानके अभावमें जब कि बाह्य सामग्रीमें प्रेरक निमित व्यवहार ही नहीं किया जा सकता, ऐसी अवस्थामें अपर पक्ष द्वारा 'प्रेरक निमित्तके बलसे कार्य कभी भी किया जा सकता है ऐसा लिखा जाना उसके एकान्त आग्रहको ही सूचित करता है ।
अपर पक्षने महापर शीतऋतु, कपड़ा और दर्जीका उदाहरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि कपडेसे बननेवाले कोट आदिके समान जितने भी कार्य होते हैं उनमें एकमात्र निमित्त व्यवहारके योग्य बाद्य सामग्रीकाही बोलबाला है। इस सम्बन्धमें अपर पक्ष अपने एकान्त झाग्रहवश क्या लिखता है उसपर ध्यान दीजिए। उसका कहना है कि
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शंका १ और उसका समाधान
'इस तरह कोटका बनना तन्तक रुका रहा जबतक कि धर्जीके पास कोटके बनानेका अवकाश नहीं निकल आया । इस दृष्टान्तमें विचारना यह है कि कोट पहिननेकी आकांक्षा रखनेवाले व्यक्ति द्वारा खरीदे हुए उस कपड़ेमें, जब कि उसे दर्जीकी मर्जीपर छोड़ दिया गया है, कौनसी ऐसी उपादाननिष्ठ योग्यताका अभाव बना हुआ है कि वह कपड़ा कोटरूपसे परिणत नहीं हो पा रहा है और जिस समय वह दर्जी कोटके सीनेका व्यापार करने लगता है तो उस कपड़ेमें कौनसी उपादाननिष्ठ योग्यताका अपने-आप सद्भाव हो भाता है कि यह कपड़ा कोट बनकर तैयार हो जाता है। विचार कर देखा जाय तो यह सब साम्राज्य निमित्तकारण सामग्रीका ही है, उपादान तो बेचारा अपनी योग्यता लिए तभीसे तैयार बैठा है जब वह दकि पास पहुँचा था । यहाँपर हम उस कपड़ेकी एक एक क्षण में होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि कोट पर्यायफे निर्माणसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। हम तो यह कह रहे है कि पहलेसे ही एक निश्चित आकारवाले कपड़ेका वह टुकड़ा कोटके आकारको क्यों तो दजींके व्यापार करनेपर प्राप्त हो गया और जबतक पीने कोट बनानेरूप अपना व्यापार चालू नहीं किया तबतक वह क्यों जैसा-का-तैसा पड़ा रहा । जिस अन्वय-व्यतिरेकगम्य कार्य-कारणभावकी सिद्धि आगमप्रमाणसे हम पहले कर आये हैं उससे यही सिद्ध होता है कि सिर्फ निमित्त कारणभूत दर्जीकी बदौलत ही उस कपड़ेको कोटरूप पर्याय आनेको पिछड़ गई, कोटके निर्माण कार्यको उ देसी सम्भार भावना प्रमिः यायाम शाथ कहांतक बुद्धिगम्य हो सकता है यह आप ही जानें ।' आदि ।
यह प्रकृतमें अपर पक्षके बक्तव्यका कुछ अंश है । इस द्वारा अपर पक्ष यह बतलाना चाहता है कि अनन्त पुद्गल परमाणुओंका अपने-अपने स्पर्श विशेषके कारण संश्लेष सम्बन्ध होकर जो आहारवर्गणामोंकी निष्पत्ति हुई और उनका कार्पास व्यन्जन पर्यायरूपसे परिणमन होकर जुलाहेके विकल्प और योगको निमित्तकर जो वस्त्र बना उस वस्त्रकी कोट आदिरूप पर्याय दर्जीके योग और विकल्पपर निर्भर है कि अब पाहे वह उसकी कोटपर्यायका निष्पादन करे । न करना चाहे न करे। जो व्यवहारनयसे उस वस्त्रका स्वामी है वह भी अपनी इच्छानुसार उस वस्त्रको नानारूप प्रदान कर सकता है। वस्त्रका अगला परिणाम क्या हो यह वस्त्रपर निर्भर न होकर दी और स्वामी आदिको इच्छापर ही निर्भर है। ऐसे सब कार्योमें एकमात्र निमित्तका ही बोलबाला है, उपादानका नहीं । अपर पक्षके कथनका आशय यह है कि विवक्षित कार्य परिणाम के योग्य उपादानमें योग्यता हो, परन्तु सहकारी सामग्रीका योग न हो या आगे-पीछे हो तो उसी के अनुसार कार्य होगा। किन्तु अपर पक्ष का यह सब कथन कार्य-कारणपरम्पराके सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि जिसे व्यवहार नमसे सहकारी सामग्री कहते हैं उसे यदि उपादान कारणके समान कार्यका यथार्य कारण मान लिया जाता है तो कार्यको जैसे उपादानसे उत्पन्न होनेके कारण तत्स्वरूप माना गया है वैसे ही उसे सहकारी सामग्रीस्वरूप भी मानना पड़ता है, अन्यथा सहकारी सामग्नीमें यथार्थ कारणता नहीं बन सकती । दूसर दर्शनमें सन्निकर्षको प्रमाण माना गया है। किन्तु जमाघार्योंने उस मान्यताका खण्डन यह कह कर ही किया है कि सन्निकर्ष दोमें स्थित होनेके कारण उसका फल अर्थाधिगम दोनोंको प्राप्त होना चाहिए। (सर्वार्थ सिद्धि अ. १. सु. १०) वैसे ही एक कार्यकी कारणता यदि दो यथार्थ मानी जाती है तो कार्यको भी उभयरूप मानने का प्रसंग आता है। यतः कार्य उभयरूप नहीं होता, अतः अपर पक्षमें सहकारी सामग्रीको निर्विवादरूपसे उपचरित कारण मान लेना चाहिए।
अपर पक्ष जानना चाहता है कि बाजारसे फोटका कपड़ा सरोदनेके बाद अब तक दर्जी उसका कोट
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
नहीं बनाता तब तक मध्य कालमें कपड़े में कौन सी ऐसी उपादान योग्यताका अभाव बना हुआ है जिसके बिना कपड़ा कोट नहीं बनता । समाधान यह है कि जिस अव्यवहित पूर्व पर्यायके बाद कपड़ा कोट पर्यायको उत्पन्न करता है वह पर्याय जब उस कपड़ेमें उत्पन्न हो जाती है तब उसके बाद ही वह कपड़ा कोट पर्यायरूपसे परिणत होता है। इसके पूर्व उम्र कपड़ेको कोटका उपादान कहना प्रध्याधिक नयका वक्तव्य है ।
अपर पक्ष कोट पहनने की आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिकी इच्छा और दर्जीको इच्छाके आधारपर कोटका कपड़ा कब कोट बन सका यह निर्णय करके कोट कार्य में बाह्य सामग्री के साम्राज्यको भले ही घोषणा करे | किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । अपर पक्ष के उक्त कथनको उलटकर हम यह भी कह सकते है कि कोट पहनने की आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिने बाजारसे कोटका कपड़ा खरीदा और बड़ी उत्सुकता पूर्वक यह उसे दर्जीके पास ले भी गया किन्तु अभी उस कपड़े कोट पर्यायरूपसे परिणत होनेका स्वकाल नहीं आया था, इसलिए उसे देखते ही दर्जीकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और अब उस कपड़े की कोट पर्याय सन्निहित हो गई तो दर्जी, मशीन आदि भी उसको उत्पत्ति में निमित्त हो गये ।
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अपर पक्ष यदि इस तथ्य को समझ ले कि केवल द्रव्यशक्ति जैन दर्शन में कार्यकारी नहीं मानी गई है, क्योंकि वह अकेली पाई नहीं जाती और न केवल पर्याय शक्ति हो जैन दर्शनमें कार्यकारी मानी गई है, क्योंकि वह भी अकेली पाई नहीं जाती । अतएव प्रतिविशिष्ट पर्याय शक्ति युक्त असाधारण द्रव्यशक्ति ही जैनदर्शन में कार्यकारी मानी गई है। तो कपड़ा कन कोट बने यह भी उसे समझ में आ जाय । और इस बातके समझमें आने पर उसके विशिष्ट कालका भी निर्णय जाय । प्रत्येक कार्य स्वकालमें हो होता है । हरिवंशपुराण सर्ग ५२ में लिखा है
चतुरंगबलं कालः पुत्रा मित्राणि पौरुषम् । कार्यकृत्तावदेवात्र यावद्दैवबलं परम् ॥७१॥ देवे तु विकले काल- पौरुषादिनिरर्थकः इति यत्कथ्यते विद्भिस्तत्तथ्यमिति नान्यथा ॥७२॥
जब तक उत्कृष्ट दैवबल है तभी तक चतुरंग बल, काल, पुत्र, मित्र और पौरुष कार्यकारी हैं। देवके विकल होने पर काल और पीरुष आदि सब निरर्थक हैं ऐसा जो विद्वत्पुरुष कहते हैं वह यथार्थ हैं, अन्यथा नहीं है ।।७१-७२ ।।
यह आगम प्रमाण है । इससे जहाँ प्रत्येक कार्यके विशिष्ट कालका ज्ञान होता है वहाँ उससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि देव अर्थात् द्रव्य में कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके सद्भाव में हो बाह्य सामग्रीको उपयोगिता है, अन्यथा नहीं ।
यहाँ पर हमने 'देव' पदका अर्थ 'कार्यकारी मन्तरंग योग्यता' आप्तमीमांसा कारिका ८८ की अष्टशती टीका के आधार पर ही किया है। भट्टाकलंकदेव 'देव' पदका अर्थ करते हुए वहाँ पर लिखते हैंयोग्यता कर्म पूर्व वा देवमुभयमदृष्टम् । पौरुषं पुनरिचेष्टितं दृष्टम् ।
योग्यता और पूर्व कर्म इनको देव संज्ञा है । ये दोनों अदृष्ट हैं । किन्तु इचेष्टितका नाम पौरुष है जो दृष्ट हैं ।
आचार्य समन्तभद्रने कार्य में इन दोनों के गौण-मुख्यभावसे ही अनेकान्तका निर्देश किया है। इससे
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स्पष्ट विदित होता है कि कपड़ा जब भी कोट बनता है अपनी द्रव्य-पर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे हो बनता है और तभी दर्जीका योग तथा विकल्प आदि अन्य सामग्री उसकी उस पर्यायको उत्पत्तिमें निमित्त होती है ।
अपर पक्ष यद्यपि केवल बाह्य सामग्री के आधारपर कार्य कारणभावका निर्णय करना चाहता है। और उसे वह अनुभवगम्य बतलाता है । किन्तु उसकी यह मान्यता कार्यकारी अन्तरंग योग्यताको न स्वीकार करने का ही फल है जो आगमविरुद्ध होनेसे प्रकृत में स्वीकार करने योग्य नहीं है। लोकमें हमें जितना हमारी इन्द्रियोंसे दिखलाई देता है और उस आधार पर हम जितना निश्चय करते हैं. केवल उतनेको हो अनुभव मान लेना तर्कसंगत नहीं माना जा सकता हमारी समझसे अपर पक्ष प्रकृत में कार्यकारी अन्तरंग योग्यताको स्वीकार किये बिना इसी प्रकारकी भूल कर रहा है जो युक्त नहीं है । अतएव उसे प्रतिविशिष्ट बाह्य सामग्रीको स्वीकृति के साथ यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि जिस समय कोट पर्याय के अनुरूप प्रतिविशिष्ट द्रव्य - पर्याय योग्यता उस कपड़े में उत्पन्न हो जाती है तभी वह कपड़ा कोट पर्यायका उपादान बनता है, अन्य कालमें नहीं । बाह्य सामग्री तो निमित्तमात्र है।
अपर पक्ष कालक्रमसे होनेवाली क्षणिक पर्यायोंके साथ कपड़े को कोटरूप पर्यायका सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं मानता, किन्तु कोई भी व्यंजन पर्याय क्षण-क्षणमें होनेवाली पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न हो ऐसा नहीं है । अपने सदृश परिणामके कारण हम किसी भी व्यंजन पर्यामको वटी, घंटा आदि व्यवहार कालके अनुसार चिरस्थायी कहें यह दूसरी बात है, पर होती हैं वे प्रत्येक समय में उत्पादव्ययशील ही । पर्यायदृष्टिसे जब कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें अन्य अन्य होता है, ऐसी अवस्थामें उक्त कपड़े को भी प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूपसे स्वीकार करना ही तर्क, आगम और अनुभवसम्मत माना जा सकता है । अतएव कपड़े की कोट कालक्रमसे होनेवाली नियत क्रमानुपाती ही है ऐसा यहां समझना चाहिए। अपर पक्षने बाह्य सामग्रीको कारण मानकर जो कुछ भी लिखा है वह सब व्यवहारनयका ही वक्तव्य है । निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करनेपर अनन्त पुद्गलोंके परिणामस्वरूप कपड़ेको जिस काल में अपने उपादान के अनुसार संघात या भेदरूप जिस पर्यायके होनेका नियम है उस कालमें वही पर्याय होती है, क्योंकि प्रत्येक कार्य उपादान कारणके सदृश होता है ऐसा नियम है। इसी तथ्यको प्रगट करते हुए आचार्य जयसेन समयसार गाथा ३७२ की टीका में लिखते हैं
उपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति यस्मात् ।
दर्जी जब उसकी इच्छा में आता है तब कपड़ेका कोट बनाता है यह पराश्रित अनुभव है और कपड़ा उपादान के अनुसार स्वकालमें कोट बनता है यह स्वाश्रित अनुभव है। पराधीनताका सूचक है और दूसरा अनुभव स्वाधीनताका सूचक है। मेरो किसे यथार्थके आश्रय माना जाय 1
अनुभव दोनों हैं। प्रथम अनुभव यह अपर पक्ष ही निर्णय करे कि
अपर पक्ष इष्टोपदेशके 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि श्लोकंको करता । क्यों स्वीकार नहीं करता इसका उसकी ओरसे कोई कारण नहीं कर्म और नोकर्म सबका परिग्रह किया गया है। अपर पक्ष मिट्टी में पट करता । किन्तु मिट्टी पुद्गल द्रव्य है। घट और पट दोनों ही पुद्गलको मिट्टी में पटरूप बनने की योग्यता नहीं है यह तो कहा नहीं जा सकता । परस्परमें एक दूसरे रूप परिणमनेकी
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PM
द्रव्यकर्मके विषय में स्वीकार नहीं दिया गया है। वस्तुतः इस द्वारा बनने की योग्यताको स्वीकार नहीं व्यंजन पर्यायें हैं। ऐसी अवस्था में
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योग्यताको ध्यान में रखकर ही इनमें आचार्योंने इतरेतराभावका निर्देश किया है। फिर क्या कारण है कि मिट्टी से जुलाहा पट पर्यायका निर्माण करने में सर्वथा असमर्थ रहता है। यदि अपर पक्ष कहे कि वर्तमानमें मिट्टी में टप बनेकी पर्याय योग्यता न होनेसे ही जुलाहा मिट्टी से पट बनाने में असमर्थ है तो इससे सिद्ध हुआ कि जो द्रव्य जब जिस पर्यायके परिधामन के सम्मुख होता है तभी अन्य सामग्री उसमें व्यवहारसे निमित्त होती है और इस दृष्टिसे विचार कर देखने पर वही निर्णय होता है कि बाह्य सामग्री मात्र अन्य कार्य करने में वैसे हो उदासीन है जैसे धर्मद्रव्य गति उदासीन है। सब द्रव्य प्रत्येक समय में अपना-अपना कार्य करने में हो व्यस्त रहते है। उन्हें तीनों कालोंमें एक क्षणका भी विश्राम नहीं मिलता कि वे अपना कार्य छोड़कर दूसरे का कार्य करने लगें । अतएव इष्टोपदेशके उक्त बचनके अनुसार प्रकृत में यही समझना चाहिए कि जिस प्रकार धर्म द्रव्य अन्यका कार्य करनेमें उदासीन है उसी प्रकार अन्य सभी द्रव्य अन्य द्रव्यका कार्य करनेमें उदासीन हैं। यह तो काल प्रत्यासत्तिका ही साम्राज्य समझिए कि कभी और कहीं वे अन्य के कार्य प्रेरक निमित्त व्यवहार पदवीको प्राप्त हो जाते हैं और कभी तथा कहीं वे अन्य कार्यमें उदासीन निमित्त व्यवहार पदवीको प्राप्त हो जाते हैं ।
बौद्ध दर्शन, कारणको देखकर भी कार्यका अनुमान किया जा सकता है, इसे स्वीकार नहीं करता । इसी बात को ध्यान में रखकर कैसा कारणरूप लिंग कार्यका अनुमापक होता है यह सिद्ध करनेके लिये यह लिखा है कि जहाँ कारणसामग्रीकी अविकलता हो और उससे भिन्न कार्यको ज्ञापक सामग्री उपस्थित न हो वहाँ कारण से कार्यका अनुमान करने में कोई बाधा नहीं आती। किन्तु हमें खेद है कि अपर पक्ष इस कथनका ऐसा विपर्यास करता है जिसका प्रकृतमें कोई प्रयोजन ही नहीं । इराका विशेष विचार हम छठी शक के तीसरे दौर के उत्तरमें करनेवाले हैं, इसलिए इस आधारसे यहाँ इसकी विशेष चर्चा करना हम इष्ट नहीं मानते । किन्तु यहाँ इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते हैं कि जिस प्रकार विवक्षित कार्यकी विवक्षित बाह्य सामग्री ही नियत हेतु होती है उसी प्रकार उसकी विवक्षित उपादान सामग्री ही नियत हेतु हो सकेगी। अतएव प्रत्येक कार्य प्रत्येक समय में प्रतिनियत आभ्यन्तरबाह्य सामग्रीको निमित्त कर ही उत्पन्न होता है ऐसा समझना चाहिए। स्व-परप्रत्यय परिणमनका अभिप्राय भी यही है । इस परसे उपादानको अनेक योग्यतावाला कह कर बाह्य सामग्री के बलपर चाहे जिस कार्यकी उत्पत्तिकी करूपना करना मिथ्या है।
अपर पक्ष का कहना है कि बाह्य सामग्री उपादानके कार्य में सहयोग करती है सो यह सहयोग क्या वस्तु है ? क्या दोनों मिलकर एक कार्य करते हैं यह सहयोगका अर्थ है ? किन्तु यह तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक क्रिया नहीं कर सकते ऐसा द्रव्यस्वभाव है (देखो समयसार कलश ५४ ) । क्या एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी क्रिया कर देता है यह सहयोगका अर्थ हूँ ? किन्तु यह कथन भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक द्रव्य अपनेसे भिन्न दूसरे द्रव्यकी क्रिया करनेमें सर्वथा असमर्थ है (देखो प्रव घनसार अ० २ गा० ९५ जयसेनीय टीका ) | क्या एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको पर्याय में विशेषता उत्पन्न कर देता है यह सहयोगका अर्थ है ? किन्तु जब कि एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्यमें संक्रमित ही नहीं हो सकता ऐसी अवस्था में एक दव्य दूसरे द्रव्यको पर्याय में विशेषता उत्पन्न कर देता है यह कहना किसी भी अवस्था परमार्थभूत नहीं माना जा सकता (देखो समयसार गाथा १०३ और उसकी आत्मख्याति टीका) । उपादान अनेक योग्यतावाला होता है, इसलिए बाह्य सामग्री उसे एक योग्यता द्वारा एक कार्य करनेमें ही
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प्रवृत्त करती रहती है क्या यह सहयोगका अर्थ है ? किन्तु अपर पक्ष को मह सणा भी असंगत है, क्योंकि आगममें विशिष्ट पर्यायगुक्त द्रव्यको ही कार्यकारी माना गया है ( देखो अष्टसहस्री पृ० १५०, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २३०, श्लोकवार्तिक पृ० ६९ तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० २०० आदि)। श्या क्षेत्रप्रत्यासत्ति या भावप्रत्यासत्तिके होने पर उपादानमें कार्य होता है यह सहयोगका अर्थ है ? किन्तु सहयोगका पह अर्थ करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देशाप्रत्यासत्ति और भावप्रत्मासत्तिक होनेपर अन्य द्रव्य नियमसे अन्यके कार्यको उत्पन्न करता है ऐसा कोई नियम नहीं है ( देखो श्लोकवार्तिक पृ० १५१) ! इस प्रकार सहयोगका अर्थ उक्त प्रकारसे करना तो बनता ही नहीं । उक्त विकल्पोंके आधारपर जितनी भी तर्कणाएँ की जाती है वे सब असत् ठहरती हैं। अब रही कालप्रत्यासत्ति. सो यदि अपर पक्ष बाह्य सामग्री उपादानके कार्य में सहयोग करती है इसका अर्थ कालप्रत्यासत्तिरूप करता है तो उसके द्वारा सहयोगका यह अर्थ किया जाना आगम, तर्क और अनुभवसम्मत है, क्योंकि प्रकृतमें 'कालप्रत्यासत्ति' पद जहाँ कालको विवक्षित पर्यायको सूचित करता है वहाँ वह विवक्षित पर्याययुक्त बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको भी सूचित करता है । प्रत्येक समवमें प्रत्येक द्रव्यको अपना कार्य करनेके लिए ऐसा योग निवमसे मिलता है और उसके मिलनेपर प्रत्येक समयमे प्रतिनियत कार्यकी उत्पत्ति भी होती है, ऐसा ही द्रव्यस्वभाव है। उसमें किसीका हस्तक्षेप करना सम्भव नहीं। स्पष्ट है कि प्रकृतमें निमित्त के सहयोगको चर्चा करके अपर पक्षने स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय परिणमनोंके विषयमें जो कुछ भी लिखा है वह बागम, तर्क और अनुभवपूर्ण न होने से तत्त्वमीमांसामें ग्राह्य नहीं माना जा सकता ।
___ इस प्रकार पूर्वोक्त विवेचन के आधारपर हमारा यह लिखना सर्वथा युक्तियुक्त है कि 'निमित्त कारणोंमें पूर्वोक्त दो भेद होने पर भी उनकी निमित्तता प्रत्येक द्रव्यफे कार्य के प्रति समान है।' यही जैनदर्शनका आशय है । अनादिकाससे जन संस्कृति इसी आधारपर जीवित चली आ रही है और अनन्त काल तक एकमात्र इसी आधारपर जीवित रहेगी। इससे अपर पक्ष यह अच्छी तरहसे जान सकता है कि जैन संस्कृतिक विरुद्ध अपर पक्षको ही मान्यता है, हमारी नहीं । विचारकर देखा जाय तो हरिवंशपुराण सर्ग ५८ का यह कथन तो जैन संस्कृतिका प्राण है
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्राम्यति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥१२॥ यह आत्मा स्वयं अपना कार्य करता है, स्वयं उसके फलको भोगता है, स्वयं ही संसार में परिभ्रमण करता है और स्वयं ही उसमें मुक्त होता है ॥१२॥
__ मालूम नहीं अपर पक्ष पराश्रित जीवनका समर्थनकर किस उलझनमें पड़ा हुआ है, इसे वह जाने । वैज्ञानिकोंकी भौतिक खोजसे हम भलीभांति परिचित हैं । उससे तो यही सिद्ध होता है कि किस विशिष्ट पर्याय युक्त बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके सद्भावमें क्या कार्य होता है। हमें मालूम हुआ है कि जापानमें दो नगरोंपर अणुबमका विस्फोट होनेपर जहाँ असंख्य प्राणी कालकलित हुए वहाँ बहुतसे क्षुद्र जन्तु रेंगते हुए भी पाये गये । क्या इस उदाहरणसे उपादानके स्वकार्यकर्तृत्वकी प्रसिद्धि नहीं होती है, अपि तु अवश्य होती है ।
मागे अपर पक्षने हमारे द्वारा उल्लिखित स्वामी समन्तभद्रकी 'बाह्येतरोपाधि' इत्यादि कारिकाको पर्चा करते हुए हमारी मान्यताके रूपमें लिखा है कि सम्भवतः हम यह मानते हैं कि 'उपादान स्वयं कार्योत्पत्ति के समय अपने अनुकूल निमित्तोंको एकत्रित कर लेता है। किन्तु अपर पक्षने हमारे किस कमनके
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आधारपर हमारा यह अर्थ फलित किया है यह हम नहीं समझ सके । हमने भट्टाकलंकदेवकी अष्टशतीके 'तादृशी जायते बुद्धि:' इस वचनको प्रमाणरूपमें अवश्य ही उद्धृत किया है और वह निर्विवादरूपसे प्रमाण है। पर उससे भी उक्त आशय सूचित नहीं होता। निमित्तोंको जुटाने की बात अपर पक्ष की ओरसे ही यथार्थ मानी जाती है। उसकी ओरसे इस आवश्यका कथन ५वीं शंकाके तीसरे दौर में किया भी गया है । हम तो ऐसे कथनको केवल विकल्पका परिणाम ही मानते हैं । अतएव इरा बातको लेकर अपर पक्षने यहाँ पर 'द्रव्यगतस्वभावः' पदकी जो भी विवेचना की है वह युक्त नहीं है । किन्तु उसका आशय इतना ही है कि जिसे आगम में स्वप्रत्यय परिणाम ( स्वभाव पर्याय ) कहा है और जिसे आगम में स्व-पर प्रत्यय ( विभाष पर्याय ) कहा है वह सब बाह्य आभ्यन्तर उपाधिको समग्रतामें होता है ऐसा द्रव्यगत स्वभाव है । जागे अपर पक्षने हमारे कथनको उद्धृतकर मोक्षको स्व-परप्रत्यय सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु आगममें इसे किस रूपमें स्वीकार किया गया है इसके विस्तृत विवेचन में तत्काल न पड़कर उसकी पुष्टिमें एक आगमप्रमाण दे देना उचित समझते हैं। पंचास्तिकाय गाथा ३६ को आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका में लिखा है
fear हि उभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमुत्पादयन्नान्यत्किचिदुत्पादयनि ।
उभय कर्मका क्षय होनेपर सिद्ध स्वयं आत्मा ( सिद्ध पर्याय ) को उत्पन्न करते हुए अन्य किसीको उत्पन्न नहीं करते |
इससे स्वप्रत्यय पर्याय और स्व-परप्रत्यय पर्यायके कथनमें अन्तर्निहित रहस्यका स्पष्ट ज्ञान हो जाता हूँ । किन्तु अपर पक्ष इन दोनोंको एक कोटिमें रखकर उक्त रहस्यको दृष्टिपथमें नहीं ले रहा है इतना ही हम यहाँ कहना चाहेंगे ।
हमने पंचास्तिकायका अनन्तर पूर्व ही वचन उद्धृत किया है। उसका जो आशय है वही आशय तत्वार्थ सूत्र के 'बन्धहेत्वभाव-' इत्यादि वचनका भी है।
यहाँ अपर पक्षने करणानुयोग और चरणानुयोगकी चर्चाकर जो निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्रके एक साथ होने का संकेत किया है सो उसका हमारी ओरसे कहाँ निषेध किया गया है। हमारा कहना तो इतना ही है कि निश्चयचारित्र के साथ होनेवाला पंच महाव्रतादिरूप परिणाम व्यवहारचारित्र संज्ञाको प्राप्त होता है । अन्यथा मोक्षमार्ग की दृष्टिसे वह निष्फल है। साथ ही पंच महाव्रतादिरूप परिणाम उसी अवस्थामै निश्चयचारित्रका कारण अर्थात् व्यवहारहेतु कहा जाता है जब कि निश्चयचारित्रसे वह अनुप्राणित होता रहे । स्वभावके आलम्बन द्वारा अन्तर्मुख होनेसे आत्मामें जो निश्चयचारित्ररूप शुद्धि उत्पन्न होती है उसका मूल हेतु तो आत्माका आत्मस्वभावके सन्मुख होना ही है। अबुद्धिपूर्वक या बुद्धिपूर्वक संज्वलन परिणाम मात्र उसके अस्तित्वका विरोधी नहीं, इसलिए व्यवहारचारित्र संज्ञक वह व्यवहार नयसे निन्दयचारिका साधक कहा गया है। एसद्विषयक आगममें जितने वचन मिलते हैं उनका एकमात्र यही आशव है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार कलश में कहा भी है-
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरेर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः, क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ॥१४२॥
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शंका १ और उसका समाधान
कोई जीव दुष्करतर और मोक्षसे पराङ्मुख कर्मोके द्वारा स्वयमेव (जिनाजाके बिमा) क्लेश पाते है तो पाओ और अन्य कोई जीव (मोक्षोन्मुत्र अर्थात् कथंचित् जिनाझामें कथित) महाव्रत और तपके भारसे बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश करें तो करो, किन्तु जो साक्षात् मोलस्वरूप है, निरामयका स्थान है और स्वयं संवेधमान है ऐसे इस ज्ञानको ज्ञानगण के बिना किसी भी प्रबारसे ये प्राप्त नहीं कर सकते ॥१४२।।
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि परम वोत गग चारित्रकी प्राप्तिका साक्षाप्त मार्ग एकमात्र स्वभाव सन्मुख हो तन्मय होकर परिणमना ही है, इसके सिवाय अन्य सब निमित्तमात्र है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारमें गृहस्थ और मुनियों द्वारा ग्रह्ण किये गये व्यलिंगके विकल्पको छोड़कर दर्शन-ज्ञान-धारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग में अपने आस्माको ग्रुयात करने का उपदेश दिया है । समयसारका वह वचन इस प्रकार है
तम्हा जहितु लिंगे सागारणगारएहि व गहिए।
दसण-णाण-चरित्ते अप्पाणं झुंज मोक्लपहे ।।४११॥ इसकी टीकामें आचार्य अमुतचन्द्र लिखते है
यतो द्रव्यलिंग न मोक्षमार्गः समः सहस्तमपि नारि रहा दर्शन-नन यागिन चेव मोक्षमार्गत्वात् आत्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः ॥४११||
यतः इध्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, अतः सभी द्रव्यलिंगोंको छोड़कर मोक्षमार्ग होनेसे दर्शन-ज्ञानचारित्रमें हो आत्माको मुक्त करना चाहिए ऐसा परमागमका उपदेश है ॥४११॥
अपर पक्षका कहना है कि 'भावलिंग होनेसे पूर्व द्रव्यलिंगको तो उसकी उत्पत्तिके लिए कारणरूपसे मिलाया जाता है। किन्तु अपर पक्ष का यह कथन इसीसे भ्रान्त ठहर जाता है कि एक द्रव्यलिंगी साधु आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि काल लक व्यलिंगको धारण करके भी उस द्वारा एक क्षणके लिए भी भालिंगको धारण नहीं कर पाता और आत्माके सन्मुख हुआ एक गृहस्थ परिणाम विशुद्धिको वृद्धिके साथ ब्राह्य में निर्ग्रन्य होकर अन्तम हुर्तमें अपकणिका अधिकारी होता है। स्पष्ट है कि जो ट्रयलिंग भावलिंगका सहचर होनसे निमित्त संभाको प्राप्त होता है यह मिलाया नहीं जाता, किन्तु परिणाम विशुदिकी वृद्धिके साथ स्वपमेच प्राप्त होता है। आगममें द्रव्य लिंगको मोक्षमार्गका उपचारसे साधक कहा है तो ऐसे ही द्रश्यलिंगको कहा है । मिथ्या अहंकारसे 'पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्डके प्रतीकस्वरूप व्यलिंगको नहीं । अपरपक्षने
युगपत् होते ह प्रकाश दीपक तें होई ।-छहवाला बाल ४,१ बचनको उद्धृत फर यह स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि निश्चय चारित्रका सहचर ट्रम्यलिंग ही आगममें व्यवहारनयसे उसका साधन कहा गया है। अतः पूर्वमें धारण किया गया द्रव्यलिंग भावलिंगका साधन है, अपर पक्षके इस कथनका महत्व सुतरा कम हो जाता है। थाली भोजनका साधन कहा जाता है, पर जैसे पालीसे भोजन नहीं किया जाता उसी प्रकार अन्य जिन साधनोंका उल्लेख यहाँ पर अपर पक्षने किया है उनके विषयमे जान लेना चाहिए। वे यथार्थ साधन नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मुख्य साधन वह कहलाता है जो स्वयं अपनी क्रिया करके कार्यरूप परिणमता है। अन्यको यथार्थ साधन कहना कल्पनामात्र है। यह प्रत्यक्षसे ही दिखलाई देता है कि बाह्य सामग्री न तो स्वयं कार्यरूप ही परिणमठी
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
है और न कार्यद्रव्यकी क्रिया ही करती है । ऐसो अवस्थामें उन्हें ययार्थ साधन कहना मार्गमें क्रिसीको लुटता हुआ देखकर 'मार्ग लुटता है' इस कथनको यथार्थ मानने के समान ही है ।
अपर पक्षने हमारे कथनको ध्यानमें लिये बिना जो कार्य-कारणभावका उल्टा चित्र उपस्थित किया है वह इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि न तो उपादानके कारण निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीको उपस्थित होना पड़ता है और न ही निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्रीके कारण उपादानको ही उपस्थित होना पड़ता है। यह सज योग है जो प्रत्येक कार्य में प्रत्येक समयमें सहज ही मिलता रहता है । 'मैंने अमुक कार्यके निमित्त मिकामे यह भी कथनमात्र है जो पुरुषको योग और विकल्पको लक्ष्य में रखकर किया जाता है 1 वस्तुत: एक द्रव्य दूसरं दध्यकी क्रियाका कर्ता त्रिकालमें नहीं हो सकता । अतः यहाँ हमारे कथनको लक्ष्य में रखकर अपर पक्ष ने कार्य-कारणभावका जो उल्टा चित्र उपस्थित किया है उसे कल्पनामात्र ही जानना चाहिए।
हमारा 'उपादानके अनुसार मावलिंग होता है।' यह कथन इसलिए परमार्थभूत है, क्योंकि कर्मफे क्षयोपशम और भावलिंगके एक कालमें होनेका नियम होनेसे उपचारसे यह कहा जाता है कि योग्य क्षयोपशमके अनुसार आत्मामें भावलिंगकी प्राप्ति होती है। जिस पंचास्तिकायका यही अपर पक्षने हवाला दिया है उसी पंचास्तिकाय गाथा ५८ में पहले सब भावोंको कर्मकृत बतलाकर गाथा ५९ में उसका निषेध कर यह स्पष्ट कर दिया है कि आत्माके भावोंको स्वयं आत्मा उत्पन्न करता है, कर्म नहीं । अतः चारित्रमोहनीम कर्मके क्षयोपशमके अनुसार भालिंग होता है इसे यथार्थ कथन न समझकर अपने उपादानके 'अनुसार भावलिंग होता है इसे ही आगमसम्मत यथार्थ कथन जानना चाहिए । इस परसे अपर पक्ष भी स्वयं निर्णय कर सकता है कि यथार्थ कथन अपर पक्ष का न होकर हमारा ही है।
आगे अपर पक्षने निमित्त व्यवहारको यथार्थ सिद्ध करनेके लिए सलाहनेके रूपमें जो कुछ भी वक्तव्य दिया है उससे इतना ही ज्ञात होता है कि अपर पक्ष किस नयको अपेक्षा क्या वक्तव्य आगममें किया गया है इस ओर ध्यान न देकर मात्र अपनी मान्यताको आगम बनाने के फेर में है, अन्यथा वह पक्ष असद्भूत व्यवहारनयके वक्तव्यको असद्भूत मानकर इस नयकी अपेक्षा कथन आगममें किस प्रयोजनसे किया गया है उसपर दृष्टिपात करता । विशेष खुलासा हम पूर्वमें ही कर आये हैं, इसलिए यहाँ उन सब तथ्योंका पुनः खुलासा नहीं करते।
प्रवचनसार गाथा १६९ को आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें 'स्वयं' पद माया है । हमने इसका सर्थ प्रकृत शंकाके प्रश्रम उत्तरमें 'स्वयं' ही किया है। किन्तु अपर पक्षको यह मान्य नहीं । वह इसका अर्थ 'अपने रूप' करता है । इसके समर्थनमें उस पक्ष को मुख्य मुक्ति यह है कि सहकारी कारणके बिना कोई भी परिणति नहीं होती, इसलिए कार्य-कारणभावके प्रसंगमें सर्वत्र इस पदका अर्थ 'अपने रूप या 'अपन में करना ही उचित है । इस प्रकार अपर पक्षके इस कथनसे मालूम पड़ता है कि यह पक्ष उत्पादव्यय-नोव्यस्वरूप प्रत्येक सत्की उत्पत्ति परकी सहायतासे या परसे होती है यह सिद्ध करना चाहता है। किन्तु उस पक्ष को यह मान्यता सर्वथा आगमविरुद्ध है, अतएव जहाँ भी निश्चयनयकी अपेक्षा कथन किया गया है वहां प्रत्येक कार्य यथार्थमें परनिरपेक्ष ही होता है इस सिद्धान्तको ध्यानमें रखकर 'स्वयमेव' पदका 'स्वयं ही' अर्थ करना उचित है । इतना अवश्य है कि यदि विस्तारसे ही इस पक्षका अर्थ करना हो तो निश्मय षट्कारकरूप भी इस पदका अर्थ किया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य निश्चयमे आप का
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शंका १ और उसका समाधान
होकर अपने में अपने लिए अपनी पिछली पर्यायका अपादान करके अपने द्वारा अपनी पर्यायरूपको आप उत्पन्न करता है। इसमें परका अणुमात्र भी योगदान नहीं होता। हाँ, असद्भूत व्यवहारनपसे परसापेक्ष कार्य होता है यह कहना अन्य बात है। किन्तु इस कथनको परमार्थभूप्त नहीं जानना चाहिए । यही कारण है कि समयसारमें सर्वत्र व्यवहार पक्षको उपस्थितकर निश्चयनयके कथन द्वारा असत् कहकर उसका निषेध कर दिया गया है। कार्यकारणभावमें भी इसी पद्धतिको अपनाया गया है।
अपर पक्षने प्रवचनसार गाथा १६९ की उक्त टोकाके आधारसे यह चर्चा चलाई है। उसमें 'पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति' यह वाक्प आया है, जिसका अर्थ होगा-'पुद्गलस्कन्ध स्वयं ही कर्मरूपसे परिणमते हैं।' जैसा कि अपर पक्षका कहना है उसके अनुसार यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि--'पुद्गलस्कन्ध अपनेरूप कर्मरूपसे परिणमते हैं ।' क्योंकि ऐसा अर्थ करने पर 'अपने रूप' तथा 'कर्मरूपसे' इन दोनों वचनोंमें एक वचन पुनरुक्त हो जाता है।
अपर पक्षने इसी प्रसंगमें समयसार ११६ से १२० तककी गाथाएँ उपस्थित कर इन गाषाओंकी अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न होने के कारण सर्व प्रथम यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि आचार्य कुन्दकुन्द इन गाथानों द्वारा परिणामस्वभावकी सिद्धि कर रहे हैं, अपने आप ( स्वतःसिद्ध ) परिणाम स्वभावकी सिद्धि नहीं कर रहे है। किन्तु अपर पक्ष इस घातको मूल जाता है कि जिसका जो स्वभाव होता है वह उसका स्वरूप होनेसे स्वतःसिद्ध होता है. इसलिए आचार्य अमुवचन्द्रने उक्त गाधाओंकी अबतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न देकर प्रत्येक द्रव्यको स्वतःसिद्ध स्वरूपस्थितिका ही निर्देश किया है । अतएव उक्त अवतरणिकाके आधारसे अपर पक्षने जो यह लिखा है कि 'उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तुके परिणामस्वभावकी सिद्धि करना ही आचार्यको अभीष्ट रही है अपने आप परिणामस्वभावकी नहीं।' वह युक्त प्रतीत नहीं होता।
इसी प्रसंगम दुसरी आपत्ति उपस्थित करते हुए अपर पक्षने लिखा है कि 'गाथा ११७ के उत्तरार्ध में • जो संसारके अभावकी अथवा सांस्यमतको प्रसक्तिरूप आपसि उपस्थित की है वह पुद्गलको परिणामी स्वभाव न मानने पर ही उपस्थित हो सकती है अपने आप (स्थतःसिद्ध) परिणामी स्वभावके अभावमें नहीं।' आदि । किन्तु यह आपत्ति इसलिए ठीक नहीं; क्योंकि प्रत्येक द्रव्यको परतः परिणामस्वभावी मान लेनेपर एक तो यह द्रव्यका स्वभाष नहीं ठहरेगा और ऐगी अवस्थामें द्रव्यका ही अभाव मानना पड़ेगा। दूसरे यह जीव पुद्गल कर्मसे सदा ही बढ़ बना रहेगा, अतएव मुक्ति के लिए यह बात्मा स्वतन्त्ररूपसे प्रयत्न भी न कर सकेगा। मदि अपर पक्ष इस आपत्तिको उपस्थित करते समय गाथा ११६ के पूर्वार्धपर दृष्टिपात कर लेता तो उसके द्वारा यह आपसि ही उपस्थित न की गई होती। पुद्गल अपने परिणाम स्वभावके कारण आप स्वतन्त्र कर्ता होकर जीवके साथ बञ्ज है और आप मुक्त होता है, इसीसे बच दशामें जीवका संसार मना हुआ है। यदि ऐसा न माना जाय और पुद्गलको स्वभावसे अपरिणामी माना जाय तो एक तो संसारका अभाव प्राप्त होता है, दुसरे सांख्यमतका प्रसंग आता है यह उक्त गाथाओंका तात्पर्य है, न कि यह जिसे अपर पक्ष फलित कर रहा है । स्पष्ट है कि यह दूसरी आपत्ति भी प्रकृतमें अपर पक्षके इष्टार्थकी सिद्धि नहीं करती । आचार्य अमृतचन्द्रने इस विषयको विशदरूपसे स्पष्ट करते हुए लिखा है
अथ जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणमयति ततो न संसाराभावः इति तकः ? कि स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणम
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा मानं परेण परिणमयितुं पार्येत । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्येत । स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत । न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते । ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभाव स्वयमेवास्तु । तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इब जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादि कर्म स्यात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम् ।
इसका अर्थ करते हुए पं० श्री .....: लिखो -..
और जो ऐसा तर्क करे कि जीव पुद्गल द्रव्यको कर्म भावकर परिणमाता है इसलिये संसारका अभाव नहीं हो सकता? उसका समाधान यह है कि पहले दो पक्ष लेकर पूछते है जो जीव पुद्गलको परिणमाता है वह स्वयं अपरिणमतेको परिणमाता है या स्वयं परिणमतेको परिणमाता है ? उनमेंसे पहला पक्ष लिया जाय तो स्वयं अपरिणमतेको नहीं परिणमा सकता, क्योंकि आप न परिणमतेको परके (द्वारा) परिणमानेको सामर्थ्य नहीं होती, स्वतः शक्ति जिसमें नहीं होती वह पर कर भी नहीं की जा सकती। और जो पुद्गलद्रव्यको स्वयं परिणमतेको जीव कर्मभावकर परिणमाता है ऐसा दूसरा पक्ष लिया जाय तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अपने आप परिणमते हुए को अन्य परिणमानेवालेको आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वस्तुको शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करती। इसलिये पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभाव स्वयमेव होवे। ऐसा होने पर जैसे कलशरूप परिणत हुई मिट्टी अपने आप कलश ही है उसी तरह जड़ स्वभाव ज्ञानावरण आदि कर्मरूप परिणत हुआ पुद्गल द्रव्य ही आप ज्ञानावरण आदि कर्म ही है। ऐसे पुद्गल द्रव्यको परिणामस्वभावता सिद्ध हुआ।
यह परमागमकी स्पष्टोक्ति है जो निश्चथपक्ष और व्यवहारपक्षके कथनका आशय क्या है इसे विशदरूपसे स्पष्ट कर देती है। निश्चयनमसे देखा जाय तो प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणामस्वभाववाला होनेसे अपने उत्पाद-व्ययरूप परिणामको अपनेमें, अपने द्वारा, अपने लिए, आप ही करता है। उसे इसके लिये परकी सहायताकी अणुमात्र भी अपेक्षा नहीं होती। यह कथन वस्तुस्वरूपको उद्घाटन करनेवाला है, इसलिए वास्तविक है, कथनमात्र नहीं है। व्यवहारनयसे देखा जाय तो कुम्भकारके विवक्षित क्रिया परिणामके समय मिट्टोका विवक्षित क्रियापरिणाम दृष्टिपथमें आता है, यतः कुम्भकारका विषक्षित क्रिया परिणाम मिट्टीके घटपरिणामकी प्रसिद्धिका निमित्त (हेतु) है, अतः इस नय से यह कहा जाता है कि कुम्भकारने अपने क्रियापरिणामद्वारा मिट्टीमें घट किया । यतः यह कथम वस्तुस्वरूपको उद्घाटन करनेवाला न होकर उसे आच्छादित करनेवाला है, अतः वास्तविक नहीं है, कधनमात्र है। परमागममें निश्चयनयको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेष्य क्यों बतलाया गया है यह इससे स्पष्ट हो जाता है। स्वरूपका उपादान और पररूपका अपोहन करना यह जब कि वस्तुका वस्तुत्व है। ऐसी अवस्थामें उस द्वारा असत् पक्षको कहनेवाले व्यवहारतयका अपोहन अपने आप हो जाता है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अष्टसाहनी पृ० १३१ में लिखा है
स्वपररूपोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यत्वावस्तुनि वस्तुत्वस्य । अर्थ पूर्व में लिखा ही है।
व्यबहारनय असत् पक्षको कहनेवाला है यह इसीसे स्पष्ट है कि वह अन्यके धर्मको अन्यका कहता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ५६ की टीकामें यह वचन लिखा है
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शंका १ और उसका समाधान
७३ ___ इह हि व्यवहारमयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्धबन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कापासिकवासस इवोपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परस्य विदधाति ।
यहाँ व्ययहारनय पर्यायाश्रित होनेसे कुसुम्दी रंगसे रंगे हुए तथा सफेद रूईसे बने हुए वस्त्रके औपाघिक भावकी भांति पुद्गलके संयोगवश अनादिकालसे जिसकी बन्ध पर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जोधके औपाधिक भावका अवलम्बन लेकर प्रवतमान होता हुआ दूसरके कहता है।
पण्डितप्रवर टोडरमलजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशक अध्याय ७ के अनेक स्थलोपर निश्चय-व्यवहारके विषयमें इसी कारण यह लिखा है
यहाँ जिन आगम विर्षे निश्चय-व्यवहाररूप वर्णन है । तिनविर्ष यथार्थका नाम निश्चय है, उपचारका नाम व्यवहार है । (पृ० २८७)
एक ही व्यके भावको तिस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है। उपचारकरि तिस द्रव्यके भावकों अन्य द्रव्यके भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। (पृ. ३६९)
इस प्रकार इतने विवेचन द्वारा यह सुगमतासे समझमें आ जाता है कि समयसारकी उक्त गाथाओं द्वारा पुद्गल द्रक्ष्यके स्वतःसिद्ध परिणामस्वभावका ही कथन किया गया है। जब कि पुद्गलद्रव्य परकी अपेक्षा किये बिना स्वरूपसे स्वयं परिणामीस्वभाव है ऐसी अवस्थामें वह परसापेक्ष परिणामीस्वभाव है इसका निषेध ही होता है, समर्थन नहीं यह बात इतनी स्पष्ट है जितना कि सूर्यका प्रकाथ ।
___ अपर पक्षका कहना है कि यदि इन गाथाओंमें 'स्वयं' शब्दका अर्थ 'अपने आप' ग्राह्य माना जायगा तो माथा ११७ के पूर्वार्ध में भी स्वयं' शब्दके पाठकी आवश्यकता अनिवार्य हो जायगी। ऐसी हालतमें उसमें आचार्य कुन्दकुन्द 'स्वयं' शब्दके पाठ करनेकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे।'
___ इसका समाधान यह है कि एक तो गाथा ११६ और गाथा ११८ में आये हुए 'स्वयं' पदकी अनुवृत्ति हो जानेसे माथा ११७ के अर्थकी संगति बैट जाती है, इसलिए अपर पक्षने गाथा ११७ के पूर्वार्धमें 'स्वयं' पदको न देखकर जो आपत्ति उपस्थित की है वह ठीक नहीं । दूसरे समयसारकी इस गाथाको गाथा १२२ के प्रकाशमें पढ़नेपर यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि इस गाथामें आचार्यको 'स्वर्ग' पद इष्ट है । गाथा १२२ में वही बात कही गयी है जिसका निर्देश गाथा ११७ में आचार्यने किया है । अन्तर केवल इतना ही है कि गाथा १२२ में जीवको विवक्षित कर उक्त विषयका विवेचन किया गया है और गाथा ११७ में पुद्गलको विवक्षित कर उक्त विषयका विवेचन किया गया है। अभिप्रायको वृष्टिसे दोनोंका प्रतिपाद्य विषम एक ही है । अतः गाथा ११७ के पूर्वार्धम 'स्वयं' पदको न देखकर अपर पक्षने जो उक्त सभी गाथाओं में 'स्वयं' पदके 'अपने माप' 'स्वयं ही' अर्थ फरनेमें आपत्ति उपस्थित की है वह ठीक नहीं।
इस प्रकार उक्त विवेचनसे एकमात्र यही सिद्ध होता है कि पुद्गल स्वयं परिणामी स्वभाव है और साथ ही उक्त विवेचनसे यह अभिप्राय सूतरां फलित हो जाता है कि अपर पक्षने अपने तर्कों के आधारपर उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है वह ठीक नहीं है । वैसे तो यहाँपर उक्त, गाथाओंका अर्थ देनेकी आवश्यकता नहीं थी। किन्तु अपर पक्षने जब उनका अपनी मतिसे कल्पित अर्थ अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकामें दिया है, ऐसी अवस्थामें यहाँ सही अर्थ दे देना आवश्यक है । वह इस प्रकार है
__ यदि यह पुद्गल द्रव्य जीवमें स्वयं नहीं बँधा और कर्मभावसे स्वयं नहीं परिणमता तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है। ऐसी अवस्थामें कर्मवर्गणाओंके कर्मरूपसे स्वयं नहीं परिणमनेपर संसारका अभाव प्राप्त होता
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
है अथवा सांख्यमता प्रसंग आता है। यदि यह माना जाय कि जीव पुद्गल द्रव्योंको कर्मरूपसे परिणामाता है तो ( प्रश्न होता है कि ) स्वयं नहीं परिणमते हुए उन पुद्गल द्रव्योंको चेतन मात्मा कैसे परिणमा सकता है। इसलिए यदि यह माना जाय कि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मरूपसे परिणमता है तो जीब कर्म अर्थात् पुद्गल द्रव्यको कर्मरूपसे परिणामाता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। इसलिए जैसे नियमसे कमरूप परिणत पुद्गल य कर्म ही है वैसे ही ज्ञानावरणादिरूप परिणत पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि हो हैं ऐसा जानो ।।११६-१२० ॥
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इस प्रकार इस अर्थपर दृष्टिपात करनेसे ये दो तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं- प्रथम तो यह कि अपर पक्षने उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है वह उन गाथाओंकी शब्दयोजनासे फलित नहीं होता । दूसरे इन गाषाओं में आये हुए 'स्वयं' पदका जो मात्र 'अपने रूप' अर्थ किया है वह ऐकान्तिक होनेसे ग्राह्य नहीं है । कर्त्ता के अर्थ में उसका अर्थ 'स्वयं हो' या 'आप ही करना संगत है। और यह बात आगमविरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि नित्येोपरि उत्पन्न करता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार में कहा भी है
भावं सुमहं करेदि आदा स तस्स खलु कप्ता । तं तस्स होदि कम्म सो तस्स दु वेदगो अप्पा ||१०२ ॥
आत्मा जिस शुभ या अशुभ अपने भावको करता है उस भावका वह वास्तव में कर्ता होता है और
बह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा कर्मरूप उस भावका भोक्ता होता है ॥ १०२ ॥
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए हरिवंदापुराण सर्ग ५८ में भी कहा है
अविद्यारागसंविलष्टो बम्भ्रमीति भवार्णवे । विद्यावैराग्यशुद्धः सन् सिद्धगत्यविकल स्थितिः ॥ १३॥ इत्यध्यात्म विशेषस्य दीपिका दीपिकेव सा । रूपादेः शमयत्याशु तमिस्रं तत्र सन्ततम् ॥ १४॥
अधिराग से संश्लिष्ट हुआ यह जीव संसाररूपी समुद्र में घूमता रहता है और विद्यावैराग्यसे शुद्ध होकर सिद्धगति अविकल स्थितिवाला होता है ||१३|| यह अध्यात्म विशेषको बतानेवाली दीपिका है । इसलिए जैसे दीपक रूपादि विषयक अन्धकारको शीघ्र नष्ट कर देता हैं उसी प्रकार यह भी अज्ञानान्धकारको शीघ्र नष्ट कर देता है ।। १४ ।।
इससे प्रकृतमें स्वयं पदका क्या अर्थ होना चाहिए यह स्पष्ट हो जाता है ।
यहाँ अपर पक्षने 'स्वयं' पदके 'अपने आप' अर्थका विशेष दिखलाने के लिए जो प्रमाण दिये हैं उनके विषय में तो हमें विशेष कुछ नहीं कहना है । किन्तु यहाँ हम इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते हैं कि एक तो प्रस्तुत प्रश्नके प्रथम व दूसरे उत्तर में हमने 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'अपने आप' न करके 'स्वयं ही' किया है। इस का 'अपने आप यह अर्थ अपर पक्षने हमारे कथन के रूपमें प्रस्तुत प्रश्नकी दूसरी प्रतिशंका में मानकर टीका करनी प्रारम्भ कर दी है जो युक्त नहीं है। हमने इसका विरोध इसलिए नहीं किया कि निश्चयकर्ताके अर्थ में 'स्वयमेव' पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं । ऐसी अवस्थामें 'अपने आप' पदका अर्थ होगा 'मरकी सहायता बिना आप कर्ता होकर ।' आशय
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शंका १ और उसका समाधान
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हो, कार्य अपने में हो वह दूसरेकी सहायता लिये बिना अपने कार्यका
इतना ही है कि जिसकी क्रिया अपने आप ही कर्ता होता है, अन्य पदार्थ नहीं ।
इस प्रकार प्रवचनसार गाथा १६९ को टीकामें 'स्वयमेव' पदका क्या अर्थ लेना चाहिए इसका खुलासा किया । अन्यत्र जहाँ-जहाँ कार्य कारणभाव के प्रसंगसे यह पत्र आया है वहां वहाँ इस पद का अर्थ करने में यही स्पष्टीकरण जानना चाहिये। यदि और गहराई से विचार किया जाय तो यह पद निश्चयकर्ता के अर्थ में तो प्रयुक्त हुआ ही है, इसके सिवाय इस पदसे अन्य निश्चयकारकोंका भी ग्रहण हो जाता है । आगे अपर पक्षने 'उपचार' पदके अर्थ के विषय में निर्देश करते हुए धवल पु० ६ १० ११ के आधारसे जो area अन्य धर्मको अन्यमें आरोपित करना उपचार है । इस अर्थको स्वीकार कर लिया है वह उचित ही किया है। उसी प्रकार वह पक्ष समयसार गाथा १०५ में आये हुए 'उपचार' पदका भी उक्त अर्थ ग्रहण करेगा ऐसी हमें आशा है, क्योंकि जिस प्रकार धवल पु० ६ पृ० ११ में जीवके कर्तृत्व धर्मका उपचार जीवसे अभिन्न ( एक क्षेत्रावगाही ) मोहनीय द्रव्यकर्म में करके जीवको मोहनीय कहा गया है उसी प्रकार रामगसार गाथा १०५ में कर्मणाओंके कर्तुत्व धर्मका आरोप जीव में करके जीवको पुद्गल कर्मका कर्ता कहा है। दोनों है। यहाँ मोहनीय कर्मोदय जीवके अज्ञानभाव के होनेमें निमित्त है । समयसार गाथा १०५ में जीवका अज्ञान परिणाम ज्ञानावरणादिरूप कर्म परिणाम में निमित्त है । इस प्रकार दोनों स्थलोंपर बाह्य सामग्रीरूपसे व्यवहार हेतुका सद्भाव है। अतएव समयसार गाथा १०५ मैं 'मुख्याभावे सति प्रयोजने' इत्यादि वचनकी चरितार्थता बन जाती है ।
समयसार गाथा १०५ को लक्ष्य रखकर अपर पक्षका कहना है कि 'परन्तु ऐसा उपचार प्रकृत में सम्भव नहीं है. कारण कि आत्माके फखका उपचार यदि द्रव्यकर्ममें आप करेंगे तो इस उपचार के लिए सर्वप्रथम आपको निमित्त तथा प्रयोजन देखना होगा कि जिसका सर्वथा अभाव है।' समाधान यह है कि यहाँ पर यवहारहेतु और व्यवहार प्रयोजनका न तो अभाव ही है और न ही आत्माके कर्तुत्व का उपचार द्रव्यकर्म में कर रहे हैं । किन्तु प्रकृतमें हम कर्मपरिणामके सन्मुख हुई कर्मवगंणाओंके कर्तुत्वका आरोप व्यवहारहेतु संज्ञाको प्राप्त अज्ञानभावसे परिणत आत्मामें कर रहे हैं। अतएव 'अतः यहाँ बाह्य हेतु और बाह्य प्रयोजनका सर्वथा अभाव है, इसलिए उपचारको प्रवृत्ति नहीं हो सकती' अपर पक्षका ऐसा अभिप्राय व्यक्त करना आगम विरुद्ध तो है ही, तर्क और अनुभव के भी विरुद्ध है। अपर पक्ष यदि उक्त गाथाकी रचनापर दृष्टिपात करे तो उसे ज्ञात होगा कि स्वयं आचार्यने गाथा पूर्वार्ध 'हेदुभूदे' पक्षका उल्लेख कर बाह्य निमित्तका निर्देश कर दिया है तथा 'बंधस्स दु परिसदूण परिणामं वचनका उल्लेख कर मुख्यकर्ता और मुख्य कर्मकी सूचना कर दी है। फिर भी ब्राह्म निमित्तके ज्ञान करानेरूप बाह्य प्रयोजनको लक्ष्य में रखकर मुख्यकर्ता स्थानमें पुद्गलकर्मधर्मणामोंके कर्तृत्वका उनसे अभिन्न ( एक क्षेत्रावगाही ) अज्ञान परिणत जीव में उपचार करके उपचारसे उक्त जीवको कर्मका कर्ता कहा गया है। स्पष्ट है कि समयसार गाथा १०५ में उपचार पदका वही अर्थ लिया गया है जिसका कि हम पिछले उत्तरमें संकेत कर आये हैं। और जिसे धवल पु० ६ ० ११ के मुह्यत इति मोहनीयम्' वचनके अनुसार अपर पक्षने भी स्वीकार कर लिया है।
इस प्रकार अपर पक्ष द्वारा उपस्थित किये गये मूल प्रश्नका अवान्तर विषयोंके साथ सांगोपांग विश्वार किया ।
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प्रथम दौर
शंका २ जीवित शरीरका क्रिया आरमाम धर्म अप होता है या नहीं ?
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समाधान जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रश्यको पर्याय होने के कारण उसका अजीय तत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्मभाव है और न अधर्मभाष ही है। मात्र जीवित शरीरकी क्रिया धर्म नहीं है इसे स्पष्ट करते हुए नाटक समयसारमें पण्डितप्रवर बमारसीदासजी कहते हैं
जे व्यवहारी मूढ़ नर पर्यायबुद्धि जीव ! तिनके बाह्य क्रिया ही को है अवलंब सदीच ।।१२१॥ कमति बाहिज दष्टि सो बाहिज क्रिया करत । माने मोक्ष परंपरा मनमें हरष धरंत ॥१२२॥ शदातम अनुभव कथा कहे समकिती कोय।
सो सुनिके तासों कहें यह शिवपंथ न होय ॥१२३।। इस तथ्यका समर्थन आचार्यचर्य अमृतचन्द्र के इस कलवासे होता है
व्यवहार विमूढदृष्टमः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः ।
तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तन्दुलम् ॥२४२॥ इस कलशका अर्थ पूर्वोक्त दोहोंसे स्पष्ट है । इसी विषयपर विशेष प्रकावा डालते हुए परमात्मप्रकाशमें भी कहा है
घोर करंतु वि सव-चरणु सयल वि सत्थ मुणंतु ।
परमसमाहिविबज्जियस ण वि देवखइ सिउ संतु ॥२-१९१॥ अर्थ-जो घोर तपश्चरण करता है और सकल शास्त्रका भी मनन करता है, परन्तु परम समाधिसे रहित है वह राग, द्वेप और मोह आदि दोषोंसे रहित मोक्षको प्राप्त नहीं होता ।।२-१९१।।
फिर भी जीवित शरीरकी क्रियाका धर्म-अधर्मके साथ नोकर्मरूपसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण जीवके शुभ, अशुभ और शुद्ध जो भी परिणाम होते हैं उनको लक्ष्यमें लेते हुए उपचार नयका आश्रय कर जीवित शरीरकी नियासे धर्म अधर्म होता है यह कहा जाता है ।
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द्वितीय दौर
: २:
शंका २
जीवित शरीरको क्रिया से आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं ?
प्रतिशंका २
हमारे उक्त प्रश्नके उत्तर में जो आपने यह लिखा है कि 'जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यको पर्याय होने के कारण उसका अजीव तत्वमें अन्तर्भाव होता है।' सो आपका यह लिखना आगम, अनुभव तथा प्रत्यक्ष से विरुद्ध है, क्योंकि जीवित शरीरको सर्वथा अजीव तत्व मान लेनेपर जीवित तथा मृतक शरीरमें कुछ अन्तर नहीं रहता । जीवित शरीर इष्ट स्थानपर जाता है, पर मृतक शरीर इष्ट स्थानपर नहीं जा भा सकता । दाँतोंसे काटना, मारना पीटना, तलवार बन्दूक लाठी चलाकर दूसरेका घात करना, पूजा-प्रक्षाल करना, सत्पात्रों को दान देना, लिखना, केशलोंच करना, देखना, सुनना, सूंघना, बोलना, प्रश्नउत्तर करना, शराब पीना, मांस खाना आदि क्रियाएँ यदि अजीव तत्त्वको ही हैं तो इन क्रियाओं द्वारा आत्माको सम्मान, अपमान, दण्ड, जेल आदि क्यों भोगना पड़ता है ? तथा स्वर्ग-नरक बादि क्यों जाना पड़ता है ?
अणुव्रत महाव्रत, बहिरङ्ग लप, समिति आदि जीवित शरीरसे ही होते हैं, भगवान् ऋषभदेवने १००० वर्ष तक तपस्या शरीर द्वारारा की थी । अर्हन्त भगवान्का विहार तथा दिव्यध्वनि शरीर द्वारा ही होती है ।
कायवाङ्मनः कर्म योग: ( ६-१ ० सू० ) इस सूत्र के अनुसार कर्मास में शरीर तथा तत्सम्बन्धी वचन एवं द्रव्यमन कारण हैं। अजीवाधिकरण आस्रवका कारण है । वह भी जीवित शरीरके अनुसार है । जीवित शरीरसे ही उपदेश दिया जाता है, प्रवचन किया जाता है, शास्त्र लिखा जाता है, प्रवचन सुना जाता है !
आपने जो अपने कथन की पुष्टिमें श्री पं० बनारसीदास जीके नाटक समयसार कलश तथा परमात्मप्रकाशके पद्योंका अवतरण दिया है। उनका आशय तो केवल इतना है कि मिध्यादृष्टि मात्र अपनी शारीरिक क्रियासे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। फिर भी बहिरात्माका शरीर द्वारा बालतपसे स्वर्गगमन होता ही है। तथा असत् शारीरिक क्रियाओं द्वारा संसारभ्रमण होता है। जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है । ( त० सू० ६-२० )
वचवृषभनाराच संहननवाले जीवित शरीरसे शुक्लध्यान होकर मुषित होती है, उसी संहननवाले शरीरसे तीतम पापमयी क्रिया द्वारा सातवां नरक भी मिलता है ।
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७८
जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा पञ्चास्तिकायफी गाथा १७१ की टीकामें लिखा हैसंहननादिशक्त्यभावात् शुद्धात्मस्वरूपे स्थातुमशक्यत्वात् वर्तमानभवे पुष्यबन्धं करोति ।
अर्थ-शारीरिक संहननशक्तिके अभादसे शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थिर न हो सकनेके कारण वर्तमानभव, पुण्यबन्ध करता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने रयणसारमें कहा है
दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा ॥११॥ अर्थ-दान करना और पूजा करना थावक धर्ममें मुख्य है, उनके बिना श्रावक नहीं होता ।।११।। कुन्दकुम्दाचार्यका बतलाया हुआ यह धर्म जीवित शरीर द्वारा ही होता है।
अन्तमें आपने स्वयं अशुभ, शुभ और शुद्धभावोंका नोकर्म शरीरको निमित्तकारण मान लिया है, किन्तु निराधार उपचार शब्दका प्रयोगकर अर्थान्तर करनेका प्रयास किया है।
शंका २ जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं ?
प्रतिशंका २ का समाधान प्रतिशंका नं० २ को उपस्थित करते हुए तस्वार्थसूत्र प६, सू० १, ६ व ७ तथा पंचास्ति० गा० १७१ और रयणसार मा० ११ को प्रमाणरूपमें उपस्थित कर तथा कतिपय लौकिक उदाहरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है कि जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है।
यह तो सुविमित सत्य है कि आगममें निश्चयरलषयको यथार्थ धर्म कहकर उसके साथ जो देवादिकी श्रता, संयमासंयम और संयमसम्बन्धी प्रतादिमें प्रवृत्तिरूप परिणाम होता है उसे व्यवहार धर्म कहा है। और सम्यग्दृष्टिके शरीरमें एकत्वबुद्धि नहीं रहती । यदि कोई जीव शरीरमें एकत्यबुखि कर शरीरको क्रियाको आत्माकी क्रिया मानता है तो उसे अप्रतिबुद्ध कहा है । यहाँ ( समयसारमें ) कहा है
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं ।
जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।। १९ ॥ अर्थ-कर्म और नोकर्म ( देहादि तथा शरीरको क्रिया ) में मैं हूँ, तथा मैं कर्म-नोकर्म है 'जो ऐसी बुद्धि करता है तबतक वह अप्रतिबद्ध है ।। १९ ॥ इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गाथा १६० में भी कहा है
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि ।
कत्ता ण कारयिदा अणुमंता णेब कत्तीणं ।। १६० ।। अर्थ-मैं न देह हूँ, न मम हूँ और न वाणी है। उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं है, कारयिता नहीं हूँ और कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।। १६ ।।
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वांका २ और उसका समाधान
इसकी टोकामें कहा है
शरीरं च वाचं च मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्ये । ततो न तेषु कश्चिदपि मम पक्षपातोऽस्ति । सर्वत्राप्यहमत्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । तथाहि न खल्वहं शरीरवाङ मनसां स्वरूपाधारभूतमवेतनद्रव्यमस्मि । तानि खलु मां स्वरूपाधारमन्तरेणाप्यात्मन: स्वरूप धारयन्ति । ततोऽहं शरीर-चाङ मनःपक्षपातमपास्यात्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । इत्यादि ।।
अर्थ-म शरीर, वाणी और मनको परद्र ब्यके रूपमें समझता है, इसलिए मुझे उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है। मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हैं। यथा-यास्तव में मैं शरीर, वाणी और मनके स्वरूपका आधारभूत अधेतन द्रव्य नहीं हूँ। मेरे स्वरूपाधार हुए विना ही वे वास्तघमें अपने स्वरूपको धारण करते है । इसलिए मैं शरीर, वाणी और मनका पक्षपात छोडकर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। आगे पुनः लिखा है
देहो य मणो वाणी पोग्गलदस्यप्पग ति णिष्ट्ठिा ।
पोग्गलदव्यं हि पुणो पिंडो परमाणुदवाण ॥१६१।। अर्थ-देह, मन और वाणी पुद्गलमव्यात्मक है ऐसा जिनदेवने कहा है । और वे पुद्गलद्रव्य परमाणु द्रव्योंका पिण्ड है ।।१६१॥
प्रवचनसार गाथा १६२ तथा नियमसारमें भी यही स्वीकार किया गया है, इसलिए इनका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता यह तो कहा नहीं जा सकता।
प्रतिशंका २ द्वारा श्री तत्त्वार्थसूत्र आदिके उद्धरण देकर जो जीवित शरीरसे धर्मकी प्राप्तिका समर्थन किया गया है सो वह आसवफा प्रकरण है। उस अध्यायमें धर्मका निर्देश नहीं किया गया है । उसमें भी जहाँ कहाँ निमित्तकी अपेक्षा निर्देश भी आ सो निमित्त तो अनेक पदार्थ होते हैं तो क्या इतने मात्रसे उन सबसे धमकी प्राप्ति मानी जायगी। शरीर आदि पदार्थों को जहां भी निमित्त लिखा है सो वह विजातीय असद्भूत व्यवहार नयकी अपेक्षा ही निमित्त कहा है। इसी तथ्यको स्वीकार करते हुए सोलापूरसे मुटित नयचक्र पृ० ४५ में इन शब्दों द्वारा स्वीकार किया है---
शरीरमपि यो जीवं प्राणी प्राणिनो वदति स्फुटम् ।
असद्भूतो विजातीयो ज्ञातव्यो मुनिवाक्यतः ॥ १ ॥ अर्थ-जो प्राणियोंके शरीरको भी जीव कहता है उसे जिनदेवके उपदेशानुसार विजातीय असद्भूत व्यवहार जानना चाहिए ॥१॥ स्वयंभस्तोत्रमें थी वासुपूज्य भगवान्को स्तुति करते हुए कहा है
यवस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेः निमित्तमाभ्यन्तरमूलहेतोः।
अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमाभ्यन्तरं केवलमप्यल ते॥५९।। अर्थ-आम्यम्तर अर्थात उपादानकारण जिसका मूल हेतु है ऐसी गुण और दोषोंकी उत्पत्तिका जो बाह्म वस्तु निमित्तमात्र है. मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुए जीबके लिए वह गौण है, क्योंकि हे भगवन् ! आपके मतमें उपादान हेतु कार्य करने के लिए पर्याप्त है ।।५९॥
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
तात्पर्य यह है कि जो अपने उपादानको सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार कार्य काल में निमित्त अवश्य ही मिलते । ऐसा नहीं है कि उपादान अपना कार्य करने के सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल ऐसे निमित्त न मिलें। इस जीवका अनादिकालसे पर द्रव्यके साथ संयोग बना चला आ रहा है, इसलिए वह संयोगकाल में होने वाले कार्योंको जब जिस पदार्थका संयोग होता है उससे मानता आ रहा है, यही इसकी मिथ्या मान्यता है। फिर भी यदि जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म माना जावे तो मुनिके ईसे गमन करते समय कदाचित् किसी जीवके पगका निमित्त पाकर भरनेपर उस क्रिया से मुनिको भी पापबन्ध मानना पड़ेगा । पर ऐसा नहीं है। जिनागममें कहा भी है
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वियोजयति चासुभिनं च वधेन संयुज्यते ।
- सर्वार्थसिद्धि ७-१३
दूसरेको निमित्तकर दूसरे के प्राणोंका वियोग हो जाता है, फिर भी वह हिंसाका भागी नहीं होता ।
अत एव प्रत्येक प्राणी के अपने परिणामोंके अनुसार हो पुण्य, पाप और धर्म होता है, जीवित शरीर की क्रिया के अनुसार नहीं यही यहाँ निर्णय करना चाहिए और ऐसा मानना ही जिनागमके अनुसार है ।
वृतीय दौर
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शंका २
जीवित शरीरकी क्रिया से आत्मामें धर्मं अधर्म होता है या नहीं ?
प्रतिशंका ३
इसके उत्तरमें आपने यह लिखा कि 'जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यको पर्याय होनेके कारण उसका अजीव तत्वमें अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्म भाव है और न अधर्मभाव ही हैं। मात्र जीवित शरीरको क्रिया धर्म नहीं ।'
इस उत्तरमें आपने जीवित शरीर की क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं, इस मूल प्रश्नको तो हुआ नहीं, सिर्फ़ इतना लिख दिया कि शरीरकी क्रिया धर्म अधर्म नहीं है । जैसा कि हमने पूछा हो कि जीवित शरीरकी क्रिया धर्म है या अधर्म ?
यह सर्वविदित है कि धर्म और अधर्म आत्माको परिणतियाँ है और वे आत्मामें हो अभिव्यक्त होते हैं । परन्तु उनके अभिव्यक्त होने में जीवित शरीरको क्रियाएँ निमित्त पड़ती है। यदि ऐसा न हो तो शरीर द्वारा होनेवाली समीचीन और असमीचीन प्रवृत्तियाँ निरर्थक हो जावें। कार्यकी सिद्धिमें निमित्त और उपादान—दोनों कारण आवश्यक हैं, परन्तु केवल उपादानकी मान्यता शास्त्र सम्मत कार्य-कारण व्यवस्था पर कुठाराघात कर रही है ।
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शंका २और उसका समाधान आपने नाटक समयसारके दीई उद्धृत करते हुए 19 स चरीको विले, धर्म माननेवाले मिध्यादृष्टिका उल्लेख किया है सो उससे प्रश्नका समाधान नहीं होता, क्योंकि शरीरको क्रियाको तो सर्वथा हम भी धर्म-अधर्म नहीं मानते। हमारा अभिप्राय तो यह है कि आत्माको धर्म और अधर्म परिणसिमें जीवित शरीरकी क्रिया निमित्त है, जिसे आप निमिस या उपचार मात्र कहकर अवस्तुभूत-असत्यार्य सिद्ध करना चाहते हैं, पर क्या वास्तवमें यह सब अवस्तुभूत है ? यदि अवस्तुभूत ही है तो मोक्षप्राप्सिके लिए कर्मभूमिज मनुष्यका देह और ज्यानको सिद्धिके लिए उत्तम संहनन आदिको अनिवार्यता शास्त्र संमत नहीं रह जायगी।
बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। नवान्यथा मोविधिश्च पुंसां तेनाभिकन्धस्त्वमृषिर्बुधानाम् ॥६॥
-स्ययंभूस्तोत्र समन्तभन्न स्वामीके इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि कार्यको उत्पत्ति में बाह्य और आभ्यन्तर दोनों कारणोंको पूर्णता आवश्यक है । द्रव्यका-पदार्थका कार्योत्पत्ति के विषयमें यही स्वभाव है । अन्यया-मात्र बाह्य या आभ्यन्तरके ही कारण माननेपर पुरुषके मोक्षकी सिद्धि नहीं हो सकती।
स्वयंभूस्तोत्रके इससे पूर्ववर्ती श्लोक-'यबस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेः' का जो अर्थ आपने अपने प्रत्युत्तरमें किया है उससे बातरोपाधि-लोकके साथ पूर्यापर विरोध प्रतीत होता है, इसलिए हमारी दृष्टिसे यदि उसका निम्न प्रकार अर्थ किया जाय तो उससे पूर्वापर विरोध ही दूर नहीं होता, बल्कि संस्कृत टीकाकारके भावकी भी सुरक्षा होती है ।
अर्थ--गुण-दोषको उत्पत्तिमें जो बाह्य वस्तु निमित्त है वह चूंकि अध्यात्मवृत्तमात्मामें होनेवाले शुभाशुभ लक्षणरूप अन्तरंग मूल कारणका अंगभूत है-सहकारी कारण है, अतः केवल अन्तरंग भी कारण कहा जा सकता है।
फिर यह पान की विशेषताको लक्ष्यमें रखकर कथन किया गया है, अतः इससे कार्यकारणकी व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता । पात्रकी विशेषताको दृष्टि में रखकर किसी कथनको विवक्षित-मुख्य और अविवक्षित-गौण तो किया जा सकता है । परन्तु उसे अवस्तुभूत-अपरमार्थ नहीं कहा जा सकता।
धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मणः ।
अङ्गित्वेज्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता ।।२२॥ -अष्टसहस्री समन्तभद्र स्वामीने अंग शब्दका प्रयोग किया है, जिसका अर्थ टीकाकारने--- शेषान्तानां स्याच्छन्दसूचितान्यधर्माणां तदंगता तद्गुणभावः । पंमित में गौण अर्थ किया है और गौणका अर्थविवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽज्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते ।
-स्वयंभूस्तोत्र ५३ श्लोक द्वारा अविवक्षित बतलाया है, परन्तु अविवक्षितको निरात्मक-असद्भूत नहीं बतलाया ।
तत्वार्थसूत्रके उद्धरणोंके विषयमें आपने लिखा सो उसका स्पष्टीकरण यह है कि मूल प्रश्नमें धर्मअधर्म दोनोंकी चर्चा है, न केवल धर्म को। वहाँ अभिप्राय मात्र इतना है कि कार्यसिद्धि में पर पदार्थ कारण पड़ता है या नहीं। उसकी और आपकी समन्वयात्मक दृष्टि नहीं मई मालूम होती है ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
आगे आप लिखते हैं कि 'जो उपादानकी सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार कार्य - कालमें निमित्त अवश्य मिलते है। ऐसा नहीं है कि उपादान अपना कार्य करने के सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल ऐसे निमित्त न मिलें। सो आपका ऐसा लिखना आगम विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि धवला पु० १ पृ० १५० पर
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निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः उक्तञ्च
सिद्धत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा । उमलविगमे नियमो ताणं कणगोवलाणमिव ॥
इस गाथाका अर्थ लिखते हुए लिखा है कि जिसने निर्वाणको पुरस्कृत किया है उसको मध्य कहते हैं। कहा भी है- जो जीब सिद्धत्वके योग्य हैं उन्हें भव्य कहते हैं, किन्तु उनके कनकोपलके समान मलका नाश होनेका नियम नहीं है ।
इसके विशेषार्थ में पं० फूलचन्द्र जी ने स्वयं लिखा है
सिद्धत्व की योग्यता रखते हुए भी कोई जीव सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं और कोई जीव सिद्ध अवस्थाकी नहीं प्राप्त कर सकते हैं । जो भव्य होते हुए भी सिद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं कर सकते हैं उनके लिए यह कारण बतलाया है कि जिस प्रकार स्वर्ण पाषाणमें सोना रहते हुए भी उसका अलग किया जाना निश्चित नहीं है उसी प्रकार सिद्ध अवस्थाकी योग्यता रखते हुए भी तदनुकूल सामग्री के न मिलनेसे सिद्ध पदवी प्राप्त नहीं होती है।
इस प्रकार यह स्वीकार किया गया है कि भव्य जीवमें योग्यता होते हुए भी उपदेश आदि सामग्री रूप निमिलोंके न मिलनेसे सिद्धपदकी प्राप्ति नहीं होती। इसीके लिए शीलवती विधवा स्त्री का दृष्टान्त दिया गया है । जिस प्रकार शीलवती विषवा स्त्री में पुत्र उत्पन्न करने की योग्यता तो है. किन्तु पतिका मरण हो जाने के कारण पतिरूप निमित्तका संयोग न मिलने से पुत्रोत्पत्ति नहीं होती ।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं कि उपादान में योग्यता है, परन्तु निमित्त न मिलनेसे कार्य नहीं होता । वर्णो ग्रन्थमालासे प्रकाशित तस्वार्थसूत्रके ० २१८ पर पं० फूलचन्द्रजीने स्वयं इस प्रकार लिखा है
जो कारण स्वयं कार्यरूप परिणम जाता है वह उपादान कारण कहलाता है। किन्तु ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य उपादान कारण और निमित्तकारण इन दोके मेलसे होता है, केवल एक कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती छात्र सुबोध है पर अध्यापक या पुस्तकका निमित्त न मिले तो वह पढ़ नहीं सकता । यहाँ उपादान है किन्तु निमित्त नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ। छात्रको अध्यापक या पुस्तकका निमित्त मिल रहा है पर वह मन्दबुद्धि है, इसलिए भी वह पढ़ नहीं सकता । यहां निमित्त है किन्तु उपादान नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ । निमित्तके बिना केवल उपादानसे ariat उत्पत्ति नहीं होती ।
इस प्रकार जब यह स्वीकार किया जा चुका है कि उपादान उपस्थित हैं, किन्तु निमित्त नहीं है, इसलिए कार्य नहीं हुआ, इसके विरुद्ध आपको ऐसा नहीं कि उपाशन अपना कार्य करनेके सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल निमित्त न मिलें, इस बातको कौन ठीक मान लेगा ?
प्रत्यक्षमें देखा जाता है कि मनुष्य देखना चाहता है, किन्तु मोतियाबिन्द आ जानेसे अथवा अन्य कोई चीजकी जड़ आ जानेसे नहीं देख सकता । चलना चाहता है पर लकवा मार जानेसे चल नहीं सकता !
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शंका २ और उसका समाधान चिसकी स्थिरतारूप ध्यानके बिना मोक्षा नहीं हो सकता और चिप्सकी स्थिरता शरीर बलके बिना नहीं हो सकती । कहा भी है-- विशिष्ट संहननादिशक्त्यभावानिरन्तरं तत्र स्थातुं न शक्नोति ।
-पम्चास्तिकाय गाथा १७० की टीका अर्थात् विशिष्ट शक्तिके अभावके कारण निजस्वभावनिरन्तर नहीं ठहर सकता । इसी बातको पं० फुलचन्द्रजीने तत्वार्थसूत्रकी टीकामें लिखा है
चित्तको स्थिर रखनेके लिए आवश्यक शरीरबल अपेक्षित रहता है जो उक्त तीन संहननवालोंके सिवा अन्यके नहीं हो सकता।
अतः मोक्षमार्ममें शरीरबल अपेक्षित रहता है अर्थात् शरीरबलरूप निमित्त के बिना मुक्ति नहीं हो सकती। पाचपुरागामें कहा भी है
यह तन पाय महा तप कीजे यामें सार यही है । मात्र शरीरकी किंगासे धर्म-अधर्म नहीं होता सा एकान्त नियम भी नहीं है, क्योंकि कहीं-कहीं मात्र शरीरकी क्रियासे भी धर्म-अधर्म होता है। जैसे कि मात्र शरीरकी चेष्टासे संयमका छेद होना । प्रवचनसारकी गाथा २११-२१२ की टीका देखिये
द्विविधः किल संयमस्य छेदः-बहिरङ्लोऽन्तरङ्गश्च । तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरंगः, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरङ्गः । तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमारब्धायाः कायचेष्टायाः कथंचिद्बहिरङ्गच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वथान्तरङ्गच्छेदवजितत्वादालोचनपूर्विकया क्रिययेव प्रतीकारः । यदा तु म एवोपयोगाधिकृतच्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धधमणाश्रयालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ।
अर्थ-संयमका छेद दो प्रकारका है-बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टासम्बन्धी बहिरंगच्छेद है और उपयोगसम्बन्धी अन्तरंग छेद है। उसमें यदि भलीभाँति उपयुक्त श्रमणके प्रयत्नात कायचेष्टाका कथंचित् बहिरंगच्छेद होता है तो वह सर्वथा अन्तरंग छेदसे रहित है इसलिए आलोचना पूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार होता है, किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसम्बन्धी छेद होनेसे साक्षात् रुंदमें ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहार विधिमें कुशल श्रमणके आश्रयसे, भालोचनापूर्वक, उनसे उपदिष्ट अनुष्ठानद्वारा प्रतिसंधान होता है ।
इस प्रकार प्रवचनसारके उक्त उल्लेखसे यह सिद्ध है कि मात्र कायथेष्टासे भी अधर्म होता है । यह ही बात श्री १०८ मणिमालीकी कथासे भी सिद्ध होती है कि मात्र शरीरको क्रियासे कायगुप्तिरूपी संयमका छेव हो गया। वह कथा इस प्रकार है-श्री १०८ मणिमाली मुनिराज विहार करते हुए एक दिन उज्जयिनी पहुँचे और वहाँकी श्मशान भूमिमें ध्यानकी सिद्धि निमित्त मिश्चलरूपसे स्थिर हो गये। उसी समय एक कोरिया मंत्रवादी महायताली विद्या सिद्ध करनेके लिए वहां आया । ध्यानमें स्थित मुनि महाराजके शरीरको उसने मुका शरीर समझा । कहीं से वह एक दूसरा मस्तक उठा लाया और पीछेसे मुनिराजके मस्तकके साथ जोड़ दिया। खीर पकाने के लिए उस कोरिवाने एक मस्तकका चूला बनाया और अग्नि जला दी । अग्निके तापसे मुनि महाराजकी नसें संकुचित हो गई, जिससे उनके दोनों हाथ ऊपरको उठ गये। इससे
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उनकी कायगुप्ति भंग हो गई । (महारानी चेलनाचरित्र पृ० ११२, सूरतसे प्रकाशित वीर सं० २४८६) ।
अब यह बात सिद्ध की जाती है कि मात्र शरीरको क्रियासे ऐसा धर्म होता है जो सर्व कर्मक्षयका व संसार विच्छेदका कारण है।
यह तो सुनिश्चित ह कि कंबलो जिनके मोह राग द्वेषका अभाव है, इसलिए उनके जो पुण्योदयसे चलने बैठने तथा उपदेश देने रूप शारीरिक क्रिया होती है यह बन्धका कारण नहीं होती, अपि तु कथंचित् क्षायिकी होनेसे मोक्ष का कारण होती है। प्रवचनसारमें श्री कुन्दकुन्द स्वामीने कहा भी है
पुण्णफला अरहता तेसि किरिया पुणो हि ओदया।
___ मोहादीहि विरहिमा तम्हा सा खाइय ति मदा ॥४५॥ अर्थ-पुण्यफलवाले अरहन्त हैं और उनको क्रिया भौयिकी है । अरहन्त भगवान् मोहादिसे रहित हैं, इसलिए उनकी क्रिया क्षायिकी मानी गई है ।
इसकी टीका भी अमृतचन्द्र मूरिने लिखा है
मोह-राग-द्वेषरूपाणामुपरञ्जकानामभावाच्चैतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती नित्यमीदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया कायंभूतस्य मोक्षास्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत !
अर्थ-मोह-राग-द्वेषरूपी उपरजकों (धिकारी मावों) का अभाव होनेरी अरहन्त भगवान्की बिहार आदि क्रिया चैतन्य विकारका कारण नहीं होती, इसलिए कार्यभूत बन्धकी अकारणभूततासे और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूततासे क्षायिको ही क्यों नहीं माननी चाहिए, अर्थात् अवश्य माननी चाहिए ।
केवली भगवान्के वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मको स्थिति यदि आयुकर्मकी स्थितिसे अधिक होती है तो वेदनीय आदि तीन कमौकी अधिक स्थितिका नाश करनेके लिए उस सूप प्रयत्न या उपयोगके बिना ही केवलीसमुचात होता है, क्योंकि इन तीन कर्मोकी अधिक स्थितिका नाश हुए बिना संसारका विच्छेद नहीं हो सकता।
श्री पवलसिद्धान्त १०२५०३०२ में कहा भी हैसंसारविच्छित्तो कि कारणम् ? द्वादशांगावगमः तत्तीवभक्तिः केवलिसमुद्धातोऽनिवृत्ति
परिणामाश्च ।
अर्थ संसार पिछेदका क्या कारण है : द्वादशांगका ज्ञान, उनमें तीवभक्ति, केवलिसमुद्धात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार विच्छेदके कारण हैं ।
चार घातिया कर्मोका नाश हो जानेसे केथलि जिनका उपयोग स्थिर हो जाता है । किसी भी शारीरिक क्रियाके लिए उस रूप प्रयत्न या उपयोगकी आवश्यकता नहीं होती, विन्तु वे क्रियाएँ स्वाभाविक होती है, अतः केवलिसमुद्धातरूप क्रिया भी स्वाभाविक होती है जो संसार विच्छेदका कारण है । संसार विच्छेदका जो भी कारण है वह सब धर्म है ।
इस प्रकार उपयुक्त प्रमाणोंसे यह सिद्ध हो गया कि धर्म-अधर्ममें शरीरकी क्रिया सहकारी कारण तो है ही, किन्हीं अवस्थाओंमें मात्र शरीरको क्रिया संयमका छेद रूपी अधर्म तथा संसारविच्छेदका कारण रूप धर्म भी होता है।
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शंका २ और उसका समाधान मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
शंका २ जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ?
प्रतिशंका ३ का समाधान
१. प्रथम-द्वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें हमने सर्वप्रथम यह स्पष्ट कर दिया था कि जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है, इसलिए उसका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव होता है । यह न तो जीवका धर्मभाय ही है और न अधर्मभाव ही। दूसरी यह बात स्पष्ट कर दी थी कि इसको नोकर्ममें परिगणना की गयी है। अतएव जीवभावमें यह निमित्तमात्र बहो गयी है। किन्तु निमित्त कथन असद्भूत ब्यवहारनयवा विषय होनसे इस कथनको उपचरित हो जानना चाहिए।
किन्तु अपर पक्ष जीवित शरीरको क्रियाका अजीब तत्त्वमें अन्तर्भाव करनेके लिए तैयार नहीं है । इसका खुलासा करते हुए प्रतिशंका २ में उसका कहना है कि 'जीवित शरीरको सर्वथा मजीव तवमें मान लेने पर जीवित तथा मतक दारीरमें कुछ अन्तर नहीं रह जाता।' इस प्रतिशंकामें अन्य जो भी कथन हुआ है वह इसी आशयकी पुष्टि करता है ।
अतएव इसके उत्तरमें निश्चय-व्यवहार धर्मका स्वरूप बतलाकर हमने लिखा है कि शरीर और शरोरकी क्रिया एकत्र बुद्धि यह अप्रतिबुद्धका लक्षण है अतएव सम्यग्दृष्टि उससे धर्मको प्राप्ति नहीं मानता। अधर्मकी प्राप्ति भी उससे होतो है ऐसी भी मान्यता उसकी नहीं रहती। वह तो कार्यकालमें निमित्तमात्र है।
२. प्रतिशंका ३ के आधारसे विचार हमने प्रथम उत्तरमे ही यह स्पष्टीकरण किया है कि जीवित शरीरकी किया जीवका न धर्म है और न अधर्म ही । इसपर अपर पक्षका कहना है कि यह हमारे मूल प्रश्नका उत्तर नहीं है । समात्रान यह है कि यदि जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म-अधर्मकी प्राप्ति स्वीकार की जाय तो उसे आत्माका धर्म-अधर्म मानना भी अनिवार्य हो जाता है । समयसारमें इन्ध और मोक्षके कारणोंका निर्देश करते हुए लिखा है
भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो।
रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो. णवरि ॥१६७॥ जीवकृत रागादि युक्त भाव नये कर्मका बन्ध करानेवाला कहा गया है । किन्तु रागादिसे रहित भाव बन्धक नहीं है, वह मात्र ज्ञायक ही है ।।१६७११
इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर मुक्ति और संसारके कारणोंका निर्देश करते हुए रत्नकरण्ठश्राधकाचारमें भी कहा है
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । rateप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ||३||
तीर्थंकरादि गणधर देवोंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको धर्म कहा है तथा इनसे उलटे मिथ्यादर्शनादि तीनों संसारके कारण हूँ ||३|| -
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इन प्रमाणोंसे स्पष्ट हैं कि जो धर्म और अधर्मके कारण हैं वे स्वयं धर्म और अधर्म भी है । यतः अपर पक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म और अधर्मकी प्राप्ति मानता है अतः उस पक्ष के इस कथनसे जीवित शरीरकी क्रिया भी स्वयं धर्म-अधर्म सिद्ध हो जाती । यही कारण है कि मूल प्रश्नके उत्तरके प्रारम्भमें ही हमने यह स्ट्रीकरण करना उचित कर कि आजित शरीरकी क्रिया न तो स्वयं आत्माका धर्म ही है और न अधर्म ही । अपर पक्ष ने अपनी इस प्रतिशंका ३ में विधिमुखसे यह तो स्वीकार कर लिया है कि 'धर्म और अधर्म आत्माको परिणतियाँ हैं और वे आत्मामें ही अभिव्यक्त होते हैं।' किन्तु निषेध मुखसे वह पक्ष यह और स्वीकार कर लेता कि जीवित शरीरको क्रिया न तो स्वयं धर्म है और न अधर्म हो, तो उस पक्ष के इस कथन से यह शंका दूर हो जाती कि वह पक्ष अपनी भूल शंका द्वारा कहीं जीवित शरीरकी क्रियाको ही तो धर्म-अधर्म नहीं ठहराना चाह रहा है । यतः इस शंकाका निर्मूलन हो जाय इसी भावको ध्यान में रखकर हमने प्रथम उत्तरके प्रारम्भ में यह खुलासा किया है कि जीवित शरीरकी क्रिया न तो स्वयं आत्माका धर्म है और न अधर्म ही ।
अपर पक्षका कहना है कि आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होने में जीवित शरीरकी क्रियाएँ निमित्त हैं सो इसको हमारी ओरसे अस्वीकार कहाँ किया गया है। अपने दोनों उसरों में हमने इसे स्पष्ट कर दिया है। किन्तु शरीर द्वारा होनेवाली समीचीन और असमीचीन प्रवृत्तियोंके सम्बन्धमें यह खुलासा कर देना आवश्यक है कि आत्माके शुभाशुभ परिणामोंके आधारपर ही उन्हें समीचीन और असमीचीन कहा जाता है । वे स्वयं समीचीन और असमीचीन नहीं होतीं। यदि वे स्वयं समीचीन और असमीचीन होने लगें तो अपने परिणामोंके सम्हालकी आवश्यकता ही न रह जाय । सागारधर्माभूत अ० ४ में इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है
विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्षत |
भावे साधनो बन्ध-मोक्षी चेन्नाभविष्यताम् ॥ २३ ॥
यदि बन्ध और मोक्ष के भाव ही एकमात्र कारण न हों तो जीवोंसे व्याप्त पूरे लोकमें कहीं विचरता हुआ कोई भी प्राणी मोक्ष को प्राप्त करे ||२३||
इसी तथ्यको स्पष्ट करनेवाला सर्वार्थसिद्धिका यह वचन भी लक्ष्य में लेने योग्य है। उसके छठे अध्याय सूत्र तीनमें कहा है-
कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ? शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः अशुभ परिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः । शंका- योगका शुभाशुभपना किस कारण से है ?
समाधान —जो योग शुभ परिणामोंको निमित्त कर होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामोंको निमित्त कर होता है वह अशुभ योग हूँ ।
इससे स्पष्ट है कि जीवित शरीरकी क्रिया स्वयं समोचीन और असमीचीन नहीं हुआ करती, किन्तु शुभाशुभ परिणाम के आधारसे उसमें समीचीन और असमीचीनपनेका व्यवहार किया जाता है ।
जीवके
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शंका २ और उसका समाधान हमें विश्वास है कि इस स्पष्टीकरणके आधारपर अपर पक्ष जीवित शरीरकी क्रियाओंके स्वयं समीचीन और असमीचीन होनेके विचारका त्यागकर अपने इस विचारको मुख्यता देगा कि प्रत्येक प्राणीको मोक्षके साधनभूत स्वभाव सन्मुख हुए परिणामोंकी सम्हालमें लगना चाहिए । संसारके छेदका एकमात्र यही भाव मूल कारण है, अन्यथा संसारफी ही वृद्धि होगी।
बाह्य क्रिया धर्म नहीं है इस अभिप्रायकी पुष्टि में ही हमने नाटक समयसारके वचनका उल्लेख किया था।
अपर पक्षका कहना है कि क्रियाको तो सर्वधा धर्म-अधर्म हम भी नहीं मानते । तो क्या इस परसे यह आशय फलित किया जाय कि अपर पक्ष जीवित शरीरको क्रियाको कथंचित धर्म-अधर्म मानता है ? यदि यही बात है तो अपर पक्षके इस कथनकी कि 'धर्म और अधर्म आत्माकी परिणतियाँ हैं और वे आत्मामें हो अभिव्यक्त होते हैं क्या सार्यकता रही? इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। यदि यह बात नहीं है तो उस पक्षको इस बातका स्पष्ट खुलासा करना था।
यह तो अपर पक्ष भो जानता हूं कि निमित्त और कारण पर्यायवाची रांज्ञाएँ हैं। वह बाह्म भी होता है और आभ्यन्तर भो । उनमें-से आभ्यन्तर निमित्त कार्यका मुख्य-निश्चय हेतु है । यही कारण है कि आचार्य समन्तभदने स्वयंभूस्तोत्र कारिका ५९ में मोक्षमार्गमें बाह्य निमित्तकी गौणता बतलाकर आभ्यन्तर हेतुको पर्याप्त कहा है। इस कारिकामें आया हुआ 'अंगभूतम्' पद गोणपनेका ही सूचक है और तभी 'अभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते' इस वचनकी सार्थकता बन सकती है। 'अंगभूत' पदका अर्थ 'गौण' है इसके लिए अष्टसहस्री पृ० १५३ 'तदंगता तद्गुणभावः' इस बननपर दुष्टिपात करना चाहिए।
अपर पक्षाने जीवित शरीरको क्रियाको आत्मा धर्म-अधर्म में निमित्त स्वीकार करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें दोनों कारणोंको पूर्णता आवश्यक है और इसके समर्थनमें स्वयंभूस्तोत्रका 'बाह्येतरोपाधिसमनतेयम्' बचन उक्त किया है । किन्तु प्रकृतमें विचार यह करना है कि मोक्ष दिलाता कौन है ? क्या शरीर मोक्ष दिलाता है या वजवृषभनाराचसंहनन या शरीरकी क्रिया मोक्ष दिलाती है ? मोक्षकी प्राप्तिमें विशिष्ट कालको भी हेतु कहा है। क्या यह मोठा दिलाता है ? यदि यही बात होती तो आचार्य गृपिचछ तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।' १-१ इस सूत्रकी रचना न कर इसमें बाह्याभ्यन्तर सभी सामग्रोका निर्देश अवश्य करते। क्या कारण है कि उन्होंने बाह्य सामग्रीका निर्देश न कर मात्र आभ्यन्तर सामग्रीका निर्देश किया है, अपर पक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए। किसी कार्यको उत्पत्ति के समय आभ्यन्सर सामग्रीकी समग्रताके साथ बाह्य सामग्रीकी समग्रताका होना अन्य बात है और आभ्यन्तर सामग्रीके समान ही बाह्म सामग्रीको भी कार्यकी उत्पादक मानना अन्य बात है । अन्तरं महदन्तरम् । इस महान अन्तरको अपर पक्ष ध्यानमें ले यही हमारी भावना है। यदि वह इस अन्तरको ध्यान में ले ले तो उस पक्षको यह हृदयंगम करनेमें सुगमता हो जाय कि हम बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण और आभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचरित कारण ययों कहते हैं । यह तो कोई भी साहस पूर्वक कह सकता है कि आत्मसम्मुख हुआ आत्मा रत्नत्रयको उत्पन्न करता है और रत्नत्रयपरिणत आत्मा मोक्षको उत्पन्न करता है, परन्तु यह बात कोई साहसपूर्वक नहीं कह सकता कि जीवित शरीरकी किया रत्नत्रय या मोक्षको उत्पन्न करती है । सर्वार्थ सिद्धि अ० १ ० १ में सम्यक्चारित्रका लक्षण करते हुए लिखा है
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जयपुर ( खनिया ) तस्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा संसारकारणनिवृत्ति प्रत्यागूणस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यक्पारित्रम् ।
संसारके कारणकी निवृत्ति के प्रति उद्यत हुए ज्ञानी पुरुषके कर्मके ग्रहणमें निमित्तभूत क्रियाका उपरत होना सम्पकचारित्र है।
यह आगम वचन है। इससे तो यही विदित होता है कि रागमूलक या मोगमूलफ जो भी क्रिया होती है यह मात्र बन्धका हेतु है । अब अपर पक्ष ही बतलावे कि उक्त क्रियाके सिवाय और ऐसी शरीरकी कौन-सी क्रिया बचती है जिसे मोश्चका हेतु माना जाय । हमने मो जीवित शरीरको क्रियाको धर्म-अधर्मका निमित्त कहा है | किन्तु उसका इतना ही माशय है कि बाह्य विषयमें इष्टानिष्ट बुद्धि होने पर उसके साथ जो भी शरीरको क्रिया होती है उसे उपचारसे अवर्मका निमित्त कहा जाता है और इसी प्रकार आत्मसम्मुख हुए जीवके धर्मपरिणतिने कालमें शरीरको जो भी क्रिया होती है उसे उपचारसे धर्मका निमित्त कहा जाता है। इसी प्रकार देव-गुरु-शास्त्रको लक्ष्यकर शुभभावके होने पर उसके साथ जो भी क्रिया होती है उसे उपचारसे उसी भावका निमित्त कहा जाता है।
___आचार्य विद्यानन्दिने तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ० ६५ में 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए बतलाया है कि विशिष्ट सम्बादर्शन-ज्ञान-चारित्र ही साक्षात् मोक्षमार्ग है । इसपर शंका हुई कि इस प्रकार अवधारण करने पर एकान्तकी प्रसक्ति होती है। तब इसका समाधान करते हुए वे क्या लिखते है इस पर ध्यान दोजिए
___ मन्येवमप्यवधारणे तदेकान्तानुषंग इति चेत् ? नायमनेकान्तवादिनामुपालम्भः, नयार्पणादेकान्तस्येष्टत्वात्, प्रमाणार्पणादेवानेकान्तस्थ व्यवस्थितेः।
शंका-इस प्रकार भी अवधारण करने पर उस (मोक्षमार्ग) के एकान्तका अनुषंग होता है ?
समाधान-नहीं, यह एकान्तवादियोंका उपालम्भ ठीक नहीं, क्योंकि नय (निश्चयनय) की मुख्यतामें ऐसा एकान्त हमें इष्ट है । प्रमाणको मुख्पतासे ही अनेकान्तको व्यवस्था है ।।
कथंचित् सम्यग्दर्शन आदि एक-एकको और साथ ही कथंचित् सम्यग्दर्शनादि तीनोंको मिलाकर युगपत् मोक्षका कारण कहना यह प्रमाणबुष्टि है। निश्चवनय दृष्टि तो यही है कि सम्यग्दर्शनादि तीनरूप परिणत आत्मा ही मोसका साक्षात् कारण है । इसी तथ्यको श्लोकवातिकके उक्त वचन द्वारा स्पष्ट किया गया है।
यह प्रमाणदृष्टि और निश्चयनयदृष्टिका निर्देशक वचन है । इससे हमें यह सुस्पष्ट रूपसे ज्ञात हो जाता है कि सम्यग्दर्शनादि एक-एकको मोक्ष का कारण कहना यह सद्भूत होकर भी जब कि व्यवहारनयका सूचक वचन है। ऐसी अवस्थामें विशिष्ट काल या शरीरकी क्रियाको उसका हेतु कहना यह तो असद्भूतव्यवहार वचन ही ठहरेगा । इसे यथार्थ कहना तो दो द्रव्योंको मिलाकर एक कहने के बराबर है ।
अपर पक्षका कहना है कि 'मात्र बाह्म या आभ्यन्तरके ही कारण माननेपर पुरुषके मोक्षको सिसि नहीं हो सकती।' आदि ।
समाधान यह है कि जिस समय जो कार्य होता है उस समय उसके अनुकूल आभ्यन्तर सामग्रीको समग्रताके समान बाह्य सामग्रीकी समग्रता होती है। इसीका नाम द्रध्यगत स्वभाव है । किन्तु इन दोनों मेंसे किसमें किस रूपसे कारणता है इसका विचार करनेपर विदित होता है कि बाह्य सामग्रीमें कारणता असद्भूत व्यवहारनयसे ही बन सकती है। आभ्यन्तर सामग्री में कारणताको जिस प्रकार सद्भुत माना गया
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शंका २ और उसका समाधान है उसी प्रकार यदि बाह्य सामग्रीमें भी कारणताको सद्भूत माना जाय तो पुरुषकी मोक्षविधि नहीं बन सकती यह सक्त कारिकाका आशय है।
अपर पक्ष ने इसो प्रसंगमें 'यद्वस्तु बाह्यं' इत्यादि कारिकाका उल्लेख कर अपनी दृष्टिसे उसका अर्थ दिया है । किन्तु वह ठीक नहीं, क्योंकि उसका अर्थ करते समय एक तो 'अभ्यन्तरमूलहेतोः' पदको 'गुणदोषसूते:' का विशेषण नहीं बनाकर 'अध्यात्मवृत्तस्य अभ्यन्तरमूलहेतोः सत् अङ्गभूतम्' ऐसा अन्धय कर उसका अर्थ किया है। दूसरे 'अङ्गभूतम् पदका अर्थ प्रकृतमें 'गौण' है । किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय साभिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है । तीसरे चौथे चरणमें आये हुए 'अलम्' पदको सर्वथा उपेक्षा करके उसका ऐसा अर्थ किया है जिससे पूरी कारिफासे ध्वनित होनेवाला अभिप्राय ही मटियामेट हो गया है।
उसका सही अर्थ इस प्रकार है-अभ्यन्तर बस्तु मूल हेतु है जिसका ऐसे गुण-दोषको उत्पतिमें जो बाह्य वस्तु निमित्त है वह अध्यात्मवृत्त अर्थात् मोक्ष-मार्गीके लिए गौण है, क्योंकि उसके लिए अभ्यन्तर कारण ही पर्याप्त है।
इस कारिका आया हुआ 'अपि' पद 'एव' अर्थको सूचित करता है।
अपर पक्षने उक्त कारिकाका अपने अभिप्रायसे अर्थ करनेके बाद जो यह लिखा है कि 'फिर यह पात्रकी विशेषताको लक्ष्य में रखकर कथन किया गया है, अतः इससे काय-कारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता। पात्रकी विशेषताको दृष्टिमें रखकर किसी कयनको विवक्षित-मुख्य और अविवक्षित-गौण तो किया जा सकता है, परन्तु उसे अवस्तु भूत-अपरमार्थ नहीं कहा जा सकता।' उसका समाधान यह है कि इसमें सन्देह नहीं कि पात्र विशेषको लक्ष्यमें रखकर यह कारिका लिखी गई है, क्योंकि जो अध्यात्मवृत्त जीव होता है उसकी दृष्टिमें असद्भूत और सदभूत दोनों प्रकारका व्यवहार गौण रहता है, क्योंकि परम भावग्राही निश्चयको दृष्टि में गोण कर तथा सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहारको दृष्टिमें मुख्यकर प्रवृत्ति करना यह तो मिथ्यादृष्टिका लक्षण है, सम्यग्दृष्टिका नहीं । यही कारण है कि भाचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गावा २ में स्वसमय (सम्यग्दृष्टि) और परसमय (मिथ्यादृष्टि) का लक्षण करते हुए लिखा है कि जो दर्शनज्ञान-चारित्र में स्थित है वह स्वसमय है और जो पुद्गल क्रर्मप्रदेशोंमें स्थित है वह परसमय है । यह दृष्टिको अपेक्षा कथन है । इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर दौलतरामजी एक भजनमें कहते हैं -
हम तो कबहूँ न निज घर आये पर घर फिरत बहुत दिन बीते नाम अनेक धराये । हम तो कबहूँ न निज घर आये । परपद निजपद मान मगन हे पर परिणति लिपटाये । शुद्ध बुद्ध चित्कन्द मनोहर चेतन भाव न भाये ।
हम तो कबहूँ न निज घर आये। अपर पक्षने जो यह लिखा है कि 'अतः इससे कार्य-कारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता ।' हम इसे भी स्वीकार करते हैं, क्योंकि उपचरित और अनुपचरित दोनों दृष्टियोंको मिलाकर प्रमाण दुष्टिसे आगममें कार्य-कारणकी जो व्यवस्था को गई वत् ‘बाह्य और आम्यन्तर उपाधिको समग्रतामें प्रत्येक कार्य होता है यह द्रव्यगत स्वभाव है' इस यवस्थाको मानमें रखकर ही की गई है। दोनोंको समग्रतामें
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रत्येक कार्य होता है यह यथार्थ है, कल्पना नहीं । किन्तु इनमेंसे अभ्यन्तर कारण यथार्थ है और वह यथार्थ क्यों है तथा बाह्य कारण अयथार्थ है और वह अयथार्थ क्यों है यह विचार दुसरा है। इसे जो ठीक तरहसे जानकर वैसी श्रद्धा करता है वह कार्य-कारण भाषका यथार्थ ज्ञाता होता है ऐसा यदि हम कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी।
विचार तो कीजिए कि यदि बाह्याम्पतर दोनों प्रकारकी सामग्नी यथार्थ होती तो आचार्य अध्यात्मवृत्त के लिए निमिस व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीको दृष्टिमें गौण करनेका उपदेश क्यों देते और क्यों मोक्षको प्रसिनिमें अध्यातर कारणको ही पर्याप्त बतलाते। वस्ततः इसमें संसारी बने रहने और होनेका बीज छिपा हुआ है । जो पुरुष बाह्य सामग्रीको यथार्थ कारण जान अपनी मिथ्या बुद्धि या रागबुक्षिके कारण उसमें लिपटा रहता है वह सदाकाल संसारी बना रहता है और जो पुरुष अपने आरमाको ही यथार्थ कारण जान तथा व्यवहारसे कारण संज्ञाको प्राप्त बाह्य सामग्रीमें हेयबुद्धि कर अपचे आत्माकी शरण जाता है वह परमात्मपदका अधिकारी होता है।
अपर पक्षने अपने प्रत्यक्षको प्रमाण मानकर और लौकिक दृष्टि से दो-तीन दृष्टान्त उपस्थित कर इस सिद्धान्तका खण्डन करनेका प्रयत्न किया है कि 'उपादानके अपने कार्यके सन्मुख होनेपर निमित्तव्यवहारफे योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है।' किन्तु उस पक्षका यह समग्न कथन कार्यकारणकी विडम्बना करनेवाला ही है, उसकी सिद्धि करनेवाला नहीं । हम पूछते हैं कि मन्दबुद्धि शिष्यके सामने अध्यापन क्रिया करते हुए अध्यापकके रहने पर शियन अपना कोई कार्य क्रिया या नहीं ? यदि कहो कि उस समय शिष्यने अपना कोई कार्य नहीं किया तो शिष्यको उस समय अपरिणामी मानना पड़ेगा। किन्तु इस दोषसे बचनेके लिये अपर पक्ष कहेगा कि शिष्यने उस समय भी अध्ययन कार्यको छोड़कर अपना अन्य कोई कार्य किया है। तो फिर अपर पक्षको यह मान लेना चाहिए कि उस समय शिष्यका जैसा उपादान था उसके अनुरूप उसने अपना कार्य किया और उसमें निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री निमित्त हुई, अध्यापक निमित्त नहीं हुआ। जिस कार्यको लक्ष्यमें रखकर अपर पक्षने यहाँ दोष दिया है, वस्तुतः उस कार्यका शिष्य अस समय उपावान ही नहीं था। यही कारण है कि अध्यापन क्रिया रत अध्यापकके होनेपर भी वह निमित्त व्यवहारके अयोग्य ही बना रहा । यह कार्यकारण व्यवस्था है, जो प्रत्येक व्यके परिणाम स्वभाव के अनुरूप होनेसे इस तथ्यकी पुष्टि करती है कि 'उपादान के कार्यके सन्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्म सामग्री मिलती ही है।'
प्रकृसमें अपर पक्ष की सबसे बड़ी भूल यह है कि विवक्षित कार्य तो हुआ नहीं फिर भी वह, जिसमें उस समय उसने जिस कार्मको कल्पना कर रखी है, उसे उस समय उसका उपादान मानता है और इस आधारपर यह लिखनेका साहस करता है कि सुबोध छात्र है पर अध्यापक आदि नहीं मिले, इसलिए कार्य नहीं हुआ। अपर पक्ष को समझना चाहिए कि सुबोध छात्रका होना अन्य बात है और छात्रका उपादान होकर अध्ययन क्रियासे परिणत होना अन्य बात है। इसी प्रकार अपर पशको यह भी समझना चाहिए कि अध्यापकका अध्यापनरूप क्रियाका करना अन्य बात है और उस क्रिया द्वारा अन्यके कार्य व्यवहारसे निमित्त बममा अन्य बात है।
अध्यापक अध्यापन कला सीखने के लिए एकान्तमें भी अध्यापन किया कर सकता है और मन्दबुद्धि छात्र के सामने भी इस क्रियाको कर सकता है। पर इन दोनों स्थलोंपर वह निमित्त व्यवहार पदवीका पात्र
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शंका २ और उसका समाधान
नहीं । उसमें अध्यापनरूप निमित्त व्यवहार तभी होता है जब कोई छात्र उसे निमित्त कर स्वयं पढ़ रहा हैं। यह कार्य-कारण व्यवस्था है जो सदाकाल प्रत्येक कार्यपर लागू होती है । अतः अपर पक्षने अपने प्रत्यक्ष ज्ञानको प्रमाण मानकर जो कुछ भी यहाँ लिखा है वह यथार्थ नहीं है ऐसा समझना चाहिए।
अपर पक्ष ने प्रकृतमें पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका, पं० फुलचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र टीका और पार्श्वपुराणके प्रमाण देकर प्रत्येक कार्यमें बाह्य सामग्रीकी आवश्यकता सिद्ध की है। समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें होता है इस सिद्धान्तके अनुसार नियत बाह्य सामग्री नियत आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक होनेसे व्यवहार नयसे आगम में ऐसा कथन किया गया है। किन्तु इतने मात्र इसे यथार्थं कथन न समझकर व्यवहार कथन ही समझना चाहिए। एकके गुण-धर्म को दूसरेका कहना यह व्यवहारका लक्षण हूँ । अतएव व्यवहारनयसे ऐसा ही कथन किया जाता है जो व्यवहार वचन होनेसे आगममें और लोक में स्वीकार किया गया है ।
अगर पक्षने प्रवचनार गाथा २११-२१२ की टीकाका प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि कहीं कहीं मात्र शरीरकी क्रियासे भी धर्म-अधर्मं होता है। जैसे कि मात्र शरीरकी संयमका छेद होना' किन्तु अपर पक्षका यह कथन एकान्तका सूचक होनेसे ठीक नहीं, क्योंकि प्रकृत में यथामार्ग न की गईं कायनेष्टा अभावको सूचित करने के लिए आचार्यने कायचेष्टामात्राधिकृत संयमst बहिरंग संयमछेद कहा है और इसलिए आनार्यने इसका अन्य प्रायश्चित्त कहा है। स्पष्ट है कि इस वचनसे अपर पक्ष के अभिनत की सिद्धि नहीं होती । प्रत्युत इस वचनसे तो वही सिद्ध होता है कि आत्मकार्य में माववान व्यक्ति यदि बाह्य शरीरचेष्टाको प्रयत्नपूर्वक भी करता है तो भी शरीर क्रिया करनेका भाव दोपाधायक मान्हा गया है और यही कारण है कि परमागम में सूत्रोक्त विधिपूर्वक की गई प्रत्येक क्रिया का प्रायश्चित्त कहा है ।
यहाँ अपर पक्षने जो मणिमाली मुनिको कथा दी है वह शयन समयकी घटनासे सम्बन्ध रखती है । उन समय मुनिकी काय गुप्ति ऐसी होनी चाहिए थी कि उसको निमित्त कर शरीर चेष्टा नहीं होती । किन्तु मुनि अपनी कायगुप्ति न रख सके। यह दोष है । इसी दोषका उद्घाटन उस कथा द्वारा किया गया है । मालूम पड़ता है कि यहाँ अगर पक्ष ऐसे उदाहरण उपस्थित कर वह सिद्ध करना चाहता है कि आत्मकार्य में सावधान अन्तरंग परिणामोंके अभाव में भी शरीरकी क्रियामात्रसे धर्म हो जाता है जो युक्त नहीं है ।
केवल जिनके पुण्यको निमित्तकर चलने आदि रूप क्रिया होती है इसमें सन्देह नहीं, पर इतने मासे वह मुक्ति की सावन नहीं मानी जा सकती। अन्यथा योगनिरोध करके केवली जिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा व्युपरत क्रियानिवृत्ति ध्यानको क्यों ध्याते। जिस जिनागम में क्षायिक चारित्रके होनेपर भी योगका सद्भाव होने धाविक चारित्रको सम्पूर्ण चारित्ररूपसे स्वीकार न किया गया हो उस जिनागमसे यह फलित करना कि केवली जिनकी चलने आदि रूप क्रिया मोक्षका कारण है उचित नहीं है । प्रत्युत इससे यही मानना चाहिए कि केवली जिनके जबतक योग और तथनुसार बाह्य क्रिया है तबतक र्यापिथ बालव ही है ।
केवली जिन समुद्वारा अपने वीर्य विशेषसे करते हैं और उसे निमित्त कर तीन कर्मोका स्थितिघात होता है । अन्तरंग में वीतराग परिणाम नहीं है और श्रीर्थविशेष भी नहीं है, फिर भी यह क्रिया हो गई और उसे निमित्तकर उक्त प्रकार कमका स्थितिघात हो गया ऐसा नहीं है ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा अपर पक्षने धवल पु० १ पृ० ३०२ का प्रमाण उपस्थित करने के बाद लिखा है कि 'चार धातिया कर्मोका नाश हो जानेसे फेवलि जिनका उपयोग स्थिर हो जाता है। किसी भी शारीरिक क्रियाके लिए उस रूप प्रयल या उपयोगको आवश्यकता नहीं होती, किन्तु वे क्रियाएँ स्वाभाविक होती है, अतः केवलिसमुबातरूप क्रिया भी स्वाभाविक होती है जो संसार विच्छेदका कारण है। संसारविच्छेदका जो भी कारण है वह सब धर्म है।'
समाधान यह है कि केवली जिनके जो भी शारीरिक क्रिया होती है वह रागपूर्वक नहीं होती इसी अर्थमें आचार्योंने उसे स्वाभाविकी अतएव क्षायिकी कहा है । परन्तु केवलिसमुद्धालरूप क्रिया तो आत्मप्रदेशों की क्रिया है, शरीरकी क्रिया नहीं और उसका हेतु योग तथा आत्माका वीर्यविशेष है, अतः वह तीन अधातिया कोंकी स्थिति वासका हेतु (निमित्त) रही आओ, इसमें बाधा नहीं। किन्तु इससे यह कहाँ सिद्ध हुआ कि शरीरकी क्रियासे आत्मामे धर्म-अधर्म होता है, अर्थात् त्रिकालमें सिद्ध नहीं होता। अतएव पूर्वोक्त विवेचनके आधारसे यही निर्णय करना समीचीन है कि शरीरको क्रिया पर द्रव्य (पुद्गल) की पर्याय होनेसे उसका अजीव तत्त्वमें ही समान होता है, भन : रुपे यात्माके धर्म-अधर्म में उपचारसे निमित्त कहना अन्म बात है । वस्तुतः यह आत्मा अपने शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामोंका वर्ता स्वयं है, अतः वही उनका मुख्य (निश्चय) हेतु है । विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में किया ही है।
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प्रथम दौर
: १ :
शंका ३
जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
समाधान १
इस इनमें यदि धर्म पदका अर्थ पुण्य भाव है तो जीवदयाको पुण्य भाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदयाकी परिगणना शुभ परिणामोंमें की गई है और शुभ परिणामको आगम में पुण्य भाव माना है । परमात्मप्रकाशमें कहा भी है
सुहपरिणामे धम्भु पर असुहे" होइ अहम् |
दोहिषि एहि विवज्जियउ सुक्षु ण बंधइ कम्मु ॥२-७१३
अर्थ – शुभ परिणामसे मुख्यतया धर्म - पुण्य भाव होता है और अशुभ परिणामसे अधर्म - पाप भाव होता है तथा इन दोनों ही प्रकारके भावोसे रहित शुद्ध परिणामवाला, जीव कर्मबन्ध नहीं करता ॥२-७१ ।। सुह इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । 'सुहपरिणामें धम्म पर' शुभपरिणामेन धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्या | 'असुहे" होइ अहम्मु अशुभपरिणामेन भवत्यधर्मः पापम् ।
टीकाका पर्यायार्थसे स्पष्ट है ।
यदि इस प्रश्न में 'धर्म' पदका अर्थ वीतराग परिणति लिया जाय तो जोवदयाको धर्म मानना मिध्यात्व है, क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होने के कारण उसका आस्रव और बन्वतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, संबर और निर्जरातत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता । जैसा कि श्री समयसारको गाथा २६४ से स्पष्ट है-तह विय सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहसणे चेव । कोर अज्झवसरणं जं तेण दु बञ्झए पुष्णं ॥ २६४॥
और इसी प्रकार सत्यमें अचौर्यमें, ब्रह्मचर्य में और अपरिग्रह में जो अध्यवसान किया जाता है उससे पुष्यका बन्ध होता है ॥२६४ ॥
इसकी टीका आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं ---
"यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः तथा यश्च सत्य-दत्त ब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबन्धहेतुः ।
...और जो अहिंसा में अध्यवसाय किया जाता है, उसी प्रकार, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें भी जो अध्यवसाय किया जाता है वह भी एकमात्र पुण्यबन्धका ही कारण है ।
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द्वितीय दौर
शंका ३ जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
प्रतिशंका २ इस प्रश्नके सत्तरमें आपने जीवदयाको धर्म मानते हुए उसकी शुभ परिणामोंमें परिगणना की है। यह एक अपेक्षासे ठीक होते हुए भी आपका यह कथन कि 'उसका आस्रव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव होता है, 'संबर और निर्जरामें नहीं' यह आगमके अनुकूल नहीं है। आपने अपने कपनकी पुष्टिमें जो समयसारकी गाथा २६४ को उद्धृत किया है उसमें अहिंसा आदिको पुण्श्वबन्धका कारण नहीं कहा है किन्तु इसके विषयमें होनेवाले अध्यवसानको ही पुष्यबन्धका कारण कहा है । टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरिने गायाकी टीका प्रारम्भ करते हुए जो 'एवमयमज्ञानात्' पदका प्रयोग किया है उससे भी सिद्ध होता है कि अध्यवसान ही कर्मबन्धका कारण है | यह प्रकरण प्रन्यकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने २४७ वी गाथासे प्रारम्भ किया है और इन गाथाओंमें मूड़, अज्ञानी आदि शन्दोंका प्रयोग करते हुए यह दर्शाया है कि मिय्यादृष्टिका अन्नानमय अध्यवसान भाव ही बन्धका कारण है।
आपने अपने अभिप्रायकी पुष्टिके लिये जो परमात्मप्रकाश की ७१ वीं मायाको प्रमाण रूपमें उपस्थित किया है उसमें भी 'सुहपरिणामे धम्म' पद द्वारा शुभ परिणामको धर्म बतलाया गया है। टीकाकार श्री ब्रह्मदेवने 'धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्त्या गद में मुख्यवृत्त्या शब्दसे शुभपरिणाम द्वारा संवर निर्णरा होना भी थोतित किया है । इसके समर्थनमें अन्य आगम प्रमाण भी द्रष्ट व्य हैस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाको संबर भावनाकी गाथा ३ क्रमिक संख्या २७ निम्न प्रकार है
गुत्ती जोगणिरोहो समिदी य पमादवजणं चेव ।
धम्मो दयापहाणो सुतत्तचिंता अणुणेहा ।।९७।। अर्थ-योगनिरोधाला गुप्ति, प्रमादत्यागरूप समिति, दयाप्रधान धर्म और सुतत्त्व चिन्तनरूप अनुप्रेक्षा है।
संवर भावनामें कही जानेके कारण इस गाथामें प्रोक्त चारों क्रियाएँ संघरको कारण है ! उक्त गाथामें स्पष्ट रूपसे धर्मको दयाप्रधान बतलाया है । संस्कृत टीकाकारने भी इसी बातका समर्थन किया है। पद्मनन्दि पम्चविंशतिकामे लिखा है
___ अन्तस्तत्त्वं विशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयाङ्गिषु ।
द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद् द्वितयमाश्रयेत् ।। ६.६० ।। अर्थ-विशुद्ध आत्मा अन्तस्तत्त्व है और प्राणियोंकी दया बहिस्तत्त्व है । अन्तस्तश्व तथा बहिस्तस्वइन दोनोंके मिलने पर मोक्ष होता है इसलिये इन दोनोंका आश्रय करना चाहिये ।
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शंका ३ और उसका समाधान इसकी पुष्टि संस्कृत टीकाकारने भी की है । बोधपाहुडमें श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है
धम्मो दयाविसुद्धो पबज्जा सव्वसंगपरिचत्ता ।
देवो बवगयमोहो उदययरो भब्बजोवाण ॥२॥ अर्थ---यासे विशुद्ध धर्म, समस्त परिग्रहसे रहित मुनिदीक्षा (प्रव्रज्या); वीतराग देव ये तीनों भभ्य जीवोंका कल्याण करनेवाले हैं । पम्प नन्दिपञ्चविंशतिकामें कहा हैआद्या सद्वतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदा
धर्मतरोरनश्वरपदारोहक निःश्रेणिका । कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिक
__धिङ्नामाप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥१-८11 अर्थ- यहां धर्मात्मा सज्जनोंको सबसे पहले प्राणियोंकी सदा दया करनी चाहिये, क्योंकि वह समीचौन व्रतसमूहकी आय-प्रमुख है, सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदाओंकी जननी है, धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है तथा अविनश्वर पद (मोक्षमहल) पर चढ़ने के लिये अपूर्व नसैनी हैं । निर्वध पुरुषके नाभको भी धिक्कार है, उसके लिये समस्त दिशाएं शून्यरूप है। इसी ग्रन्थमें आगे कहा हैदेवः स किं भवति यत्र विकारभावो,
धर्मः स किं न करुणाङ्गिषु यत्र मुख्या। तत् किं तपो गुरुरथास्ति न यत्र बोधः
सा कि विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम् ।।२-१८॥ अर्थ-वह देव क्या? जिसमें कि विकार भाव हो, वह धर्म क्या ? जहाँ कि प्राणियों में दया नहीं है, वह तप भी क्या है ? जिसमें विशाल ज्ञान नहीं है और वह विभूति भी क्या है ? जिसमें पात्रदान नहीं किया जाता।
दयाको धर्म बतलानेका यही कथन इसी ग्रन्थके छठे अधिकारके ३७ से ४० तकके श्लोकोंमें भी स्पष्ट किया है । श्री कुन्दकुन्दाचार्यने भावपाहुडमें लिखा है
मोहमयगारवेहि स मुक्का करुणभावसंजुत्ता।
से सम्बदुरियखभं हति चारित्तखग्गेण ।।१५९।। अर्थ---जो व्यक्ति मोह, मद, भारवसे रहित और करुणाभावसे सहित हैं वे अपने चारित्ररूपी खड्ग द्वारा समस्त पापरूपी स्तम्भको छिन्न-भिन्न कर डालते हैं।
श्री पवलामें भी वीरसेनाचार्यने दयाको जीवका स्वभाव बतलाया है, जो निम्न प्रकार हैकरुणाए जीवसहायस्स कम्मणिदत्तविरोहादो।
-धवल पुस्तक १३ पृष्ठ ३६२ अर्थ-करुणा जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्मजनित कहनेमें विरोध आता है ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
श्री राजदार्तिक अ० १ सू० २ में सम्यग्दृष्टिके जो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और मस्तिक्य ये चार लक्षण श्री अलंकदेव बतलायें हैं । उनमें अनुकम्पा (दया) भी सम्मिलित है । प्रमाण देखिएप्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् ।
९६
अर्थ - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति हो जाना सराय सम्यग्दर्शनका लक्षण है ।
इनमें अनुकम्पाका अर्थ दया किया गया है। इस कारण दया सम्यग्दर्शनका अङ्ग होने से धर्म
रूप है ।
आपने दयाको शुभ भाव बतलाकर मात्र आस्त्रव और बन्नका कारण बतलाया है यह उचित नहीं है, क्योंकि शुभ भाव संवर और निर्जराके भी कारण हैं। प्रमाण निम्न प्रकार है। श्री वीरसेनाचार्यने जयघवलाके मंगलाचरणकी व्याख्या में कहा है
सुह- सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खया भावे तक्खयाणुववत्तीदो ।
अर्थ – यदि शुभ और शुद्ध परिणामोंसे कमका क्षय न माना जाय तो फिर कर्मोका क्षय हो ही नहीं सकता।
इसके आगे वीरसेनाचार्य जयधवला पु० १ १०९ में लिखते हैंअरहंतणमोक्कारो संगहियबंधादो असंखेज्जगुणकम्सक्स्वयकारओ ति तत्थ वि मुणीणं पवृत्तिपसं गादो ।
अरहंतणमोक्कार भावेण य जो करेदि पयडमदी ।
सो सन्वदुक्खमोक्खं पावद्द अचिरेण कालेन ||३||
अर्थ — अरहंत नमस्कार तत्कालीन बन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जराका कारण है, इस लिये सरागसंयम के समान उसमें भी मुनियोंकी प्रवृत्ति प्राप्त होती है।
जो विवेकी जीव भावपूर्वक अरहन्तको नमस्कार करता है वह अतिशीघ्र समस्त दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ।
जिणसाहुगुणुक्तिणपसंसणविणयाणसंपण्णा ।
सुद-सील - संजमरदा धम्मन्झाणं मुणेयत्वा ॥ ५५ ॥
कि फलमेदं धम्मज्ञाणं ? अक्खवयेसु विउलामरसुहफलं गुणसेणीये कम्मणिज्जराफलं च । खवएस पुण असंखेज्जगुणसेढि कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभाग विहाणफलं च । अतएव धर्मादनपेतं धर्म्यं ध्यानमिति सिद्धं । एत्थ गाहाओ
होति सुहासव संवर णिज्जरासुहाई बिउलाई । ज्झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीण धम्मस्स ॥५६॥ जह वा घणसंघाया खणेण पवणाया विलिज्जति । झाणपणोवया तह कम्मघणा विलिज्जति ॥५७॥
-धवला पु० १३ पृ० ७६-७७
अर्थ -- जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दानसम्पन्नता, श्रुत शील और संयम में रत होना ये सब बातें धर्मध्यानमें होती हैं ऐसा जानना चाहिये ।
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शंका ३ मोर उसका समाधान
शंका- इस धर्मध्यानका क्या फल है ?
समाधान — अक्षपक जीवोंको देव पर्यायसम्बन्धी विपुल सुख मिलना उसका फल है और गुणश्रेणी में कर्मोकी निर्जरा होना भी उसका फल है । तथा क्षपक जीवोंके तो असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभ कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल हूँ । अतएव जो धर्मसे अनपेत वह धर्मध्यान है यह बात सिद्ध होती है । इस विषय में गाथाएं
उत्कृष्ट धर्मध्यानसे शुभ आलय, संवर, निर्जरा और देवोक सुख ये शुभानुवन्धी विपूल फल होते हैं ॥ ५६ ॥
जैसे मेघपटल पवन से ताडित होकर क्षणमात्रमें विलीन हो जाते हैं वैसे ही ध्यानरूपी पवनसे उपहत होकर कर्ममेघ भी विलीन हो जाते ।। ५७ ।।
देवसेनाचार्य कृत भावसंग्रहमें भी कहा है
५७
आवासपाई कम्मं विज्ञावच्च च दाण- पूजाई |
जं कुणइ सम्मदिट्ठी तं सब्वं णिञ्जरणिमित्तं ॥ ६१०||
अर्थ — जो सम्यग्दृष्टि पुरुष प्रतिदिन अपने आवश्यकोंका पालन करता है, व्रत, नियम आदिका पालन करता है, वैयावृत्य करता है. पात्रदान देता है और भगवान् जिनेन्द्रका पूजन करता है उस पुरुषका वह सब कार्य कर्मोकी निर्जराका कारण है ।
श्री प्रवचनसारमें गाथा ७९ के बाद श्री जयसेन स्वामीकी निम्न प्रकार गाथा हैतं देवदेवं जदि गणवस गुरुतिलोयस्स |
पणमंत जे मणुस्सा ते सोक्ल अक्खयं जति ||२॥
अर्थ — उन देवाधिदेव जिनेन्द्रको, गणधरदेवको और साधूमहाराजको जो मनुष्य वन्दन करता है वह अक्षय अर्थात् मोक्ष सुखको प्राप्त करता है।
श्री वल पुस्तक ६ पृष्ठ ४२७ पर निम्नलिखित उल्लेख है
कथं जिणविनदंसणं पढमसम्मत्तप्पत्तीए कारणं ? जिणविनदंसणेण णिति णिकाचिदस्स विमिच्छत्तादिकम्म कळावस्स खयदंसणादो ।
अर्थ — शंका -- जिनबिम्बका दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण किस प्रकार है ?
समाधान -- जिनबिम्ब दर्शन से निर्धात्ति और णिकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्बका दर्शन प्रथम सम्यक्स्थकी उत्पत्तिका कारण है ।
जयधवल पुस्तक १ पृष्ठ ३६९ पर उल्लेख है
तिरयणसाहण विसय लोहादो सग्गापयग्गाणमुप्पत्तिदंसणावो ।
१३
अर्थ – रत्नत्रय साधन विषयक लोभसे स्वर्ग और मोक्षको प्राप्ति देखी जाती है ।
आपने क्ष्माको पुण्यरूप धर्म स्वीकृत किया है सो पुण्य भी साधारण वस्तु नहीं है। उसे भी जिनसेन
स्वामीने
पुण्यात्तीर्थ करश्रियं च परमां नैःश्रेयसीचा स्तुते !
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अपपुर (खामिया) शस्त्रपर बार उसको समीक्षा महापुराणके प्रथम भाग पृष्ठ २५ श्लोक १२९ में मुक्तिलक्ष्मीका साधक बतलाया है । श्री भावसंप्रहमें भी कहा है :----
__सम्मादिट्ठीपुणं ण होइ संसारकारणं णियमा ।
मोक्खस्स होइ देउं जइ विणियाण ण सा कुणह ।।४०४।। अर्थ-सम्यम्दृष्टि द्वारा किया हुआ पुण्य संसारका कारण नियमसे नहीं होता है। यदि सम्यग्दृष्टि पुरुष द्वारा निदान न किया जाय तो वह पुण्य मोक्षका ही कारण है।
___ यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति भस्था तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति । नो चेत् पुण्यबन्धकारणं तमेवेति ॥
-परमात्मप्रकाश अ० २ गा० १९१ टीका अर्थ-यदि निज शुद्ध पारमा हो उपादेय है ऐसा मानकर उसके साकपनेसे उसके अनुकूल तप करता है और शास्त्र पढ़ता है तो वह परम्परासे मोक्षका ही कारण है। ऐसा नही कहना चाहिए कि वह केवल पुण्यबंधका ही कारण है।
शंका ३ जीवदयाको धर्म मानमा मिथ्यात्व है क्या ?
प्रतिशंका २ का समाधान उक्त शंकाका जो उत्तर दिया गया था उस पर प्रतिशंका करते हुए लगभग ऐसे २० शास्त्रोंके प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेको चेष्टा की गई है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व नहीं है | इसमें संदेह नहीं कि उनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण है जिनमें संवरके कारणोंमें दयाका अन्तर्भाव हुआ है। जयधवलाका एक ऐसा भी प्रमाण है जिसमें शुद्ध भावके साथ शुभ भावको भी कर्मक्षयका कारण कहा है । श्री घवलाजीके एक प्रमाणमें यह भी बतलाया है कि जिनविम्बदर्शनसे निति-निकाचित छन्धकी थुच्छित्ति होती है । इसीप्रकार भावसंग्रहमें यह भी कहा है कि जिनपूजासे कर्मक्षय होता है। ऐसे ही यहाँ जो अनेक प्रमाण संग्रह किये गये हैं उनके विविष प्रयोजन बतलाकर उन द्वारा पर्यायान्तरसे दयाको पुण्य और धर्म उभयरूप सिद्ध किया गया है । ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही है । यदि पूरे जिनागममें से ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाय तो एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ हो जाय। पर इन प्रमाणों के आधारसे क्या पुण्यभावरूप दयाको इतने मात्र से मोक्षका कारण माना जा सकता है ? आचार्य अमृतचन्द्रने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें निर्जरा और पुण्यके कारणरूप सिद्धान्तका निर्देश करते हुए लिखा है
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनाशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१२॥ येनाशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनाशेन तु रागस्तेनांशेनास्य अन्धनं भवति ॥२१३।।
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शका ३. और उसका समाधान येनांशेन परित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनाशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१४।। इस जीवके जिस अंशसे सम्यग्दर्शन है उस अंशसे इसके बन्धन नहीं है। परन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इसके बन्धन है । जिस अंशसे इसके ज्ञान है उस अंशरो इसके बंधन नहीं है। परन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इराके बन्धन है । जिस अंशसे इसके चारित्र है उस अंशसे इसके बन्धन नहीं है। परन्तु जिस अंशसे इसके राग है उस अंशसे इसके बन्धन है ॥२१.१ । आगे इसी बागमके २१६ वें श्लोकमें थे इसी तम्पका समर्थन करते हुए पुनः कहते हैं
दर्शनमात्मदिनिश्चितिरात्मपरिमानमिष्यते बोधः ।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥२१६।। आत्मश्रद्धाका नाम सम्यग्दर्शन है, आत्मज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं और आत्मामें स्थितिका नाम सम्यश्चारित्र है, इनसे बन्ध कैसे हो सकता है ॥२१६।। श्री समयसारजी में कहा है
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो।
एसो जिणोवदेसो सम्हा कम्मेसु मा राज ।।१५०॥ रागी जीव कर्म बांधता है और वैराग्य प्राप्त जीव कमसे छूटता है, यह जिनेन्द्र भगवान्का उपदेश है, इसलिए है भन्यजीव ! तू फर्मोमें प्रीति-राग मत कर ।
इसको टीकामें लिखा है
यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात् विरक एवं मुच्येतेत्ययमागमः सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयकर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति ।
अर्थ–'रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बौधता है, और विरक्त अर्थात् विरागी ही कर्मसे छूटता है' ऐसा जो यह आगम वचन है सो सामान्यतया रागीपनकी निमित्तताके कारण शुभाशुभ दोनों कर्मोको अबिशेषतया बन्धके कारणरूप सिद्ध करता है और इसलिए धोनों कर्मोंका निषेध करता है ॥१४॥
इस प्रकार इस कथनसे स्पष्ट है कि शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिनविम्ब दर्शन हो, व्रतोंका पालन करना हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध ही होता है, उससे संघर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है । जिस प्रकार कोई मनुष्य भोजन करने के बाद भी यदि यह मानता है कि मेरे उपवास है उसी प्रकार पर द्रव्यमें प्रीति करनेवाला उससे यदि अपनी कर्मक्षपणा मानता है तो उसका ऐसा मानना आगम, अनुभव और युक्ति तीनों के विरुद्ध है।
श्री समयसारजीमें सम्यग्दृष्टिको जो अनन्धक कहा है इसका यह अर्थ नहीं कि उसके बम्भका सर्वथा प्रतिषेध किया है। उसका तो मात्र यही अर्थ है कि सम्पदृष्टिके रागभावका स्वामित्व न होनेसे उसे अबन्धक कहा है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि और रागदृष्टिमें बड़ा अन्तर है । जो सम्यग्दृष्टि होता है वह रागदृष्टि नहीं होता और जो रागदृष्टि होता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर धी समयसारजीमें कहा भी है
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१००
जयपुर ( खामिया ) तत्वपर्धा
पुग्गलकम् रागो तस्स विवागोदभी हषदि एसी ।
पा
'दु पुस मज्झ भावी जाणगभाषी हु अहमिषको ।।१९९ ।।
अर्थ - राग पुद्गल कर्म है। उसका विपाकरूप उदय यह है। यह मेरा भाव नहीं है। मैं तो
निश्चय से एक ज्ञायकभाव है ।। १६६ ॥
वही पुनः कहा है
पूर्वज
अप्पा ं सुणदि जाणगसहावं ।
उदयं कम्मविवागं य मुदित बियाणंती ॥ २००॥
अर्थ -- इस प्रकार सम्पादृष्टि आत्माको ( अपने को ) ज्ञायकस्वभाव जानता है और तत्वको अर्थात् यथार्थ स्वरूपको जानता हुआ कर्मके विपाकरूप उदयको छोड़ता है || २०० ॥
चेतना तीन प्रकारकी है— ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना | उनमें से सम्यग्दृष्टि अपने को ज्ञानचेतनाका स्वामी मानता है, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका नहीं । किन्तु शुभ रागरूप दयाका अन्तर्भाव कर्मचेतना में होता है, इसलिये कर्मके विपाकस्वरूप उसके ऐसी दया अवश्य होती है पर वह इसका स्वामी नहीं होता ।
यदि प्रकृत में दयासे वीतराग परिणाम स्वीकार किया जाता है और इसके फल स्वरूप जिन उल्लेखोंके आश्रय से प्रतिशंका र दयाको कर्मक्षपणा या मोक्षका कारण कहा है तो उसे उस रूप स्वीकार करने में तत्त्वकी कोई हानि नहीं होती, क्योंकि राग परिणाम एक मात्र बन्धका ही कारण है, फिर भले ही वह दसवें गुणस्थानका सूक्ष्मसाम्पराय रूप राग परिणाम ही क्यों न हो और बीतराग भाव एक मात्र कर्मक्षपणा का हो हेतु है, फिर भले ही वह अविरत सम्यग्दृष्टिका वीतराग परिणाम क्यों न हो। इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर श्रो समयसारजीके कलशोंमें कहा भी है
मृत ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यस्य भावरणान्मोक्ष हेतुस्तदेव तत् ॥ १०६ ।। वृत्त कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । दृष्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्ष हेतुर्न कर्म तद् ॥ १०७ ॥
अर्थ-ज्ञान एक द्रव्यस्वभावी ( जीवस्वभावी ) होनेसे ज्ञानके स्वभावसे सदा ज्ञानका भवन बनता है, इसलिये ज्ञान ही मोक्षका कारण ॥१०६ ॥
कर्म अन्य द्रयस्वभावी ( पुद्गलस्वभावी ) होनेसे कर्म के स्वभावसे ज्ञानका भवन नहीं बनता, इसलिए कर्म मोका कारण नहीं है ||१०७॥
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तृतीय दौर
शंका ३ प्रश्न था किजीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या?
प्रतिशंका ३ इस प्रश्न के उत्तरमें आपने पहले पत्रक जीवदयाको धर्म न मानने के लिए तीन बातें लिखी थी1. पुण्याप है, किन गरि तोकिन्तु धर्म रूप नहीं है।
२. परमात्मप्रकाशाफी ७१वीं गाथाका प्रमाण दिया जिसमें शुभपरिणामको धर्म बतलाया है । परन्तु टीकाकारके 'शुभपरिणामेन धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्त्या' अर्थात् 'शुभपरिणामसे धर्म होता है जो कि मुख्यवृतिसे पुण्यरूप है । इस वाक्यके आधारसे आपने शुभ परिणामको धर्मरूप होनेको उपेक्षा कर पुण्यरूप निश्चित कर दिया। ऐसा करते हुए ग्रन्थकार तथा टीकाकार द्वारा शुभ परिणामोंको धर्मरूप बतलाये
आनेपर भी आपने उसे पुण्यका आधार लेकर, जीवदयाको आसव-चच्य तत्त्वमें बलान् स्वेच्छासे अधर्ममें डाल दिया। तयाच जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व भी बतला दिया ।
३. समयसारकी २६४वीं गाथाका उद्धरण देकर जीवदयाको अध्यवसान (कषायप्रभावित गलत अभिप्राय-अभिमान आदिके कारण यों मान लेना कि मैंने उसे मरनेसे बचा लिया आदि) रूप बतलाया, तदनुसार जीवदयाको धर्म न मानकर माष पुण्यमन्धरूप अप्सलाया ।
आपके इस उत्तरके निराकरणमें हमने आपको दूसरा पत्रक दिया जिसमें श्री आचार्य कुन्दकुन्द, वीरसेन, अकलंक, देवसेन, स्वामी कार्तिकेय आदि ऋषियोंके प्रणीत प्रामाणिक-आर्षग्नन्थों-धवल, जयधवल, राजवार्विक, बोधपाहरू, भावपाहुड, भावसंग्रह, स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा आदिके लगभग २० प्रमाण देकर दो बातें सिद्ध की थी
१. जीवक्ष्या करना धर्म है। २. पुण्यभाव धर्मरूप है । पुण्यभाव या शुभभावोंसे संघर निर्जरा तथा पुण्य कर्मबन्ध होता है ।
भार्षग्रन्थोंके श्रद्धालु बन्धु इन ऋषियों तथा उनके ग्रन्थोंकी प्रामाणिकतापर अप्रामाणिकताको अँगुली नहीं उठा सकते, क्योंकि हमको संसान्तिक एवं धार्मिक पथप्रदर्शन इन ऋषियों तथा इनके आर्षग्रन्थोंसे हो प्राप्त होता है और उसका कारण है कि उनमें निर्विवाद जिनवाणी निबद्ध है। यह तो हो सकता है कि इन आर्षग्रन्धोंकी कोई बात कदाचित् हमारी समझ में न आये, किन्तु यह बात कदापि नहीं हो सकती कि उन अन्योंकी कोई भी बात अप्रामाणिक या अमान्य हो ।
तदनुसार आशा पी कि इन अन्यों के प्रमाण देखकर चरणानुयोग तथा जनश्रमके मूलाधार दयाभावको धर्मरूप स्वीकार कर लिया जाता, परन्तु आशा फलवती नहीं हुई।
आपके दूसरे पत्रकमें उन आर्ष प्रमाणोंकी प्रामाणिकताकी उपेक्षा करते हुए उनकी अवहेलनामें निम्न
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
पंक्तियां लिखी गई है— 'ये सय प्रमाण तो लगभग २० ही हैं, यदि पूरे जिनागममें से ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाये तो एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ हो जाय, पर इन प्रमाणोंके आधारपर क्या पुण्यभावरूप दयाको इतने मात्र से मोक्षका कारण माना जा सकता है ?....फिर पुनः अप्रासंगिक उद्धरण देकर लिखा गया है'शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिनबिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध हो होता है उससे संवर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है।' इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि उपर्युक्त महान् आचार्योंका यह कथन कि शुभभावसे संवर व निर्जरा भी होती है असंभव होनेके कारण मिथ्या है। आश्चर्य है कि कोई भी जिनवाणीका भक्त इन महान् आचार्यों एवं महान् ग्रन्थोंके स्पष्ट कथनको मिथ्यारूप कहनेका साहस कैसे कर सकता है ?
इसके साथ ही मूल विषयको अछूता रखकर विषयान्तर में प्रवेश किया गया है । उसमें जो समयसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय तथा समयसार कलाके ४-५ प्रमाण उद्धृत किये गये हैं उनमें से एक भी प्रमाण, एक भी वाक्य तथा एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसमें जीवदयाको धर्म माननेपर मिथ्यात्वको संभावना सिद्ध होती है ।
कारण बतलाने
आपने अपने इस पकमें केवल रागभावको की है उस विषय में असहमत नहीं है, अतः उक्त दोनों ग्रन्थोंके उद्धरण हमें स्वीकार हैं। कितना अच्छा होता कि आप भी उन आर्ष ग्रन्थोंको प्रमाण मानकर 'धम्मो दयापहाणो' — धर्म दया प्रधान है 1
धम्मो दयाविसुद्ध पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता | ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ॥२५॥
देवो
—जोषपाहुर
अर्थ -- दया से विशुद्ध धर्म सर्वपरिग्रह रहित दीक्षा - साधु मुद्रा और मोह रहित वीतराग देव ये तीनों भव्य जीवोंके अभ्युदयको करनेवाले हैं ।
करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो ।
अर्थ - करुणा जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्मजनित कहने में विशेष आता है ।
तथा
- घवल पु० १३५० ३६२
सम्मादिट्ठीपुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्स होइ हेऊ जड़ वि णियाणं ण सो कुणइ ॥ ४०४ ||
— भावसंग्रह
अर्थ --- सम्यग्दृष्टिका पुण्य संसारका कारण नहीं है, नियमसे मोक्षका कारण है । आदि निर्विवाद वाक्योंको श्रद्धाभाव से ही यदि स्वीकार कर लेते तो जैनधर्म के मूल तत्त्व पर हमारा और आपका मतभेद दूर हो जाता ।
रागभावकी कर्मबन्धी कारणतापर विश्वार करनेसे पहले हम एक महत्त्वपूर्ण आर्य विधानको मोर पुनः आपका ध्यान आकर्षित करने का लोभ संवरण नहीं कर सकते । आशा है आप उस शिरसा मान्य वाक्य पर एकबार पुनः गम्भीरता से विचार करनेका प्रयत्न करेंगे।
सुहसुद्धपरिणामेहिं कम्मक्लया भावे तक्खयाणुत्रवत्तीदो |
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शंका ३ और उसका समाधान
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अर्थ- शुभ और शुद्ध भावों द्वारा यदि कमका क्षय न हो तो फिर कर्मीका क्षय किसी तरह हो हो नहीं सकता ।
धवल पु० १ ० ६ के इस मुद्रित अर्थसे भी स्पष्ट हो जाता है कि शुभसे भी कर्मो का क्षय होता है और शुद्धसे भी अतः आपका 'शुद्ध के साथ शुभ ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है ।
हम आशावादी हैं, अतः आशा रखते हैं कि ये पुष्ट प्रमाण दया और पुष्यविषयक आपकी धारणाको परिवर्तित करने में सहायक होंगे । आपने रागभावको केन्द्र बना कर पुण्यभावों या शुभभावोंको केवल कर्मaroh साथ बनेका प्रयत्न किया है यह शुभ भावोंकी अवान्तर परिणतियों पर दृष्टि न जानेका फल जान पड़ता है। इतनी बात तो अवश्य है कि दशर्वे गुणस्थान तक रागभाव लघु लघुतर लघुतम रूपसे पाया जाता है और यह भी सत्य है कि रागभावसे कर्मो का आश्रय तथा बन्ध हुआ करता है। तथा च अमृतचन्द्र सूरिने जो असंयत सम्यग्दृष्टि, संयमासंयमी एवं सरागसंयत के मिश्रित भावोंको अपनी प्रज्ञा छेनी से भिन्न-भिन्न करते हुए रागांश और रत्नत्रयां द्वारा कर्मके बन्धन और अबन्यनकी सुन्दर व्यवस्था पुरुषार्थसिद्धयुपाय प्रत्यके तीन श्लोकों की है उनमें एक अखण्डित मिश्रित भावका विश्लेषण समझाने के लिए प्रयत्न किया गया है । यह मिश्रित अखण्ड भाव ही शुभ भाव है, अतः उससे आस्त्रव बन्ध भी होता है तथा संवर निर्जरा भी होती है। यह मिश्रित शुभ भावकी अखण्डता निम्न प्रकारसे स्पष्ट होती है
हम जिस प्रकार दाल भात रोटी शाक पानी आदि पदार्थोका मिश्रित भोजन करते रहते हैं, काली मिर्च, सौंठ, पीपल, हरड़, गिलोय आदि सम्मिलित पदार्थोको पानी में मिलाकर आगको गर्मोसे जिस प्रकार काढ़ा बनाया जाता है जिसका कि मिला हुआ रस होता है, उसमें वात पित्त कफसे उत्पन्न हुए विविध प्रकारके खाँसी ज्वर आदि रोगोंको कम करने, दूर करने तथा शरीर में बल उत्पन्न करने आदि की सम्मिलित शक्ति होती है उसी प्रकार मुख द्वारा पहुँचे हुए उस विविध प्रकारके लाये हुए भोजनसे एक ही साथ अनेक तरहके सम्मिलित परिणाम हुआ करते हैं। पेटमें काकी तरह रस बनता है उससे खून मांस, हड्डी आदि वा- उपधातुओंकी रचना होती है । उसी भोजनसे अनेक प्रकार के रोग भी दूर होते हैं तथा अनेक प्रकारके छोटे-मोटे नवीन रोग मी उत्पन्न हुआ करते हैं। ठीक ऐसी ही बात कर्मबन्ध और कर्मफलके विषय में प्रति समय हुआ करती है । इन्द्रियों, शरीर, मन, वचन, कषाय आदिकी सम्मिलित क्रियासे प्रति समय सात कमौका बन्ध हुआ करता है और किसी एक समय बायु कर्म सहित ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोका भी बन् हुआ करता है। योगों और कपयों की तीव्र, मन्द आदि परिणति अनुसार उन कर्म प्रकृतियोंकी स्थिति, अनुभाग आदि विविध प्रकारका परिणमत होता है। किसी कर्मप्रकृति में तीव्रता आती है, किसी में मन्दता, किसी में कर्मप्रवेश कम और किसीमें अधिक आते हैं।
इसी तरह की सम्मिलित विविधता आठों कमौके उदय काल में भी हुआ करती है। ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, आत्मशक्ति आदि गुणोंका होनाधिक होना, आकुलता व्याकुलता होना, चिन्ता, राग, द्व ेष, क्रोध, मान आदि कषायोंकी तरतमता होना आदि विविध प्रकारके फल प्रति समय मिला करते हैं। जिस तरह अनेक प्रकारके खाये हुए सम्मिलित भोजनमें उसके द्वारा होनेवाले सम्मिलित परिणमनमें बुद्धि द्वारा विभाजन किया जाता है कि अमुक पदार्थ के कारण अमुक-अमुक शरीरके धातु उपवासु रोग आदिपर अमुक-अमुक सरहका प्रभाव हुबा आदि। इसी तरह सम्मिलित कर्म बघ और कर्म उदयके विषय में भी आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा विभाजन किया जाता है । अतएव कर्मोदय के समय आत्मामें विविध प्रकारका मिश्रित परिणाम
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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा होता रहता है। उस सम्मिलित परिणामके विभाजनको बिचारा तो जा सकता है किन्तु किया नहीं जा सकता । अब हम शुभोपयोगके विषयमें विचार करते हैं तब वहाँ भी ऐसा ही मिश्रित फल प्रगट होता हला प्रतीत होता है । राग और विराग अंशोंका सम्मिलित रूप शुभोपयोग हुआ करता है जिसको कि अंश विमाजन द्वारा विचारा तो जा सकता है कि इसमें इतना अंश राग परिणामका है और इतना अंश विराग परिणामका है, परन्तु उस मिश्रित परिणामका क्रियात्मक विभाजन नहीं किया जा सकता ।
तदनुसार चौधे, पांचवें, छठे, सातवें गुणस्थानोंकी शुभ परिणतिमें सम्मिलित सम्यक्त्व, जाम, चारित्र, चारित्राचारित्रकृत विराग
चारित्राचारित्रक्रत विराग अंश भी होता है और कुछ कषाय नोकवायकृत रागोश भी होता है, तदनुसार उन गुणस्थानोंमें सम्मिलित एक विचित्र प्रकारका परिणाम होता है जैसा कि मित्र गुणस्थानमें सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व भावसे पृथक् विचित्र प्रकारका मिश्र परिणाम होता है, उस मित्र गुणस्थानके विचित्र मिश्रित परिणाममें श्रद्धा, अश्रद्धाका क्रियात्मक विभाजन अशक्य होता है । तदनुसार शुभ परिणतिकी मिश्रित अवस्था हुआ करती है जिससे कि कर्मबम्घ, फर्मसंवर और कर्मनिरा ये तीनों कार्य एक साथ हुआ करते हैं।
यह बात भी ध्यानमें रखने योग्य है कि पौधेसे सात गुणस्थान तक शुभोपयोग ही होता है, अन्य कोई शुद्धोपयोगांश आदि उन गुणस्थानोंमें नहीं होता, क्योंकि एक समयमें एक ही उपयोग होता है और आत्मा उस समय अपने उपयोगसे तन्मय होता है। एक समय में दो उपयोग साप साप नहीं हो सकते है। इसके प्रमाणमें श्री प्रवचनसारकी गाथा ८ व ९ देखनेकी कृपा करें:
जीवी परिणदि जदा सुहेण असुहेण या सुहो असुहो ।
सुखेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसन्मावो ॥९॥ अर्थ-जब यह परिणाम स्वभाववाला जीव शुभ-अशुभ या शुखभावकरि परिणमता है, तब शुभअशुभ या शुद्ध रूप ही होता है।
जिस तरह जलता हुआ दीपक अपने एक ही ज्वलित परिणामसे प्रकाश, अन्धकारनाश, उष्णता, तेलशोष ( तेलसखाना ), बती जलाना आदि अनेक कार्य करता है उसी तरह एक समयमें होनेवाले केवल एक शभ उपयोग परिणाम द्वारा कार्यकारणभावसे कर्मबन्ध, कर्मसंवर और कर्मनिर्जरारूप तीनों कार्य होते रहते हैं । यही शुभ उपयोगरूप पुण्य आत्माको मुक्तिके निकट लाता है ।
पहला गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तब शुद्ध परिणामों के अभावमें भी असंख्यातगुणी निर्जरा, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात करता ही है। सात् शुभोपयोग रूप पुण्यका प्रत्येक भाव कर्म-संवर, कर्म-निर्जरा, कर्मबन्धरूप तीनों कार्य प्रतिसमय किया करता है, अतः जीवदया, दान, पूजा, व्रत आदि कार्य गुणस्थानानुसार संवर, निर्जराके भी निर्विवाद कारण हैं। जिसके कुछ अन्य प्रमाण भी नीचे दिए जाते हैं । स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी निम्न गाथा ध्यान देने योग्य है
णिज्जियदोस देवं सजिवाणं दयावरं धम्म ।
वज्जियगथं च गुरुं जो मण्णादि सोह्र होदि सट्टिी ॥३१७।। अर्थ-जो क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित देव, सर्व जीवोंपर दया करने वाले धर्म और अन्य--परिग्रह रहित गुरुको मानता है वह सम्यग्दृष्टि है।
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शंका ३ और उसका समाधान संस्कृत टीकाका अंश भी द्रष्टव्य है
च पुनः धर्म वृर्ष श्रेयः मन्यते श्रद्दधाति । कथंभूतं धर्मम् ? सर्वजीवानां दयापरं सर्वेषां जीवानां प्राणिनां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकाधिकानां शरीरिणां मनोवचनकायकृतकारितानुमतप्रकारेण दयापरं कपोत्कृष्टं धर्म श्रद्दधाति यः। तथा च धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो ! रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्षणं धम्मो ॥ इति धर्म मनुते ।
इस टीकासे मी दयाको धर्म मानना सिद्ध है।
नियमसार गाथा ६ को टीकामें उद्धृत प्राचीन माया द्रष्टव्य है, जिसमें दयाको धर्म कहा गया है
सो धम्मो जत्थ दया सो वि तवो विसयणिग्गहो जस्स ।
दसअट्ठदोसरहिओ सो देवो पत्थि संदेहो ।। अर्थ-धर्म वही है जिसमें दया है, तप वही है जहाँ विषयोंका निग्नह है और देव वही है जिसमें अठारह दोष नहीं हैं।
दया-दम-त्याग-समाधिसंततेः पथि प्रयाहि प्रगुणं प्रयलवान् । नयत्यवश्यं बचसामगोचरं विकल्पदूरं परमं किमप्यसौ ॥१०७॥
-आत्मानुशासन अर्थ-हे भव्य ! तूं प्रयत्न करके सरल भावसे दया, इन्द्रियदमन, दान और ध्यानकी परम्पराके मार्ग में प्रवृत्त हो जा, वह मार्ग निश्चयमे किसी ऐसे उस्कृष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त कराता है जो वचनोंसे अनिबंधनीय एवं समस्त विकल्पसे रहित है।
एकजीवदयेकत्र परत्र सकला: क्रियाः । परं फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ॥३६१॥
-यशस्तिलक उपासकाध्ययन अर्थ--अकेली जीवदया एक ओर है और शेषकी सब क्रियाएँ दूसरी ओर है। शेष क्रिमाओंका फल खेतीके समान है और जीवदयाका फल चिन्तामणिके समान है।
उपसम दया य खंती वड्ढइ वेरागदा य जह जह से। तह तह य मोक्खसोक्खं अक्खीण भावियं होइ ॥६२।।
-मूलाचार द्वादशानुप्रेक्षा अर्थ--उपशम, दया, शान्ति और वैराग्य जैसे-जैसे जीव के बढ़ते है वैसे-वैसे ही अक्षय मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है।
छज्जी वसडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोगेहि ।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुवं महासतं ॥१३३।। -भायपाहुड़ अर्थ-हे मुनिवर | तू मन, यचन, कायसे छ: कायके जीवोंकी दया कर, छः अनायतनको छोड़ और अपूर्व महासत्त्व (चेतना भाव) को भाय ।
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जयपुर (खानिया) चर्चा और उसकी समीक्षा मोहमयगारह य मुक्का जे करुणभावसंजुता । ते सम्बद्दुरियलभं हृणंति चारित्तत्वग्गेण || १५८ || अर्थ — जे मुनि मोहमद, गारव इन करि रहित अर करुणा भाव कर सहित हैं, खड्ग करि पापरूपी स्तम्भको हमें है ।
जीवदया दम सच्चं अचोरियं वंभचेरसंतोसे । सम्पदंसणणाणं तओ य सीलस्स परिवारा || १९||
- शीलपाड
अर्थ — जीवदया इप्रियनिका दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, मंतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तर— ये सब शोलके परिवार है ।
आगे गाथा २० में कहा है- सीलं मोक्खस्स सोपाणं--शील मोक्षके लिए नसैनीके समान है । जह-जह णिच्वेदसयं वैरागदया पवट्टेति ।
तह तह अब्भासयर विव्याणं होई पुरिसस्स ॥ १८६४॥२
१०६
-- मूलाराधना
अर्थ - जैसे जैसे निर्वेद, प्रशम, वैराग्य, दया और इन्द्रियोंका दमन बढ़ता है वैसे-वैसे ही पुरुषके पास मोक्ष आता जाता है ।। १८६४ ॥
- भावपाहुड
वे धारित्ररूपी
जीवदया संयम है क्योंकि संयम आत्मधर्म है। कपन करते
और संयम केवल बंचका ही कारण नहीं, किन्तु संवर-निर्जराका भी कारण हैं, उत्तम क्षमा आदि वस धमोंमें संयम भी एक धर्म है। संयम धर्मके स्वरूपका हुए श्री पथनम्ति आचार्य कहते है
जन्तुकुपादितमनसः समितिषु साधोः प्रवर्तमानस्य । प्राणेन्द्रियपरिहारं संयममाहुर्महामुनयः ॥ ११९६ ॥
अर्थात् जिसका मन जीवदयासे भोग रहा है तथा जो ईर्ष्या भाषा आदि पांच समितियोंमें प्रवर्तमान है ऐसे साधुके द्वारा जो षटुकाय जीवों की रक्षा और अपनी इन्द्रियों का दमन किया जाता है उसे गणधर देवादि महामुनि संयम कहते हैं ।
इसी बात को श्री फूलचन्द्रजीने स्वयं इन शब्दों में लिखा है
षट्कायके जीवों की भले प्रकारसे रक्षा करना और इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयोंमें नहीं प्रवृत्त होने देना संयम है।
----तत्त्वार्थसूत्र पृ० ४१७, वर्णो ग्रन्थमालासे प्रकाशित ।
मिध्यावृष्टिके जो aur आदिक शुभभाव सांसारिक सुखकी प्राप्तिके उद्देश्यसे किये जाते हैं वे मात्र रागरूप होनेसे और इन्द्रियसुखको इच्छा लिए हुए होनेसे केल बन्धके ही कारण है। ऐसे ही शुभभावों को श्री प्रवचनसार ( प्रथम अध्याय) आदिक ग्रन्थों में हेय बतलाया है । जो शुभभाव सम्यग्दृष्टिके वीतरागता एवं मोक्षप्राप्ति के लिए होते है उनसे संवर निर्जरा भी होती है। उन्होंसे सम्बन्धित यह प्रश्न है। उनका कन प्रवचनसार (तृतीय अध्याय) आदिक ग्रन्थों में है । इन्हीं को निरतिशय तथा सातिशयके नामसे भी कहा जा सकता है । सम्यग्दृष्टिका दया आदि शुभभाव, कर्मचेतना न मानकर ज्ञानचेतना माना गया है, इसलिए उसे मात्र बन्धका कारण मानना आगमविरुद्ध है ।
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शंका ३ और उसका समाधान
आपने अन्तमे लिखा है. यदि 'प्रकृतमें दयासे वीतराम परिणाम स्वीकार किया जाता है......" आदि । इसके विषयमें हमारा कहना है कि जब आगमके आधार पर सैद्धान्तिक चर्चा होती है तब किसी व्यक्ति विशेषकी मान्यताका प्रश्न नहीं रह जाता। हमारी तो आगमपर ही पूर्ण श्रद्धा है और आगमके उस्लेखोंकी संगति मैठानेका ही प्रयत्न करते हैं यही हमारी मान्यता है । किसी व्यक्ति विशेषकी स्वेच्छानुसार भान्यता या प्रतिपादनके अनुसार अपना पूर्वका आगमानुकूल श्रद्धान बदला नहीं जा सकता है और न बदलना ही चाहिए । आगममें क्या माना गया है यह सिद्ध करनेके लिए आपके समक्ष आर्ष ग्रन्थों के प्रमाण उपस्थित हैं, उन पर आप विचार करेंगे ऐसी आशा है।
अन्तमें आपने समयसार कलश १०६-१०७ लोक उजत कर मथितार्थ के रूपमें निम्नलिखित शब्द लिखे है-'इसलिए ज्ञान हो मोक्षका कारण है।' इसपर हमारा इतना ही संकेत है कि आपने जैसा समझा है वह ठीक नहीं है। यदि ज्ञानमात्र हो मोक्षका कारण होता तो श्री कुन्दकुन्द आचार्य मोक्ष पादृड ग्रन्थमें यों न लिखते
धुवसिद्धी तित्थयरा चजणाणजुदो करेइ तवयरणं ।
णाऊण धुबं कुरजा तवयरणं णाणजुत्तो वि ॥६०।। अर्थ-तीर्थकरको उसी भवसे अवश्य आत्मसिद्धि (मुक्ति ) होती है, तथा वे जन्मसे मति, श्रुत, अवधि ज्ञान सहित और मुनिदीक्षा लेते ही मन पर्मयशानसहित चार ज्ञानधारक हो जाते है। चार ज्ञानधारक होकर भी वे तपश्चरण करते हैं। ( तपस्या करने के बाद ही तीर्थकर मुक्त होते हैं। ) ऐसा जानकर ज्ञानसहित व्यक्तिको अवश्य तपस्या करना चाहिए । यानी बिना चारित्रके झानमात्रसे मुक्ति नहीं होती। तथात्र
तीर्थकरा जगज्येष्ठा यद्यपि मोक्षगामिनः ।
तथापि पालितञ्चैव चारित्रं मोक्षहेतुकम् ।। अर्थ-यद्यपि तीर्थकर जगत्त्रेष्ठ तथा मुफ्तिगामी होते हैं तो भी तीर्थंकरोंने मोक्षके कारणभूत चारित्रका पालन अवश किया है । सूत्रपातुड़में धो कुन्दकुन्द आचार्य लिखते है
ण चि सिलाइ वस्थधरो जिणसासगे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो वि मोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सब्ये ॥३२॥ अर्थ-जैनधर्ममें वस्त्रधारक (संयमरहित) तीर्थकर भी क्यों न हो, वह मुक्त नहीं हो सकते । मोलमार्ग नग्न दिगम्बर रूप है, शेष सभी जन्मार्ग है। मोक्षप्राभुतमें श्री कुन्दकुन्द आचार्य लिखते है
गाणं चरितहीणं दंसणहीणं तहिं संजुतं ।
अण्णेसु भावरहियं लिंगरगहणेण किं सोक्खं ॥५७|| अर्थात्-चारित्रसे रहित ज्ञान सुखकारी नहीं है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तस्वार्थसूत्र १-१।
अर्थ-सम्मग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ( रत्नश्रय ) मोक्षका मार्ग है । राजवातिकमें इसी सूत्रकी टीका श्री अकर्शकदेवने लिखा है
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाशानिना क्रिया।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अर्थ-मारिष रहित ज्ञान मोक्षमार्गमें कार्यकारी नहीं है।
इत्यादि अनेक आर्ष प्रमाणों द्वारा आपका यह लिखना कि 'ज्ञान ही मोक्ष का कारण है ।' अप्रामाणिक सिख होता है।
इस विषयमें समयसार (अहिंमा मन्दिर, १ दरियागंज, दिल्लीसे प्रकाशित) के पृष्ठ ११८ की टिप्पणी में लिखा है
एकान्तेन ज्ञानमपि न बन्धनिरोधक, एकान्तेन कियापि न बन्धनिरोधिका इति सिद्ध उभाभ्यामेव मोक्षः।
अर्थ-एकान्तसे न तो मात्र ज्ञान ही कर्म-बन्धका रोकनेवाला है और न केवल चारित्र-क्रिया हो कर्म-वन्धको रोकनेवाली है। इससे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान चारिव दोनोंके द्वारा ही मोक्ष होता है । इसी विषयको श्री कुन्दकुन्द आवार्यने समयसार को १५५वीं गाथामें कहा है
जीवादीसदहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं 1
रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ।। अर्थ-जोव अजोय आदि तस्त्रोंका श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, उन तत्वोंका जानना ज्ञान है, राग आदि भावोंका परिहार सम्यक्चारित्र है । ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्ष मार्ग है।
इस मायाको टीकामें श्री अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं---
मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रवानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानं । रागादिपरिहरणस्वभावम ज्ञानस्य भवनं चारित्रं । तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः।
___अर्थ-मोक्षका कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, मम्पक्चारित्र है। यहाँ सम्यग्दर्शन तो जीपाविक तत्त्वोंके श्रद्धानस्वभावसे ज्ञानका होना है। जीवादिक ज्ञानस्वभावसे शानका होना ज्ञान है । राग आदिके परिहार स्वभावसे ज्ञानका होना चारित्र है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र एक ही ज्ञानरूप होना सिद्ध हुआ । इसलिए ज्ञान ही परमार्थसे मोक्षका कारण है।
श्री अमृतचन्द्र सूरिके इस कथनके अनुरूप ही १७६-१०७ में कलशका अभिप्राय है । तदनुसार 'ज्ञान मोक्षका कारण है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यही है कि 'सम्यग्दर्शन सम्बचारित्र सहित ज्ञान मोक्षका कारण है'-मात्र ज्ञान (जीवादि तत्त्वोंका अधिगम) मोक्षका कारण नहीं है ।
इन उपर्युक्त आर्ष प्रमाणों द्वारा स्पष्ट. प्रमाणित होता है कि जीवदया संयमरूप है तथा संवर और निर्जराका कारण होनेसे धर्म है।
आपने अतपालनको शुभ भावमें गर्भित करके उससे संवर-निर्जरा तथा मोक्षसिद्धि होना असम्भव बतलाया है। इस विषयका निर्णय करनेके लिए सर्व प्रश्यम ब्रतोंका स्वरूप देखना आवश्यक हो जाता है। श्री तत्त्वार्थसूत्रके अध्याय ७ के सूत्र ? में अतोंका लक्षण निम्न प्रकार दिया है
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । अर्थ---हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रहसे विरक्ति प्रत है।
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शंका ३ और उसका समाधान
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उक्त लक्षणसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत विरहित अर्थात् निवृत्तिरूप है, प्रवृत्तिरूप नहीं है। इसी कारण यह सम्यक्वारित्रमें गर्मित है। जितनी भी निवृत्ति है वह केवल संवर तथा निर्जराकी ही कारण है, वह कभी भी बन्धका कारण नहीं हो सकती है। अतः प्रतीका पालन संघर-निर्जराका कारण है । सिद्धान्त में अणुव्रती एवं महाव्रतीके प्रत्येक समय असंख्यातगुणी निर्जग बतलाई है। अव्रत सम्यग्दृष्टिके लिये ऐसा नियम नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि वहाँ अत ही असंख्याप्तगुणी निर्जराके कारण है।
दप्तादान ग्रहण करना या सत्य बोलना आदि व्रतोंका लक्षण नहीं है । इनको व्रतोंका लक्षण स्वीकार कर लेने पर अश्याप्ति दोष आता है, क्योंकि दत्तादानको न ग्रहण करने की अवस्था या मौनस्थ आदि अवस्थामें मुनियोंके, यह लक्षण घटित न होनेके कारण, महाव्रत ही न रहेंगे । किन्तु यह इष्ट नहीं हो सकता है, क्योंकि मुनियोंके हर समय महावत रहते है, श्रेणी आदिके गुणस्थानमें स्थित मुनियों के भी महावत होना स्वीकार किया गया है । १२वें गुणस्थानमें अप्रमाद बतलाते हुए कहा हैपंच महन्वयाणि पंच समिदीयो तिषिण गुत्तोओ णिस्से सकसाय भावो च अप्पमादो णाम ।
-धवल पु० १४ पृ० ८६ अर्थ-पंच महानत, पंच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायोंके अभावका नाम अप्रमाद है।
इससे प्रमाणित होता है कि १२वें गुग स्थानमें भी पंच महावत आदिक होते हैं और वे अप्रमादरूप हैं। यह व्रत सम्यचारिकरूप है । इसके कुछ प्रमाण नीचे दिये जाते है
हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः ।
कारस्न्यैकदेशविरतश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।।४०।-पुरुषार्थसिद्धयुपाय अर्थ-हिंसासे, असरयभाषणसे, चोरीसे, कुशीलमे और परिग्रहसे सर्वदेश तथा एकदेश त्याग से, वह चारित्र दो प्रकार
हिंसानृतचौरेभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहान्यां च ।
पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ।।४९||-रत्नकरण्डश्रावकाचार अर्थ-हिंसा, अनुत, चौर्य, मैथुनसेवन, परिग्रह ये पाप आवनेके प्रनाला है, इनसे जो विरक्त होना सो सम्यग्ज्ञानीके चारित्र है।
पायारंभणिवित्ती पुष्णारंभे पउत्तिकरणं पि ।
णाणं धम्मज्माणं जिणभणियं सब्वजीवाणं ॥९७॥ रयणसार अर्थ-पापारम्भसे निवृत्ति तथा पुषयारम्भमें प्रवृत्ति भी. सर्व जीवोंके ज्ञान एवं धर्मध्यान है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ।
___ इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्यने व्रतोंको ज्ञान एवं प्रमंध्यान प्ररूपित किया है तथा चारित्रपाहह गा० २७ में इनको संयम और चारित्र बतलाया है
पंचिदियसंवरणं पंचवया पंचविसकिरियासु। पंचसमिदि तयगुत्ती संजभचरणं निरायारं ॥२७॥
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा अर्थ-पंचेन्द्रियोंका संवरण, पंच व्रत, पच्चीस क्रिया, पंच समिति तपा तीन गुप्ति मुनियों के संयम एवं चारित्र है।
प्रत्येक जैन आगम अभ्यासीको यह तो मुविदित ही है वि चारित्र, संयम तथा धर्म्यध्यान संदरनिर्जरा एवं मोससिद्धिके कारण है। अत भी चारित्र, संयम एवं धर्म्यष्यानरूप होनेसे संबर-निर्जरा एवं मोक्षसिद्धिके कारण सिद्ध हो जाते है। अतः यह कहना कि व्रतपालनसे संघर-निर्जरा तथा मोक्षसिद्धि होना असम्भव है-सर्वथा आगमविरुद्ध है।
यह प्रश्न हो सकता है कि कहीं-कहीं आगममें व्रतोंको शुभ आत्र व-बन्धका भी कारण क्यों बतलाया है? उसका समाधान यह है कि उन व्रतोंके साथ दसादानका ग्रहण. सत्यभाषण बादिरूप जो रागसहित प्रवृत्ति अंश रहता है और जिसका इन प्रतोंमें त्याग नहीं किया गया है, उससे ही शुभ आसव-यय होता है । जैसे कि देव आयके आनद प्रत्ययोंमें तत्त्वार्यसूबमें 'सम्यक्त्वं च' अर्थात् सम्यक्त्वसे भी देव आयुका बन्ध होता है, ऐसा कहा गया है। वास्तवमें सम्यक्त्व बन्धका कारण नहीं है, किन्तु सम्यक्रवके साथ रहनेवाला रागांश ही देव आयु के बन्धका कारण एक मिमि नगर निगमोरी कारण राई । को बन्धका कारण कहा जाता है उसी प्रकार एक मिश्रित अखण्ड पर्याय होनेके कारण व्रतोंको भी शुभ बन्धका कारण कहा जाता है ।
एक मिश्रित अखण्ड पर्याय निवृत्ति तथा प्रवृत्ति (राग) दोनों अंश सम्मिलित है। अतः उससे भास्त्रव-बन्ध भी है और संबर-निर्जरा भी है। क्रमशः प्रवृत्ति (राग) अंधके क्षीण हो जाने पर माष संवरनिर्जरा ही होती है। रागके साथ जो पापोंसे निवृत्ति बनी रहती है, उससे उस समय भी संवर-निर्जरा बराबर होती रहती है।
आगममें जिस-जिस स्यानपर व्रतोंको छोडनेका उपदेश पाया जाता है, वहां सविकल्पसे निर्विकल्प समाधिमें पहुँचानेके लिये व्रतोंमें होनेवाला अध्यवसान या उसके प्रवृत्तिरूप रागांश अथवा व्रतोंके विकल्पको ही छुड़ाने का उपदेश है, न कि निवृत्ति रूप स्वयं यतोंको छोड़नेका । क्योंकि पापोरी निवृत्तिरूप ब्रतोंके छोड़नेका अर्थ होगा पापोंमें प्रवृत्ति करना, जो कि कभी इष्ट नहीं हो सकता है। जैसे ऊपर सप्रमाण बतलाया गया है-व्रत तो ऊपरके श्रेणीके गुणस्थान आदिमें भी कायम रहते हैं छोड़े नहीं जाते हैं।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणो । मंगले कुन्दकुन्दाों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
शंका ३ जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
प्रतिशंका ३ का समाधान
१. प्रथम-द्वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार जो बदया पदके स्वदया और परदया दोनों अर्थ सम्भव हैं। किन्तु प्रकृतमें मूल प्रश्न परदयाको घ्यानमें रखकर ही है, इस बातको ध्मानमें रखकर हमने प्रथम उत्तरमें यह स्पष्टीकरण किया कि यदि
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का १और उसका समाधान
१११ धर्म पदका अर्थ पुण्यभाव लिया जाय तो जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है । इस उत्तरमें आगम प्रमाण भी इसी अर्थकी पुष्टि में दिये गये।
अपर पक्षने अपनी प्रथम प्रतिशंकामें एक अपेक्षासे हमार उक्त कथनको तो स्वीकार कर लिया । किन्तु साथमें आगमके लगभग बीम प्रमाण उपस्थित कर यह भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया कि जीवदयाका संबर और निर्डमा सन्ग में भी अन्तर्धान होता है इसलिए वह मोशका भी कारण है।
अपर पक्षने ओ प्रमाण उपस्थित किये उनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण हैं जिनमें धर्मको दयाप्रधान कहा गया है, मा करुणाको जीवका स्वभाव कहा गया है या शुभ और शुद्धभावोंसे कर्मोकी क्षपणा कही गई है और साथ ही ऐसे प्रमाण भी उपस्थित किये जिनमें स्पष्ट रूपसे सगरूप पुण्यभावकी सूचना है । किन्तु इनमेंसे किस प्रमाणका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया गया। वे कहाँ किस अपेक्षासे लिखे गये हैं यह भी नहीं बोला गया। इसलिए हमें अपने हसरे उत्सर यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि 'ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही है। यदि पूरे जिनागममेंसे ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाय तो स्वतन्त्र अन्य बन जाय ।
फिर भी उन प्रमाणोंको ध्यानमें रखकर हमने अपने दूसरे उत्तरमें यह स्पष्टीकरण कर दिया कि पुण्य (शुभराग) भावरूप जो दया है वह तो मोक्षका कारण नहीं है । हो, इसका अर्थ वीतरागभाव आदि लिया जाय तो वह संवर और निर्जरारूप होनेसे अवश्य ही मोक्षका कारण है।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आगममें ससग सम्पयत्वको या सरागचारित्र आदिको जहाँ बन्धका कारण कहा है वहीं उन्हें परम्परा मोक्षका कारण भी कहा है । पर उसका आशय दूसरा है, इसलिए प्रकृतमें उसकी विवक्षा नहीं है । यहाँ तो निर्णय इस बातका करना है कि रामरूप शुभभाव या पुण्यभाव भी क्या उसी तरह मोक्ष का कारण है जिस तरह निश्चय रलत्रय । इन दोनोंमें कुछ अन्तर है या दोनों एक समान है। पूरी चर्चाका केन्द्रबिन्दु भी यही है । हमने अपने प्रथम और दूसरे उत्तरमें इसी आशयको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है।
२. प्रतिशंका ३ के आधारसे विचार तत्काल प्रतिशंका ३ विचारके लिए प्रस्तुत है । इसके आरम्भमें हमारे प्रथम उसरको लक्ष्यमें रखकर तीन निष्कर्ष फलित किये गये हैं। प्रथम उत्तर हमने अन्य जीवोंकी दयाको लक्ष्यमें रखकर दिया था, इसलिए इस अपेक्षासे अपर पलने हमारे प्रथम उत्तरका जो यह निष्कर्ष फलित किया है कि 'जीवदया पुण्यभाव है, जो कि शुभ परिणामरूप तो है, किन्तु धर्मरूप नहीं है। वह यथार्थ है, पर जीवोंकी दया पर भाव अर्थात् रागभाव है, इसलिए वह धर्म अर्थात् वीतराग भाव कथमपि महीं हो सकता ।
दूसरा निष्कर्ष हमारे आशयको स्पष्ट नहीं करता । परमात्मप्रकाश गाथा ७१ में भाबोंके तीन भेद किये गये है-धर्म, अधर्म और शुद्ध । स्पष्ट है कि यहाँ धर्म पद शुद्धभावोंसे भिन्न शुभभावके अर्थमें आया है। इसकी टीकाका भी यही आशय है । उसमें स्पष्ट कहा गया है कि शुभभावसे धर्म अर्थात् मुख्यरूपसे पुण्य होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि शुभभावसे वीतराग भावरूप धर्म होता है यह उपचार कथन है । किन्तु अपर पक्षने इसका ऐसा अर्थ किया है जिससे भ्रम होना सम्भव है।
तीसरे निष्कर्षक विषयमें मात्र यही म्बुलासा करना है कि पर जीवोंकी दयाका विकल्प तो सम्यदृष्टियों यहाँ तक कि मुनियोंको भी होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो इनके पूजा, भक्ति, अवमण
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जयपुर (खानिया) तश्वचर्चा और उसकी समीक्षा
आदि व्यवहार धर्म नहीं बन सकता। हमारी समझसे यह बात अपर पक्ष को भी मान्य होगी, अतः अपर पक्षको निःसंकोचरूपसे ग्रह स्वीकार कर लेना चाहिए कि पुण्यबन्धरूप जीवदया सम्यग्दृष्टियोंके भी होती है।
अपर पक्षने अपने प्रतिशंकारूप दूसरे पत्रक में विविध ग्रन्थोंके अनेक आगमप्रमाण दिये हैं । यह सच हैं और उनमें से कुछ में जीवदया धर्म है तथा शुभभावसे कर्मक्षय होता है यह भी कहा गया है। किन्तु कहाँ किस का नयदृष्टिसे क्या आशय है इसका स्पष्टीकरण करना विवेकियोंका काम है । हमने अपने दूसरे उत्तरमें वही किया है। क्या इसे आर्ष ग्रंथोंकी प्रामाणिकता पर अपर पक्ष द्वारा अप्रामाणिकताकी अंगुली उठाना कहना उपयुक्त है ? इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। यदि यही बात है तो वह स्वयं अपने को इस दोषसे बरो नहीं रख सकता । अपर पक्षको यह समझना चाहिए कि किसी मवाक्यको अप्रमाणित घोषित करना अन्य बात है और वहाँ जिस दृष्टिले विवेचन किया गया है, नयदृष्टिसे उसके आशयको खोलना अन्य बात है ।
अपर पक्ष यदि व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म दोनों को मिलाकर निश्चयधर्म कहना चाहता है और वह हमसे भी ऐसा कहलावेदिता रहा है उसकी वह जाम हमारे द्वारा कभी भी पूरी नहीं की जा सकेगी। जब कि जिनागममें ये दो भेद किये हैं और उनके कारणों तथा फलका अलगअलग विवेचन किया है ऐसी अवस्थामें हम तो वही कहेंगे जिसे स्थान-स्थान पर जिनागममें स्पष्ट किया गया है ।
श्री प्रवचनसारमें शुभ, अशुभ और शुद्ध भावका निर्देश करते हुए लिखा हैजीवो परिणमदि जदा सुहेण असुद्देण वा सुहो असुहो । सुद्वेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ॥९॥
परिणामस्वभावाला यह जीव जब शुभ या अशुभरूपसे परिणमता है तब शुभ या अशुभ होता है छौर जब शुद्धरूपसे परिणमता है तब शुद्ध होता है ॥ ९ ॥
आगे इनमें से किसमें उपादानबुद्धि की जाय और किसमें त्यागबुखि रखी जाय इस अभिप्रायसे इनके फलका निर्देश करते हुए लिखा है
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गमुहं ॥११॥
धर्म से परिणित स्वभाववाला यह आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त होता हूँ तो मोक्षसुखको प्राप्त करता हैं और यदि शुभोपयोगबाला होता है तो स्वर्गसुखको प्राप्त करता है ॥११॥
आगम प्रमाण है। इनकी प्रामाणिकता पर कोई भी श्रद्धालु बन्धु अप्रामाणिकताकी अंगुली उठानेका साहस नहीं कर सकता। ऐसी अवस्थामें दूसरे जीवोंको दयारूप शुभभावों को यदि हमने पुण्यबन्धका कारण लिखा तो आगमकी अवहेलना कहीं हुई । इस कथन द्वारा तो हमने आगमका रहस्य खोलकर मोक्षमार्ग ही प्रशस्त किया। क्या अपर पक्ष यह चाहता है कि प्रत्येक भव्य जीव परजीवोंको दयाको मोक्षका कारण जान उसीमें उलझा रहे मोर आत्मस्वभाव के सम्मुख हो सच्चे आत्मकल्याणके मार्ग में न लगे। हम नहीं समझते कि वह ऐसा चाहता होगा। यदि यही बात है तो शुभ और अशुभ भावों में अन्तर तो करना ही चाहिए। दृष्टिपथ में लेना चाहिए ।
उस पक्षको प्रवचनसारके उक्त उल्लेखोंके आधारपर साथ ही उनके कारणभेद और फलभेदको भी अपने
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Bit३ और
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अपर पक्ष ने अपने दूसरे पत्रक में जो आगम प्रमाण दिये हैं, भला वह पक्ष हो बतलायें कि उनकी उपेक्षा करनेका साहस हम कैसे कर सकते थे। तभी तो हमने जीवदया के स्वदया और परदया ऐसे दो भेद करके स्वदाका अन्तर्भाव वीतरागभाव में और परदयाका अन्तर्भाव रागरूप पुण्य भाव में करके अपने दूसरे उत्तर में उनके फलका भी पृथक् निर्देश कर दिया है। अपर पक्षने सब प्रमाणों को एक पंक्ति में रख कर और उनका आशय खोले बिना उन सभी प्रमाणोंसे अपने अभिप्रायकी पुष्टि करनी चाही है । यह देखकर ही हमें अपने दूसरे उत्तर में मह लिखना पड़ा है कि 'में सब प्रमाण तो लगभग २० ही हैं। यदि पूरे जिनागममें से ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जावे ती एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ हो जाय, पर इन प्रमाणोंके आधारसे क्या पुण्यभावरूप दयाको इतने मात्रसे मोक्षका कारण माना जा सकता है ।"
हमने अपने पिछले उत्तर में जो यह लिखा है कि 'शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिननिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध ही होता है । उससे संचर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है। वह प्रवचनसार गाथा ११ तथा उसकी दोनों आचार्यों द्वारा रचित संस्कृत टीकाओंको लक्ष्य में रखकर ही लिखा है । हम आशा करते थे कि अगर पक्ष भी इसी प्रकार प्रत्येक आयम प्रमाणको उपस्थित करते हुए आगमका कौन वचन किस आशय से लिखा गया है इसे सुस्पष्ट करता जाता । उदाहरणार्थं जयघवला में कहा हैसुभ-सुद्धपरिणामेहि कमक्खयाभावे तखयाणुवदत्तदो ।
यदि
शुभ और शुद्धपरिणामोंसे कर्मोंका क्षय नहीं होता तो कमका क्षय हो ही नहीं सकता । । इसलिये ऐसे स्थलपर इसमें शुभ परिणामको शुद्ध परिणामोंके समान कर्मक्षयका कारण कहा अगर पक्षको चाहिये था कि वह इस वचनका आशय अन्य आगम वचनके प्रकाश में अवश्य हो स्पष्ट कर देता तो इससे कौन कथन किस विवक्षासे किया गया है यह सबको समझमें सुगमतासे आ जाता । प्रकृतमें कमसे कम इसका खुलासा किस प्रकारसे किया जाना इष्ट या इसके लिए प्रवचनसार गाथा ११ की आचार्य जयसेनकृत टीकापर दृष्टिपात कीजिए
तत्र यच्छुद्ध संप्रयोगशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते । निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभीपयोगरूपसरागचारित्रेण परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिक सुख विपरीत माकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं लभते । पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसभात्रे मोक्षं च लभते ।
यहाँ जो शुद्ध संप्रयोग शब्दका वाच्य शुद्धोपयोग स्वरूप वीतराग चारित्र है उससे निर्वाणको प्राप्त करता है। तथा निर्विकल्प समाधिरूप शुद्धोपयोगरूप शक्तिके अभाव में जब शुभोपयोगरूप सरागचारित्र रूपसे परिणमता है तब अनाकुलत्वलक्षण पारमार्थिक सुखसे विपरीत आकुलताके उत्पादक स्वर्गसुखको प्राप्त करता है । पश्चात् परम समाधिरूप सामग्रीके सद्भावमें मोक्षसुखको प्राप्त करता है ।
यह स्पष्ट किया
यह आगमप्रमाण है । इस द्वारा शुभ और शुद्ध दोनों प्रकारके भावोंका था फल गया है । इस द्वारा हम यह अच्छी तरह जान लेते है कि शुभ भावोंको जो श्रीजयधवलामें कर्मक्षयका हेतु कहा है वह किस रूप में कहा है। वस्तुतः तो वह पुष्यबन्धका ही हेतु है । उसे जो कर्मक्षयका हेतु कहा [ वह इस अपेक्षा से ही कहा गया है कि उसके अनन्तर जो शुद्धोपयोग होता है वह वस्तुतः कर्मक्षय का १५
गया
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
हेतु है, इसलिये उपचारसे उसे भी कर्मक्षयका हेतु कहा गया है। शुभभाव बम्धका कारण है इसका निर्देश करते हुए पंचास्तिकायमें भी कहा है
जेमहमहमुक्षिण भार करेदि जदि अप्पा।
सो तेण हदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण ॥१४७।। यदि आत्मा विकारी वर्तता हुआ उदीर्ण शुभ-अशुभ भावको करता है तो वह उस भावके निमित्तसे नाना प्रकारके पुद्गल कर्मोंसे बद्ध होता है ॥१४७॥
इससे शुभ परिणाम करनेका क्या फल है इसका सहज पता लग जाता है।
यह अपर गक्ष द्वारा अपने द्वितीय पत्रक उपस्थित किया गया एक उदाहरण है जिसका यहाँ हमने दो आगम प्रमाणोंके प्रकाशमें स्पष्टीकरण किया है। अपर पक्ष द्वारा उपस्थित किये गये प्रमाणोंके विषयमें भी इसीप्रकार स्पष्टीकरण जान लेना चाहिये। हमारी तो दृष्टि सवा कालसे तत्त्वविमर्शकी रही है और रहेगी। इसका विचार तो अपर पक्ष को ही करना है कि कोई भी जिनवाणीका भक्त महान् आचार्य और महान ग्रन्धों के नयविशेषसे किये गर्ने कथनको उसी रूप में ग्रहण न कर उसे सर्वथा रूपमें क्यों स्वीकार करता है ? इसका हमें विशेष आश्चर्य है।
हमने तो जीबदया किस अपेक्षासे शुभभाय है और किस अपेक्षासे वीतराग भाव है, मात्र इमका अपने पिछले उत्तरों में खुलासा किया। यदि अपर पक्ष उसे हमारा मूल विषयको छुए बिना विषयान्तरमें प्रवेश करना मानता है तो भले ही मानता रहे, उसकी इच्छा । किन्तु जिसका हमने पिछले उत्तरोंमें निर्देश किया है वह हमारा विषयान्तरमें प्रवेश करना नहीं है, अपि तु मूल प्रश्नका स्पष्टीकरण मात्र है ।
जीवदया स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं है। यह जीवका परिणाम है जो नविशेषसे शुभ भी हो सकता है और शुद्ध भी । पुरुषार्थसिद्ध युपाय आदि शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा इसीका स्पष्टीकरण किया गया है कि यदि जीवदयाको शुभ परिणामस्प लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव आम्नव और बन्धतत्त्वमें होता है और उसे शद्ध परिणामरूप लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव संवर, निर्जरा और मोक्ष तस्वमें होता है। अपर पक्ष इसे निर्विवादरूपमें स्वीकार कर ले यही इस प्रयासका फल है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसारमें लिखा है
सुह परिणामो पुण्णं असुहो पायं ति भणियमण्णे सु ।
परिणामो गणगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥१८॥ परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तथा जो परिणाम अन्यको लक्ष्यकर नहीं होता है उसे शास्त्रमें दुःखके क्षयका कारण कहा है ॥१८॥
हमने पिछले उत्तरमें इसी जिनागमको लक्ष्यमें रखकर दूसरे जीवोंकी दयाको पुण्यभाव और स्वदमाको वीतराग भाव कहा है । शुभभावका फल कर्मानव है और शुद्धभावका फल कर्मनिरोध है, इसके लिये प्रवचनसार गाथा १५६ तथा २४५ पर दृष्टिपात कीजिए।
दया कहो, करुणा कहो या अनुकम्पा कहो इन तीनोंका आशय एक ही है। आचार्य कुम्दकुन्द प्रव. बनसारमें जीवोंमें की गई अनुकम्पाको शुभोपयोग बतलाते हुए लिखते है---
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शंका ३ और उसका समाधान जो जाणदि जिणिदे पेच्छदि सिद्ध तहेव अणगारे ।
जोवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ।।१५७।। जो जिनेन्द्र को जानता है, सिद्धों तथा अन्गारोंको श्रद्धा करता है और जीनाके प्रति अनुकम्पायुक्त है वराका वह शुभोपयोग है ॥१५७॥
यदि अपर पक्ष कहे कि हम इन सब प्रमाणोंको प्रकृतमें उपयोगी नहीं मानते । हमे तो ऐसा प्रमाण दीजिए जिसमें स्पष्ट रूपसे दयाका उल्लेख हो और उसे आस्रव भाव बतलाया गया हो तो इसके लिए तत्त्वार्थसारके आस्रव प्रकरणके इस वचन पर दृष्टिपात कीजिए :
दया दानं तपः शोलं सत्यं शौचं दमः क्षमा । वयावृत्यं विनीतिश्च जिनपूजार्जवं तथा ॥ २५ ।। सरागसंयमश्चेव संयमासंयमस्तथा ।
भूतव्रत्यनुकम्पा च सद्वेद्यास्रबहेतवः ॥ २६ ॥ दया, दान, तप, शंल, सत्य, शौच, दम, क्षमा, वयावृत्य, विनय, जिनपूजा, आर्जव, सरामसंयम, संयमासयम तथा जीवों और व्रतियोंपर अनुकम्पा ये सच साताबेदनोयके आरवर्क हेत् है ।। २५-२६।।
इस प्रकार उक्त प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि हम प्रथम और द्वितीय उत्तरमें जो कुछ भी लिख आये है वह आगमका आशय होनेसे प्रमाण है।
अपर पक्षने बोधप्राभतका उद्धरण उपस्थित कर जो धर्मको दयापकान बतलाकर अपने अभिमतकी सिद्धि करनी चाही है, वह युक्त नहीं है, क्योंकि जहाँ भी धर्मको दयाप्रधान कहा है वहाँ 'दया' पद मुख्यतमा वीतरागभावका सूचक ही लिया गया है। यह इसीसे स्पष्ट है कि स्वयम्भूस्तोत्रमें अभिनन्दन जिनकी स्तुति करते समय उन्हें दयावधूका आश्रय करनेवाला तथा शान्ति जिनकी स्तुति करते समय उन्हें दयामूर्ति कहा गया है। जिससहस्रनाम तो स्पष्टतः सर्वश वीतराग जिनकी स्तुति है। इसमें जिनदेवको दयावज, महाकारुणिक, दयागर्भ, दयायाग और दयानिधि नामों द्वारा सम्बोधित किया गया है । जिनदेषके ये सब नाम अर्थगर्भ अर्थात गणनाम हैं । इससे भी यही सिद्ध होता है कि 'दया' यह शब्द जहां जिनागम में शुभ रागरूप पुण्यभावके अर्थ में आता है वहाँ वह वीतरागरूप धर्मके अर्थ भी आता है। इसलिए बोधप्रामृतके 'धम्मो दयाविसुद्धो' इस उल्लेखके आधार पर 'धर्म' पदका अर्थ मुख्यरूपसे वीतराग भाव ही लेना चाहिए, क्योंकि जिससे रागको पुष्टि होती हो वह जिनागम ही नहीं हो सकता ।
धवल पुस्तक १३ के 'करुणाए जोवसहावस्स' इत्यादि उस्लेखका भी यही आशय है। तभी तो उसमें करुणाके कर्म जनित होनेका विरोध किया गया है। जो कर्मको निमित्त कर उत्पन्न नहीं होता वह तो मात्र निरचय रत्नत्रयरूप आत्मपरिणाम ही हो सकता है।
अपने अभिमतकी पुष्टि में अपर पक्षने भावसंग्रहकी 'सम्माइट्ठीपूणं' इत्यादि गाथा उपस्थित की है । यदि अपर पक्ष इसके अन्तिम चरणपर ध्यान दे तो नयविशेषसे कह गये इस वचनका अर्थ सहज ही स्पष्ट हो जाय । आगममें व्यवहार रत्नत्रयको व्यवहारसे मोक्षका हेतु बतलाया ही है । इस वचनसे उसी अभिप्रायकी पृष्टि होती है। अथवा सम्यग्दृष्टिका पुण्य दीर्घ संसारका कारण नहीं है, अल्प कालमें ही वह मोक्षका पात्र होगा यह आशय भी इस गाथाका हो सकता है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जयधवला पु० १ पृ० ६ के 'सुभ-सुद्धपरिणामेहि' का क्या आशय है इसका स्पष्टीकरण हा उत्तरमें हम पहले ही कर आये हैं।
अब तक प्ररूपित समग्र कथनका सार यह है
१. दया पद TEL होनों अौत व्यक्त दशा-ताभ भावके शुम भी और वीतरागभावक अर्थमें भी।
२. शुभभाव परभाव होनेके कारण उसका यथार्थमें आस्रव और बन्ध तस्वमें ही अन्तर्भाव होता है। जहाँ भी इसे निर्जराका हेतु कहा है वहाँ बैसा कथन व्यवहारनमसे ही किया गया है ।
३. वीतरागभाव निजभाव होनेसे उसका अन्तर्भाष संबर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वमें ही होता है।
४, वीतरागभाव व्यवहारसे आस्रव और बन्धका कारण है यह व्यवहार वीतरामभाव पर लागू नहीं होता, क्योंकि यह सब प्रकारके व्यवहारको दृष्टि में गौण कर एकमा निश्चयस्वरूप ज्ञायक आत्माके आलम्मनसे सम्मयस्वरूप उत्पन्न होता है। अतः वह स्वरूपसे ही सब प्रकारके व्यवहारसे अतीत है। उस पर किसी प्रकारका उपचार लागू नहीं होता।
अपर पक्ष जिस प्रकार आशावादी है, उसी प्रकार हम भी आशावादी हैं। क्या ही अच्छा हो कि अपर पक्ष रागरूप पुण्यभाव और वीतराग भावमें वास्तविक अन्तरको समझकर 'दया'पदका जहाँ जो अर्थ इष्ट हो उसे उसी रूप में स्वीकार कर ले और इस प्रकार शुभभाव और वीतरागभावमें एकत्व स्थापित करनेसे अपनेको जुदा रख्ने ।
हमें शुभ भावोंकी अवान्तर परिणतियोंका पूरा ज्ञान हो या न हो । पर हम इतना निश्चयस जानत है कि जो भी शुभभाव उत्पन्न होता है वह कर्म तथा नोकर्मके सम्पर्कक फलस्वरूप ही उत्पन्न होता है, इसलिए वह कर्मस्वभावबाला होनेसे नियमसे कर्मबन्धका हेतु है यह मोक्षका हेतु त्रिकालमें नहीं हो सकता। मुसो तथ्यको स्पष्ट करते हए आचार्य श्रमतचन्द्र समयसार गाथा १५६ को टीका लिखत है
यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो प्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोआहेतुः स सर्वाऽपि प्रतिषिद्धः, तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभवनात् ।
कितने ही प्राणी परमार्थरूप मोक्षहेतु के सिवाय पत, तप आदि शुभकर्म मोक्ष के हेतु है ऐसा मामले हैं। किन्तु वह सभी निषिव है, क्योंकि वह द्रव्यान्तरस्वभाब है, उसके स्वभावसे ज्ञानका होना नहीं बनता। इसी अर्थको स्पष्ट रूपसे समझने के लिए इस कलश पर दृष्टिपात कीजिए
वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि ।
द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ।। १०७ ।। कर्मस्वभावसे वर्तना ज्ञानका होना नहीं है, इसलिए वह ( शुभ भाव ) मोक्षका हेतु नहीं है, क्योंकि वह अन्य ( पुद्गल ) द्रवपके स्वभाववाला है ।। १०७ ॥
हमें प्रसन्नता है कि अपर पश्चने रागमात्रको बन्धका हेतु मान लिया है। किन्तु इतना स्वीकार करनेके बाद भी उसकी ओरसे जो रागांश और रत्नत्रयांशमें एकत्व स्थापित करने के लिए युक्ति दी गई है यह सर्वथा अयोग्य है। इस सम्बन्धमें उस पक्षका कहना है
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शंका ३ और उसका समाधानं 'तथा च अमृतचन्द्रसूरिने जो असंयत सम्यग्दृष्टि, संयमासंयमी एवं सरागसंयतके मिश्रित भावोंको अपनी प्रज्ञा उनी भिन्न-भिन्न करते हुए मांस और ननयांश द्वारा कर्मके धन और अवधकी सुन्दर व्यवस्था पुरुषार्थसिद्धघुपाय ग्रन्थके तीन पलोकों की है उनमें एक अखण्डित मिश्रित भावका विश्लेषण समझाने के लिए प्रयत्न किया गया है। यह मिश्रित अखण्ड भाग ही शुभ भाव है, अतः उससे बखवन्ध भी होता है तथा संवर-निर्जरा भी होती है।'
अपने इस अभिप्रायकी पुष्टिके लिये अपर पक्षने भोजन, काढ़ा और कर्मको दृष्टान्त रूपमें उपस्थित किया है। किन्तु उसका यह सद कथन वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेवाला न होनेसे प्रकृत ब्राह्म नहीं है। खुलासा इस प्रकार है
सर्व प्रथम विचार यह करना है कि आचार्य अमृतबन्धने रागांश और रस्मत्रको भिन्न-भिन्न क्यों बतलाया आचार्य श्री कुन्दकुन्द समयसारमें लिखते हैं
जीवो बंधो व तहा छिज्जति सलक्खणेहि नियएहि । पण्णाछेदणाण
figur
उ
णाणतमावण्या ॥ २९४ ॥
जीब और बम्ध ये दोनों निश्चित अपने-अपने लक्षणों द्वारा बुद्धिरूपी छैनीसे इस तरह छेदने चाहिए कि जिस तरह छेदे हुए वे दोनों नाना हो जय ||२९४।।
इसकी टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
आत्मा और के विधा करनेरूप कार्य में कर्ता आत्माके करण सम्बन्धी विचार करनेपर निश्चयतः अपने से भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है। उसके द्वारा छिन्न हुए नानापको अवश्य ही होते हैं । इसलिए प्रशा द्वारा ही आत्मा और बन्ध भिन्न-भिन्न किये जाते हैं ।
ये दोनों
शंका – आत्मा और अन्य वेत्य चेतकमा के कारण अत्यन्त प्रत्यासन्न होनेसे एकीभूत हैं तथा भेदविज्ञानका अभाव होनेके कारण वे एक चेतक ही हों ऐसे व्यवहारको प्राप्त होते हैं, अतः उनका प्रशाक द्वारा छेदना कैसे शक्य है ?
समाधान-आस्मा और अन्यके नियत स्वलक्षण हैं, उनकी सूक्ष्म अन्तःसन्धिमें प्रशारूपी छैनीको सावधान होकर पटकनेसे उनको छेदा जा सकता है ऐसा हम जानते हैं । -गाथा २९४ की टीकाके कुछ अंशका अर्थ |
ऐसा करनेका फल (प्रयोजन) क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए माथा २९५ को टीकामे आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
आत्मा और बन्धको प्रथम तो उनके नियत स्वयोंके ज्ञान द्वारा सर्वथा ही छेदना चाहिए। तत्पश्चात् रागादिलक्षपवाले समस्त वन्धको तो छोड़ना चाहिए और उपयोग लक्षणवाले शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिए। आत्मा और बन्धके द्विघा कश्मेका वास्तव में यही प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे शुद्ध आत्माका ग्रहण हो जाय ।
अत्यन्त प्रत्यासन्न दो को भिन्न-भिन्न करने की यह रीति है भिन्न जाना जाता है जो उत्पाद है वहीं व्यव है ऐसा होनेपर भी लक्षण
एकमात्र इसी पद्धतिले दोको भ मेदसे आगम में उन्हें दो बतलाया
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जयपुर (सानिण तस्वनी और नमको समीक्षा है । (आप्तमीमांसा कारिका ५८ ।) प्रकृतमें आचार्य अमृतचन्द्र ने इसी म्यायसे पुरुषार्थसिद्धयुपायमें 'येनांशेन विशुद्धिः' इत्यादि वचन लिखे हैं ।
रागका कारण कर्मोपाधिमे मयुक्त होकर परिणमना है और निश्चय रलयका कारण जायक स्वभाव आत्माके आलम्बन द्वारा तन्मय होकर परिणमना है। रागका (शुभाशुभका) लक्षण पराश्रय भाव करना है और रत्नत्रयका लक्षण शुद्ध चतन्यका स्वायय प्रकाशमान है। रागका फल संसारको परिपाटी है औ निश्चय रत्नत्रयका फल शुद्ध आत्माकी प्राप्ति है। इस प्रकार कारणभेद, लक्षणभेद और कार्यभेदसे ये दोनों भिन्न-भिन्न है. एक नहीं है। ऐसी अवस्था में इन्हें मिश्रित कहकर दोनोंका कार्य आरव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा मानना संगत नहीं है ।
जब फि अपर पक्ष ही उन्हें मिश्रित स्वीकार करता है तो इससे वे दो अंश सुतरां सिद्ध हो जाले हैं । इससे नो वे दोनों अंश मिले हुए सरीने दौखते हैं, एक नहीं हैं यही सिद्ध होता है । और जब कि में दोनों एक नहीं है, दो हैं तो उनके दो होनेका कारणभेद, कार्यभेद और लक्षणभेद भी अपर पक्षको निर्विवाद रूपमें स्वीकार कर लेना चाहिए। साष्ट है कि शुभभावका कार्य निश्चयस एकमात्र आस्रव और बन्ध है तथा निश्चय रत्नत्रयका कार्य एकमात्र संवर और निर्जरा तथा अन्तमें मोक्ष है यही सिद्ध होता है ।
एक बात और है कि रागभाव और रातपर्याय विकारसंपृक्त और विभावभाव होनेसे स्वयं बन्धस्वरूप है । ऐसी अवस्थामें वह संदर और निर्जराका हेतु कैसे हो सकता है, अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकता। संबर और निर्जराका हेतु वही हो सकता है जो स्वयं संवर-निर्जरास्वरूप है । फिर भी अगर पक्ष निश्चयसे रागको यदि संघर और निर्जराका हेतु मानना चाहता है तो उसका यह मानना रागको संवर, निजरा और मोक्षस्वरूप मानना ही कहा जायगा, क्योंकि आगमका ऐसा अभिप्राय है कि निश्चयसे जो जिसका हेतु होता है वह स्वयं तत्स्वरूप ही होता है। किन्तु जहाँ जितने अंश वीतरायता उत्पन्न होती है वह उतने अंशमैं रागका अभाव होकर ही उत्पन्न होती है, अतः राग निश्चयसे वीतरागताको विकालमें उत्पन्न नहीं कर सकता ऐसा ही यहाँ निर्णय करना चाहिए । फिर भी आयममें जो रागको निश्चय.रत्नत्रयका व्यवहारमयसे हेतु कहा गया है वह सहबर सम्बन्धको देखकर उपचारसे ही कहा गया है। विवक्षित रत्नत्रयके साथ विवक्षित रागांशके रहने में कोई हानि नहीं यह ज्ञान कराना ही इसका प्रयोजन है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार कलशमें कहा है
यावत्पाकमुपैति कर्मविरत्तिर्ज्ञानस्य सम्यङ, न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः । किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तत्
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११॥ जब तक ज्ञानकी कर्मविरति भलीभांति पूर्णताको नहीं प्राप्त होती तबतक फर्म और ज्ञानको समुच्चय भी विहित है, उसमें कोई हानि या विरोध नहीं । किन्तु इस अवस्थामें भी आत्मामें अवकापने जो फर्म उदित होता है वह तो बन्धका हेतु है और परद्रव्य-भावोसे स्वयं भिन्न जो परम शान है वह एक ही मोक्ष का हेतु है ॥११॥
इस प्रकार पूर्वोक्त कथनस अपर पक्षक इस मतका खण्डन हो जाता है कि चतुर्थादि गुणस्थानोंमें रागांश और रत्नत्रयांशरूप जो मिश्रित शुभभाव है वह आनच और बन्धका भी हेतु है तथा संवर और
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शंका ३ और उसका समाधान
११५ निर्षराका भी हेतु है । किन्तु इससे यही सिद्ध होता है कि जो रागांश है वह एकमात्र आस्रव और बन्धका हेतु है और जो रत्नत्रयांश है वह संवर और निर्जराका हेतु है ।
यह तो अपर पक्षने भी स्वीकार कर लिया है कि रागाथा १० गुणस्थानके अन्त तक पाया जाता है ऐसी अवस्थामें बह रागांश और रत्नत्रयांश मिथित रूप शुभभावको छठे गुणस्थान तक ही क्यों स्वीकार करता है, आगे क्यों नहीं स्वीकार करता ? यदि वह कहे कि आगे ध्यानकी भूमिका है. इसलिए वहाँ पर लक्ष्यसे बुद्धिपूर्वक रागको प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है । अतः वहाँ रागांश एकमात्र बन्धका ही हेतु है। तब तो इससे यही सिद्ध होता है कि अबुद्धिपूर्वक जितना भी रागांश है वह तो मात्र बन्धका कारण है ही। बुद्धिपूर्वक राग भी बम्घका ही कारण है। और इस कथनसे यह तथ्य सुतरां फलित हो जाता है कि रत्नत्रयांश स्वयं आरमस्वरूप होनेसे अणुमात्र भी बन्धका हेतु नहीं ।
अपर पक्षने अपने विचारोंके समर्थनमें एक भोजनका उदाहरण दिया है और दूसरा कालेका उदाहरण दिया है। किन्तु ये उदाहरण ही इस बातका समर्थन करते है कि भोजनमें या काडेमें जिन तत्त्वोंका समावेश होता है उनसे उन्हीं तत्त्वोंकी पुष्टि होती है। उदाहरणार्थ काम कफ क्षयकारक द्रव्यका समावेश कर ही उस काढ़े पान करने पर कफकी हानि होती है, अन्यथा नहीं होती । इससे सिद्ध है कि प्रत्येक तत्त्व अपना-अपना ही कार्य करता है, अन्यका नहीं। कर्मशास्त्र भी इसी आशयका समर्थन करता है। बारहवें गुणस्थानमें ज्ञानावरणका उदय है। पर उससे मोह मा र्यायवीजन में गोमाती। कर्मका विपाक किस प्रकार होता है इसका ज्ञान कराते हुए तत्त्वार्थ सूत्र अ० ८ सू ० २२ में बतलाया है'स यथानाम ।' जिस कर्मका जो नाम है, उसके अनुसार ही उसका फल होता है। इससे सिद्ध है कि जिसका जो कार्य है उससे उसी कार्यकी निष्पत्ति होती है, अन्य कार्यकी निष्पत्ति होना निकालम सम्भव नहीं। फिर भले ही वे मिलकर ही क्यों न रहें। किन्तु करेंगे अपना-अपना ही कार्य। इसी प्रकार रागभाव और रत्नत्रयके विषयमें भी जान लेना चाहिए ।
____ अपर पक्षाने चौथेसे लेकर सातवें गुणस्थान तककै परिणामको मित्रगुणस्थानके परिणामके समान बतलाते हुए लिखा है कि 'उन गुणस्थानोंमें सम्मिलित एक विचित्र प्रकारका परिणाम होता है जैसा कि मिश्र गुणस्थानमें सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्वभावसे पृथक् यिचित्र प्रकार का परिणाम होता है, उस मिश्र गुणस्थानके विचित्र मिश्रित परिणाममें श्रद्धा-अश्रद्धाका क्रियात्मक विभाजन अशक्य होता है। तदनुसार शुभ परिणतिकी मिश्रित अयस्था हा करती है जिससे कि कर्मबन्ध, कर्मसंबर और कर्मनिर्जरा ये तीनों कार्य एकसाथ हुआ करते हैं। किन्तु अपर पक्ष का यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि इससे पूरी मोक्षमार्गकी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाती है। जो कर्मशास्त्रका साधारण जानकार भी होगा वह भी ऐसे विचित्र कथनको त्रिकालमें स्वीकार नहीं करेगा।
यह तो सभी जानते है कि तीसरे गुणस्थानमें कारण एक है-सर्पधाति मिश्रप्रकृतिका उदय । तदनुसार उसका कार्य भी एक है--मिश्र परिणाम । इसलिए उसे अशक्यविवेचन कहा है । गोम्मटसार जीवकाण्डमें कहा भी है
सम्मामिच्छुदयेण य जत्तंतरसम्वधादिकज्जैण । ण य सम्म मिच्छ पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१।। ।
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जयपुर (खानिया) सस्वचर्चा और उसकी समीक्षा जात्यन्तर सर्वद्यातिके कार्यस्वरूप सम्यग्मिध्यात्वके उदयसे जो सम्यक्त्व भी नहीं है, मिथ्यात्व भी नहीं है ऐसा सम्मिश्र परिणाम होता है ॥२१॥
किन्तु यह स्थिति चतुर्यादि गुणस्यानोंमें क्षायोपशमिक भाषोंकी नहीं है। वहां कारण दके अनुसार कार्यभेदका आगममें स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणस्वरूप बंदक सम्यक्त्वको लीजिए। इसे वेदक इसलिया कहा जाता है, क्योंकि इसमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय बना रहता है । और सम्यक्त्व इसलिए है, क्योंकि यह मिथ्यात्व आदि छह प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे होता है । अब विचार कीजिए कि क्या वेदक सम्यक्त्वकी सलना मिश्र गुणस्थानके मिश्रमावसे की जा सकती है? दोनोंका लक्षण भिन्न है । मिथ गुणस्थानका मिश्रभाव सर्वघाति प्रकृतिके उदयसे होनेके कारण विभाव भाव है। और वेदक सम्यक्त्व सर्वपाति प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे होनेके कारण आत्माका स्वभावभाव है। इसी प्रकार पांचवें गुणस्थानके विरताविरत परिणामकी स्थिति है। यहाँ अप्रत्याख्यानावरण करायका उदय नहीं है इसलिए तो विरत भाव है और प्रत्यारवानावरण कषायका उदय है, इसलिए अधिरतभाव है। तदनुसार इनके कार्य भी पृथक-पृथक् देखे जाते है। विरतभावके कारण यह जीव अहिंसासे विरत रहता है और अविरतभावके कारण स्थावरहिंसाका त्याग नहीं कर पाता । इस प्रकार जब यहाँ कार्यभेद है तो उससे होनेवाले फलमें भी भेद हो जाता है। जितने अंशमे आत्मस्थितिरूप चारित्र प्रगट' हुना है उतने जीवके संवर-निर्जरा है और जितने अंशमें अविरतिभाव है उतने अंशमें आसव-बन्ध है। इसलिए चतुर्थादि गुणस्थानोंके क्षायोपशमिक भावोंकी मिश्र गुणस्थानके मिश्रभावके साथ तुलना करना सर्वथा असंगत है। मिश्र गुणस्थानका मिश्रभाव जहाँ अशक्यविवेचन है, वहीं चतुर्थादि गुणस्थानोंका क्षायोपशमिकभाव शक्यविवेचन है।
अपर पक्षका कहना है कि चौथेसे सातये गुणस्थान तक शुभोपयोग ही होता है। अभ्य कोई शुद्धोपयोग आदि उन गुणस्थानोंमें नहीं होता। किन्तु यह कथन भी युक्त नहीं, क्योंकि चतुर्थादि गुणस्थानों में आत्मानुभूति होती ही नहीं यह मानना आगमविरुद्ध है । बृहद्रव्यसंग्रहमें गाया ४७ की टीकामें लिखा है
तद् द्विविधपि निर्विकारस्व संवित्त्यारमकपरमध्यानेन मुनिः प्राप्नोति । उस दोनों प्रकारके मोक्षमार्गको मुनि निर्विकार स्वसंवित्तिस्वरूप परम ध्यानके द्वारा प्राप्त करता है।
यह सम्यक्चारित्रका प्रकरण है, इसलिए यहाँ मुनिको लक्ष्य कर उक्त कथन किया गया है। इससे विदित होता है कि निर्विकार स्वसंवित्तिरूप परम घ्यान मुनिके नियमसे होता है।
इसी आर्थग्रन्थकी ४६वी गाथामें 'गाणिस्स' पद पाया है। इसकी व्याख्या करते हुए टीका लिखा है
इत्युभयक्रियानिरोधलक्षणचारित्रं कस्य भवति ? 'णाणिस्स' निश्चयरलत्रयात्मकाभेदज्ञानिनः ।
शंका-उभय क्रियानिरोघलक्षण बारिब किसके होता है ? समाधान-ज्ञानीके अर्थात् निश्चय रत्नत्रयात्मक अभेद ज्ञानीके होता है ।
इन प्रमाणोंसे हम जानते है कि सात गुणस्थानमें मुनिके शुद्धोपयोग नियमसे होता है, क्योंकि वहाँ पर बाह्य विषयमें शुभाशुभ वचन-काय व्यापारमा क्रियान्यापारका तथा भौतर शुभाशुभ मानसिक विकल्परूप क्रियान्यापारका सर्वश्रा निरोध होकर यह आत्मा निष्क्रिय नित्य निरंजन विशद्ध ज्ञान-दर्शनस्वभाव द्वारा
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शंका ३ ओर उसका समाधान
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अपने आत्मामें तन्मय होकर परिणम जाता है । इसीका नाम परम उपान है और इसीका नाम आत्मानुभूति है। ऐसी आत्मानुभूति यदि मुनिके न हो तो वह मुनि कहलानेका पात्र नहीं ।
किन्तु ज्ञानी यह संज्ञा तो सम्यग्दृष्टिकी भी है । कोई अपने आत्माको न जाने (न अनुभवें) और रागके परवश हुआ दाह्य विषयोंमें ही इष्टानिष्ट या हेयोपादेय बुद्धि करता रहे तो वह सच्चा ज्ञानी नहीं । ज्ञानका लक्षण ही यह है कि जो ज्ञान स्वभावरूपसे परिणमता है वह ज्ञानी । और इसके विपरीत जो रागस्वभावरूपसे परिणमता है यह अज्ञानी । ज्ञानी यह सम्यग्दृष्टि की संज्ञा है और अज्ञानी मिध्यादृष्टि को कहते हैं । सर्वार्थसिद्धि अ० १ सू० ३२ में कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास इन तीनका निर्देश किया है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि सम्यग्दृष्टिको कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास नहीं होता । वह परसे भिन्न आत्मस्वरूपको यथावत् जानता है और परद्रव्य भावों से भिन्न जानन कियारूप आत्माका परिणमना इसीका नाम आत्मानुभूति है। स्पष्ट है कि ऐसी आत्मानुभूति
दृष्टि भी होती है जिसे शुभोपयोग कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि शुभोपयोगका विषय परपदार्थ है | आत्मानुभूति उससे भिन्न है । अतएव सिद्ध हुआ कि चतुर्थादि गुणस्थानों में भी शुद्धोपयोग होता है । अपर पक्ष कहेगा कि चतुर्थादि गृणस्थानों में शुद्धोपयोग होता है इसका मागममे कहाँ निर्देश है ? समाधान यह है कि चतुर्थादि गुणास्थानों में धर्मध्यान बहुलतासे होता है और आत्मानुभूति दीर्घकाल बाद अल्प होती है, इसलिए इन गुणस्थानोंमें उसका निर्देश नहीं क्रिया । इसी विषय को स्पष्ट करते हुए पण्डितप्रवर टोडरमलजी अपनी रहस्यपूर्ण चिट्ठी में लिखते है
यहाँ प्रश्न --जो ऐसे अनुभव कोन गुणस्थानमें कहे हैं ?
ताका समाधान — चौथे ही से होय हैं, परन्तु चौथे तो बहुत कालके अन्तरालमें होय है और ऊपरके गुणठाने शीघ्र - शीघ्र होय है ।
बहुरि प्रश्न - जो अनुभव तो निर्विकल्प है तहाँ ऊपरके और नीचेके गुणस्थाननिमें भेद कहा ?
ताका उत्तर - परिणामनकी मग्नता विषे विशेष है। जैसे दोय पुरुष नाम ले हैं अर दो ही का परिणाम नाम विसे है, तहाँ एक के तो मग्नता विशेष है अर एक के स्तोक है तैसे जानना । इससे स्पष्ट है कि चौथेसे सातवें गुणस्थान तक केवल शुभोपयोग ही होता है ऐसा जानना समझना मिथ्या । इतना अवश्य है कि इन गुणस्थानों में जो आत्मानुभूति होती है उसे धर्मध्यान ही कहते हैं, शुक्लध्यान नहीं । शुक्लध्यानमें एक मात्र शुद्धोपयोग ही होता है, परन्तु ध्यान में शुभोपयोग भी होता है और शुद्धोपयोग भी यही इन दोनों में विशेषता है ।
चतुर्थीदि गुणस्थानों में शुभोपयोगके कालमें उससे आस्रव बन्ध तथा संवर- निर्जरा दोनों होते होंगे ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि तब आत्मायें जो सम्यग्दर्शनादिरूप विशुद्धि होती है इसके कारण संवर निर्जरा होती है और शुभोपयोग कारण आम्रयन्बन्ध होता है तथा जब आत्मानुभूति होती है तब इसके कारण संवर-निर्जरा होती है और अबुद्धिपूर्वक रागके कारण याखव चन्ध होता है। इससे एक कालमें एक ही उपयोग होता है यह व्यवस्था भी बन जाती है और किसका कौन यथार्थ कारण है इसका भी ज्ञान हो जाता हूँ ।
अपर पक्षका कहना है कि एक कारणसे अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं । समाधान यह है कि शुभयोग संवर- निर्जराका विरोधी है। पंचास्तिकाय माथा १४४ की टीका बतलाया है
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः ।
शुभ और अशुभ परिणामका निरोध करना संवर है ।
इसी तथ्यको और भी स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय गाया १४२ में कहा है
• जस्स पण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु ।
सर्वादि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ११४२ ।।
जिसका सब द्रव्योंमें राग, द्वेष या मोह परिणाम नहीं है, सुख दुखमें सम परिणामवाले उस भिक्षुके शुभ और अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता ।। १४२ ।।
इसलिए शुभोपयोगसे संवर निर्जरारूप कार्य मानना योग्य नहीं है ।
अपर पक्षका कहना है कि 'पहला गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वके सन्मुख होता है तब शुद्ध 'परिणामोंके अभाव में भी असंख्यातगुणी निर्जरा स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकथात करता ही है । सवत् शुभोगयोगरूप पुण्यका प्रत्येक भाव कर्मसंवर, कर्म-निर्जरा, कर्मबन्धरूप तीनों कार्य प्रतिसमय किया करता है । अतः जीवदया, दान, पूजा, व्रत आदि कार्य गुणस्थानानुसार संदर, निर्जराके भी निर्विवाद कारण हैं ।'
समाधान यह है कि प्रथम गुणस्थानमें इस जीवके परद्रव्य भावोंसे भिन्न आत्मस्वभाव के सन्मुख होनेपर जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह विशुद्धि ही असंख्यातगुणी निर्जरा आदिका कारण है, परद्रव्य- भावों में प्रवृत्त हुआ शुभोपयोग परिणाम नहीं । यह जीव जब कि मिध्यादृष्टि है. ऐसी अवस्थामें उसके शुद्धोपयोग समान शुभोपयोग कहना भी उपयुक्त नहीं है । फिर भी वहाँपर जो भी विशेषता देखी जाती है वह आत्मस्वभाव सन्मुख हुए परिणामका ही फल है 1
अपर पक्षने दया धर्म है इसकी पुष्टि में स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, उसकी टीका, नियमसार गाथा ६ की टीका, आत्मानुशासन, यशस्तिलक आचार्य कुन्दकुन्दकृत द्वादशानुप्रेक्षा, भावपाडुड, शीलपाहुड और मूलाराधना के अनेक प्रमाण उपस्थित किये हैं । किन्तु उन सब प्रमाणोंसे यही प्रख्यापन होता है कि जो निश्चय दया अर्थात् वीतरागपरिणाम है वही आत्माका यथार्थ धर्म है, सराग परिणाम आत्माका यथार्थ धर्म नहीं है, फिर चाहे वह व्रत परिणाम हो, भूतदया हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो । सरागभाव होनेसे वह जीवका निश्चयस्वरूप यथार्थं धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि मोह, राग और द्वेषरूपसे परिणत हुए जीवके नाना प्रकारका बन्ध होता है, इसलिए उनका क्षय करना ही उचित है। प्रवचनसार में इसी अभिप्रायको व्यक्त करते हुए लिखा भी है
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स ।
जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदन्ना ॥ ८४ ॥
मोहसे, रागसे और दोपसे परिणत हुए जीवके विविध प्रकारका बन्ध होता है, इसलिए उन्हें उत्तरोत्तर घटाना चाहिए ||८४||
अतएव परजीवोंमें किये गये करुणाभाव या दयाभावको धर्म मानने के प्रति ज्ञानी जीवोंकी क्या दृष्टि होनी चाहिए इसके लिए प्रवचनसारके इस वचनपर दृष्टिपात कीजिए
अट्ठे अजधागणं करुणाभावो य मणुव- तिरिए 1 विसएसु अ प्यसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ॥७५॥
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शंका ३ और उसका समाधान
१२३
पदार्थोंका अयथाग्रहण, तिर्यञ्चों तथा मनुष्योंमें करुणाभाव और विषयोंकी संगति ये मोहके लक्षण है ।। ८५ ।।
इसको टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
पदार्थोंकी अयथातथ्य प्रतिपत्ति द्वारा तथा तिर्यंच और मनुष्यमात्र प्रेक्षायोग्य हैं फिर भी उनमें करुणाबुद्धि द्वारा मोहको अभीष्ट विषयोंके प्रसंगसे रागको और अनभीष्ट विषयोंमें अप्रीतिसे द्वेषको इस प्रकार इन तीन लिंगोंसे इन तीनोंको जानकर जैसे ही यह तीन प्रकारका मोह उत्पन्न हो वैसे ही उसे नष्ट कर देना चाहिए । संस्कृत - टीका अन्य में देखिए ।
इस गाथापर टीका करते हुए आचार्य जयसेन लिखते हैं----
शुद्ध आत्मादि पदार्थ यथास्वरूप अवस्थित है, फिर भी उन्हें विपरीताभिनिवेश यश बयथार्थ रूपरी ग्रहण करना तथा मनुष्यों बार तियंचों में शुद्धात्मोपलात्रलक्षण परम उपेक्षासंयम के विपरीत करुणाभाव और दयाभाव करना अथवा व्यवहारसे करुणा नहीं करना यह दर्शनमोहका चिन्ह है। निर्विषय सुखके आस्वादसे रहित बहिरात्मा का जो मनोज्ञ और अमनोज विषयोंमें प्रकर्षरूप से संसर्ग होता है उसे देखकर प्रीति और अप्रतिलक्षण चारित्र मोहसंज्ञात्राले रागद्वेष जाने जाते हैं। विवेकीजन उन्न चिन्हों द्वारा मोह, राम और द्वेषको जान लेते हैं । इसलिए उनका परिज्ञान होने के अनन्तर ही निर्विकार स्वशुद्धात्मभावना द्वारा राम द्वेष और मोहका नाश कर देना चाहिए। संस्कृतटीका मूलमें देखिए ।
आशय यह है परजीवोंके लक्ष्यसे उत्पन्न हुई दया शुभराग है, उसे आत्माका निश्चयधर्म मानना मियात्व है और व्यवहारधर्म मानना मिध्यात्व नहीं है ।
ज्ञानी जीवके कृपा या करुणाभाव से जीवोंमें अनुकम्पा होती है पर वह ममःखेद ही है इसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय गाथा १३७ को टोकामें मचायें अमृतचन्द्र लिखते हैं---
कञ्चिदन्यादिदुः खप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षा कुलितचित्तत्त्रमज्ञानिनोऽनुकम्पा । ज्ञानिनस्त्वत्रस्तनभूमिकासु विहरमाणस्य जन्मार्णवनिभग्नजगदव लोकनान्मनाग्मनः खेद इति ।
तुषादि दुःखसे पीड़ित प्राणीको देखकर करुणाके कारण उसका प्रतीकार करनेको इच्छासे आकुलित वित्त होना अज्ञानको अनुकम्पा है तथा जन्माव में निमग्न जगत् के अवलोकनसे किंचित् मनः खेद होना यह विकल्प भूमिका में वर्तते हुए ज्ञानोको अनुकम्पा है ।
दया, करुणा, क्षमा, व्रत, संयम, दम, यम, नियम और तप आगममें प्रयुक्त हुए हैं और व्यवहार धर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त हुए हैं। किस अर्थ में इनका प्रयोग हुआ है इसे जानकर यथार्थका निर्णय करें। मानना उचित नहीं है ।
इत्यादि शब्द निश्चय धर्म के अर्थ में भी
यह विवेकियोंका कर्तव्य है कि कहाँ दोनोंको मिलाकर एक कहना और
अज्ञानीका शुभ और अशुभभाव
का हेतु है ही । ज्ञानी का भी शुभ भाव पुण्यरूप और अशुभभाष पापरूप होनेसे निश्चयसे एकमात्र बन्ध करानेवाला ही है। पुण्य और पापपदार्थका निर्णय करते हुए पंचास्तिकाय गाथा १०८ की टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
शुभपरिणामो जीवस्य तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानां च पुण्यम् । अशुभपरिणामी जीवस्य तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानां च पापम् !
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१२४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
जीयका शुभ परिणाम और तन्निमित्तक पुद्गलोंका कर्मपरिणाम पुण्य है । तथा जीवका अशुभपरिजाम और तन्निमित्तक पुद्गलोंका कर्मपरिणाम पाप है।
अपर पक्षने सम्यग्दृष्टिके शुभभावोंको वीतरागता और मोक्ष प्राप्तिका हेतु कहा है और उसको पुष्टिमें प्रश्चनसार आदि ग्रन्थों का नामोल्लेख भी किया है। साथ ही यह भी लिखा है कि 'सम्यग्दष्टिका शुभभाष कर्मचेतना न होकर ज्ञानचेतना माना गया है। किन्तु यह सब कथनमात्र है, क्योंकि आगममें न तो कहीं शुभभावोंको वीतरागता और मोक्षप्राप्तिका निश्चय हेतु बतलाया है और न कर्मचेतनाका अन्तर्भाव ज्ञानचेतनामें ही किया है। इन दोनोंके लक्षण ही आगममें जदे-जदे प्ररूपित किये गये हैं। समयसार गाथा ३० आदिकी टीका कर्मचेतनाका लक्षण करते हुए लिखा है
तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहे करोमीति चेतनं कर्मचेतना। उसमें, ज्ञानसे भिन्न अन्य भायों में ऐसा चेतना कि 'मैं इसको करता हूँ ।' कम चेतना है। इससे स्पष्ट है कि शुभ भावोंका ज्ञानचेतनामे कयमपि अन्तर्भाव नहीं हो सकता ।
दया शब्द सरागभाव और वीतरागभाष दोनोंके अर्थमें आगममें प्रयुक्त हुआ है, जैसा कि अपरपक्ष द्वारा उपस्थित किये गये आगमप्रमाणोंसे भी विदित होता है, मात्र इसी अभिप्रायसे हमने 'यदि प्रवृतमें दयासे वीतराम परिणाम स्वीकार किया जाता है' इत्यादि कसन अपने दूसरे उत्तरमें किया था। इस आधारसे अपर पक्षने जो अभिप्राय व्यक्त किया है वह प्रधानतासे स्वयं उस पक्षको ही ध्यान देने योग्य है, हमारा तो उस ओर ध्यान सदासे रहा है और इसीलिए हम शुस परिणति और शुभपरिणतिको मिलाकर एक नहीं लिख या कह रहे है। अपर पक्षको भी इन दोनों के वास्तविक भेदको स्वीकार कर लेना चाहिए । समग्र आगममें सुमेल बिठलानेका एकमात्र यही मार्ग है।
जान आत्माका प्रधान गुण है. उस द्वारा अखण्ड आत्माका कथन हुआ है, इसलिए मोक्षप्राभूतके साथ संगति बैठ जाती है। समयसार कलश १०६, १०७ में इसी अर्थ में 'ज्ञान' शब्द आया है । अन्यत्र भी ऐसा ही समझना चाहिए । इसका विशेष खुलासा आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारके परिशिष्ट में किया ही है। उस पर दृष्टिपात कीजिए।
मोक्षप्राभृत गाथा ६० में जो तपश्चरण करनेकी प्रेरणा की है वह इच्छानिरोधरूप तपश्चरण करने के लिए ही कहा गया है । 'इच्छानिरोधस्तपः' यह प्रसिद्ध आगम वचन है 'चारित्र भी 'स्वरूपस्थिति' का दूसरा नाम है-'स्वरूपे चरणं चारित्रम् ।' प्रबचनसार गाथा ७, आचार्य अमतचन्द्रकृत टीका । बाह्य तप या चारित्रको जो तप या चारित्र मंज्ञा प्राप्त है वह निश्चमतप और निश्चय चारित्रका सहचर होनेसे ही प्राप्त है। आचार्यने मोक्षप्राभूत गा. ६० में ऐसे ही तपश्चरण करनेकी प्रेरणा की है। मुनिदीक्षा स्वरूपस्थितिका दूसरा नाम है । वह न हो और बाह्य तय करनेका विकल्प और क्रियाकाण्ड मात्र हो तो वह न सच्ची मुनिदीशा है और न सच्चा तपश्चरण ही है।
अपर पक्षने आगे सूत्रप्राभूत, मोक्षप्राभृत तथा तत्त्वायत्र-तत्त्वार्थवातिकके जो प्रमाण दिये है वे पूर्वोक्त अभिप्रायकी ही पुष्टि करते है। तभी तो तत्त्वार्थवातिकमें चारित्रका यह लक्षण किया है
संसारकारणनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपग्मः सम्यकनारित्रम् ।
संसारके कारणोंकी निवृत्तिके प्रति उद्यत हुए ज्ञानीके बाह और अभ्यन्तर क्रियाका उपग्म होना सम्यक्चारित्र है।
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शंका ई और उसका समाधान
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देखिए, इस वचनमें बाह्म अनशनादि और आभ्यन्तर विकल्परूप क्रियाके प्रति सपरमभावको सम्यकचारित्र कहा है, इन क्रियाओंको नहीं। इससे स्पष्ट है कि यथार्थ ज्ञानी वही है जो इन क्रियाओंके करनेमात्रसे आत्माका हित न मानकर स्वरूपमें रमणता करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। अन्तस्तत्व समझनेके लिए कठिन तो है पर यह हितकारी होनेसे समझने योग्य अवश्य है।
अपर पभने अहिंसा मन्दिर दरियागंज १ दिल्लीसे प्रकाशित समयसार १० ११८ की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया सो वहाँ पर 'क्रिया' शब्द आत्मा और आस्रवोंमें भेदको जानकर आत्मस्वरूप परिणमनेके अर्थमें ही आया है। इसे गाथा ७२ की अमृतचन्द्र आचार्य कृत टीकासे समझा जा सकता है । ४७ संख्याक कलवा भी इसी मभिप्रायको सूचित करता है।
__ अपर पक्षने समयसार गाथा १५५ और उसको टीकाका प्रमाण दिया है, उससे हमारे इसी अभिप्रायकी ही पुष्टि होती है कि रागादिको निवृत्तिका नाम ही सच्चा चारित्र है। ज्ञान पदसे सम्यग्दर्शनादि तीनरूप परिणत आत्मा ही लिया गया है इसमें हमें तो विवाद नहीं, अपर पक्ष भी इस विकल्पको छोड़ दे कि समयसार कलश १०६-१०७ में 'ज्ञान' पद अकेले ज्ञान के अर्थ में आया है। यदि वह ऐसा नहीं समझता था तो उसकी ओरसे यह शंका ही उपस्थित नहीं की जानी चाहिए थी, क्योंकि प्रकृत विषयसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं।
यहां पर अपर पक्षने उक्त प्रमाणोंके आधारसे जो यह फलित किया है कि 'जीवदया संयम तपरुप ई तथा संवर और निर्जराका कारण होनेसे धर्म है, वह ठीक नहीं, क्योंकि एक तो उन प्रमाणों द्वारा दूसरी वस्तु कही गई है, दूसरे जीवदया पदसे वह पक्ष यदि शुभभावको ग्रहण करता है तो न तो वह यथार्थ तपसंयमख्य है और न ही निश्चयधर्मका यथार्थ हेतु है, अतएव उसे यथार्थ धर्म नहीं माना जा सकता । हो उसे व्यवहार धर्म मानने में मागमसे कोई बाधा नहीं आती और इसलिए उसे आगममें निश्चय धर्मका उपचरित हेतु कहा गया है।
अपर पअने हमारे एक कथनको गलतरूपमें उपस्थित कर जो आशय लिया है वह ठीक नहीं । दूसरे उत्तरमें हमारा कहना यह है-'शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिनबिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन करना हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मार बन्ध ही होता है, उससे संवर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है ।'
इसके स्थान में अपर पक्षने हमारे इस कथनको इन शब्दों में उपस्थित किया है
'आपने वतपालनको शभभावमै गर्भित करके उससे संबर-निर्जरा तथा मोक्षसिद्धि होना असम्भव बतलाया है।'
अपर पक्षको हम बतला देना चाहते है कि हमने प्रसपालनको शुभभावमैं गर्भित नहीं किया है। किन्तु हमने यह लिखा है 'शुभभाव चाहे वह .. ....व्रतोंका पालन करना हो,.... ...यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध ही होता है, उससे संबर, निर्जरा, मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है।'
__ कोई भी निष्पक्ष विचारक यह जान सकता है कि अपर पक्षक उक्त वाक्यमें और हमारे इस कथनमें कितना अन्तर है । अस्तु,
अपर पक्षने यहाँ तत्त्वार्थसूत्र अ० ७ सू०१ को उपस्थितकर और उस द्वारा प्रतिपादित व्यवहार
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चारित्रको निवृत्तिरूपसे सम्यक्चारिखमैं गर्भित कर लिखा है कि जितनी भी निवृत्ति है वह केवल संवर तया निर्जराको ही कारण है, वह फभो भो बन्धका कारण नहीं हो सकती है। अतः प्रतोंका पालन संवरनिर्जरा है।'
किन्तु अपर पक्ष यह भूल जाता है कि इस सूत्र द्वारा मात्र अशुभसे निवृत्ति कही गई है, शुभ और अशुभ दोनोंसे निवृत्ति नहीं कही गई है । अतः इस मूत्र द्वारा आस्रव तत्त्वका ही निरूपण हुआ है, संवरनिर्जरा या मोक्षतत्त्वका नहीं। हमारे इस कथनकी पुष्टि उस सूत्रको उत्थानिकासे हो जाती है। सर्वार्थसिद्धिमें इसकी उत्थानिकामें लिखा है
आस्रवपदार्थो व्याख्यातः । तत्प्रारम्भकाले एवोक्तं 'शुभः पुण्यस्य' इति तत् सामान्येनोक्तम् । तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थ कः पुनः शुभः इत्युक्ते इदमुच्यते ।
आस्रव पदार्थका व्याख्यान किया। इसके प्रारम्भ काल में ही कहा है—'शुभः पुण्यस्य ।' पर वह सामान्यरूपसे कहा है। उसके भेदोंका शान करानके लिए 'शुभ क्या है' ऐसी पृच्छा होनेपर यह सूत्र कहते हैं ।
इससे स्पष्ट है कि इस सूत्र द्वारा आत्रवतत्त्वका ही कथन किया गया है, संघर, निर्जरा और मोक्षतत्त्वका नहीं।
तत्त्वार्थसूत्रके उक्त सूत्रमें किस प्रकारकी निवृत्ति कही गई है इसके लिए बृहद्रव्यसंग्रहके इस वचनपर दृष्टिपात कीजिए
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्त ।
वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ४५ ॥ जो अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्ति है उसे चारित्र जानो। इसे जिनदेवने व्यवहारनयसे बत, समिति और गुप्तिरूप कहा है ।।४।।
अपर पक्षका कहना है कि 'यत्तादानग्रहण करना या सत्य बोलना आदि व्रतोंका लक्षण नहीं है । इनको व्रतोंका लक्षण स्वीकार कर लेनेपर अव्याप्ति दोष आता है। किन्तु अपर पक्षका यह लिखना यक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इसे स्वीकार कर लेनेपर एक तो बृहद्रव्यसंग्रहके उक्त आगम बचनके साथ विरोध आता है। उसमें स्पष्ट वान्दों द्वारा शुभमें प्रवृत्तिको चारित्र घोषित किया गया है। दूसरे, साधु के जबतक आहार आदिके ग्रहणका विकल्प या कपायांश बना हुआ है तब तक व्यवहारसे शुभ प्रवृत्तिका सर्वथा निषेध नहीं किया जा सकता। आगेके गुणस्थानों में यथायोग्य संज्ञाओंका सदभाव और छेदोपस्थापना संयम इसी आधारपर स्वीकार किया गया है । इसके लिए नौवें अध्याय में २२ परीषहोंका प्रकरण द्रष्टव्य है।
धवल पु० १४ १०८९ में जो अप्रमादका लक्षण दिया है, उसका आशय इतना ही है कि पांच महाश्रत और पांच समितिरूप विकल्प तो छठवें गुणस्थानमें होता है । आगे छेदोपस्थापना संयम रूपसे इनका सदभाव स्वीकार किया गया है। उसके भी आगे सूक्ष्मसांपराय संयम और यथाख्यात संयममें इन्हें गभित कर लिया है।
इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूश्रमे ७वें अध्यायके प्रारम्भमें जिन व्रतोंका निर्देश है उनका मानव तत्त्वमें हो अन्तर्भाव होता है। यही कारण है कि देवायुके आत्रवोंमें सरामसंयम और संयमासंयमको भी परिगणित किया गया है । तत्थार्थवातिक अ० ६ सू० २० में लिखा है
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शंका ३ और उसका समाधान
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प्राक् शुभपरिणामाः सरागसंयमादयः व्याख्याताः । ते देवस्यायुष आस्रवहेतवो भवन्तीति
संक्षेपः ।
पहले शुभपरिणाम सरागसंयमादिक कह आये हैं, वे देवाचुके आस्रषके हेतु है यह इस सूत्र का संक्षेप है ।
अतः तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वचन के आधार पर तो अशुभरो निवृतिरूप और शुभमें प्रवृतिरूप व्रतको संबर - निर्जराका कारण कहा नहीं जा सकता । अब रहे पुरुषार्थसिद्धयुपाय रत्नकरण्ड श्रावकाचार रथणसार और चारित्र प्रमाणही अन्तर्भाव होता हैं । इन सभी प्रमाणों द्वारा निश्चय सम्यक्चारित्रके साथ होनेवाले व्यवहार सम्यक् चारित्रका ही स्वरूप निर्देश किया गया है ।
प्रत्येक जैन आगमाभ्यासीको उक्त प्रमाणोंके प्रकाश में यह अच्छी तरह ज्ञात है कि निश्चयस्वरूप चारित्र, संयम तथा धर्मध्यान संवर- निर्जरा एवं मोक्षसिद्धिके कारण हैं । व्यवहार नयसे कहे गये चारित्र, संयम तथा धर्मध्यान नहीं। ये तो स्वयं आसव होनेमे बन्धके ही कारण हैं। पवहार नयसे कहे गये व्रतोंका व्यवहार चारित्र, संयम और धर्मध्यान में ही अन्तर्भाव होता है, अतः इनसे संबर - निर्जरा और मोक्षकी निश्चयसे सिद्धि होती है ऐसा कहना सर्वथा आगमविरुद्ध है ।
हमें प्रसन्नता है कि रागग्रहित प्रवृत्यंशकी अपेक्षा अदर पक्षने व्रतोंको आस्रवन्बन्धका हेतु मान लिया है। किन्तु उस मक्षका यह लिखना कि 'दत्तादानग्रहण, सत्यभाषण आदि रूप जो रागसहित प्रवृत्यंश है उसका इन व्रतों में ग्रहण नहीं किया गया है' सर्वथा आगमविरुद्ध है। मालूम पड़ता है कि अपर पक्ष ऐसा लिखकर व्यवहार में व्रतरूपसे स्वीकृत पूजा, भक्ति, दान, स्वाध्याय, दया आदि सभी सत्प्रवृत्तिरूप व्यवहार
की उपेक्षा कर देना चाहता है। ये सभी दत्तादान और सत्यभाषणके समान सत्प्रवृत्तियों व्रतही ती है । मोक्षमार्ग में निश्चय के साथ होनेवाली इन सभी सत्प्रवृत्तियोंको वाचामने व्यवहारधर्म ही तो कहा है। हम इसी उत्तर में बृद्धव्य संग्रहका उद्धरण उपस्थित कर आये है उसमें स्पष्टतया बतलाया है कि जिस प्रकार अशुभरून हिंसा, असत्य आदिसे निवृत्ति व्यवहार सम्यक्चारि उसी प्रकार अहिंसा, सत्यभाषण
आदि शुभ में प्रवृत्ति भी व्यवहार सम्यक्चारित्र है ।
अपर पक्ष ने 'जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?" यह प्रश्न किया है। साथ ही इसकी पुष्टि में अनेक आगमप्रमाण देकर यह भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि जीवदया धर्म है और उससे संघर-निर्जरा भी होती है । अब पूछना यह है कि अपर पक्ष के मतानुसार यदि जीवदया धर्म है तो सत्यभाषण और दत्तादानादि धर्म क्यों नहीं ? क्या जीवदमा रागसहित प्रत्यंश नहीं है ? हम यह अच्छी तरह समझ रहे हैं कि अपर पक्ष मशुभसे निवृत्तिको धर्म कह कर उसे संवररूप सिद्ध करनेकी चेष्टामें है, परन्तु इससे उसने जिस अन्यथा प्राणाको जन्म दिया है उससे वह परस्पर विरुद्ध कथन के दोषसे अपनी रक्षा नहीं कर सकता । एक ओर तो जीवदयाको धर्म मानना और दूसरी ओर सत्यभाषण तथा क्लादानादिको व्रत नहीं मानना यह परस्पर विरुद्ध कथन नहीं है तो और क्या है ? इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे ।
अपर पक्षका हमारे पक्ष के ऊपर यह दोषारोपण है कि हमारा पक्ष व्यवहार धर्मका लोप करने पर तुला हुआ है। किन्तु उसके वक्त आगमविरुद्ध कथनसे जिस अनर्थ परम्पराको जन्म मिलेगा उसे वह पक्ष अभी नहीं समझ रहा है। पक्षव्यामोह इसीका दूसरा नाम है। कोई अत्युक्ति नहीं होगी। हम तो अपर पक्ष के उक्त कथनसे यह
यदि इसे उल्टी गंगा बहाना कहा जाय तो समझे हैं कि हमारा पक्ष व्यवहार धर्मका
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१२८
जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा लोप करना चाहता है ! यह तो लस पक्ष का पनारमात्र है । वस्तुतः वह पक्ष स्वयं लोकमेरो पूजा, भक्ति, दान आदि सभी सत्प्रवृत्तियों का लोप कर देना चाहता है तभी तो वह पक्ष सत्यभाषण आदिको बतरूपसे स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं दिखाई देता।
___ अपर पक्षका कहना है कि 'दत्तादान ग्रहण करना या सत्य बोलना प्रतोंका लक्षण नहीं है, इनको व्रतोंका लक्षण स्वीकार करनेपर अव्याप्ति दोष आता है। कारण कि दत्तादानको न ग्रहण करनेकी अवस्थामें या मौनस्थ आदि अवस्थामै मुनियोंके यह लक्षण घटित न होने के कारण महावत ही न रहेंगे।'
समाधान यह है कि अभिप्रायमें दत्तादानका ग्रहण या सत्य बोलनेरूप परिणामके बने रहने के कारण दप्तादानको न ग्रहण करनेकी अवस्थामें या मौनस्थ अवस्थामें भी व्रतोंका लक्षण घटित हो जाता है, इसलिए अव्याप्ति दोष नहीं आता।
साधुओं के २८ मूलगुण बतलाये हैं। उनमें पांच समितियां भी सम्मिलित हैं। ये पांचों समितियाँ प्रवृत्तिरूप ही स्वीकार की गई है । इसी प्रकार गृहस्थोंके १२ व्रतोंमें अतिथिसंविभाग प्रत भी प्रवृत्तिरूप ही स्वीकार किया गया है। इससे स्पष्ट है कि व्यवहार धर्ममें अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्ति ही मुख्यरूपसे ली गई है, क्योंकि अशुभ निवृत्तिका अर्थ ही शुभप्रवृत्ति है। इनको इस प्रकार पृथक् नहीं किया जा सकता जैसा कि अपर पक्षने इनका पृथक् रूपसे विधान किया है। इतने विवेचन के बाद भी यदि अपर पक्ष सत्यभाषण आदिको व्यवहार अतरूपसे स्वीकार नहीं करना चाहता तो इन्हें अव्रत तो कहा जा सकता नहीं और मतोंमें इनकी गणना आप करना चाहते नहीं ऐसी अवस्थामें इनकी क्या स्थिति होगी इसका अपर पक्ष स्वयं निर्णय करें।
यहाँ पर अपर पक्षने जिस प्रकार यह स्वीकार कर लिया है कि वास्तव में सम्यक्त्व बन्धका कारण नहीं है, किन्तु सम्यक्त्यके साथ रहनेवाला रागांश ही देव आ युके बन्धका कारण है। उसी प्रकार वह यह भी स्वीकार कर लेगा कि शुभ-अशुभको निवृत्तिरूप निश्चय चारित्रांश या रत्नत्रयांश वास्तवमें बन्धका कारण नहीं है, किन्तु उसके साथ रहनेवाला रागांश हो वास्तवमें बन्धका कारण है । इसे स्वीकार कर लेने पर उस पक्षने जो यह लिखा है कि 'एक मिश्रित अखण्ड पर्याय निवृत्ति तथा प्रवृत्ति (राग) दोनों अंश सम्मिलित है । अतः उससे बाखव-बंध भी है और संबर निर्जरा भी है।' इसका सुतरां निरास हो जायगा । निश्चय रत्नत्रयांशमें केवल अशुभकी ही निवृत्ति नहीं है, किन्तु शुभकी भी निवृत्ति है । अतः सिद्ध हुआ कि जो निश्चय रलत्रयांश है उससे संबर और निर्जरा है और गृहस्थों तथा मुनियों के उस उस पदके योग्य जो शुभ-अशुभरूप प्रवृत्त्यश या रागांश है उससे आस्रव और बन्ध है।
- आगममें अपर पक्ष के कथनानुसार व्रतोंके छोड़ने का उपदेश तो कहीं नहीं है। इन प्रतोंके धारण करनेमात्रसे ही मैं मुक्तिका पात्र बनेंगा ऐसे विकल्पके छडानेका उपदेश अवश्य है। अब यह जीव स्वभाव सम्मुख हो निर्विकल्प समाशिका अधिकारी बनता है तश्व अतरूप विकल्प स्वयं विलयमान हो जाते हैं इतना अवश्य है । शुभ-अशुभकी निवृत्तिरूप जो व्रत है वह तो एक मात्र वीतरागभाव है । उराको संज्ञा कुछ भी रख ली जाय, है वह स्वयं एक मात्र वीतराग भाव हो। सप्तभादि गुणस्थानों में यदि व्रतोंका सद्भाव है भी तो एक मात्र इसी रूपमें है।
इस प्रकार किस रूपमें दया आत्मधर्म है और किस रूपमें पुण्यभाव है इसका स्पष्टीकरण किया ।
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प्रथम दौर
: १ :
शंका ४
व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें साधक है या नहीं ?
समाधान
निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चय धर्मकी उत्पत्तिकी अपेक्षा यदि विचार किया जाता है तो व्यवहार धर्म निश्चय धर्म में साधक नहीं है, क्योंकि निश्चय धर्मकी उत्पत्ति पर निरपेक्ष होती है। श्री नियमसारजी में कहा भी है
तह
दंसणवओगो सहा वेदर वियप्पदो दुविहो ।
केवल मंदिरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ||१३|| चक्खु अचक्खू ओहो तिष्णि वि भणिदं विभावदिच्छति । पज्जाओ दुबियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्ख ||१४||
अर्थ — उसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। जो केवल इन्द्रिय रहित और अहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा गया है। तथा चक्षु अचक्षु और अवधि ये तीनों विभाव दर्शन कहे गये हैं, क्योंकि पर्याय दो प्रकारकी है-स्वपरसापेक्ष और निरपेक्ष ।।१३-१४।।
तात्पर्य यह है कि सर्वत्र विभाव पर्याय स्वपरसापेक्ष होती है और स्वभाव पर्याय परनिरपेक्ष
होती है।
पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा इसी बातको स्पष्ट करते हुए इसी नियमसारकी गाथा २८ में भी कहा हैअष्णणिरावेक्खो जो परिणाम सो सहावपज्जावो ।
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जावो ||२८|
अर्थ — अन्य निरपेक्ष जो परिणाम होता है वह स्वभावपर्याय है और स्कन्धरूप जो परिणाम होता है वह विभाव पर्याय है ॥२८॥
यतः निश्चय रत्नत्रय स्वभाव पर्याय है, अतः उसकी उत्पत्तिका साधक व्यवहार धर्म नहीं हो सकता यह उक्त प्रमाणसे स्पष्ट हुँ ।
१७
·
तथापि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सविकल्प दशामें व्यवहार धर्म निश्चय धर्मके साथ रहता है, इसलिये व्यवहार धर्म निश्चयधर्मका सहचर होने के कारण साधक (निमित्त ) कहा जाता है।
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द्वितीय दौर
: २ :
शंका ४
व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक है या नहीं ? प्रतिशंका २
इसका उत्तर आपने यह दिया है— 'निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्मको उत्पत्तिको अपेक्षा यदि विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्म की उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती हैं ।"
अपने इस अभिप्रायकी सिद्धिके लिये नियमसारको गाथा १३ और १४ का प्रमाण उपस्थित किया है, जिसके आधार पर आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि चूंकि स्वभाव पर्याय परनिरपेक्ष है और इस तरह निश्चयधर्म जब परनिरपेक्ष सिद्ध होता है तो इसे व्यवहारधर्म सापेक्ष कैसे माना जा सकता है ।
आपके उत्तरसे यह मालूम होता है कि सबसे बड़ी चिन्ता आपको यही है कि यदि निश्चयधर्मको व्यवहारधर्म सापेक्ष माना जाता है तो फिर निश्चयधर्मको आत्माको विभाव पर्याय माननेका प्रसंग उपस्थित हो जायगा, परन्तु इस पर हमारा कहना यह है कि व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म दोनों आत्मा ही धर्म है । निश्चयधर्म में व्यवहारधर्मकी साध्यता मान लेने पर भी परनिरपेक्षता का सद्भाव बना रहने से (निश्चय धर्मके समान व्यवहार धर्म भो पर नहीं है, इसलिये) निश्चयधर्मको आत्माको स्वभाव पर्यायताका अभाव नहीं हो
सकता ।
आगमर्भे व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साचक बतलाया है। जिसके कुछ प्रमाण निम्नलिखित है-निश्चय व्यवहारयोः साध्य साधनभावत्वात्सुवर्णसुवर्णपाषाणवत्
अर्थ - निश्चय और व्यवहार में परस्पर साध्यसाधनभाव है, जैसे सोना साध्य है और सुवर्णपाषाण साधन है। पंचास्तिकाय गा० १५९, श्री अमृतचन्द्रजीकृत टीका तथा परमात्मप्रकाश अ० २ १२ टीका ।
भिन्नविषयश्रद्धान- ज्ञान चारित्रे रधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्यसाधनभावस्य रजक - शिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतिविहितोषपरिष्वङ्गमलिनवासस इव मनाङ मनाविशुद्धिमविगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शन- ज्ञान चारित्रसमाहितस्वरूपे विश्रान्तसकलक्रिया काण्ड डम्बर निस्तरंग परम चैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूत्रयन्तः ।
- पंचास्तिकाय गा० १७२ अमृतचन्द्रसूरिकृत टीका
अर्थ — जीव पहले भिन्नस्वरूप श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप व्यवहाररत्नत्रय से शुद्धता करते हैं- जैसे aata ant धोबी भिन्न साध्यसाधनभावकर शिलाके ऊपर साबुन आदि सामग्रियोंसे उज्ज्वल करता है, तँसे ही जीव व्यवहार नयका अवलम्बन पाय भिन्न साध्यसाधन भावके द्वारा क्रमसे विशुद्धताको प्राप्त होता हैं। तदनन्तर निश्चय नयकी मुख्यतासे भिन्न साध्यसाधनभावका अभाव होनेसे दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप fe सावधान होकर अन्तरंग गुप्त अवस्थाको धारण करता है ।
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शंका ४ और उसका समाधान
१३१ श्री जयसेन जीने भी पंचास्तिकाय गा० १०५ को टीकामें लिखा हैनिश्चयमोक्षमार्गस्थ परम्परया कारणभतं पबहारमोक्षमार्ग:। अर्य---व्यवहार मोक्षमार्ग परम्परा करके निश्चय मोक्षमार्गका कारणभूत है । इसी ग्रन्थको गाथा १६० तथा १६१ के शीर्षफमें सूरिजीने निम्नप्रकार दिये है
निश्चयमोक्षमार्गसाधमभावेन व्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । तथा व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षगार्गोपन्यासोऽयम् ।
अर्थ- निश्चय मोक्षमार्णका साधनरूप व्यवहार मोक्षमार्ग तथा व्यवहार मोक्षमार्गम साध्यरूप निश्चय मोक्षमार्ग।
इसी प्रकार इन्हीं गाथाओंको टीकामें श्री जयसेनजीने भी स्पष्ट रूपसे व्यवहार मोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका साधक बतलाया है।
निश्चयमोक्षमार्गसाधकव्यवहारमोक्षमार्गकथनरूपेण । पृष्ठ २६२
धी प्रववनसार गा० २०२ की टीकामें सूरिजीने व्यवहार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के विषय में स्पष्ट कहा है कि इनके प्रसादसे जीव घद्धान्मस्थितिको प्राप्त होता है।
श्री परमात्मप्रकाशजी श्लोक की टोकामें भी व्यवहार पंचाचारको निश्चय पंचाचारका साधक बतलाया है।
अध्याय २ इलोक की टीका में भी व्यवहार रत्नत्रयको निश्चयरत्नत्रयका साधक बतलाया है
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपनिश्चयरत्नत्रयलक्षणनिश्चयमोक्षमार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमा जानीहि।
श्री व्यसंग्रहजीकी टीकाके प्रमाण निम्न प्रकार हैंनिश्चयरत्नत्रयं तत्साधकं व्यवहाररत्नत्रयरूपं । -पु० ८१
निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं सद्बहिरंगसहकारिकारणभूतं पंचपरमेष्ठ्याराधन च शरणम् ।' पृ० १०२
अर्हत्सवंशप्रणीतनिश्चय-व्यवहारनयसाध्य-साधकभावेन मन्यते.......सम्यग्दृष्टलक्षणम् ।
अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थ व्याख्यातमिति चेत् ? व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साथ-साधकभावज्ञापनार्थमिति । पृ० १७६
निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम् । पृ० २०४
निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयध्यानस्थ परंपरया कारणभूतं बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गसाधक परमसाधुभक्तिरूपं । -पृ० २१५
द्वादशविधं तपः । तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपन निश्चयतपश्च । -१० २२३
आपने अपने उत्तरके अन्तमें जो यह लिखा है कि 'चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सविकल्प दशामें व्यवहार धर्म निश्चयधर्म के साथ रहता है, इसलिए क्यवहारधर्म निश्च यधर्मका सहचर होमेके कारण साधक वहा गया है। इसके विषय में हमारा आपसे यह निवेदन है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका सहपर होने के कारण साधक किस उद्देश्यसे माना जाता है ? कृपया इसका स्पष्ट्रोकरण कीजिये । पदार्थों में सहचरभाव तो
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जयपुर (खानिया ) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
बहुतसे विद्यमान रहते हैं फिर भी उनमें एकका दूसरे साथ साध्य साधकभाव माना जाना अनिवार्य नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि जिस तरह आप सहचर होने के कारण व्यवहार धर्मको निश्चयधर्मका साधक कहते हैं उसी तरह सहचर रहनेवाले निश्चयधर्मको क्या आप व्यवहारधर्मका साधक मानते है ?
उपरोक्त प्रमाणोंके आधार पर यह सिद्ध होता है कि आगम में व्यवहारधर्मको निश्चयधर्म का साधक सहचर होनेके कारण नहीं माना गया है। यदि माना गया हो तो कृपया आप स्पष्ट कीजिये ।
व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है, या नहीं ? प्रतिशंका २ का समाधान
शंका ४ में व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक है या नहीं? यह पृच्छा की गई थी। इसके उत्तर प बतलाया गया था कि उत्पत्तिको अपेक्षा तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक नहीं है, क्योंकि निश्चय की सर्वदा सर्वत्र एकमात्र स्वभाव के आश्रयसे हो उत्पति होती है। नयचक्र में कहा भी है
हारो बंध मोक्खो जम्हा सहावसंजुत्तो ।
लम्हा कुरु तं गउणं सहावमा राहणाकाले ॥७७॥
अर्थ - अतः व्यवहारसे बन्ध होता है और स्वभावका आश्रय लेनसे मोक्ष होता है, इसलिए स्वभावकी आराधना काल में अर्थात् मोक्षमार्ग में व्यवहारको गौण करो ॥७७॥८
इस सम्बन्धी प्रतिशंकामें प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह विविध प्रमाण उपस्थित कर जो यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहारधर्म निश्चय धर्मका साधक है सो वह कथन असदभुत व्यवहारकी अपेक्षा ही किया गया है। यही कारण है कि श्रीजयसेनाचार्यने पञ्चास्तिकाय गाथा १०५ की टीकामें और द्रव्यसंग्रह पृ० २०४ में व्यवहार रत्नत्रय को परंपरा से निश्ववरत्नत्रयका साधक कहा है। श्री पतिप्रवर टोडरमलजी साब ने मोक्षमार्गप्रकाशक में इस विषयको स्पष्ट करते हुए लिखा है
सम्यग्दृष्टि शुभोपयोग भए निकट शुद्धोपयोग प्राप्ति होय ऐसा मुख्यपना करि कहीं शुभोपयोग शुद्धयोगका कारण भी कहिए है। पृ० ३७७ दिल्ली संस्करण
श्री पंचास्तिकाय गाथा १०५ की जयसेनाचार्यकृत टीकामें और बृहद्रव्य संग्रह टीका पृ० २०४ में मोक्ष - जो व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका परम्परासे साधक कहा है सो वह इसी अभिप्रायसे कहा है । वस्तुतः मार्ग एक हो है । उसका निरूपण दो प्रकारका है। इसलिए जहाँ निश्चय मोक्षमार्ग होता है वहाँ उसके साथ होनेवाले व्यवहारधर्मरूप रामपरिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग आगम में कहा है और यतः वह सहचर होनेसे निश्चय मोक्षमार्गके अनुकूल हैं, इसलिए उपचारसे निश्चय मोक्षमार्गका साधक भी कहा है। श्रीपंडितप्रवर टोडरमलजीने खुलासा करते हुए लिखा है
जहां सांचा मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण सो निश्चय मोक्षमार्ग है और जहाँ जो मोक्षमार्ग
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शंका ४ और उसका समाधान
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तो है नाहीं, परन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है वा सहचारी है ताकी उपचार करि मोक्षमार्ग कहिए सो व्यवहार मोक्षमार्ग है । जातें निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सांचा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार, तातें निरूपण अपेक्षा दोय प्रकार मोक्षमार्ग जानना । एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है ऐसे दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। बहुरि निश्चय व्यवहार दोकनिकूं उपादेय मानें है सो भी भ्रम है । जाते निश्चय व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध लिए है । - माक्षमा प्रकाशक पृ० ३६५-३६६ देहली संस्करण तात्पर्य यह है कि निश्चय धर्म और व्यवहार धर्म दोनों ही आत्माके धर्म अर्थात् पर्यायांश हूँ । किन्तु निश्वयधर्म आत्माका स्वाश्रित पर्यायांश हूँ और व्यवहार धर्म आत्माका पराश्रित पर्यायांश है। प्राथमिक भूमिकामें ये दोनों मिश्ररूप होते हैं। ऐसी अवस्था में निश्चयधर्म की उत्पत्ति व्यवहार धर्मके द्वारा मानने पर मात्माको स्वभाव सन्मुख होनेका प्रसंग ही नहीं जा सकता । अतएव इस सम्बन्ध में जो पूर्व में स्पष्टीकरण किया है वैसा श्रद्धान और ज्ञान करना ही शास्त्रानुकूल
1
श्री प्रवचनसार में इन दोनों में महान् भेद है इस तथ्यका बहुत सारगर्भित शब्दों द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है। उसे अपनी सूक्ष्मेक्षणिकासे ध्यानमें लेनेपर व्यवहार धर्मको निश्चय धर्मका जो साधक कहा है वह कथन उपचरितमात्र है यह तथ्य अच्छी तरहसे स्पष्ट हो जाता है 1 वहाँ कहा है
संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः । तत एव च सरागाद्देवासुरमनुजराजविभवक्लेशुरू बन्धः । अतो गुणेष्टफलाही रामचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ॥ ६ ॥
अर्थ-दर्शन ज्ञानप्रधान घारित्रसे, यदि वह ( चारिश ) वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है, और उससे हो, यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभव क्लेशरूप बन्धकी प्राप्ति होती हैं। इस लिये मुमुक्षुको हृष्टवाला होनेसे वीतराग चारित्र ग्रहण करने योग्य ( उपादेय ) है, और अनिष्ट फलवाला होनेसे सराग चारित्र त्यागने योग्य ( देव ) है ॥ ६ ॥
हमारा प्रश्न था -
तृतीय दौर
: ३ :
शंका ४
व्यवहार धर्मं निश्चय धर्मका साधक है या नहीं ? प्रतिशंका ३
इस प्रश्न के उत्तर आपके पत्र में मूल प्रश्नको न छूते हुए स्वभाव और विभाव दर्शनोपयोगपर तथा पुद्गल को स्वभाव विभाव पर्यायपर प्रकाश डालकर नियमसारको तीन गाथाएं उद्धृत की गई थीं, परन्तु उन प्रमाणोंका मूल विषयसे कुछ सम्बन्ध नहीं है ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
आपके उस पत्रकपर हमने प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया था कि व्यवहारघम (व्यवहार रत्नत्रय) साधन है और निश्चयधर्म (निश्चय रत्नत्रय) साध्य है। परमत्रमाणभूत, मूलसंवके प्रतिष्ठापक श्रीकुन्दकुन्दाचार्य तथा अन्य आध्यात्मिक प्रामाणिक आचार्योक आर्ष प्रमाण देखकर जिनवाणीका थडालु तत्स्यवेत्ता नतमस्तक होकर उन्हें स्वीकार कर लेखा है, ऐगी हो आशा आपये भी थी: किन्तु आपने उन प्रमाणोंको स्वीकार नहीं किया और असद्भत व्यवहारनयको आर लेकर उन मालनिया है ना दि. मामान मामाल भाटापनापकी अपेक्षासे महीं है
और न उसकी अपेक्षासे हो ही सकता है। इसके लिये आलापपद्धति के अन्तमें दिया हुआ अध्यात्म नयोंका प्रकरण द्रष्टव्य है । वहाँ सद्भूत तथा असद्भूत न्यबहारनयका निम्न प्रकार लक्षण दिया है।
व्यवहारो भेदविषयः, एकवस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः, भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः ।
अर्थ-त्र्यवहारनय भेष विषयवाला है। एक ही वस्तु जिसका विषय है वह सद्भूतव्यवहारनय है और भिन्न वस्तु जिसका विषय है वह अराद्भूतत्र्यवहारनय है ।
इस विवेचनसे आरपाका व्यवहार रत्नत्रय है यह सद्भूतव्यवहार नयका विषय ठहरता है। अपनी पक्षपुष्टिके लिये आपने कोई भी ऐसा आगम प्रमाण उपस्थित नहीं किया जो व्यवहार धर्मको निश्चयधर्मका साधन न मानता हो।
हमारे प्रश्न १२ के उत्तरमै आपने स्पष्टरूपसे स्वीकार कर लिया है कि 'कुगुरु कुधर्म कुशास्त्रकी श्रद्धा गृहीत मिथ्यात्व है तथा सुदेव सुशास्त्र सुगुरुको श्रद्धा सम्यग्दर्शन है ।' इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए श्री नियमसारमें निम्न गाथा दी है
. अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं ॥५॥ अर्थ-आप्त, आगम और तत्त्वोंकी श्रद्धासे सम्यत्रत्व होता है । उसकी टीकामें स्पष्टीकरण करते हुए लिखा हैव्यवहारसम्यक्त्वाख्यानमेतत् । यह व्यवहार सम्यक्त्यके स्वरूपका कथन है ।
'सम्यग्दृष्टिके ऐसी श्रद्धा अवश्य होती है और वह ऐसे कथनको शास्त्रोक्त मानता है आपका यह उत्तर ठीक है, अतः हमने इसे स्वीकार कर लिया है । परन्तु आपने हमारे चौथे प्रश्न के उत्तरमें जो लिखा है वह आपके इस उक्त १२ वें प्रश्नके उत्तरसे विरुद्ध है।
आपने इस चौथे प्रश्नके उत्तरमें लिखा है कि व्यवहार धर्मरूप रागपरिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग आगममें कहा है तथा यह भी कहा है कि 'वह (रागपरिणाम सहचर होनेसे निश्चय मोक्षमार्गके अनकल है। आपका राग परिणामको निश्चय मोक्षमार्गके अनफल लिखना उचित नहीं है। राग परिणाम तो निश्चय मोक्षमार्गके अनुकूल नहीं हो सकता। अतः आपका यह लिखना आगम सम्मत नहीं है, क्योंकि किसी भी आगम ग्रन्थमें मात्र राग परिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग नहीं कहा है। यद्यपि व्यवहार मोक्षमार्ग अर्थात् व्यवहार रत्नत्रयके साथ प्रशस्त रागभाव रहता है, परन्तु मोक्षमार्ग मात्र रायभावको नहीं बतलाया गया है। सर्वत्र सम्पग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रको रत्नत्रय या मोक्षमार्ग कहा है 1 जैसा कि निम्न प्रमाणोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है
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शंका ४ और उसका समाधान
नियमसारकी उल्लिखित ५ वी गाषामें व्यबहार सम्यक्त्वका लक्षण आप्त, आगम और तत्वकी श्रद्धा बतलाया है, रागको नहीं ।
- श्रीपश्वास्तिकायमें गाथा १०६ के पश्चात् श्रीजयसेनाचार्यकृत टीकामें भी एक गाथा आई है, जो इस प्रकार है
एवं जिणपण्णत्ते सदमाणस्स भावदो भावे ।
पुरिसस्साभिणिबोधे दंसणसदो हवदि जुत्ते ॥ अर्थ---इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रणीत पदार्थोंमें रुचिरूप श्रद्धान करते हुए पुरुषको जो मति श्रुत शाम होते है उसे युनाव सन्धष्टि होता है।
श्रीजयसेनाचार्य इसकी टीका लिखते हैं
अत्र सूत्रे यद्यपि क्वापि निर्विकल्पसमाधिकाले निर्विकारशुद्धात्मरुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं स्पृशति तथापि प्रचुरेण बहिरंगपदार्थहरुचिरूपं यद् व्यवहारसम्यक्त्वं तस्यैव तत्र मुख्यता।
अर्य-इस आगम वाक्पमें यद्यपि कभी निर्विकल्प समाधिकालमें निविकार शुद्धात्मरुचिरूप निश्चय सम्यमत्वका स्पर्श होता है तो भी अधिकतासे बहिरंग पदार्थ रुचिरूप जो व्यवहार सम्यवस्व रहता है उसीकी यहाँ पर मुख्यता है ।
कृषि, प्रतीति, श्रद्धा एकपर्यायवाची शब्द है । इसी अन्य व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप निम्न प्रकार बतलाया है
धम्मादीसदहणं समत्तं णाणमंगपुव्यगदं ।
चिट्ठा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति ।।१६०|| अर्थ-धर्मादि तथ्योंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, अंग-पूर्वगत ज्ञान और तपश्चरणरूप चारित्र यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
इस गाथाका शीर्षक वाक्य श्री अमृतचन्द्र सूरिने निम्न प्रकार दिया है-- निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । अर्थ-आगे निश्चय मोक्षमार्गके साधनरूपसे पहले कहे गये व्यवहार मोक्षमार्गका निर्देश हैं ।
श्री अमृतचन्द्रसूरिने टीकामें इसीका विस्तारसे कथन किया है तथा व्यवहार मोक्षमार्गका साधकभाव और निश्चय मोक्षमार्गका साध्यभाव सिद्ध किया है।
द्रव्यसंग्रहको १३वीं गाथाकी टीका (पृ०३५) में भी स्पष्ट लिखा है
अत्सिर्वज्ञप्रणीतनिश्चय-व्यवहारनय साध्य-साधकभावेन मन्यते" सम्यादृष्टलक्षणम् ।
अर्थ-श्री अर्हन्त सर्वश भगवानके द्वारा कहे हुए निश्चय-गवहारनयको जो साध्यसाधक भावसे मानता है वह सम्यग्दृष्टिका लक्षण है।
इसका स्पष्ट आशय यह हुआ कि जो निश्चयनमको साध्य और व्यवहारनयको साधकभावसे नहीं मानता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है।
परमात्मप्रकाशके दूसरे अध्यायकी १४ वी गाथाकी टीका देखियेवीतरागसर्वज्ञप्रणीतषद्रव्यादिसम्यश्रद्धानशाननताद्यनुष्ठानरूपी व्यवहारमोक्षमार्गः ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अर्थ-वीतराग सर्वज्ञ वारा प्रतिपादित छह द्रव्यादिका सम्यक् धडान, ज्ञान तथा प्रतादिका अनुष्ठानरूप ब्यवहारमोक्षमार्ग है।
श्री नियमसारमें पूर्वोक्त ५ वौं गाथाके अतिरिक्त ५१ से ५५ तक पाँध गाथाओं में रत्नत्रयका विस्तुत स्वरूप कथन है
विवरीयाभिणियसविवज्जियसब्दहणमे सन्मत। संसयविमोहविन्भमविज्जियं होदि सणाणं ।।५१॥ चल-मलिनमगादत्तविवज्जियसदहणमेव सम्मत्तं । अधिगमभावे गाणं हेयोपादेयतच्चाणं ॥५२॥ सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा दसणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥ सम्मस सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं । ववहार-णिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥५४।। ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरण।
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ५५५।। अर्थ-विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, संशय-विमोह-विभ्रम रहित सम्परज्ञान होता है।॥५२॥ चल-मसिन-अगाड रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व होता है। हेय उपादेय तत्वोंका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥५२॥ जिनसव तथा उनका ज्ञापक पुरुष सम्यक्त्वका बहिरंग निमित्त है, और दर्शनमोहके क्षयादिक अन्तरंग हेतु कहे गये है ॥५३॥ हे भव्य जीव 1 सुन, मोक्ष के लिये सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र होते हैं, इसलिये व्यवहार तथा निश्चय चारित्रका कथन करता हूँ ॥५४।। मवहारनयके चारित्रमें व्यवहारनयका तपश्चरण होता है और निश्चयनयके चारित्रमै निश्चयनयका तपश्चरण होता है ॥५५।।
इन गाथाओंके टीकाकारले निम्नलिखित टीका द्वारा गाथार्थका विस्तार करते हुए स्पष्ट किया है कि ५५वीं गायाके उत्तरार्धके अतिरिक्त शेष सब व्यवहाररत्नत्रमके स्वरूपका कथन है । टीका देखिये
भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविजितश्रद्धानरूपं भमवतां सिविपरम्पराहेतुभूतानां पञ्चपरमेष्ठिनां चलमलिनागाढवजितसमयजनितनिश्चलभक्तियुक्तत्वमेव 1 विपरीते हरिहरहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः । संज्ञानमपि च संशयविमोहविभ्रमविवजितमेव । तत्र संशयस्तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । विमोहः शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः । विभ्रमो ह्यज्ञानमेव । पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम् । इति भेदोपचाररत्नजयपरिणतिः । तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम् ।
अर्थ---भेदोपचार रत्नत्रय भी विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान, आत्मसिद्धिके परम्परा कारणभूत पच परमेष्ठी भगवानकी चल, मलिन एवं अगाढ़ रहित निश्चल भक्ति हो है, जो कि हरिहर, ब्रह्मादिप्रणीत विपरीत पदार्थसमूहमें अभिनिवेशका अभावरूप है और सम्यग्ज्ञान भी संशय, विमोह, विभ्रम रहित ही है । इनमें संशयका का यह है कि 'जिन' देव है ? या 'शिव' देव है ? शाक्यादि-बौद्धादि द्वारा कही हुई वस्तुओंमें निश्चय होना विमोह है। विभ्रम अज्ञानता ही है और पापक्रियासे निवृत्तिरूप परिणाम चारित्र है । यह भेदोपचार रत्नत्रयकी परिणति है । इनमें जिनप्रणीत हेयोपादेय तत्त्वका ज्ञान ही सम्पज्ञान है।
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शंका ४ और उसका समाधान
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आगे चलकर इसी प्रत्यके चौथे अध्यायमें व्यवहारचारित्रका कथन है, जिसमें पांच पापोंसे निवृत्ति अर्थात् पञ्च व्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्तिको व्यवहार चारित्र कहा है । इस अध्यायको अन्तिम गाथा ७६ द्वारा यह स्पष्ट किया है कि इस अध्यायमें व्यवहार चारित्रका कथन किया है । पन्च पापोंके त्यागका नाम व्रत बतलाया है, क्रिया करते समय प्रमाद असावधानीका त्याग समिति है और मन, वचन, कायकी क्रियाका निरोध करना गुप्ति हैं ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य दर्शन पाहुडमें लिखते हैं—
छह दव्य णव पयत्था पंचत्थी सप्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिद्धो मुणेयवो ॥ १९२॥
अर्थ — जिनेन्द्र द्वारा निर्दिष्ट छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय तथा सप्त तत्त्वोंके स्वरूपका जो
श्रद्धान करता है उसे सम्यग्वृष्टि जानना चाहिये ॥ १९ ॥
श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तगमतपोभूताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ||४||
अर्थ – सत्यार्थ आप्त, आगर और गुरुका श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है । यह तीन मूढता रहित, आठ अंग सहित और आठ मद रहित होता है ।
ऐसे अन्य भी बहुत प्रमाण हैं । इन सब प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार रत्नत्रयको मात्र रागरूप कहना अर्थात् 'निश्चय रत्नत्रयके साथ जो राम रहता है उस रागांशका नाम व्यवहार रत्नत्रय है' कहना आगम विरुद्ध है। प्रत्युत 'राग, भेद या विकल्प सहित जो सप्त तत्त्व आदिका श्रद्धान व ज्ञान तथा पापोंसे निवृत्तिरूप चारित्र है वह व्यवहाररत्नत्रय या व्यवहारमोक्षमार्ग है।' इसीको उपचार रत्नत्रय भी कहा जाता है । यह निश्चयरत्नत्रय एवं मोक्षका हेतु है । जिसके कुछ प्रमाण पहले पत्रक में तथा इसी लेखमें ऊपर दिये हैं। और भी देखिये
श्री अमृतचन्द्र सूरि पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थमे निश्चयके साथ व्यवहार रत्नत्रयको मुक्तिका कारण बतलाते हैं-
सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः ।
मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ||२२||
अर्थ - इस प्रकार यह पूर्व कथित निश्चय और उपचार व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रलक्षण - वाला मोक्षमार्ग आत्माको परमात्मपद प्राप्त कराता है ।
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पञ्चास्तिकायकी गाथा ७० को टीकामे जयसेनाचार्य लिखते हैं- .
निश्चय व्यवहारमोक्षमार्गचारी
गच्छति निर्वाणनगरम् ।
अर्थ - - निश्चय तथा व्यवहार मोक्ष मार्गपर चलनेवाला व्यक्ति मोक्ष नगरको पहुँच जाता है । निश्चय व्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्षकार्य सम्भवति ।
- पञ्चास्तिकाय गाथा १०६ जयसेनीया टीका
मा
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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा वीतरागत्वं निश्चय-व्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये न च पुननिरपेक्षाभ्यामिति वातिकम् ।
-पञ्चास्तिकाय १७२ माथा श्री जयसेनाचार्यकृत टोका अर्थ-चीतरागता, निश्चय तथा व्यवहार नयके साध्यसाधक भावसे परस्पर सापेक्ष होनेपर ही मुक्ति की सिद्धि के लिये होती है, दोनों नयों के निरपेक्ष होनेपर वह वीतरामता मुक्तिसिद्धि के लिये नहीं होती। श्री पं० दौलतरामजी छहढाला ग्रंथकी तीसरी हालमें लिखते है
अब व्यवहार मोक्षमग सुनिये, हेतु नियतको होई ॥२॥ अर्थ-अम व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप सुनो, जो कि निश्चय मोक्षमार्गका कारण है । छठवीं ढालके अन्त में वे निष्कर्ष (ग्रंथका निचोड़) कहते हैं--
मुख्योपचार दुभेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरें।
अरु धरेंगे ते शिव लहें तिन सुयश-जल जगमल हरें । अर्थ-इस प्रकार जो भाग्यशाली पुरुष निश्चय तथा व्यवहार रत्नत्रयको धारण करते है अथवा भविष्यमें धारण करेंगे वे मोक्ष प्राप्त करते हैं और उनका स्वच्छ यारूपी जल संसारके मैलको दूर करता है।
यहाँ धोनों वालों में पं० दौलतरामजीने व्यवहाररलत्रयको भी निश्चमरत्नत्रयका कारण बतलाते हुए मोक्षका कारण बतलाया है।
अब प्रसंगवश निश्चयररनत्रय (मोक्षमार्ग) का स्वरूप दिखलानेके लिये कुछ प्रमाण दिये जाते हैंश्री कुन्दकुन्दाचार्य पञ्चास्तिकायमें लिखते है
जो चरदि णादि पिच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमय 1
सो चारितं गाणं देसणमिदि णिच्छिदो होदि ॥१६२|| अर्थ-जो (आत्मा) आत्माको आरमासे अनन्यमय आचरता है, जानता है वह (आत्मा ही) चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है ऐसा निश्चय रत्नत्रय है। हो कुन्दकुन्दाचार्य भावपाहुडमें लिखते हैं
___ अप्पा अप्पम्मि रओ सम्मादिट्टी हवेइ फुड जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गु ति ।।३१।। अर्थ-जो आत्मामें रत है वह सम्यग्दृष्टि है, उसे जानना सम्यग्ज्ञान है और उसमें आचरण करन। सो सम्यक्चारित्र है। अमृतचन्द्र सूरि पुरुषार्थसिद्धधुपाममें एक प्रश्नका उत्तर देते हुए लिखते हैं
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः ।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ।।२१६|| अर्थ-अपनी आत्माका विनिश्च य सम्पादन है, आत्माका विशेष शान सम्यग्ज्ञान है और आत्म स्थिरता सम्यकचारित्र है। इन तीनोंसे बन्ध कैसे हो सकता है ?
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शंका ४ और उसका समाधान यौ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती अपने द्रव्यसंग्रहमें लिखते है
सम्मटुंसणणाण चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे ।
तवद्दारा णिकळ्यदो तनियमइओ णिओ अप्पा ॥३९॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको व्यवहारसे मोक्षका कारण जानो और निश्चयसे सम्यग्दर्शनादि त्रिरूप आत्मा मोक्षका कारण है । परमात्मप्रकाश अध्याय २ दोहक १४ की टीकामें लिखा है
___ वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणम् ।
वीतरागचारित्राविनाभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वम् ।। अर्थ-धीतराग सम्यक्त्वका लक्षण स्वशुद्धात्मानुभूति है और वह वीतराग चारित्रका अधिनाभूत है । यह ही निश्चय सम्यक्त्व है।
__पं० दौलतराम जी ने भी छहवाला सीसरी ढाल में निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया है
पर द्रव्यनलें भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है आप-रूपको जानपनी सो सम्यग्ज्ञान कला है । आप-रूपमें लीन रहे थिर सम्यक्चारित्र सोई
अब व्यवहार मोक्ख मग सुनिये हेतु नियतको होई ।।२।। अर्थ-अन्य द्रव्योंसे पृथक् अपनी आत्माकी रुचि होना निश्चय सम्यग्दर्शन है, केवल निज आत्मा को जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और अपने आत्मामें लीन होना सो निश्चय सम्यक्चारित्र है । अब व्यवहार मोक्षमार्गका वर्णन करते हैं जो कि निश्चय मोक्षमार्गका कारण है।
उपर्युक्त प्रमाणों और व्यवहार तथा निश्चय रलत्रमके स्वरूपपर विचार करनेसे यह स्फुट रूपसे प्रकट हो जाता है कि सहचरताके कारण निश्चय व्यवहार रत्नत्रयमें साध्य-साधकभाव नहीं माना गया है, अपि तु कार्य-कारण भावसे होनेरो माना गया है।
इस प्रकार यह कहना कि 'जहाँ निश्चय मोक्षमार्ग होता है वहां उसके साथ होनेवाले व्यवहार धर्मरूप राग परिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग आगममें कहा है। आगम संगत नहीं जान पड़ता है, क्योंकि मात्र रागांशका नाम व्यवहार रत्नत्रय नहीं है और न मात्र रागांश निश्चय रत्नत्रयका साधक हो सकता है।
आपसे पहले उत्तरमे निवेदन किया गया था कि 'आप ऐसे प्रमाण देने की कृपा करें जहाँ मात्र रागांशको व्यवहाररत्नत्रय कहा गया हो और इस प्रकार सहचरताके कारण साध्य-सांघक भाव सिद्ध किया गया हो' किन्तु उनके लिए आपने एक भी प्रमाण नहीं दिया, प्रत्युत पञ्चास्तिकाय गाथा १०५ पर थी जयसेनाचार्यकृत टीका और बृहद्रव्यसंग्रह पृ० २०९ का प्रमाण देकर यही सिद्ध किया है कि व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रयका परम्परासे साधक है।
'व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें साधक है या नहीं ?' इस प्रश्नके मूलमें आशय यह था कि आज समाजके अन्दर प्रवचनकी ऐसी धारा चल पड़ी है जिसमें कहा जाता है-"मैं शुद्ध बुद्ध निरञ्जन है, कालिक
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा अखण्ड द्रव्य हूँ, बाय चारित्रसे आत्माका कल्याण होनेशला नहीं, प्रत्युत कर्मबन्ध होता है। इसे धारण कर तो यह जीव अनन्त बार अवेयकमें उत्पन्न हो चुका है।' इसके फलस्वरूप समाज में व्यवहार धर्म से अरुचि फैलने लगी है | कितने ही त्यागियोंने गृहीत त छोड़ दिये हैं, जनतामें रात्रिभोजन और अभयभक्षणकी प्रवृत्ति चल पड़ी है । और राधारण गृहस्थका जो कुलाचार है उसे भी लोग छोड़ रहे हैं। फिर देशव्रत और महाव्रतकी ओर लोगोंकी अभिरुचि जागृत हो यह दूरकी बात रह गई है। लोगोंकी यह मान्यता बनती जाती है कि धर्म तो एक निश्चय धर्म है, व्यवहार धर्म कोई धर्म नहीं है। वह तो मात्र बन्धका कारण है, उसके पालनेसे कुछ लाभ नहीं होता। अनादि कालसे लगे हुए मोहके संस्कारवश जनता तो त्यागके मार्गसे दूर रहती है, उस पर उसे ऐसे उपदेश मिलें कि व्यवहार धर्म में क्या रखा है ? तब तो उसे त्यागकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ हो जायगी। इसी अभिप्रायसे यह प्रश्न था कि "व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें कारण है या नहीं ?" पर इस ओर आपका लक्ष्य नहीं गया ऐसा जान पड़ता है।
मोक्षमार्गप्रकाशकके जो अवतरण आपने दिये है उनसे यह अभीष्ट सिद्ध नहीं होता कि व्यवहार निश्चयका साधक नहीं है। किन्तु उससे तो यही सिद्ध होता है कि व्यवहार निश्चयका साधक है, क्योंकि वहाँ पर भी व्यवहारको निश्चयका निमित्त कहा गया है। जिमागमका उपदेश नयवादको लिये हुए है और नयवाद पात्र के अनुसार होता है। इसीलिए नयको परार्थ श्रुतज्ञानका भेद माना गया है। श्री अमृतचन्द्र स्वामीने पञ्चास्तिकायकी टीकाके अन्तमें प्राथमिक शिष्यों के विषयमें निम्नांकित पंक्तियां बड़ी महत्त्वपूर्ण लिखी हैं
व्यवहारमयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिकाः ।
अर्थ-जिनकी बुद्धि अनादि कालसे भेदभाव कर वासित हो रही है ऐसे प्राथमिक शिष्य भिन्न साष्यसाधनभावका अवलम्बन लेकर मुखसे ही धर्मतीर्थ में अवतीर्ण हो जाते हैं। धर्मको अनायास प्राप्त हो जाते हैं।
इसके आगेकी पंक्तियां भी द्रष्टव्य है, जिनमें उन्होंने प्राथमिक शिष्य व्यवहार धर्मसे आत्मसाधना करता हुआ निश्चय धर्मको प्राप्त होता है इसका उल्लेख किया है
तथाहीदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं श्रद्धातेदं श्रद्धानमिदमश्रद्धानमिदं ज्ञेयमिदमज्ञेयमयं ज्ञातेदं ज्ञानमिदमज्ञानमिदं चरणीयमिदमचरणीयमयं चरितेदं चरणमिति कर्तव्याकर्त्तव्यकर्तृकर्मविभागावलोकनोल्लसितपेशलोत्साहाः शनैः शनर्मोहमल्लमुन्मूलयन्तः कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतन्त्रतया शिथिलतात्माधिकारस्यात्मनो न्याय्यपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः पुनः पुनर्दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्ततोयुक्ताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानवारित्ररधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नमाध्यसाधनभावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहितोषपरिष्वंगमलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शनशानचारित्रसमाहितत्वरूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्बरनिस्तरंगपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूचयन्तः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य साक्षारमोक्षमनुभवन्तीति ।
अर्थ-'तीर्थ क्या है? सो दिखाते है-जिन जीवोंके ऐसे विकल्प होंहि कि यह वस्तु श्रक्षा करने मोग्य है, यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य नहीं है, श्रद्धा करनेवाला पुरुष ऐसा है, यह श्रद्धान है, इसका नाम अथद्वान है, यह वस्तु जानने योग्य है, यह नहीं जानने योग्य है, वह स्वरूप ज्ञाताका ह, यह ज्ञान है,
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शंका ४ और उसका समाधान
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यह अज्ञान है, यह आदरने योग्य है, यह वस्तु आचरने योग्य नहीं है, यह आचारमयी भाव है, यह आचरण करनेवाला है, यह चारित्र है. ऐसे अनेक प्रकारके करने न करनेके कर्ता कर्मके भेद उपजते हैं, उन विकल्पों के होते हुए उन पुरुष तीको सुदृष्टिके बढ़ाव से बार-बार उन पूर्वोक्त गुणोंके देखनेसे प्रकट उल्लास लिए उत्साह बढ़े हैं । जैसे द्वितीयाके चन्द्रमाको कला बढ़ती जाती हैं तैसे ही ज्ञान दर्शन चारित्ररूप अमृत चन्द्रमाकी कलाओंका कर्तव्याकर्तव्य भेदोंसे उन जीवोंको बढ़वारी होती है । फिर उन्हीं जीवोंके शनैः शनैः मोहरूप महामल्लका सत्तासे विनाश होता है । किस ही एक कालमें अज्ञानता के आवेश हैं प्रमादकी अधीनतासे उनही free आत्म शिथिलता है, फिर आत्माको न्याय मार्ग में चलाने के लिए आपको दण्ड देते हैं। शास्त्र म्यायसे फिर ये ही जिनमार्गी बारंबार जैसा कुछ रत्नत्रयमें दोष लगा होय उसी प्रकार प्रायश्चित्त करते हैं । फिर निरन्तर उद्यमी रहकर अपनी आत्माको जो आत्मस्वरूपसे भिन्न स्वरूप (भिन्न पदार्थोको विषय करनेवाला) श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप व्यवहार रत्नत्रय शुद्धता करते हैं, जैसे मलीन वस्त्रको धोबी भिन्न साध्यसाधनभाव कर शिलाके ऊपर साबुन आदि सामग्रियोंसे उज्ज्वल करता है । तसें ही व्यवहारनयका अवलम्ब पाय भिन्न साध्यसाधनभावके द्वारा गुणस्थान चढ़ने से क्रमवशुद्धताका होता है फि उन ही मोक्षमार्ग साधक जीवोंके निश्चयनयकी मुख्यतासे भेदस्वरूप पर भवलम्बी व्यवहारमयी भिन्न साध्यसाधनका अभाव है, इस कारण अपने दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप विषं सावधान होकर अन्तरंग गुप्त अवस्थाको धारण करता है । और जो समस्त बहिरंग योगों से उत्पन्न है क्रियाकाण्डका आडम्बर तिनसे रहित निरन्तर संकल्प-विकल्पोंसे रहित परम चैतन्य भावोंके द्वारा सुन्दर परिपूर्ण आनन्दवंत भगवान् परम ब्रह्म आत्मामें स्थिरताको करे हैं ऐसे जे पुरुष हैं वे ही निश्चयावलम्बी जीव हैं । व्यवहारनयसे अविरोधी क्रमसे परम समरसी भाव के भोक्ता होते हैं ।
- पांडे हेमराज कृत हिन्दी टीका पृ० २४७-४८
श्री कुन्दकुन्द स्वामीकी निम्नलिखित गाथा भी हमें यही पथ प्रदर्शन करती है कि कहीं किसके लिए कौन नय प्रयोजनवान् है-
सुद्धो सुद्धादेसो नायवी परमभावदरिसीहि ।
वहारदेसिया पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ॥ १२ ॥ - समयसार
अर्थ ---- जो शुद्ध नय तक पहुँचकर श्रद्धावान् हुए तथा पूर्ण ज्ञान चरित्रवान् हो गये उनको तो शुद्ध नयका उपदेश करनेवाला शुद्धमय जानने योग्य है। और जो अपरमभाव अर्थात् श्रखा ज्ञान और चारित्र के पूर्णभावको नहीं पहुँच सके तथा साधक अवस्थामें ही ठहरे हुए हैं वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं ।
लोकम जिनधर्मकी देशना, परस्पर सापेक्ष उभयनयके ही आधीन है, एकनयके आधीन नहीं। जैसा कि कहा है-
जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा वबहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जर तित्थं अण्गेण उण तच्छं ॥
— समयसार गाथा १२ को मात्मख्यातिटीक
अर्थ --- यदि तुम जैनधर्मका प्रवर्तन चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयोंको मत छोड़ो,
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
क्योंकि व्यवहार के बिना तो तीर्थ-व्यवहार मार्गका नाश हो जायगा और दूसरे निश्चयके बिना तस्व (वस्तु) का नाश हो जायगा ।
नोट -- निश्चयनय और व्यवहारनयके स्वरूपको समझाने के लिए प्रश्न संख्या १, ५, ६, १६ व १७ भी देखिये | इसके साथ इसका परिशिष्ट भी हैं ।
प्रश्न चार का परिशिष्ट
संक्षेप में इसका अन्तिम फलितार्थ यह है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि, पंचम गुणस्थान वर्ती श्रावक और संयम जो हाजिर किया है वह सो व्यवहार धर्म कहलाता है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप आत्माकी विशुद्ध अविकारी वीतरागता पूर्ण जो स्थिति बनती है उसे निश्चय धर्म कहते हैं ।
वीतरागी देव वीतरागी गुरु और वीतरागता के पोषक आगमके प्रति भक्ति प्रगट करना, इनके प्रति आकृष्ट हो जाना यह सब अविरत सम्यग्दृष्टिका बाह्य आचार अर्थात् व्यवहार सम्यग्दर्शनरूप व्यवहार धर्म कहलाता है और सांसारिक प्रवृत्तियों के एकदेश त्यागने रूप अणुव्रतोंको धारण करना यह सन श्रावकका बाह्य आचार अर्थात् व्यवहार चारित्र रूप व्यवहार धर्म तथा उन्हीं सांसारिक प्रवृत्तियोंके सर्वदेश त्यागने रूप महाव्रतोंका धारण करना यह सब संयमी मुनियोंका बाह्य आचार अर्थात् व्यवहार चारित्र रूप व्यवहार धर्म कहलाता है ।
प्राणीका लक्ष्य आत्माको विशुद्ध-निर्विकार वीतराग और स्वतन्त्र बनानेका जन संस्कृति में निर्धारित किया गया है इसलिये इस प्रकारका निश्चयधर्म प्राणी के सामने साध्य के रूपमें उपस्थित होता है और जब वह प्राणी यथायोग्य प्रकार से क्रमशः अविरत सम्यग्दृष्टि, थावक तथा मुनियोंके उपर्युक्त बाह्याचारके रूपमें व्यवहार धर्मको अपनाता है ।
अविरतसम्यग्दृष्टि, श्रावक और मुनियोंके बाह्याकार रूप व्यवहारधर्मको द्रव्यलिंग और इनके अन्तरंग मात्मविशुद्धिमय निश्चयधर्मको भावलिंग भी कहते हैं । व्यवहारधर्मका प्रतिपादक चरणानुयोग है और निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोग है। चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव जीवनकी बाह्य स्थिति में प्रवर्तमान रहते हैं, अतः ऐसे जीवोंका मुख्यत्तया बाह्य पुरुषार्थ पर लक्ष्य रहना आवश्यक हो जाता है और यही कारण है कि इन जीवोंके व्यवहार धर्मकी मुख्यता तथा निश्चयधर्मको गौणता स्वभावतः रहती है । सप्तम गुणस्थानसे लेकर आगे गुणस्थानों में रहनेवाले जीव जीवनको अन्तरंग स्थितिमें प्रवर्तमान हो जाते हैं, अतः ऐसे जीवोंकी वृत्ति बाह्य पुरुषार्थसे हटकर अन्तरंग पुरुषार्थ के उन्मुख हो जाती है। यही कारण है कि सप्तम आदि गुणस्थानोंमं पहुँचे हुए जीवोंके निश्वय धर्मकी प्रधानता तथा व्यवहार धर्मकी गोणता स्वभावतः हो जाती है । इस अभिप्रायको ध्यान में रखकर ही आचार्य कुन्दकुन्दले निम्नलिखित गाथाकी रचना की है— सुद्धा सुद्धादेसी गायव्वा परमभावदरसीहि ।
बहारदेसिया पुण जे दु अपरमे ट्टिदा भावे ||१२|| – समयसार
अर्थ — जो जीव जीवनकी बाह्य स्थिति से हटकर अन्तरंग स्थिति में पहुँच गये हैं उन्हें अपने परम (उस्ष्ट) स्वाति मायके दर्शन होते हैं इस कारण उन जीवोंके शुद्ध (स्वाश्रित) निश्चयधर्मकी प्रमुखता
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शंका ४ और उसका समाधान
पायो जाती है। तथा जो अभी अपने जीवनको बाह्य स्थितिमें ही प्रवर्तमान है उन्हें इस हालतमें अपरम भावके ही दर्शन हुआ करते हैं, अतः इन जीवोंके पराश्रित व्यवहार धर्मको ही प्रमुखता पायी जाती है।
व्यवहार धर्मका सद्भाव निश्चय धर्मके अभावमे भी पाया जाता है और जहाँ निश्चय धर्मका सदभाव होगा वहाँ व्यवहार धर्मका सद्भाव रहना ही चाहिए। इससे व्यवहार धर्मकी कारणता और निश्चय धर्मको कार्यतामें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है, क्योंकि आगमका अभिप्राय व्यवहार धर्मको कारण और निश्चन गर्न सका कार्य स्वीकार गर है कि निश्चय धर्मकी उत्पत्ति और स्थिति व्यवहार धर्मको अंगीकार किये बिना असम्भव है, इसलिये आपका ऐसा सोचना भी गलत है कि निश्चय धर्मको प्राप्त होनेपर व्यवहार धर्मकी प्राप्ति अपने आप हो जाती है। समयसारको "अपडिक्कमणं दुविह" इत्यादि २८३ से २८५ वी गाथाओंकी आत्मख्याति टीकासे स्पष्ट रूपमें यह बात सिद्ध होती है कि व्यवहार धर्म निश्चय धर्मको उत्पत्ति और स्थितिमें कारण होता है । वह टीका निम्न प्रकार है
ततः एतत् स्थितं, परद्रव्यं निमित्तं, नैमित्तिका आत्मनो रागादिभावाः। यद्येचं नेष्येत तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात् । तदनर्थकत्वे त्वेकस्यवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षाभावः प्रसज्येच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा, तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नमित्तिकभूतं भावं न प्रतिकामति न प्रत्याचष्टे च। यावत्तु भावं न प्रतिकामति न प्रत्याचष्टे तावत्तक्कतेंध स्यात् । यदैव निमित्तभूतं द्रव्य प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदेव नैमित्तिक भूतं भावं प्रतिकामति प्रत्याचष्टे च । यदा तु भावं प्रतिकामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षात् अकते व स्यात् ॥२८३, २८४, २८५||
अर्थ-इस तरह मह निश्चित हो जाता है कि पर द्रव्या निमित्तकारण है और आश्माके रागादिविकार परद्रज्यके निमित्तसे उतान्न होनेवाले हैं। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो आगममे द्रव्य अप्रतिक्रमण
और द्रश्य अप्रत्याख्यानमें जो आत्माके राग-द्वेषादि विकारोकी उत्पत्तिकी निमित्तता प्रतिपादिप्त की गयी है यह अनर्थक हो जायगी। इसके अनर्थक हो जाने पर एक आत्मामें ही रागादिकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त हो जाने पर आत्मामें रामादिके नित्यकर्तृत्वकी भी प्रसक्ति हो जानेसे मोक्षफे अभावका भी प्रसंग उपस्थित हो जायगा, इसलिये आत्मामें उत्पन्न होनेवाले रागादि विकारोंका निमित्त पर द्रव्य हो ठहरता है । इस तरह यद्यपि आत्मा स्वयं तो रागादिका अकारक ही है तो भी जब तक जीव निमित्तभूत पर
वयका प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण नहीं करेगा तब तक भावरूप रागादि विकारोंका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान नहीं हो सकता है। इस तरह तब तक आत्मा रागादिका कर्ता ही बना रहता है और जब निमित्तभूत पर द्वन्यका प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान जीव करता है तभी वह उसके निमित्तसे होनेवाले रागादिका भी प्रतिक्रमण और प्रत्यास्यान करता है । इस प्रकार जब रागादि विकारोंका भी प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान हो जाता है तब आत्मा रागादिका साक्षात् अकर्ता हो जाता है । २८३, २८४, २८५ ।।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि आत्माकी परिणतिमें जो क्रोधादिरूपता पायी जाती है उसका कारण क्रोषादि द्रव्यकर्मो का उदय ही होता है। आत्मामें क्रोधादि विकारोंकी उत्पत्ति स्वतः अपने आप नहीं हो जाती है। पण्डित दौलतरामजीने छहढालाकी तीसरी हालमें व्यवहार धमकी निश्चय धर्मम कारणताका स्पष्ट उल्लेख किया है
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो ववहारो। इसी प्रकार स्वामी समन्तभद्र ने भी लिखा हैबाह्य तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् ॥८३॥
-स्वयंभूस्तोत्र अर्थ-हे भगवन् ! आपने आध्यात्मिक ( निश्चय ) तपकी वृक्षिके लिये बाह्य ( व्यवहार ) तपका कठोरताके साथ आचरण किया था।
नोट-~त्र्यबहारनय और निश्चयनय के स्वरूपको समझनेके लिये अन्य प्रश्नोंपर भी दृष्टि डालिये ।
मंगल भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका ४ व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक है या नहीं ? प्रतिशंका ३ का समाधान
१. उपसंहार हमने अपने प्रथम उत्तरमें लिखा है कि निश्चय रत्नत्रय स्वभावभाव है, इसलिये निश्चयसे व्यवहार धर्म उसका साधक नहीं है । तथापि सहचर सम्बन्धके कारण व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक ( निमित्त ) कहा जाता है।
अपर पश्चने इसपर शंका करते हुए अपने दूसरे पत्रकमें कुछ आगम प्रमाण देकर व्यवहार धर्म निश्चयधर्मका साधक है यह सिद्ध किया है। साथ ही यह भी लिखा है कि व्यवहार धर्मको निश्चयधर्मका साधक मान लेनेपर भी निश्चयधर्म परनिरपेक्ष बना रह सकता है।
इसका उत्तर देते हुए हमने अपने दूसरे उत्तरमें लिखा कि व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका असद्भूत व्यवहार नमसे साधक बतलाया है । साथ हो व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गका सहचर होनेसे अनुकूल है, इसलिए इसमें निश्चय मोक्षमार्गक साधकपनेका व्यवहार किया है यह भी बतलाया है।
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शंका ४ और उसका समाधान
२. प्रतिशका ३ के आधारसे विवेचन तत्काल प्रतिशंका ३ के आधारसे तृतीय पत्रक पर विचार करना है। इसके प्रारम्भमें अपर पक्षने यह संकेत किया है कि हमने प्रथम उत्तरमें नियमसारकी जो तीन गाथाएँ उद्धृत की हैं उनका प्रकृत विषयसे कोई सम्बन्ध नहीं, किन्तु बात ऐसी नहीं है। उन गाथाओं द्वारा हमारा यह दिखलाना ही प्रयोजन घा कि निश्चय मोक्षमार्ग निश्चय रत्नत्रय परिणत आत्मा है वह आत्मस्वभावके अवलम्बन करनेसे ही उत्पन्न होता है। अतः व्यवहार धर्मको उसका सापक व्यवहारनयसे ही माना जा सकता है। यह परमार्थ कथन नहीं है, निमित्तका काम कराना मात्र इसका प्रयोजन है।
अपने दूसरे पत्रकमें अपर पक्षने प्रवचनसार आदि अनेक ग्रन्थोंके प्रमाण दिये है इसमें सन्देह नहीं किन्तु क्रिस नयसे उन शास्त्रोंमें वे प्रमाण उल्लिखित किये गये हैं और उनका आशय क्या है इस विषयमें अपर पक्षने एक शब्द भी नहीं लिखा है। हमारी दृष्टि तो नयदृष्टिसे उनका आशय स्पष्ट करनेको है, जब कि अपर पक्ष उस स्पष्टीकरणको उपेक्षाकी दृष्टि देखकर उसकी अवहेलना करता है । क्या इसे ही परम प्रमाणभूत, मूलसंघके प्रतिष्ठापक थी कुन्दकुन्दाचार्य तथा अन्य आध्यात्मिक प्रामाणिक आचार्योक आर्ष वाक्योंको परम श्रद्धालु और तत्ववेत्ता बनकर स्वीकार करना कहा जाय इसका अपर पक्षको ही निर्णय करना है। पूरे जिनागमको दृष्टि में रखकर उसके हार्दको ग्रहण कर अपने कल्याणके मार्गमें लगा जाय यह हमारी दृष्टि है और इसी दृष्टिसे प्रत्येक उत्तरमें हम यथार्थका निर्णय करनेका प्रयत्न करते आ रहे है। अपर पक्ष भी इस मार्गको स्वीकार कर ले ऐसा मानस है । स्व-परके कल्याणका यदि कोई मार्ग है तो एकमात्र यही है।
हमने अपने दूसरे उत्तरमें व्यवहार धर्मको असद्भूत व्यवहार नपसे निश्चय धर्मका साधक लिखकर उन प्रमाणोंको टालनेका प्रयत्न नहीं किया है, किन्तु उनके हार्दको ही स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है । व्यत्रहारधर्म आत्माका धर्म किस नयको अपेक्षा कहा गया है इसका स्पष्टीकरण करते हुए बृहद्व्यसंग्रह गाथा ४५ में बतलाया है
तत्र योऽसो बहिविषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण ।
उसमें बाह्यमें जो पांचों इन्द्रियों के विषय आदिका त्याग है वह उपवरित असद्भूत व्यवहारनयसे चारित्र है।
यह आगम प्रमाण है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि उपचरित असद्भूत व्यवहारलयकी अपेक्षा ही व्यवहार धर्म चारित्र या धर्म संज्ञाको धारण करता है । यह वास्तव, आत्माका धर्म नहीं है । ऐसी अवस्थामें उसे निश्नम धर्मका सावक उपचरित असद्भूत व्यबहारनयसे ही तो माना जा सकता है । निश्चय धर्म फेवल हो और व्यवहार धर्म न हो ऐसा नहीं है । ये चतुर्थादि गुणस्थानों में युगपत् वर्तते हैं ऐसा एकान्त नियम है । परस्पर अविनाभावी हैं। इसीसे आगममें व्यवहार धर्मको निश्चय धर्मका साधन (निमित्त) कहा गवा है ऐसी जिसकी श्रद्धा होती है उसके निश्चय धर्मके साथ व्यवहार धर्म होता ही है। किन्तु इसके विपरीत जिसकी यह श्रद्धा बनी हुई है कि म्यवहार धर्मको अंगीकार करना मेरा परम कर्तव्य है, भात्र उसके पालन करनेसे आत्मधर्मकी उत्पत्ति हो आयगी और ऐसी श्रदायश झायकस्वभाव स्वरूप यथार्थ साधन आत्माके अवलम्बनकी ओर दृष्टिपात नहीं करता यह त्रिकालमें निश्चयधर्मका अधिकारी बननेका
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
पात्र नहीं होता । इससे यह बात आसानीसे समझमें आ जाती है कि मोक्षमार्गकी प्राप्तिका यथार्थ साधन तो निर्विकार चिघनस्वरूप आत्माका अवलम्बन ही है। वही मेरा परम कर्तव्य है, उसका अवलम्बन लेनेपर निश्चय मोक्षमार्गकी उत्पसिमें व्यवहार धर्म निमित्तमात्र है, निश्चय मोक्षमार्गकी प्राप्तिका निश्चय साधन नहीं। पंचास्तिकाय आदि परमागममें इसी रहस्मको स्पष्ट किया गया है और इसीलिए ही पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनाको उभयनयायत्त कहा गया है । पंचास्तिकाय गाथा १५९ की अमृतचन्द्रसूरि रचित टीका ।
निश्चयधर्मको प्राप्ति तभी निरपेक्ष समझ में आती है जब कि अभेद रत्नत्रय स्वरूप आत्माकी प्राप्ति मात्मामें अभेदरल्लवयके परम साधनभूत आत्मासे स्वीकार की जाय और इसके वितरीत व्यवहारधर्मसे उसकी उत्पत्ति यथार्थमें मानी जाय तो वह निरपेक्षता कैसी? वह तो निरपेक्षताका उपहासमात्र है। यही कारण है कि आगममें उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे ही व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधन कहा है ।
अपर पक्षने आलापपद्धतिका खसरण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि आत्माका व्यवहार रत्नत्रय असद्भूत ब्यबहारमयका विषय नहीं है, किन्तु अपर पक्षका यह लिखना इसलिए ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहार रत्नत्रय आत्माका यथार्थ रलवय नहीं है। उसमें यथार्थ रस्नत्रयका समारोग करके उसे रत्नत्रय कहा गया है, इसलिए तो वह ( व्यवहार रत्नत्रय ) असद्भूत व्यवहारनयका विषय ठहरता है, क्योंकि निश्चय रत्नत्रय भिन्न वस्तु है और व्यबहार रत्नत्रय भिन्न वस्तु है । ये दोनों एक नहीं । यदि एक होते तो ये दो कैसे कहलाते और एक आत्मामें एक साथ अपनी-अपनी पृथक्-पृथक सत्ता रखते हुए कैसे रहते?
इसकी पुष्टिमें अपर पक्षने प्रमाण न देनेकी शिकायत की है सो एक प्रमाण तो हमने बहद व्यसंग्रहका पूर्वमें दिया ही है । दूसरा प्रमाण यह है
पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रं इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः । पापक्रियानिवृस्ति चारित्र है यह भेदोपचार रत्नत्रय परिणति है।
अपर पक्षने लिखा है कि हमने प्रश्न १२ के उत्तरमें 'कुगुरु कुधर्म कुशास्त्रको श्रद्धा गृहीत मिथ्यात्व है तथा सुदेव सुशास्त्र सुगुरुको श्रद्धा सम्यग्दर्शन है।' ऐसा स्वीकार किया है। निवेदन यह है कि मुदेवादिकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है यह कथन हमने व्यवहारनयसे ही स्वीकार किया है। अपर पाने यहाँ जो नियमसारका प्रमाण दिया है उससे भी यही सिद्ध होता है ।।
हमने प्रस्तुत प्रश्न के दूसरे उत्तरमें व्यवहार धर्मको रागपरिणाम लिखकर उसे निश्चय मोक्षमार्गके अनुकूल लिखा है । यह अपर पक्षको मान्य नहीं । उसका कहना है कि 'रागपरिणाम तो निश्चय मोक्षमार्गके अनुकूल नहीं हो सकता ।' आदि ।
निवेदन है कि अपर पक्षने हमारे कथनका हवाला देते हुए एक तो उसे पूरा उद्धृत नहीं किया, दूसरे उसके एक शब्दको पकड़कर टीका करनी प्रारम्भ कर दी। यह तत्त्वविमर्शका मार्ग नहीं कहा जा राकता । हमारा वह पूरा वाक्य इस प्रकार है
वहां उसके साथ होनेवाले व्यवहार धर्मरूप रागपरिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग मागममें कहा है और यतः वह सहचर होनेसे मोक्षमार्गके अनुकूल है इसलिए उसे उपचारसे निश्चय मोक्षमार्गका साधक भी कहा है ।
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शका ४ और उसका समाधान अपर पक्षने इसी वाक्यको अपने तीसरे पत्रकमें उद्धृत किया है । फिन्तु उसे उद्धृत्त करते हुए एक तो 'वहाँ उसके साथ होने वाले' प्रारम्भके इस वचनको छोड़ दिया है । दूसरे, बोचका कुछ अंश छोड़कर दो कथनके रूपमें उसे उद्धृत किया है । तीसरे हमारे वाक्यमें आये हुए 'वह' पदके आगे कौंसमें (रागपरिणाम) गह पद अपनी ओर से जोड़ दिया है। और इस प्रकार उस वाश्यके आशयको नष्टकर अपनी टीका प्रारम्भ कर दी है।
अपर पक्षका कहना है कि मात्र रागपरिणामको किसी भी आगम ग्रन्थमें व्यवहार मोक्षमार्ग नहीं कहा है। किन्तु अपर पक्षका यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि मात्र रागपरिणामको हमने भी मोक्षमार्ग नहीं लिखा है और ऐसा है भी नहीं कि जो जो रागपरिणाम होता है यह सब मोक्षमार्ग हो होता है। किन्तु ऐसा अवश्य है कि निश्चय मोक्षमार्म के साथ सच्चे देवादिकी श्रद्धा, सञ्ने शास्त्रक अभ्यास तथा अणुवतमहावत आदिके PM जो शुभ परिणति देती है तो पदमारणमें भावहार मोक्षमार्ग कहा है। इससे हमारा यह कथन सिद्ध हो जाता है कि निश्चय मोक्षमार्गके साथ होनेवाला व्यवहार धर्मरूप रागपरिणाम व्यवहार मोक्षमार्ग है । हमारे उक्त कथनकी पुष्टिमें बृहदम्यसंग्रह गाथा ३९ को टीकाके इस वचन पर दृष्टिपात कीजिए
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थसम्यनद्धान-शानव्रताउनुष्ठानविकल्परूपी व्यवहारमोक्षमार्गः । निजनिरजनशुद्धात्मतत्त्वसम्यक श्रद्धानज्ञानानुचरणकाग्यपरिणतिरूपो निश्चयमोक्षमार्गः ।।
श्रीवीतराम मर्वज्ञदेव कथित छह दश्य, पांच अस्तिकाम, सात तरच और नौ पदार्थोके सम्यक् धद्धान, ज्ञान और व्रत आदिला आचरणके विकल्परूप व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा निज निरंजन शुद्ध आत्मतत्वक सम्यक् श्रज्ञान, ज्ञान और अनुचरणकी एकाग्र परिणतिरूप निश्चय मोक्षमार्ग है।
सराग चारित्रका लक्षण करते हुए इसी पन्धकी ४५वीं गाथा अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको व्यवहार चारित्र कहा है और उसे वत, समिति तथा गप्तिरूप बतलाया है। तथा इसकी व्याख्या देशचारित्रको इसका एक अवयवरूप बतलाया है।
आगे इसी गाथाकी व्याख्यामें यह भी लिखा है
तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पंचमहाव्रतपंचसमिति-निगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमाख्यं शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति ।
और वह आचार-आराधना आदि परणानुयोगके शास्त्रों में कहे अनुसार पांच महावत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप होता हुआ भी अपहृत संयम नामक शुभोपयोग लक्षणवाला सराग संयम नामवाला होता है। पंचास्तिकायमें लिखा है---
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा।
अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति बुच्चंति ॥१३६|| अरिहन्त, सिद्ध और साधुओं के प्रति भक्ति, धर्म में नियमसे चेष्टा और गुरुओंका अनुगमन यह प्रशस्त राग कहलाता है ॥१३६॥
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा यहाँ टीकामें धर्मका अर्थ व्यवहार धर्म किया है और लिखा है कि प्रशस्त (अरिहन्तादि) इसके विषय है, इसलिए यह प्रशस्त राग है । प्रशस्त राग क्या है इसका निर्देश करते हुए मलाचार (वडावश्यक अधिकार) में लिखा है
अरहतेसु य राओ ववगदरागेसु दोसरहिएसु। धम्मम्हि य जो राओ सुधे यजो बारसविधम्हि ॥७३॥ आइरिएस य राओ समणेस य बहसदे चरितडढे।।
एसो पसत्थराओ वदि सरागेसु सब्वेसु ॥७४।। रागढ षसे रहिस अरिहंतोंमें जो राग है, धर्ममें और बारह प्रकारके श्रुतमे जो राग है, सथा चारित्रसे विभूषित आचायों, श्रमणों और उपाध्यायोंमें जो राग है वह प्रशस्त राग है। यह सब सराग जीवोंके होता है ।।७३-७४॥
यहाँ तक हमने जो प्रमाण उपस्थित किये हैं उनको ध्यानमें रखकर यदि विचारकर देखा जाय तो निश्चय सम्यक्त्वके साथ होनेवाला यह प्रशस्त राग ही व्यवहार सम्बदर्शन और व्यवहार सम्यग्ज्ञान है 1 तथा अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्ति रूप जो प्रशस्त राग है यही व्यवहार सम्यक्चारित्र है । यह व्यवहार सम्यक्चारिक भी नियमसे निश्चय सम्यक्चारित्रका अविनाभावी है । मूलाचार मूलगुणाधिकार गाया ३ की टीकामें प्रसका लक्षण करते हुए लिखा है
यतशब्दोऽपि सावधनिवृत्ती मोक्षावाप्तिनिमित्ताचरणे वर्तते । व्रत शब्द भी सापद्यकी निवृत्ति होनेपर मोक्ष प्राप्तिके निमित्तभूत आचरणमें व्यवहृत होता है।
ये जितने भी व्रत हैं ये अशुभसे नियुत्तिरूप और शुभमें प्रवृतिरूप ही हैं । इसीसे द्रव्यसंग्रहमें अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको चारित्र बतलाया है । व्रतोंका आसव तत्त्वमें अन्तर्भाव करनेका कारण भी यही है । इनके लक्ष्यसे शुभोपयोग होता है, शुद्धोपयोग नहीं होता, इसका भी यही कारण है । शुभोपयोग संघर और निर्जराका कारण न होकर मात्र आसन बन्धका हेत है इसका विशेष खुलासा हम तीसरे प्रश्न के तीसरे उत्तरमें विशेष रूपसे कर आम है।
नियमसारमें जो आप्त, आगम और पदार्थोके श्रद्धानको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है उसका आशय ही इतना है कि इनके यथार्य स्वरूपको जानकर इनमें प्रगाढ़ रुचि अर्थात् प्रगाढ भक्ति रखनी चाहिए और भक्ति प्रशस्त रागका उद्रेक विशेष है । अरिहन्तादिकमें ऐसा प्रशस्त राग सम्यग्दृष्टिके ही होता है, इसलिए इसे निश्चय सम्यक्त्वसे भिन्न घ्यवहार सम्यक्त्व कहा है। मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम होनेपर जो श्रद्धागुणकी मिथ्यात्व पर्यायका व्यय होकर सम्यक्त्वरूप परिणाम होता है, जो कि आत्माकी विशुद्धिरूप है वह निश्चय सम्यक्त्व है। और उसके होनेपर जो सच्चे देवादिमें विशेष अनुराग होता है यह व्यवहार सम्यक्त्व है । इस प्रकार इन दोनोंमें महान् अन्तर है।
सम्भवतः अपर पक्ष का यह ख्याल बना हुआ है कि रामविशेषकै कारण निश्चय सम्यक्त्वको ही व्यवहार सम्यक्त्व कहते है, किन्तु यह बात नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि निश्तव मभ्यवरवके साथ जो सच्चे देवादि परद्रव्य विषयक प्रशस्त राग होता है उसे ही व्यवहार राम्यक्त्व कहत है । इसी प्रकार व्यवहार
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शंका ४ और उसका समाधान
१४९ सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक्चारित्रके विषयमें खुलासा कर लेना चाहिए । अध्यात्ममें व्यवहारका लक्षण हो यह है कि जो जिस रूप न हो उसको उस रूप कहना व्यवहार कहलाता है । व्यवहारका यह लक्षण सद्भूत और असद्भुत दोनों प्रकारके व्यवहारोंमें घटित होता है । यदि इनमें अन्तर है तो इतना ही कि सद्भूत रूप वस्तु है तो, परन्तु सर्वथा पृथक नहीं है । पर असदभुत व्यवहारफी विषयभूत वस्तु मात्र उपचरित होती है उदाहरणार्थ हम पहले बृहद्रव्यसंग्रहका प्रमाण उपस्थित कर आये हैं । उसमें व्यवहार चारित्रको चारित्र उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे बतलाया गया है। उसका आशय ही यह है कि व्यवहार चारित्र वास्तवमें चारित्र नहीं है किन्तु निश्चय चारित्रका सहचर होनेसे प्रतादिरूप प्रशस्त रागको उपचारसे चारित्र कहा गया है।
अपर पक्ष ने बृहद्रव्यसंग्रह माथा ४७ के "दुविहं पि मोक्खहेड' इस वचनपर, तो दृष्टिपात किया ही होगा । उसने आगममें यह भी पढ़ा होगा वि व्यवहार मोक्षमार्ग मोक्षका परम्परा हेतु है और निश्चय मोक्षमार्ग साक्षात् हेतु है । वह यह लिख हो रहा है कि व्यवहार मोक्षमार्ग साधक है और निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है । ऐसी अवस्थामें वह पक्ष दोको एक ही क्यों बतलाने लगा है यह हमारी समहाके बाहर है। जो निश्चयमोक्षमार्ग हैं वही यदि व्यवहार मोक्षमार्ग है तो फिर वे दोनों एक हए। इनमें साधकसाध्यभावको चरचा करना ही व्यर्थ है। और यदि वह इन्हें वास्तव में दो मानता है तो इन दोनोंके पृथक-पथक लक्षण भी स्वीकार करने चाहिए। साथ ही उन दोनोंको इस रूपमें मानना चाहिए कि एक आत्मामें उन दोनोंका सद्भाव एक साथ बन जाय । तभी तो उनमें से एकको साधन (निमित्त) और दूसरेको साध्य कहा जा सकेमा । मिट्री घटरूप परिणम रही हो, फिर भी उसका बाह्य साधन कुम्भकाराविही ऐसा माना विचित्र बात है। तात्पर्य यह है कि निश्चय रत्नत्रयके साथ उससे मिन्न दूसरी कोई वस्तु अवश्य होनी चाहिए जिसमें साधन व्यवहार किया जा सके और बे दोनों परस्पर अविनाभावी होने चाहिए। स्पष्ट है कि यहाँपर श्रद्धा विषयभूत देवादिको प्रशस्त रागको व्यवहार सम्यग्दर्शन बहा गया है, ज्ञानोपयोगके विषयभूत आगमाभ्यासमें प्रशस्त रागको व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहा गया है और चर्याके विषयभूत ब्रतातिके नियमरूप प्रशस्त रागको व्यवहार सम्पकचारित्र कहा गया है । तथा आत्माके श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रकी शद्धिरूप परिणतिको निश्चय सम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यकूचारित्र कहा गया है।
अपरपक्षने तीसरे प्रश्नके अपने तीसरे पत्रकमें तत्वार्थसूत्र १० ७ सू० १ के आधारसे एक बात यह भी लिखी है कि 'व्रत विरक्ति अर्थात् निवृत्तिरूप हैं, प्रवृत्तिरूप नहीं हैं।' मालूम पड़ता है कि इसी कारण अपरपक्षको व्यवहार रलायको देवादि विषयक प्रशस्त रागरूप माननेमें बाधा पड़ रही है। परन्तु उस पक्षका यह विधान मोक्षमार्गपर गहरा प्रहार करनेवाला है इसे बह पक्ष नहीं समझ रहा है । यह जोब मोक्षमार्गी कैसे बनता है उसका क्रम यह है कि 'सर्वप्रथम यह जीव तत्त्वज्ञानपूर्वक कुदेवादिका त्यागकर सच्चे देवादिमें रुचि करता है, कुशास्त्रोंको छोड़कर सम्यक् शास्त्रोंका अध्ययन करता है, गुरुका उपदेश सुनता है और मिथ्यात्वको पोषक क्रियाओंको छोड़कर देवपुजा आदि क्रिया करता है । इस प्रकार अशुभसे निवृत्त होकर शुभमें प्रवृत्त होता है।' किन्तु इतना करनेमात्रसे उसे सम्यक्त्व प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि ये मोक्ष प्राप्तिके साक्षात् साधन नहीं हैं । मोक्षमार्गकी प्राप्तिके कालमें निमित्तमात्र हैं । इतनी भूमिका तो भिध्यादृष्टिको ही बन जाती है फिर भी सम्यक्त्व नहीं होता है । कारण
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यह है कि इतना तो उसने अनन्त बार किया, परन्तु इसके साथ उसने स्वभाव सम्मुख होकर अपने भात्माका अनुभव एक बार भी नहीं किया। सम्यक्त्व-प्राप्तिका जो साक्षात् साधन है उसका अवलम्बन करे नहीं और सम्यक्त्व हो जाय, यह नहीं हो सकता । और स्वभाव सम्मुख होने का उपाय यह है कि उक्त जीवको 'शुभमें न मग्म होय शुद्धता बिसरनी नहीं' वचनके अनुसार शुभमें मग्न होकर उपयोगमय चिकनभत्काररूप आत्माके साथ सत्तस अनुगमन करनेवाले अपने बात्मस्वभावको दृष्टि ओझल नहीं कर देना चाहिए। कुम्भकारका मिट्टीको संयोगकर व्यापार हो नहीं तथा मनमें घट बनानेका विकल्प रखे नहीं । मात्र किया तो वह दूसरेको लक्ष्य रखकर करे और विकल्प भी दूसरेका करता रहे फिर भी घटका निमित्त कहलावै । जैसे यह सम्भव नहीं है उसी प्रकार शुभ क्रिया में रत यष्ठ जीव क्रिया तो आत्मासे भिन्न अन्यको लक्ष्य कर करता रहे और मनमें विचार भी अन्यका करता रहे फिर भी यह क्रिया आत्मशुद्धिका निमित्त कलावे यह भी सम्भव नहीं है। पहले आत्मप्राप्ति रूप प्रयोजन समझना चाहिए और उस प्रयोजनको लक्ष्यमें रखकर किया होनी चाहिए, तभी वह क्रिया या वह विचार उसका निमित्त कहलानेका पात्र होता है। यहाँ मुख्य प्रयोजन संवर, निर्जरा और मुक्ति है । वह आत्माके अवलम्बन करनेसे ही होते हैं, परके अवलम्बन करनेसे नहीं। सच्चे देव, गुरु और शास्त्र आत्माके प्रतिनिधि हैं, इसलिए उनका गुणानुवाद, भक्ति और श्रद्धा करनेका उपदेश आगममें दिया गया है । जिन पुण्य पुरुषोंने आत्मस्वभावका अवलम्बनकर उसे प्राप्त किया है, निरन्तर उसका अपनी वाणी द्वारा भान कराते रहते हैं ऐसे सत्पुरुषों के निरन्तर समागम करनेका उपदेश भी आगममें इसीलिए दिया गया है। किन्तु यही करना मुख्य नहीं है, मुख्य तो आत्मस्वभावका अवलम्बनकर तद्रूप परिणमन द्वारा अपनेमें संवरादिरूप शुद्धि उत्पन्न करना है। अतएव प्रकृतमें यही तात्पर्य समझना चाहिए कि अशुभ क्रियाक निरोबसे शुभ क्रिया होती है । स्वभाव सन्मुख होनेके लक्ष्यसे की गई वही क्रिया व्यवहारमें कहलाती है । संवर शुभाशुभपरिणाम निरोधस्वरूप होनेके कारण इन दोनोंसे भिन्न है। अनगारधर्मामृत अ० २ श्लोक ४१ की टीकामें कहा भी है
भावसंवरः शुभाशुभपरिणामनिरोवः द्रव्यपुग्य-पापसंवरस्य हेतुरित्यर्थः । शुभाशुभ परिणामका निराध भावसंवर है । वह द्रव्य पुण्य-पापके संवरका निमित्त है।
जो जीव मोक्षमार्गके सन्मुख होता है मा उत्तरोत्तर भावसंवर-निर्जरारूप विशुद्धि उत्पन्न करता है उसके लिए उसे प्राप्त करनेका क्रम ही यही है कि स्वभावके लक्ष्यसे पहले यह जीव अशुभसे निवृत्त होकर शुभमें जाता है। किन्तु शुभमें जाना ही इसका मुख्य प्रयोजन न होनेसे उसमें भी अशुभके समान हेय बुद्धि रखता हुआ स्वभाव सन्मुख होनेका उपक्रम करता रहता है। ऐसा करते रहने से कोई ऐसा अपूर्व अबसर आता है जब वह स्वभावमें मग्न हो तत्स्वरूप परिणमन द्वारा अपने संवरादिरूप शुद्धिको उत्पन्न करता है या उसमें वृद्धि करता है।
अपरपक्षने पंचास्तिकाय गाथा १०६ तथा जयसेनाचार्य कृत उसकी टीकाका जो उद्धरण दिया है उनका भी यही आशय है । आचार्य जयसेनने व्यवहार सम्यक्त्वका स्वरूप निर्देश करते हुए स्पष्ट कहा है'बहिरंगपदार्थरुचिरूपम् ।' यह वचन ही सच्चे आप्त, आगम, पदार्थ घिषयक प्रगाढ़ अनुरागको सूचित करता है । यहाँ रुचि शब्द प्रगाढ़ अनुरागके अर्थमें व्यवहृत हुआ है। यही भाव पंचास्तिकाय गाथा १६० का भी है। उसमें अन्य बात नहीं कही गई है। उस गाथाके शीर्षकके भावको हम मनसा स्वीकार करते
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शंका ४ और उसका समाधान
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है । वहाँ साधन शब्द निमित्त के अर्थमें आया है। इसे अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा । और एकको दूसरेका निमित्त कहना यह उपचार है । तभी वह व्यवहार मोक्षमार्ग संज्ञाका अधिकारी हैं और तभी उस रूप परिणामको तत्वमें गर्भित कर उसे बन्धका हेतु कहा गया है और तभी उसे संतर तत्त्वसे विलक्षण बतलाया गया है। उसकी आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाका यही आशय हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जो बृहदुद्रव्यसंह गाथा १३ की टीकाके वचनानुसार व्यवहारनयको साध्यभूत निश्चयनयका उपचरित हेतु स्वीकार न कर उसे परमार्थरूप मानता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। हमने परमात्मप्रकाश के दूसरे अध्यायकी गाथा १४ पर दृष्टिपात किया है, उस द्वारा उसी व्यवहार मोक्षमार्गका निर्देश किया गया है जिसका हम पूर्व में स्पष्टीकरण कर आये हैं । निवमसारकी ५१ प्रभृति पांच गाथाओं पर हम्ने दृष्टिपात किया है। इनकी टीका करते हुए श्री पद्मप्रभमलधारीदेव मेदोपवार रत्नत्रयको निश्चयभक्ति रूप घोषित कर रहे हैं। टीका पर दृष्टिपात कीजिए । पदकी श्रद्धा आदि इसके सिवा और अन्य क्या हो सकता है। अपर पक्ष यदि इसे दृष्टिपथ में ले तो उसे यह स्वीकार करने में देर न लगे कि निश्चय रत्नत्रय से भिन्न वह निश्चय भक्तिरूप अनुराग ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं ।
नियमसारके चौथे अध्यायमें पांच पापोंको निवृतिको व्रत बतलाया है और उसे व्रत, समिति, गुप्तिरूप कहा है। इसीसे यह स्पष्ट है कि पापक्रियाओं से निवृत्ति और व्रतादिरूप पुण्य क्रियाओं में प्रवृत्तिका नाम ही व्रत है। दर्शनप्राभूतके उल्लेखसे भी यही सिद्ध होता है कि छह द्रव्यादिकी सच्ची श्रद्धा सम्यग्दृष्टिके ही होती है। यही बात रत्नकरण्ड श्रावकाचारके वचनसे भी ज्ञात होती है। इसमें विरोध किसे है यह हमारी समझ में नहीं आया । यहाँ तो विचार इस बातका हो रहा है कि व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय क्या वस्तु है, क्या ये दोनों एक है या भिन्न-भिन्न वस्तु हैं और उनमें साध्य साधन भाव किस नयसे कहा गया है । यह अपर पक्ष ही विचार करे कि क्या उल्लेखोंका आशय स्पष्ट किये बिना उनके उपस्थित कर देने मात्र से देवादिविषयक प्रशस्त राग व्यवहार रत्नत्रय नहीं है इसकी पुष्टि हो जाती है ? पूर्वोक्त प्रमाणक प्रकाशमें विचार कर देखा जाय तो अपर पक्षको विदित होगा कि आगम विरुद्ध हमारा कथन न होकर वस्तुतः अपर पक्ष ही ऐसा प्रयत्न कर रहा है जिसे आगम विरुद्ध कहना उपयुक्त होगा । दूसरेको शब्दों द्वारा लाहित करने की चेष्टा करना अन्य बात है और आगम प्रमाणोंके प्रकाश में यथार्थका निर्णय करना अन्य बात है ।
अपर पक्षने लिखा है कि राग, भेद या विकल्प सहित जो सप्ततत्व आदिका श्रद्धान व ज्ञान तथा पापोंसे निवृत्तिरूप चारित्र है वह व्यवहार रत्नत्रय या व्यवहार मोक्षमार्ग है ।'
हमने अपर पक्षके इस कथन पर दृष्टिपात किया । किन्तु अपर पक्ष हमारी इस घृष्टताको क्षमा करेगा कि वह जो कहना चाहता है वह शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं हो पा रहा है। हमारी समझसे सद्भूत व्यवहार नयका आश्रय लेकर वह कहना यह चाहता है कि निश्चय सम्यक्त्वादि तीनों में से एक-एकको मुक्तिका साधन कहना व्यवहार रत्नश्रय है । यहाँ तीनों मिलकर मुक्ति के साधन हैं, एक-एक नहीं, इसलिए तो यह व्यवहार उपवरित हुआ और प्रत्येकमें मुक्तिको साघनता विद्यमान है, इसलिए वह व्यवहार सद्भूत हुआ। इस प्रकार निश्चय रत्नत्रय में से एक एकको सावन कहना उपचरित सद्भूत व्यवहार नयका विषय है । या मुक्तिरूप परिणत आत्मा कार्य है और रत्नत्रय परिणत आत्मा उसका कारण है ऐसा भेद द्वारा कथन करना सद्भूत व्यवहार नयका विषय है। किन्तु अपर पक्षने वाक्य योजनाकर उस द्वारा जो कथन किया
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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
वह असध्यवहार नयसे ही कहा जा सकता है और ऐसी अवस्थामें देवादि विषयक श्रद्धा मादि प्रशस्त रागरूप ही ठहरते हैं । निश्चय नमकी दृष्टिमें प्रथम दो तो उपचरित हैं ही, क्योंकि अन्य कारण हो और अन्य कार्य हो या एक-एक कारण हो और मुक्ति कार्य हो यह यथार्थं न होने से इसे यह नय स्वीकार नहीं करता, प्रत्युत उसका निषेध ही करता है। इसके लिए समयसार गाथा २७२ पर दृष्टिपात कीजिए । किन्तु उपचरित अद्भूत व्यवहार नवसे जो कुछ कहा जाता है, वस्तु वैसी न होनेसे यह निश्चयनको दृष्टिमें सर्वथा हेय है । क्योंकि एक तो यह नय वस्तु जैसी नहीं है हंसी कहता है। दूसरे, उसका साधन-साध्य आदि भावसे अन्यके साथ सम्बन्ध स्थापित करता अतएव यह उपचरित असद्भूत व्यवहार नयका ही
विषय है ।
अपर पक्षने यहां जो पुरुषार्थ सिचुपाय, पंचास्तिकापकी आचार्य जयसेन कृत टीका तथा छहढाला जो उदाहरण उपस्थित किये हैं वे सब उक्त कथनको हो पुष्टि करते हैं। कोई समझे कि मोक्षमार्गीके व्यवहार रत्नत्रय होता ही नहीं, मात्र निश्चय रत्नत्रय ही होता है इस एकान्तका परिहार उन वचनोंसे होता है । किन्तु इन दोनोंका स्वरूप क्या है इसे समझना अन्य बात है । परमात्मप्रकाश धर्मपुरुषार्थ (व्यवहारधर्म) से मोक्ष पुरुषार्थ ( निश्चयधर्म) भिन्न है यह बतलाते हुए लिखा है-
धम्म अत्य काम वि एवहूँ सयल मोक्खु । उत्तमुपभणाणि जिय अण्णें जेण ण सोक्खु ॥ २ - ३ ||
है जीव ! धर्म, अर्थ काम और और इन सब पुरुषार्थोंमें ज्ञानी पुरुष मोक्षको उत्तम कहते हैं, क्योंकि अन्य पुरुषार्थीसे परम सुख नहीं मिलता || २-३ ॥
surहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्गमें साधन साध्यभाव किस रूप में है इसके लिए परमात्मप्रकाश अ० २ दोहा १४ के इस टीकावचनपर दृष्टिपात कीजिए
अत्राह शिष्यः - निश्चयमोक्षमार्गो निर्विकल्पः, तत्काले सविकल्प मोक्षमार्गो नास्ति, कथं साको भवतीति । अत्र परिहारमाह - भूतगमनयेन परम्परया भवतीति । अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चयमोक्षमार्गो द्विवा । तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्पसाधको भवति, निर्विकल्पसमाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थ: ।
यहाँ शिष्य प्रश्न करता है - निश्चय मोक्षमार्ग निर्विकल्प है, उस समय सविकल्प ( व्यवहार रत्नत्रयरूप) मोक्षमार्ग नहीं है, वह साधक कैसे होता है ?
यहाँ समाधान करते हैं-भूत नैगमनयकी अपेक्षा परम्परासे साधन है । अथवा सविकल्प मौर निर्विकल्पके भेद निश्चय मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। उनमें से 'मैं अनन्त ज्ञानरूप हूँ' ऐसे विकल्पका नाम सविकल्प मोक्षमार्ग साधक है और निर्विकल्प समाधिरूप साव्य है यहू इस कथनका भावार्थ है
इससे व्यवहार मोक्षमार्ग क्या है और उसे साधन किस रूप में कहा है इसका कुछ हद तक ज्ञान हो जाता है |
अपर पक्षने निश्चय रत्नत्रयका ज्ञान करानेके लिए यहाँ पंचास्तिकाम, भावपाहुड, पुरुषार्थं सिद्धयुपाय, द्रव्यसंग्रह, परमात्मप्रकाश और छहढालाके कुछ प्रमाण उपस्थित किये हैं। उनसे इन बातों का ज्ञान होता है
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शंका ४ और उसका समाधान १. आत्माफी आरमा द्वारा बारमामें जो वक्षा, मान और मात्मस्थितिरूप स्वभाव परिणति होती है उसका नाम निश्चय रत्नत्रय है।
२. ऐसे रस्नत्रयसे बन्ध कैसे हो सकता है, अर्थात् त्रिकालमें नहीं होता ।
३. निश्चयसे ऐसे रत्नत्रयकी उत्पत्तिका साधन आत्मा ही है। यह करण साधन होकर अपने द्वारा अपने आत्मामें आप कर्ता बनता हुआ निश्चय रत्नत्रयको उत्पन्न करता है।
किन्तु व्यवहार रत्नत्रय इससे विरुद्ध स्वभाववाला है। इसका विषय स्व नहीं है, पर है, वह बन्ध स्वभाववाला है और वह निश्चय रत्नत्रयका कारण होनेसे रत्नत्रय कहलाता है । साथ ही वह वीतराग देवादि पर पदार्थीको साधन बनाकर उत्पन्न होता है, इसलिए वह प्रपास्त रागस्वभावयाला होनेके कारण सहर सम्बनधश साधक कहा गया है। अतएव हमने जो यह लिखा है कि 'जहाँ निश्चय मोक्षमार्ग होता है वहाँ उसके साथ होनेवाले व्यवहार धर्मरूप रागपरिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग आगममें कहा है वह मागम संगत ही लिखा है ।
अपर पक्षने उक्त कथनो स्पष्टतः पोषक जिन प्रमाणोंकी जिज्ञासा की थी वे यहाँ दिये ही है । हमें विश्वास है कि अपर पक्षको उनके आधार पर यथार्थका निर्णय करनेमें सहायता मिलेगी।
तत्त्वार्थसूत्रमें हिंसादि क्रियाकी निवृत्ति का भानवतस्वमें अन्तर्भाव करना और द्रव्यसंग्रहमें व्रत, समिति और गुप्तिको शुभक्रिया लिखकर उस रूप प्रवृत्तिको व्यवहार में कहना ही यह सिद्ध करता है कि व्यवहार धर्म समचे देवादिविषयक प्रशस्त राग परिणामका ही दूसरा नाम है। जो भी इन्ध होता है यह पर्यायाथिक नयसे योग और कषायको निमित्त कर ही होता है और व्यवहारचर्म बन्धका हेतु है, क्य आचार्योने उसका आस्रव वत्त्वमें अन्तर्भाव किया है। इसलिए उसे सच्चे देवादिविषयक प्रशस्त रागरूप ही जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
अपर पक्षने 'व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक है या नहीं ? यह प्रश्न किस अभिप्रायसे किया है इसे हम तत्काल समझ गये थे। किन्तु अपर पक्ष ने वर्तमानमें प्रवचनकी जो धारा पल रही है उसके आशयकी ओर लक्ष्य न देकर उसके प्रति विरोधका जो वातावरण बतलाया है वह उचित नहीं है। इससे समाजकी जो हानि हो रही है वह बचनातीप्त है। हम कुछ काल पूर्व हो गये ऐसे मनुष्योंको जानते हैं जिन्होंने मुनिलिंग तक धारण कर अपना पतन तो किया हो, समाजमें मोक्षमार्गके प्रति अधद्धा भी उत्पन्न की, पूर्व में हो गये ऐसे त्यागियोंको भी जानते हैं। वर्तमामकालकी हम बात नहीं करना चाहते, क्या इतने मात्रसे जैसे व्यवहार कपनीका निषेध नहीं किया जा सकता उसी प्रकार यह देखकर कि कुछ मनुष्योंने निश्चय कथनीको सुनकर यद्वा तवा प्रवृत्तिको प्रारम्भ कर दिया है यह बात सच्ची हो तो, निश्चय कथनीका निषेध करना और उसके लिए आन्दोलन तकका मार्ग ग्रहण करना कहाँ तक उचित है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। जहां तक समाजके उस वर्गका प्रश्न है जो निश्चय कथनीफे शास्त्रोका विशेषरूपसे अभ्यास करते हैं, उनके अनुरुप प्रवचनोंमें सम्मिलित होते हैं, उसके सम्बन्धमें हम यह दृढ़तापूर्वक कह सकते है कि न तो उनमेंसे रहधा आलू आदि कन्दमूल, बेगन और शहद आदि अभक्ष्य भक्षण करते हैं, जो पूर्वमें करते रहे है उन्होंने उनका स्याग कर दिया है। प्रतिदिन देवदर्शन करना या देवपूजा करना तथा शास्त्रस्वाध्यायमें सम्मिलित होना यह उनका प्रधान कर्तव्य हो गया है। रात्रिभोजम भी उनमें प्रायः नहीं देखा जाता । किन्तु इसके विपरीत जो स्थिति समाजमें है उसकी इम अपर पक्षके समान लांछनके रूपमें घर्षा नहीं करना चाहते । हम
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तो यही चाहते हैं कि जिससे समाज में प्रचलित व्यवहारधर्म प्राणवान् बन जाय और रहो सही कुरीतियाँ भी नामशेष हो जायें ऐसे मार्गको अंगीकार करना हो श्रेयस्कर है। क्या हम आशा करें कि अपर पक्ष विरोधके रुखको छोड़कर हमारे इस प्रयत्न में सहयोगी बनेगा । हमारी ओरसे स्वागत है । वीतरागताकी दृष्टिसे एक मात्र ही मार्ग है जिस पर सबको मिलकर चलनेका संकरूप करना चाहिए ।
यदि अपर पक्ष मोक्षमार्गप्रकाशक के आधार से ही यह स्वीकार कर लेता हूँ कि निश्चय धर्मकी प्राप्ति में व्यवहारधर्म निमितमात्र है तो समस्या ही हल हो जाती है। ऐसी अवस्थामें अपर पक्षको व्यवहार धर्मका वही अर्थ स्वीकार करना होगा जिसका निदेशक है।
अपर पक्षका कहना है कि 'नयवाद पात्र के अनुसार होता है।' इसका आशय इतना ही हैं कि पात्र सुनकर अपनी शक्तिके अनुसार उसे अंगीकार कर अपने जीवनमें उतारनेका प्रयत्न करता है ।
उपदेशको
आचार्य अमृतचन्द्र ने 'व्यवहारनयेन' इत्यादि पंक्ति सविकल्प बुद्धिवाले जीवोंको लक्ष्यमें रखकर ही लिखी है। यहाँ 'प्राथमिका:' पदका अर्थ सविकल्प बुद्धिवाले जीव ही है। जब कोई जीव विकल्पकी भूमिका होता है तो वह अपना उपयोग क्या श्रद्धान करने योग्य हूँ और क्या श्रद्धान करने योग्य नहीं है इत्यादि तथ्योंके निर्णय करने में हो लगाता है। और ऐसा निर्णय करके वह अपने पुरुषार्थं द्वारा क्रमशः fafeकल्पताnt ओर ढलने लगता है । जो अनादि कालसे भेदबुद्धिसे वासित चित्तवाले हैं उन्हें ऐसे निर्णय द्वारा तीर्थपर आरोहण करना सुगम होता है यह आचार्यके कथनका सार है। उनके द्वारा दिये गये उदाहरण भी यही सिद्ध होता है ।
अपर पक्षने समयसारकी १२वीं गाथा उद्धृत की है। उसके द्वारा जिस तत्त्वका प्रतिपादन हुआ है। उसके लिए पद्मनन्दिपंचविंशतिकान्तर्गत एकत्वसप्तति अधिकारका यह श्लोक मार्गदर्शक हैप्रमाण -नय-निक्षेपा अर्वाचीने पदे स्थिताः ।
केवले च पुनस्तस्मिस्तदेकं प्रतिभासते ॥ १६ ॥
सविकल्प अवस्था में प्रमाण, नय और निक्षेप सब है। केवल निर्विकल्प अवस्थामें तो एक चैतन्य ही अनुभव में आता है ॥ १६॥
यहाँ अचीन पदका अर्थ व्यवहारपद सविकल्प अवस्था है और 'केवले तस्मिन् पदसे निर्विकल्प व्यवस्थाका ग्रहण हुआ है। यही तथ्य समयसारकी १२वीं गाथामें प्ररूपित हुआ है । वहाँ भी "परमभावदरसीहिं" पद द्वारा शुद्ध आत्मतत्त्वको अनुभवनेवाले जीवोंका महण किया गया है और 'अपरमे द्विदा भावे' पद द्वारा सविकल्प अवस्थाका ग्रहण हुआ है। इस तथ्य को समझनेपर ही उक्त गाथाका आशय स्पष्ट समझमें आता है। आचार्य अमृतचन्द्रने सोलह वानके सोनेका उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार यह सोना अत्यन्त निर्मल होता है उसी प्रकार द्रव्याथिक नयका विषयभूत आत्मा समस्त परद्रव्य भावोंसे भिन्न होनेके कारण अत्यन्त निर्मल है। ऐसा आत्मा हो शुद्धका विषय है। जो परम भावदर्शी - शुद्धात्म-भावदर्शी जीव हैं ये ऐसे ही आत्माको अनुभवते हैं । किन्तु जो सविकल्प अवस्था में स्थित जीव हैं उनका अशुद्ध सोने के समान अशुद्ध व्यारमा जाना हुआ प्रयोजनवान् है । इससे निश्चय व्यवहार नयके कथनका प्रयोजन क्या है यह समझ में आ जाता है । यही परस्पर सापेक्ष उभय नमकी देशनाका तात्पर्य है । संसारी आत्मा परमभावग्राही कि नयकी अपेक्षा अत्यन्त शुद्ध है और पर्यायार्थिक नयको अपेक्षा अत्यन्त अशुद्ध है। इस प्रकार
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शंका ४ और उसका समाधान
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एक ही आत्मा एक कालमें कथंचित शुद्ध है और कचित् अशद्ध है। जिनवाणी भी यही है ऐसा जानकर और पर्यायार्थिक नमके विषयको गौण कर जो द्रव्याषिक नयके विषयभूत आत्माको दृष्टि में अवलम्बनकर तत्स्वरूप परिणमता है सही परम पदका अधिकारी होता है । यह १२वीं गाथा और उसकी दोनों टीकाओंका आशय है। इससे व्यवहारनयका विषय जानने के लिए तो प्रयोजनवान् बतलाया पर आदर करने योग्य नहीं बतलाया, यह तथ्य भी समझमें आ जाता है, क्योंकि कौन ऐसा मुमुक्षु जीव है कि जो जिस मुणस्थानमें है उसी में रहना चाहेगा। उसका प्रयत्न तो निरन्तर आगे बढ़ने का ही होगा । और आगे बढ़ना उसी गुणस्थानके भावोंमें रत रहनेसे बन नहीं सकता। वह जिस गुणस्थानमें है उस गुणस्थानके अनुरूप ही प्रवृत्ति करेगा, इसमें सन्देह नहीं । किन्तु उस प्रवृत्तिको आगे बढ़ाने का साधन न मानकर अन्तरंगमें उस साधनको अपनानेकी चेष्टा करता रहेगा जो उसे वर्तमान गुणस्थानसे उठाकर यथायोग्य आगेके गणस्थानों में पहचा देगा। ऐसा यदि कोई माधन है तो वह एकमात्र जायक भावका अवलम्बन ले तत्स्वरूप परिणमना ही है। इसमें जितनी प्रगाढ़ता भाती जायगी उतना ही वह आगे बढ़ता जायगा । इसके सिवा मोक्षमार्ग में आगे बढ़नेका अन्य कोई साचन नहीं। यही कारण है कि निश्चय धर्मकी प्राप्तिमें व्यवहार धर्मको निमित्त मात्र कहा है। साक्षात् सावन तो जायक स्वभावका अवलम्बन कर तत्स्वरूप परिणामना हो है।
___ आचार्य अमृतचन्द्र ने जो 'जइ जिणमयं' इत्यादि गाथा उद्धृत की है उसका भी यही आशय हैं । व्यवहार नपके अनुसार गुणस्थानभेद है, मार्गणास्थान भेद है और जोबसमासभेद हैं आदि । भला ऐसा कौन मुमुक्ष जीन है जो इसकी सत्ता नहीं मानेगा। यदि इन्हें ने स्वीकार किया जाय तो उत्कृष्ट । प्रवृत्ति ही नहीं बन सकतो और उसके अभाव में व्यवहार तीर्थकी सिद्धि नहीं होती। स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें उत्तम तीर्थका निर्देश करते हुए लिखा है
रयणत्तयसंजुत्तो जीवो वि हवे उत्तम तित्थं ।
संसार तरेइ जदो रयणतयदिव्वणावाए । १९१ ।। रनायके संयुक्त यही जीव उत्तम तीर्थ है, क्योंकि वह रलत्रयरूपी दिव्य नावसे संसारको पार करता है । १९१ ।।
और इसी प्रकार ऐसा कौन मुमुक्षु जीव है जो शुद्ध नयके विषयभूत नित्य पियनस्वभाव शुद्ध आत्मतत्त्वको नहीं स्वीकार करेगा, क्योंकि उसके अभावमें तत्त्वकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती। फिर तो भेद व्यवहार या उपचरित व्यवहारकी बात करना ही व्यर्थ हो जाता है-'मूलो नास्ति कुतः शाखा ।'
इस प्रकार दो नय हैं और दोनों के विषय हैं ऐसा प्रत्येक ज्ञानी जानता हो है । जिनमतकी प्रवृत्तिका यह मूल है।
३. प्रश्न चारके परिशिष्टका ऊहापोह इस परिशिष्ट के प्रारम्भमें मह तो स्वीकार कर लिया है कि सच्चे दवादि विषयक भक्ति प्रमुख उत्कृष्ट अनुराग व्यवहार धर्म है। साथ ही इसमें बाह्म क्रियाको भी व्यवहार धर्ममें गभित किया गया है। किन्तु उस बाह्य क्रियासे आत्माको प्रशस्त रागरूप परिणति ली गई है या पुद्गल द्रव्यकी क्रिया ली गयी है इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। क्रिया शब्द परिणामके अर्धमें भी आता है और परिस्पन्दके अर्थ में भी आता है। यदि अपर पक्षको बाए क्रियासे सच्चे वेवादिविषयक प्रशस्त राग अपेक्षित है तो सम्यग्दटिके
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ली गयी है तो वह व्यवहार धर्म कहना
ऐसे परिणामको सम्यक् व्यवहार धर्म मानना उपयुक्त हो है । किन्तु यदि बाह्य क्रियासे पुद्गलद्रव्यकी क्रियां परद्रव्यका परिणाम । सम्यग्दृष्टि के उसमें परबृद्धि हो गई, इसलिए उसे आत्माका उचित नहीं है। प्रशस्त रागपरिणति में वह निमित्त है, इसलिए उसे व्यवहार धर्म तो उपचरित धारणा भी उपचरितोपचार है। तथ्य समझ में आ जावें, इसलिए पद
है
स्पष्टीकरण किया है ।
अपर पक्षाने परिशिष्टके तीसरे पैरा आत्माके विशुद्ध-निर्विकार- वीतराग और स्वतन्त्र बनने के लक्ष्यको निश्चयधर्म संज्ञा दी है। किन्तु ऐसा लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि लक्ष्यका नाम निश्चय धर्म न होकर विशुद्ध-निर्विकार वीतरागरूप परिणतिका नाम निश्चय धर्म है ।
अपर पक्षका कहना है कि "अविरत सम्यग्दृष्टि भाषक और मुनियोंके बाह्याचाररूप व्यवहार धर्मको द्रव्यलिंग और इनके अन्तरंग आत्मविशुद्धिमय निश्चय धर्मको भावलिंग भी कहते हैं ।" समाधान यह है कि अपर पक्षने जो लिखा है उसपर विशेष ऊहापोह न करके मात्र उसका ध्यान भावप्राभूत के इस वचनकी ओर आकर्षित कर देना चाहते हैं
भावेण होइ लिंगीण हुलिंगी होइ दव्वमित्तेण ।
तम्हा कुणिज्ज भावं किं कोरइ दब्बलिंगेण ॥ ४८ ॥
भावसे ही मुनि लिगी होता है, द्रव्य मात्र से लिंगी नहीं होता। इसलिए भाव लिंगको धारण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्यलिंगसे क्या कार्य सघ सकता है ।। ४८ ।।
इस गाथामें द्रव्यलिंगी पद भावशून्य मुनिके लिए हो आया है । गाथा ५० में इसके लिए द्रव्य श्रमण पदका भी प्रयोग किया गया है। गाथा ७२ में सो ऐसे मुनिको ही द्रव्यनिर्ग्रन्थ लिखा है जो रागसंयुक्त है और जिनभावनासे रहित है। देखिए
जे रागसंग जुत्ता जिणमावण रहियदव्वणिग्गंथा |
ण लर्हति ते समाहिं बोहि जिणसासणे विमला ॥ ७२ ॥
जो द्रव्यनिर्ग्रन्थ रागसंग युक्त होकर जिनभावनासे रहित वे जिनशासन में समाधि और बोधिको नहीं प्राप्त होते ।। ७२ ।।
अपर पक्षका कहना है कि 'निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोग है किन्तु यह बात नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्म का कथन मुख्यतया द्रव्यानुयोगका विषय है । रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें द्रव्यानुयोग के स्वरूपका निर्देश करते हुए लिखा है-
जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्ध-मोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्या लोकमतनुते ॥ ४६ ॥
पानुयोगरूपी दीपक जीव, अजीव, पुण्य, पाप बन्ध और मोक्षतत्त्वरूपसे श्रुतविद्यारूपी आलोकको विस्तारता है || ४६ ॥
निश्चयधर्मका संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्वमें ही अन्तर्भाव होता है। अतः निश्चयधर्मका कथन sourcयोग किया गया है ऐसा निर्णय करना ही उचित है ।
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शंका ४ और उसका समाधान
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अपर पक्षका कहमा है कि 'चौथे, पांचवें और छठं गुणस्थानवाले जीवों का लक्ष्य मुख्यतया बाह्य पुरुषार्थ पर रहना आवश्यक है। किन्तु सा विधान करते हुए अपर पक्षने यहाँ बाह्य पुरुषार्थरो अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ लिया है या धर्मपहषा लिया है. यह उक्त कथनसे शात न हो सका। जो कुछ भी हो,
पक्षका यह कंचन है आगमविरुजु हो, क्योंकि अविरतसम्यग्दष्टि और श्रावक जो भी बाह्य क्रिया करता है वह हेयबुद्धिसे ही करता है, अन्यथा वह अविरतसभ्यग्दृष्टि और श्रादक कहलानेका पात्र नहीं । समयसार निर्जराधिकारमें ऐसे जीवोंकी बाह्य परिणतिको तीन दृष्टान्ती द्वारा स्पष्ट किया गया है-पहला उदाहरण विष खानेवाले वद्य का दिया है, दूसरा उदाहरण अरतिभावसे मद्यपीनेवालेका दिया है और तीसरा उदाहरण पर घरमें प्रकरणचेष्टा करनेवाले का दिया है। सागारधर्माभूतमें कोतवालके द्वारा पकड़े गये चोरके सभाम सम्यग्दृष्टिको बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि उक्त जीवोंके व्यवहार धर्मको करते हुए भी अन्तरंगमें मुख्यता निश्चयधर्मकी ही रहती है 1 सागारध मतके मंगलाचरणका 'तमरागिणाम्' पद विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है। नीची पदवी में रहना यह न तो राम्यग्दृष्टिको ही इष्ट होता है और न श्रावकको ही । अब रही मुनिकी बात, सो उसके तो संज्वलन कषायजन्य अल्प प्रमादके कालमें ही अन्तर्मुहूर्त कालके लिए बाह्य प्रवृत्ति देखी जाती है। उनकी जो सामायिक आदि षक्रियाएँ होती है ये नियमसे सामायिक पूर्वक ही होती है । इसीसे उन्हें निश्चम षट् क्रिया संज्ञा मूलाचारमें दी गई है। मूलाचार प्रथम भाग गा० ३ को टोका में लिखा है
आवश्यककर्तव्यानि आवश्यकानि निश्चयक्रियाः सर्वकर्मनिर्मूलनसमर्थनियमाः । इससे स्पष्ट है कि बाह्य क्रिया करते हुए भी मुनिक जीवनमें निश्चयधर्म गौण हो ही नहीं सकता।
अपर पक्षने यहाँ पर अपने विचारोंकी पुष्टिमें समयसार गाथा १२ का उपयोग किया है । किन्तु उस गाथाफा आशम ही दूसरा है। इसका स्पष्ट खुलासा घोहे हो पहले हम कर आये हैं । अपर पक्षने इसका जो आशय लिया है वह ठीक नहीं यह उक्त विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है।
___ अपर पक्षका यह लिखना भी आगम विरुद्ध है कि व्यवहारधर्मका सद्भाव निश्चयधर्मके अभावमें भी पाया जाता है, क्योंकि जैसे सम्यग्दर्शनके पूर्व जितना भी ज्ञान होता है वह मिथ्याज्ञान माना गया है इसो प्रकार निश्च यधर्मके पूर्व जितनी भी क्रिया होती है वह यथार्थ नहीं मानी गई है। निश्चयधर्मके साथ होनेबाली पुण्यपरिणतिरूप बाह्य क्रियाको ही आगममें व्यवहार धर्म कहा है, अन्यथा अट्ठाईस मूलगुण रूप द्रव्यलिंगको आगममें निन्दा नहीं की गई होती। इससे स्पष्ट है कि निश्च यधर्मके पूर्व व्यवहारधर्म होता ही नहीं । जो होता है वह उस पदका व्यवहारधर्म नहीं । अन्तरंगमें अनन्तानुबन्धी आदिका उदय बना रहे और कोई जीव मन्दकषाय वश बाह्य क्रिया करने लगे, फिर भी वह निश्च यधर्मके कालमें होनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि आदि पदका व्यवहारधर्म कहलाये यह विचित्र बाल हैं । निमित्त-नैमित्तिक योग एक कालमें होता है। पहले निमित्त या और बादमें नैमित्तिक हुआ ऐसा कार्यकारणभाव नहीं है । हाँ अपर पक्ष अपने विधान द्वारा यह स्वीकार करना चाहता है कि निश्चयवर्मकी प्राप्तिके पूर्व जो क्रिया होती थी वह निश्चयधर्मको प्राप्तिके कालमें व्यवहारधर्म संज्ञाको प्राप्त हो जाती है, तो बात दूसरी है। किन्तु अपर पक्ष उससे जो यह अर्थ फलित करना चाहता है कि पहलेकी क्रियाके कारण निश्चयधर्मकी प्राप्ति होती है वह गलत कौन कार्य किस क्रमसे होता है इसका कथन करना अन्य बात है और निमित्त-नैमित्तिकपनेके आधारपर कार्य-कारणका विचार करमा अन्य बात है।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अपर पक्ष ने समयसारकी 'अप्पडिकमणं दुविहं' गाथा उबूत कर तीन गाथाओंको टीका दी है। और उस परसे यह सिद्ध किया है कि पर द्रव्य निर्मित कारण है और आश्माके रागादि विकार पर द्रव्यके निमित्तसे होते हैं।' पर अपर पक्ष इस तथ्य को भूल जाता है कि पर द्रव्यमें रागादिकी निमित्तताका व्यवहार कब होता है, उनके प्रति प्रीति- अप्रीति करने पर या सदा काल ही । यदि वे सदा काल निमित्त हैं तो इस जीवके रागादिका परिहार होना सदा काल असम्भव है। यदि इस दोषसे बचने के लिए अपर पक्षका यह कहता हो कि जब यह जीव उनके प्रीति - अप्रीतिरूप परिणाम करता है तभी वे रापादिकी उत्पत्तिमें निमित्त है, अन्यथा नहीं। तो इससे सिद्ध हुआ कि यह रागाविष्ट जीव आप कर्ता होकर रागादिको उत्पन्न करता है, पर जिनको लक्ष्य कर यह रागादिको उत्पन्न करता है उनके साथ रागादि परिणामोंका निमित्तनैमित्तिकपना बन जाने से उनका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान कराया जाता है । जैसे आत्मा स्वभावसे रागादिका कर्ता महीं है, वैसे हो परद्रव्य मी स्वभावसे रागादिकके उत्पादक नहीं है। उनमें उत्पादकताका व्यवहार तभी बनता है जब कि उनके लक्ष्य से आत्मा रागी, द्वेषी हो परिणमता है। आत्मामें पायी जानेवाली कोवादिरूपताके सम्बन्ध में भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए। इसका विशेष ऊहापोह ५वें प्रश्नके तीसरे उत्तर में करनेवाले हैं ही। पण्डितप्रवर दौलतरामजीने छहढालाकी तीसरी ढालमें व्यवहारधर्म में जो निश्चयधर्मकी हेतुताका उल्लेख किया है वह व्यवहारहेतुता की दृष्टिसे ही किया है। व्यवहार धर्म जब कि स्वयं उपचरित धर्म है तो वह निश्चयधर्मका उपवरित हेतु ही हो सकता है । इससे सिद्ध होता है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका परमार्थसे साधक नहीं है । उसे निश्चयधर्मका साधक उपचार नयका आश्रय करके ही कहा गया है ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षा
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ॐ श्रीतत्त्वदशिभ्यो नमः।
मंगलाचरण देवशास्त्रगृहन् नत्वा जन सिद्धान्तबीपिका । सामियातस्वधर्षायाः समीक्षा लिख्यते मया ॥
१-प्रश्नोसरकी सामान्य समीक्षा प्रश्नोत्तर १ के आवश्यक अंशोंके उद्धरण
पूर्वपक्ष १-द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतगतिभ्रमण होता है या नहीं ? तच. पृ० १।
उत्तरपक्ष १-दव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें व्यवहारसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तृ-कम-सम्बन्ध नहीं है । तर च० पृ० १ ।
पूर्वपक्ष २-इस प्रश्नका उत्तर जो आपने यह दिया है कि व्यवहारसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्त-कर्म सम्बन्ध नहीं है, सो यह उत्तर हमारे प्रश्नका नहीं है, क्योंकि हमने द्रव्यकर्म और आत्माका निमित्तनैमित्तिक तथा कर्तृ-कर्म सम्बन्ध नहीं पूछा है ।-त. च० पु० ४।
उत्तरपक्ष २---यह ठीक है कि प्रश्नका उसर देते हुए समयसारको ८० से ८२ तकको जिन तीन गाथाओंका उद्धरण देकर निमित्त-नैमित्तिकभाव दिखलाया गया है वहाँ कर्तृ-कर्म सम्बन्धका निर्देश मात्र इसलिए किया गया है ताकि कोई ऐसे भ्रममें न पड़ जाय कि यदि आगममें निमित्त में कर्तृपनेका व्यवहारसे व्यपदेश किया गया है तो वह यथार्थमें कर्ता बनकर कार्यको करता होगा। वस्तुतः जैनागम कर्ता तो उपादानको ही स्वीकार किया गया है और यही कारण है कि जिनागममें कत्ताका लक्षण "जो परिणमम करता है वह कर्ता होता है" यह किया गया है ।-त० च० पृ. ८।
पूर्वपक्ष ३-इस प्रश्नका आशय यह था कि जीवमें जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं क्या वे द्रव्यकर्मोदयके बिना होते हैं या द्रव्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं। संसारी जीवका जो जन्म-मरणरूप चतुर्गतिभ्रमण प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है क्या वह भी कर्मोदय के अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतंत्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमण कर रहा है।
___ आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें दिया गया है और न इस दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है यद्यपि आपके प्रथम बक्तव्यके ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था । आपने अपने दोनों वक्तव्योंमें निमित्त-कर्त-कर्म सम्बन्धको अप्रासंगिक ची प्रारम्भ करके मूल प्रश्न उत्तरको टालनेका प्रयल किया है।
यह तो सर्वसम्मत है कि जीव अनादिकालसे विकारी हो रहा है। विकारका कारण कर्मबन्ध है, क्योंकि दो पदार्थोंके परस्पर बन्ध बिना लोफमें विकार नहीं होता। कहा भी है-"यकृतो लोके विकारो भवेत्"-पद्मनन्दि-पंचविशतिका २३-७ ।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यदि क्रोत्र आदि विकारी भावको कर्मोदय बिना मान लिया जाये तो उपयोगके समान वे भी जीवके स्वभाव-भाव हो जायेंगे और ऐसा मानने पर इन विकारीभावका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आ जावेगा 1त० च० पृ० १० ।
उत्तरपक्ष ३- इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रथम उत्तर में ही हम यह बतला आये हैं कि संसारी आत्माके विकारभra और चतुर्गतिपरिभ्रमण में द्रव्यकर्मका उदय निमित्तमात्र है। विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणका मुख्यकर्त्ता तो स्वयं आत्मा ही है। इस तथ्पकी पुष्टि में हमने समयसार पंचास्तिकायटीका, प्रवचनसार और उसकी टीका अनेक प्रमाण दिये हैं। किन्तु अपर पक्ष इस उत्तरको अपने प्रश्नका समाधान मानने के लिये तैयार नहीं प्रतीत होता । एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है और दूसरी ओर पकर्मोदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिपरिभ्रमणमें व्यवहारनमसे बतलाये गये निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूलप्रकनका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आश्चर्य है । हमारे प्रथम उत्तरको लक्ष्यकर अपर पक्षकी मोरसे उपस्थित की गई प्रतिशंका २ के उत्तर में भी हमारी ओरसे अपने प्रथम उत्तरमें निहित अभिप्रायकी ही पुष्टि की गई है ।
तत्काल हमारे सामने द्वितीय उत्तरके आधार से लिखी गई प्रतिशंका ३ विचारके लिए उपस्थित है । इस द्वारा सर्वप्रथम यह शिकायत की गई है कि हमारी ओरसे अपर पक्षके मूलप्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्य में ही दिया गया है और न हो इस दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है । "संसारी जीवके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमण में कर्मोदय व्यवहारनयसे निमित्त मात्र है, मुख्यकर्ता नहीं" इस उत्तरको अपर पा संगिक मानता है । अब देखना यह है कि वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करने की दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है अप्रासंगिक है या अपर पक्षका यह कथन अप्रासंगिक ही नहीं, सिद्धान्तविरुद्ध है, जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है, इसे यथार्थ कथन माना गया है ।
अपर पक्षने पद्मनन्दिवशितिका २३ ७ का "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" इस वचनको उद्धृतकर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो यहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्यकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंको मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो अन्य मिलकर एक कार्यको त्रिकालमें नहीं कर सकते । इसी बातको समयसार आत्मख्यातिटीकामें स्पष्ट करते हुए बतलाया है ।
नोभी परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥ ५३ ॥
- १० च० पृ० ३२
इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन
इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन यह है कि तत्वजिज्ञासुओंको यह समझ आ जाए कि पूर्व पक्षने अपने प्रश्नमें जो पूछा है उसका समाधान उत्तरपक्ष के उत्तरसे नहीं होता। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जा रहा है
पूर्व पक्षके उद्धरणोंसे यह स्पष्ट होता है कि वह उत्तरपक्षसे यह पूछ रहा है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी भारमा विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्त होता है या नहीं। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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तृतीय दौर के अनुच्छेद में इस बातको स्वीकार किया है। इसलिये उत्तरपक्षको अपना उत्तर या तो ऐसा देना चाहिए था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारो आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में निर्मित होता है । अथवा ऐसा देना चाहिए था कि वह उसमें निमित्त नहीं होता है- संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण द्रव्यकर्मके उदयके निभिप्त हुए बिना अपने आप हो होता रहता है।
उत्तरपक्षने प्रश्नका उत्तर यह दिया है कि " द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं है ।" ० ० पृ० १ । इस उत्तरमें "व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है" इस कथनका आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में स्वीकृत निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध oreहारका विषय है। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद १ में यह स्वीकार किया है। परन्तु पूर्वपक्ष ने अपने प्रश्न में यह नहीं पूछा है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा बिकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में स्वीकृत निमित्-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है या निश्चयनयका अथवा यह नहीं पूछा है कि उक्त निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारसे है या निश्चयसे । पूर्वपक्षका प्रश्न तो यह है कि
कर्मके उदयसंसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं (त० च० पृ० १) । इसका आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है या नहीं। अथवा यह आशय होता है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकार भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध विद्यमान है या नहीं । प्रश्नका स्पष्ट आशय यह होता हूँ कि
कर्मका उदय संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्त रूपसे कार्यकारी होता है मा वह वहां पर उस रूप में सर्वथा अकिचित्कर हो बना रहता है और संसारी आत्मा द्रव्यकर्मोदयके निमित्त हुए बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणरूप परिणमन करता रहता 1
यतः उत्तरपक्ष द्वारा दिये गये उक्त उत्तरसे उक्त प्रश्नका उपर्युक्त प्रकार समाधान नहीं होता, अतः निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्ष के प्रश्नका उत्तर नहीं है ।
उत्तर प्रश्न के बाहर भी है
उत्तरपक्षने अपने उत्तर में यह अतिरिक्त बात भी जोड़ दी है कि द्रश्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में कर्तृकर्मसम्बन्ध नहीं है, जिसका प्रश्नके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष ने अपने प्रश्न में उनके मध्य कर्तृकर्स सम्बन्ध होने या न होनेकी चर्चा ही नहीं की है। इस तरह इससे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्ष के प्रश्नका उत्तर नहीं है । उत्तर अप्रासंगिक है।
यतः उपर्युक्त विवेचन के अनुसार उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है अतः स्पष्ट हो जाता है कि उक्त उत्तर अप्रसांगिक है ।
१. एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तरूपसे स्वीकार करता है । ० ० पृ० ३२. १
२. और दूसरी ओर श्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में व्यवहारनयसे बतलायें गये निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूल प्रश्नका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आचर्य है । ० च० पृ० ३२ ।
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४
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उत्तर अनावश्यक है।
एक बात यह भी है कि दोनों ही पक्ष उक्त नैमित्तिक सम्बन्धको व्यवहारतयका विषय मानते हैं । उसमें दोनों पक्षोंके मध्य कोई विवाद ही नहीं है। इस बातको उत्तर पक्ष भी जानता है । अतः उसे अपने उत्तरमें उसका निर्देश करना अनावश्यक है ।
यद्यपि इस विषय में दोनों पक्षोंके मध्य यह विवाद है कि जहां उत्तरपक्ष व्यवहारनयके विपयको सर्वथा अभूतार्थ मानता हूँ यहां पूर्वपक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ मानता है, परन्तु वह प्रकृत प्रश्न विषयसे भिन्न होनेके कारण उसपर स्वतन्त्र रूपसे ही विचार करना संगत होगा । अतएव इस पर यथावश्यक आगे विचार किया जायगा ।
दूसरी बात यह है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में दोनों पक्ष कर्म सम्बन्धको नहीं मानते हैं और मानते भी हैं तो उपचारसे मानते हैं। इस बात को भी उत्तरपक्ष जानता हूँ । अतः उसके द्वारा उसर में इसका निर्देश किया जाना भी अनावश्यक है ।
यद्यपि इस विषय में भी दोनों पक्षोंके मध्य यह विवाद है कि जहां उत्तरपक्ष उस उपचारको सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थं मानता है। इसपर भी यथाaure आगे विचार किया जायगा ।
यतः प्रसंगवश प्रकृत विषयको लेकर दोनों पक्षोंके मध्य विद्यमान मतैक्य और मतभेदका स्पष्टीकरण किया जाना तत्त्वजिज्ञासुओं को सुविधाके लिए आवश्यक है अतः यहां उनके मतैक्य और मतभेदका स्पष्टी - करण किया जाता है ।
मतैक्यके विषय
१. दोनों ही पक्ष संसारी आत्मा के विकारभाव और पतुर्गतिभ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तकारण और संसारी आत्माको उपादानकारण मानते हैं ।
२. दोनों ही पक्ष मानते हैं कि उक्त विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण उपादानकारणभूत संसारी आमाका ही होता है । निमित्तिकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट प्रकर्मका नहीं होता ।
३. दोनों ही पक्षोंकी मान्यतामें उक्त कार्यका उपादानकारणभूत संसारी आत्मा यथार्थ कारण और मुख्य कर्ता है च निमित्तकारणभूत उदयममय विशिष्ट द्रव्यकर्म अयथार्थ कारण और उपचारित कर्ता है |
४. दोनों ही पक्षका कहना है कि उक्त कार्यके प्रति उपादानकारणभूत संसारी आत्मामें स्वीकृत उपादानकारणता, यथार्थकारणता और मुख्यकर्तृत्व निश्चयनयके विषय हैं और निमित्त कारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म में स्वीकृत निमित्तकारणता, अयथार्थकारणता और उपचरितकर्तृस्व व्यवहारनय के विषय हैं ।
मतभेदके विषय
१. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्यके प्रति उपादानकारणरूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर कार्यकारी मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्त कारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यागविशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिंचित्कार मानता है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
यहां पूर्वपक्ष उसे वहांपर उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अकिंचित्कर और उपादानकारषभूत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी मानता है ।
२, यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृप्त कार्यके प्रति उपादानकारणरूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर मथार्थकारण और मुख्य कत्ता मानते हैं, परन्तु जहां उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर अयथार्थकारण और उपचरितकर्ता मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे वहांपर उस कार्यरूप परिणत न होनेके सा उपा कारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर अयथार्थ कारण और उपचरितकर्ता मानता है।
३. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्यके प्रति उपादान कारण, यथार्थकारण और मुल्यका रूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधार पर भूतार्थ मानते है, परन्तु जहाँ उत्तर पक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारण, अयथार्थकारण और उपचरित का रूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिम सहायक भी न होने के आधार पर सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे वहां पर उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर भूतार्थ मानता है।
४. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्य प्रति उपादानकारण, यथार्थकारण और मुख्य का रूपसे स्वीकृत संसारी आरमाको उस कार्य रूप परिणत होनेके आधारपर भतार्थ मानकर निश्चयनयका विषय मानते है, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारण, यथार्थकारण और उपचरित कर्ता रूप से स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको उस कार्य रूप परिणत न होने और सारी आत्माकी उस कार्य स्प परिणतिमें सहायक भी न होने के आधार पर सर्वथा अभूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्य रूप परिणत न होनेके आधार पर अभूतार्य और संसारी आत्माको उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक होनेके आधार पर भूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है ।
___उपर्युक्त विवेचनका निष्कर्ष यह है कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गत्तिभ्रमणरूप कार्य के प्रति दोनों पक्षोंके मध्म न तो संसारी आरमाको उपादान कारण, यथार्थकारण और मुख्य का माननेफे निषयमें विवाद है और न उसकी कार्यकारिता, भतार्थता और निष्चयनय विषयताके विषय में विवाद है। इसी तरह उसी कार्य प्रति दोनों पक्षोंके मध्य न तो उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको निमित्त कारण, अयथार्थ कारण और उपचरितका माननेके विषयमें विवाद है और न उसको व्यवहारनयविषयताके विषयमें विवाव है। दोनों पक्षोंके मध्य विषाव केवल उक्त कार्यके प्रति उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको उत्तरपक्षको मान्य सर्वथा अकिचिस्करता और सर्वथा अभूतार्थता तथा पूर्व पक्षको मान्य कथंचित् अकिचित्करता व कथंचित कार्यकारिता तथा कथंचित् अभूतार्थता व कथंचित् भूतार्थताके विषयमें है। उपर्युक्त विवेचनके आधार पर दो विचारणीय बातें
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर दो बातें विचारणीय हो जाती हैं। एक तो यह कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें दोनों पक्षों द्वारा निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदएपर्यायविशिष्ट ब्रम्यकर्म
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा को पूर्वपक्षको मान्यताके अनुसार उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधार पर अकिंचिकर और उपादान' कारणभूत संसारी आरमाकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी माना जाए या उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार उसे यहां पर उस कार्य रूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी कार्यरूप परिणतिम महायक भी न होनेके आधार पर सर्वथा अकिचित्कर माना जाय । और दूसरी यह कि उस उदयपर्यावविशिष्ट द्रव्यकर्मको पूर्व पक्षको मान्यताके अनुसार उपर्युक्त प्रकारसे कथंचित् अकिचिस्कर व कथंचित् कार्यकारी मानकर उस रूपमें कचित् अभृतार्थ और अथंचित् भूतार्थ माना जाय, य इस तरह उसे अभूतार्थ और भूतार्थरूपमें व्यवहारनयका विषय माना जाए या उत्तरपशकी मान्यताके अनुसार उसे वहाँ पर उपयुक्त प्रकार सर्वथा किंचित्कर मानकर उस रूपमें सर्वथा अभूतार्थ माना जाए व इस तरह उसे सर्वथा अभूतार्थ रूपमें व्यवहारनयवा विषय माना जाए।
उपर्युक्त दोनों बातामसे प्रथम कातक सम्बन्धमें विचार करनेके उद्देश्यसे ही खानिया तत्त्वच के अवसरपर दोनों पक्षोंकी सहमतिपूर्वक उपर्युक्त प्रथम प्रश्न उपस्थित किया गया था। इतना ही नहीं, खानिया तत्त्वचषांके सभी १७ प्रश्न उभयपक्षकी सहमति पूर्वक ही चर्चा के लिये प्रस्तुत किये गये थे।
यहाँ प्रसंगवण मैं इतना संकेत कर देना उचित समझता हूँ कि तत्त्वचर्चाको भमिका तैयार करने के अवसरपर पं० फूलचन्द्रजीने मेरे समक्ष एक प्रस्ताव इस आणयका रखा था कि चर्चा के लिए जितने प्रश्न उपस्थित किये जायेंगे वे सब उभय पक्षको सहमतिसे ही उपस्थित किये जायेंगे और उपस्थित सभी प्रश्नोंपर दोनों पक्ष प्रथमतः अपने अपने विचार आगमके समर्थन पूर्वक एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे तथा दोनों ही पक्ष एक दूसरे पक्षके समक्ष रखे गये उन विचारोंपर आगमके आधारपर ही अपनी आलोचनाएँ एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे और अन्समें दोनों ही पक्ष उन आलोचनाओंका उत्तर भी आगमसे प्रमाणित करते हुए एक दूसरे पक्ष समक्ष प्रस्तुत करेंगे ।
___ यद्यपि पं० फूलचन्द्रजीके इस प्रस्तावको मैंने सहर्ष तत्काल स्वीकार कर लिया था, परन्तु चर्चाके अवमरपर पं० फलचन्द्रजी सोनगढ़ के प्रतिनिधि नेमिचन्द्रजी पाटनीके दुराग्रह के सामने झुककर अपने उक्त प्रस्तावको रचनात्मक रूप देने के लिए तैयार नहीं हए । इसका परिणाम यह हुआ कि जो सभी प्रश्न उभय पक्ष सम्मत होकर दोनों पक्षोंको समान रूपसे विचारणीय थे, वे पूर्वपक्षके प्रश्न बनकर रह गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता बन गया ।
यतः प्रश्नोंको प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षने प्रमुख भूमिकाका निर्वाह किया था, अतः उसे एक तो पं. फूलचन्द्रजीके उक्त परिवर्तित रुखको देखकर उसको दृष्टिसे ओझल कर देना पड़ा और दूसरी बात यह भी थी कि उसके सामने तत्त्वनिर्णयका उद्देश्य प्रमुख मा व उसको अणु मात्र भी यह कल्पना नहीं थी कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी इस सहनशीलताका दुरुपयोग करेगा | परन्तु तत्त्वचर्चा अध्ययनसे यह स्पष्ट होता है कि उत्तर पक्षने पूर्वपक्षको सहनशीलताका तत्त्ववर्षा में अघिकसे अधिक दुरुपयोग किया है। मह बात तत्त्वच की इस समीक्षासे भी ज्ञात हो जायगी।
समीक्षा लिखने हेतु
यतः उभय पक्ष सहमत वे सभी प्रश्न उपर्युक्त प्रकार पूर्वपक्ष के प्रश्न बन गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता । अतः इस समीक्षाका लिखना तस्वनिर्णय करनेकी दृष्टिसे आवश्यक हो गया है। एक बात
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
और है कि पं० फूलचन्द्र नीके प्रस्तावके अनुसार दोनों पक्ष प्रत्येक प्रश्नपर यदि अपने-अपने विचार प्रस्तुत करते तो दोनों पक्षोंको अन्तिम सामग्री एक दूसरे पक्षको समालोचनासे अछूती रहती । और इस तरह दोनों पक्षोंको अन्तिम सामग्रीपर मतभेद रहनेपर तत्व निर्णय करनेका अधिकार तत्त्वजिज्ञासुओं को प्राप्त होता । परन्तु जिस रूप में तत्त्वचर्चा सामने है उसमें अन्तिम उत्तर उत्तरपक्षका होनेसे तत्त्वजिज्ञासुओं को तत्त्वनिर्णय कर लेना संभव नहीं रह गया है । इस दृष्टिसे भी इस समीक्षा की उपयोगिता बढ़ गई है । उत्तरपक्ष द्वारा अपने उत्तर में विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण
पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि प्रकृत प्रदनको प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षका आशय इस बातको निर्णीत करनेका था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाष और चतुर्गतिभ्रमण में निमित्त रूपसे अर्थात् सहायक होने रूपसे कार्यकारी होता है या वह वहाँ पर सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है व संसारी कर्म उदका सहयोग प्राप्त किये बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण करता रहता है। उत्तरपक्ष प्रश्नको प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षके इस आशयको समझता भी था, अन्यथा वह अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद में पूर्वपक्ष के प्रति ऐसा क्यों लिखता कि "एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है परन्तु जानते हुए भी उसने अपने प्रथम दौर में प्रश्नका उत्तर न देकर उससे भिन्न नयविषयता और कर्तृकर्म सम्बन्धको अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चाको प्रारंम्भ कर दिया। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने उत्तरमें विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण किया है और इसके कारण ही पूर्वपक्षको अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद में यह लिखना पड़ा कि 'आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्य में दिया गया है और न दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है- यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्यके ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था । आपने अपने दोनों वक्तव्यों में निमित्त कर्तृकर्म सम्बन्धको अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालने का प्रयत्न किया है।
उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष पर उल्टा आरोप
कपर किये गये स्पष्टीकरण से यह ज्ञात हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौर के अनु० २ में जो यह लिखा है कि 'वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है यह अप्रासंगिक है या अपरपक्षका यह कथन अप्रासंगिक हो नहीं सिद्धान्तविरुद्ध है जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है। सो उसका उत्तरपक्षका ऐसा लिखना 'उल्टा चोर कोतवालको डाँटे' जैसा ही है, क्योंकि उसने स्वयं तो पूर्वपक्ष के प्रश्नका उत्तर न देकर नयविषयता और कर्तृ-कर्म सम्बन्धको अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा प्रारम्भ की, लेकिन अपनी इस त्रुटिको स्वीकार न कर उसने अप्रासंगिकताका उल्टा पूर्वपक्षपर ही आरोप लगाया। इससे यही स्पष्ट होता है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर देने में आनाकानी की है और इसे छिपानेके लिये ही उसने उक्त अप्रासंगिक और अनावश्यक प्रारम्भ की। यही कारण है कि उसके इस प्रयत्नको पूर्वपक्ष ने अपने वक्तव्यमें मूल प्रश्न के उत्तरको टालने का प्रयत्न कहा है । इसी तरह उत्तरपक्ष ने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि 'विकारका कारण बाह्यसामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है' सो यह भी पूर्वपक्ष के ऊपर उत्तरपक्षका मिथ्या आरोप है, क्योंकि पूर्वपक्ष, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, विकारको कारणभूत बाह्यसामग्रीको उत्तरपक्ष के समान अयथार्थ कारण ही मानता है ।
इस विषय में दोनों पक्षोंके मध्य यह मतभेद अवश्य है कि जहाँ उत्तरपक्ष विकारकी कारणभूत उस
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
बाह्य सामग्रीको वहीं पूर्वोक्त प्रकार सर्वथा अकिचित्कर रूपमें अयथार्थ कारण मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वह पूर्वोक्तप्रकार ही कथंचित् अकिंचित्कर और कथंचित् कार्यकारी रूपमें अयथार्थ कारण मानता है । दोनों पक्षों की परस्पर विरोधी इन मान्यताओंमें कौन-सी मान्यता आगमसम्मत है और कौन-सी आगमसम्मत नहीं है, इस पर आगे विचार किया जायगा ।
इसी प्रकार उत्तरपक्षने अपने
के अनुसूची
में उप 'द्वमकुतो लोके विकारो भवेत्' इस आगमवाक्य को लेकर उसपर ( पूर्वपक्ष पर ) मिथ्या आरोप लगानेके लिये लिखा है कि 'अपरपक्षने पद्मन्दिपंचविशतिका २३७ के 'द्रमकृती लोके विकारो भवेत्' इस कथनको उद्धृत कर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो वहां देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्य की विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको त्रिकाल में नहीं कर सकते ।'
इस विषय में मेरा कहना है और उत्तरपक्ष भी जानता है कि उक्त आगमवाश्यका यह अभिप्राय नहीं है कि दो मिलकर एक विभावपरिणति होती है, अपितु उसका अभिप्राय यही है कि एक वस्तुकी विकारी परिणति दूसरी अनुकूल वस्तुका सहयोग मिलने पर ही होती है व पूर्वपक्ष ने इसी आशयसे उक्त आगमवाक्य को अपने वक्तव्यमें उद्धृत किया है, दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती हैं, इस आशयसे नहीं । इस तरह उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष पर यह आरोप लगाना भी मिथ्या है ।
जान पड़ता है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर उक्त प्रकारका मिथ्या आरोप लगानेकी दृष्टिसे ही उक्त आगमवाक्यका यह अभिप्राय लेना चाहता है कि दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है। इस तरह कहना चाहिए कि उत्तरपक्षकी यह वृत्ति उस व्यक्ति के समान है जो दूसरेको अपशकुन करनेके लिये अपनी आंख फोड़ने का प्रयत्न करता है ।
अन्तमें मैं कहना चाहता हूँ कि तत्त्वफलित करनेकी दृष्टिसे की जानेवाली इस तस्वचर्चा में ऐसे सारहीन और अनुचित प्रयत्न करना उत्तरपक्ष के लिये शोभास्पद नहीं है । किन्तु उसने ऐसे प्रयत्न तस्वचच स्थान-स्थानपर किये हैं । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उत्तरपक्षने अपने इस प्रकारके प्रयत्नों द्वारा पूर्वपक्षको उलझा देना ही अपने लिये श्रेयस्कर समझ लिया था ।
उत्तरपक्ष इस तरह के प्रयत्नोंका एक परिणाम यह हुआ है कि खानिया तत्त्वचर्चा सत्त्वचर्चा न रहकर केवल दिसण्डावाद बन गई है और वह इतनी विशालकाय हो गई है कि उसमेंसे तत्त्व फलित कर लेगा विद्वानों के लिए भी सरल नहीं है ।
यद्यपि पूर्वपक्ष ने अपने वक्तव्यों में शक्ति भर यह प्रयत्न किया है कि खानिया तत्त्वत्वर्षा तत्त्व फलित करने तक ही सीमित रहे । परन्तु इस विषय में उत्तरपक्षका सहयोग नहीं मिल सका, यह खेदेकी बात है ।
वास्तविक बात यह है कि इस तत्त्वचत्र किसी प्रकार अपने पक्ष को विजयी बनाया जावे। अपने उक्त उद्देश्यको पूर्तिके लिए ही हुए हूँ ।
उत्तरपक्षने अपनी एक ही दृष्टि बना ली थी कि जिस इसलिए उसके आदिसे अन्त तक के सभी प्रयत्न केवल
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
यहाँ पर मैं एक बात यह भी वह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन में जिस आगमकी पग-पग पर दुहाई दी है उसका उसने बहुत से स्वादपर साभिप्राय अनर्थ भी किया है। जैसा कि पूर्व में बलाया जा चुका है कि पद्मनन्दि पंचविचातिका १३ ७ का उसने पूर्वपक्षका मिय्या विरोध करनेके लिए जान-बूझकर विपरीत अर्थ करनेका प्रयत्न किया है और इसी तरहके प्रयत्न उसने आगे भी किये हैं जिन्हें यथास्थान प्रकाशमें लाया जायगा ।
अब आगे प्रकृत प्रस्नोत्तर के प्रत्येक दौरकी सामग्री की पृथक् पृथक् समीक्षा की जाती है । २. प्रश्नोत्तर १ के प्रथम दौरको समीक्षा
समयसार गाथा ८१ के अर्थमें उत्तरपक्षकी बौद्धिक भूल
उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के प्रश्नका जो उत्तर अपने प्रथम दौर में दिया है उसकी पुष्टि में उसने यहाँ पर समयसारकी ८० से ८२ तककी तीन गाथाओं को प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है। इनमेंसे गाथा ८१ का अर्थ उसने विपरीत किया है । वह अर्थ निम्न प्रकार है
*
"जीव कर्म विशेषताको ( पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता। इसी प्रकार कर्म जीवमे विशेषताको (पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता । परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनोंका परिणाम जानो । " - ० ० पृ० १
ऐसा अर्थ करनेमें उत्तरपक्ष की भूल यह है कि इसमें उसने आगमके आधारपर स्वयं स्वीकृत सिद्धान्त की उपेक्षा कर दी है। उसने आगमके आधारपर यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि जो परिणमता है या परि मन करता है वह कर्ता होता है । परन्तु गाथा ८१ का अर्थ करते समय उसने इस सिद्धान्तको भुला दिया 'है। उक्त सिद्धान्त के अनुसार गाथाका अर्थ निम्न प्रकार हैं
'जीव कर्मगुणको नहीं करता अर्थात् कर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और कर्म जीवगुणको नहीं करता अर्थात् जीवगुणरूप परिणत नहीं होता । परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनों का परिणाम जानो ।'
ऐसा मालूम होता है कि उत्तर पक्षने गाचामें पटित 'कर्मगुण' और 'जीवगुण' इन दोनों पदोंको सप्तमी तत्पुरुष के रूप में समस्त पद समझकर गायाका अर्थ किया जब कि उन पदोंको षष्ठी तत्पुरुष के
रूपमें समस्त पद मानकर गाथाका अर्थ करना चाहिए था ।
प्रश्न के उत्तर में उक्त गाथाओं की अनुपयोगिता
समयसार गाथा ८२ एक वस्तुमें अम्ल वरतुके कर्तुत्वका निषेध करती है जो निर्विवाद है । परन्तु प्रकृत प्रश्न के उत्तर में उसकी उपयोगिता नहीं है. क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रश्न द्रव्यकमोंदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको कार्यकारिता या अकिं चित्करताका निर्णय करनेकी दृष्टि में किया गया है। इस तरह ८० से ८२ तक्की उक्त गाथाओं में से केवल गाथा ८० की उपयोगीता ही प्रश्न के उत्तर में हो सकती हैं। गाथा ८१ की उपयोगिता भी कुछ अंशोंमें प्रश्नके उत्तर में सकती है. क्योंकि उसके उत्तरार्ध भी उक्त निमित्त नैमिसिक सम्बन्धकी पुष्टि कर्तृकर्म सम्बन्ध निषेध पूर्वक होती है । तथापि प्रश्नका जो उत्तर उत्तरपक्षने दिया है उसका जब प्रश्न के आशय से मेल नहीं खावा तो ये दोनों गाथाएँ भी वहां अनुपयोगी सिद्ध होती हैं ।
२२
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
१०
उक्त गाथाएँ प्रकृतमें उत्तरपक्षकी मान्यता के विपरीत हैं
एक बात यह भी है कि समयसारको उक्त गाथाएँ द्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण स्वीकृत निमित्तनैमित्तिकभावको उत्तरपक्षको मान्य अकिंचित्करताको सिद्ध करनेमें असमर्थ हैं, प्रत्युत पूर्वपक्षको मान्य उसकी कार्यकारिताको ही सिद्ध करती हैं, क्योंकि गाथाओंका अर्थ करते समय स्वयं उत्तरपक्ष ने इस बातको स्वीकार किया है कि एक दूसरे के निमित्तसे एक दूसरेका परिणाम होता है । इस विषयको आगे स्पष्ट किया जायगा ।
प्रश्न के उत्तर में अन्य प्रमाण भी अनुपयोगी हैं।
उत्तरपक्षने अपने उस रमे पंचास्तिकाय गाया ८९ को जिस टीकाका उद्धरण निमित्तको व्यवहार हेतु सिद्ध करनेके लिए दिया है उसके विषय में यद्यपि पूर्वपक्षको उत्तरपक्ष के साथ कोई विवाद नहीं है, परन्तु उसका प्रश्न के उत्तर में कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रयत्न नयविषय को लेकर नहीं किया गया है, अपितु निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धकी कार्यकारिता या अकिंचित्करताको सिद्ध करनेकी दृष्टिसे किया गया है। इस तरह वहाँ उक्त सम्बन्धको व्यवहार नयविषयताको पुष्ट करनेवाली पंचास्तिकायको उक्त टीकाको उद्धृत करनेकी क्या उपयोगिता रह जाती है। एक बात यह भी है कि उक्त निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धी व्यवहारनयविषयताको लेकर दोनों पक्षोंके मध्य कोई विवाद भी नहीं है । जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है ।
इसी तरह उत्तरपक्षने अपने उत्तर में दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्तृकर्म सम्बन्धका निषेध करनेके लिए प्रवचनसार गाया २ ७७ ।। १६९।। और उसकी टीकाको भो उद्धृत किया है तथा उनमें कर्तृकर्म सम्बन्ध को उपचरितरूपताको सिद्ध करनेके लिए समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकाको भी उद्धृत किया है। परन्तु जब पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि इस विषय में दोनों पक्षोंके मध्य न तो कोई विवाद है और न प्रश्न ही इस आशय से किया गया है तो उत्तरपक्ष द्वारा जानते हुए भी इस प्रकारका निरर्थक प्रयास किया जाना उसकी बुद्धिमानीका सूचक नहीं है ।
उक्त प्रमाण भी उत्तरपक्षकी मान्यताके विपरीत प्रयोजन सिद्ध करते हैं
प्रवचनसार गाथा २-७७ ।। १६९ ।। और उसकी टीकासे उत्तर पक्षकी मान्यता के विपरीत यह प्रयोजन सिद्ध होता है कि कर्मस्वके योग्य स्कन्ध (कामणवर्गणाएँ) आत्माको अनुकूल परिणतिको प्राप्त कर फर्मभावको प्राप्त होते हैं । इसी तरह समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकासे भी उत्तरपक्षकी मान्यता के विपरीत यह प्रयोजन सिद्ध होता है कि जीवके निमित्त होनेपर कर्मबन्धका परिणाम देखा जाता है । इस तरह इनसे कार्योत्पत्ति में पूर्वपक्षको मान्य निमित्तकी कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। उत्तरपक्षको मान्य उसकी अकिचित्करता सिद्ध नहीं होती ।
किंच, प्रवघनसार गाथा २- ७७ ।। १६९ ।। और उसकी टीकासे जीव कर्मके कर्तृत्वका जो निषेध सिद्ध होता है यह निर्विवाद है । परन्तु उनसे कामणवर्गणाओंके कर्मरूप परिणमनमें जीव की निमित्त रूप से ( सहायक ) कारणताकी तो सिद्धि ही होती है । इसी तरह समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकासे कर्म के प्रति जीव में उपचरित कर्तृत्व सिद्ध होता है, वास्तविक कर्तृत्व नहीं, जो निर्विवाद है । परन्तु उनसे भी तो सिद्ध होता है कि जीव में कर्मबन्धके प्रति उपचरित कर्तृव तभी सिद्ध होता है जब उस कर्मचषके
यह
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
प्रति जीवको निमित्त रूपसे कार्यकारी स्वीकार कर लिया जावे, अन्यथा नहीं। इस तरह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त कथन उत्तरपक्षको निमित्तको अकिंचिकर स्वीकार करनेकी मान्यताका आत्मघाती है ।
तात्पर्य यह है कि उत्तरपक्ष, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है-संसारी जीवके विकारभाष और चतुर्गतिनमणमें उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको निमित्तकारण तो मानता है, परन्तु वह वहीं उसे उस कार्यरूप परिणत न होने और उपाधानकारणभूत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होने के आधारपर सर्वथा अकिंचिकर ही मानता है जब कि पूर्वपक्ष उस कार्य के प्रति उस उदयपर्यावविशिष्ट व्यकर्मको जो निमित्तकारण मानता है वह इस आधारपर मानता है कि वह उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्म उस कार्य रूप परिणत न होनेके आधारपर अकिंचितार और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी सिद्ध होता है। प्रयचनसारको उक्त गाथा (२-७७ ।। १६९ ॥) व उसकी टीका तथा रामयमार गाथा १०५ और उसकी टीकासे भी वह उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म पूर्वोक्त प्रकार संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणरूप कार्यके प्रति सहायक होने के आधारपर कार्यकारी ही सिद्ध होता है। उत्तरपक्षको अपनी मान्यताके विरोधी इन आगमवचनोंको उपस्थित करते हुए इस स्थितिपर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए था। पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षके प्रश्नका आशय यही था कि दोनों ही पक्षों द्वारा निमित्त कारणरूपसे स्वीकृत द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारी होता है या यह उसमें सर्वथा अकिचिकर ही बना रहता है। परन्तु उत्तरपशने अपने उसरमें उस व्यकर्मके उदवके विषयमें न तो पूर्व पक्षको इस मान्यताको स्वीकार किया है कि द्रव्यकर्मका जदय गंसारी आत्माके विकार भाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहायक रूपसे कार्यकारी होता है। और न उसके विषय में अपनी सर्वथा अकिंचित्करता सम्बन्धी मान्यताको ही पुष्ट किया है। उसने अपने उत्तरमें केवल इतना ही बतलाया है कि द्रव्यकर्मोदय व्यवहारनयसे निमित्तकारण है व साथमें यह भी कथन किया है कि द्रश्यकम के उदम और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें कर्तकर्म सम्बन्ध नहीं है जबकि इन दोनों बातोंका प्रदनके उत्तरमें कोई उपयोग नहीं है
और जैसा कि पहले हो स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्व पक्षको उत्तरपक्ष के साथ न तो द्रव्यकर्मोदयगत निमित्तताको व्यवहारनयका विषय मानने में विवाद है और न द्रव्यकर्मोदय व संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें कर्तृकर्मसम्बन्धको न माननेके विषयमें ही विवाद है । पूर्वपक्षका प्रश्न केवल यह था कि व्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त (सहायक) रूपसे कार्यकारी होता है या वह उसमें सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है। ऐसी स्थितिमें उत्तरपक्षको प्रश्नका उत्तर देते समय यह निर्णय करना था कि क्या उसका उत्तर प्रश्नका समाधान करने में सक्षम है ? तत्त्वजिज्ञासुओंको इस विषयमें गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। आगे प्रकृत प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षा की जाती है।
३. प्रश्नोत्तर १ के द्वितीय शौरको समीक्षा द्वितीय दोरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
यतः उत्तरपक्षने अपने प्रथम दौर में पूर्व पक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं दिया है, अतः पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षके प्रथम दौरको सामग्रीकी आलोचना करते हुए ऐसे आगमप्रमाणोंको उद्धृत किया है, जिनसे संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें संसारी आत्माके लिए सहायक होने रूपसे द्रब्यकर्म
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा के उदयकी कार्यकारिता सिद्ध होती है अन्तमें "आशा है आप हमारे मूल प्रश्नका उत्तर देनेको कृपा करेंगे।" इस निवेदन रूप कथन द्वारा उत्तरपक्षको प्रश्नका उत्तर देनेके लिए प्रेरित किया है। उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्षके विषयका पांच भागोंमें विभाजन
उत्तरपशने अपने द्वितीय दौरमें पूर्वपक्ष के निवेदनपर ध्यान न देन हुए उसके द्वितीय दौरकी सामग्री पर आलोचनात्मक ढंगसे विचार करनेकी चेष्टा की है तथा विषारके लिए जराकी सामग्रीको पांच भागोंमें विभक्त किया है। यहाँ उस सामग्रीकी समीक्षा भी प्रत्येक भागके कमसे की जाती है। प्रथम भागकी समीक्षा
प्रथम भागम एकत्रित पूर्वपक्षकी सामग्रीपर विचार करते हुए उत्तरपक्षने निम्नकथन किया है
"प्रतिशंका २ में विविध प्रकारके प्रमाण देकर जो संसारी जीव और द्रव्यकर्मोदयमें हेतुकर्तृता सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है सो ऐसा करने में क्या उद्देश्य रहा है, यह समझमें नहीं आया। यदि हेमकर्तता सिद्ध करते हुए निमित्तोंमें उदासीन निमित्त और प्रेरक निमित्त ऐसा भेद करनेका अभिप्राय रहा हो तो यह इष्ट है, क्योंकि प्रवचनसार गाथा ८८ में यह भेद स्पष्ट शब्दों में दिखलाया गया है। परन्तु ऐसे भेदको दिखलाते हुए भी उषत वचनके आधारसे यदि यह सिद्ध करने का अभिप्राय हो कि प्रेरक कारण बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा, क्योंकि हेतुकर्तृ पदका व्यपदेश निमित्त मात्रमें देखा जाता है।" -तच पृ०७।
___इससे आगे उसने (५. प्रेरक प्रो. : दान निमित तुप पन व्यपदेशको पुष्टि के लिए सर्वार्थसिक्केि प्रमाणको उद्धत किया है तथा दोनों निमित्तामें समानता सिद्ध करने के लिए उसने इष्टोपदेश और उसकी टोकाको भी उद्धृत किया है । समीक्षा
पूर्वपक्षने प्रतिशंका २ में विविध प्रमाण देकर जो संसारी जीव और द्रव्यकर्मोदयमें हेतुकर्तृता सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है उसमें उसका उद्देश्य उपाधान कर्तृत्व और निमित्त कर्तृत्वका प्रकृतमें भेद दिखलात. हुए यन्त्र प्रकट करनेका था कि द्रव्यकर्मोदय संसारी आस्माके विकारभाव और चतुगंतिभ्रमणमें उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी सहायता मात्र करता है, उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी तरह वह उस कार्यरूप परिणत नहीं होता। जैसा कि पूर्वपक्षने अपने वक्तव्य में स्वयं लिखा है कि "हमारा प्रश्न निमित्तकर्ताक उद्देश्यसे ही है उपादानकर्ताके उद्देश्यसे नहीं है । तथापि उत्तरपसने पूर्वपक्षके कथनका इस अभिप्रायसे भिन्न अभिप्राय ग्रहण करते हुए उसकी (पूर्वपक्षकी) ओरसे निमित्तकारणके जो प्रेरक और उदासीन दो भेदों की स्थापना की और जिन्हें उसने स्वयं भी प्रवचनसार गाथा ८८ के आधारसे स्वीकार किया है. इस विषयमें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है । इसी प्रकार उत्तरपक्षने सर्वार्थसिद्धि के उद्धरणके आधारसे जो प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तकारणोंको हेतुकर्ता स्वीकार किया है उससे भी पूर्वपक्ष सहमत है, क्योंकि पूर्वपक्षने अपने बक्तब्यमें प्रेरक निमित्तको हेलुकर्ता सिद्ध करते हुए भी उदासीन निमित्त में हेतुफर्तृत्वक निषेधका आभास नहीं दिया है । परन्तु उत्तरपक्षके वक्तब्यसे ऐमा मालूम होता है कि वह हेतुर्तृत्व के आधारसे उधा१. देखो, त: च पृ० ६। २. देखो, त० न० पृ. ३ ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
सोन निमितको अकिचित्करताको निर्विवाद मानकर उसके समान प्रेरक निमित्तको भी हेतुकर्तृत्व के आधारसे अकिंचित्कर मान लेना चाहता है, जब कि उसे मालूम होना चाहिए था कि पूर्वपक्ष प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंचो उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही मानता है।
तात्पर्य यह है कि कार्योत्पत्ति में उपादानको तो दोनों ही पक्ष कार्यरूप परिणत होनेके आधारसे कार्यकारी मानते हैं। परन्स् जहाँ उत्तरपक्ष प्रेरक और उदासीन दोनों ही निमित्तोंको कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारसे सर्वथा अकिंचित्कर मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उक्त दोनों ही निमित्तोंको कार्यरूप परिणत न होनेके आधारसे अकिंचित्कर और उपादानकी कार्यरूप परिणति में सहायक होनेके आधारसे कार्यकारी मानता है ।
दोनों पक्षोंकी परस्पर विरोधी इन मान्यताओमसे किस मान्यताको सत्य और क्रिस मान्यताको असत्य माना जाय, इसका निर्णय करनेके लिए दोनों निमित्तोंक विषयमें विचार करने की आवश्यकता है। इसके लिए सर्वप्रथम इनके लक्षणोंका निर्धारण किया जाता है । दोनों निमित्तोंके लक्षणोंका निर्धारण
यतः उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिमें दोनों ही निमित्तोंको उपयुक्त प्रकार सर्वथा अकिंचित्कर मानता है अतः वह उनके लक्षण इस प्रकार निर्धारित करता है कि "प्रेरक निमित्त है जो अपनी क्रिया द्वारा अन्य द्रब्यके कार्यमें निमित्त होते हैं और उदासीन निमित्त में हैं जो चाहे क्रियावान् द्रव्य हों और चाहे अक्रियावान् द्रव्य हों, परन्तु जो क्रियाके माध्यमसे निमित्त न होकर निष्क्रिय द्रव्योवेः समान अन्य व्यों के कार्य में निमित्त होते हैं।"-स० च० पृ. ७
मतः पूर्वपक्ष कायोत्पत्तिमें दोनों ही निमित्तोंको उपर्युक्त प्रकार कथंचित् अर्थात् कार्यरूप परिणत न होने के आवारपर अकिंचित्कर और कथंचित् अर्थात् उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेवो आधार पर कार्यकारी मानता है अतः अशकी मान्यताके अनुसार दोनों निमित्तोंके लक्षण इस प्रकार हो सकते हैं कि प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ कार्यकी अम्बय और व्यतिरंक व्यास्तियों रहा करती है और उदासीन निमित्त ये है जिनकी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती है।
निमित्तों के साथ कार्यकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंका रहता और कार्यके साथ निभित्तोंकी अन्वय और व्यतिरेक ज्याप्तियोंका रहना इन दोनों लक्षणों में अन्तर यह है कि अनुकूल निमित्तोंका सहयोग मिलनेपर उपादानको विवक्षित कार्यरूप परिणति होना और जब तक अनुकूल निमित्तोंका सहयोग प्राप्त न हो तब तक उसकी (उपादानकी) विवक्षित कार्यरूप परिणति नहो सकना यह निमित्तों के साथ कार्यकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हैं तथा उपादानकी कार्यरूप परिणतिके अवसर पर निमित्तोंका उपादानको अपना सहयोग प्रदान करना और उपादान जब तक अपनी कार्यरूप परिणत होनेकी प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं करता तब तक उनका (निमित्तोंका) अपनी तटस्थ स्थितिमें बना रहना यह मिमित्तोंकी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां है। इनमेंसे पहले प्रकारकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंका सदभाव जिन निमित्तोंमें पाया जाये वे प्रेरक निमित्त कहलान योग्य है और दूसरे प्रकारको अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंका सद्भाव जिन निमित्तों में पाया जावें ये उदासोन निमित्त कहलाने बोग्य है। यतः पहले प्रकारकी अन्वय और व्यतिरेक ध्याप्तियोंका सदभाव प्रेरक निमित्तोंमें पाया जाता है अतः उनके (प्रेरक निमित्तोंके) बल पर कार्य आगे पीछे
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जयपुर ( खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा कभी भी किया जा सकता है और वतः दूसरे प्रकारको अन्क्य और व्यतिरेक व्याप्तियोंका सद्भाव उदासीन निषिोंगें पा जाता है अतः उन असो निमित्तोंके) बल पर कार्य आगे पीछे तो नहीं किया जा सकता, फिर भी उनका सहयोग उपादानको कार्यरूप परिणतिमें अवषय रहा करता है।
प्रेरक निमित्तोंके विषयमें उदाहरण यह है कि जब ऐजनमें गति होती है तभी उससे संयुक्त रेलके खिदबोंमें गति होती है और जब तक ऐंजनमें गति नहीं होती तब तक वे रेलके डिब्बे निष्क्रिय ही बने रहते हैं। उदासीन निमित्तोंके विषयमें उदाहरण यह है कि जब रेलके हिम्छोंमें गति होती है तब रेल पटरी उसमें सहायक होती है और जब तक रेलके डिब्बोंमें मति नहीं होती तब तक रेल पटरी अपनी तटस्थ स्थितिमें ही बनी रहती है।
इसका तात्पर्य यह है कि रेल के डिब्बोमें गति तभी संभव है जब ऐंजन और रेल पटरी दोनोंका अपने-अपने ढंगसे सहयोग प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यातव्य है कि डिब्बोंमें ब्रेक लगा हो सो ऐंजनके क्रियाशील रहते और रेल पटरो के विद्यमान रहते हुए भी उन डिब्बोंमें गति नहीं हो सकती है । इसी तरह डिब्बों में अंक तो न लगा हो लेकिन ऐंजन और रेल पटरी दोनोंके सहयोगका या दोनों से किसी एकके सहयोगका अभाव हो रहा हो तो भी डिब्बोंमें गति नहीं हो सकती है।
इस तरह कार्योत्पत्ति में उपादान, प्रेरक निभित्त और उदासीन निमित्त तीनोंका अपना-अपना महत्त्व हैं। इनमेंसे उपादानका महत्त्व कार्यरूप परिणत होने में है, प्रेरक निमित्तोंका महत्त्व उपादानको कार्योत्पत्तिके प्रति तैयार करने में है और उदासीन निमित्तोंका महत्व कार्योत्पत्ति में उद्यत उपादानको अपना सहयोग प्रदान करने में है। यह भी ध्यातव्य है कि उपादान उसे कहते हैं जिसमें कार्यरूप परिणत होनेकी स्वभावतः योग्यता विद्यमान हो। इसलिए ऐसा नहीं समझना चाहिए कि प्रेरक निमित्त उपादानकी उस योग्यताको
न करता है। प्रेरक निमित्तोंका कार्य लो उस योग्यताको कार्यरुपसे विकसित होने के लिये प्रेरणा मात्र करना है।
उत्तर पक्षने ऊपर जो प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके लक्षणोंका निर्धारण किया है, वह पूर्वपक्षको मान्य नहीं है, क्योंकि उन लक्षणों के आधारसे दोनों ही निमित्त कार्योत्पतिमें अकिंचित्कर सिद्ध होते है, जबकि पूर्वपक्ष दोनों ही निमित्तोंको कार्योत्पतिमें पूर्वोक्त प्रकार कार्यकारी मानता है। इसी तरह पूर्वपक्ष द्वारा कहे दोनों निमित्तोंके लक्षण उत्तरपक्षको मान्य नहीं है, क्योंकि उन लक्षणोके आधारसे दोनों ही निमित्त कार्योत्पत्ति में कार्यकारी सिद्ध होते हैं जबकि उत्तरपक्ष दोनों ही निमित्तोंको कार्योत्पत्तिमें पूर्वोक्त प्रकार सर्वथा अकिचित्कर मानता है। अतः दोनों पक्षों द्वारा अभिहित इन दोनों निमित्तोंके दोनों प्रकारके लक्षणों के सम्यक्पने और असम्यक्पनेके विषय में यहाँ विशेष विचार करना उपयुक्त होगा। इतना स्पष्ट है कि दोनों ही पक्ष उपादानकी कार्यरूप परिणतिके अवसर पर दोनों निमित्तोंकी उपस्थितिको स्वीकार करते हैं। इतनी समानता पाई जाने पर भी दोनों पक्षोंके मध्य जो मतभेद है वह यह है कि उत्तरपक्ष उन्हें वहाँ सर्वथा अकिंचितर मानता है जबकि पूर्वपक्ष उन्हें वहाँ कार्योत्पत्तिमें उपादानके सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है। उत्तरपक्ष सम्मत दोनों निमित्तोंके लक्षण सम्यक नहीं है
उत्तरपक्षको मान्य दोनों निमितोंके लक्षण सम्यक नहीं है। इसका पहला कारण यह है कि यदि उनको कार्यात्पत्तिमें सर्वथा अकिचित्कर मान लिया जाता है तो कार्योत्पत्ति के अवसर पर अन्य वस्तुओंकी
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
उपस्थितिके समान इनकी उपस्थितिको भी निमित्त रूपसे स्वीकार करना संगत नहीं होगा। अथवा कार्योत्पत्ति के अवसर पर जिस प्रकार उक्त दोनों निमित्तोंकी उपस्थितिको निमित्त रूपसे स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार अन्य वस्तुओंकी उपस्थितिको भी वहाँ निमिस रूपसे स्वीकार करने का प्रसंग आयेगा। इसका दूसरा कारण यह है कि दोनों निमित्तोंको कार्योत्पत्ति के प्रप्ति सर्वथा अकिचित्कर मानने पर उनके पृथक्-पृथक् लक्षणोंके निर्धारणका कोई प्रयोजन नहीं रहता, क्योंकि दोनों निमित्तों में जो भेद है वह कार्योत्पत्ति के प्रति उनकी प्रेरकता और भप्रेरकता ( उदासीनता) रूप' पृथक-पृथक् उपयोगिताके रूपमें ही सार्थक माना जा सकता है। लेकिन जब कार्योत्पत्तिमें दोनों निमितोंको अकिचिकर मान लिया जाता है तो उनमें कार्योत्पत्तिके प्रति चाहें क्रिया द्वारा निमित्तता स्वीकार की जावे मा चाहें निष्क्रिवरूपसे निमित्तता स्वीकार की जाये, इससे उनकी कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्ततामें कोई अन्तर नहीं होता है। इस तरह उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत दोनों निमित्तोंके लक्षणोंका असम्यक्पना सिद्ध हो जाता है। पूर्वपक्ष द्वारा अभिहित दोनों निमित्तोंके लक्षण सम्यक हैं
पूर्वपक्षको मान्य दोनों निमित्तोंके लक्षण सम्यक है। इसका एक कारण यह है कि दोनों निमित्तोंको उपादानकी कार्यरूप परिणतिम अपने-अपने हमसे सहायक होन रूपसे यदि कार्यकारी मा जाता है तो इसरो कार्योत्पत्ति के अवसर पर उनकी निमित्तरूपसे उपस्थिति पत्रितयुक्त हो जाती है। दूसरा कारण मह है कि दोनों निमित्तोंको उपादानकी कार्यरूप परिणसिमें अपने-अपने ढंगमे सहायक होने रूपमें जब कार्यकारी मान लिया जाता है तो कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्तौके साथ कार्यको अन्धय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर निमित्तता स्वीकार करने और निमित्तोंकी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर निमित्तता स्वीकार करने के रूपमें पृथक-पृथक् सहायकत्व सिद्ध हो जानेसे प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंमें मन्तर सिद्ध है। इस तरह पूर्वपक्ष को मान्य दोनों निमितोंके लक्षणोका सम्यक्पना सिद्ध हो जाता है। उक्त लक्षणों के सम्यक्पने और असम्यक्पनेकी आगम द्वारा पुष्टि
परीक्षामुखसूत्र ३-६३ को प्रमेयरत्नमाला टोकामें ऐसा कथन पाया जाता है जो दोनों निमित्तोंके लक्षणोंका निर्धारण करता है । वह कयन निम्न प्रकार है :
___ "अन्वय-व्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्य प्रति कारणध्यापारसव्यपेक्षावेवोपपद्यन्ते कुलालस्पेव कलशं प्रति ।।"
अर्थ-कार्यकारणभावका निर्णय सर्वत्र कार्य और कारणके साथ विद्यमान अन्वय और व्यतिरेकके आधारपर ही करने योग्य है। वे अन्वय और व्यतिरेक कार्य के प्रति कारणभ्यापार सापेक्ष ही उपपन्न होते है। जैसे कलशरूप कार्यके प्रति कुम्भकाररूप कारणव्यापारसापेक्ष अन्वय और व्यतिरेक देखे जाते हैं।
इससे निर्णीत होता है कि कार्यकारणभावकी नियामक कार्य और कारणमें विद्यमान अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ ही है।
कार्य-कारणभात्र एक तो उपादानोपादेयभावरूप होता है जो उपादान कारण और उपादेय कार्य में पाया जाता है। इस उपादानोपादेवभावरूप कार्यकारणभावकी नियामक उपादान कारण और उपादेय कार्य में विद्यमान अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां होती है, जो इस प्रकार है-जिस वस्तु में जिस कार्यकी उपादानशक्ति (कार्य
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जयपुर (खानिया) तत्त्वर्चा और उसकी समीक्षा रूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता) विद्यमान रहती है उस वस्तुको ही उस कार्यरूप परिणति हो सकती है और जिस वस्तुमें जिस कार्यको उपादानशक्ति (कार्यरडा परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता) का अभाव रहता है उस वस्तुकी उस कार्यरूप परिणति त्रिकालमें कभी नहीं हो सकती है।
दूसरा कार्य-कारणभाय निमित्त-नैमित्तिकावरूप होता है जो निमित्तकारण और नैमित्तिक कार्य में पाया जाता है। इस निमित्त-नैमित्तिकभावरूप कार्यकारणभावकी नियामक भी निमित्त और नैमित्तिक कार्य में विद्यमान अन्वय और व्यतिरेक न्याप्तियां होती है ।
परीक्षामुख सूत्र ३-६३ की प्रमेय-रत्नमाला टीकाका जो उद्धरण आर दिया गया है उसमें जो "कुलालस्येव कलशं प्रति" के रूपमें दृष्टान्तपरक-कथन है जरासे अवगत होता है कि उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावके समान निमित्त नैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभाव भी होता है जिसकी उपयोगिता कायोत्पत्तिमें हुआ करती है । अर्थात् उपादान कारण जो अपनी कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताके आधारपर कार्यरूप परिणत होता है वह निमित्तोंका सहयोग मिलने पर ही होता है, अन्यथा नहीं। इसलिए जिस प्रकार कार्योत्पत्तिके प्रति पर बतलाये गये प्रकारकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां उपादान कारण और उपादेय कार्य में स्वीकृत की गई है उसी प्रार उसी कार्योत्पत्ति के प्रति निमित्तकारण और नैमित्त कार्य में भी अम्पय
और व्यतिरेक व्याप्तियां स्वीकार की गई है । इतना अवश्य है कि आगममें निमित्तकारण दो प्रकारके बतलाये गये है। एक प्रेरक निमित्तकारण और दूसरा अप्रेरक (उदासीन) निमित्तकारण । इन दोनों निमित्तकारणों की कार्यके प्रति अन्धय और व्यतिरेक व्याप्तियां भी आगमगे पृथक्-पृथक रूपमें निस्चित की गई हैं। अर्यात निमित्तोंका सहयोग मिलने पर ही उपादान कारण कार्यरूप परिणत होता है और जब तक उनका सहयोग उपादानकारणको प्राप्त नहीं होता तब तक वह कार्योत्पत्ति की स्वाभाविक योग्यताके सद्भावमें भी कार्यरूप परिणत होने में असमर्थ ही बना रहता है। ये कार्य के प्रति प्रेरक निमित्तकारणों में विद्यमान अन्दय और व्यतिरेक व्याप्तिया है। इसी प्रकार जब उपादानकारण कार्यरूप परिणत होता है तब निमित्त भी उसे अपना सहयोग प्रदान किया करते हैं और जब तक उपादान कार्यरुप परिणत होने के लिए उद्यत नहीं होता तब तक वे निमित्त भी अपनी तटस्थस्थितिमें बने रहते हैं। ये कार्यके प्रति अप्रेरक (उदासीन) निमित्तोंमें विद्यमान अम्बय और व्यतिरेक व्याप्तियां हैं। इसप्रकार यह प्रेरक और अप्रेरक अर्थात उदासोन दोनों निमित्तोंकी कार्यके प्रति अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंका स्पष्टीकरण है।
तात्पर्य यह फि जैनागममें कार्योत्पत्तिको व्यवस्था इस प्रकार स्त्रीवुत की गई है कि उपादान (कार्यरूपपरिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट पदार्थ) तो कार्यरूप परिणत होता है, परन्तु यह तभी कार्य रूप परिणत होता है जब उमे प्रेरक और अप्रेरक (उदारीन) निमित्तोंका सहयोग प्राप्त हो जाता है। उसको प्रेरक निमित्तोंका सहयोग प्रेरकताके रूप में और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तोंका सहयोग अप्रेरकता (उदासीनता) के रूप में मिला करता है । इस तरह उपादान कारण, प्रेरक निमित्तकारण और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तकारण इन तीनोंके रूपमें कारणराामग्रीफे मिलने पर ही कार्यात्पत्ति (उपादानकी कार्यरूप परिणति) होती है।
तीनों कारणोंमें जो कार्वोत्पत्तिके प्रति पूर्वोक्त प्रकारसे पृथक्-पृथक् अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती है उनमें उपादान कारण में जो कार्य के प्रति मन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां पायी माती हैं उन्हें अन्तानि नाम दिया गया है, क्योंकि उपादान कार्यरूप परिणत होता है। इसके अतिरिक्त
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
दोनों प्रकारके निमित्तों में जो कार्य के प्रति अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां पायी जाती हैं उन्हें बहव्याप्ति नाम दिया गया है, क्योंकि दोनों ही निमित करत होने वाले उपाधनके मात्र सहायक होते हैं। यह महिर्व्याप्ति प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकारके निमित्तोंमें पूर्वोक्त प्रकार भिन्नभिन्न रूपमें हैं । इन भिन्न-भिन्न रूपमें विद्यमान व बहिर्व्याप्ति नामसे कही जाने वाली अन्दय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर ही प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके पूर्वोक्त लक्षण निधारित किये गये हैं ।
१७
इस प्रकार पूर्वपक्षको मान्य दोनों निमित्तोंके पूर्वोक्त लक्षण आगमके आधारपर सम्यक् सिद्ध होते हैं । तथा उत्तरपक्षको मान्य पूर्वोक्त निमित्तोंके लक्षणोंके समर्थन में उत्तरपक्षने न तो कोई आगम प्रमाण प्रस्तुत किया है और न ऐसा आगमप्रमाण उपलब्ध हो होता है । अतः उनका असम्यक्पना स्पष्टतया विदित हो जाता है ।
आगमप्रमाणोंके आधारपर ऊपर दोनों निमित्तोंके सम्यक् लक्षणोंका जो निर्धारण किया गया है उससे कार्योत्पत्ति के प्रति दोनों निमित्तोंकी कार्यकारिताका समर्थन होता है. अकिचित्करताका नहीं। आगे प्रमाणके आधारपर उनकी इस फार्मकारिताका और भी समर्थन किया जाता है ।
पूर्व में बतलाया जा चुका है कि उत्तरपक्षके द्वारा प्रथम दौर में उद्घृत प्रवचनसार गाथा २७७ ।। १६९ ।। और उसकी टीकासे व समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकासे कार्यके प्रति प्रेरक निमित्तोंकी उपादानका सहायक होने रूपसे कार्यकारिता स्पष्टतया सिद्ध होती है। इन आगमप्रमाणके अतिरिक्त समयसार गाथा ९१ से भी कार्योत्पत्तिके प्रति प्रेरक निमितोंकी कार्यकारिता सिद्ध होती है। वह गाथा निम्न प्रकार है
जं कुइ भागमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स ।
कम्मत परिणमदे तम्हि सयं पुग्गल दव्वं ॥ ९१ ॥
अर्थ - आत्मा अपने जिस परिणामको करता है उसका वह कर्ता होता है और आत्माके उस परिगामके होनेपर पुद्गल द्रव्य स्वयं (अपनी योग्यतानुसार ) कर्मरूप परिणत होता है ।
इसी तरह पुरुषार्थसिद्धयुपायकी कारिका १२ से भी कार्योत्पत्तिके प्रति प्रेरक निमित्तोंकी कार्यकारिता सिद्ध होती है । वह कारिका भी निम्न प्रकार है
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥
अर्थ — जीवद्वारा कृत परिणामको मात्र निमित्तरूपसे प्राप्त कर अन्य पुद्गल वह स्वयं ( अपनी योग्यताके अनुसार) कर्म रूपसे परिणत होते हैं ।
इन सब आगमप्रमाणोंसे प्रेरक निमिलोंकी उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारिता स्पष्ट सिद्ध होती है, अकिचित्करता नहीं, क्योंकि इन सब स्थलोंमें प्रेरक निमित्तों के साथ कार्यकी अन्वय और व्यतिरेकव्याप्तियाँ हैं ।
इसी तरह पूर्वपक्षाने अपने द्वितीय' दौर में जो पंचास्तिकायकी गाथा ८७ और ९४ की आचार्य
१. देखो, त० च० पृ० २ ।
२. देखो, त० च० १०५ ।
२३
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा
अमृतचन्द्रकृत टीकाओंको उद्धृत किया है उनसे उदासीन निमित्तोंकी भी कार्यकारिता सिद्ध होती है, अकिचित्करता नहीं । क्योंकि इन स्थलोंमें उदासीन निमित्तोंकी भी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तिाँ सिद्ध है। इसी तरह सर्वार्थसिद्धि (५-२२) में अपनी योग्यतानुसार परिणमन करने वाले धर्मादिद्रव्योंकी स्वकीय पर्यायरूप कार्योत्पत्ति में कालको जो अनिवार्य उदासीन कारण बतलाया गया है, उससे भी उदासीन निमित्तोंकी कार्यकारिता सिद्ध होती है। सर्वार्थसिद्धिका वह उद्धरण भी पूर्वपक्ष ने अपने द्वितीय दौर में दिया है।
इस तरह जब उपर्युक्त आगमप्रमाणोंके आधारपर प्रेरक और उदासीन दोनों ही निमित्तोंकी उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारिता सिद्ध होती है तो उत्तरपक्षने जो उन्हें वहाँ उपस्थित कर अकिंचित्कर माना है वह आगमबाधित हो जाता है। प्रेरक और उदासीन दोनों निमितोंकी भिन्नताका स्पष्टीकरण पूर्व में किया ही जा चुका है ।
इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि और इष्टोपदेश तथा उसको टीकाके जो उद्धरण उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दौरमें दिये है उनसे यद्यपि प्रेरक और सदासीन दोनों प्रकारके निमित्तोंमें कार्योत्पत्तिके प्रति हेतुकतुरूप कारणताकी समानता सिद्ध होती है। परन्तु उनकी यह समानता पूर्व पक्षको मान्य कार्योत्पत्ति उपादानकारणके प्रति सहायक होनेके आधार पर कार्यकारिताके रूपमें हो जानना चाहिए, उत्तरपक्षको मान्य सहायक न होनेके आधार पर अकिंचित्करताके रूपमें नहीं ।
तात्पर्य यह फि निमित्त चाहे प्रेरक हो, या उदासीन, दोनों ही उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार कार्योस्पत्तिमें उपादानभूत कारणके प्रति सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी ही सिद्ध होते हैं। दोनों या दोनोंमेंसे कोई भी निमित्त वहाँ उपादान भूत कारणके प्रति सहायक म होने रूपसे अकिंचित्कर सिद्ध नहीं होते । प्रकृत विषयका उपसंहार
प्रकृत विषयमें जो तथ्य सामने आते है वे इस प्रकार हैं
१. उत्तरपक्षने पंचास्तिकाय गाथा ८८ के आधार पर जो निमित्तकारणके प्रेरक और उदासीन दो भेद स्वीकार किये हैं उन्हें पूर्व पक्ष भी स्वीकार करता है।
२. उत्तरपक्षने सर्वार्थसिद्धि (५-२२) के आधार पर प्रेरक और उदासीन दोनों ही निमित्तोंमें जो हेतुकर्तृत्व मान्य किया है उसे भी पूर्वपक्ष स्वीकार करता है।
३. जहाँ उत्तरपक्ष हेतु कर्तृत्वके आधार पर प्रेरक और उदासीन दोनों ही निमित्तोंको अविचित्कर मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसी हेतुकर्तृत्वके आधार पर दोनोंको कार्यकारी स्वीकार करता है।
४. उत्तरपक्षने दोनों निमित्तोंकी अकिंचित्करताको सिद्ध करने के लिए जो उनके लक्षण दिमे है पूर्वपक्षने उनकी कार्यकारिताको सिद्ध करने के लिए उनसे भिन्न उनके लक्षण प्रस्तुत किये हैं और जो आगम प्रमाणोसे समर्थित है।
१. देखो, त.च. पृ० ५ । २, देखो, त० चपृ०७।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
५. जहाँ उत्तर पक्षका कहना है कि प्रेरक निमित्तोंके वलये किसी द्रव्यके कार्यको आगे-पीछे नहीं किया जा सकता है वहाँ पूर्व पक्षका कहना है कि 'प्रेरक तिमित' शब्द से ही यह ध्वनित होता है कि उनके बलसे कार्यको आगे-पीछे भी किया जा सकता है ।
इस प्रकार गहरा विमर्श करने पर अवगत होता है कि पूर्वपक्ष की मान्यताएँ संगत हैं और उत्तरपक्ष की मान्यताएँ रांगत नहीं हैं ।
११
उत्तरपक्षका संभावित भय और उसका निराकरण
आगे उत्तरपक्ष के उस भयका भी निराकरण किया जाता है जो उसे दोनों निमित्तोंको कार्यकारी मानने पर प्रेरक निमित्तोंके बलसे कार्यके आगे पीछे होनेकी मान्यता से उत्पन्न हो गया है ।
यतः पूर्वपक्ष ने दोनों प्रकारके निमित्तोंको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी माना है और उसने यह भी स्वीकार किया है कि प्रेरक निमित्त और कार्यमें विद्यमान पूर्वोक्त अन्दय और व्यतिरेकव्याप्तियोंके अनुसार उस प्रेरक निमित्त के बलसे कार्य आगे पीछे किया जा सकता है, अतः उत्तरपक्षको यदि यह भय हो कि इस तरह तो प्रेरक निमित्त के बलसे उपादानमें विपरीत कार्य भी हो सकता है । फलतः अज्ञ विज्ञताको और विज्ञ अज्ञताको प्राप्त हो जाएगा तथा शुकके समान बक ( बगुला ) को भी पढ़ाया जा सकेगा, तो उसका यह भय निराधार है, क्योंकि पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि कारसिकी स्वाभाविक योग्यताके अभाव में कोई वस्तु प्रेरक निमित्त के बलसे उस कार्य रूप परिणत नहीं हो सकती है | प्रेरक निमित्त तो कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तुको ही उस कार्य रूप परिणत होने में प्रेरणा कर सकता है। अर्थात् प्रेरक निमित्त उसी वस्तुको उस कार्योत्पत्ति के प्रति प्रेरित करता है जिसमें उस कार्यकी स्वाभाविक योग्यता विद्यमान रहती है ।
उपादान कार्योत्पत्ति के लिए प्रेरक निमित्तोंकी प्रेरणा इसलिए आवश्यक है कि उनकी प्रेरणा प्राप्त किये बिना उपादान कार्योत्पत्तिकी स्वाभाविक योग्यता के सद्भावमें भी अपने में उस कार्यको उत्पन्न नहीं कर सकता है । या उत्तरपक्ष यह दावा कर सकता है कि कुम्भकाररूप प्रेरक निमित्त की प्रेरणा प्राप्त किये बिना ही मिट्टी अपने में घटकार्यको उत्पन्न कर सकती है ? अर्थात् नहीं कर सकती है क्योंकि वह मिट्टी से होनेवाली घटोत्पत्ति के अवसर पर घटानुकूल व्यापार करते हुए कुम्भकाररूप प्रेरक निमित्तकी अनिवार्य उपस्थितिको स्वीकार करता है फिर भले ही वह यह मानता रहे कि उक्त अवसरपर कुम्भकार रूप प्रेरक निमित्तको उपस्थिति रहते हुए भी मिट्टी स्वयं ( अपने आप ) अर्थात् कुम्भकार की प्रेरणा प्राप्त किये बिना ही अपने घटको उत्पन्न कर लेती है और कुम्भकार वहाँ सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है । परन्तु उसकी यह मान्यता प्रमाणसम्मत नहीं है । जैसा कि इससे पूर्व स्पष्ट किया जा चुका है ।
पूर्वपक्ष आगमप्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध कर चुका है कि उपादानरूप पदार्थकी जो कार्यरूप परिणति उसमें विद्यमान कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है वह प्रेरक और साथ ही अप्रेरक निमित्तोंका सहयोग मिलने पर ही होती है, स्वयं (अपने आप ) नहीं । इस तरह उपादानकी कार्यरूप परिणति में प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकारके निमित्त अपने-अपने ढंग से सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी स्पष्ट सिद्ध होते हैं। वे वहाँ पर सर्वथा अकिंचित्कर नहीं बने रहते हैं ।
इष्टोपदेश के पद्य ३५ और उसकी टीका में निर्दिष्ट 'स्वाभाविकं हि निष्पत्ती' व 'बच्चे पतत्यपि ' इन दोनों का इतना ही अभिप्राय है कि कार्यकी स्वाभाविक योग्यताके अभाव में केवल निमित्तोंके बलपर
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अयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ही वस्तुकी कार्यरूप परिणति नहीं होती है। इनसे यह निष्कर्ष निकालना सही नहीं है कि कार्य केवल उपादानकारणभूत वस्तुकी स्वाभाविक योग्यताके बलपर ही हो जाता है और निमित्त वहाँ अफिचिकर ही बना रहता है। सत्य तो यह है कि कार्यरूप परिणति स्वयं उपादानकी होती है और वह उसमें विद्यमान स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है । परन्तु वह प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग मिलनेपर ही होती है। इस तरह दोनों निमित्त उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होंने रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध होते हैं । वे वहाँ सर्यथा अकिंचित्कर नहीं रहते हैं । यह पूर्वमें विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है तथा इष्टोपदेश पद्य ३५ में व उसको टीकाके 'नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेप: प्राप्नोति' इत्यादि कथनमें भी "निमित्त' शब्दका प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ टीकाके 'धर्मास्तिकायस्तु गत्युपग्राहकद्रव्यविशेषस्तस्याः सहकारिकारणं स्यात्' इस वचनके भाधारपर सहकारी कारण होता है। इस तरह दोनों निमित्तोंकी कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे अनिवार्यता सिद्ध है । यहाँ इतना स्पष्ट करना इसलिए आवश्यक हुआ कि उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिमें यदि उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त इन तीनोंको पूर्वोक्त प्रकार पृथक्-पृथक् उपयोगिताको समझ ले और यह भी समझ ले कि कार्योत्पत्ति उपादानमें ही होती है और उपादानगत कार्यानुकूल योग्यताके अनुरूप ही होती है, परन्तु प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग मिलनेपर ही वह होती है, तो प्रेरक निमित्तके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है यह मान्यता दोनों पक्षों के मध्य निविवाद सिद्ध हो जायेगी और तब उत्तरपक्षका बह भय भी समाप्त हो जायेगा।
उत्तरपक्ष संभवतः यह भी सोचता है कि यदि उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें प्रेरक और उदामीन निमित्त कारणोंका सहयोग अपेक्षित माना जाये तो उपादानकी तरह दोनों निमित्तकारणोंका कार्य में प्रवेश भी स्वीकार करना अनिवार्य हो जायेगा, सो उसका ऐसा सोचना मिथ्या है, क्योंकि उपादानको कार्यरूप परि
तिमें उक्त दोनों निमित्तोंका सहयोग आवश्यक होने पर भी उसका ज्यादान की तरह कार्यमें प्रवेश न तो संभव है और न आवश्यक ही है। निमित्तोंका कार्यमें प्रवेश सम्भव क्यों नहीं ?
जिस कारणके साथ कार्यका तादात्म्य सम्बन्ध होता है उसी कारणका कार्यमें प्रवेश हो सकता है। जिस कारणके साथ कार्यका तादात्म्य सम्बन्ध न हो किन्तु संयोग सम्बन्ध हो उस कारणका कार्य में प्रवेश कदापि नहीं हो सकता है, क्योंकि दो वस्तुयें परस्पर संयुक्त होकर भी एक नहीं हो सकती हैं। इस तरह तादात्म्य सम्बन्ध होनेके कारण उपादानका तो कार्य में प्रवेश होता है लेकिन तादात्म्य सम्बन्ध न होकर संयोग सम्बन्ध होने के कारण दोनों निमित्तोंका कार्य में प्रवेश संभव नहीं है। निमित्तोंका कार्यमें प्रवेश अनावश्यक क्यों ?
निमित्तोंका कार्य में प्रवेश अनावश्यक है, क्योंकि कारणका कार्यरूप परिणत होना एक बात है और उनका उसमें सहायक होना अन्य बात है। जैसे पीललके बर्तनमें रखा गया घी विकृत हो जाता है । इसमें ज्ञातव्य बात यह है कि विकृत तो घी होता है और वह उसमें विद्यमान विकृत होनेको निजी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार विकृत होता है, परन्तु वह तभी विकृत होता है जब उसे पीतलके बननमें रख दिया जाता है । इसके पूर्व उसमें विकृत होनेकी स्वाभाविक योग्यताका सद्भाव रहते हुए भी वह विकृत नहीं होता है । लोकमे ऐसा जानकर ही चीको पीतलके बर्तन में रखना अभीष्ट नहीं माना जाता है। इससे स्पाट समझमें आता है कि पीकी विकाररूप परिणतिमें चीमें विद्यमान उसकी स्वाभाषिक योग्यता अनुसार होकर भी पीतलके
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
बर्तनका संयोग मिलने पर ही होती है उसके बिना नहीं । इसका निष्कर्ष यह है कि न तो पीतलका बर्तन घी को विकाररूप परिणति में प्रविष्ट होता है और न पीतल के बर्तन के संयोगके अभाव में घी ही विकृत होता है किन्तु पीतलका वर्तन त्रीकी विकृत परिणतिमें संयोग सम्बन्धके आश्रयसे सहायक मात्र होता है। इससे सिद्ध होता है कि पीतल के बर्तनका घीको विकृतिमें प्रवेश आवश्यक नहीं है ।
२१
यदि कहा जाये कि जब पीतलके वर्तनका प्रवेश घीकी विकारी परिणतिमें नहीं होता तो उसे उस कार्य में सहायक न मानना ही उचित है, तो इसका उत्तर यह है कि पीतल के बर्तनमें बीके न रखनेपर उसके विकृत होने की संभावनाको ऊपर निरस्त किया जा चुका है। इस तरह यह मानना ही उचित है कि जीकी विकृत परिणति में दीसलका सहायका कारण होता है तथा संयोग सम्बन्धके साथ सहायक कारणता या निमित्तकारणताका कोई विरोध भी नहीं है । इसी प्रकारकी स्थिति 'मिट्टी घड़ा बनती है' ओर 'कुम्भकार घड़ा बनाता है' इत्यादि स्थलोंमें भी जान लेना चाहिए ।
यहाँ उत्तरपक्ष यदि यह कहे कि निमित्तका कार्य में प्रवेश न होनेसे वह अकिचित्कर माना गया है तो पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि इस मान्यता के विषय में पूर्वपक्षका उत्तरपक्ष के साथ कोई विरोध ही नहीं हैं। विवाद तो केवल दोनों पक्षोंके मध्य इस बातका है कि निमित्तको जहाँ पूर्वपक्ष कार्यमें उपादानका सहायक होने के आधारपर कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उसे वहाँ पर उपादानका सहायक न होने के आधारपर अर्कचित्र हो मान लेना चाहता है ।
उत्तरपक्ष द्वितीय दौरके इसी भागमें 'यः परिणमति स कर्ता इत्यादि समयसार कलश के आधारपर ओकर्ताका लक्षण 'जो परिणमन करता है अर्थात् परिणत होता है वह कर्ता होता है' ऐसा माना गया है सो इसके विषय में भी पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ कोई विरोध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष भी उत्तरपक्षकी तरह उपादानको ही कार्यरूप परिणत होने के आधारपर कर्ता मानता है । यतः उसकी भी मान्यतामं निमित्त कार्यरूप परिणत नहीं होता अतः उसे वह भी उत्तरपक्षकी तरह कर्ता नहीं मानता है और मानता भी है तो उतरपक्षके समान वह भी उसे उपचारसे ही कर्ता मानता है। दोनों पक्षोंकी इस मान्यतामें यदि कोई अन्तर है तो वह इस बात का है कि पूर्वपक्षको मान्यता में निमितको उपचरितकर्ता माननेका आवार निमित्त का कार्यरूप परिणत होने में उपादानकी सहायता करना जबकि उत्तरपक्षकी मान्यतामें निमित्तको उपचरितकर्ता माननेमें कोई आधार नहीं निश्चित किया गया है, क्योंकि वह उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त को सर्वथा अकिंचित्कर मानता है ।
है
इसी प्रकार उत्तरपक्षने द्वितीय दौरके इसी भागके अन्त में यह भी लिखा है कि 'अतएव निमित्त - कर्ताको व्यवहार (उपचार) से कर्ता मानना मुक्तिसंगत है, क्योंकि एक द्रव्यका कर्तृधर्म दूसरे द्रव्यमें उपलब् नहीं होता" सो दोनों पक्षोंके मध्य इस विषय में भी कोई विरोध नहीं है। विरोध तो दोनों पक्षों के मध्य सामान्य रूपसे प्रेरक और उदासीन दोनों ही प्रकारके निमित्तोंको कार्यात्पत्ति में उपादानका सहायक रूपसे कार्यकारी मानने, न माननेका है और विशेषरूपसे द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्मा के रिकारभाव तथा चतुर्गति मण में सहायकरूपसे कार्यकारी मानने, न माननेका है। इसलिये उत्तरपक्षको अपने वक्तव्यमें इसी विषयपर अपना मन्तव्य प्रकट करना चाहिए था। परन्तु उसमें अपना मन्तव्य न तो इस विषय में स्पष्ट रूपसे
१. देखो त० च० पृ० ९
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जयपुर (खानिया) सत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रकट ही किया है और न करना ही चाहता है। यही कारण है कि वह अप्रकृत और निर्विवाद विषयोंकी चर्चा में स्वयं उलझ गया है और उनकी ही चर्चा में पूर्वपक्षको भी उसने उलझने की चेष्टा की है । यह योग्यतासे वस्तुकी नित्य उपादानशक्ति ही अभिप्रेत है
पूर्व में बतलाया जा चुका हूँ कि कोई भी कार्य उसी वस्तुमें उत्पन्न होता है या वही वस्तु कार्यरूप परिणत होती है जिसमें उस कार्यकी उत्पत्तिकी स्वाभाविक योग्यताका सद्भाव रहता है। यहाँ कार्योत्पत्तिके प्रसंग में स्वीकृत स्वाभाविक योग्यतासे वस्तुएँ विद्यमान नित्य उपादानशक्तिरूप क्रमशक्तिका ही ग्रहण अभिप्रेत है, अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिका ग्रहण अभिप्रेत नहीं हैं । इसका कारण यह है कि after उपादानशक्ति कार्यरूप ही होता है और उसकी उत्पति वस्तुमे ( दव्य ) विद्यमान नित्य उपादानशक्तिके अनुसार प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकारके निमित्तोंके सहयोग से ही हुआ करती है । उसे जो अनित्य उपादान शक्ति कहा जाता है उसका कारण यह है कि उसके अनन्तर उत्तरकालमें ही उक्त नित्य उपादानशक्तिविशिष्ट वस्तु दोनों ही प्रकारके निमित्तोंके सहयोगसे अन्य कार्यरूप अनित्य उपादानशक्ति प्रगट होती है। यहाँ भी यह ज्ञातव्य है कि उत्तरकाल में प्रगट होनेवाली उस अनित्य उपादान शक्ति के कार्यरूप होने पर भी उसके उत्तरकालमें प्रगट होनेवाली पर्यायरूप कार्यकी अपेक्षा उसे अनित्य उपादान शक्ति कहा जाता है। इस कथन की संगति प्रमेयकमलमार्तण्डके निम्नलिखित उद्धरणसे जानी जाती है-
" यच्चोच्यते शक्तिनित्या अनित्या वैस्यादि । तत्र किमयं द्रव्यशक्ती पर्यायशक्ती वा प्रश्नः स्यात् ? भावानां द्रव्यपर्यायशत्यात्मकत्वात् । तत्र द्रव्यशक्ति नित्य अनादिनिधनस्वभावत्वाद् द्रव्यस्य पर्यायशक्तिस्वनित्यैव सादिसपर्यवसानत्वात् पर्यायाणाम् । न च द्रव्यशक्ते नित्यत्वे सहकारिकारणानपेक्षयैवार्थस्य कार्यकारित्वानुषंग द्रव्यशक्तेः केवलायाः कार्यकारित्वानभ्युपगमात् । पर्यायशक्तिसमन्विता हि द्रव्यशक्तिः कार्यकारिणी विशिष्टयपरिणतस्यैव द्रव्यस्य कार्यकारित्वप्रतीतेः । तत्परिणतिश्चास्य सहकारिकारणापेक्षयैव इति पर्यायशक्तेस्तदेव भावान्न सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगः सहकारिकारणापेक्षावयर्च्य च ।" प्र० क० मा० २-२ पत्र ५२ शास्त्राकार, निर्णयसागरीय प्रकाशन |
अर्थ — और जो कहा जाता है कि शक्ति नित्य है या अनित्य इत्यादि ? वहाँ यह प्रश्न द्रव्यशक्तिके विषय में है या शक्तिके विषय में ? क्योंकि पदार्थ द्रव्य और पर्याय उभयशक्ति सम्पन्न होते हैं । इनमें से द्रव्यशक्ति नित्य ही है, क्योंकि द्रव्य अनादिनिधन स्वभाववाला होता है। पर्यामशक्ति तो अनित्य ही है। क्योंकि पर्यायें सादि और सान्त होती हैं। यदि कहा जाये कि द्रव्यशक्तिके नित्य होनेसे सहकारी कारणों की अपेक्षा किये बिना हो पदार्थ में कार्यकारिताका प्रसंग आयेगा, सो ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल द्रव्यशक्तिको कार्यकारी नहीं माना गया है। पर्यायशक्ति से समन्वित द्रव्यमें ही कार्यकारिश्व स्वीकार किया गया है, क्योंकि विशिष्ट पर्यायरूपसे परिणत द्रव्यमें ही कार्यकारित्वकी प्रतीति होती है । द्रव्यको पर्यायरूप परिणति सहकारी कारणोंकी सापेक्षतामें ही होती है। इस प्रकार पर्यायशक्तिकी उत्पत्ति सहकारी कारणोंकी सापेक्षता में ही होनेके कारण न तो सर्वदा कार्योत्पत्ति होती है और न सहकारी कारणों की व्यर्थता हो सिद्ध होती है ।
कमलमा के इस कथनसे तीन बातें निश्चित होती हैं- एक यह कि निश्य उपादानशक्ति अर्थात् द्रयशक्तिरूप स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तु हो कार्यरूप परिणत होती है। दूसरी यह कि जब वस्तु अनित्य उपादान शक्तिरूप पर्याक्शक्ति के रूपमें परिणत हो जाती हैं तभी वह कार्यरूप परिणत होती है और तीसरी यह कि वह अनित्य उपादानशक्ति अर्थात् पर्यायशक्तिरूप परिणति सहकारी कारणोंके मिलने
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काका-समाधान १ की समीक्षा
पर ही होती है। कार्योत्पत्तिकी यह प्रक्रिया प्रत्येक वस्तुमें अनादिकालसे चली आई है और अनन्तकाल तक चली जायेगी । यद्यपि कार्योत्पत्तिकी ऐसी ही प्रक्रियाको पूर्वपशकी तरह उत्तरगक्ष भी स्वीकार करता है। परन्तु पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंकी मान्यताओंमें अन्तर यह है कि जहां उत्तरपक्ष यह मानता है कि कार्योत्पत्ति तो बस्तुको योग्यतानुसार होती है और सर्वदा उसके अनुकल ही निमित्त मिलते रहते हैं वहाँ पूर्वपक्ष यह मानता है कि वस्तुमें कार्योत्पत्तिकी योग्यताके अनुसार कार्योत्पत्तिके होनेपर भी जब जैसे निमित्त मिलते है उनके अनुसार ही उस योग्यताके आधारपर कार्य उत्पन्न हुक्षा करते हैं। जैसा कि उपर्युक्त प्रमेयकमलमार्तण्डके उद्धरणसे प्रकट है । कार्योत्पत्तिके विषयमें उत्तरपक्षका एक अन्य दृष्टिकोण और उसका निराकरण
उत्तरपक्षने द्वितीय दौरके इसी भागमें इष्टोपदेशके पद्य ३५ और उसकी टीकाको उद्धृत कर उनका अर्य करते हुए अन्त में इस प्रकारका निष्कर्ष निकाला है कि "इस प्रकार इष्टोपदेशके उक्त आगम वचन और उसकी टीकासे स्पष्ट शात होता है कि निमित्तकारणों में पूर्वोक्त प्रकारसे दो भेद होने पर भी उनकी निमित्तता प्रत्येक व्यके कार्यके प्रति समान है। कार्यका साक्षात उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं ।"-त. प. पृ०८।
उत्तरपक्ष द्वारा निकाले गए इस निष्कर्षकी समीक्षा करनेसे पूर्व यहां उसके द्वारा उक्त पद्य और उसकी टीकाके किये गमे अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक है
१. उक्त पद्य ( ३५ ) का अर्थ करते हुए उत्तरपक्षने लिखा है कि "अन्य द्रव्य अपनी विवक्षित पर्यायफे द्वारा उस प्रकार निमित्त है जिस प्रकार धर्मास्तिकाय गतिका निमित्त है।" -त. च पृ1
इसमें "अपनी विवक्षित पर्मायके द्वारा" इस अंशका बोधक कोई पद पद्य में नहीं है। यह पद्यार्थी अतिरिक्त है जो अनावश्यक है। यदि उत्तरपक्षकी दृष्टिमें वह आवश्यक है तो एक तो उसका निर्देश पद्य में किसी पदके द्वारा किया जाना चाहिए था। दूसरे, इस अंशको धर्मास्तिकायपदके साथ भी सम्बद्ध करना था । मालूम पड़ता है कि "अन्य द्रव्य" पदके साथ उसे सम्बद्ध करने और "धर्मास्तिकाय" पदके साथ सम्बद्धन करने में उत्तरपक्षका अभिप्राय अन्य द्रव्य और धर्मास्तिकायमें प्रेरक निमित्तता और उदासीन निमित्त ताका भेद दिखलाकर उनमें अकिपित्करताके रूपमें समानता बतलानेका है । परन्तु वह प्रमाणसंगत नहीं है, क्योंकि उनमें कार्यकारिताकी सिद्धि और अकियित्करताका निषेध पुष्ट प्रमाणों द्वारा किया जा चुका है।
२. टीकागत "बजे पतत्यपि" इत्यादि पद्य का अर्थ उत्तरपक्षको इस प्रकार करना चाहिए था कि जिसके भयसे सम्पूर्ण लोक दोलायमान हो जाता है और जिसका मार्ग किसीसे अवरुद्ध नहीं होता, उस बाके गिरने पर भी विवेकरूपी प्रदीपसे मोहरूपी महान अंधकारको नष्ट करनेवाले प्रशमवान् सम्यग्दृष्टि जीव जब योगसे चलायमान नहीं होते है तो वे अन्य परिषहों ( उपद्रवों ) से कैसे चलायमान हो सकते हैं?
३. "नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह- अन्यः पुनर्गुरुविपक्षादिः प्रकृतार्थसमुत्पादभ्रंशयोनिमितमानं स्यात् । तत्र योग्यताया एव साक्षात् साधवात्वात" इस उद्धरणका अर्थ आवश्यक होते हुए भी उत्तरपक्षने नहीं किया है। वह अर्थ निम्न प्रकार है
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जयपुर { खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा "यदि केवल योग्यताके पलसे ही कार्योत्पत्ति स्वीकार की जाये तो बहो बाह्म निमित्तोंको सापेक्षता समाप्त हो जायेगी। सो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि अन्य गुरु व विपक्ष आदि प्रकृतार्थके उत्पाद और भ्रंशमें निमित्त मात्र होते हैं । योग्यता ही साक्षात् उत्पादक हुआ करती है।"
यहाँ निमित्तका अर्थ सहकारी कारण है यह जानकारी टीकाके "धर्मास्तिकायस्तु गत्युपग्रह प्रव्यविशेषस्तस्याः सहकारिकारणमा स्यात्" इस कथनसे प्राप्त होती है ।
इस तरह "नन्वे" इत्यादि कयनसे और उसमें पठित "योग्यतायाः" पदका "साक्षात्"पद विशेषण होनेसे निमित्तोंकी कार्यकारिता ही सिद्ध होती है, जिसका निषेध उत्तरपक्ष करना चाहता है, क्योंकि "योग्यतायाः" पदका "साक्षात्" विशेषण तभी सार्थक हो सकता है जब निमित्तोंको कार्य प्रति कार्यकारी माना जाए । मालूम पड़ता है कि इसीलिए "नम्वेद'' इत्यादि कथनका अर्थ उत्तरपक्षने अपने बक्सम्यमें नहीं किया है।
४. "कस्याः को यथा" इत्यावि टीकाका अर्थ उत्तरपक्षने जो किया है उसमें "तवैकल्ये तस्याः केनापि फारस्यत्वाद" श यादमा बसन किया है कि "उसके विरुद्ध योग्यता होने पर उसे कोई भी करने में समर्थ नहीं है।"'सो इसके स्थान में यह अर्थ करना चाहिए कि "उस योग्यता (गतिशक्ति) के अभावमें उसे (उस गतिशक्तिको) कोई भी करने में समर्थ नहीं है ।"
"तवैकल्ये" पक्षका अर्थ 'उसके विरुद्ध योग्यता होने पर" करना सर्वथा गलत है। यहाँ उसका अर्थ तो "उस योग्यता ( गतिशक्ति ) का अभाव होने पर" सन्दर्भसंगत है और टीकाकारको भी वही विवक्षित है।
इष्टोपदेश पद्य ३५ और उसकी टीकाके अर्थ पर ऊपर जो दष्टि डाली गई है उसका उद्देश्य यही है कि इससे उत्तरपक्षके द्वारा निकाले गये निष्कर्ष कितने अप्रामाणिक है, यह प्रकट हो जाता है। आगेके विवेचनसे यह और भी स्पष्ट हो जाता है।
उत्तरपक्षने इष्टोपदेशके उक्त पद्म और उसकी टीकासे जो निष्कर्ष निकाले हैं उनसे उन तीन बातोंका संकेत मिलता है जिनसे उत्तरपक्षका कार्योत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टिकोण ज्ञात हो जाता है ।
१.पहली बात यह है कि उत्तरपक्ष उक्त पद्य ३५ और उसकी टीका आधारपर निमित्तोंके प्रेरक और उदासीन दो भेद स्वीकार कर दोनोंमें समानता मानता है ।
२. दूसरी बात यह है कि वह उनत पद्य और उसकी टीकाके आधारपर सिद्ध समानताको प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी अकिचित्करताके रूपमें स्वीकार करता है।
३. तीसरी बात यह है कि कार्योत्पत्तिकी योग्यतासे यह नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिको न ग्रहण कर कार्यकालकी योग्यताके रूपमें अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिको स्वीकार करता है।
इन तोनों बातोंमें पहली और दूसरी दोनों बातोंके विषयमें आगमप्रमाणोंके आधारपर पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि नरक और उदासीन दोनों निमित्तोंकी स्वीकृति निर्विवाद है और उनमें समानताको स्वीकृति भी निर्विवाद है। परन्तु दोनोंकी समानताको जहाँ उत्तरपक्ष कार्यके प्रति उनकी अकिंचित्करताके
१. देखो, त० च० पू० ८।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
रूपमें स्वीकार करता हूँ वहाँ पूर्वपक्ष उनकी समानताको कार्योत्पत्ति के प्रति कार्यकारिताके रूप में स्वीकार करता है । यह भी आगमप्रमाणों के आधारपर पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है ।
तीसरी बात विषयमें हमारा कहना है कि उत्तरपक्षने इष्टोपदेश पद्य ३५ और उसकी टीका में 'योग्यता' शब्दसे जो कार्यकालकी योग्यता के रूप में अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिको ग्रहण किया है। वह संगत नहीं है, क्योंकि उक्त पद्म और उसकी टीकासे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है, जिसके आधारपर 'योग्यता' शब्द से कार्यकालकी योग्यताको ग्रहण किमा जाम ।
उक्त पद्म और उसकी उद्धृत की गयी टीका में कोई भी ऐसा पद या वाक्य नहीं है, जो कार्यकालको योग्यताके रूपमें अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिका ग्रहण प्रकट करें और योग्यतासे नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिका निषेध करें। यह गहराईसे देखनेपर स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। प्रमेयकमलमार्तण्डके उपर्युक्त उद्धरण से यह दिनकर प्रकाश की तरह और भी अधिक स्पष्ट है ।
प्रमेयकमलमार्तण्डके उपर्युक्त उसे प्रकट है कि वस्तुमें अभित्यपादानतिरूप पर्यायशक्तिकी उत्पति कार्यरूप होनेसे उस वस्तुको स्वाभाविक नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिके अनुसार प्रेरक निमित्तों का सहयोग प्राप्त होनेपर ही होती है । अत: उन्हें (प्रेरक निमित्तों को) अकिचित्कर कदापि नहीं माना जा सकता है । दूसरे, अनित्य उपादानशतिरूप पर्यायशक्तिकी वस्तु उत्पत्ति हो जानेपर भी यह नियम नहीं माना जा सकता है कि उसके अनन्तर उत्तरकालमें विवक्षित पर्यायकी ही उत्पत्ति होती है अन्य पर्यायको नहीं, क्योंकि आगमप्रमाणोंके आधारपर सिद्ध है कि वस्तुमें स्वाभाविक निरय उपादान शक्तिरूप द्रव्यशक्तिके अनुसार उसी पर्यायकी उत्पत्ति होती है, जिसके अनुकूल प्रेरक निमित्तोंका सहयोग उसे उस समय प्राप्त होता है । इस तरह उत्तरपक्ष की यह मान्यता गलत हो जाती है कि द्रव्यके स्वकालमें पहुंच जानेपर नियमसे विवक्षित पर्यायकी ही उत्पत्ति होती । प्रमेयक मलमार्तण्डके उक्त उद्धरणसे यह भी सिद्ध है कि निमित्त अक्रिचित्त्रर न होकर कार्यकारी हो होते हैं, आगमप्रमाण ( पंचास्तिकाय गाथा ८७ - १४) के आधारपर यह मी स्पष्ट है कि कार्योत्पत्ति में प्रेरक निमित्तोंके समान उदासीन निमित्त भी कार्यकारी होते हैं - वे अकिंचित्कर नहीं बने रहते हैं । इसके अतिरिक्त बाघक कारणोंका अभाव भी कार्योत्पत्ति के लिए आवश्यक होता है, जिसका समर्थन निम्न प्रकारसे होता है
द्वादश गुष्णस्थानके प्रथम समय में जो आत्मस्वभावकी पूर्ण निर्मलता प्रगट हो जाती है उसका निमित्त कारण दशम गुणस्थानके अन्त समय में मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो जाना ही है तथा त्रयोदश गुणस्थानके प्रथम समय में जो आत्मस्वभावका पूर्ण विकास होता है उसका निमित्त कारण द्वादश गुणस्थानके अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्वराय कमका क्षय हो जाना ही है। लेकिन इतना होनेपर भी जब जीव सिद्ध पर्याय प्राप्त नहीं होता तो जान पड़ता है कि वहाँ जीवकी सिद्ध पर्यायके प्रगट होनेमें बाधककारणभूत योग तथा चार अघातिया कर्मो का सद्भाव विद्यमान है। इसी तरह चतुर्दश गुणस्थानके प्रथम समय में उस जीवकी घोगरहित अवस्था 'जानेपर भी जो उसकी सिद्ध पर्याय प्रगट नहीं होती उसका भी बाधक कारण
पर चार अघातिया कर्मोका सद्भाव अवगत होता है । इस तरह जैब जीव चतुर्दश गुणस्थानमें बाधककारणभूत चारों अघातिया कर्मो का भी क्षय करके नोकमोंके साथ अपना सर्वथा राम्बन्ध विच्छेद कर लेता है। तभी उसको सिद्ध पर्यायकी प्राप्ति होती है
इससे निर्णीत होता है कि प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सद्भावके साथ बाधक कारणोंका अभाव भी कार्योपत्ति में साधक होता है। इस प्रकार कार्योत्पत्ति के लिए वस्तुको स्वाभाविक योग्यता के रूप में नित्य
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जय शानिया) लत्यगा और उसकी समीक उपादानशक्तिरूप प्रमशक्ति, प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सद्भाव तथा बाधक कारणोंका अभाव इन सभीकी समग्रता, जिसे कार्यजनिका सामग्री कहा जाता है, अनिवार्य है।
इस तरह यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि वस्तुको स्वाभाविक योग्यताके रूपमें नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्ति ही मुख्यतया कार्योत्पत्तिमें साधक होती है। कार्यकालकी योग्यताके रूपमें अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिको कार्योत्पत्तिमें प्रधान सावक मानना उचित नहीं है, क्योंकि उसके स्वयं कार्यरूप होनेसे उसके सहकारी कारणोंका योग मिलनेपर ही वह उत्पन्न होती है। दूसरे, उसके उत्पन्न हो जानेपर भी बाधक कारणोंका सदभाव रहनेपर कार्योत्पत्ति नहीं होती है। यह अवश्य है कि जहाँ वस्तुकी पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय जो पूर्वीसर भाष पाया जाता है यहाँ उसके आधारपर उनमें भी कार्यकारणभावको सापना करना असंगत नहीं है। परन्तु कार्यकालकी योग्यता और कार्य में पूर्वोत्तर भावके रूपमें ही कार्यकारण भाव जानना चाहिए । उत्पाद्योत्पादक भावरूप कार्यकारण भाव तो वस्तुको स्वाभाविक योग्यताके रूपमें नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्ति और कार्य में मानना ही युक्त है। एक बात और है कि पूर्वपर्यायका विनाश होने पर ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति होती है अथवा पूर्वपर्यायका विनाश ही उत्तरपर्यायनी उत्त्पति है, इसलिए भी पूर्वपर्यायको उत्तरपर्यायका उपादान नहीं कहा जा सकता है । इसे आग प्रकरणानुसार और भी स्पष्ट किया जायेगा। उपर्युक्त विवेचनसे यह बात भी स्पष्ट है कि वस्तुको स्वभावभूत योग्यताके रूपमै निस्य उपादानश क्तिरूप द्रव्यशक्ति और कार्य दोनों में विद्यमान उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव तभी कार्यक्षम होता है जब उस कार्यके अनुकल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग प्राप्त होता है तथा बाधक कारणोंका अभाव भी विद्यमान रहता है। अतएव कायोत्पत्तिके प्रति प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकारके निमित्तोंको फिसी भी हालतमें अकिंचित्कर नहीं कहा जा सकता है। यहाँ अष्टसहस्त्रीगत अष्टशती का निम्न वाक्य ज्ञातव्य है
___ तदसामथ्र्यमखण्डयदकिंचित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ? ( पृ० १०५. निर्णयसागरीय प्रकाशन ।)
अर्थ-उसकी (उपादानकी) अर्थात् कार्यरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तुकी असामथ्र्य अर्थात अकेले कार्य रूप परिणत न हो सकने रूप अशक्तिका खण्डन (भेदन) म करता हुआ सहकारी कारण यदि वहाँ अकिंचित्कर ही बना रहता है तो उसे क्या सहकारी कारण कहा जा सकता है ? अर्थात् नहीं कहा जा सकता है।
इससे भी सहकारी (निमित्त) कारणोंकी कार्योत्पत्ति में कार्यकारिता ही सिद्ध होती हैं, अकिंचित्करता नहीं। यद्यपि अष्टसहस्रीमत अष्टशतीके उक्त कयनके विषयमें उत्तरपक्षने एक आक्षेप तत्त्वचमि प्रस्तुत किया है, परन्तु उसपर इसी प्रकरणमें आगे विचार किया जायेगा ।
इस विवेचनसे मह निष्कर्ष निकलता है कि कार्यकालको योग्यता अर्थात् अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्ति कार्यरूप होने के कारण निमित्ताधीन सिद्ध होती है। अतः उत्तरपक्षका यह लिनना कि "कार्यका साक्षात् उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं" सर्वथा असंगत है । इसी प्रकार उसकी यह मान्यता भी असंगत है कि वस्तुके स्वकाल (कार्यकाल) में पहुंच जानेपर नियमसे विवक्षित कार्यकी ही १. देखो, तप० पू० ८।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा उत्पत्ति होती है, क्योंकि जो भी द्रव्य की उत्तर पर्याय होगी वह उसकी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार ही होगी। पर हाँ, निमितोंका सहयोग जैसा होगा वैसी ही पर्याय उसकी स्वाभाविक योग्यताके आधारपर होगी । इसका आशय यह है कि निमित्त त्यमें ऐसी पर्यायको उत्पन्न नहीं कर सकता है जिसकी स्वाभाविक योग्यता उस द्रव्यमें न हो, लेकिन जिस पर्यायके उत्पन्न होनेकी योग्यता द्रव्यमें विद्यमान है वह पर्याय तभी उत्पन्न हो सकती है जब वह निमित्तोंका सहयोग पाझर अपने स्वकालमें पहुँच जायेगा और तब भी उसके अनुकूल निमितोंका सहयोग मिलनेपर ही वह उत्पन्न होगी। कार्यकारणमात्रकी व्यवस्था इसी प्रकार पायी जासी है। उत्तरपक्षके दृष्टिकोणका अन्य प्रकारसे निराकरण
___ कार्योत्पत्ति के विषबमें उत्तरपक्षका जो यह दृष्टिकोण है कि "कार्यको उत्पादक कार्यकालको योग्यता ही है. निमित्त नहीं' इसका निराकरण अन्य प्रकारसे भी किया जाता है।
वस्तुका स्वभाव परिणमन करनेका है अर्थात् वस्तुमें परिणमन करने की या परिणत होनेकी स्वाभाविक्र चोग्यता है। इसके आधार पर ही उसमें परिणमन हुआ करता है तथापि उसका वह परिणमन दो प्रकारसे होता है-एक परिणमन स्वनिमित्तक (परनिमित्तानपेक्षा) होता है और दूसरा परिणमन परनिमित्तसापेक्षा होता है। परनिमित्तानपेक्षा परिणमनको स्वनिमित्तक और परनिमित्तसापेक्ष परिणमनको स्वपरप्रत्यय परिणमन प्रतिपादित किमा गया है।
वस्तुका स्वनिमित्तक परिणमम व्यवहारकालो भेद--समयके रूपमें विभक्त होकर सतत षड्गुणहानिबुद्धिरूप होता है और उसका स्वपरप्रत्यय परिणमन व्यवहारकालके ही भेद-समय, आवली, घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्षा, मास, ऋतू, अयन और वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर सलत षड्गुणहानिवृद्धिरूप परिणमनसे पृथक् परिणमनके रूपमें होता है।
स्वप्रत्यय और स्वारप्रत्यय दोनों ही प्रकारके दो आदि परिणमन सतत एकके पश्चात् एक रूपमें होते हैं अर्थात् दोनों ही प्रकारके दो आदि परिगमन कभी भी युगपत् (एक साथ) नहीं होते। हो, सभी स्वप्रत्ययपरिणमन परनिमित्तानपेश होने के कारण नियतक्रमसे ही होते हैं जबकि सभी स्वपरप्रत्ययपरिपामन परनिमित्तसापेक्षा होनके कारण यथायोग्य परनिमित्तोके समागमके अनुसार नियतक्रम और अनियतक्रम दोनों रूपसे होते है।
स्वपरप्रत्ययपरिणमनोंकी नियतक्रमता और अनियतक्रमताको इस तरह समझा जा सकता है कि जीवके जो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप विविध प्रकारके परिणमन होते है वे यथाक्रम क्रोध, मान, मावा और लोभ रूप पद्गलकोके उदयके निमित्तसे होते हैं। अर्थात जब तक जीवमें क्रोधकर्मका उदय विद्यमान रहता है तबतक उसका कोषरूप परिणमन होता रहता है और जब उसमें क्रोधकर्मके उदयका अभाव होकर
१. 'विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमितस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्याद
भ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवमाहनहेतृत्वात्याणे क्षणे तेषां भेदात्ततित्वमपि भिन्न मिति परप्रत्ययापेका उत्पादो विनाशश्च व्यवलियते । -सर्वार्थसिद्धि ५-७ ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा मान, माया या लोभ इन तीनों कर्मों से किसी एकका उदय होता है तब उसका वह परिणमन भी यक्रम मान, माया या लोभ रूप होता है।
अब यदि उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार जीवमें होनेवाले क्रोध आदि परिणमनोंकी उत्पत्ति कार्यकालकी योग्यताके अनुसार मानी जाये और क्रोध आदि कर्मोंके उदयको वहाँ पर सर्वया अकिंचिकर ही मान लिया जाये तो जिस जीवक्री वर्तमान समयमें क्रोधरूप परिणति हो रही है उसके पूर्व समयमें कारणरूपसे और उत्तरसमयमें कार्यरूपसे क्रोधरूप परिणति ही उस जीवकी स्वीकार करना अनिवार्य हो जायेगा । इस तरह अनादि कालसे अनन्त काल तक उस जीवकी सतत क्रोधरूप परिणति होती रहनी चाहिए अर्थात् उसमें न तो कभी मान, माया, या लोभरूप परिणति होगी और न क्रोश्ररूप परिणतिका सर्वथा अभाव होकर उसकी शुद्ध स्वभावरूप परिणति ही कभी हो सकेगी। इस तरह विश्वकी सभी वस्तुयें वर्तमानमें जिस रूपमें रह रही है उनका मतत उसी रूपमें रहनेका प्रसंग उपस्थित हो जावेगा। लेकिन विश्वकी सभी वस्तुओंकी इस प्रकारको स्थिति मानवमात्रक अनुभव, इन्द्रियप्रत्या, तर्क और आगम प्रमाणों के विपरीत ही निर्णीत होती है। इमलिये कार्योत्पत्तिमें कार्यकालकी योग्यताको कारण न मानकर परिणमनोंकी विविधताके लिये निमित्तोंको कारण मानना अनिवार्य है। यह सत्य है कि बस्तको स्वाभाविक योग्यताके बिना निमित्त वस्तुमे कार्योत्पत्ति के प्रति असमर्थ रहते हैं। अतः पस्तुमें कार्योत्पत्तिके अनुकूल स्वाभाविक योगापाव स्वीमा नाकी नानपार है । और बन स्वाभाविक योग्यता नित्य उपादानशक्तिके रूपमें द्रव्यशक्ति ही हो सकती है, अनित्य उपादानशत्ति के रूपमें पर्यायशक्ति, जिसे कार्यकालकी योग्यता कहा जाता है, नहीं हो सकती है, क्योंकि कार्यरूप होने के कारण उसे स्वाभाविक नहीं माना जा सकता है । इस विवेचनले प्रकट है कि नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिक पमें कार्योत्पत्तिकी स्वाभाविक योग्यताका सद्भाव व उक्त अवरारपर अनुकूल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका राद्भाव तथा बाधक निमित्तोंका अभाव ये सभी वस्तुमें कार्योत्पत्तिके साधक होते हैं। यहाँ इतना और ध्यातव्य है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड के पूर्वोक्त कथनके अनुसार अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिविशिष्ट नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यक्ति कार्योत्पत्तिमें साधक होनेसे अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिको भी कार्यकालकी योग्यताके रूपमें कार्योत्पत्तिकी साधक मानना चाहिए।
यदि कहा जाए कि मिट्टीस जो घटको उत्पत्ति होतो है वह स्थूल रूपसे स्थास, कोश और कुशूल पर्यायोंके क्रमसे ही होती है व सूक्ष्मरूपस एक-एक क्षणकी पर्यायोंके क्रमसे होती है। इसलिए घटोत्पत्तिमें पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायमें उत्पाद्योत्पादकभावरूप कार्यकारणभाव मानना आवश्यक है तो ऐसी मान्यता भी युक्तिमुक्त नहीं है, क्योंकि यदि पूर्व और उत्तरपर्याय में उत्पाद्योत्पादकभावरूप कार्यकारणभाव स्वीकार किया जाए तो जिस प्रकार घटको मिट्टीका घट कहा जाता है उसी प्रकार कुशलकी उत्तर पर्याय होनसे घटको कुशूलका घर कहना भी अनिवार्य हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि पूर्व पर्याय उत्तर पर्यायवी उत्पत्तिमें नियामक नहीं है। ऐसी स्थितिमें मिट्टीसे होनेवाली घटोत्पत्ति में भी कार्यकालकी योग्यताको उत्पायोत्पादकभावके आवारपर कारण मानना असंगत है। तीसरी बात यह है कि लोकमें कुम्भकार द्वारा अपना क्रियाव्यापार बीचमें रोक देनेपर घट अधूरा देखा जाता है अथवा दण्डके पातरी बोचमें ही घटका बिनाश देखनेमें आता है तथा कुम्भकारकी कुशलता और अकुशलताका प्रभाव उस उत्पन्न होनेवाले घटमे स्पष्ट दिखाई देता है। इससे एक तो कार्यकालकी योग्यताको कार्य नियामवता समाप्त हो जाती है । दूसरे,
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१ की
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निमित्तकी सर्वथा अकिंचित्करताकी मान्यताका अन्त हो जाता है। तीसरे, उत्तरपक्ष की यह मान्यता भी निरस्त हो जाती है कि जब वस्तु कार्यकालकी मोग्मता प्रगट होती है तो नियमसे विवक्षित कार्यकी हो उत्पत्ति होती है ।
इस तरह कार्योत्पत्तिके विषय में यही नियम निश्चित होता है कि वस्तुमें कार्योत्पत्ति के अनुकूल स्वाभाविक योग्यता विद्यमान हो तथा अनुकूल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सद्भाव व बाधक कारणोंका अभाव हो तभी विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति होगी, अन्यथा उसी कार्यकी उत्पत्ति होगी, जिसके अनुकूल वहाँ उक्त सभी साधन सामग्रीका समागम होगा ।
द्वितीय भागकी समीक्षा
पूर्वपने अपनी द्वितीय प्रतिशंका (त० च० पृ० ५ ) में निम्नलिखित कथन किया है-
'इसके आगे आपने जो पंचास्तिकायको गाथा ८९ का उद्धरण दिया है वह भी हमारे प्रश्नसे संगत नहीं है, क्योंकि यह उद्धरण उदासीन निमित्त कारणसे सम्बन्धित है । साथ ही स्वयं अमृतचन्द्र सूरिने उसी पंचास्तिकायकी ८७ और ९४ वीं गाथाकी टीका में उदासीन निमितको भी अनिवार्य निमित्त कारण बतलाया है ।'
उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दीरमें इसपर विचार करते हुए त० च० पृ० ९ में द्वितीय भाग के अन्तर्गत लिखा है
"पंचास्तिकाय गाथा ८९ में निःसन्देह रूपसे उदासीन निभिप्तकी व्यवहार हेतुता सिद्ध की गयी है । पर इतने मात्र से क्रियाके द्वारा निमित्त होनेवाले निमितोंको व्यवहार हेतु मानने में कोई बाधा नहीं भाती, क्योंकि अभी पूर्व में इष्टोपदेश टीकाका जो उद्धरण दे आये हैं उसमें स्पष्ट रूपसे ऐसे निमित्तोंको व्यवहारहेतु बतलाकर इस दृष्टिसे दोनों में समानता सिद्ध की गयी है ।"
उत्तरपक्षके इस उत्तरवक्ताको यहाँ समीक्षा की जाती है
पूर्व से यह कहाँ सिद्ध होता है कि वह प्रेरक निमित्तको व्यवहारहेतु नहीं मानता है। वह भी उत्तरपक्षकी तरह प्रेरक और उदासीन दोनों निमितोंको व्यवहारहेतु मानता है । परन्तु प्रश्न प्रेरक और उदासीन निमित्तोंको व्यवहारहेतु मानने, न माननेके विषय में नहीं है। अपितु प्रश्न यह है कि व्यवहारहेतु होते हुए भी प्रेरक निमित्तको कार्योत्पत्ति में उपादानका सहायक होने रूपमें कार्यकारी माना जाय या उसे वहाँ सर्वथा अक्किचित्कर स्वीकार किया जाय ? पूर्वपक्ष तो अपने उक्त कथनमें यह भी स्पष्ट स्वीकार कर रहा है कि प्रेरक निमित्तके समान पंचास्तिकायकी गाथा ८७ और १९४ की टीकाओं के माधारपर उदासीन निमित्त भी कार्योत्पत्ति उपादानका सहायक होने में कार्यकारी है, अकिचित्कर नहीं ।
पर उत्तरपक्ष उदासीन निमित्तको तो कार्यके प्रति अकिचित्कर मानकर व्यवहारहेतु मानता ही है। किन्तु प्रेरक निमित्तको भी वह कार्यके प्रति अकिंचित्कर मानकर व्यवहार हेतु मानना चाहता है । परन्तु उदासीन और प्रेरक दोनों ही निमित्त आगमके आधारपर पूर्वोक्त प्रकारसे कथंचित् अकिचित्कर और कथंचित् कार्यकारी होकर व्यवहार हेतु सिद्ध है। प्रेरक निमित्तको कार्यकारिता समयसार गाथा ८०, ९१ और १०५ के अनुसार तथा उदासीन निमित्तकी कार्यकारिता पंचास्तिकाय गाथा ८७ और ९४ की टीकाओं के अनुसार दिनकर प्रकाशकी तरह सुप्रसिद्ध है । अतः उत्तर पक्ष द्वारा मान्य इनकी अकिंचित्करताका निरसन
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा स्वतः हो जाता है। माननीय अनुभः, इन्दिा पत्यक्ष, युक्ति और लोकव्यवहारके आधारपर भी दोनों निमित्तीको कार्यकारिताको पुष्टि तथा अकिंचित्करताका निरास होता है। तृतीय भागकी समीक्षा
तृतीय भागमें निर्दिष्ट पूर्व पक्षके कथनके विषयमें उत्तर पक्षने लिखा है कि "ऐसा नियत है कि प्रत्येक द्रध्यके किसी भी कार्यका पृथक उपादान कारणके समान उसके स्वतन्त्र एक या एकसे अधिक निमित्त कारण भी होते है । इसीका नाम कारकसाकल्प है और इसीलिए जिनागममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभया निमित्तसे कार्यकी उत्पत्ति होती है।" इसकी पुष्टि के लिए उसने समन्तभद्र स्वामीके स्वयंभस्तोत्रके "बाह्यतरोपाधि" इत्यादि पद्य ६० को भी उद्धृत किया है। उत्तरपक्ष के इस कथनके साथ पूर्व पक्षका कोई विरोध नहीं है। उत्तरपक्षको ही यह सोचना है कि यह सब कथन तो पूर्व पक्ष द्वारा मान्य निमित्तोंकी कार्यकारिताका ही समर्थन करता है, न कि उसके द्वारा मान्य उनकी अकिंचित्करताका समर्थन ।
स्वयंभस्त्रोत्रके पद्य ६० से भी यही प्रकट होता है कि द्रव्यका स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें कार्यकी उत्पत्ति बाह्य और अभ्यन्तर दोनों निमित्तोंकी रामग्रतासे ही होती है। इस उद्धरणको प्रस्तुत क उत्तरपक्षकी निमित्तोंको अकिनिस्कर स्वीकार करनेकी मान्यता सिद्ध नहीं होती। प्रत्युत उसके "कार्य तो केवल उपादानके बलपर ही होता है निमित्त वहां अकिविकर ही बने रहते हैं।" तथा "जिनागममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभयनिमित्तसे कार्यकी उत्पति होती है। इन दोनों विरुद्ध कथनों में असंगति आती है। उत्तरपक्षको यह भी विचार करता है कि तपादानकी कार्यरूप परिणति में यदि निमित्तोंके सहयोगको आवश्यकता नहीं है तो आगममें फिर कार्यकी उत्पत्ति में उपादानमें सहायक होने रूपसे निमित्तोको स्थान क्यों दिया गया है ?
एक बात और है कि उत्तरपक्षको यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार यही भय है कि निमित्तोंको उपादानको कार्योत्पत्तिमें सहायक माननेसे उपादानकी तरह निमित्तोंका भी कार्य में प्रवेश स्वीकार करना होगा। परन्तु इस भयका निराकरण पूर्वमे किया जा चुका है। इसलिए इस विषयमें यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि उपादानको कार्यके साथ द्रव्यप्रत्यासत्ति रहनके कारण उसका ही प्रवेश कार्य में होता है । परन्तु निमित्सोंकी कार्यके साथ कालप्रत्यासत्ति ही रहती है, द्रव्यप्रत्यासत्ति नहीं, अतः उनका कार्य में प्रवेश नहीं होता है।
पद्यपि उत्सरपक्ष कार्यकं साथ निमित्तोंको कालप्रत्यासत्ति मानकर भी उन्हें यहाँ पर अकिंचित्कर मानता है। परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि निमित्त कालप्रत्यासत्तिके आधारपर जो उपादानकी कार्यपारपतिमें सहायक होने रूपसे कारण माने गए है वे वहां पर अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर ही माने गए है। इसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। आचार्य विद्यानन्द स्वामीने तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक (पष्ट १५१) में सहकारी (निमित्त) कारणका जो लक्षण निर्धारित किया है उससे भी सहकारी कारणकी कालप्रत्यासत्तिके आधारपर कार्यकारिता हो सिद्ध होती है । वह लक्षण निम्न प्रकार है
'यदनन्तरं हि यदवयं भवति तत्तस्य सहकारिकारण मितरत् कार्यमिति ।'
१. देखो, त. च० १०९। २. निर्णयसागर प्रेस, बम्बई प्रकाशन ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
इसका अर्थ है कि नियमसे जिसके अनन्तर जो होता है वह उसका सहकारी कारण है और इस कार्य । इस ज्वलन्त प्रमाणसे भी सहकारी कारणको कार्यकारिता स्पष्ट है। इसी तृतीय भागमें उत्तरपक्षने कार्योंमें भाचार्य समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रके उद्धरण द्वारा बाह्य और आम्पन्तर उपाधियों (कारणों) की समग्रताको स्वीकार किया है, फिर भी उसने लिया है कि ''जब निश्चय उपादान अपना कार्य करता है तब अन्य द्रव्य पर्याय द्वारा उसका व्यवहार हेतु होता है।" उसका यह सब कथन पूर्वापर विरुद्ध और पाठकोंको गुमराह करनेवाला है। जब सहकारी कारण अकिंचित्कर सिद्ध हो नहीं होते, तो उत्तरपक्षका धुमावमें छालना उचित नहीं है। इस पर हम आगे विस्तारपूर्वक विचार करेंगे। इसी प्रकार उसने इसी भागमें द्रव्यलिंग और भालिंगकी भी अप्रासंगिक चर्चा उठायी है, जो यहाँ सर्वथा अनुपयुक्त है। फिर भी हम उसके विषयमे भी आगे विचार करेंगे । चतुर्थ भागको समीक्षा
इस भागमें पूर्वपक्ष द्वारा प्रवचनसार गाथा १६९ की अमृतचन्द्रीय टीकाके 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'अपने रूप' करनेपर अनावश्यक विवाद उठाते हुए उत्तरपक्षने लिखा है कि "प्रवचनसार गाथा १६९ में 'स्वयमेव' पदका अर्थ स्वयं ही है अपने रूप नहीं । उत्तरपक्ष इससे यह बतलाना चाहता है कि उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तका सहयोग प्राप्त किये बिना स्वयं ही अर्थात् अपने आप ही होती है। उसकी इस मान्यताका निराकरण प्रतिर्शका ३ में विस्तारसे किया है तथा 'स्वयमेव' पदके अर्थपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है और इस समीक्षामें भी 'स्वयमेव' पदके अर्थ पर आगे प्रकाश डाला जायगा । पंचम भागकी समीक्षा
पूर्वपक्षने लिखा था कि 'समयसार गाथा १०५ में जो उपचार शब्द आया है वह इस अर्थका छोतक है कि पुद्गलका परिणमन पुद्गलमें ही होता है, जीवमें नहीं होता है । किन्तु जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर बह होता है। अर्थात जीव पदगलकमौका उपादानकर्ता नहीं, निमित्तकता है।' इसपर उत्तरपक्षाने इस पंचम भागमें लिखा है कि "समयसार गाथा १०५ में उपचारका जो अर्थ प्रथम प्रश्न के उत्तरम किया गया है वह अर्थ संगत है। किन्तु प्रयत्न करनेपर भी वहाँ उसके द्वारा किया गया उपचारका वह अर्थ संगत या असंगत रूपमें उपलब्ध नहीं होता। मालूम नहीं, उत्तरपक्ष इस प्रकारके गलत वक्तव्य देकर दूसरोंकी आंखोंमें धूलिप्रक्षेपकी चेष्टा क्यों करता है ? इस विषयमें भी हम आगे सप्रमाण विचार करेंगे। .
वहाँ इतनी बात अवश्य स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने इसी पंचम भागके अन्त में धवला पु० ६ पृ० ५९ का जो उद्धरण दिया है उसमें 'मृह्यत इति मोहनीयम्' इस अंदाका उसने भ्रमवश विपरीत अर्थ किया है । धवला पुस्तक ६, पृ० ५९ का वह वचन और उसका उत्तरपक्ष द्वारा किया गया अर्थ निम्न प्रकार है।
"मुह्यत इति मोहनीयम्' एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पैसज्जदि ति णासंकणिज्जं जीवादो अभिण्णमिमह पोग्गलदव्ये कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तधा उत्तीदो।'
१. देखो, त० ० १०९। २. देखो, त० च पृ०९। ३. त० च०, पृ० ६।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इसका उस रपक्ष द्वारा किया गया अर्थ निम्न प्रकार है'जिसके द्वारा मोहित किया जाता है यह मोहनीय कर्म है । शंका- ऐसा होने पर जीवको मोहनीय कर्मपना प्राप्त हो जाता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जीवसे अभिन्न ( विशेष संयोगरूप, परस्पर विशिष्ट काही ) कर्मसंज्ञक पुद्गलद्रव्य में उपचारसे कर्त्तापिनेका आरोप कर वैसा कहा है ।"
इस अर्थ में उत्तरपक्षनं 'मुह्यत इति मोहनीयमम्' इस अंशका 'जिसके द्वारा मोहित किया जाता है। वह मोहनीय कर्म हूँ ।' वह अर्थ किया है सो वह अर्थ ठीक नहीं है। इसके स्थानमें उसे उसका वह अर्थ करना था कि 'जो मोहित किया जाता है 'या' जो मोहित होता है ।' क्योंकि यह अर्थ करनेसे ही धवलाके उक्त शंका-समाधानरूप वचनके अर्थको संगति होती है। उत्तरपक्षको यह भी ज्ञात होना चाहिए या कि 'मुह्यत इति मोहनीयम्' यह प्रयोग कर्मके विषयमें किया गया है। इसलिए उसका यही अर्थ है कि 'जो मोहित किया जाता है वह मोहनीय है ।'
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि धवलाके उक्त वचनमें उपचारका अर्थ नहीं बतलाया गया है, तथा उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "इस आगम वचनमें' 'उवपारेण' और 'आरोबिय' पद ध्यान देने योग्य हैं । स्पष्ट है कि कार्यका निष्पादक वस्तुत: उपादानकर्ता हो होता है । निमित्त में तो उपचारसे कर्त्तापका आरोप किया जाता है।" सो इसमें विवाद नहीं है, परन्तु इससे निमित्तको किचित्कर नहीं सिद्ध किया जा सकता हूँ ।
४. प्रश्नोत्तर एकके तृतीय बोरकी समीक्षा
तृतीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्ष तृतीय दौर में सर्वप्रथम अपने प्रश्नका आशय स्पष्ट करते हुए यह कथन किया है कि उत्तरपक्षने अपने प्रथम और द्वितीय दोनों दौरोंमें प्रश्नका उत्तर नहीं दिया है। इसके पश्चात् "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् " इस पद्म नन्दिपंचविशतिका (२३-७ ) के आधारपर यह सिद्ध किया है कि वस्तुकी विकारी परिणति दूसरी वस्तुका सहयोग प्राप्त होने पर ही होती है। उसका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप नहीं हो जाती । इसके भी पश्चात् "सदकारणवन्नित्यम् - " आप्त परीक्षा कालिका २ की टीका आधारसे बतलाया है कि जीवक विकारी परिणति यदि कर्मोदय के बिना मानी जाए तो उपयोग के समान जीवका स्वभाव भाव हो जानेसे यह कभी नष्ट नहीं होगी। इसके जागे विविध आगमप्रमाणोंके वलये इस बातका समर्थन किया है कि जीवमें उत्पन्न होनेवाले विकारका निमित्त पुद्गलकर्मका उदय है और अन्तमें उत्तरपक्ष के द्वितीय दौर की आलोचनापूर्वक आगमप्रमाणोंके आधारपर सिद्धान्तपक्ष की पुष्टि की है ।
तृतीय दौर में उत्तरपक्षकी स्थिति
उत्तरपक्ष ने अपने तृतीय दौर में पूर्वपक्ष कथनकी उपेक्षा करते हुए प्रश्न उत्तरमें उसी दृष्टिकोण • को अपनाया है जिस दृष्टिकोणको वह अपने प्रथम और द्वितीय दौरोंमें अपना चुका है। इसलिए उसने अपने तृतीय दौर में पूर्वपक्ष के प्रश्नका जो उत्तर दिया है उससे भी प्रश्नका समाधान नहीं हो सका है। अर्थात् उत्तर पक्ष ने अपने तृतीय दौर में भी पूर्वपक्ष के प्रश्नके उत्तरमे प्रथम और द्वितीय दौरोंकी उन्हीं बातों को १. देखो व्र० च० पृ० ६ ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
दुहराया है जिसका प्रकृत प्रश्नके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । विडम्बना यह है कि इस दौर में उसने पूर्व पक्षपर अनेक कल्पित आरोप लगाये हैं और उनके आधारपर पूर्वपक्षको यद्वा राम्रा आलोचना की है 1
उत्तरपक्ष की इस स्थितिकी समीक्षा
उत्तरपक्ष ने अपने तृतीय दौरके प्रारम्भ में जो कुछ लिखा है उसका उद्धरण समीक्षाके सामान्य प्रकरणमें देते हुए उसकी वहाँ सामान्य समीक्षा भी की गयी है । उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् " इस वचनका विपरीत अभिप्राय ग्रहण करके उसके आधारसे पूर्वको प्रथम तो इस रूप में प्रदर्शित करनेका असफल प्रयत्न किया है, मानो पूर्वपक्ष दो वस्तुओंकी मिलकर एक बिकारी परिणति मानता है और पश्चात् उसके विरोध में समयसारके "नोभी परिणमतः स्खलु" इत्यादि कलश पद्य ५३ को उद्धृत किया है परन्तु जब पूर्वपक्ष दो वस्तुओं की मिलकर एक विकारी परिणति मानता ही नहीं हैं और उत्तरपक्ष भी इससे अनभिज्ञ नहीं है तो उसे इस तरह प्रदर्शित करनेका निरर्थक और अनुचित प्रयास नहीं करना चाहिये था ।
।
आगे चलकर उत्तरपक्षने "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" वचनका अर्थ फलित करते हुए लिखा हैं कि "संयोगरूप भूमिकामें एक द्रव्य विकारपरिणति करनेपर अन्य द्रव्य विवक्षित पर्यायके द्वारा उसमें निमित होता है।" इसके आगे स्पष्टीकरण के रूपमें उसने उसमें यह भी लिखा है कि इससे स्पष्ट विदित होता है कि निश्चय और व्यबहार दोनों नयवचनों को स्वीकार कर "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" यह वचन लिखा गया है। स्पष्ट है कि मूल प्रश्नका उत्तर लिखते समय जो हम यह सिद्ध कर आये हैं कि संसारी आत्मा विकार भाव और चतुर्गतिभ्रण में द्रव्यक्रमका उदय निमित्त मात्र हैं, उसका मुख्य कर्त्ता तो आत्मा ही है, यह यथार्थ लिख आये हैं । पद्मनन्दिपंचविंशतिका के उक्त वचनसे भी यही सिद्ध होता है" ।
हमें कहना पड़ता है कि उपर्युक्त प्रकार जो कुछ उत्तरपक्षने लिखा है वह सब उसका तत्वशाओंके सामने पूर्वपक्षको गलत ढंगसे प्रस्तुत करनेका असफल प्रयास है। उसके इस प्रयासको तत्त्वजिज्ञासुओं की मांखों में धूल झोंकनेका प्रयास कहा जायेगा । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
(१) पूर्वपनं पद्मनन्दिचविशतिकाके उक्त वचनको अपनी इस मान्यता की पुष्टि के लिये उद्धृत किया है कि aarकर्मका उदय संसारी बात्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमे निमित होता है। यह बात उत्तरपक्ष भी अच्छी तरह जानता है। फिर भी उसने पूर्वपक्ष के आशयको अन्यथा चित्रितकर अपने पदकी मर्यादाको भंग किया है ।
(२) द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें विद्यमान निमित्तनैमित्तिक संबंधको पूर्वपक्ष भी व्यवहारनुपका ही विषय मानता है, इस बात से भी उत्तरपक्ष अनभिज्ञ नहीं हैं। केवल दोनों पक्षों की मान्यताओं में अन्तर यह है कि जहाँ उत्तरपक्ष व्यवहारनयके विषयको कल्पनारोपित या कथनमात्र स्वीकार करता है वहीं पूर्वपक्ष व्यवहारमय के विषयको कल्पनारोपित या कथनमात्र न मानकर व्यवहाररूपमें वास्तविक ही मानता है ।
१. देखो, त० च० पृ० ३३ । २. देखो, त० च० पू० ३३ ॥
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___ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा (३) पूर्वपक्षको मान्यतामें भी प्रत्यकर्मका सदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें उत्तरपक्षकी मान्यताके समान मिगिन मय होता है जमण मम्य की आत्मा ही होता है. यह भी उत्तरपक्ष जामता है। दोनोंमें मतभेद यही है कि जहाँ उत्तरपक्ष द्रष्यवर्मके उदयको उक्त कार्यके प्रति उस कार्यरूप परिणत न होने और उसमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिचिकर निमित्त कारण मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे उस कार्यके प्रति उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधारपर अकिचित्कर और उसमें सहायक होनेके आधारपर किंचित्कर कार्यकारी निमित्तकारण मानता है ।
पूर्वपक्षके प्रश्नका आशय यह रहा है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिम्रमणमें कार्यकारी निमित्त कारण होता है या वह वहोपर अकिंचित्कर रूपमें ही निमित्त कारण होता है। उसके इस प्रश्नका आशय उसे वहाँ मुख्यका मानने वा न माननेके रूपमें नह। रहा है, क्योंकि दोनों ही पक्ष उसे पोपर उपचरितकर्ता ही मानते हैं । यहाँ भी दोनों पक्षोंके मध्य केवल यह मतभेद है कि उत्तरपक्ष उस उपचरित कर्तृत्वको कल्पनारोपित या कवनमात्र मानता है जबकि पूर्वपक्ष उस उपचरितकर्तृत्वको उपचरित रूपमें वास्तविक ही मानता है, कल्पनारोपित या कथनमात्र नहीं मानता।
इस विवेचनके अनुसार उत्तरपक्षको पूर्वपक्षके प्रश्नपर इस रूपमें ही विचार करना था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी बारमाके बिकारभाव और चतुर्गति भ्रमणमें सहायक रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण होता है या यह वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर रूपमें ही निमित्त कारण होता है। उत्तरपक्षको इस अवसर पर व्यवहारमय और निदचयनय तथा उपचरितकर्तुत्व और मुख्य कर्तृत्व जैसे अप्रकृत और अनावश्यक कथनों में न तो स्वयं उलझना था और न ही पूर्वपक्षको उलझाना था। यह तो दोनोंको शक्तिका अपव्यय करना तथा बगलें साफना है।
द्रव्यकर्मोदयको प्रकृत कार्यके प्रति निमित्त मानना छलपूर्ण है
उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "स्पष्ट है कि मूल प्रश्नका उत्तर लिखते समय जो हम यह सिद्ध कर आये है कि संसारी भात्माके विकार भाव और चतुर्मतिभ्रमणमें प्रत्यकर्मका उदय निमित्त मात्र है, उसका मुख्यकर्ता तो स्वयं आत्मा ही है ।"' सो उसका यह लिखना छलपूर्ण है, क्योंकि आगे चलकर उसने इसके विरुद्ध भी लिखा है कि "जिस जिस समय जीव क्रोधादि भावरूपसे गरिणत होता है उस उस समय क्रोधादि द्रव्यकर्मके उदयकी कालप्रत्यासप्ति होती है। इससे उसने वही अभिप्राय फलित करना चाहा है कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणके अवसर पर क्रोधादि द्रव्यकर्मका उदय विद्यमान तो रहता है, परन्तु वह उसमें अकिचिकर ही बना रहता है निमित्तरूपसे कार्यकारी नहीं होता। उत्तर प्रश्नके आशयसे विपरीत
उत्तरपक्ष उपर्युक्त द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहकारी न होने रूपसे अकिंचित्कर मानता है और पूर्वपक्ष उसे वहाँ सहकारी रूपसे कार्यकारी मानता है। दोनों पक्षोंके इस मतभेदको समाप्त करने के उद्देश्यसे ही प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया गया था । परन्तु उत्तरपसने १. देखो, त. च० पृ० ३३ । २. देखो, वही, ३३ ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
प्रश्नके आशयको दुर्लक्षित करके उन बातों पर अपने विचार व्यक्त किये है जिनका प्रश्नके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । इससे प्रकट है कि उत्तरपक्षका उत्तर प्रश्नके आशयसे विपरीत है । निमित्तको अकिंचित्कर सिद्ध करनेका प्रयत्न अयुक्त
उत्तरपक्षने प्रकृत प्रश्न पर विचार करते हुए निमित्तको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक न होने कपसे अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए जो यह लिखा है कि "संयोगरूप भूमिकामें एक द्रव्यके विकारपरिणतिके करने पर अन्य द्रव्य विवक्षित पर्यायके द्वारा उसमें निमित्त होता है। परन्तु उसका यह का उदासीन निमित्तमें घटित होनेपर भी कार्यके प्रति उसकी अकिषिरकरताको सिद्ध करनेमें असमर्थ है, क्योंकि उदासीन निमित्त भी पंचास्तिकाय गाथा ८० और १४ के अनुसार उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध होता है। हम पूर्वमें स्पष्ट भी कर चुके है कि जब रेलगाड़ी चलती है तो वह रेलपटरीपर ही चलती है। इसलिये यदि इस पटरीको रेलगाड़ीकी गतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी न माना जाम-उसे वहाँ उस रूप में अकिंचित्कार ही माना जाता उसको दुर्मिक विधाने, उसने मजबूती
और सुरक्षाका ध्यान रखने और इसके लिए धन और श्रमका उपयोग करने आदि व्यवस्थाओंकी निरर्थकता सिद्ध हो जायेगी तथा रेलपटरोका अवलम्बन लिये बिना हो रेलगाडीके चलनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। इतना ही नही, रेलपटरीको तोड़फोड़ हो जाने पर भी रेल के गिर पड़ने व जमीनमें फंसने आदिकी समस्यायें अपने आप ही समाप्त हो जानेगी। उतरपक्षको उदासोन निमित्तकी अकिचित्करता सिद्ध करनेसे पूर्व इन बातोपर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
"संयोगरूप' भूमिकामे' इत्यादि उपर्युक्त कथन प्रेरक निमिसमें तो सर्वथा घटित नहीं होता, क्योंकि प्रेरक निमित्तका कार्य उपादान (कार्यरूप परिणव होनेको योग्यता विशिष्ट वस्तु) को कार्यरूप परिणत होने के लिये सक्षम बनाने का है या वों कहिये कि उसे कार्यरूप परिणत होनेके लिये प्रेरित करनेका है। अर्थात वस्तू में उपादानशक्ति विद्यमान रहने पर भी जब तक प्रेरक निमित्त उसे कार्यरूप परिणत होने के लिये सक्षम नहीं बनायेगा, तब तक उसको विवक्षित कार्यरूप परिणतिका होना असम्भव है।
इस विषेचनसे स्पष्ट है कि कार्योत्पत्तिमें उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त तीनों अपने अपने ढंगमे कार्यकारी हैं। उदाहरणार्थ-'जसे शिष्य अध्यापकसे प्रदीपले प्रकाशमें पढ़ता है।" यहां उपादान कारणभूत शिण्य ही पाठनक्रियारूप परिणत होता है। उसकी इस पठनक्रियामें प्रेरणा देनेवाला अध्यापक है, अतः उसे प्रेरक निमित्त कहा जाता है। पढ़नेवाला शिष्य भी हो और पढ़ानेवाला अध्यापक भी हो, परन्तु यदि वहाँ पर उदासीन रूपसे सहायता करनेवाले प्रदीपका प्रकाश न हो, तो न अध्यापक पढ़ा सकता है और न शिष्म पड़ सकता है। अतः दीपकका प्रकाश भी अप्रेरक ( उदासीन ) रूपसे निमित्त ( सहायक ) है । इसी प्रकार समस्त वस्तुओंको कार्योत्पत्ति में भी उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त तीनों ही अपने अपने ढंगसे कार्यकारी कारण सिद्ध होते हैं। तीनोभेसे कोई भी कारण दही किंचित्कर नहीं है । इन तीनों कारणोंका सद्भाव रहते हुए भी यवि बाधक कारणका अभाव न हो तो कार्योत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतएव बाधकामाव भी कार्योत्पत्ति में सहायक है । उसे भावान्तर स्वरूप माननेपर उसका दोनों निमित्तोंमें यथायोग्य समावेश हो जाता है।
१. देखो, त०१० पु. ३३ ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा ___ यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि "शिष्य पढ़ता है," "अध्यापक पढ़ाता है" और "दीपक पढ़ाता है" जैसे वचनोंका भी प्रयोग पुथक्-पृथक् रूपमें देखनेमें आता है। किन्तु ऐसे वचन-प्रयोगोंमें मुख्यता और गौणताकी विवक्षा होती है। अर्थात् "शिष्य पढ़ता है" इस वचन-प्रयोगमें उपादानवी मुख्यता और प्रेरक एवं उदासीन निमित्तोंकी गौणता है। "अध्यापक पढ़ाता है" इस वचन प्रयोगमें प्रेरक निमित्तकी मुख्यता व उपादान व उदासीन निमित्त दोनोंकी गौणता है। इसी तरह "दीपक पढ़ाता है" इम बचनप्रयोगमें उदासीन निमित्तको प्रधानता है और उपादान तथा प्रेरक निमित्तकी गौणता है। परन्तु यह तथ्य है कि कार्योत्पत्ति में तीनों ही कार्यकारी होते हैं । अतः तीनों से किसीको भी अकिंचित्कार नहीं कहा जा सकता है।
इन तीनोंके लक्षण भी पथक-पृथक हैं। जैसे उपादान वह है जो कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता अपने अन्दर रखता हो, प्रेरक निमित्त वह है जिसके साथ कार्यको अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ होती है और सदासीन निमित्त यह है जिसको कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ होती हैं। इस प्रकार लक्षणभेदके आधारपर तीनों कारण पृथक्-पृथक सिद्ध होते है और कार्योत्पत्ति, अपनी निश्चित सार्थकता प्रकट करते है। उपादान और दोनों प्रेरक और उदासीन निमित्तोंमें जो भेद है, वह यह है कि उपादान कार्यरूप परिणत होता है व दोनों निमित्त उसमें सहायक भाव होने हैं। प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका भो भेद इस आधारपर है कि प्रेरक निमित्त बलसे कार्य मार्गे-पीछे कभी भी किया जा सकता है । परन्तु उदामीन निमित्त के बलपर कार्यको आगे-पीछे नहीं किया जा सकता फिर भी उसके सहयोग के बिना कार्यको उत्पत्ति नहीं होती। इससे उसको भी कार्योत्पत्तिमें अनिवार्यताको झुठलाया नहीं जा सकता । क्या जयधवलाका बचन बाह्य कारणका निषेधक है?
पूर्वपक्षने अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए कहा था कि यदि क्रोधादि विकारोभावोंको द्रम्पकमोदयके बिना मान लिया जादे, तो उपयोगके समान में भी जीवके स्वभाव भाव हो जायेंगे और ऐसा माननेपर उन विकारी भावोंका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आ जायेगा ।' उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके इस कथनको उद्धृत करके उसके समाधान में लिखा है कि "क्रोधादि विकारी भावोंको जीव स्वयं करता है, इसलिए के निश्चयनयसे परनिरपेक्ष ही होते हैं, इसमें सन्देह नहीं, कारण कि एक ट्रम्पके स्वचतुष्टयमें अन्य द्रव्यके स्वचतुष्टयका अत्यन्त अभाव है।" अपने इस लेखकी पुष्टिके लिए उसने जयधवला पुस्तक ७, पृ० ११७ से "बज्झकारणणिरवेक्खो वत्थुपरिणामो" इस बच्चनको उद्धृत किया है तथा उसका अर्थ भी 'प्रत्येक बस्सुका परिणमन बाह्यकारण निरपेक्ष होता है।" दिया है ।
हमें आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष प्रश्नकर्ताक मूल प्रश्नका समाधान न करके मात्र अपने अभिप्रायको दोहराता है और उसका जरा भी पोषक कोई बचन मिलनेगर उसे प्रस्तुत कर देता है। न उसकी गहराईको देखता है, न सन्दर्भको और न वक्ताको सन्दर्भित विवक्षाको । वस्तुको स्यवस्था उभयनयसे है । जब एकनयसे वक्ता कथन करता है तो वहीं दूसरा नय अविवक्षित होता है। स्याद्वादी वस्ताको प्ररूपणा इसी प्रकार होती है।
१. त च० पृ१०१ २. ३, वही, पृ० ३३ ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
आगममान्यता है कि सभी कार्योको उत्पलिमें उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त ये तीनों कारण अनिवार्य है, जैसा कि हम अनेक जगह पहले ही स्पष्ट कर आये हैं । वस्तुका परिणाम वस्तुसे ही उत्पन्न होगा, वस्तुसे अतिरिक्तसे वह कदापि उत्पन्न नहीं होगा, ऐसा जत्र कथन किया जाता है तो उससे वक्ताका यही अभिप्राय होता है कि वह उपादानकी अपेक्षा कथन कर रहा है, बाह्य कारणों (प्रेरक व उदासीन निमित्तों) को सहकारिताका वह निषेध नहीं करता। कर भी कसे सकता है। अन्यथा वस्तुकी अनेकान्तात्मकता, जो उसका प्राण है, लुप्त हो जावेगी । जयधवलाकारका उक्त वचन द्वारा उपादानपर बल देनेका अभिप्राय है-वस्तुके परिणमनमें दस्त ही उपादान होती है, क्योंकि वही उस रूप परिणत होती है, बाह्य कारण नहीं, अतः उपादानकी दृष्टि से वस्तुके परिणमनमें वस्तु को हो अपेक्षा होगी, बाह्य कारणोंकी नहीं । अतएव वस्तुपरिणमनको बाह्यनिरपेक्ष कहा जाता है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह उनके अभावमें भी हो जाता है। यह तो जैनदर्शनका सिद्धान्त है, जिसे उत्तर पक्ष भी अस्वीकार नहीं कर सकता । जयधवलाके उक्त वचनको नयविषक्षानुसार ही ग्रहण करना चाहिए। उसकी विवक्षा, सन्दर्भ और गहराईकी ओर भी ध्यान रहना चाहिए ।
इसका निष्कर्ष यह है कि पूर्वपक्ष जयत्रबलाके उक्त कथनस सहमत है तथा उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उसका अर्थ भी उसे मान्य है। इसके अलाया लस्तरपक्षके इस मतसे भी वह इंकार नहीं करता कि क्रोधादि विकारी भावोंका कर्ता जीव ही होता है, क्योंकि उक्त विकारी भावरूप परिणति जीवकी ही होती है, द्रव्यकर्मकी नहीं। इसके साथ ही पूर्वपक्ष उत्तरपक्षके इस कथनको भी मानता है कि क्रोधादि विकारी भावरूप परिणति जीवकी अपनी ही परिणति होनेके कारण वह परनिरपेक्ष है। परन्तु परनिरपेक्षता या बाह्यकारण निरपेक्षताका वह अर्थ नहीं है कि उस परिणतिमें परकी-बाह्यकारणोंकी सहावकता नहीं हैवे उसमें अवश्य सहायक हैं और सहायकके रूपमें उनका सदभाव वहाँ होनसे वे अकिचित्कर नहीं है । यदि उपादान जीयके साथ प्रेरक और उदासीन निमित्त (बाहाकारण--द्रव्यकर्मोदय) न हो तो त्रिकालमें भी अकेले जीवसे क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। अन्यथा मुक्त जीवों में भी उनकी उत्पत्तिका प्रसंग आवेगा।
अब रह जाता है प्रवचनसार गाथा १६९ की अमतचन्द्रीय टीकामें आगत 'रवयं' शब्दके अर्थका बिचार । उसके अर्थ और अभिप्रायके सम्बन्धमें पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंमें विवाद केवल इस बातका है कि जीवके क्रोधादि बिकारी भादोंको उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मोदय सहायक होनेरूपसे कार्यकारी निमित्त है अथवा वह उसमें सहावक न होने रूपसे अकिचित्र निमित्त है 1 इसी बातका यहाँ निर्णय अभीष्ट है। उक्त विवादपर सूक्ष्म विमर्श और सिद्धान्तका निर्णय
यहाँ उक्त विषय पर सूक्ष्म विमर्श किया जाता है। कोआदिविकारगान जीवमें उत्पन्न होते है और इसलिए जीथ उनका उपादान कारण है। इसे दोनों पक्ष स्वीकार करते है। यह भी दोनों स्वीकार करते है कि वे तभी होते हैं जब द्रव्यवर्मका उदय होता है। अब विचारणीय पह है कि वे क्रोधादि विकारीभाव जीवमें ट्रध्यकमके उदय होनेपर होते हैं और लक्ष्य न होनेपर नहीं होते, तो 'अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि कार्यकारणभावः' इस सामान्य कार्यकारणभाव सिद्धान्तके अनुसार द्रव्यकर्मके उदयको क्रोधादि विकारभावोंका सहायक कारण--निमित्तकारण क्यों नहीं माना जाय और क्रोधादिविकारको उसका नैमिसिक कार्य क्यों स्वीकार न किया जाय? जब क्रोधादि विकारभाव अकेले जीवके न होकर द्रव्यकर्म के उदयके सदभावमें
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जयपुर ग्लानिया टलपी और उम्की समीक्षा होनेसे वे उसके भी कार्य है तो द्राकर्मोदयको उनका सहायक कार्यकारी निमित्त मानना अनिवार्य है... उसका अपलाप नहीं किया जा सकता है है। यह भी सश्य है, जिसे उभयपक्ष निर्विवाद मानते है कि जीद उन क्रोधादि विकारीभावोंका उपादाम है और उपादान एक ही होता है, जबकि निमित्त (सहायक कारण) अनगिनत होते हैं और वे क्रोधादि विकारी भावोंके उपादान नहीं होते । ऐसी वस्तुस्थितिमें द्रव्यकर्मोदयको सहायक न होने और इसलिए उसे अकिंचित्कर होनेका कथन कैसे कोई कर सकता है। यह अन्तस्से विचारना चाहिए । हमें आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष पूर्वाग्रहके वशीभूत होकर दव्यकर्मोदयको क्रोधादि विकारीभावों का सहायक निमित्त नहीं मानता और उसे अकिचिकर कहता है। जबकि अन्बय और व्यतिरेकसे उसमें सहायक कारणता सिद्ध होती है । न्यायशास्त्रका ही नहीं, दर्शनशास्त्र और अध्यात्मशास्त्रका भो सिद्धान्त है कि कोई भी कार्य हो, वह बाह्य (निमित्त) और इतर (आभ्यन्तर-उपादान) दोनोंकी समग्रतासे निष्पन्न होता है। अतः क्रोधादिविकार मात्र एक (उपादान) कारण जम्प नहीं है, अपितू उभव (उपादान और निमित्त दोनों कारण जन्य है। इससे स्पष्ट है कि निमित्तकारण सहायक कारण है और वह कार्यकारी (क्रोधादि भावोंकी नैमित्तिक जन्यताको उत्पन्न करनेवाला) होनेसे कदापि अकिंचित्कर नहीं कहा जा सकता।
इस विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि जयश्वलाका उक्त बचन उत्तर पक्षकी मान्यता (कोषादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मोदय सहायक न होनेसे अकिंचित्कर निमित्त है, इस मत) का पोषक नहीं है । अतः उसे प्रस्तुत करना व्यर्थ है--उत्तर पक्षकी मात्र असफल चेष्टा है। उत्तरपक्षके विरोधी वक्तव्योंपर विचार
(१) उत्तर पक्षने प्रकृत विषयमें परस्पर विरुद्ध कथन करते हुए लिखा है कि 'क्रोधादि द्रव्यकोको निर्मित किये बिना क्रोवारि भाव होते हैं, ऐसा हमारा कहना नहीं है और न ऐसा आगम ही है । हमारा कहना यह है कि क्रोधादि विकारी भावोंको स्वयं स्वतंत्र होकर जीव उत्पन्न करता है, क्रोधादि कर्म नहीं । आगमका भी यही अभिप्राय है।"
(२) एक अन्य जगहपर उसने लिखा है कि "जिस-जिस समय' जीव क्रोधादि भावरूपसे परिणमता है उस-उस समय क्रोधादि द्रव्यकर्मके उदयकी नियमसे काल-प्रत्यासत्ति होती है, इसलिए व्यवहारनयसे क्रोधादिकषायके उदयको निमित्त कर क्रोधाधि भाव हए, ऐसा कहा जाता है।"
उत्तरपक्षके ये दो वक्तव्य है, जो स्पष्टतया परस्पर विरुद्ध हैं। पहले वक्तव्य में, पूर्वपक्ष द्वारा निमित्त कारणोंकी कायोत्पत्तिमै अनिवार्यता सिद्ध कर देनेपर, अब यह कहता है कि 'क्रोधादि द्रव्यकर्मोफो निमित्त किये बिना क्रोधादि भाव होते हैं, ऐसा हमारा कहना नहीं है और न ऐसा आगम ही है।' ऐसा कहकर उत्तरपक्ष असन्दिग्ध रूपमें जीवके क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिम क्रोधादि व्यकर्मोकी निमित्तकारणताको स्वीकार कर लेता है और आगमको भी उसका, समर्थक बतलाता है। उसके इस स्वीकारमें केवल अन्तर यही है कि सीधी नाक न पकड़ कर द्राविडी प्राणायामसे उसे पकड़ता है। अथवा अन्ध सपके विलप्रवेश न्याय (अन्धा रार्प बिलमें सीधे न घुस कर उसके चक्कर लगा कर घुसता है) का वह अनुसरण करता है। माश्चर्य यह कि वह यह भी दोहराता जाता है कि 'हमारा कहना यह है कि क्रोधादि
१. त० प. पू. ३३ । २. वही, पृ० ३३ ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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विकारी भावोंको स्वयं स्वतंत्र जीव उत्पन्न करता है, क्रोधादि कर्म नहीं। आगमका भी यही अभिप्राय है।' इसे क्या कहा जाय | उत्तरपक्ष कहीं भी स्थिर नहीं रहता और न यह देखता है कि मेरा कथन पूर्वापर विरुद्ध तथा असंगत है। खेद यह है कि वह आगमको दोनों ओर घसीट कर उसकी दुर्दशा कर रहा है । जब बह प्रतिपादन करता है कि हम द्रव्यकोंको जीवके क्रोधादि भावोंकी उत्पत्ति में निमित्त होनेका निषेध नहीं करते और आगम भी ऐसा नहीं है। दूसरी ओर वह यह भी कहता जाता है कि क्रोधादि विकारी भावोंको स्वयं स्वतंत्र होकर जीव उत्पन्न करता है, क्रोधादि कर्म नहीं ।' तो उत्तर पक्षके कौनसे कथनको प्रमाण और संगत माना जाय । पाठक स्वयं निर्णय करें।
पदि उत्तर पक्षका यह अभिप्राय है कि जीवमें जो क्रोधादि बिकारी विभाष उत्पन्न होते हैं वे यद्यपि व्यकर्मोदयकी सहामोते ई, मिा लाभकार नहीं होता, क्योंकि वे द्रव्यकर्मोदयरूप न होकर जीयरूप ही होते हैं, तो यह पूर्वपक्षको अस्वीकार नहीं है, ऋयोंकि इस तरह जीवके क्रोधादि विकारी भावोंके उत्पन्न होने में द्रव्यकर्मोदयकी सहकारिता एवं कार्यकारिता स्पष्ट स्वीकार कर ली जाती है। परन्तु उसके इस प्रथम वक्तव्यका उसीके अगले द्वितीय वक्तव्यके साथ विरोध है, क्योंकि द्वितीय वक्तव्यमें उसने यह प्रकट किया है कि व्यकर्मोदयकी जीवके क्रोधादि विकारी भावरूप परिणत होनेमें उपादान जीवके साथ कालप्रत्यासत्ति मात्र होनेसे वह उसमें सहायक न होने के कारण अकिंचित्कर निमित्त कारण है। ये दोनों कथन कितने विसंगत है, यह भी उत्तर पक्षको देखना चाहिए । केवल बुद्धिकौशलका प्रकट करना या शास्त्रार्थ के लटकोंका माश्रय लेना ही अभीष्ट नहीं होना चाहिए । तत्त्वनिर्णयका प्रयोजन मुख्य होना चाहिए, इसी उद्देश्यसे तत्त्वचर्चाकी योजना बनाई गयी थी।
दूसरा वक्तव्य जहां पहले वक्तव्यसे विरुद्ध है वहाँ वह घुमावदार भी है। जीवके क्रोधादि भावरूप परिणामोंकी उत्पत्तिमें क्रोधादि द्रम्पकर्मके उदयकी नियमसे कालप्रत्यासत्तिको स्वीकार कर क्या उत्तरपक्ष
मर्मको निमित्त कारण अमान्य कर सकता है और जब वह लगे हाथ उसी के साथ यह भी कह रहा है कि 'इसलिए व्यवहारमयसे क्रोधादि कषायके उदयको निमित्त कर क्रोधादि भाव हुए ऐसा कहा जाता है।' कैसी विडम्बना है कि वह क्रोधादि कषायके उदयको निमित्त कर होनेवाले क्रोधादि भावोंको मान रहा है और उपादानके साथ निमित्तोंकी कालप्रत्यासत्ति को भी अंगीकार कर रहा है, फिर भी निमित्तोंको इस महान देन (सार्थकता-उपादान निमित्तोंके सदभाव कालमें ही कार्यकारी होता है, अन्य कालमें नहीं)अन्वय-व्यतिरेकसे सिद्ध निमित्तोंकी अनिवार्य सहायकता कार्यकारिताको स्वीकार करनेसे वह कतरा रहा है। उक्त रूपसे कथन करनेपर उत्तरपक्ष निमित्तोंको अकिचिकर कहनेका साहस कर ही नहीं सकता है।
रही व्यवहारनपसे क्रोधादिकषायके उदयको निमित्त मानने की बात । सो उसे पूर्वपक्ष मी स्वीकार करता है। परन्तु व्यवहारमय कल्पित या मिथ्या नहीं है । यदि उसे कल्पित वा मिथ्या माना जाय तो उसका विषय भी कल्पित या मिथ्या हो जायगा । वह मिथ्या या कल्पित तभी हो सकता है जब निश्चयनय और उसके विषयका यह तिरस्कार या निषेध करे। अतः परस्पर सापेक्ष द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंकी भांति निश्चयनय तथा व्यवहारनयको भी परस्पर सापेक्ष स्वीकार करनेपर ही उनमें सम्यकनयपना माना गया है। अन्यथा वे दुर्नय कहे जायेंगे । व्यवहारमय अपने विषयको सही रूपमें निश्चयनयकी तरह ही जानता-ग्रहण करता है । अतः वह सम्पनप है और उस नयसे क्रोधादिकषायके उदयको जीवके क्रोषादि विकारी भाषोंकी
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४.
अयपुर (खानिया) तत्त्ववर्षा और उसकी समीक्षा
उत्पत्तिमें निमित्त बतलाना या कहना सही जैन सिद्धान्त है। उसे तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना मा उसकी अन्यया व्याख्या करना जैन सिद्धान्त नहीं है। अपने-अपने विषय-निरूपणमें भ्याथिक और पर्यायाधिक नयों की तरह निश्चय और व्यवहारनय दोनों रामान है । इसे उत्तर पक्ष भी जानता है। किन्तु पक्षाग्रहवश बह लीपा-पोती करनेको श्रेष्टा करता है। उत्तरपक्षका अनुपयोगी वक्तव्य
उत्तर पक्षने तत्त्वानुशासन' पद्य २९ को उद्धृत कर एक ऐसे विषयको छेड़ा है, जिसकी प्रकृतमें जरा भी उपयोगिता नहीं है । उसने लिखा है कि "जिस व्यके उसी दव्यमें कर्ता और कर्म आदिको विषय करनेवाला निश्चयलय है तथा विविध द्रव्यों में एक-दूसरेके कर्ता और कर्म आदिको विषय करनेवाला व्यवहारमय है। इसके विषयों पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। पर प्रश्नके उत्तरमें इसको उपयोगिता क्या है? इसे उसने नहीं सोचा। उत्तरपक्षके एक अन्य वक्तव्य और उसपर विमर्श
___ उत्तर पक्षने उपर्युक्त बक्तब्धके आगे लिखा है कि "यहाँ विविध द्रव्यों में एक-दूसरेके कर्ता आदि धर्मोको ब्यबहारनवसे स्वीकार किया गया है सो वह कथन तभी बन सकता है जब एकके धर्मको दूसरेमें आरोपित किया जाये । इसीको अग़द्भूत अवहार कहते हैं । इस तथ्यको विशद रूपमें समझने के लिए आलापपद्धतिके "अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः"-अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना असद्भूत व्यवहार है इत्यादि वचन पर दृष्टिपात कीजिए।"
इस विषयमें भी पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ कोई मतभेद नहीं है । केवल यह ध्यान रखना आवश्यक है कि एक वस्तुके धर्म का दूसरी वस्तुमें समारोपण करनेके लिये आलापपद्धतिमें ही तीन आधार स्वीकार किये गये हैं अर्थात् जहाँ मुख्यरूपताका अभाव, निमित्तका सद्भाव और प्रयोजनका भी सद्भाव हो वहीं उपचार (समारोप) की प्रवृत्ति होती है।
इस सम्बन्धमें एक उदाहरण यह है कि लोकमें मत्तिकाके रूपमें विद्यमान घटमें जो धृतरूपताका आरोप किया जाता है उसमें यह बारोप इन आधारोंपर किया जाता है कि एक तो चटका घृतरूप होना सम्भव नहीं होनेसे मुख्यरूपताका अभाव यहां विद्यमान है। दूसरे, घट और घृतमें संयोगसम्बन्धाषित
आधाराधेयभावके विद्यमान रहने से निमित्तका सद्भाव भी यहाँ विद्यमान है और तीसरे, घटमें घृत रखने या उसमेंसे घृत निकालन रूप प्रयोजनका सद्भाव यहाँ विद्यमान है । इस तरह मिट्टीके रूपमें विद्यमान घटमें उक्त तीनों आवारोंपर घृतरूपताका आरोप संभव हो जाता है ।
इस संबंधमें दूसरा उदाहरण यह दिया जा सकता है कि लोकमें मिट्टी में विद्यमान घटकर्तृत्वका जो कुम्भकार व्यक्तिमें आरोप किया जाता है उसमें भी यह आरोप इन आधारोंपर किया जाता है कि एक तो
१. अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो मसः । ____ व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचरः ।।-त० शा० । २. त० च०१० २३ । ३. देस्त्रो त० न० पृ० ३४ । ४. मुख्याभाषे सति निमित्त प्रयोजने च उपधारः प्रवर्तते । आलापपद्धति ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
कुम्भकार व्यक्ति घटके मुरूप कर्तृत्वका अभाव है, क्योंकि जिस प्रकार मिट्टी पटरूप परिणत होती है उस प्रकार कुम्भकार घटरूप परिणत नहीं होता। दूसरे, मिट्टीसे निर्मित होनेवाले घटकी उत्पत्तिमें कुम्भकारको सहायता अपेक्षित रहा करती है, क्योंकि कुम्भकार व्यक्तिका सहयोग प्राप्त हुए बिना मिट्टी कदापि घटरूप परिणत नहीं होती है। अतः निमित्तका सदभाव भी वहां पाया जाता है और तीसरे, कुम्भकार द्वारा घटनिर्माणका प्रयोजन जलाहरण आदिके रूप में वहाँ निश्चित रहता है। अतः प्रयोजनका सद्भाव भी यहाँ स्वीकृत करने योग्य है। इस तरह मिट्टी में विद्यमान घटकर्तृत्वका कुम्भकार व्यक्ति में उपत तीन आधारोंसे भारोप होता है।
प्रकृतमें इसका समन्वय इस प्रकार होता है कि क्रोधादि विकारी भावोंका मुख्यकर्ता जीव होता है। परन्तु जीवमें वे क्रोधादि विकारी भाव द्रव्यकर्मके उदयका सहयोग प्राप्त होने पर ही होते हैं, द्रव्यकर्मके उदयका सहयोग प्राप्त हुए बिना नहीं होते । इसे आगमके आधारपर पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इस तरह जीवमें विद्यमान क्रोधादि विकारी भावोंके कर्तत्वका जो दृश्यकर्मके उदयमें आरोप आमममें प्रतिपादित किया गया है उसमें भी उपर्युक्त तीन आधारोंको स्वीकृत किया गया है अर्थात् एक तो द्रव्यकर्मोदवमें जीवके क्रोधादि विकारी भावोंके मुख्यकतत्त्वका अभाव है. क्योंकि जिस प्रकार जीव उन क्रोधादि विकारी भावोंके रूपमें परिणत होता है उस प्रकार उदयपर्यायविशिष्ट कर्म उन रूप परिणत नहीं होता । दूसरे, जीवमें होनेवाले क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें उदयपर्यायविशिष्ट व्यकर्मकी सहायता अपेक्षित रहा करती है, क्योंकि उसके सहयोगके बिना जीवकी क्रोधादि विकारीभाषरूप परिणति नहीं हो सकती है, अत: निमित्तका सद्भाव भी यहां विद्यमान है और तीसरे क्रोधादि विकारी भावोंके उत्पन्न होनेका प्रयोजम जीवका संसारपरिभ्रमण आदिके रूपमें यहाँ स्वीकृत करने योग्य है। इस तरह जीवके क्रोधादि विकारी भाबोंके कर्तुत्वका उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्ममें उक्त तीन आधारोंसे आरोप हो जाता है। इस विवेचनसे सहज ज्ञात हो जाता है कि जब आलापपद्धतिके "अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः" वचनके आधारपर उत्तरपक्ष जीवमें उत्पन्न होने वाले कोधादि विकारी भावोंका आरोपित कर्ता या उपचरितकर्ता उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको स्वीकार करनेके लिए तैयार है तो उसे उस पर्यापविशिष्ट व्यकर्मको उस उपचरित या बारोपित कर्तत्वकी प्रसिद्धिके लिए जीवके क्रोधादि विकारी भावोंको उत्पत्ति में सहायक होने रूपरो कार्यकारी निमित्तकारण स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है । यतः उत्तरपक्ष द्रव्यकर्मोदयको जीवके क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि वह तो उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अफिषिकर निमित्तकारण मानता है, अतः उसके मतानुसार जीवके क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्ति में द्रव्यकर्म के उदयको उपचरित या आरोपित कर्ता मानना किसी भी प्रकार संभव नहीं है प्रकृतमें पूर्वपक्ष द्वारा उद्धृत "सदकारणवन्नित्यम्" वचनका प्रयोजन
__ पूर्वपक्षने अपने सूतीस दोरम प्रसंगवा जो भाप्तपरीक्षा का रिकाकी टीकाके उपर्युवत वचनको उद्धृत किया है उसका प्रयोजन मात्र इतना है कि जो सत् हो और जिसका कोई कारण न हो उसे न्याय दर्शनमें नित्य माना गया है और यतः उत्तरपक्ष जीवमें विद्यमान कोषादि विकारी भावोंके सदभावको व्यकर्मोदयके निमित्त हुए बिना अपने माप ही मान लेना चाहता है अतः उसके अकारण हो जानेसे जीवमें उनके सद्भावको उपयोगके समान सार्यकालिक माननेका प्रसंग आता है को उत्तरपदाको भी अभीष्ट नहीं है ।
स०-६
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस विषय में उत्तरपक्ष ने जो द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंकी दृष्टिसे नित्यता और अनित्यताके विकरूप प्रस्तुत किये हैं उनकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष भी उत्तरपक्षके समान जैन दर्शनकी इस व्यवस्थासे अपरिचित नहीं है।
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वास्तव में उत्तरपक्षका वर्षा सर्वत्र ऐसा
है कि प्रकृतकी उपेक्षा करके अप्रकृत की ओर जानेका किसी-न-किसी बहाने उसने सदा प्रयत्न किया है और उस अप्रकृत विषयको उसने इस रूपमें प्रस्तुत करनेको श्रेष्टा की है जैसे पूर्वपक्ष उस विषयसे सर्वथा अनभिज्ञ हो 1 विरोधमें इसी प्रकार के
और भी कथन किये हैं जिनकी
उत्तरपक्ष ने अपने तृतीय दौर में पूर्वपक्ष यहाँ क्रमशः समीक्षा की जाती है ।
कथन १ और उसकी समीक्षा
(१) उत्तरपक्षने तत्त्वचर्चा पृष्ठ ३४ पर लिखा है कि "अपरपक्षने जयघवला १-५६ के वचनको उद्भुत कर जो यह प्रसिद्ध किया है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर साम्रगीकी समग्रतामें होता है, सो इसका हमने कहां निषेध किया है। रागादि भावकी उत्पत्ति में कर्मकी निमित्तताको जैसा अपरपक्ष स्वीकार करता हैं उसी प्रकार हम भी स्वीकार करते हैं । विवाद इसमें नहीं हूं।"
इसकी समीक्षामें कहा जा सकता है कि बात वास्तव में ऐसी नहीं है जैसी उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें कही है, क्योंकि वैसी बात कहनेपर भी वह रागादि भावकी उत्पत्ति में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण न मानकर सहायक न होने रूपसे ऑर्केचिरकर निमित्तकारण ही मानता जबकि पूर्वपक्ष उसे वहाँपर सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण ही मानता है, जो आगमसम्मत है व उत्तरपक्षकी मान्यता आगमविरुद्ध है, इसे पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है।
कथन २ और उसकी समीक्षा
(२) उत्तरपक्षने वहीं पर आगे लिखा है- " किन्तु विवाद इसमें है कि परद्रव्यकी विवक्षित पर्यायको निमित्तकर दूसरे द्रव्यमें जो कार्य होता है उसका यथार्थ कर्त्ता कौन है" ?
इसकी समीक्षा इस प्रकार है-पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य विवाद इस बातका नहीं है कि उक्त रागादि भाषका यथार्थ कर्ता कोन है, क्योंकि पूर्व में कहा जा चुका है और उत्तरपक्ष भी इससे अनभिज्ञ नहीं है कि परद्रव्यकी विवक्षित पर्यायको निमित्तकर दूसरे द्रव्यमें जो कार्य होता है उसका यथार्थ कर्ता उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्षकी मान्यतामें भी वही द्रव्य होता है जिस द्रम्प में वह कार्य उत्पन्न होता है या जो द्रव्य उस कार्यरूप परिणत होता है। जिस द्रव्यको निमित्तकर यह कार्य होता है उसे पूर्वपक्ष भी उस कार्यका उत्तरपक्षके समान अयथार्थ कर्ता मानता है। इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य प्रकृतमें जो विवाद है वह किसको यथार्थकर्ता माना जाये, यह न होकर इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष निमित्तकारणभूत वस्तुके उस अयथार्थ कर्तृत्वको कार्योत्पत्ति के प्रति सहायक न होने के आधारपर अकिंचित्कर स्वीकार करता है वहां पूर्वपक्ष उसके उस अयथार्थकत्वको कार्योत्पतिके प्रति सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी स्वीकार करता है। दोनों पक्षोंकी परस्पर विरोधी इन मान्यताओं में पूर्वपक्षकी मान्यता आगमसम्मत है, उत्तरपक्षकी मान्यता आगमसम्मत नहीं है, इसे भी स्पष्ट किया जा चुका है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा कथन ३ और उसकी समीक्षा
(३) उत्तरपक्षने वहीं पर आगे लिखा है-"अपरपक्षने परमात्मप्रकाशकी गाथा ६६ और ७८ को उपस्थितकर यह सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि जीवको सुख दुःख और नरक-निगोद आदि दुर्गति देने वाला कर्म ही है। आत्मा तो पंगके समान है। वह न कहीं जाता है और न आता है। तीन लोकमें इस जीवको कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है। शायद अपरपक्ष निमित्तकर्ताका यही अर्थ करता है और इसीको अपने प्रश्नका स्नर मानता है 1 किन्तु यह व्यवहारनयका वक्तव्य है इसे अपरपंक्ष भूल जाता है।"
इसकी समीक्षामें हम कहना चाहते है कि पूर्वपक्ष भी उसे उत्तरपक्षके समान व्यवहारनयका ही विषय मानता है, निश्चयनयका नहीं। दोनों पक्षों के मध्य जो विवाद है वह केवल इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष उसे व्यवहारनयका विषय कार्योत्पत्ति के प्रति सहायक न होनेके आधारपर अकिचित्करके रूपमें स्वीकार करता है वहां पूर्वपक्ष उसे अबहारनवका विषय कार्योत्पत्तिके प्रति सहायक होनेफे आधारपर कार्यकारीके रूपमें स्वीकार करता है। इनमें से पूर्वपक्षकी मान्यता तो आगमसम्मत है, उत्तरपक्षकी मान्यता
आगमसम्मत नहीं है । इसे भी पूर्वमं स्पष्ट किया जा चुका है। कथन ४ और उसको समीक्षा
(४) उत्तरपक्षने वहीं आगे चलकर यह कथन किया है कि -"परका सम्पर्क करनेपर जोवकी कैसी गति होती है, यह इन वचनों द्वारा प्रतिपादित किया गया है"।
इसकी समीक्षामें मैं कहना चाहता है कि उत्तरपक्षके इस कथनमें विवाद नहीं है। परन्तु वह जब इस तरह के सम्पर्कको जीवके सुख-दुःख और नरक, निगोद आदि अवस्थाओंके होने में निमिसकारण मान लेता है तो फिर उसका उस परसम्पर्कको जीवकी उक्त अवस्थाओंके निर्माणमें सर्वथा अकिंचित्कर मानना असंगत हो जाता है, क्योंकि इस तरहसे तो कार्योत्पत्ति में परसम्पर्क सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी हो होता है, सहायक न होनेके आधारपर अकिचिकर बतलाना सिद्ध नहीं होता। इस तरह उत्तरपक्षके सामने यह एक गंभीर समस्या खड़ी रहती है । कथन ५ और उसकी समीक्षा
(५) उत्तरपक्षने वहीं पर आगे यह कथन किया है कि-"यहां यह स्मरण रखने योग्य बात है कि परका सम्पर्क करना और न करना इसमें जीवकी स्वतन्त्रता है" |
इसकी समीक्षा भी मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षका यह कथन हमें भी मान्य है। परन्तु परका सम्पर्क करने में स्वतंत्र होते हुए भी जीव जब वक यथायोग्य मोह, राग और द्वेषके वशीभूत रहता है तब तक ही वह आसक्तिवश या अशक्तिवश या कर्तव्यवश परका सम्पर्क करता है और सुखी-दुःखी नरक, निगोद आदि अशुभ तथा शुभ मतियोंका पात्र बनता है। कथन ६ और उसकी समीक्षा
१६) आगे उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेदमें यह दिखलानेका प्रयत्न किया है कि "सुख-दुःख और नरकनिगोद आदिका पर निमित्त न होकर परका सम्पर्क हो निमित्त होता है"। इसमें पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वह भी इस बातसे अपरिचित नहीं है कि कार्योत्पत्ति पर वस्तु तभी निमित्त होती है जब
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उनका यथोचित सम्पर्क कार्यरूप परिणत होने वाली अर्थात् उपादानकारणभूत वस्तुके साथ होता हूँ। इतना अत्र है कि मिट्टी के साथ दण्डचक्रादिका यथोचित सम्पर्क होने पर ही घटोत्पत्ति हो सकती है, यह जान लेने पर ही कुम्भकार घटोत्पत्ति के लिये मिट्टी के साथ अपना व दण्डचक्रादिका ययोचित सम्पर्क करता है । इस तरह उत्तरपक्षने इस विषयको लेकर जो कुछ कथन किया है वह सब व्यर्थ और अनावश्यक है । fare विवेचनसे स्पष्ट है कि दोनों पक्षोंके मध्य में निम्न मान्यताएँ समान हैं - (क) रागादिभावरूप परिणति जोवकी हो होती है, कर्म की नहीं । (ख) जीव ही रामादिभावका यथार्थ कर्ता है, कर्म उसका यथार्थ कर्ता न होकर अयथार्थ कर्ता है। (ग) कर्म में विद्यमान मह अथार्थं कर्तृत्व व्यवहारतत्रका ही विषय है। निश्चयनयका नहीं । (घ) जीव परका सम्पर्क करनेमें स्वतंत्र है और सुख-दुःख आदि परके सम्पर्कसे ही होते हैं । इन समान मान्यताओंके साथ दोनों पक्षोंके बीच निम्न मान्यताएँ विवादग्रस्त भी हैं । (क) जहाँ पूर्वपक्ष जीवकी रागादि परिणतिमें द्रव्यकर्मोदयको सहायक होनेसे कार्यकारि निमित्तकारण मानता है। ant उत्तरपक्ष उक्त रागादिपरिणतिमें उस द्रव्यकर्मके उदयको सहायक न होनेसे अकिचित्कर निमित्तकारण स्वीकार करता है । (ख) इसी तरह जहाँ पूर्वपक्ष उक्त कार्य ( गगादिपरित) के पति कर्णेदयको सहायक होने से कार्यकारि होने के आधारपर अयथार्थकर्ता मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उस कार्यके प्रति उक्त द्रव्यर्मोदयको सहायक न होनेसे अकिंचित्कर होनेके आधारपर अयथार्थकर्ता अंगीकार करता है। (ग) इसी प्रकार जहां पूर्वपक्ष द्रव्यकर्मोदकी निमित्तकारणता और उसकी अवथार्थकताको स्वीकार कर उसकी कार्यकारिता के आधारपर उसे कथंचित् भूतार्थ रूप में व्यवहारनयका विषय मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उक्त द्रव्यकर्मोदयको निमित्त कारणता और उसको अयथार्थकताको स्वीकार कर उक्त कार्यके प्रति सहायक न होनेसे आयी अकिंचित्करता के आधारपर उसे सर्वथा अभूतार्थरूप में व्यवहारनयका विषय मानता है। इनके सम्बन्ध में पहले पर्याप्त स्पष्ट किया जा चुका है । अतएव पूर्वपक्षको मान्यताएँ ही आगमसम्मत है, उत्तरपक्षको मान्यताएँ आगमसम्मत नहीं हैं ।
कथन ७ और उसकी समीक्षा
(७) उत्तरपक्षने स० च० पृ० ३५ पर यह कथन किया है कि - "परमात्मप्रकाश दोहा ६६ में आया हुआ 'विधि' शब्द जहाँ द्रव्यकर्मका सूचक है वहीं पर परमात्मा की प्राप्ति के प्रतिपक्षभूत भावकर्मको भी सूचित करता है ।" इस विषय में पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु इराके आगे वहीं पर उत्तरपक्षने कथन किया है कि "जब इस जीवकी द्रव्य पर्याय स्वरूप जिस प्रकारकी योग्यता होती हैं तब उसकी उसके अनुसार ही परिगति होती है और उसमें निमित्त होने योग्य बाह्यसामग्री भी उसीके अनुकूल मिलती है ऐसा ही त्रिकालाबाधित नियम है, इसमें कहीं अपवाद नहीं" इस कथन के अन्तिम अंश ( उसमें निमित्त होने योग्य बाह्य सामग्री भी उसीके अनुकूल मिलती है ऐसा ही त्रिकालाबाधित नियम है इसमें कहीं अपवाद नहीं)
में पूर्वपक्षको विवाद है क्योंकि उसके आधारपर उत्तरपक्ष यह सिद्ध करना चाहता है कि "जब उपादान कारणभूत वस्तु विवक्षित कार्यरूप परिणत होती है तब उसको उसके अनुकूल निमित्त नियमसे मिल जाया करते हैं" परन्तु वह ठीक नहीं है, क्योंकि उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तुकी विवक्षित कार्यरूप परिणति पूर्वोक्त प्रेरक और उदासीन निमितोंका सम्पर्क प्राप्त होनेपर ही होती है और न मिलने पर नहीं होती । तात्पर्य यह है कि उत्तरपक्षकी मान्यता के अनुसार उपादानसे जब जैसा कार्यं उत्पन्न होता है सब निमित्त भी उसीके अनुकूल प्राप्त होते हैं और पूर्वपक्ष की मान्यताके
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
अनुसार कार्य यद्यपि उपादानगत स्वाभाविक योग्यताके अनुकूल ही हो जाते हैं परन्तु जब उसे निमित्त मिलते हैं तभी वे उन निमित्तोंके अनुसार उपादानगत उक्त योग्यताके अनुरूप होते हैं । कथन ८ और उसकी समीक्षा
(८) उत्तरपक्षने आगे चलकर त० च० पृ० ३५ के इसी अनुच्छेदमें वह कथन किया है कि-"जब विवक्षित ट्रम्य अपना कार्य करता है तब बाच सामनी उसमें यथायोग्य निमित्त होती है। परमात्मप्रकाशके उक्त कथनका यहो अभिप्राय है। उसका यह फायन भी प्रमाणसंगत नहीं है, क्योंकि यह स्पष्ट किया जा चुका है कि यद्यपि वही वस्तु विवक्षित कार्यरूप परिणत होती है जिसमें उस कार्यरूप परिणत होनेको स्वाभाविक योग्यता विद्यमान रहती है, परन्तु उसकी वह कार्यरूप परिणति अनुकुल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग प्राप्त होने पर ही होती है, न मिलनेपर नहीं होती। निष्कर्ष यह कि विवक्षित वस्तुकी वही परिणति होती है जिसकी योग्यता उसमें विद्यमान रहते हुए अनुकूल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग उसे प्राप्त होता है। इस तरह परमात्मप्रकाशके उक्त कथनका जैसा अभिप्राय उत्तरपक्ष लेना चाहता है वह युक्त नहीं है। प्रत्युत पूर्वपक्षका अभिप्राय प्रमाणसंगत है और यही वस्तुस्थिति है। कथन ए और उसकी समीक्षा
(१) उत्तरपक्षनेत० प १० ३५ के हमी अनुच्छेदमें आगे लिखा है-'समसार गाथा २७८ १२७९ से भी यही सिद्ध होता है। उक्त गाथाओंमें यद्यपि यह कहा गया है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि आप शुद्ध है वह लालिमा आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है। किन्तु वह अन्य रक्त आदि द्रव्यों द्वारा लालिमा आदि रूप परिणमाया जाता है उसी प्रकार ज्ञानी आप शुद्ध हैं वह राग आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है किन्तु वह राग आदि दोषों द्वारा रागी आदि किया जाता है। परन्तु इसका ठीक आशय क्या है इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्रने "न जातु रागादि" इत्यादि कलश द्वारा किया है। इसमें पर पदार्थको निमित्त न बतला कर परके संगमें निमित्तता सूचित की गई है। इससे स्पष्ट होता है कि आगममें जहाँ-जहाँ इस प्रकारका कथन आता है कि जीवको कर्म सुख-दुःख देते हैं, कर्म बड़े बलवान है. ये ही इसे नरक आदि दुर्गसियोंमें और देवादि सुगतियोंमें ले जाते हैं वहाँ-वहाँ उक्त कथनका यही अर्थ करना चाहिए कि जब तक जीव कर्मोदयकी संगति करता रहता है तब तक उसे संसार-परिभ्रमणका पात्र होना पड़ता है । कर्मोदय जीवके सुख-दुःख आदिमै निमित्त है, इसका आशय हत्तना ही है। परमात्मप्रकाश में इसी आशयको इन शब्दोंमें व्यक्त किया गया है कि यह जीव पंगुके समान है वह न कहीं जाता है और न आता है, कर्म लोकमें इसे ले जाता है और ले आता है आदि ।"
सप्तरपक्षके इस कथनके विषयमें पूर्वपक्षको अणुमात्र भी विवाद नहीं है, क्योंकि इसी मावायको ध्यानमें रखकर ही पूर्वपक्षने परमात्मप्रकाशके उक्त दोनों पद्योंको अपने वक्तव्यमें उद्धृत किया है। परन्तु जो बात विवादकी है उसको तो उत्तरपक्ष इतना लम्बा लिखने के पश्चात् भी अपनी दृष्टिसे ओडरल किये हुए है अर्थात उत्तरपक्ष स्फटिक मणिमें उत्पन्न हई लालिमामें लाल वस्तुको और उगीके समान जीवमें उत्पन्न होने वाले रागादि भावों में रागादि प्रध्यकर्मके उदयको निमित्त मानकर भी जब इन निमित्तोंको उक्त कार्यके प्रति सहायक न होने रूपसे अकिचिल्कर मान लेता है तो निमित्तौकी इस अकिंचित्करताका उत्तरपक्षके उपर्युक्त कथनके साथ करो मेल बैठ सकता है ? यह उत्तरपक्षको मोचना चाहिए। साथ ही तत्त्वजिज्ञासुओंको भी इसपर विचार करना चाहिए ।
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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा कथन १० और उसकी समीक्षा
(१०) आगे तक च. प. ३५पर ही उत्तरपनने लिखा है-"आमममें दोनों प्रकारका कथन उपलब्ध होता है । कहीं उपादानको मुख्यता कथन किया गया है और कहीं निमित्तव्यवहारके योग्य बाए सामग्रीकी मुख्यतासे कथन किया गया है। जहाँ उपादानकी मुख्यतासे कथन किया गया है वहीं उसे निश्चय यथार्थ कथन जानना चाहिए और जहाँ निमित्त व्यबहार योग्य बाह्य सामग्रीकी मुख्यतासे कथन किया गया है वहाँ उसे अराद्भूत व्यवहार (उपचरित) कथन जानना चाहिए।"
उत्तरपक्षके इस कथन में जहाँ तक आगमका रामर्थन है वहाँ तक पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है अर्थात् पूर्वपक्ष आगममें विद्यमान निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकारके कथनोंको स्वीकार करता है । कहाँ कब किस दृष्टि से आगममें कथन किया गया है उसे भी वह मान्य करता है और उपादानकी मुख्यतासे किये गये कथनको निश्चय या निमिनको य:से निगमलको अमाभूत व्यवहार (उपचरित) वह भी मानता है। दोनों पक्षोंके मध्य जो विवाद है वह इन बातों में है कि जहां उत्तरपक्ष निमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर मानता है और इसी अकिंचित्करताके आधारपर उसे वह अपथार्थ कारण व उपचरितकर्ता मानकर इसी रूपमें असदभूत व्यवहार (उपचरित) स्वीकार करता है वहाँ पूर्यपक्ष निमित्तको कार्य में सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है और इसी कार्यकारिताके आधारपर वह उसे अयथार्थकारण व उपरितकर्ता स्वीकार कर इसी रूपमें असद्भूत व्यवहार (उपचरित) मानता है । कथन ११ और उसकी समीक्षा
(११) उत्तरपक्षने त प. पृ० ३५ पर ही आगे यह कथन किया है-'श्री समयसार गाथा ३२ की टीका निमित्तम्यवहारके योग्य मोहोदयको भावक और आत्माको भाव्य कहा गया है सो उसका आशम इतना ही है कि जब तक यह जीव मोहोदय के सम्पर्कमें एकत्वबुद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदयमें भावक व्यवहार होता है और आत्मा भाष्य कहा जाता है। यदि ऐसा न माना जाये तो सतत मोहोदयके विद्यमान रहने के कारण यह आत्मा भेदविज्ञानके बलसे कभी भी भाव्य-भावक संकरदोषका परिहार नहीं कर सकता । इस प्रकार उक्त कथन द्वारा आत्माको स्वतंत्रताको अक्षण्ण बनाये रखा गया है। आत्मा स्वयं स्वतंत्रपने मोहोदयसे अनुरंजित हो तो ही मोहोदय रंजक है अन्यथा नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।"
उत्तरपक्षने अपने इस कथनमें जीवको अपनी विभाव परिणतिके करनेमें स्वतंत्र रूपसे कारण सिब करनेके लिये मोहोदयको उसमें सहायक न होने रूपसे अकिंचित्क र मान्य करना चाहा है और इसके लिये उसने समयसार गाथा ३२ की टीकाका विपरीत आशय प्रस्तुत करनेकी चेष्टा की है।
__ समयसार गाथा ३२ का सुसंगत आशय यह है कि जब तक जीवमें सम्बद्ध मोहकर्मका उदय विद्यमान है तब तक वह जीव अपनी विभावपरिणति करता रहता है और इस आधारपर ही मोहकर्मका उदय भावक . कहलाता है व आरमा भाव्य कहलाता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जब तक जोवमें मिथ्यात्व कर्मका उदय विद्यमान रहता है तब तक वह जीव अपनी मिथ्यात्वरूपं परिणति करता रहता है और उस मिथ्यास्वरूप परिणतिके कारण वह भावमिथ्यादष्टि बना रहता है। लेकिन यदि उस जीवमें मिथ्यात्व कर्मक उदयका उस कर्मक उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके रूपमें अभाव हो जाता है तो वह जीव भावसम्यग्दृष्टि हो जाता है। इस तरह जीवकी मिथ्यात्वरूप परिणति मिथ्यात्वकर्मके उदयकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण उस मिथ्यात्वकर्मको भावक कहा जाता है और आत्माको भाव्य कहा जाता है। पूर्वपक्षने भी अपने
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शंका ४ और उसका समाधान
तृतीय दौर में तच पु० ११ पर दृष्टिसे समयसार गाथा ३२ की टीकाके आधारपर आत्माको भाष्य और मोहकर्मको भाषक मान्य किया है ।
__ उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथनमें समयसारको उक्त गाथा ३२ की टीकाके आशयके रूपमें यह कहा है कि "जब तक यह जीव मोहोदयके सम्पर्क में एकात्वबुद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदयमें भावक व्यवहार होता है और आत्मा भाग्य कहा जाता है।" इससे उत्तरपक्षका यही अभिप्राय हो सकता है कि जीव द्वारा मोहकर्मके उदयका सम्पर्क करते हुए भी उससे अपनी एकत्वबुद्धि नहीं करने पर न तो मोहोदयको भावक कहा जा सकता है और न आत्माको भाव्य कहा जा सकता है। परन्तु उसका यह अभिप्राय असंगत है, क्योंकि जीवमें जन तक मिथ्यात्वकर्मका उदय विद्यमान रहता है तब तक उसमें अपनी एकत्वबुद्धिका अभाव हो पागर में नीच सागरिया दृष्टि बगः गहना है । ऐसी बात नहीं है कि वह इस अवसरपर भावसम्यग्दृष्टि हो जाता हो, क्योंकि वह भावसम्यग्दृष्टि तभी बन सकता है जब उसमें मिथ्यात्वकर्मक उदयका उस कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके रूपमें अभाव हो जाता है। इसलिये समयसार गाथा ३२ की टीकाका यही आशय ग्रहण करना उषित है कि एकत्वबद्धिके बने रहने या न बने रहनेपर भी जब तक यह जीव मोहोदयके सम्पर्कमें रहता है तब तक उसकी मोहरूप परिणति होती रहती है। अतः उस समय तक मोहोदयको भावक और आत्माको भाव्य स्वीकार करना संगत है । समसार गाथा १६१ में आचार्य दुदकुदने यही कहा है कि सम्यक्त्वको रोकनेवाला मिथ्यात्वकर्म है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। अतः उसके उदय से जीवको मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए।
इस विवेचनसे यह स्पष्ट होता है कि मोहोदयका सम्पर्क रखते हुए जीव उक्त एकत्वबुद्धिको समाप्त तो कर सकता है, परन्तु यह नियम नहीं मान्य किया जा सकता है कि एकत्वबुद्धिके समाप्त होने मात्रसे जीवकी मोहरूप परिणतिका अभाव होकर भाव्य-भावक संफरदोषका परिहार हो ही जाता है । यह नियम न माननेका कारण यह है कि एकरवबुद्धिका त्याग व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है और वह धमवहारसम्यग्दर्शन मिथ्यात्वकर्मके उदयके आधारपर भावमिथ्यात्वरूपसे परिणत प्रथम गुणस्थानभर्ती अर्थात् भावमिष्याष्टि जीवके भी सम्भव है, क्योंकि एकत्वबुद्धि या एकत्व बुद्धिका त्याग दोनों जीवके मानसिक, अशुभ या शुभ पुरुषार्थ है तथा वे अशुभ और शुभ दोनों पुरुषार्थ भब्यमिथ्यादृष्टि जीवमें और यहाँ तक कि अभय मिश्यावृष्टि जीवमें भी आगम द्वारा स्वीकार किये गये हैं। इस तरह उस एकत्वबुझिम त्यागस्वरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन भध्यमिथ्यावृष्टि जीवमें जब प्रगट होता है तब जीव परपदार्थों में अपने मानसिक, वाचनिक और कायिक आत्म-पुरुषार्थ द्वारा ही अनासक्ति भावको मुदृढ़ करता हुआ प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भावको अपने अन्तःकरणमें विकसित कर लेता है तथा वह यदि भव्य है तो कदाचित अधःकरण, अपूर्वकरण और
१. सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिदि त्ति णाययो ।।१६१८-समयसार २. (क) राद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि ।
___ धम्म भोगणिमित्तं ण टू सो कम्मलमणिमित्तं ॥२७५।।-समयसार (ख) यसमिदी गुप्तीओ सीलतवं जिणबरेहि पण्णत्तं ।
कुव्वतो वि अभववो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु॥२७३।।-समयसार
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा अनिवृत्तिकरण परिणामों के आधारपर यथायोग्य उक्त मोह (मिथ्यात्व) कर्मके उदयका अनादिमिथ्यावर्शनकी अपेक्षा उस कर्मका उपशमके रूपमें और सादिमिश्यादर्शनकी अपेक्षा उस कर्मका लपणम, क्षय या क्षयोपशमके रूप में अभाव करके उक्त भाम-भावकसंकरदोषका परिहार कर भावसम्यग्दृष्टि हो जाता है।
इस प्रकार इस विवेचनसे यह बात निषित हो जाती है कि उक्त एकत्यबुद्धिका त्याग हो जानेपर भी जब तक जीवमें मिथ्यात्वक्रर्मके उदयका उस कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके रूपमें अभाव नहीं हो जाता तब तक उस जीवके भाव्य-भावक संकरदोषका परिहार नहीं होता है। ऐसी हालत में उत्तरपक्षका यह कथन कि "जब तक यह जीव मोहोदय के सम्पर्क में एकत्वद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदयमें भावक व्यवहार होता है और आत्मा भाव्य कहा जाता है। यदि ऐसा न माना जाये तो सवत मोहोदयके विद्यमान रहने के कारण यह आत्मा भेद-विज्ञानके बलसे कभी भी भाब्य-भावक संकरदोषका परिहार नहीं कर सकता है" महत्त्वहीन और असंगत है । इसी प्रकार उत्सरपक्षका यह कथन भी उक्त हालत में महत्त्वहीन और असंगत है कि “इस प्रकार इस कथन द्वारा आत्माको स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है। आत्मा स्वयं स्वतन्त्र पने मोहोवयसे अनुरंजित हो तो ही मोहोदय रंजक है अभ्यथा नहीं' इस कथनके महत्त्वहीन और असंगत होनेका कारण यह है कि आत्माकी स्वतन्त्रता केवल इस बातमें है कि मोहरूप परिणति उसकी अपनी ही परिणति है और वह उसमें विद्यमान स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है । आरमाकी स्वतन्त्रता इस बातमें नहीं है कि उसको वह माहरूप परिणति मोहवामके अथवा मोहकर्मके उदयके सम्पर्क ( सहयोग) के बिना अपने आप ही होती है। अतः पूर्वपक्षके अनुसार ऐसा मानना ही आगम और युक्तिरों संगत है कि संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें द्रव्यकर्मका उदय सहायफ होनेरूपसे कार्यकारी निमित्तकारण है । उत्तरपक्षके अनुसार ऐसा मानना आगम और युक्तिसे संगत नहीं है कि संसारी आत्माका वह विकारभाव और धतुर्गतिभ्रमण स्वयं स्वतन्त्रपने अर्थात् द्रश्यकर्मोदयकी सहायताके बिना अपने आप ही होता है व द्रव्यकर्मका उदय उसमें सहायक न होने रूपसे सतत अकिंचिकर ही बना रहता है। एकत्वबुद्धिका अभाव भावमिथ्यादृष्टि जोवके भी उक्त प्रकारसे सम्भव है, जिसका ऊपर पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है।
वास्तविक बात यह है कि उत्तरपक्षको पहलेसे ही यह भय सता रहा है कि यदि प्रेरक और उदासीन कारणोंको उपादानकारणभूत वस्सुकी कार्यरूप परिणतिमें अपने-अपने ढंगसे सहायक होने रूपमें कार्यकारी माना जाये तो उस कार्योत्पत्ति के प्रति उपादानकारणभूत वस्तुको स्वतन्त्रता नष्ट हो जायेगी। फिन्तु उसका यह भय निरर्थक है, क्योंकि कार्योत्पत्तिमें वस्तुकी स्वतन्त्रता किस रूपमें है या हो सकती है, इस बातको पूर्वपक्षने अपने वक्तव्योंमें बार-बार स्पष्ट किया है और इस समीक्षामें भी स्पष्ट किया गया है । यदि उत्तरपक्ष इसपर ध्यान नहीं देता तो इसका क्या उपचार है ? क्योंकि यह उसकी आत्माकी स्वतन्त्रता है ? लेफिन वह कार्योत्पत्तिमें इस तरह यदि निमित्तौंको अकिंचित्कर सिद्ध करनेकी चेष्टा करे तो तत्व फलित नहीं होमा । आगामी समीक्षाकी भूमिका
पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौरमै पृ० ११ से पृ० १४ तक अनेक आगमप्रमाणोंको प्रस्तुत कर उनके द्वारा द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें प्रेरकरूपसे सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी निमितकारण सिद्ध किया है । परन्तु उत्तरपक्ष ने या तो आगमके आशयको यथारूपमें समझनेकी चेष्टा नहीं की है या जानबूझकर उसने उसका विपरीत आशय प्रगद किया है और पूर्वपक्ष के कथनके आशय
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पांका-समाधान १ की समीक्षा को भी उसने यथारूपमें ग्रहण करने का प्रयास नहीं किया है । फलतः उसने अपने तृतीय दौरमें पृ० ३६-३८ तक पूर्वपक्ष द्वारा पृ० ११ से १४ तक प्रस्तुत आगमप्रमाणोंका विपरीत आशय ग्रहण करके पूर्वपक्षके कथन का विरोध करनेमें ही अपनी शक्ति लगाई है।
पूर्वपदक प्रश्नका उत्तःो अपना ध्यान केवल विवादग्रस्त विषयपर ही केन्द्रित रखना चाहिए था। परन्तु उसने अपने उत्तरमें जो कथन किया है वह व्यर्थ और सीमाका अतिक्रमण करके किया है । हम आगे यही स्पष्ट करेंगे । कथन १२ और उसकी समीक्षा
पूर्वपक्षने अपनी मान्यताके समर्थन में तृतीय दौरमें पु०११ पर समयसार गाथा १९८ और १९९ को प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है । उसके सम्बन्ध में उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरों पृ० ३६ पर निम्न लिखित कथन किया है
"समयसार गाघा १९८ में भी इसी तथ्यको सूचित किया गया है । जितने अंशमें जीव पुरुषार्थहीन होकर कर्मोदयरूप त्रिपाकसे युक्त होता है उतने अंशमें जीवमें विभाव भाव है हुए है इसलिए इन्हें परमाव भी कहते हैं और ये आत्माके विभावरूप भार होनेसे स्वभावरूप भावोंसे बहिभूत हैं, इसलिए हेय है । यदि इनमें इस जीनको हेयबुद्धि हो जाये तो परके सम्पर्कमें भी हेयबुद्धि हो जाये यह तथ्य इस गाथा द्वारा सूचित किया गया है । स्पष्ट है कि यहाँ भी आत्माकी स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है । कर्मोदय बलपूर्वक इसे विभावरूप परिणमाता है यह इसका आशय नहीं है। किन्तु जब यह जीव स्वयं स्वतन्त्रता पूर्वक कर्मोदयसे युक्त होता है तब नियमसे विभावरूप परिणमता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । समयसार गाथा १९९ का भी यही आपाय है ।" इस कथनकी समीक्षा निम्न प्रकार है।
समयसार गाथा १९८ और १९९ का राकेत करने में पूर्वपक्षका यह उद्देश्य था कि उत्तरपक्षको यह ज्ञात हो जाये किजीवके विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मोदय प्रेरकरूपसे निमित्त कारण होता है। अति जितने भी जीवमे विभान भाष होते हैं वे सब यद्यपि जीवकी परिणतिके रूपमें ही होते हैं व जीवमें विद्यमान तदनुकूल स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होते हैं, परन्तु वे जीवमें तभी होते हैं जब उसे तदनुकूल कर्मोदय का प्रेरकरूपसे सहयोग प्राप्त होता है।
उत्तरपक्षने पूर्यपक्षाके इस कथनकी उपेक्षा करते हए इसके विपरीत उपर्युक्त वक्तव्यमें कथन किया है कि "जब यह जीन स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक कर्मोदयसे युक्त होता है तब वह नियमसे विभावरूप परिणमता है।" इसकी पुष्टिम उसका वहींपर यह कहना है कि 'कर्मोदय बलपूर्वक इसे विभावरूप नहीं परिणमाताहै।" ऐसा कथन करने में उत्तरपक्षका उद्देश्य यही है कि वह कर्मोदयको उस कार्यमें सर्वथा अकिंचिकर सिद्ध करना चाहता है। परन्तु पूर्वमें अनुमन, युक्ति और आगम प्रमाणोंके आधारपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि उस कार्य में द्रव्यकर्मोदय अकिचिकर नहीं है, प्रत्युत प्रेरकरूपसे कार्यकारी है, जिसका आशय यह है कि विकाररूप कार्य उसके उपादानकारणभूत संसारी आत्मामें उसकी निजी स्वाभाविक योग्यता होनेपर भी प्ररक निमित्तके बलसे आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है। इस प्रकार प्रेरक निमित्त उपादानकारणभूत वस्तुको बलात् परिणमानेकी क्षमता तो रखता है, परन्तु उसकी यह क्षमता इस प्रकारकी है कि वह उस क्षमताके आधारपर उगादानकारणभूत धस्तु में विशेषता उत्पन्न कर सकता है। वह किसी भी वस्तुको जिस
सन्
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जयपुर (खामिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
किसी कार्यका उपादान नहीं बना सकता, अर्थात् प्रेरक निमित्त उपादान में अपना कलात्मक परिचत्र तो दे सकता है, परन्तु वह जड़को चेतन और चेतनको जड़ नहीं बना सकता है। प्रेरक निमित्त के स्वरूप और कार्यका विस्तारसे विवेचन पूर्वमें नही जा चुका है ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें यह भी कथन किया है कि 'जितने अंशमें जीव पुरुषार्थहीन होकर कर्मोपासे युक्त होता है उतने अंशमें जीव में विभाव भाव होते हैं। सो इसमें विवाद नहीं है । परन्तु विवादकी बात तो यह है कि जीवमें पुरुषार्थहीनता अपने आप ही नहीं आ जाती हैं। उसकी उस पुरुषार्थहीनताका आधार नोकर्मभूत मन, वचन (मुख) और शरीरका प्रतिकूल होना है ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें यह भी कथन किया है कि "यतः ये परके सम्पर्क में हुए हैं इसलिए इन्हें परभाव भी कहते हैं और ये आत्मा विभावरूप भाव होनेसे स्वभावभूत भावोस बहिर्भूत हैं इसलिए देव हैं। यदि इनमें इस जीवको हेय बुद्धि हो जाये तो परके सम्पर्क में हेय बुद्धि हो जाये यह तथ्य इस गाथा द्वारा सूचित किया गया है ।"
इस सम्बन्ध में हमारा कहना है कि समयसार गाया १९८ और १९९ से उत्तरपक्ष द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त तथ्य सूचित होता है या नहीं, यह तो अलग बात है । परन्तु उसने जो उपयुक्त कथन किया है वह हमें भी मान्य हैं । किन्तु उसने जो यह कहा है कि "स्पष्ट है कि यहां भी आत्माकी स्वतन्त्रताको बनाये रखा गया है" सो इससे वह आत्माकी जिसरूपमें स्वतन्त्रता बतलाना चाहता है वह संगत नही है, क्योंकि संसारी आत्मा परतन्त्र है, इस बातको ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है ।
कथन १३ और उसकी समीक्षा
(१३) उत्तरपक्षनेत० ० पृ० ३६ पर यह भी कथन किया है कि "समयसार गाथा २८१ में उक्त कथनसे भिन्न कोई दूसरी बात कही गई हो ऐसा नहीं समझना चाहिए। जिसको निमित्त कर जो भाव होता हूँ वह उससे जायमान हुआ है ऐसा कहना आगम की परिपाटी है जो मात्र किस कार्य में कौन निमित्त है इसे सूपित करनेके अभिप्रायसे ही आगममें निर्दिष्ट की गई है। "
इस कथन के द्वारा उत्तरपक्षका अभिप्राय समयसार गाथा १९८ और १९९ के सम्बन्ध में उसके द्वारा किये गये विवेचनसे ज्ञात होता है। लेकिन उसका निराकरण पूर्व में किया जा चुका है। अतः यहाँपर उत्तरपक्ष द्वारा उसका संकेत किया जाना कोई महत्व नहीं रखता है। इसके अतिरिक्त इस कथन में उत्तरपक्षने यह भी कहा है कि "जिसको निमित्त कर जो भाव होता है वह उससे जायमान हुआ है ऐसा कहना आगमकी परिपाटी है" इस सम्बन्ध में मेरा कहना है कि इस प्रकारके कथन की परिपाटी आगममें ही नहीं, लोकमें भी पाई जाती है | परन्तु यह निश्चित है कि ऐसी परिपाटी आगमकी 'या लोककी हो, दोनों ही कार्योत्पत्ति में निमित्तको सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध करती हैं । यतः उत्तरपक्ष निमित्तको कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानने के लिये तैयार नहीं हैं अतः उसके मतमें आगमकी उक्त परिपाटीकी संगति विठ लाना कदापि सम्भव नहीं है। उस रपक्षने अपने उक्त कथन में जो यह कहा है कि "किस कार्य का कौन निमित्त है इसे सूचित करनेके अभिप्रायसे ही उक्त परिपाटी आगम में निर्दिष्ट की गई है" सरे उसका ऐसा कहना भी निरर्थक और अविचारित है, क्योंकि जब वह कार्योत्पत्ति में निमित्तको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानके लिए तैयार नहीं है सो "कहाँ कौन निर्मित है" इसे सूचित करने की क्या आवश्यकता है?
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
कथन १४ और उसकी समीक्षा
(१४) उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेद में आगे यह भी कयन किया है कि "उपायानमें होने वाले व्यापारको पृथक् सत्ताक बाह्य सामग्री त्रिकालमें नहीं कर सकती है। इस तथ्यको अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा । अतएव आत्मामें उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष और मोह कर्मोदयसे उत्पन्न होते है ऐसा कहना व्यवहार कपन ही तो ठहरेगा । उसे परमार्थभूत (यथार्थ) कथन तो किसो अवस्थामें नहीं कहा जा सकता है।"
इस सम्बन्धमें मेरा कहना यह है कि उपादान में होने वाले व्यापारको पृथक् सत्ताक बाह्य सामग्री त्रिकालमें नहीं कर सकती है, यह निर्विवाद है, परन्तु यदि इसमें उत्तरपक्षका यह अभिप्राय हो कि वह बाह्य मामग्री उपादान में होने वाले कार्य की उत्पत्तिमें सहायक भी नहीं हो सकती है, तो यह अमुक्त है, क्योंकि उपादानको कार्यरूप परिणति में वह बाध सामग्री आवश्यक एवं अनिवार्यरूपसे होती है। उसके बिना उपादान भी पंगु रहता है। दोनोंको संघटनासे ही कार्य होता है। यह पूर्वमें आगमके आषारपर प्रमाणित भी किया आ चुका है। अतएव यह सुनिश्चित है कि आत्मामें उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष और मोहकी उत्पत्तिमें कर्मोदय सहावक हुआ करता है और वह इस आधारपर ही व्यवहारनयका विषय होता है । यतः उत्तरपक्ष राग, द्रव और मोहकी उत्पत्ति में कर्मोदयको आत्माका सहायक न माननेके कारण उसे सर्वथा अकिचि हो मानता है अतः उसके मतमें उसे पत्रहारनयका विषय कहना भी असंगत हो जाता है उत्तरपक्षने अपने इसी कथनमें जो यह कहा है कि "इसे परमार्थभत (यथाथ) कथन तो किसी भी अवस्थामे नहीं माना जा सकता है" सो इसमें पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वह भी इसे परमार्थभूत (यथार्थ) कथन न मानकर उपचारभूत (अयथार्थ) कथन ही मानता है। किन्तु उत्तरपक्ष जहाँ उपचारको कल्पनारोपित मात्र मानता है वहाँ पूर्वपश उसे उपचार कामें वास्तविक ही मानता है। इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। कथन १५ और उसकी समीक्षा
(१५) उत्सरपक्षने उक्त अनुच्छेदके अन्तमें कहा है कि "यदि अपरपक्ष निमित्तन्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीमें यथार्थ कर्तुत्वको बुद्धिका परित्याग कर दे तो पूरे जिनागगको संगति बैठ जाये।" यह उत्तरपक्षका पूर्वपक्षपर मिथ्या आरोग लगाकर तस्वजिज्ञासुओंकी दृष्टि में उसे गिरानका मात्र दुष्प्रयल है, क्योंकि पूर्वपम भी बाह्य सामग्री को उपादानको कार्योत्पत्तिमें यथार्थकारण न मानकर अयथार्थकारण ही मानता है । पर पूर्व पक्ष उक्त बाह्य सामग्रीको उपादानको कार्यात्पत्ति में जो अयथार्थ कारण मानता है सो उसरपक्षकी तरह उसमें सहायक न होने के आधारपर न मानकर पूर्वमें आगमसे प्रमाणित सहायक होने के आधारपर ही मानता है। यदि उत्तरपक्ष उक्त बाह्य सामग्रीको पूर्वपक्षकी तरह उपादानको कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे ही अयथार्थकारण मान ले तथा सहायक न होने रूपसे उसे वहांपर अयथार्थकारण मान्य करने की अपनी हठकों छोड़ दे तो पूरे जिनागमकी संगति बैठ जाये । कथन १६ और उसकी समीक्षा
(१६) पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौरमें तत्त्वचर्चा पृ० ११ पर आत्मामें उत्पन्न होने वाले विकारी भावोंकी उत्पत्ति में द्रश्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण सिद्ध करने के लिए गंचास्तिकाय गाथा १३१, १४८ व १५० की टोकाओंको और गाथा १५६ को भी प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है। उत्तरपक्षने इन सबका मात्र संकेत देते हातच. पु. ३६ पर अपना निम्न मन्तव्य प्रकट किया है
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा "जब यह जीव मोहनीयकर्मके उदयका अनुवर्तन करता है तभी यह उससे रंजित उपयोग वाला होता है और तभी यह परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है" । इसमें पूर्वपक्षको कोई विवाद नहीं है । परन्तु उसने अपना यह मन्तव्य आस्मामें उत्पन्न होनेवाले यिकारीभावोंकी उत्पत्तिमें अन्यकर्मोदगको सहायक न होने रूपसे अकिचिकर सिद्ध करने के लिए प्रगट किया है। इसके अतिरिक्त आगेके अतुच्छेदमें उसने यह भी लिखा है कि "इस प्रकार समयसार और पंचास्तिकायके उक्त उल्लेखोंसे उसी तथ्यकी पुष्टि होती है जिसका हम पूर्वमें निर्देश कर आये है । बाह्य सामग्री दूसरेको बलात् अन्यथा परिणमाती है यह उक्त वचनोंका गाशय नहीं है जैसा कि अपरपक्ष उन वचनों द्वारा फलित करना चाहता है' तो यह मन्तव्य भी उत्तरपक्षने आत्मामें उत्पन्न होनेवाले विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें द्रध्यकर्मफे उदयको प्रेरक न होने रूपसे अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए प्रगट किया है। इसको समीक्षा निम्न प्रकार है
पूर्वमें आगमके आधार पर स्पष्ट किया जा सका है कि उपादानको कार्यरूप परिणतिमें प्रेरक और सदासीन दोनों ही निमित्त सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध होते हैं। साथ ही आममके आधारपर मैं यह भी सिद्ध कर चुका हूँ कि प्रेरक निमित्तके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता हूं। अतः उत्तरपक्ष के उक्त दोनों मन्तव्य प्रमाणसंगत नहीं है । पूर्वपक्ष यह कहाँ मानता कि बाह्म सामग्री दूसरेको बलात् अन्यथा परिणमाती है। उत्तरपक्षका पूर्वपशपर यह आरोप सर्वथा गलत एवं मिथ्या है, क्योंकि आगम, मुक्ति और अनुभवके आधारपर तथा लोकव्यवहारके आमारपर भी हम पूर्व में यह निर्णय कर आये है कि कार्योत्पत्ति उपादानमें विद्यमान उसकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है। पर वह कार्योत्पत्ति तभो होती है जब प्रेरक निमित्तका उसके अनुकूल सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है । इस तरह प्रेरक निमितके बलसे कार्य आगे पीछे तो किया जा सकता है, परन्तु वह (प्रेरक निमित्त) इस प्रकारका उल: फेर नहीं कर सकता है कि उसके बल से जड़ चेतन और चेतन जड़ बन जाये, क्योंकि जड़में चेतन बनने की और चेतनमें जड़ बननेकी स्वाभाविक योग्यताका अभाव है। उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर इस प्रकारके गलत आरोप लगाकर प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी कार्योत्पत्ति में सहायकता और उनकी कार्यवारिताका अपलाप नहीं कर ककता।
कथन १७ और उसकी समीक्षा
(१७) पूर्वपक्ष ने अपने मन्तव्यके समर्थन में तच पृ० ११ व १२ पर परमात्मप्रकाशके जिन दो पद्योंको उद्धृत किया है उनका उसरपक्षने जो आशय ग्रहण करनेकी सूचना त० च गृ. ३६ गर की है उसका निराकरण पूर्व (कथन नं० ३ की समीक्षा)में किया जा चुका है। कथन १८ और उसकी समीक्षा
(१८) पूर्वपक्षने प्रेरक निमित्तोंके सम्बन्ध में अपनी उपयुक्त मान्यताकी पुष्टि के लिये मूलाराधनाकी गाथा १६२१ और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा २११ का भी तचप. १२ पर उल्लेख किया है। इनमेंसे मूलाराक्ना गाथा १६२१ फे विषयमें उत्तरपक्षने तार• पृ० ३७ पर निम्नलिखित कथन किया है
(क) “मूलारामनामें बलयाई कम्माई" "यह गाया उस प्रसंगमें आई है जबकि निर्यागकानार्यक्षपकको अपनी ममाधिमें पढ़ करना अभिप्रायमे कर्मकी बलवत्ता बतला रहे है और गाथ ही उसमें अनुरंजायमान न होकर समताभाव धारण करनेकी प्रेरणा दे रहे है। यह तो है कि जिस समय जिस कर्मका उदय-उदीरणा
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शंका-समाधान १ को समीक्षा
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होती है उस समय आत्मा स्वयं उसके अनुरूप परिणमनका कत्र्ता बनता है, क्योंकि अपने उपादानके साथ उस परिणामको अन्तर्धाप्ति है। इसी प्रकार उस कर्मके उदय के साथ उसकी बहियाप्ति है। फिर भी आचार्यन यहांपर कर्मादयको बलबत्ता बतलाकर उसमें अनुरंजायमान न होनेकी प्रेरणा इसलिए दी है कि जिसमें यह आत्मा अपनी स्वतंत्रताके भावपूर्वक कर्मोदयको निमित्तकर होने वाले भावों में अपने को आबद्ध न किये रहे।
उत्तरपक्ष ने अपने इस बक्तव्यमें जो कुछ लिखा है वह पूर्वपक्षके लिए विवादको वस्तू नहीं है, क्योंकि सब आगमके अनुसार है। पर प्रश्न यह है कि गाथामें कर्मकी जो बलवत्ता बतलाई गई है वह क्या काल्पनिक है या यथार्थ है? यदि काल्पनिक है तो फिर आचार्यको ऐसा बतलानका निरर्थक प्रयत्न नहीं करना चाहिए था। यतः आचार्यने क्षपकको समाधिमें दाह करने के लिए उसका उपदेश दिया है और क्षपकपर उनके उस उपदेशका अवश्य प्रभाव पड़ता है । अतः निर्णीत होता है कि कर्मको बलवत्ता काल्पनिक नहीं है, वास्तविक है। उससे ग्रह भी निर्णीत होता है कि आत्मामें विकारो भावोंके उत्पन्न होने में क्रममा॑दय सहायक होनेके रूपसे कार्यकारी ही होता है, अकिचित्कर नहीं रहता है। यही कारण है कि जब पक कर्मोदयसे प्रभावित होने लगता है तो निर्यापकाचार्य उसे अपना मानसिक, वाचनिक और कामिक पुरुषार्थ उसके प्रतिकल जगाने और सम्मलन रखनेकी प्रेरणा देते हैं। इस तरह इस गाथाके आधारपर संसारी आत्माके विकारभाष और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति आत्मामें ख्यकर्मोदयकी सहायक होने रूपसे कार्यकारिताकी पुष्टि निःसन्देह होती है। उत्तरपक्ष गाथाके प्रसंग आदि द्वारा असार लीपापोती नहीं कर सकता। यह तथ्य ऐसा है कि वह उक्त कार्यके प्रति कर्मकी बलवत्ता अर्थात प्रेरकरूपमें सहायक होनेम्पसे विद्यमान कार्यकारिताको टाल नहीं सकता है। यह सब व्यवहारनय का विषय इसलिए माना गया है कि कर्मोदय संसारी आत्माके विकाररूप परिणत न होकर संसारी आत्माकी उस विकाररूप परिणतिमें सहायक मात्र हुआ करता है।
(ख) स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा २११ के सम्बंधमें भी उत्तरपक्षने त० च पृ० ३७ पर निम्न कथन किया है
"स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा २११ द्वारा पुद्गल द्रव्यको जिस शक्तिका निर्देश दिया गया है उसका आशय इतना ही है कि जब यह जीव केवलज्ञानके अभावस्पसे परिणमता है तब केवलज्ञानावरण द्रव्यकर्मका उदय उसमें निमित्त होता है। यदि ऐसा न माना जाये और पुद्गलद्ब्यकी सर्वकाल यह शक्ति मानी जाये कि वह केवलज्ञानस्वभावका सर्वदा विनाश करनेकी सामर्थ्य रखता है तो कोई भी जीव केवलज्ञानी नहीं हो सकता । स्पष्ट है कि उक्त वचन द्वारा आचार्य ने पुदगल द्रव्यकी केवलज्ञानावरणरूप उस पर्यायकी उदयशक्तिका निर्देश किया है जिसको निमित्तकर जीव केवलज्ञानस्वभावरूपमें स्वयं नहीं परिणमता। ऐसा ही इसमें निमित्त-नैमित्तिक योग है कि जब वह जीव केवलज्ञानरूपसे नहीं परिणमता तब उसमें केवलज्ञानावरणका उदय सहज निमित्त होता है। इसीको व्यवहारनयसे यों कहा जाता है कि केवलज्ञानावरण के उदयके कारण इस जीवके फेवलज्ञानका घात होता है। स्वामिकातिक्रयानुप्रेक्षाका यह उपकार प्रकरण है। इसी प्रसंग उस्त गाथा आई है । अतएव प्रकरणको ध्यान में रखकर उसके हार्द को ग्रहण करना चाहिये।
हमें आश्चर्य है कि उत्तरपक्षको पूर्वपक्षका जो उत्तर देना चाहिए वह न देकर वह मात्र व्याख्यान देने लगता है। पूर्वपक्षने इस माथाका अपने वक्तव्यमें जो उलए किया है वह केवल आत्माके विकारी भावोंकी उत्पत्तिम व्यकर्मके उदयकी प्रेरकरूपसे सहायताको ध्यान में रखकर किया है। अर्थात् इस गाथाके
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
आधारपर भी द्रव्यकर्मदय संयारी आत्माके विकारभाव और पतुर्गतिभ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त सिद्ध होता है । परन्तु उत्तरपक्षने इसका कोई उत्तर नहीं दिया । लगता है कि उसे यह भय है कि यदि केवलज्ञानावरण कर्मको केवलज्ञानके विकास में बाधक माना जाये तो उसका उदय सदा काल विद्य मान रहने के कारण कोई भी जोब कभी भी केवलज्ञानी नहीं बन सकेगा और इसीलिये वह युक्ति, अनुभव और लोकव्यवहारके विरुद्ध कथन करता है व आगमको अपने अभिप्राय के अनुकूल तोड़ मरोड़ करता है । उसने लिखा है कि "जय यह जीव केवलज्ञानके अभावरूपसे परिणमता है तब केवलज्ञानावरण द्रव्यकर्मका उदय उसमें निमिश होता है" और इसके आगे वह यह लिखता है कि "यदि ऐसा न माना जाये और पुदगल द्रव्यकी सर्वकाळ ग्रह शक्ति मानी जाये कि वह स्वभावका सर्वदा विनाश करने की सामर्थ्य रखता है तो कोई भी जीन केवलज्ञानी नहीं हो सकता" परन्तु वास्तविक बात यह है कि केवलज्ञानावरण कर्मकेो जीवके स्वभावभूत ज्ञानके अभाव में प्रेरकरूपसे कार्यकारी सहायक होनेपर भी तथा उसमें केवलज्ञानके विकासको न होने देनेकी सत्रमा सामर्थ्य विश्वमान रहनेपर भी जीव जब केवलज्ञानावरण कर्मके प्रतिकूल और केवलज्ञानके विकासके अनुकूल अपना सम्यग्दर्शन जान पारित्ररूप पुरषार्य करने लग जाता है तब केवलज्ञानावरण कर्मका अभाव होकर केवलज्ञानका विकास जीव में हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कर्म tatast अपना फल कर्मका सहयोग प्राप्त होनेपर ही दे सकता है । इसलिए यदि कर्मके प्रतिकूल नोकर्मका समागम जीवको प्राप्त हो जाता है तो कर्म अपना कार्य करने में अक्षम हो जाता है और इस तरह केवलज्ञानाधरण कर्मका अभाव हो जानेपर आत्माका फेवलज्ञान रूपभाग प्रकट हो जाता है तथा इसी प्रक्रियाको स्दीकार कर लेनेपर उत्तरपक्षके पूर्वोक्त भयका भी निराकरण हो सकता है । पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है. कि मिध्यादृष्टि अर्थात् प्रथम गुणस्वानवर्त्ती जीव अपने में मिध्यात्वकर्मका उदय रहते हुए भी अपने मानसिक, वाचनिक और कामिक पुरुषार्थ को बाह्य निमित्तसामग्री की अनुकूलताके आधारपर उस मिथ्यात्यकर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके लिये कर सकता है। इससे निर्मात होता है कि केवलज्ञानावरण कर्मका सर्वदा उदय रहते हुए भी बाह्य नोकर्मोकी सहायता के आधारपर जीव उसके बिनाशका पुरुषार्थकर सकता है और ऐसा पुरुषार्थ करनेपर वह जीव केवलज्ञानावरण कर्मका सर्वथा क्षय करके के बन जाता है। इस तरह उत्तरपक्षक। ऐसा कथन करना संगत नहीं है कि जब यह जीव केवलज्ञानरूपसे नहीं परिणमता तब उसमें केवलज्ञानावरण कर्मका उदय सहज ही निमित्त होता है, क्योंकि इस प्रकार के कथनसे atasha रूपसे परिणमित न होने में केवलज्ञानावरण कर्मका उदय सहायक न होने रूपसे अर्किचित्कर सिद्ध होता है जो आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि आगमके आधारपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रेरक निमित्त और साथ ही अप्रेरक ( उदासीन) निमित्त दोनों उपादानकी कार्यरूप परिणति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही होते हैं. दोनोंमेंसे कोई भी निमित्त वहांवर अकिचित्कर नहीं होता । अतः ऐसा कथन करना ही आगमसम्मत है कि जीव में जब तक केवलज्ञानावरणकर्मका उदय विद्यमान रहता है तब तक उसके (जीव) केवलज्ञानस्वभावका जात होता रहता है। इसतरह केवलज्ञानावरण के उदयको वहांपर सहायक होने रूपसे कार्यकारिता हो सिद्ध होती है, ऑकचित्करता नहीं, और यही बात बार-बार आगमके आधारसे कही जा रही है। इसमें निणीत होता है कि केवलज्ञानावरणकर्मके उदय में होनेवाला केवलज्ञानका प्रातरूप कार्यकारिता काल्पनिक न होकर वास्तविक ही है। इतना जरूर है कि वह कार्यकारिता उपादानके कार्यके रूपमें न होकर उस कार्य में मात्र सहायक होने रूपसे ही उसमें रहती है। अतएव उसे निश्चयनयका विषय न माना जाकर व्यवहारनवका ही विषय माना गया है ।
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शंका-समाधान १ की समी ।
अन्त में उत्तरपसने अपने इसी वक्तव्यमें यह कयन किया है कि "स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षाका यह उपकार प्रकरण है। इसी प्रसंगमें उक्त गाथा आई है अतएव प्रकरणको ध्यान में रखकर उसके हादको ग्रहण करना चाहिए" उसका यह कथन विवादका विषय न होनेपर भी उसके सम्बन्धमें इतना कहा ही जा सकता है कि यहाँ उस उपकारकी संगति तभी संभव हो सकती है जब केवलज्ञानावरण कर्मके उदयको केवलज्ञानका घात करनेमें सहायक होने कापसे कार्यकारी प्रेरक निमित्तकारण स्वीकार किया जाये । तात्पर्य यह है कि केवलज्ञानकी प्रकटताके अभावरूप केवलज्ञानका बात तो जीवमें ही होता है, परन्तु उसमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी प्रेरक निमित्तकारण ज्ञानावरणकर्मका लक्ष्य है। गाथाका हाई इसी सपमें मान्य किया जाना चाहिए। कथन १९ और उसकी समीक्षा
(१९) पूर्वपक्षने, संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिश्रमणल्प कार्य प्रति द्वन्यकर्मका उदय सहायक होने रूपरो कार्यकारी रूपमें निमित्तकारण है, इसे उत्तरपक्ष के कथनसे भी समर्थित करने के लिये तः च पृ० १२ पर निम्नलिखित कथन किया है
"प्रश्न नं ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा० का अ० गाथा ३१९ को उक्त करते हुए आपने स्वयं स्वीकार किया है कि जीवका उपकार या अपकार शुभाशुभ कर्म करने है। तथा प्रश्न नं १६ के प्रथम उत्तरमें भी आपने यह स्वीकार किया है कि जीवमें बहुत से धर्म ऐसे होते हैं जो आगन्तुक है और जो संसारकी विवक्षित भूमिका सक आत्मामें दृष्टिगोचर होते हैं उसके बाद ससमें उपलब्ध नहीं होते।"
उत्तरपक्षके इस कथनसे पूर्वपक्षने यह सिद्ध किया है कि जब उत्तरपक्षने प्रश्न ने० ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा का अ० गाथा ३१९ के आधारसे जीबके उपकार अपकारको करने वाला शुभाशुभ कर्मोदय है, यह स्वीकार किया है और प्रश्न नं. १६ के प्रथम उत्तर में जीवके मोह, राग, द्वेष आदि विकारी भावोंको आगम्सुक माना है तो उसे संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमणके प्रति ब्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण मानने में क्यों आपत्ति होना चाहिए ?
उत्तरपक्षन्ने प्रश्न नं० ५ के द्वितीय उत्तर और प्रश्न नं० १६ के प्रथम सत्तरमें जो उपर्युक्त प्रकारसे लिखा है उसके आवारसे पूर्वपक्षने कहा था कि उत्तरपक्ष भी पूर्व पक्षको मान्यताका समर्थन करता है। सो पूर्वपक्षके इस कथनका उसने प्रथम प्रश्नोत्तरके तृतीय दौर में निम्नप्रकार निराकरण करनेका असफल प्रयत्न किया है
(१)"शंका ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा० का० अ० गाथा ३१९ के आधारसे जो हमने यह लिखा कि शुभाशुभ कर्म जीवका उपकार या अपकार करते है सो यह कषन शुभाशुभ फर्मके उदयके साथ जीबके उपकारकी बाह्य व्याप्तिको ध्यानमें रखकर ही किया गया है। इस जीवको कोई लक्ष्मी देता है या कोई उपकार करता है। यह प्रश्न है । इसी प्रश्नका समाधान गाथा ३१९ में करते हुए बतलाया है कि लोकमें इस जीबको न तो कोई लक्ष्मी देता है और न कोई उपकार करता है। किन्सु उपकार या अपकार जो भी कुछ होता है वह सब शुभाशुभ क्रमको निमित्तकर होता है"।-त. च० पृ० ३७ ।
(२) "यह आचार्य वचन है । इस द्वारा दो बातें स्पष्ट की गई हैं। पूर्वाधं द्वारा तो जो मनुष्य यह मानते हैं कि अमुक देवी देवता आदिसे मुझे लक्ष्मी प्राप्त होगी या मेरी अमुक आपत्ति टल जायेगी उसोका
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जयपुर (स्वानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
निषेध यह कहकर किया है कि लोकमें जो कुछ भी होता है वह शुभाशुभ कर्मके उदयको निमित्तकर ही होता
हैं | तूं बाह्य सामग्री मिलानको चिन्ता में आत्मवंचना कर्मका उदय हो तो बाह्य सामग्री से क्या लाभ? द्वारा यह सूचित किया है कि शुभाशुभ कर्म तेरी अनुरूप कर्मबन्ध होगा और उत्तरकालमें उसका फल और ध्यान दे । शुभाशुभ कर्म तो उपकार अवकार में यह नयवचन है, इसे समझकर यथार्थको ग्रहण करना प्रत्येक सद्गुरुषका सद्भाव सदा रहने से कभी भी जीव उससे मुक्त न हो सकेगा ।" त०
करता है ? अनुकूल बाह्य सामग्री हो और अशुभ उसका होना और न होना बराबर है तथा उत्तराद्ध करनीका फल है इसलिये जैसी तूं करनी करेगा उसीके भी उसीके अनुरूप मिलेगा । अतएव तूं अपनी करनीकी निमित्तमात्र है, वस्तुतः उनका कर्ता तो तू स्वयं है । कर्त्तव्य है। अन्यथा शुभाशुभ कर्मका ० पृ० ३७ ।
(३) "जिसे उपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है और जिसे अपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है मह संयोगी अवस्था | अतएव जिसके संयोग में इसके होनेका नियम है उसका ज्ञान इस वचन द्वारा कराया गया है। इतना ही आशय इस गाथाका लेना चाहिए। हमने शंका ५ के अपने दूसरे उत्तरमें जो कुछ भी लिखा है, इसी आशयको ध्यान में रखकर किया है अतएव इसपर से अन्य आशय फलित करना उचित नहीं है ।" त० च० पृ० ३८ ॥
(४) " प्रश्न १६ के प्रथम उत्तर हमने मोह, राग, द्वेष आदि जिन आगन्तुक भावोंका निर्देश किया है उसका आशय यह नहीं कि वे जीवके स्वयंकृत भाव नहीं हैं। जीव ही स्वयं बाह्य सामग्री में इष्टानिष्ट या एकत्वबुद्धि कर जन भावरूप परिणमता है, इसलिये ये जीवके ही परिणाम हैं ।" त० च० पृ० ३८ । उत्तरपक्ष पूर्व वक्तव्यका उपर्युक्त जिन चार अनुच्छेदों द्वारा निराकरण करनेकी चेष्टा की है उनमें से प्रत्येक अनुच्छेदक समीक्षा यहाँ प्रस्तुत की जाती है
(१) जिस प्रकार शुभाशुभ कर्म जीवका उपकार या अपकार करते हैं इस विषय में उत्तरपक्ष शुभाशुभ कर्मके साथ जीवके उपकार या अपकारकी बहिर्व्याप्ति मानता है, उसी प्रकार द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है । इस विषय में पूर्वपक्ष भी द्रव्यकर्मके उदय के साथ संसा आत्मा विकारभाव और चतुर्गति भ्रमणकी बहिर्व्याप्ति मानता है और जिस प्रकार उत्तरपक्ष शुभाशुभ कर्मके उदयको जीवके उपकार था अपकार में निमित मानता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्मा धिकारमाव और चतुर्गति भ्रमण में निमित्त मानता है । इसलिये उत्तरपक्ष प्रथम अनुच्छेदके द्वारा पूर्वपक्षका ही समर्थन करता है । परन्तु दोनों पक्षोंके मध्य अन्तर इस बातका है कि जहाँ पूर्वपक्ष द्रव्यकर्म के उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त मानता है वहीं उत्तरपक्ष शुभाशुभ कर्मके उदयको जीवके उपकार या अपकार में सहायक न होने रूपसे referee निमित्त मानता है ।
(२) यतः उत्तरपक्षको संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपये कार्यकारी निमित्त मानना अभीष्ट न होकर सहायक न होने रूपसे अकिचित्कर निमित्त मानना ही अभीष्ट है अतः उसने द्वितीय अनुच्छेद में "लोक में जो कुछ भी होता है वह शुभाशुभ कर्मक उदयको निमित्त कर ही होता है" ऐसा लिखकर भी निमित्तको अकिचित्कर सिद्ध दिया है कि "शुभाशुभ कर्म तेरी करनीका फल है ।" परन्तु इतना लिखनेपर भी के द्वितीय उत्तर के अनुसार जीवकी उपकार या अवकार रूप परिणति में शुभाशुभ
करनेके लिये यह भी लिख
उसके सामने शंका नं० ५ कर्मोदयको सहायक होने
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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रूपये कार्यकारी निमित्त अभीष्ट न होते हुए भी उसे मानने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है। इसका कारण यह हैं कि जीवकी उपकार या अपकार रूप परिणति
कर्मोविकार
चतुर्गतिरूप परिणति में द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तकारण मानकर भी यदि उन्हें वहाँ पर सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिंखिस्कर निमित्तकारण ही माना जाये, तो ऐसी अवस्था में शुभाशुभ कर्मोदयको जीवक्री उपकार - अपकाररूप परिणतिमें और द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आमाको विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण रूप परिणतिमें निमित्त रूपसे कारण माननेकी कोई आवश्यकता ही नहीं रह जावेगी । लेकिन इस प्रकारको अनावश्यकताका समर्थन न तो आगमसे होता है और न उत्तर पक्षको अभीष्ट ही है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट कर चुका है कि बागम में कार्यके प्रति निमित्तकारणकी आवश्यकताको स्वीकार किया गया है तथा उत्तर पक्ष भी कार्यके प्रति निमित्त कारणकी आवश्यकताको स्वीकार करता है । इसलिये शुभाशुभ कर्मोदयको जीवकी उपकार - अपकार रूप परिणतिमें व कर्मोदयको संसारी आत्माकी विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण रूप परिणति में उन्हें उस उस कार्य रूप परिणत न होनेपर भी उस उम्र कार्यरूप परिणति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निर्मित कारण मानना अनिवार्य है ।
उत्तरपक्षने द्वितीय अनुच्छेदमें जो लिखा है कि "उसका कर्ता तूं स्वयं है । यह नयवचन है । इसे समझकर यथार्थको ग्रहण करना प्रत्येक सत्पुरुपका कर्तव्य है । अन्यथा शुभाशुभ कर्मका सद्भाव सदा रहने से कभी भी यह जीव उससे मुक्त न हो सकेगा " उसके विषय में मेरा कहना है कि जीवको ही उपकार - अपकार रूप परिणति होती है और संसारी आत्मा ही विकारभाव तथा चतुर्गति-भ्रमण रूप परिणत होता है, इसलिए ये ata या संसारी आत्मा ही उनका उपादान कारण, निश्चय कारण और मुख्य कर्ता होता है । परन्तु परिणतियाँ शुभाशुभकर्मोदय और द्रव्यकर्मोदयको सहायता मिलनेवर ही होती है, अन्यथा नहीं, इस सथ्यको अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है । यह सब पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। उत्तरपक्षकी यह आपत्ति कि शुभाशुभ कर्मोदयको जीवको उपकार - अपकार रूप परिणति में व द्रव्यकर्मोदयको संसारी आत्माकी विकारभाव तथा चतुर्गातिभ्रमण रूप परिणति में कारण माननेपर शुभाशुभकर्मोदय और द्रव्यक्रमोंदयका सद्भाव सदा रहने से जीव व संसारी आत्मा कभी भी उनसे मुक्त नहीं हो सकेंगे, व्यर्थ है, क्योंकि जीव या संसारी आत्मा शुभाशुभकर्मका या द्रव्यकर्मका उदय रहते हुए भी यदि उनका क्षयोपशम अथवा क्षय करनेके लिए अपना मानसिक, वाचनिक और कायिक पुरुषार्थ लगें, तो ऐसे पुरुषार्थके आधारपर वे उन शुभाशुभ कर्मो के उदयको या corris हूँ । आगम में इस बात को स्पष्टतया स्वीकार किया गया है। यह हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं ।
यथायोग्य उपशम, अनुकूल रूपमें करने
को नष्ट कर सकते
उत्तरपक्षने अपने इसी द्वितीय अनुच्छेदमें स्वा० का० अ० के आधारपर ही उक्त कथन के अतिरिक्त जो भी कथन किया है उसका सम्बन्ध प्रकृत विषयसे न होनेके कारण यहाँ उसकी समीक्षा करना बेकार है और समय एवं शक्तिका अपव्यय है । इतना अवश्य कहना है कि इस ( ३१९वीं ) गायासे जीव की उपकार - अपकाररूप परिणति में शुभाशुभकर्मोदय सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण ही सिद्ध होता है । जैसा कि उत्तरपक्षको स्वयं भी गायाका अर्थ करते हुए स्वीकार करना पड़ा है ।
(३) उत्तरपक्ष ने तृतीय अनुच्छेद में जो कुछ लिखा है उससे वह यह बतलाना चाहता है कि शुभाशुभ कर्मोदय जीवके उपकार या अपकारका यथार्थ कर्ता नहीं है। उसके विषय में पहले स्पष्ट किया जा चुका है। कि उत्तरपक्ष की इस मान्यतामें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। पूर्वपक्ष का तो केवल यह कहना है कि यह
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा उसे वहाँ उत्तरपक्षकी तरह 'सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्तकारण' नहीं मानता । अपितु सहायक होने रूपसे 'कार्यकारी निमित्तकारण' ही मानता है जो भागमसम्मत है।
(४) उत्तरपक्षने इस चतुर्थ अनुच्छेदमें प्रश्न १६ के प्रथम उत्तरका स्पष्टीकरण करते हुए जीवके राग, वृष और मोह रूप भावोंको उसके स्वयंकृत भाव कहा है सो इस विषयमें पूर्वपक्षको भी इस रूपमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि जीव ही उन रूप परिणत होता है। लेकिन यदि उत्तरपक्ष स्वयंकृत शब्दका अर्थ ऐसा माने कि वे रागादि भाव कर्मोदयकी सहायताके बिना अपने आप ही जीवमें उत्पन्न हो जाया करते है, तो उसकी यह मान्यता आगमसम्मत न होनेसे वह पूर्वपक्षको अस्वीकृत है ।
प्रवचनसार गाथा ९ का भी इतना ही अभिप्राय है कि जीवमें जो अशुभ, शुभ या शुद्ध भाव होते हैं वे यथायोग्य कर्मके उदय उपशम, क्षयोपशम या क्षयको सहायता प्राप्त होनेपर होते हुए भी जीवरूप ही होते है और इस आधारपर ही उन्हें वहाँपर स्वयंकृत भाव कहा है। उक्मादिकी निमित्तकारणताका वहाँ निषेध नहीं है, यह स्पष्ट है। कथन २० और उसकी समीक्षा
(२०) उत्तरपक्षने त. च. ५० ३८ पर यह भी लिखा है कि "मोह, राग, द्वेष आदि भावोंको प्रागममें जो आगन्तुक कहा गया है उसका कारण इतना ही है कि वे भाव स्वभावके लक्ष्यसे न होकर परके लक्ष्पसे होते हैं, वे जोबके ही भाव हैं और जीव हो स्वयं स्वतन्त्र कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है, पर वे परफे लक्ष्यसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें आगन्तुक कहा गया है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है।" पूर्वपक्षको उत्तरपक्षकी इस बातको मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु प्रश्न यह है कि इन भावोंकी उतात्तिमें शुभाशुभ कर्मोदय या व्यकोदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारणता उत्तरपक्षको अभीष्ट नहीं है, जिसे किसी भी हालतमें टाला नहीं जा सकता है। वास्तव में यही उसे स्वीकार्य होना चाहिए । कथन २१ और उसकी समीक्षा
(२१) बागेतच. पु. ३८ पर ही उत्तरपक्षने यह लिखा है कि "इस प्रकार अपरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में यहाँ तक जितने भी आगम प्रमाण दिये हैं उनसे यह तो त्रिकालमें सिद्ध नहीं होता कि अन्य द्रव्य तभिन्न अन्य व्यके कार्यका वास्तविक कर्ता होता है। किन्तु उनसे यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं उपादान होकर अपना कार्य करता है और उसके योग्य बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है।" पूर्वपक्षने यह अपने वक्तव्योंमें बार-चार स्पष्ट किया है कि पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य प्रश्न द्रव्यकोदयको संसारी आत्माके विकार भाव और चतुर्गतिभ्रमणमें उपादानकर्ता, यथार्थकर्ता या मुख्यकर्ता मानने, न माननेका नहीं है, क्योंकि दोनों पक्ष द्रम्पकर्मोदयको उपादानकर्ता, यथार्यकर्ता या मुख्यकर्ता नहीं मानते, ससे दोनों निमित्तकर्ता, अयथार्यकर्ता मा उपचरितकर्ता ही मानते है । परन्तु दुःख और आश्चर्य इस थातका है कि उत्तरपक्ष अपने वक्तव्यमे बार-बार इसी मिथ्या धातको दोहराता मालूम पड़ता है कि पूर्वपक्ष प्रत्यकर्मको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्मति भ्रमणमें पधार्थकर्ता मानता है, जब कि वह उसे कार्यकारी निमित्त कारण बतलाता और सिद्ध करता आ रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि तत्त्वचर्चा उत्तरपक्षका लक्ष्य तत्व फलित करनेका न होकर केवल स्वमतकी उचित या अनुचित उपायों द्वारा पुष्टि करनेका हो रहा है और है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा कथन २२ और उसकी समीक्षा
(२२) आगे तक च. १०३८ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है कि "समयसार गाथा २७८-२७९ का क्या आशय है इसका विशेष खुलासा हम पूर्वमें ही कर आये।" सो इस विषय में भी मेरा कहना है कि उत्तरपक्षने जहाँ पर यह खुलासा किया है वहींपर मैं उसकी संगति-अमंगतिका भी स्पष्टीकरण कर आया हूँ । अतः यहाँ उसकी समोक्षामें कुछ कहना पिष्टपेपण होगा। कथन २३ और उसकी समीक्षा
{२३) उत्तरपक्षने त० च० पृ० ३८ पर आगे और लिखा है कि "एक जीव ही क्या, प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है, अतएव जिस भाव' रूप वह परिणमता है उसका कर्ता यह स्वयं होता है। परिणमन करनेवाला, परिणाम और परिणमन क्रिया ये तीनों वस्तुपनेकी अपेक्षा एक है, भिन्न-भिन्न नहीं इसलिए जब जो परिणमन उत्पन्न होता है उस रूप वह स्वयं परिणम जाता है, इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं। राग, तू'ष आदि भाव कर्मोदयके द्वारा किये जाते है यह व्यवहार वचन है। कर्मका उदय कर्ममें होता है और जीवका परिणाम जीवमें होता है ऐसी दो क्रियायें और दो परिणाम दोनों द्रव्योंमें एक कालमें होते है, इसलिए कर्मोदय में निमित्त व्यवहार किया जाता है। और इसी निमित्त व्यवहारको लक्ष्यम रखकर यह कहा जाता है कि इसने इसे किया। यह उसी प्रकारका उपचार वचन है जैसे मिट्टीके घड़ेको घी का घड़ा कहना उपचार वचन है। तभी तो आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा १०७ में ऐसे वचनको व्यवहारनयका वक्तव्य कहा है।" इसकी समीक्षा इस प्रकार है
यह तथ्य है कि जिनागममें प्रत्येक द्रव्य परिणमनस्वभाव वाला माना गया है, इसलिए उसका जो परिणमन होता है वह उसमें ही होता है और उस रूप ही होता है तथा उस रूप होने के कारण जसका का भी वही द्रव्य होता है। इसके अनसार उत्तरपसका यह कथन निर्विवाद है कि "परिणमन करनेवाला, परिणाम और परिणमन क्रिया ये तीनों वस्तुपनेकी अपेक्षा एक है, भिन्न-भिन्न नहीं है" तथा उसका यह कथन भी निर्विवाद है कि "जिस भाव रूप वह परिणमता है उसका कर्ता वह स्वयं होता है।"
किन्सु उसी जिनागममे यह भी बतलाया गया है कि प्रत्येक द्रव्य परिणमनस्वभाव बाला तो है परन्तु उसका कोई परिणमन तो स्वयं अर्थात निमित्तकारणभूत बस्लुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप
हा करता है और कोई परिणमल निमित्त कारणभत वस्तुका सहयोग प्राप्त होनेपर ही होता है, अपने आप नहीं होता। इसका कारण यह है कि जिनागममें स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो प्रकारफे परिणमन बतलाये गये है। यह ही बतलाया गया है कि उनमेंसे स्वप्रत्यय परिणमन तो निमित्त कारणभुत वस्तुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही होते रहते हैं, परन्तु स्वपरप्रत्यय परिणमन निमित्तकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त होने पर ही होते है अपने-आप नहीं होते। इससे यह निर्णीत होता है कि संसारी आत्माका जो विकारीभाव और चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणमन होता है वह स्वपरप्रत्यय परिणमन है और वह द्रव्यकर्मोदयकी सहायता प्राप्त होनेपर ही होता है, उसके बिना अपने आप नहीं होता। इस प्रकार द्रव्यकर्मोदय
और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें निमिप्त-नमित्तिकभावरूप कार्यकारणभाष विद्यमान है। फिर भी कर्मके उदय रूप परिणामका प्रवेश संसारी आत्मामें नहीं होता व संसारी आत्माके १. देखो, तः सू० ५-३० । २. देखो, त• सू० ५-७ को स० सिद्धि टीका ।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
विकार भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणामका प्रवेश द्रव्यकर्म में नहीं होता । इस सिद्धान्तको उत्तरपक्षकी इस मान्यतानुसार कि "कर्मका उदय कर्म में होता है और जोषका परिणमन जीव में होता है ।" पूर्वपक्ष भी मानता है ।
उत्तरपक्ष ने अपने उपर्युक्त कथनमें कहा है कि "प्रत्येक दव्य स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है" यहां द्रव्यको परिणमन स्वभावाना तो 'स्वयं' शब्दप्रयोग आगमसम्मत नहीं है । उसका प्रयोग उत्तरपक्षने केवल इस अभिप्रायसे किया है कि उसकी मान्यतायें प्रत्येक द्रव्यका प्रत्येक परि
मन निमित्तकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही हुआ करता है । परन्तु ऊपर बतलाया जा चुका है कि आगम' में स्वप्रत्ययपरिणमनके अतिरिक्त स्वपरप्रत्ययपरिणमन भी स्वीकार किया गया है जो निमित्तकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त होनेपर ही हुआ करता है, उसका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने-आप नहीं होता ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें लिखा है कि " द्रव्यमें जब जो परिणमन होता है उस रूप बह स्वयं परिणम जाता है इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं " यहाँ भी उसने स्वयं का प्रयोग किया है । उससे वह यदि यह प्रगट करना चाहता है कि परिणमन उपादानकारणभूत वस्तुका अपना ही होता है उसमें निमित्तकारणभूत वस्तुका अणुमात्र भी प्रवेश नहीं होता, तो उसमें कोई विवाद नहीं है । परन्तु वह यदि 'स्वयं' शब्द से वहीं यह प्रकट करना चाहता है कि उपादानकारणभूत वस्तु का प्रत्येक परिणमन निमितकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही हुआ करता है जैसा कि उत्तरपक्ष "इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं" इस कथनसे ज्ञात होता है, तो वह आगमसम्मत नहीं है जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि आगम में वस्तुके स्वप्रत्ययपरिणमनके अतिरिक्त उसका स्वपरप्रत्ययपरिणमन भी स्वीकार किया गया है, जो निमित्त सापेक्ष होता है ।
पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौर में स० च० पृ० २८ से पृ० ३१ तक इस बातको विस्तारसे स्पष्ट किया है कि आगममें प्रयुक्त 'स्वयं' शब्दका कहाँ क्या अर्थ लिखा गया है । यद्यपि उत्तरपक्षन अपने तृतीय दौर में त० च० पृ० ७० और उसके आगे पृष्ठोंपर उसकी आलोचना भी की है, परन्तु मैं उरापर यहाँ विचार न करके आगे ही विचार करूँगा । यहाँपर तो मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षाने 'स्वयं' शब्दका प्रयोग कार्यकारणभाव के विषयमें एकान्त नियतिवाद और नियतवाद इन दोनों मान्यताओंको स्वीकार करते हुए कार्योत्पत्तिनिमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए ही किया है । परन्तु आगममें जब उपर्युक्त प्रकार स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दोनों प्रकारके परिणमन स्वीकार किये गये हैं तो इससे उत्तरपक्ष की एकान्त नियतिवाद और नियतवाद में दोनों ही मान्यतायें स्वतः निरस्त हो जाती हैं ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें यह भी लिखा है कि "ऐसी दो क्रियायें और दो परिणाम दोनों aria एक कालमें होते हैं, इसलिये कर्मोदयमें निमित्त व्यवहार किया जाता है" । यहाँ उत्तरपक्षको यह देखना चाहिये कि आगम में और लोकमें भी दो द्रव्योंकी दो क्रियाओं और दो परिणामों का एक कालमें होने मात्र से उनमें निमित्तनैमित्तिक व्यवहार नहीं स्वीकार किया गया है प्रत्युत आगमने तो यह बतलाया गया है कि निमित्त व्यवहार उसी वस्तुमें होता है जो वस्तु कार्योत्पत्ति में उपादान कारणभूत वस्तुकी असामर्थ्यको
१. देखो त० सू० ५-७ को स० सिद्धि टीका ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा नष्ट करके उसको समर्थ बना देती है । अथवा यो कहिये कि कार्योत्पत्तिमें उपादाम कारणभूत बस्तुको अपना सहयोग प्रदान करती है या यों कहिये कि कार्योत्पत्तिमें जिसके साथ कार्यकी या जिसकी कार्यके साथ अन्वय
और व्यतिरेक व्याप्तियाँ पाई जाती है। वे सब बातें पूर्व में आमम प्रमाणोंके आधारपर स्पष्ट की जा चुकी हैं। इस विषय में एक लौकिक दष्टान्त है कि कोई व्यक्ति शिरपर बोझा रख्ने हुए है और उसके भारसे
| कष्टका अनुभव हो रहा है। उस अवसरपर वह व्यक्ति यह जानता है कि बोझाका भार बोशामें है और कष्टका अनुभव उसे हो रहा है, परन्तु वह यह भी जानता है कि उसके उस कष्टानुभवनमें सहायक होने रूपसे बोझा निमित्त बना हुआ है वही कारण है कि जब उस व्यक्तिको कष्ट सहन नहीं होता तो वह उस बोझेको सिरपरसे जमीनपर पटक देता है और तब उसका वह कष्टानुभव भी समाप्त हो जाता है, तथा सुखानुभव होने लगता है। इससे कार्योत्पत्तिमें निमित्तकी सहायक होने रूपसे कार्यकारिता सिद्ध हो जाती है। जिरा प्रकार नोझम कष्टानुभवनके प्रति सहायक होने रूप कार्यकारिताके आधारपर निमित्त व्यवहार किया जाता है उसी प्रकार प्रकृतमें द्रव्यकर्म या द्रव्यकर्मोदय में भी संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमणके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारिताके आधारपर निमित्त व्यवहार होता है सर्वथा अकिंचित्करताके आधारपर नहीं, जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें आगे वह कहा है कि "इसी निमित्त व्यवहारको लक्ष्यमें रखकर वह कहा जाता है कि इसने इसे किया" उसमें हमें विवाद नहीं है। हम भी उसमें पूर्वोक्त प्रकारसे निमित्त व्यवहारको स्वीकार करते है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह निमित्त व्यवहार अकिचित्कर है। अकिंचित्कर माननेपर उराकी न उपयोगिता रहेगी और न अपेक्षा, इसे हमें नहीं भूलना चाहिए।
उत्तरपसने अपने उपर्य क्त वक्तव्य में और लिखा है कि "यह जमी प्रकारका उपचार कथन है जैसे मिट्टीके घड़ेको घीका बड़ा कहना उपचार वचन है" सो उसका यह कयन भी निविवाद है, क्योंकि पूर्वपक्ष भी उत्तरपक्षकी तरह कार्योत्पत्तिके प्रति निमित में किये जाने वाले "इसने इसे किया"इस कपनको उपचार कथन हो मानता है। पर यह भी तथ्य है कि उपचारको प्रवृत्ति वहीं पर होती है जहाँ मुख्यरूपताका अभाव हो और निमित्त तथा प्रयोजन हो । मिट्टोके धड़ेको घीका घड़ा कहनमें उपचार इसी आधार पर होता है कि एक तो उस घड़ेमें धीरूपताका अभाव पाया जाता है, इसीलिये मुख्यरूपताका अभाव वहाँ है। दूसरे घी और पड़े में संयोग सम्बन्धाश्रित आचाराधेयभाव पाया जाता है जो मिट्टीके घड़ेको घीका पहा कहने में निमित्त बना हुआ है और तीसरे मिट्टीके घड़ेको धीका घडा कहनेका प्रयोजन भी वहां पर यह है कि उस बडेमें घी रखने या उसमसे बी निकालनेके लिये ही चीका घड़ा लाओ" इत्यादि वाक्योंमें "धोका धड़ा" इस प्रकारका प्रयोग पाया जाता है।
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि घी और बड़ेमें विद्यमान संयोगसम्बन्धश्रित आधाराधेयभाव सर्वथा कल्पित नहीं है, क्योंकि मिट्टीसे निर्मित उस घटेको ही "पीका घड़ा' कहा जाता है जिसमें घी रखा हो या घी रखा जाता हो। ऐसा नहीं है कि मिट्टीसे निमित्त सभी घड़ोंको “घीका घा' कहा जाता हो। यदि धी और घडे में विद्यमान संयोगसम्बन्धाश्रित बाधाराधेयभावको सर्वथा कल्पित ही माना जावे तो वहाँपर उप१. तदसामर्थ्यमखण्डयदकिंचिकर कि सहकारिकारणं स्यात् ? अष्टसहस्री पृष्ठ १०५, निर्णयसागरीय
प्रकाशन ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चारकी प्रवृति होना सम्भव नहीं है । भागममें भी संयोग-सम्बन्धाधित कार्य-कारणभाव व आधाराधेयभाव आदि सम्बन्धोंकी सम्रथा कल्पितरूपताका निषेध पाया जाता है। इस तरह तादाम्प-सम्बन्धके अभावमें भी उक्त आचाराधेयभावको संबोग-सम्बन्धक सदभावको आधारपर यथार्थ मानना योग्य है, कल्पित नहीं । इसी तरह द्रव्यकर्मोदय में उपचरित कर्तत्वकी प्रवृत्तिका भी यही आधार है कि एक तो द्रव्यवोदयमें संसारी मात्माके विकारी भाव और चतुर्गति भ्रमण रूप कार्यके मुख्य कर्तत्वका अभाव है। दूसरे, वह द्रव्यकर्मोदय उक्त संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुतिभ्रमणरूप कार्य में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण है। यदि ऐसा न माना जाये और उक्त कार्य के प्रति उस व्यकर्मोदयको सर्वथा अकिचित्कर ही माना जाये, तो उसमें उक्त प्रकारके उपचारित कर्तुत्वको सिद्धि करना असम्भव है अथवा यों कहिये कि उसमें कर्तुत्वफे उपचारकी प्रवृत्ति होना सम्भव नहीं है ।
उत्तरपक्षने अपने उपयुक्त वक्तव्यके अन्तमें जो यह कथन किया है कि "तभी तो आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा १०७ में ऐसे कपनको व्यवहारनयका वक्तव्य कहा है' इसके विषयमें मेरा कहना है कि समयसार माधा १०८ में जो बहा गया है वह सब कार्योत्पत्ति) निमिराकारणको सहायक होने रूपसे कार्यकारिताकी स्वीकृति के आधारपर ही कहा गया है । यहो उसे और स्पष्ट किया जाता है
समयसार गाथा १०४ में आचार्य कुन्दकन्दन यह उदश्रीष किया है कि आत्मा स्वद्रव्य और स्वगणका पुद्गलकर्ममें आधान नहीं करता है और उन दोनोंको उसमें आधान न करनेपर वह उस पुद्गलकर्मका कर्ता कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो कार्यरूप परिणत होता है वही कर्ता होता है।
इस तरह आत्मामें पुद्गल कर्मके कर्तृत्वका निषेध कर दिये जानेपर समयसार गाथा १०५ के माध्यमसे इस आधारपर आत्मामें पुद्गलकर्मके कर्तृत्वका विधान किया गया है कि यतः जीवके हेतु होनेपर ही बन्धका परिणाम देखा जाता है अत: "जीवने कर्म किया" ऐसा उपचारसे कहा जाता है ।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब तक जीवको पुद्गलके कर्म रूप परिणमनमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी हेतु नहीं माना जायेगा तब तक उरामें (जोवमें) पुद्गल कर्मके कर्तृत्वका उपचार करना सम्भव नहीं होगा।
इसके पश्चात् समयसार गाधा १०६ के माध्यमसे आवार्य कुन्दकुन्दने दृष्टान्त द्वारा इस बातको पुष्ट किया है कि योद्धा ही युद्ध करते है, परन्तु लोकमें युद्धका का राजाको माना जाता है, क्योंकि योद्धा राजाकी प्रेरणासे ही युद्धमें प्रवृत्त होते हैं अर्थात् जब तक राजाज्ञा न हो तब तक योद्धा युद्ध में कदापि प्रवृत १. तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिचरवात
पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपितः सर्वथाप्यनवचत्वात् ।-त श्लो. बा.१० १५१, निर्णयसागरीय
प्रकाशन | २. दव्वगुणस्स य आदा ण कुणादि पागलगम्हि कम्मम्हि ।
तं उभयमवतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ॥१०४॥ समयसार ३. "यः परिणमति स कर्ता".-रामयसार कलश ५१ । ४. जीवम्हि हेमूदे बंघस्स दु पस्सिदूण परिणाम ।
जीवेण कदं कर्म भणदि उवयारमत्तेण ॥१०५।।-समयसार
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
नहीं होते है। इसलिये जिस प्रकार प्रेरक निमित्त होनेके आधारपर राजाको युद्धका कर्ता माना जाता है उसी प्रकार ज्ञानाधरणादिक रूप परिणति उपादानकारणभुत पुद्गलकी होनेपर भी जीवको व्यवहार (उपचार) से उनका कर्ता माना जाता है क्योंकि वह जीव समयसार गाथा १०५ के अनुसार पुद्गलके उस कर्मरूप परिणमममें सहायक होने रूपसे कार्यकारी हेतु होता है।
___ इस तरह उपर्युक्त विवेचनके अनुसार समयमार गाथा १०७ के माध्यमसे आचार्य कुन्दकुन्दके द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि आत्माका पुद्गलको कर्मरूपसे उत्पन्न करना या करना, बांधना,परिणमाना और ग्रहण करना यह व्यवहारनयका वक्तव्य है। जिसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि आत्मा पुद्गलकर्मरूपसे उत्पन्न नहीं होता या पुदगलकर्मरूप नहीं होता, पुद्गलकर्मरूपसे नहीं बंधता, पुदगलकर्मरूपसे नहीं परिणमता और पुदगलकर्मरूपये ग्रहीस नहीं होता, क्योंकि कर्मरूपसे उत्पत्ति, कर्मरूपसे रचना, कर्मरूपसे बन्ध, कर्मरूपसे परिणमन और कर्मरूपसे ग्रहण पुद्गलका ही होता है, तथापि पुद्गलकी ये सभी अवस्थायें आत्माके सहयोगके बिना सम्भव नहीं हैं । अतः आत्माका पुद्गलको कर्मरूपसे उत्पन्न करना या करना, बांधना,
पना और मामला न सापक होने मासे व्यवहारनयका ही ऋथन निर्णीत होता है अर्थात् उत्पन्न होना और उत्पन्न करना, निर्मित होना और निर्मित करना, बंधना और बांधना, परिणत होना और परिणत कराना तथा ग्रहण होना और ग्रहण करना इन पांचों विकल्प-युगलोंमें पहला-पहला विकल्प ही निश्चयनयका विकल्प है दूसरा-दूसरा व्यवहारनयका विकल्प है।
इसका स्पष्टीकरण आचार्य कुन्दकुन्दके समयशार गाथा १०८ के माध्यमसे इस प्रकार किया गया है कि जिस प्रकार प्रजा अपने स्वभावके अनुसार ही दोष और गुण रूप बनती है परन्तु “यथा राजा तथा प्रजा" की लोकोक्तिके अनुसार राजाको प्रजाके दोष और गुणका उत्पादक माना जाता है उसी प्रकार आत्माको पुद्गलके कर्मरूप परिणमनका उपर्युक्त प्रकार व्यवहार रूपसे उत्पादक कहा जाता है। कथन २४ और उसकी समीक्षा
२४. उत्तरपक्षने 'अध्यात्ममें रागादिको पौद्गलिक बतलानेका कारण' शीर्षकसे त० च० पृ० ३८ से ४१ तक जो कथन किया है वह अनुपयुक्त और निरर्थक है क्योंकि एक तो उस कथनके प्रतिपाद्य विषयक सम्बन्धमें पूर्वपक्ष भी सहमत है । दूसरे, प्रकृत विषयमें उसकी कोई उपयोगिता नहीं है । इसका खुलासा इस प्रकार है
१. उत्तरपक्षके उक्त क्रथनके सम्बन्धमें पूर्व पक्ष के सहमत होने के कारण निम्न है
(क) उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष भी रागादि भावोंका वास्तविक कर्ता जीवको ही मानता है, पुद्गल. को नहीं।
१. जोधेहि कदे जुदे रारण कदं ति जंपदे लोगो ।
तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ॥१०६/-समयसार । उप्पादेदि करेदि य बंघदि परिणामए दि गिहदि य ।
आदा पुग्गलदवं व्यवहारणयस्स.वत्तब्ध ॥१०॥-समयसार ३. जह राया बवहारा दोस-गुणम्पादगो त्ति बाल विदो।
तह जीवो ववहारा दब्बनणप्पादगो भणिदो ॥१०८11-समयसार
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
(ख) उत्तरपक्ष के रामान पूर्वपक्ष भी मानता है कि वे रागादि भाव जीवके ही अपने भाव हैं, पुद्गलके अपने भाव नहीं हैं और वे जीवमें ही उत्पन्न होते हैं, पुद्गलमें नहीं ।
(ग) उत्तरपक्ष के समान पूर्वपक्ष भी मानता है कि जीव हो उन रूप परिणत होता है। पुद्गल कदापि उन रूप परिणत नहीं होता। और जीव ही उन रूप परिणत होनेका व्यापार करता है। पुद्गल उन रूप परिणत होने का कदापि व्यापार नही करता । लेकिन इस विषय में इतना मतभेद है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुद्गलको जीवकी उन रूप परिणति में नियमसे सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष पुद्गलको जीवकी उन रूप परिणतिमं सहायक न होने रूपसे कार्यकारी नहीं मानता तथा उसे सर्वथा अकिचित्कर बतलाता है ।
६.४
(घ) पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष की इस मान्यताको भी स्वीकार करता है कि 'एक द्रव्यकी परिणमन क्रियाको दूसरा द्रव्य विकालमें नहीं कर सकता, क्योंकि यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको क्रिया करने लग जाय तो समयसार गाथा ९९ के अनुसार दोनोंमें तन्मयपनेका प्रसंग होनेसे एकताको प्रसक्ति होती है या समयसार गाथा ८५ के अनुसार दो क्रियाओंका कर्त्ता एक द्रश्यको स्वीकार करनेका प्रसंग आता है, जो आगनके विरुद्ध है ।' इसीप्रकार समयसार गाथा १०३ को जिनाशाके रूपमें जैसा उत्तरपक्ष प्रमाण मानता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी मानता है ।
(च) पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष के इस कथन को भी स्वीकार करता हूँ कि 'जीव में होनेवाले मोह, राग और द्वेष आणि भाव अशुद्ध निम्न अपेक्षा दिने उसे उत्तरपक्ष के इस कथन में भी कोई विवाद नहीं है कि "इसी तथ्य को ध्यान में रखकर उक्त (५० -५६) गाथाओं की टीकाओं में आचार्य जयसेनने अशुद्ध पर्यायार्थिक निश्चयकी अपेक्षा उन्हें जीवरूप ही स्वीकार किया है" ।
(छ) पूर्वपक्षको उत्तरपक्षकी यह बात भी मान्य है कि "कर्ता कर्माधिकार गाथा ८८ में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने ओर उसको टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र ने मोह आदि भावोंको जीवभावरूप स्वीकार किया है" ।
वाले
(ज) पूर्वपक्षको उत्तरपक्ष के इस कथन में भी विरोध नहीं है कि "परमपारिणामिक भावको ग्रहण करने शुद्ध निश्चय के विषयभूत चिचमत्कार ज्ञायक स्वरूप आत्माकै लक्ष्यसे उत्पन्न हुई आत्मानुभूति में उनका भान नहीं होता, इसलिये ये रागादि भाव जीवके नहीं, ऐसा समयसार गाथा ५० से गाथा ५६ तककी गाथाओं में कहा गया है" तथा इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए उक्त गाथाओंको टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र जो कुछ लिखा है और जिसे उत्तरपक्षने अपने कथनमें प्रमाणरूपसे उद्धृत किया। वह भी पूर्वपक्षको मान्य है ।
(झ) उत्तरपक्ष ने द्रव्याधिकन्यके भेदोंमें परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनयको स्वीकार करते हुए उसकी पुष्टिमें जो आलापाद्धति और नयचक्रादिसंग्रह वचनोंको प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है वह भी पूर्वपक्षको उत्तरपक्ष समान ही मान्य है ।
(c) इसी तरह उत्तरपक्षने त० च० पृ० ४० पर तात्पर्य के रूपमें जो लिखा है वह तो ठीक है, परन्तु उसने उसी अनुच्छेद में जो यह लिखा है कि "आसन्नभव्य ऐसे अभेदस्वरूप आत्माको लक्ष्य कर (ध्येय बनाकर सन्मय होकर परिणमता है उसे जो आत्मानुभूति होती है उसे उस कालमें रागानुभूति विकार्मेल
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६५
शंका-समाधान की समीक्षा नहीं होती" । इसके विषयमें मेरा कहना है कि रागानुभूप्तिसे पृथक् शुद्ध आत्मानुभूति ११ गुणस्थानसे पूर्व किसी भी जीवको होना संभव नहीं है क्योंकि १०३ गुणस्थान तक जीवोंके प्रकृति और प्रदेश बन्धके अलावा स्थिति और अनुभाग बन्ध भी होता है। यह बन्ध इस बातको बतलाता है कि वहाँ रागानुभूतिसे पृथक शुद्ध आत्मानुभूतिका होना संभव नहीं है।
(1) उत्तरपक्षने त० प० १० ४० पर आगे लिखा है कि "इस प्रकारके रागादि भाव जीवके नहीं है" इत्यादि, सो वह भी हम मानते हैं । इस अनुच्छेदके आगे जो "यह वस्तुस्थिति है" इत्यादि अनुच्छेद लिखा है तथा इसके समर्थनमें उसने जो समयसार कलश १०३ को उदषत किया है वह भी पूर्वपक्षको मान्य है। अन्तमें उसने त. च०१० ४१ पर लिखा है कि ''इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि आत्मामें रागादिकी उत्पत्ति मुख्यतया पुद्गलका आलम्बन करनेसे होती है, स्वभावका मालम्बन करनेसे नहीं होती, इसलिये तो उन्हें अध्यात्ममें पौगलिक कहा गया है। पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है या वे पुद्गलकी पर्याय है इसलिये पौद्गलिक नहीं कहा गया है । इस अपेक्षासे विचार करने पर तो जीव आप अपराधी होकर उन्हें उत्पन्न करता है और आप तन्मय होकर मोह, राग, द्वेष आदि रूप परिणमता है इसलिए वे चिदविकार ही हैं। फिर भी जायक स्वभाव आत्माके अबलम्बन द्वारा उत्पन्न हुई आत्मानभतिमें उनका प्रकाश नहीं होता, इसलिये उससे भिन्न होनेके कारण व्यवहारनयसे उन्हें जीवका कहा गया है । इसप्रकार समयसारको उक्त गाथाओंमें वर्णाविके समान रागादिको क्यों तो पोद्गलिक कहा गया है और क्यों वे व्यवहारनयसे जीवके कहे गये है इसका संक्षेपमें विचार किया"। इस कथनमें भी पूर्वपक्षको कोई विवाद नहीं है। केवल इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जीव आप अपराधी होकर उन्हें करता हुआ भी पुद्गल कर्मके सहयोगसे ही उन्हें करता है, पुद्गल कर्मके सहयोग के बिना कदापि नहीं करता है।
(२) प्रकृतमें उत्तरपनके उक्त शीर्षकसे किये गये कयनकी उपयोगिता न होनेका कारण यह है कि उत्तरपक्षने अपना वह कथन पूर्वपन द्वारा त० १० १० १२ पर किये गये इस कथनको लक्ष्यमें रखकर किया है कि "यद्यपि जीव का परिणमन स्वभाव है तथापि उसके भाव कर्मोदय द्वारा किये जाते है, इसलिये समयसार ५० से ५६ तक की गाथाओंमें यह बतलाया गया है कि रागादि भाव पौद्गलिक हैं और व्यवहारनयसे जीवके है। लेकिन पूर्वपक्षके इस कथनके आधारपर उत्तरपक्षके उक्त कथनकी उपयोगिता सिद्ध नहीं होती है।
(क) प्रथम तो हमारे कथनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि रागाविभाव जीवके ही परिणाम है अर्थात् जीव ही उनका उपादान होनेसे उन रूप परिणमता है परन्तु उनका प्रधान कारण उपादानकारणभूत जीव न होकर जीवको उन रूप परिणत होनेमें सहायता प्रदान करने वाला निमित्त कारणभूत पुद्गलकर्मका उदय है । इसमें हेतु यह है कि ये रागादि भाव उपादानकारणभूत जीबमें तभी तक उत्पन्न होते हैं जब तक उसमें कर्मका उदय विद्यमान रहता है और जब उसमें कर्मके उदयका उस कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर अभाव हो जाता है तब उसमें उन रागादि भावोंका भी अभाव नियमसे हो जाता है।
यद्यपि कार्योत्पत्तिमें उपादानकारणको वास्तविक कारण, यथार्थकारण और मुख्यका माना गया है व निमित्तकारणको व्यवहारकारण, अयथार्थकारण और उपरितकर्ता कहा गया है । परन्तु कहीं तो कार्योत्पत्तिमें उपादानकारण प्रधान होला है और कहीं निमितकारण । जहाँ कार्योत्पतिमें उपादान कारण प्रधान होता है वहाँ उसमें निमित्तकारण गौण होता है और जहाँ कार्योत्पत्तिमें निमित्तकारण प्रधान होता है। वहां उसमें उपाबानकारण गौण होता है। उदाहरणार्थ
स -१
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क्यार (खनिया पपया और उसली सीक्षा (१) मिट्टीसे उत्पन्न होने वाले घटको उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत मिट्टी प्रधान कारण है क्योंकि घटकी सत्ताके साथ मिट्टीकी सता अनुस्यूत रहती है। परन्तु उसी घटकी उत्पत्तिमें निमित्तकारणभूत फुम्भकार गौण कारण है, क्योंकि षटेकी सत्ताके साथ कुम्भकार की सत्ता अनुस्यूत नहीं है। इसका तात्पर्य पह है कि जब तक घट विद्यमान रहता है तब तक वह अपनी मिट्टीरूपताको नहीं छोड़ता है, परन्तु घटकी ससा रहते हुए भी कुम्भकारको सत्तासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता है अर्थात् कुम्भकारको सत्ताकी पटकी सत्तामें कोई अपेक्षा नहीं रहती है । यहाँ घटोत्पत्ति में उपादानकारणभूत मिट्टी तो प्रधान कारण हैं और निमित्तकारणभूप्त कुम्भकार गौण कारण है।
(२) दर्पणको रक्तादिरूप परिणतिमें निमित्तकारणभूत रफ्तादि वस्तुएँ प्रधान कारण होती है और उपादानकारणभूत दर्पण गोण कारण होता है, क्योंकि दर्पणको जब तक रक्तादि वस्तुओंका समागम प्राप्त रहता है तभी तक दर्पणको रक्तादि रूप परिणति देखी जाती है और जब उन रक्तादि वस्तुओंका दर्पणके साथ समागम समाप्त हो जाता है तब दर्पणकी रक्तादि रूप परिणति भी समाप्त हो जाती है।
इसी प्रकार जीवमें उत्पन्न होने वाले रागादि भावोंकी उत्पत्तिमें निमिसकारणभत द्रव्यकर्मोदय प्रधानकारण होता है और उपादानकारणभूत जीव गौण कारण होता है, क्योंकि जीवकी रागादि रूप परिणति तभी तक होती है जब तक निमित्तकारणभूत कर्मका उदय उसमें विद्यमान रहता है । और जब जीवमें निमित्तकारणभूत कर्मका उदय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके होनेपर समाप्त हो जाता है तब उपादानकारणभूत जीवकी यह रागादि भाव रूप परिणति भी समाप्त हो जाती है। इससे सिद्ध है फि दर्पणकी रक्तादि रूप परिणतिमें रक्तादि वस्तुएँ और जीयकी रागादि भाव रूप परिणतिमें कर्मका उदय प्रषानकारण हैं व दर्पण और जीव गौण कारण है।
(३) जिस प्रकार कार्योत्पत्तिके उपादान और निमित्त दोनों कारणों से आगममें उपादानकारणको निश्चयशब्दको व्युत्पसिके अनुसार निश्चयनयका विषय और निमित्तकारणको व्यबहारयाब्दको व्युत्पत्तिके अनुसार व्यवहारमयका बिषय माना जाता है उसी प्रकार कार्योत्पत्तिमें कारण भत प्रधान और गौण दोनों कारणों में से प्रधान कारणको निश्चयशम्यकी व्युत्पत्तिके अनुसार निश्चयनयका विषय और गौण कारणको व्यवहारशब्दकी व्युत्पत्ति के अनुसार व्यवहारनयका विषय मानना उचित है। इस तरह आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार ५०-५६ तककी गाथाओंमें जीवके रागादि भावोंको जो पौद्गलिक कहा है उसका कारण यही है कि उनकी उत्पत्तिमें निमित्तकारणभूत कर्मका उदय प्रधान कारण है और उपादानकारणभूत जीव गौण कारण है । अतएव उन्हें निश्चयनयमें पौद्गालिक तथा व्यवहारनयसे जोवरूप कहा गया है।
इस विवेचनसे संसारी आत्माके विकारभाय और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति द्रव्यकर्मोदयमें विद्यमान निमितकारणताकी सर्वथा अकिंचिस्करता सिझन होकर सहायक होने रूपसे कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। उसीकी प्रसिद्धिके लिये तक च. १०१२ पर उपयुक्त कथन किया है। उत्तरपक्षका कर्तव्य था कि वह उक्त कथनके प्रकाशमें जीवके रागादि भावोंकी उत्पत्तिमें कर्मोदयको सर्वथा अकिचिल्कर निमित्तकारण माननेके अपने दुराग्रहको छोड़कर उसे बहाँपर सहायक होने रूपसे कार्यकारी मिमित्तकारण स्वीकार करता । परन्तु उसने ऐसा न कर तच. १०३८ से ४१ तक अपने कथममें उन अप्रासंगिक बातोंकी चर्चा उठायी है, जो न तो प्रकृत विषयके लिये आवश्यक है और न उपयोगी। फिर भी मेरा कहना है कि उसरपक्षको पूर्वपक्षके आक कयनमें संभव विरोधको दिखाना था, न कि पूर्वपक्ष जिन बातोंको मानता है उन्हीं बातोंको दोहराना था।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
आरुवर्य यह है कि उत्तरपक्षने रागादिको एकअपेक्षासे पौनलिक भी मानतशा व्यवहार सीसके भी माना और वे पौद्गलिक क्यों है व व्यवहारसे जीवके क्यों हैं इराका विवेचन भी किया, परन्तु अब पूर्वपक्षने पहलेसे ही उन्हें उसी अपेक्षासे पौद्गलिक माना है और व्यवहारसे जीवके माना है तो दूसरोंकी दृष्टि में पूर्वपक्षको गिराने तथा उसका कल्पित विरोध करने के लिये उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके ऊपर मनगढन्स मिथ्या आरोप गड़कर उनका खण्डन आगमप्रमाणोंके आधारपर इस ढंगसे करनेकी चेष्टा की, जिससे तत्त्वजिज्ञासुओंको यह जान पड़े कि आगमको जानकारी और भक्ति केवल उसी में है, पूर्वपक्षमें न तो भागमकी जानकारी है और न भक्ति हो है । परन्तु उसका यह मात्र छल है, जो तत्त्वफलित करनेकी दृष्टिसे उसके लिये शोभास्पद नहीं है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्षकी दृष्टिमें ये बातें विवादग्रस्त नहीं है, जिन्हें उत्तरपक्षने त० च० पृ० ३८ से पु०४१ तक प्रस्तुत की है । विवादका मुख्य महा यही है कि कार्योत्पत्ति में निमित्तकारणको सहायक होने रूपसे कार्यकारी माना जाये या उसे वहां पर सर्वथा अकिषित्कर स्वीकार कर उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तकारणका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही हुई स्वीकार कर ली जाये ? उसरपक्ष को अपने विचार इसी मुद्देपर प्रगट करना चाहिए थे । निर्विवाद और अनावश्यक बातोंका विस्तार 'धानके भूसेपर मूसल पटकना' कहा जायेगा, जिससे कोई फल प्राप्त नहीं होता और न तत्व प्रहण होता हो। कथन २५ और उसकी समीक्षा
(२५) उत्तरपक्ष ने "समयसार गाथा ६८ की टीकाका आशय" शीर्षकसे त० १० पु. ४१ पर निम्नलिखित कथन किया है
"अब समयसार गाथा ६८ को टीकापर विचार करते है-इसमें कारणके अनुसार कार्य होता है जैसे जो पूर्वक उत्पन्न हुए जो जो हो है इस न्यायके अनुसार गुणस्थान या रागादि भावोंको पोद्गलिक सिद्ध किया गया है। इस परसे अपरपक्ष निश्चयनपसे उन्हें पौद्गलिक स्वीकार करता है किन्तु अपरपश्च यदि पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है इसलिए वे निश्चयनयसे पौद्गलिक है या पुदगलके समान रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले होने के कारण निश्चयनयसे ये पौद्गलिक है ऐसा मानता हो तो उसका दोनों प्रकारका मानना सर्वथा आगमविरुद्ध है, क्योंकि परके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए वे जीवके ही घिविकार है और जीवने आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न किया है । अतएव अशुद्ध पर्यायार्षिकनयसे ये जीव ही है।"
उन्नरपक्षने यह कथन पूर्वपक्ष द्वारा तच० प०१२पर किये गये इस कथनपर विचार करते हुए किया है कि "समयसार गाया ६८ की टोकामें यह कहा गया है कि जिस प्रकार जोसे जौ उत्पन्न होता है उसी प्रकार रागादि पुद्गल कोसे रागादि उत्पन्न होते है इसी कारण निश्चयनयसे रागादि भाव पोद्गलिक हैं।"
यहाँ उत्तरपक्षके कथनपर विचार करनेके पूर्व पूर्व पक्ष के कथनका आशय दिया जाता है। उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के कथनका विपर्यास किया है और उसके कथनको आगमविरुद्ध कहा है। परन्तु जिस प्रकार र्पणमें पदार्थका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है वह दर्पणके स्वभावभूत स्वच्यताकी विकृति मात्र होनेसे उपादानकारणभूत दर्पण की ही परिणति है, तथापि उसे दर्पणकी परिणति न बोलकर, लोकमें यही बोला जाता है कि वह अमुक पदार्थका प्रतिबिम्ब है। ऐसा बोलनेका कारण यह है कि दर्पण उस परिणतिमें सपावान
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जयपुर (सानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा कारण होते हुए भी प्रधान कारण नहीं है और अमुक पदार्थ उस परिणति में सहायक ( निमित्त ) कारण होते हुए भी प्रधान कारण है । इस तरह दर्पणकी यह परिणति निश्चयनयसे तो लोकमें पदार्थका प्रतिबिम्ब रूपमें मानी जाती है और व्यवहार नयसे यह दर्पणकी परिणति मानी जाती है। इसी प्रकार जीवमें जो रागादि भाष उत्पन्न होते है वे यद्यपि जीवके शुद्ध स्वभावकी विकृति मात्र होनेसे उपादानकारणभूत जीवको ही परिणतियाँ है, परन्तु उन्हें जोधकी परिणति न बोलकर आगममें यही बोला गया है कि वे पौद्गलिक है। ऐसा बोलनका कारण यह है कि जीव उन परिणतियोंमें उपादानकारण होते हुए भी प्रधान कारण नहीं है और पुद्गलफर्म उन परिणतियोंमें सहायक ( निमित्त ) कारण होते हुए भी प्रधान कारण है । इस तरह जीवकी ये रागादिभावरूप परिणतियां निश्चयनयस तो पानी बौदलकदई हैं और व्यवहारनयसे ये जीवकी परिणतियाँ मानी गई हैं।
___ यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस तरह दर्पणको बिकारी परिणति उपादानकारणभूत दर्पण गौण कारण है और उसमें सहायक ( निमित्त ) कारणभूत अमुक पदार्थ प्रधान कारण है। उसी प्रकार जीवकी रागादिभावरूप परिणतियोंमें उपादानकारणभूत भीष गौण कारण है और उसमें सहायक (निमित्त ) कारणभूत पौद्गलिक द्रव्यकर्म प्रधान कारण है 1
पूर्वपक्षके उपर्युक्त कथनके आशयपर ध्यान देनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने प्रकृत प्रकरणमें समयसार गाथा ६८ की टीकाको जो प्रमाणरूपसे प्रस्तुत किया है उसमे उसका उद्देश्य संसारी मात्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध करना व उत्तरपक्षको मान्य उसमें सहायक न होने रूपसे उसकी ( द्रव्यकर्म के उदयकी ) अकिचित्करताका निषेध करना ही है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि कार्योत्पत्तिके विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य "उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है निमित्त नहीं" | इस विषयमें कोई विवाद नहीं है। दोनों पक्षोंमें विवाद केवल कार्योत्पत्तिमें निमित्तकी निमित्तकारणताके विषय में ही है और वह इस रूपमें है कि जहाँ पूर्वपक्ष उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकारणको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है वहीं उसरपक्ष उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर ही मानता है और कहता है कि उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तकारणकी सहायताके बिना अपने आप ही हो जाया करती है। पाठक देखेंगे कि उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथनमें दोनों पक्षोंमें विद्यमान इस मतभेदको समाहित न कर पूर्वपक्षपर अनुचित आरोप लगानेकी असफल चेष्टा की है। उसने लिखा है कि
"पूर्वपक्ष यदि जीवके रागादि भावोंको निश्चयनयसे पौगलिक इस आधारपर मानता हो कि पुद्गल आप का होकर उस रूप परिणत होता है या इस आधारपर मानता हो कि जीवके रागादि भाव पगलके समान रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले हैं तो उसको में दोनों प्रकारको मान्यतायें आगमविरुद्ध है।"
। ये दोनों ही आरोप कल्पित और दुरभिप्रायपूर्ण है, क्योंकि पूर्वपक्ष जीवके रामादि भावोंको निश्चयनयसे पौद्गलिक इसलिए नहीं मानता है कि पुद्गल कर्म उस रूप परिणत होता है या इसलिए नहीं मानता है कि जीवके वे रामादि भाव पुद्गल कर्मके समान रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले हैं। प्रत्युत वह उन्हें मशुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक इसलिए मानता है कि उनकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत जीव पूर्वोक्त प्रकार गौण कारण है और निमित्तकारणभूत पृद्गल कर्मका उदय पूर्वोक्त प्रकार प्रधान कारण है । स्वयं उत्तरपक्षने भी समयसार गाथा ६८ की आचार्य जयसेन द्वारा कृत टीकाके आधारपर' जीवके रागादि भावों
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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को निश्चयनयसे पौदधिक मानने में पुनरुक्त होते हुए भी उन्हें यहाँ दिया जाता है
० ५० ४२ पर इसी प्रकारले आधारोंको स्वीकार किया है।
"उत्तरपक्ष कहता है कि "इस प्रकार उक्त कथनसे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय कर्मके उदयको अवलम्बन ( निमित्त ) कर जो गुणस्थान या रागादि भाव होते हैं ये अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा जीव ही है। यहां जो उन्हें जीब होने का निषेध कर अपेतन कहा है वह शुद्धनयकी अपेक्षा ही कहा है । तात्पर्य यह हैं कि (१) त्रिकाली ज्ञायक स्वरूप आत्माके अवलम्बनसे उत्पन्न हुई आत्मानुभूतिमें गुणस्थान या रागादि भावका प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता। (२) वे पुद्गलादि परद्रव्यका अवलम्बन करनेसे उत्पन्न होनेके कारण शुद्ध चैतन्य प्रकायस्वरूप न होकर चिदिकार स्वरूप हैं अतएव अचेतन है तथा (३) उनकी जीवके साथ वैकालिक व्याप्ति नहीं पाई जाती, इसलिए शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा वे जीव नहीं हैं. अतएव पौगलिक है " ० ० ५० ४२ १
उत्तरपक्ष के इस मनसे स्पष्ट है कि यह विधान्त है और अपने कथनको मूल जाता है तथा पूर्व पक्षपर कल्पित आरोप लगाने को उद्यत रहता है ।
लगाते
उत्तरपक्ष जानता है कि पूर्वपक्ष उत्तरके इस कथनका निषेधक नहीं है वह तो उत्तरपक्ष के इस कथनका भी पूर्ण समर्थक है कि "यह जीव अनादिकाल को भूलकर परका अवलम्बन करता आ रहा है और परफे असे उत्पन्न चिविकारोंमें उपावेय बुद्धि करता आ रहा है, इसमें हेय बुद्धि कर उनसे अवलम्बनसे विरत करना उक्त बचनका प्रयोजन है। यही कारण है कि कर्तृककार रागादि भावोंका कल स्वतन्त्रपने स्वयं जीव ही है यह बतलाकर भो जीवाजीवाधिकार में परका अवलम्बन करनेसे होने के कारण उनमें पर बुद्धि कराई गई है ।" परन्तु प्रकृत प्रकरण पूर्वपक्षने जो समयसार गाथा ६८ की टीकाका उल्लेख किया है उस उल्लेखका प्रयोजन वह नहीं है जिसे उत्तरपक्षनेत ० पृ० ४२ के उपयुक्त अनुच्छेदमें किया है, क्योंकि ऊपर बतलाया जा चुका है कि एक हो इस विषयको लेकर दोनों पक्षोंके मध्य कोई मतभेद नहीं है और दूसरे प्रकृत विषयके साथ उसका कोई सम्बन्ध भी नहीं है प्रकृत विषय तो मात्र इतना ही हैं कि कर्मके उसकी संसारी आत्मा विकार भाव और चतुर्थीतभ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण माना जाये या उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अर्किचित्कर निमित्त कारण ही मान लिया जाये। पचपि ० ० ० ४२ के उपर्युक्त अनुच्छेदने उत्तरपदाने भी यह स्वीकार किया है कि जीवना जो गुणस्थान या रामादि भाव रूप परिणमन होता है यह मोहनीय कर्मका अवलम्बन (निमित) कर ही होता है, परन्तु आश्चर्य इस बातका है कि उत्तरपक्ष ऐसा स्वीकार करके भी मोहनीय कर्मके उदयको वहाँपर सहायक होने रूपसे कार्यकारी निभिसकारण न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिचिरकर निमित्त कारण ही मानता है व संसारी आत्माके विकारी भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणतिको उसके सहयोग बिना अपने आप ही मान लेता है जिसे आगमविरुद्ध बार-बार कहा जा चुका है। पर उत्तर पक्ष अभी तक उसका आगमानुसार समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका और अपने आग्रहपर आरूढ़ है, जो तत्त्व निर्णयका अवशेष है। इस तरह उत्तरपक्षकी कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्तकारणको सर्वथा अकिचित्कर स्वीकार करनेकी मान्यता आगमविरुद्ध तदवस्थ है ।
यद्यपि
उत्तरपक्षने त० च० पृ० ४२ के अपने उपर्युक्त कथन के अन्त में पूर्वपक्ष पर एक मिथ्या आरोप और लिखा है कि "आया है अपरपक्ष समयसार गाथा ६८ की टीकाले यही सास्पर्य ग्रहण करेगा, न
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कि यह पुद्गल स्वयं स्वतन्त्रसया आप कर्ता होकर उन गुणस्थान या रागादिको करता है इसलिए यहाँ उन्हें पीद्गलिक कहा गया है ।"
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हम उत्तरपक्षसे पूछना चाहते हैं कि पूर्वपक्षने समयसार गाथा ६८ की टीकाका तात्पर्य उक्त प्रकारका कहीं ग्रहण किया है ? उत्तरपक्ष यदि पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्तुत समयसार गाथा ६८ की टीकाके उल्लेख
शको समझने की चेष्टा करता तो उसे ज्ञात हो जाता कि जीवकी परिणतिस्वरूप गुणस्थान व रागादिकको शुद्धनिश्चयनयसे पौद्गलिक और अशुद्ध निश्चयतय या व्यवहारनयसे जीवरूप माननेके विषय में दोनों पक्षोंके मध्य कोई विवाद ही नहीं है । विवाद केवल इस त्रिषयमें है कि जिस प्रकार पूर्वपक्ष संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण मथकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण मानता है तथा उसे गुणस्थान व रागादिका शुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक माननेका आधारभूत पूर्वोक्त प्रकारसे सिद्ध प्रधान कारण और अशुद्ध निश्चयनय या व्यवहारत यसे जीव रूप माननेका आधारभूत पूर्वोक्त प्रकारसे ही सिद्ध गौण कारण स्वीकार करता है उस प्रकार उत्तरपक्ष गुणस्थान व रागादिका शुद्ध निश्चयनयसे पौगलिक माननेका आधारभूत कारण र अशुद्ध श्चियनय या व्यवहारनयसे जीव रूप माननेका आधारभूत गौण कारण स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि वह ( उत्तरपक्ष ) जब संसारी आत्मा के विकार - भाव और चतुर्गतिभ्रमणमे द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्त कारण मानता है तो उसे गुणस्थान व रागादिका शुद्ध निश्चयनय से पौगलिक व अशुद्ध निश्चयनयसे या व्यवहारनयसे जीव रूप माननेका आधारभूत प्रधानकारण और गोणकारण स्वीकार करना उसके ( उत्तरपक्ष के ) मत में सम्भव नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप गुणस्थान व रागादिको शुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक अचेतन और अशुद्ध निश्चयनयसे या व्यवहारनयसे जीव रूप स्वीकार करनेकी स० च० पृ० ४२ पर निर्दिष्ट उसकी मान्यता ही समाप्त हो जाती है, जो उसके लिये अभीष्ट नहीं है ।
कथन २६ और उसकी समीक्षा
(२६) पूर्वपक्षने संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण सिद्ध करनेके लिये त० ० पृ० १२ पर यह लिखा है कि "समयसार गाया ११३-११५ में कहा है कि जिस प्रकार उपयोग जीवसे अनन्य है उस प्रकार जीवको परिणति स्वरूप क्रोधभाव जीवसे अनम्य नहीं है " यह कथन भी पूर्वपचने इसी अभिप्रायसे किया है जिस अभिप्रायसे उसने समयसार गाथा ६८ की टीकाका उल्लेख किया है। परन्तु उत्तरपक्ष समयसार गाथा ११३-११५ का भी यही आशय लेना चाहता है जो आशय उसने समयसार गाथा ६८ की टीकाका लिया है। इसलिये ही उसने लिखा है कि "समयसार गाथा ११३ ११५ में भी यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है।" (त० ०
०४२) अर्थात् इससे उत्तरपक्ष यह प्रकट करना चाहता है कि उसका जो दृष्टिकोण समयसार गाया ६८ को टीकाके विषय में है वही दृष्टिकोण समयसार गाथा ११३ ११५ के विषय में भी है। इस विषय में मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि जिस प्रकार उत्तरपक्षका समयसार गाथा ६८ की टीका में स्वीकृत दृष्टिकोण पूर्वपक्ष के अभिप्राय से विपरीत है उसी प्रकार उसका समयसार गाथा ११३ ११५ में स्वीकृत दृष्टिकोण भी पूर्वपक्षके अभिप्रायसे विपरीत है। अतः समयसार गाथा ६८ की टीकाकी तरह समयसारको गाथाएँ ११३-१९५ भी उत्तरपक्ष के लिए मूल प्रश्नका समाधान करनेमें सहायक नहीं हो सकती हैं ।
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शंका-समाधान की समीक्षा
त. च. पृ० ४२ के उपर्युक्त अनुच्छेद अन्तमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "पदि अपरपक्ष निमित्तनैमित्तिक भाव और कर्तृ फर्मभावमें निहित अभिप्रायको हृदयंगम करनेका प्रयास करें तो उसे वस्तुस्थितिको समझने में देर न लगे।" इसके विषयमें भी मेग कहना है कि यदि उत्तरपक्ष निमित्त-नैमित्तिक भाव और कर्तु-कर्मभावमें निहित आगमके अभिप्रायको हृदयंगम करनेका प्रयत्न करे तो उसे वस्तुस्थितिको समभाने में देर न लगे, क्योंकि आममकी अवहेलना से इष्ट नहीं होगी। दोनों ही पक्ष कनकर्मभावको उपादानोपादेय भावके रूपमें स्वीकार करते हैं। सिर्फ निमित्त-नैमित्तिक भावके विषय में ही उनमें विवाद है,
पनि पूर्वप: गोर तिनको समया होने पसे कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उसे यहाँ पर सहायक न होने सपसे अकिंचिकर ही मामला है। इस मदेपर गम्भीरतासे विचार न कर उत्तरपक्ष उन्हीं बातोंमें स्वयं उलझा हुआ है और पूर्वपक्षको भी उन्ही में उलझाए रखना चाहता है, जिनमें दोनोंको अविवाद है। इसे उसकी चाल ही कहा जा सकता है। उत्तरपक्षसे हमारा कहना है कि वह अपने इस दृष्टिकोणमें परिवर्तन करे और पर्वपक्षके मन्तव्यपर गहराईसे विचार करें। हम माशा करते है कि ऐसा करनेपर वह अवश्य ही कार्योत्पत्तिमें निमित्तको पूर्वपक्षकी तरह सहायक होने रूपसे कार्यकारी स्वीकार कर लेगा, उसे अकिचिकर नहीं मानेगा । ऐसा करनेपर प्रकृत प्रश्नका समाधान हो सकता है। कथन २७ और उसकी समीक्षा
(२७) पूर्वपक्षने त० ० १० १२ पर यह कथन किया है कि-"अन्य कारणों और कर्मोदय रूप कारणोंमें मौलिक अन्तर है, क्योंकि बाह्य सामग्री और अन्तरंगकी योग्यता मिलनेपर कार्य होता है। किन्तु पातियाकर्मोदयके साथ ऐसी बात नहीं है। वह तो मन्तरंग योग्यताका सूचक है । जैसा श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजीने कर्मग्रंथ पुस्तक ६ की प्रस्तावना पृष्ट ४४ पर लिखा है ।" इसके आगे उसने पं० फूलचन्द्रजीकी प्रस्तावना निर्दिष्ट अंशको उद्धत किया है, जो निम्न प्रकार है
__ "अन्तरंगमें वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती है। जिस योगीके रागभाव नष्ट हो गये हैं उसके सामने प्रबल रागको सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरंग योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका मूल्य नही है । यद्यपि कर्मफे विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है। पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मौलिक अन्तर है। कर्म वैसी योग्यसाका सूचक है, पर बाह्य सामग्रीका वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं है। कभी वैसी योग्यताके सदभावमें भी बाह्म सामग्री नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है। किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है। उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मामें रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है । अतः कर्मका स्थान ग्राह्य सामग्री नहीं ले सब-ती।" पूर्वपक्षने ५० फूलचन्द्र जीको प्रस्तावनाफे इस उद्धृत अंशकै आधारपर अपना मत प्रगट करते हुए लिखा है कि "अतः कमके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारको अवस्था होती है और जीवमें वैसी योग्यता आती है।"
पूर्वपक्षके इस मतपर विचार करते हुए उत्तरपक्षने "कर्मोदय जीवको अन्तरंग योग्यताका सूचक है जीवभावका कर्ता नहीं" दीर्षकके अन्तर्गत तच १०४२ पर लिखा है कि "हमें इस बातकी प्रसन्नता है कि अपरपक्षने अपने उक्त कथन द्वारा प्रातियाकर्मोदयको जीवकी अन्तरंग योग्यताका सूचक स्वीकार कर लिया है। इससे सूतराम् फलित हो जाता है कि संसारी जोष कर्म और जीवके अन्योन्यावगाहरूप संयोग कालमें स्वयं का होकर अपने अज्ञानरूप कार्य करता है और कर्मोदय कर्ता न होकर मात्र उसका
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा सूत्रक होता है। इसीको जीवके अज्ञानावि भावों में कर्मोदयको निमित्तता कही गई है। हमारे जिस वचनको महाँ प्रमाण रूप से उद्धृत किया गया है उसका भी यही आशय है ।" उत्तर पक्षकी इन सब बातोंको यहाँ समीक्षा की जाती है--
जिनागममें यह कहा गया है कि प्रत्येक जीवमें स्वत: सिद्ध अतएव अनादिनिधन विभाव शक्ति (विभावरूपसे परिणस होने की योग्यता) विद्यमान है। इस शक्ति की व्यक्ति अर्थात् जीवको विभावरूप परिणति भी अनादिकालसे होती आई है, क्योंकि यिभावपरिणतिके होने में निमित्तभूत घातियाकर्मोदयका सभाच जीवमें अनादिकालसे हैं। जैसे जीवमें मिथ्यात्वरूपसे परिणत होनेकी योग्यतास्वरूप विभावशक्ति तो स्वतः सिद्ध है, इस कारणसे वह उसमें अनादिकालसे ही रहती है। परन्तु उस योग्यताके आधार पर जो जीवका मिथ्यात्वरूप परिणमन अनादिकालसे होता भा रहा है वह उसमें अनादिकालसे ही विद्यमान घातिमाकों में मोहनीयके भेद मिथ्यात्वकमके उदयसे होता है । इसका आशय यह है कि जीवमें जब तक मिथ्यात्व कर्मका उदय विद्यमान है तब तक उसके सहयोगसे जीवकी परिणति स्वतः सिद्ध विभावशक्तिके आधारपर नियमसे मिथ्यात्वरूप होती है। लेकिन यदि कोई भव्य (मोक्ष प्राप्त करनेकी योग्यता विशिष्ट) जीव अपने मानसिक वानिक और कायिक परुषार्थ के बलसे कदाचित मिथ्यात्व कर्मके उदयका उस कर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके हो जानेपर अभाव कर देता है तो विभावशक्तिका सदभाव रहते हुए भी उस जीवका विभावरूप विपरिणमन होना समाप्त हो जाता है।
यहाँ प्रसंगवश मैं यह कह देना चाहता हूँ कि जिमागममें जो यह प्रतिपादित किया गया है कि घातिया कर्मोदयका सह्योग पाकर स्वतः सिद्ध विभावशक्ति (विभावरूपसे परिणत होनेकी योग्यता) विशिष्ट जीवका विभावरूप परिणमन होता है । इससे पं० फूलचन्द्रजी द्वारा कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावनामें निर्दिष्ट 'किन्तु कर्मक विषयमें ऐसी बात नहीं है इसका सम्बन्ध तभी तक आत्मामें रहता है जब तक उसमें तदनुकूल पोग्यता पाई जाती है। यह कथन प्रेर्य-प्रेरक भावरूप कार्यकारण भावपर विचार करनेकी अपेक्षा असंगत हो जाता है, क्योंकि आगमके उपर्युक्त प्रतिपादनसे जहाँ कर्मके उदयके साथ जीवकी स्वतः सिंच वैभाविक शक्तिके आधारपर होने वाली विभावरूप परिणतिका अविनाभाव निर्णीत होता है वहाँ पं० फूलचन्द्रजीके इस प्रतिपादनसे आगमके विपरीत जीवकी स्वतः सिद्ध वैभाविक शक्तिके आधारपर होने वाली विभाव परिणतिके साथ कर्मके उदयका अविनाभाव निर्णीत होता है। इन दोनों (उपर्युक्त आगम और पं० फूलचन्द्रजीके) प्रतिपादनोंमें परस्पर विरोध है क्योंकि आगमके प्रतिपादनसे जीबनी विभावरूप परिणतिमें कर्मोदयकी प्रेरकरूपमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारिता सिद्ध होती है जब कि पं० फूलचन्द्रजीके उपत प्रतिपादनसे जीवको विभावरूप परिणतिमें कर्मोदयकी सहायक न होनेरूपसे अकिंचित्करता सिद्ध होती ।। यह बात दूसरी है कि पं० फुलचन्द्रजी अपने प्रतिपादनसे भी जीवकी विभावरूप परिणतिमें कमंदियक सहायक न होनेसे अकिंचित्करता सिद्ध नहीं कर सकते हैं, क्योंकि निमितकारणका कार्य के साथ जो अविना
१. भयस्कान्तोपलाकृष्टा सूचीवत्तद्वयोः पृथक ।
अस्ति शक्तिविभावाच्या मियो बन्धाधिकारिणी ।।२ ४५।।-पंचाध्यायी २. परिणममानस्य चिप्तः चिदात्मकः स्वयमपि स्वकैविः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौगलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
भाव है उसके आधारपर निमित्तकारणभूत वस्तु निमिसकारण हो सिख होती है और उस निमित्तकारणको are आधारपर पूर्व में कार्यकारी सिद्ध किया जा चुका है, वह अकिंचित्कर सिद्ध नहीं होता ।
आगमके उक्त प्रतिपादनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि अज्ञानादि विभावरूप परिणमन स्वकीय विभाग आधारपर जीवका ही होता है, अतः जीव हो उसका कर्त्ता है । परन्तु उसका वह परिणमन मिथ्यात्व कर्मके उदयका सहयोग मिलनेवर ही होता है। अतः उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्य में जो यह कहा है कि "संसारी जोव कर्म और जीवके अन्योन्यावगाहरूप संयोग कालमें स्वयं कर्ता होकर अपने अज्ञा नादि कार्य करता है और कर्मोदय कर्ता न होकर मात्र उसका सूचक होता है" उसमें विवाद न होने से पूर्वपक्षने अपने वक्तव्यमें यह लिखा है कि अन्य कारणों और कर्मोदयरूप कारणों में मौलिक अन्तर है। बाह्य सामग्री और अन्तरंग की योग्यता मिलनेपर कार्य होता है, किन्तु जातियाकर्मोदय के साथ ऐसी बात नहीं है। यह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक है और इसकी पुष्टि उसने कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की पं० फुलचन्द्रजी द्वारा लिखित प्रस्तावनासे की है । परन्तु उत्तरपक्षाने त० च० पृ० ४२ पर जो उपर्युक्त कथन किया है उसे स्पष्ट होता है कि पं० फूलचन्द्रजीने कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावनायें जो यह लिखा है कि 'कर्म वैसी योग्यताका सुबक हैं' वह उन्होंने जीव की विभावपरिणतिको उत्पत्तिमें कर्मोदयकी सहायक न होने रूप चित्रताको दृष्टिमें रखकर लिखा है जबकि पूर्वपक्षनेत० च० पृ० १२ पर अपने वक्तव्य में जो कर्मोंक्ष्यको अन्तरंग योग्यताका सूचक कहा वह इस दृष्टिसे कहा है कि कर्मोदय जीवकी विभावपरिणतिकी उत्पत्ति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी है। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि कर्मोदय जीवकी विभावपरि पतिका कर्ता नहीं होता है, क्योंकि विभावरूप परिणति वैभाविकशक्ति विशिष्ट जोबकी ही होती है, कर्मोंदयकी नहीं 1 किन्तु कर्मोदग्र जीवकी विभावरूप परिणति में सहायक होते रूपसे कार्यकारी है, वह अकिचित्कर नहीं है" इसकी पुष्टि पूर्वपक्षके ० च० पृ० १२-१३ पर उद्धृत पं० फूलचन्द्रजीके कथन के अन्तमें निर्दिष्ट इस कथन से होती है कि "कर्मोदय के निमित्तसे जीवको विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमें वैसी योग्यता आती है" ।
इस तरह इस विश्वनसे स्पष्ट है किं पूर्वपक्ष जो कर्मोदयको अन्तरंग योग्यताका सूचक मानता है वह इस आधार पर मानता है कि कर्मोदय जीवको विभाव परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण होता है तथा उत्तरपक्ष जो कर्मोदयको अन्तरंग योग्यताका सूचक मानता है वह इस आधारपर मानता है कि कर्मोदय जीवकी विभावरूप परिणति में सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर ही बना रहता है। परन्तु यह तथ्य है कि जब तक जीवकी स्वतः सिद्ध विभाव शक्तिके आधारपर होने वाली विभाव परिणतिकी उत्पत्ति कर्मोदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी नहीं माना जाता है तब तक उसे उक्त अन्तरंग योग्यताका सूचक नहीं माना जा सकता है। दोनों पक्षोंमें यही मतभेद है। इसके बावजूद दोनों ही पक्ष कर्मो को जीवको विभावरूप परिणतिका कर्ता नहीं मानते हैं । अतः उत्तरपको यह भ्रम दूर कर देना हिए कि पूर्वपक्ष कर्मोदयको जीवकी विभाव परिणतिका कर्ता मानता है ।
उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें कर्मोदयको अन्तरंग योग्यताका सूचक माननेके आधारपर पूर्वपक्ष प्रति प्रसन्नता व्यक्त की है। पर उसने पं० फूलचन्द्रजीके कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावना प्रकट किये अभिप्रायको तत्वचर्चा में बदलकर स्वयं अपने ऊपर तुषारपात कर लिया है। अभिप्राय बदलने और उसपर कुछ कहने के पूर्व में यहाँ आवश्यक कूछ कथन कर देना चाहता हूँ ।
स०-१०
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जयपुर (खामिया) तत्वचर्चा और उसको समीक्षा
उतरपक्षने अपना उपर्युक्त जो वक्तव्य त० च० पृ० ४२ पर निर्दिष्ट किया है उसके आगे उसने लिखा है कि "किन्तु अपरपशने हमारे उक्त वचनोंको उधृत करते हुए 'अत: कर्मका स्थान बाला सामग्री नहीं ले सकती' इसके बाद उक्त उल्लेखके इस वचनको तो छोड़ दिया है" ऐसा लिखकर उसने पूर्वपक्ष द्वारा छोड़े गये वचनको उद्धृत किया है जो निम्न प्रकार है
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"फिर भी अन्तरंग में योग्यता रहते हुए बाह्य सामग्री के मिलने पर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है इसलिये निमित्तोंकी परिगणना में बाह्य सामग्री की भी गणना की जाती हैं पर यह परम्परानिमित है. इसलिये इसकी परिगणना नोकर्मके स्थानपर की गई है" तथा इसके भी आगे उसने (उत्तरपक्षने) "और इसके स्थानमें हमारे वक्तव्यके रूपमें उसने अपने इस वजनको सम्मिलित कर दिया है" ऐसा लिखकर • पूर्वraast उसने इस रूपमें उद्धृत किया है- "मतः कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमे वंसी योग्यता आती है ।"
इस विषय में मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षपर पं० फूलचन्द्रजीकी प्रस्तावनाके उक्त अंशको छोड़ देनेका जो दोषारोपण किया है वह उचित नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्षने पं० फुलचन्द्रजीकी प्रस्ताबनाके उक्त अंशको किसी दुरभिप्रायसे नहीं छोड़ा है किन्तु प्रकृत में उसका विशेष उपयोग न होने के कारण ही छोड़ा है । तथा उत्तरपक्षने पूर्वपक्षपर दूसरा दोषारोपण यह किया है कि "पूर्वपक्षने पं० फूलचन्द्रजी के वक्तव्य में अपने वचन को सम्मिलित कर किया है" सो उसके (उत्तरपक्ष के ) द्वारा पूर्वपक्षपर यह दोपारोपण भ्रान्तिवश किया गया है, क्योंकि पूर्वपक्षने अपना उक्त वचन अपने मन्तव्यका समर्थन करने की दृष्टिसे ही लिखा है, इसे उसने उत्तरपक्षके वक्तव्यको पुष्टि में नहीं लिखा है, जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। ऊपर मैंने जो यह लिखा है कि उत्तरपक्षने गं० फूलचन्द्रजीके कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावना में निहित अभिप्रायको बदल दिया है वह इस आधारपर लिखा है कि पं० फुलचन्द्रजीने उक्त प्रस्तावनायें जो यह कथन किया है कि फिर भी अन्तरंग में योग्यता के रहते हुए भी बाह्य सामग्री मिलनेगर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है' इत्यादि, सो इससे कार्य के प्रति कमोंदयकी और बाह्य सामग्रीकी सहायक होने रूपसे कार्यकारिता ही सिद्ध होती है जबकि उत्तरपक्ष उस प्रस्तावनाका उपयोग कार्यके प्रति क्रमदेव और बाह्य सामग्रीको सहायक न होनेरूपसे अकिंचित्करता सिद्ध करनेके लिये करना चाहता है ।
पं० फूलचंद्रजीने कर्मग्रन्य पुस्तक ६ की प्रस्तावनायें जो यह लिखा है कि 'कभी वैसी योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और उसके अभावमें भो बाह्य सामग्रीका संधान देखा जाता है' यह मान्यता उत्तरपक्षको भी है क्योंकि पं० फूलचंद्रजी और उत्तरपक्ष में कोई अन्तर नहीं है। पं० फूलचन्द्र जी ही उत्तरपत्रके सर्वेसर्वा रहे हैं। इस तरह जो कुछ पं० फूलचन्द्रजीने उत्तरपश्वकी ओरसे लिख दिया उसपर ही उत्तरपत्रके शेष सभी प्रतिनिधियोंने अपनी स्वीकृति देकर हस्ताक्षर किये हैं। ऐसी स्थिति में पं० फूलचन्द्रजीने कर्मग्रंथ पुस्तक ६ की प्रस्तावना में जो यह मान्य किया है कि 'कभी वैसी योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है' सो यह मान्यता उत्तरपक्षको भी मान्यता समझना चाहिए। इस तरह कहा जा सकता है कि उत्तरपक्ष एक ओर तो यह स्वीकार करता है कि "कभी वैसी योग्यता के सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है" और दूसरी ओर उसने त० च० पृ० ३८७ पर यह भी स्वीकार किया है कि "ज़ंसी होनहार होती है उसके अनुसार ही
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शंका-समाधान १ को समीक्षा बुद्धि हो जाती है, पृषार्थ भी वैसा ही होने लगता है और सहायक (निमित) कारण भी वैसे ही मिल जाया करते हैं ' तथा इसे प्रमाणित करनेके लिये उसने वहींपर "तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥" इस लौकिक पद्यको भी प्रमाण रूपमें प्रस्तुत किया है।
उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत उक्त दोनों मान्यताएँ परस्पर विरोधी है, अतः उत्तरपक्षको मह निर्णय करता है कि वह दोनोंमेरो किरा मान्यताको स्वीकार करता है । दोनोंमेंसे जिस मान्यताको वह स्वीकार कर लेता है उससे अतिरिक्त दूसरी मान्यताके प्रति उसे अपना मोह छोड़ देना चाहिए। इस विषयमें मैं आगे विस्तारपूर्वक विचार करूंगा।
प्रकृत्त शीर्षकके अन्तर्गत अन्तमें उत्तरपक्षने त. च० पृ ४३ पर लिखा है--"अब हमारे और अपरपक्ष के उक्त उल्लेखोंके आधारपर जब अकाल मरणका विचार करते हैं तो विदित होता है कि जब-जन्न पारमामें मनुष्यादि एक पर्यायके व्ययकी और देवादि रूप दूसरी पर्यायके उत्पादकी अन्तरंग योग्यता होती है तब-तब विषभक्षण, गिरिपात आदि बाह्य सामग्री तथा मनुष्यादि आयुका व्यय और देवादि आरफा उदय उसकी सुचक होती है और ऐसी अवस्था आत्मा स्वयं अपनी मनुष्यादि पर्यायका व्यब कर देवादि पर्याय रूपसे उत्पन्न होता है। इससे स्पष्ट होता है कि एक पर्यावके व्यय और दूसरी पर्यायके उत्पादरूप उपादान योग्यताके कालकी अपेक्षा विचार करनेपर मरणकी कालमरण संजा है और इसको गौण कर अन्य कर्म तथा नोकर्म रूप सूचक सामग्रीकी अपेक्षा विचार करनेपर उली मरणकी अकाल मरण संज्ञा है" |
इस विषयमें मैं विस्तारसे विचार तो आगे करूँगा यहाँ केवल यह कह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने कालमरण और अकालमरणका अन्तर जिस आधारपर दिखलानेका प्रयत्न किया है वह न आगमसम्मत है और न युक्तिसंगत है । आगममें यह बतलाया है कि जहाँ आयुकी विपक्षण आदि बाह्म सामग्रीके बलसे सदीरणा होकर समाप्ति होती है वह अकालमरण कहा जाता है और जहां आयुकी निषेकनमसे उदय होकर समाप्ति होती है बङ्ग कालमरण कहलाता है। दोनों ही प्रकारके मरणोंमें जीवकी मनुष्यादि पर्यायका व्यय और देवादि पर्यायका उसाद समान रूपसे होता है । यद्यपि इस उत्पाद और व्ययमें दोनों मरणोंमेंसे कहीं भी कोई अतिरिक्त विशेषता नहीं पाई जाती है। उनमें इतनी ही विशेषता है कि अकाल मरणमें तो आमुकर्मकी उदीरणा होकर समाप्ति होती है और कालमरणमें आय-कर्मको निषेकक्रमसे उदय होकर समाप्ति होती है। यही गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कहा गया है--
विसबेयणरतक्खयभयसत्थगहणसंक्लेसेहि । उस्सासाहाराणं निरोधदो छिज्जदे आऊ ।। ५७ ।।
अर्थ :-विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रग्रहण और संपलेश तथा स्वास व आहारका निरोध होनेसे आयुका छेदन होता है ।
इससे स्पष्ट है कि उपर्युक्त निमित्तोंका समागम प्राप्त होनेपर आयुःकर्मकी उदो रणा होकर जीवका अकाल मरण होता है। इसी प्रकार तत्वार्थसूत्र में भी प्रतिपादित किया गया है
औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥ २-५३ ।।
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હું
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थ :- औपपादिक जन्म वाले देवों और नारकियों, चरम और उत्तम देह बालों तथा असंख्यात वर्षकी आयु वालोंको आयु अन्ववर्त्य होती है अर्थात् इनका अकाल मरण न होकर काल मरण ही होता है । शेष जीवोंका अकाल और काल दोनों प्रकारका मरण सम्भव है ।
इन दोनों आगमप्रमाणोंपर ध्यान देनेसे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने जो काल मरण और अकाल मरणकी परिभाषाएँ निश्चित की हैं वे आगमविरुद्ध हैं ।
सबसे अन्तमें पृ० ४३ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है कि "यह वस्तु स्थिति है जो अपरपक्ष के उयत वक्तव्यसे भी फलित होती है। हमें आशा है कि अपरपक्ष अपने वक्तव्यको 'किन्तु घातिया कर्मोदयके साथ ऐसी बात नहीं है वह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक है।' इस वचनको ध्यान में रखकर सर्वत्र कार्य-कारणभावका निर्णय करेगा" ।
इसके विषय में मेरा मन्तव्य है कि पूर्वपक्ष तो अपनी इस मान्यतापर पहले भी दृढ़ था, आज भी दृढ़ है और आगे भी दृढ रहेगा कि 'घातियाक मोंदयके साथ ऐसी बात नहीं, वह सो अन्तरंग योग्यताका सूचक है' परन्तु जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षकी इस मान्यतासेघातिया कर्मोदयमें tent विभाव परिणतिको उत्पत्तिके प्रति कार्यकारी निमित्तकारणता सिद्ध होती है, उत्तरपक्षको मान्य अर्कचित्र निमित्तकारणता नहीं। इसलिए उत्तरपक्षको पूर्वपक्ष की मान्यता के आधारपर अपनी मान्यता के विषयमें यह निर्णय करना है कि पूर्वपक्षका दृष्टिकोण सम्यक् है या उसका अपना दृष्टिकोण सम्यक् है और इस तरह उसे यदि यह बात समझ में आ जाये कि पूर्वपक्षका दृष्टिकोण ही सम्यक् है उसका अपना दृष्टिकोण सम्यक नहीं है तो उसे अपने हठवादको छोड़कर पूर्वपक्ष के आगम-सम्मत दृष्टिकोणको अपना लेना चाहिए । कथन २८ और उसकी समीक्षा
(२८) पूर्वपक्ष ने त० च० ० १३-१४ पर विविध आगम-प्रमाणके माघारपर यह सिद्ध किया है कि द्रव्यकर्मोदय संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण होता है । वह वहाँ सर्वथा अकिंचित्कर निमित्तकारण नहीं है ।
उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ४३-४४ पर पूर्वपक्ष कथनपर विचार करते हुए "प्रस्तुत प्रतिशंकामें उल्लिखित अन्य उद्धरणोंका स्पष्टीकरण" शीर्षक के अन्तर्गत प्रथम तो उन उद्धरणोंका आशय स्पष्ट किया है और पश्चात् अपना मन्तव्य इस रूपमें व्यक्त किया है कि "अपने पक्ष के समर्थन में अपरणाने ये आठ प्रमाण उपस्थित किये हैं । इनके द्वारा किस कार्य में कौन किस रूपमें निमित्त है इसका व्यवहारसे निर्देश किया गया है ।" इसके अनन्तर अपने इरा मन्तव्य के समर्थन में उसने समयसार गाथा १०८ को प्रमाण रूपमें अद्भुत किया है। वह गाथा निम्न प्रकार है
"जह राया ववहारा दोसगुण-पादगो ति आलविदो । तह जीवो वबहारा दव्वगुणप्पादगो भणिदो ॥"
इसका अर्थ उत्तरपक्षने यह किया है जिस प्रकार राजा व्यवहारसे प्रजाके दोष गुणका उत्पादक कहा गया है उसी प्रकार जीव व्यवहारसे गुद्गल द्रव्य गुणों का उत्पादक कहा गया है।"
उत्तरपक्षने आगे यह भी लिखा है- " आशय यह है कि यथार्थ में प्रत्येक द्वय अपना कार्य स्वयं करता हूँ और बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है । फिर भी लोकमे निमित्तव्यवहारके योग्य बाह्य
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
सामग्रीकी अपेक्षा यह कहा जाता है कि “इसने यह कार्य किया।" पूर्व में अपरमनने जो आठ प्रमाण उपस्थित किये हैं वे सब व्यवहारनयके वचन है अतः उन द्वारा यह सूचित किया गया है कि विस कार्य में कौन निमित्त है । प्रत्येक कार्य में उपादान और निमित्त व्यवहार योग्य वाह्य सामग्रीकी युति नियमसे होती है इसम्म सन्देह नहीं । परन्तु उपादान जैसे अपने कार्य में स्वयं व्यापारवान होता है वैसे बाद्य सामग्री जसके होने में व्यापारवान् नहीं होती यह सिद्धान्त है । इसे हृदयंगम करके यथार्थका निर्णय करना चाहिए।"
इस विषय में मैं कहना चाहता हूँ कि पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके उपयुक्त विवेचनमें विवाद नहीं है, क्योंकि इसमें जो कहा गया है वहीं पूर्वपक्ष बहता है। इतना अन्तर है कि पूर्वगनके अनुसार निमित्तव्यवहार उसी वस्तु में होता है जो उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होती है जबकि उत्तरपक्ष मानता है कि उपादानकी कार्यरूप गरितिमें सहायक न होते हुए भी वाहा स्तमें निमित्त व्यवहार होता है। यहाँ सोचनेकी बात है कि जो सहायक नहीं है वह निमित्त-सहकारी कसे कहा जा सकता है । अतः पूर्वपक्ष की मान्यता युक्त एवं आगमसम्मत है और उत्तरपक्षकी मान्यता युक्त और आगम सम्मत नहीं है। इसे पहले भी कहा जा चुका है।
__ उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त विवेचनके समर्थन में पुरुषार्थसिद्युपायका भी उद्धरण दिया है, जो निम्न प्रकार है
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।।१२।। इसका अर्थ उत्तरपक्षने यह किया है-"जीवके द्वारा किये गये परिणामको निमित्त मात्र करके उससे भिन्न पुद्गल स्वयं ही कर्मरूप परिणम जात है।"
___ मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष द्वारा प्रस्तुत किये गये इस श्लोकके अर्थ और उसके आशयमें भी पूर्वपक्षको विवाद नहीं है । दोनों के दृष्टिकोणोंमें जो अन्तर है वह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है अर्थात् जहाँ पूर्वपक्षने निमित्तकारणको कार्यके प्रति सहायक होने रूपमे कार्यकारि माना है वहीं उत्तरपक्षने उसे कार्यक प्रति सहायक न होने रूपसे अकिंचिकर स्वीकार किया है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्षके वक्तव्यों और इस समीक्षामें किये गये विवेचनोंसे स्पष्ट है कि संसारी आत्माक विकारभाव और चतुर्मतिभ्रमणमें दोनों पक्ष संसारी आत्माको ही यथार्थ कारण मानत हैं, इसलिए इस विषयमें दोनों में विवाद नहीं है । तथा दोनोंको इस विषयमें भी विवाद नहीं है कि द्रव्यकर्मोदय उस कार्यका यथार्थ कर्ता न होकर उपचरितकता ही है। इसी तरह दोनोंको इसम भी विवाद नहीं है कि संसारी आत्मामें विद्यमान उक्त कार्यका यथार्थ कर्तुत्व निश्चयनयका विषय है और द्रव्यकर्मोदयमें विद्यमान उसी कार्यका उपचारित कर्तृत्व व्यवहारलयका विषय है। दोनोंमें विवाद केवल यही है कि जहां पूर्वपक्ष द्रव्यकर्मोदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुतिभ्रमणमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारी निमित्तकारण मानता है और इसी आधारपर वह उसे उपचरितकर्ता मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है वहां उत्तरपक्ष उसे वहाँपर सहायक न होनेके आधारपर अकिंचिकर निमित्तकारण मानता है और इसो आधारपर वह उसे उपचरितकर्ता मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है ।
यद्यपि पूर्वपक्षने अपने "द्रव्यक्रमके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुतिभ्रमण होता
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा है या नहीं" इस प्रश्नमें उक्त विषयपर ही जोर दिया है जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। परन्तु उत्तरपक्षने अपने उत्तर में इस विषयको स्पर्श नहीं करते हए इतना ही उल्लेख किया है कि संसारी आत्माकै विकारभाव और चतुर्मतिभ्रमणका यथार्यकर्ता संसारी आत्मा ही है, व्यकर्मोदय नहीं, क्योंकि द्रव्यकर्मोदय उसमें निमित्त मात्र है। इसलिए वह उनका यथार्थकर्ता न होकर उपचरितकर्ता ही है। इसपर मेरा कहना है कि पूर्व और उत्तर दोनों पक्षों में एक तो इस विषयको लेकर विवाद ही नहीं है। दूसरे, प्रश्न भी इस विषयको लेकर नहीं किया गया है । अत: उसरपक्ष द्वारा प्रश्नके उत्तरमें जो कुछ कहा गया है वह प्रश्नके अनुरूप नहीं होनेसे पूर्वपक्षका यह प्रश्न असमाहित ही है कि ब्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण माना जाये या उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्तकारण ही मान लिया जाये ? पूर्वमें बहु बार ऊहापोह पूर्वक स्पष्ट कर दिया गया है कि द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाब और चतगतिनमणमें कार्यकारी निमिसकारण मानना आगमसम्मत और युक्त है, उसे अकिंचिकर निमित्तकारण मानना न युक्त है और न आगमसम्मत है।
उत्सरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्यके अन्त में तच. पृ०४४ पर लिखा है---''स्पष्ट है कि उक्त आठों आगमप्रमाण अपरपशके विचारोंके रामर्थक न होकर समयसारके उक्त कथनका ही समर्थन करते हैं अतएव जनसे हमारे विचारोंकी ही पुष्टि होती है।"
इसपर मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षपर यह मिथ्या आरोप लगाया है कि चूंकि यह (पूर्वपक्ष ) द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें यथार्थ कारण या मुख्यकर्ता मानता है, इसमे उसके उक्त आठों प्रमाण अपरपक्षके विचारोंके समर्थक नहीं है। परन्तु पूर्वपक्षने मार-चार स्पष्ट किया है कि वह द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव व चतुर्गतिभ्रमणमें यथार्थ कारण या मुख्य कर्ता नहीं मानता है, संसारी आत्माको ही उसका यथार्थकारण मा मुख्यकर्ता स्वीकार करता है। द्रव्यकर्म तो उसमें सहायक होने रूपसे मात्र कार्यकारी निमित्तकारण है। पूर्वपक्ष द्वारा बारबार इतना सब कुछ स्पष्ट किये जाने पर भी उसकी उपेक्षा करके उत्तरपक्षने सर्वत्र इसी बातको उछाला है कि पूर्वपा द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव व चतुर्गतिभ्रयणमें पथार्थकारण या मुख्यकर्ता भानता है तथा इसीके खण्डनमें उसने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाई है जो निरर्थक सिद्ध हुई है, क्योंकि पूर्वपक्ष यह मानता ही नहीं है कि द्रव्यकर्म का उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणका यथार्थकारण या मुख्यकर्ता होता है। उसे केवल पूर्वपथके इस मूल प्रश्नका ही उत्तर देना था कि द्रव्यकर्म का उदय संसारी आरमाके विकारभाव और धतुतिभ्रमणमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण होता है या वह वहां पर सहायक न होने रूपसे अकिचिकर निर्मिसकारण ही बना रहता है ।
पूर्वपक्षने अपनी मान्यताके रामर्थनमें त० च पृ० १३ पर पं० फूलचन्द्रजी द्वारा लिखित पंचाध्यायो अध्याय २ के पद्य ५० के विशेषार्थको भी उद्धत किया है, जो निम्न प्रकार है
"कर्म तो आत्माक्री विविध अवस्थाओंके होने में निमित्त है और उसमें ऐसी योग्यता उत्पन्न करता है जिससे वह अवस्थानुसार शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासकें योग्य पुद्गलको योग द्वारा ग्रहण करके तदरूप परिणमाता है।" इसपर उत्तरपक्षने त. च. १०४३ पर लिम्बा है-"तीसरा उल्लेख पंचाध्यायी
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१० १५९ के विशेषार्थका है। इसमें कर्मको निमित्तताको स्वीकार कर व्यवहारकारूपसे उसका उल्लेख करके मन, वाणी और श्वासोच्छ्वासके प्रति जीवका भी व्यवहारकारूपसे उल्लेख किया गया है।"
इसपर मेर कना नह है कि पूर्व पक्षाने पं. चन्द्रजीके उक्त विदोषार्थका उद्धरण अन्य आगम प्रमाणोंके उद्धरणों के साथ इस दृष्टि से किया है कि उससे द्रव्यकर्मके उदयमै संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारणताका स्पष्ट समर्थन होता है। परन्तु पं० फूलचन्द्रजी सहित सम्पूर्ण उत्तरपक्षने अन्य सभी उद्धरणोंके साथ पंचाध्यायीके उद्धरणका भी मही आशय व्यक्त किया है कि इस उद्धरणसे भी संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति द्रव्यकर्मक उदयमें निश्चय कर्तत्व सिद्धन होकर व्यवहार कर्तत्व ही सिद्ध होता है। किन्तु उत्तरपक्षका यह कथन या तो वाक छल है या अपनी गलतीको स्वीकार न कर उसका समर्थन करने वाला है। वास्तवमें उक्त उद्धरणों को पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्तुत करनेका उद्देश्य प्रत्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतूमतिभ्रमणके प्रति सहायक होनेसे कार्यकारी निमित्तकारण बतलाना या उसका समर्थन करना है। अतः उत्तरपक्षको या तो द्रव्यकर्मके उदयको उक्त कार्य के प्रति महायक होने रूपमें कार्यकारी निमित्तकारण स्वीकार करना होगा या उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिचित्कर निमित्तकारण माननेकी अपनी मान्यताके समर्थन में अन्य आगमप्रमाणोंकी खोज करना आवश्यक होगी। यतः उपर्युक्त आमम प्रमाणोंसे द्रश्यक्रमके उदयको उक्त कार्यके प्रति सहायक होने रूपमें कार्यकारी निमित्तकारणताक्री ही सिद्धि होती है तथा पूर्वमें भी अन्य प्रमाणोंक आधारपर उसकी उक्त कार्य के प्रति कार्यकारी निमित्तकारणताकी सिद्धि की जा चुकी है । अतः उत्तरपक्षकी स्थिति 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' न्यायका अनुसरण करने के अतिरिक्त नहीं है।
उत्तरपक्षने इसी सन्दर्भ में त० ० १०४४ पर यह भी लिखा है कि "अपरपक्षने इन प्रमाणोंमें एक प्रमाण 'कश्य वि बलिओ जीवो' यह वचन भी उपस्थित किया है और उसको उत्थानिकामें लिखा है कि जब जीव बलवान होता है तो वह अपना कल्याण कर सकता है" इसपर विचार करते हुए उत्तरपक्ष ने आगे लिखा है-"यहाँ यह विचार करना है कि ऐसी अवस्थामें जीव स्वयं अपना कल्याण करता है या बाए सामग्री द्वारा कल्याण होता है।" यदि बाद्य सामग्री द्वारा उसका कल्याण होता है यह माना जाये तो "जीव अपना कल्याण कर सकता है" ऐसा लिखना निरर्थक है और यदि वह स्वयं अपना कल्याण कर लेता है यह माना जाये तो प्रत्येक कार्य अन्यके द्वारा होता है यह लिखना निरर्थक हो जाता है। प्रकृतमें इन दो विकल्पोंके सिवाय तीसरा विकल्प तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, क्योंकि उसके स्वीकार करनेपर बाश्व सामग्री अकिंचित्कर मानना पड़ती है। अतएव "कत्थवि नलिओ जीवो" इत्यादि वचनको व्यवहारमयका कथन ही मानना चाहिए जो कर्मकी बलवत्तामें जीवकी पुरुषार्थहीनताकी और कर्मकी हीनतामें जीवकी उत्कृष्ट पुरुषार्थताको सूचित करता है। स्पष्ट है कि उक्त कथनसे यह तात्पर्य समझनी चाहिए कि जब जीव पुरुषार्थहीन होता है तब स्वयं अपने कारण बह अपना कल्याण करने में असमर्थ रहता है और जब उत्कृष्ट पुरुषार्थी होकर आत्मोन्मुख होता है तब वह अपना कल्याण कर लेता है।"
यह आलोचनात्मक कथन उत्तरपक्षने पूर्व पक्ष के तब० पृ. १३ में निर्दिष्ट इस कथनको लक्ष्यम रखकर किया है कि "कोकी सदा एक-सी दशा नहीं रहती है। कभी कर्म बलवान होता है और अभी जीव बलवान् होता है । जब जीव मलवान् होता है तो वह अपना कल्याण कर सकता है।"
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा पूर्वपशके इस कथनमें ऐसी कोई बात नहीं है जो उत्तरपक्षके उपयुक्त वक्तव्यका आधार बन सके, क्योंकि उत्तरपश्मने अपने उक्त वक्तनयमें जो कुछ लिखा है उसके विषयमें पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ कोई विरोध नहीं है । पूर्वपक्षका इतना कहना अवश्य है कि यद्यपि पु झपाथहीन जीव ही होता है, लेकिन कर्मोदय की तीव्रताकी सहायता मिलनेभर होता है। इसी तरह यद्यपि जीव ही उत्कृष्ट पुरुषार्थी होता है, लेकिन कर्मोदयकी मन्दताका संयोग मिलने पर ही होता है।
तात्पर्य यह है कि जीव अपना पुरुषार्थ मन, वचन और कायके आघारमे किया करता है। यह पुरुषार्थ दो प्रकार का होता है-एक पुरुषार्थ तो कर्मोदयकी तीव्रतामें होता है जो संसार ( आत्माके अकस्याण का कारण रोता है और दुसरा पुरुषार्थ कर्मोदयकी मन्दतामें होता है जो मुक्ति (आत्मकल्याण) का कारण होता है। दोनों ही प्रकारके पुरुषार्थ जीव पौद्गलिक मन, वचन (मुख) और कापके बल पर किया करता है । इस तरह जब तक जीवमें कर्मोदयकी तीव्रता विद्यमान रहती है तब तक उसका मानसिक, वाचनिक और कायिक पुरुषार्थ आत्मकल्याणके प्रतिकूल ही होता है और जब जीक्में कर्मोदयकी मन्दता हो जाती है तब उसका मानसिक, वाचनिक और झायिक पुरुषार्थ आत्मकल्याणके अनुकूल होने लगता है। पूर्वपक्षने प्रकृतमैं जा "कत्यति बलिओ" इत्यादि पद्य का उद्धरण दिया है वह इसी अभिप्रायसे दिया है कि
व अपनी तीता और भन्दताके आधारपर क्रमशः जीवके आत्मकल्याणके प्रतिकूल और अनुकूल पुरुपार्योंके होनेमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारी निमित्त कारण है व इसलिए निश्चयनयका विषय न होकर व्यवहारनयका ही विषय होता है और यतः आत्माके अकल्याण और कल्याणका वास्तविक कारण उपयुक्त प्रकारका आत्म पुरुषार्थ ही होता है । अतः इस तरहके पुरुषार्थक आधारपर वह जीव अपने अकल्याण और कल्याणका वार्यकर्ता होनेके आधारपर निश्चयरूप होनेसे निश्चयनयका विषय होता है।
जीषके आत्मवल्याणके प्रतिकूल मानसिक, वाचनिक और कायिक पुरुषार्थको व्यवहारके रूपमें मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिय्याचारित्ररूप बन्धमार्ग कहते हैं और जीवके आत्मकल्याणके अनुकूल मानसिक, वावनिक और कायिक पुरुरार्थको व्यवहारके रूपमें ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग कहते है तथा इसी व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यकचारित्ररूप पुरुषार्थके आधार पर ही जीवमें यविधि मिथ्यात्वादि कर्मोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर यथाषसर जो आत्मविशुद्धि प्रगट होती है उसे निश्चम सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यम्ज्ञान और निश्चय सम्यकचारित्रके रूपमें निश्चय मोक्षमार्ग कहते है।
कथन २९ और उसकी समीक्षा
(२९) उत्तरपक्षने पूर्वपक्षको प्रतिशंका दो पर विचार करते हुए त० च : पृ० ७ पर लिखा है"प्रेरक कारणके बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा"।
यद्यपि इस समीक्षाग्रन्यमें मैं पूर्वमें सिद्ध कर चुका है कि प्रेरक कारणले बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है, फिर भी उत्तरपक्षका यह कहना कि उसे 'सिद्ध करना संगत न होगा' स्वयं असंगत है। दोनों पक्षोंने इस विषयको लेकर तृतीय दौरमें अपने अपने पृथक्-पृथक् मन्तव्य व्यक्त किये है उनकी संगति-असंगतिका निर्णय करनेके लिए उन बक्तव्यों पर यहां पुनः विचार किया जाता है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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उत्तरपक्षनेत० ० पृ० ७ पर जो पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनको संगत सिद्ध न होनेकी बात कही है उसकी संगतिको पूर्वपक्ष ने त० च० पृ० १५ पर निम्न प्रकार स्पष्ट किया है
—
(अ) "सर्व कार्योका सर्वथा कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि प्रवचनसार में at आचार्य अमृत ने कालनय और अकालनय, नियंतिनय और अनिवर्तिनय इन दोनों नयोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बललाई है। और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है और किसी में कोई क्रम नियत भी नहीं है, अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता।
(आ) " कर्म स्थितिबन्धके समय निषेक रचना होकर यह नियत हो जाता है कि अमुक कर्मवर्गणा अमुक समय उदय में आवेगी, किन्तु बन्धावलिके पश्चात् उत्कर्षण, अपकर्षण, स्थितिकाण्डकघात, उदीरणा, afaraft, आदिके द्वारा कर्मवणा आगे-पीछे भी उदयमें आती है, जिसे कर्मशास्त्रके विशेषज्ञ भलीभांति जानते हैं । किन्तु यह नियत है कि कोई भी कर्म स्वमुख या परमुखसे अपना फल दिये बिना अकर्मभावको प्राप्त नहीं होता" । - जयववला पुस्तक ३ ० २४५ ।
अपने कथनको सर्वथा संगत सिद्ध करनेके लिये पूर्वपक्षने उपर्युक्त अनुच्छेद (अ) में स्पष्टतया प्रतिपादन किया है कि 'सर्व कार्योंका सर्वथा कोई नियतकाल हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है । इसके समर्थन में तीन पुष्ट हेतु दिये हैं- ( १ ) प्रवचनसारमें श्री अमृतचंद्र आचार्यने कालनय और अकालनय तथा नियतिनय और अनिवर्तिनम इन दोनों प्रकारके नयोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बतलाई है । (२) 'और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है' (३) और 'किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है'। 'अतः कार्य आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसा कहना सुसंगत है, असंगत नहीं ।
इसका स्पष्ट आशय यह है कि प्रवचनसार में आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा समय-असमय पर तथा नियतअनियत रूपमें कार्यकी सिद्धि बतलाना व समय-असमयपर तथा नियत अनियत रूपमें उसकी उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखा जाना और किसीके द्वारा किसी द्रव्यमे कार्यकी उत्पत्तिका कोई क्रम नियत न करना ये तीनों हेतु ऐसे हैं जिनके आधारपर सर्वकार्योंका सर्वथा कोई नियतकाल सिद्ध नहीं होता । ऐसी वस्तुस्थितिमें किसी भी द्वय में कार्यके आगे-पीछे न होनेका प्रश्न नहीं उठता और न उसे असंगत ही कहा जा सकता है और जब aran कार्यों की उत्पत्तिका मागे-पीछे कभी भी होना सिद्ध होता है तो उत्तरपक्षका त० च० पृ० ७ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त कथन ही असंगत सिद्ध होता है ।
यतः उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के ० च० पृ० १५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद ( अ ) के उपर्युक्त कथनको ठीक तरहसे समझ नहीं सका है, अतः उसने पूर्वपक्ष के उक्त कथनको त० प० पृ० ४५ पर दो भागों में विभक्त करके उन भागोंका १० ४५ से पृ० ४८ तक खण्डन करनेका प्रयत्न किया है। यहाँ उन दोनों भागों को उद्धृत कर उनकी समीक्षा की जाती है---
(१) प्रथम भागपर उत्तरपक्षनेत० ० ० ४५-४६ तक लिखा है कि "प्रथम तो प्रवचनसार में निर्दिष्ट कालन अकालनय तथा नियतिनय-अनियतनयके आधारसे विचार करते हैं। वहीं प्रथमतः यह समझने योग्य बात है कि वे दोनों सप्रतिपक्ष नययुगल हैं, अतः अस्तिनम नास्तिनय इस सप्रतिपक्ष नययुगलके समान ये दोनों नययुगल भी एक हो कालमें एक ही अर्थमें विवक्षाभेदसे लागू पड़ते हैं, अन्यथा ये नय नहीं माने जा सकतें 1 अपरपक्ष इन नययुगलों को नयरूपसे तो स्वीकार करता है, परन्तु कालभेद आदिकी अपेक्षा
स०-११
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जयपुर (खानिया) तर्चा और उसकी समीक्षा
दिन दो
उनके विषयको अलग-अलग मानना चाहता है । इसका हमें आश्चर्य है। वस्तुतः कालनय और अकालनय ये दोनों नय एक एक ही अन्तर है तो इतना ही कि कालनय कालकी मुख्यतासे उसी नर्थको विषय करता है और अकालनय कालको गौण कर अन्य हेतुओं की मुख्यतासे उसी अथकी विषय करता है। यहाँ अकालका अर्थ है कालके सिवाय अन्य हेतु | इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर तत्त्वार्थ सूत्र में अर्पितानर्पित सिद्ध े (५-३८) यह सूत्र निबद्ध हुआ है। स्पष्ट है कि जो पर्याय कालविशेषकी मुख्यतासे कालयका विषय है वही पर्याय कालको गौण कर अन्य हेतुओंकी मुरुतासे बकालनयका विषय है । प्रवचनसारकी आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका में इन दोनों नयोंका यही अभिप्राय लिया गया है ।
इसकी समीक्षा
इस बातको स्वीकार करनेमें पूर्वपक्षको आपति नहीं हो सकती है कि जिस प्रकार अस्तिनय और नास्तिनय ये दोनों सप्रतिपक्षनय हैं उसी प्रकार कालनय और अकालनय तथा नियविनय और अनियतनय ये दोनों नययुगल भी सप्रतिपक्षनय हैं, परन्तु जो विषय अस्तिनया है उससे विरुद्ध विषय नास्तिनयका है। जो विषय कालनयका है उससे विरुद्ध विषय अकालयका है और जो विषय नियनियका है उससे विरुद्ध विषय अनियत्तिनयका है । अर्थात् अस्तिनय का विषय वस्तुमें विद्यमान स्वव्य क्षेत्र काल-भाव सापेक्ष अस्तित्व धर्म है और नास्तिका विषय उसी वस्तु में विद्यमान परवव्य-क्षेत्र -काल-भाव सापेक्ष नास्तित्व धर्म है । कालनयका विषय वस्तुमें विद्यमान कालसापेक्ष धर्म है और अकालनयका विषय उसी वस्तुमें विद्यमान कालसे भिन्न साधन सापेक्ष हुँ । तथा नियविनयका विषय वस्तुमें विद्यमान स्वतः सिद्ध धर्म है और अनियत्तिनयका विषय उसी वस्तु में विद्यमान परतः सिद्ध धर्म है । अपने इस कथनको हम और अधिक स्पष्ट करते हैं
जो वस्तु जिस समय द्रव्यकी अपेक्षा पृथ्वी रूप हैं वह वस्तु उस समय द्रव्यकी ही अपेक्षा जल, अग्नि या वायुरूप नहीं है। जो वस्तु जिस समय क्षेत्रको अपेक्षा एक क्षेत्रमें विद्यमान है यह वस्तु उस समय क्षेत्रकी ही अपेक्षा उस क्षेत्रसे भिन्न क्षेत्रमें विद्यमान नहीं है । जो वस्तु जिस समय कालको अपेक्षा जिन कालाणुओं के साथ संयुक्त हो रही है वह वस्तु उस समय कालको हो अपेक्षा उन कालाणुओंसे भिन्न कालाणुओंके साथ संयुक्त नहीं हो रही है और जो वस्तु जिस समय भावकी अपेक्षा अपनी जिस पर्यायको धारण किये हुए हैं वह वस्तु उस समय भावकी ही अपेक्षा उस पर्यायसे भिन्न अपनी अन्य विरुद्ध पर्याय को नहीं धारण किये हुए हैं। यह वस्तुमें अस्तिनय और नास्तिनय सापेक्ष कथन है ।
जिस वस्तु काल सापेक्ष धर्मके प्रगट होनेकी योग्यता विद्यमान है उस वस्तुमें फालानपेक्ष ( कालसे भिन्न साधन सापेक्ष ) धर्मके प्रगट होने की भी योग्यता विद्यमान है। जैसे -- जिस मनुष्य या तियंन विशेषमें कामरणकी योग्यता विद्यमान है उस मनुष्य या तिच विशेषमें अकालमरणकी भी योग्यता विद्यमान है या जिस आम्रफल में ऋतु के अनुसार पकने की योग्यता विद्यमान है उस आम्रफल में कृत्रिम ऊष्माके आधारपर पकी योग्यता भी विद्यमान है। यह बात दूसरी है कि जिस मनुष्य या तिच विशेषको अकालमरणके साधन प्राप्त न हों तो उस मनुष्य या तिर्यच विशेषका कालमरण ही होगा और जिस मनुष्य या नियंत्र विशेषको अकालमरणके साधन प्राप्त हो जायें तो उस मनुष्य या तियंच विशेषका अकालमरण हो जायेगा । इसी तरह जिस आम्रफलको कृत्रिम ऊष्मा के साधन प्राप्त न हो उस आम्रफलमें ऋतुके अनुसार ही पक्वता
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-समाभासपीः
आयेगी और जिस आम्रफलको कृत्रिम ऊष्माके साधन प्राप्त हो जावें वह भाम्रफल असमयमें ही पका जायेगा। यह वस्तुमें कालनय और अकालनय सापेक्ष कथन है।
प्रत्येक वस्तुका नियत स्वभावके साथ अनियत स्वभाव भी जिनागममें स्वीकार किया गया है अर्थात् वस्तुका एक स्वभाव तो नियत ( स्वतः सिद्ध होता है और दूसरा स्वभाव अमियप्त (बाह्म साधन सापेक्ष ) होता है। जैसे जलका नियत स्वभाव शीतता है, परन्तु उसमें अनियत स्वभावभूत स्वकीय योग्यताका सदभाव रहनके कारण उसमें अग्नि के संयोगसे उष्णता भी आ जाती है। यह वस्तुमें नियतिमय और अनियतिनय सापेक्ष कथन है।
इस वित्रचनसे वह अच्छी सरह साष्ट हो जाता है कि अस्तिनम, कालनय और नियतिनयका अपनाअपना जो वस्तुधर्म विषय होता है उससे विरुद्ध अपना-अपना यस्तुधर्म ही नास्तिनम, अकालनय और नियत्तिनयका विषय होता है | इससे उत्तरपक्षका एक तो त० च. पृ० ४५ पर निर्दिष्ट यह कथन असंगत हो जाता है कि 'वस्तुतः कालनय और अकालनय ये दोनों नय एक कालमें एक ही अर्थको विषय करते हैं । यदि इनमें कोई अन्तर है तो इतना ही कि कालनय कालको मुख्यतासे उसी अर्थको विषय करता है
और अकालनय कालको गौण कर अन्य हेतुओंको मुल्यतामे उसी अर्थको विषय करता है।" दूसरे, उसका त० च० पु. ४५ पर ही निर्दिष्ट यह कथन भी असंगत हो जाता है कि "अतः अस्तिनव और नास्तिनय इस सप्रतिपक्ष नययुगल के समान ये दोनों नययुगल भी एक ही कालमें एक ही अर्थ में विवक्षाभेदसे लागू पड़ते है, अन्यथा वे नय नहीं माने जा सकते हैं। अपरपक्ष इन नययुगलोंको नय रूपसे तो स्वीकार करता है, परन्तु कालभेद आदिकी अपेक्षा इनके विषयको अलग-अलग मानता है इसका हमें आश्चर्य है।" और तीसरे, उसका त० च० प० ४३ पर निर्दिष्ट यह कथन भी अमंगत सिद्ध हो जाता है कि "एक पर्यायके व्यय और दूसरे पर्यायके उत्पाद रूप उपादान योग्यताके कालको अपेक्षा विचार करनेपर उमी मरणकी कालमरण संज्ञा है और कालको गौण कर अन्य कर्म तथा नोकर्मरूप सूचक सामग्रीकी अपेक्षा विचार करने पर उसी मरणको अकालमरण संज्ञा है। उत्तरपक्षके इस तीसरे कथनको असंगतिको आगमप्रमाणोंके आधारपर पहले उसी प्रकरणमें भी सिद्ध किया जा चुका है।
यतः अस्तिनथ और नास्तिनय, कालनय और अकालनय तथा नियतिनय और अनियतिनय इन सभी नययुगलोंके अंगभूत दोनों नयोंका विषय वस्तुका मात्र एक-एक धर्म न होकर परस्पर विरोधी भिन्नभिन्न धर्म ही होता है । अतः तत्वार्थसूत्रके "अर्पितापितसिद्धः" (५-३८) इस सूत्रकी युक्ति और आगम सम्मत संगति भी तभी होती है।
तात्पर्य यह है कि एक ही वस्तुमें परस्पर विरोधी अस्तित्व और नास्तित्व, तत्त्व (सत्) और अतत्व (अतत). एकरन और अनेकश्व, नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्मयुगलोंका एक साथ सदभाव आगम द्वारा स्वीकार किया गया है। एवं मनुष्य या तियच विशेषमें कालमरण और अकालमरणकी पृथक-पृथक योग्यताओंका एक साथ सद्भाव तथा आम्रफलमें कालानुसार और कालके सिवाय अन्य साधनोंके अनुसार पकनेकी पृथक्-पृथक दोनों योग्य ताओंका एक साथ सद्भाव स्वीकार करना भी अयुक्त और आगमविरुद्ध नहीं है। इसी तरह प्रवचनसारकी टीकामें आचार्य अमृतचंद्रने एक ही आत्मामें अखण्ड चैतन्यरूप स्वतःसिद्ध व औदयिकादि भावरूप परतः सिद्ध दोनों प्रकारके पृथक्-पृथक् स्वभावोंका एक साथ सद्भाव स्वीकार किया
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
है। और "अपितानपितसिसे" सूत्रमें यतः परस्पर विरोधी इन दोनों धर्मोको पृथक-पृथक् रूपमें विवक्षा मान्य की गई है, असः उत्तरपक्षने उस सूत्रका जो यह अभिप्राय ग्रहण करनेकी चेष्टा की है कि एक ही धर्मका ग्रहण अपेक्षा भेषसे भिन्न-भिन्न रूपमें हुआ करता है सो यह अभिप्राय सर्वथा असंगत हैं। वस्तुमें परस्पर विरोधी दो धर्मोकी विवक्षा भेदसे स्वीकृति ही "अपितानपितसिद्ध" सूत्र द्वारा बतलागी गयो है।
संभवतः उत्तरपक्ष यह समझ रहा है कि जिस प्रकार कार्य तो एफ है परन्तु उसका कश्चन उपादान और निमित्त दोनोंकी अपेक्षासे होनेके कारण उसमें उपादानकी अपेक्षा उपादेयता और निमित्तकी अपेक्षा मैमित्तिकता दोनों एक साथ मानी जाती है उसी प्रकार प्रकृतमें भी होगा। किन्तु उसका ऐसा भमझना अम पूर्ण ही है, क्योंकि एक वस्तु उपयुक्त प्रकारसे परस्पर विरोधी दो धर्मोको स्वीकृति ही अनेकांतका हार्द है और वह प्रमाणका विषय है। पर नयका विषम सापेक्ष एकान्त-एक-एक धर्म है और एक धर्मकी विवक्षा होनेपर विरोधी धर्म अविवक्षित होकर रहता है तथा वह दूसरे समय में ही दूसरे नयका विषय होगा। सो वह भी तभी जब उसकी विवक्षा होगी, क्योंकि एक कालमें एक ही धर्म नय द्वारा जाना या कहा जा राकता है, दो धर्म नहीं। कार्य भी एक वस्तु है, इसलिए उपादानकी अपेक्षा उपादेवरूप परिणत होने म्प तथा निमित्तकी अपेक्षा नैमित्तिक होनेरूप परस्पर भिन्न दो योग्यताओं (घमौ) का सदभाव मान्य करने योग्य है। इस तरह कार्यभूत वस्तुमें उगाबानकी अपेक्षा उपाध्यता और निमित्तकी अपेक्षा नैमित्तिकताका सद्भाव स्वीकार करना ही "ऑपतानपितसिद्ध" सूत्रकी सार्थकता है। तात्पर्य यह है कि वस्तुएँ अनन्त है और प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मो को लेकर अनन्त धर्मयुगलोंका सद्भाव है, जिनका समन्वय "अपितानपितसि।" सूत्र द्वारा जैन दर्शन में किया गया है। एक ही धर्मका विवक्षाभेदसे कथन करना मात्र उक्त सूत्रका अभिप्राम नहीं है । अपितु भिन्न-भिन्न धर्मोंका विवक्षाभेदरो कथन करना ही उसका अभिप्रेत है ।
उत्तरपक्षने त०, च०ए०४६ पर जो यह लिखा है कि "इन नयोंका प्रारम्भ करनेसे पूर्व यह प्रश्न उठा कि आत्मा कौन है और कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? इसका रामाधान करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र वहते हैं कि यह आत्मा चैतन्य सामान्यसे व्याप्त अनन्त धोका अधिष्ठाता एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धमोंको ग्रहण करनेवाले अनन्तनय है और उनमें व्याप्त होकर रहनेवाले एक श्रुतज्ञान प्रमाणपूर्वक स्वानुभवसे वह जाना जाता है। (प्रवचनसार परिशिष्ट) इससे स्पष्ट विदित होता है कि वहीं जिन ४७ नयोंका निर्देश किया गया है उनके विषयभूत ४७ धर्म एक साथ एक आत्मामें उपलब्ध होते है अन्यथा उन नयोंमें एक साथ श्रुतज्ञानको व्याप्ति नहीं बन सकती है।" सो उत्तरपक्ष प्रबचनसार परिशिष्टके उल्लिखित कथनपर यदि गंभीरतापूर्वक ध्यान दे तो उसे मालूम हो जायेगा कि उस कथनसे पूर्यपक्षके उक्त कचनका ही समर्थन होता है उसके ( उत्तरपक्षके) त०च०१० ४३ ओर ४५ पर निदिष्ट उक्त कथनोंका उससे समर्थन नहीं होता । यद्यपि स्वयं उत्तरपक्षने त० च० पृ०४६ पर निदिष्ट उक्त कथनमें ४७ नवोंका विषय आचार्य अमृतचन्द्र के कथनानुसार पृथक-पृथक् स्वीकार किया है तथा पूर्वपक्ष के कथनमें भी ऐसा ही स्वीकार किया गया है । परन्तु उत्सरपक्षके त. च १० ४३ और पु० ४५ पर निर्दिष्ट'अपने कथनोंमें उसे अस्वीकार किया है। इन परस्पर विरोधी कथनोंपर उत्तरपक्षको ध्यान देना चाहिए, जिससे वह सही रूपमें तत्त्वका आकलन कर सके।
आगे उत्तरपक्षने त० १० १० ४६ के उसी अनुच्छेदमें जो यह लिखा है कि "अतएव प्रकृतम कालनय और अकालनयके आधारसे तो यह सिद्ध करना संभव नहीं है कि सर्वकार्योका कोई एक नियतकाल
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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नहीं है । प्रत इसके आधारसे यही सिद्ध होता है कि कालनयको विषयभूत वस्तु ही उस समय विवक्षाभेदसे अकालनयका भी विषय है । अव सभी कार्य अपने-अपने कालमें नियतक्रमसे ही होते हैं ऐसा निर्णय करना हो सम्पक अनेकान्त हूँ" । सो उत्तरपक्षका यह कथन ऊपर किये गये उसके स्वयंके और पूर्वपक्ष के farartist देखते हुए सर्वथा अटपटा प्रतीत होता है, क्योंकि उसके उपर्युक्त विवेचनसे और पूर्वपक्षके यह होता है सर्वकार्यों का कोई एक नियतकाल है और न यह निर्णीत होता है कि कालनयकी विषयभूत वस्तु हीं उपर्युक्त प्रकार से उसी समय विवक्षाभेद अकालयका विषय होती है। इसके अतिरिक्त उक्त कथनसे यह भी निर्णीत नहीं होता कि "अतएव सभी कार्य अपने-अपने कालमें नियतक्रमसे होते हैं ऐसा निर्णय करना ही सम्यक् अनेकान्त है" ।
आगे उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ४६ पर ही लिखा है कि 'नियतिनय और अनियतनयकी अपेक्षा विचार करनेपर भी उक्त कथनको ही पुष्टि होती है, क्योंकि प्रकृतमें क्योंकी कुछ पर्यायें क्रमनियत हों और कुछ पर्यायें अनियतक्रमसे होती हों, यह अर्थ इन नयोंका नहीं है । यदि यह अर्थ इन नयोंका किया जाता है। तो ये दोनों सप्रतिपचनय नहीं बन सकते हैं। अतएव विवक्षाभेदसे ये दोनों नय एक ही कालमें एक ही अर्थको विषय करते हैं, यह अर्थ ही इन नयका प्रकृत में लेना चाहिए'। सो उत्तरपक्षके इस कम्पनकी निः सारता मी काय और अकालनयके विषय में किये गये मेरे विवेचन व आचार्य अमृतचंद्रके कथनानुसार किये गये स्वयं उत्तरपक्षके उपर्युक्त विवेचनसे सिद्ध हो जाती है, क्योंकि वहाँ बतलाया गया है कि अस्तिनय और नास्तिनय, कालनय और अकालनय तथा नियतिनय और अनियविनय इन सभी नययुगलोंके अंशभूत प्रत्येक नयका विषय एक ही धर्म न होकर एक ही वस्तु में विद्यमान पृथक्-पृथक् धर्म ही होता है ।
अपने उक्त वक्तव्यमें उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "द्रव्योंकी कुछ पर्यायें क्रमनियत हों और कुछ पर्यायें अनियतक्रमसे होती है, यह अर्थ इन नयोंका नहीं है" । सो उत्तरपक्षको मालूम होना चाहिए कि आगम में स्वप्रत्यय ( षड्गुणहानिवृद्धिरूप ) पर्यायों को ही नियतक्रमसे स्वीकार किया गया है और उनसे अतिरिक्त सभी स्वपरप्रत्यय पर्यायोंको निमित्तोंके सहयोग के अनुसार नियतक्रमसे और अनियतक्रमसे स्वीकार किया गया है, इसे पूर्व में स्पष्ट भी किया जा चुका है और आगे भी आवश्यकतानुसार स्पष्ट किया जायेगा । तात्पर्य यह है कि वस्तुमें परस्पर विरोधी दो धर्मोकी सत्ताकी स्वीकृति ही अनेकान्त है और उनका कथन करना स्याद्वाद है । स्वाद्वाद ऐसे ही अनेकान्तका प्रतिपादक होता है, ऐसा जानना चाहिए ।
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसारकी अपनी टीकामें इन नयोका जा स्पष्टीकरण किया हूँ उसके विषय में ऊपर किये गये विवेचनके अनुसार पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षका कोई विरोध नहीं है। अपितु उससे उसके उक्त अभिप्रायकी पुष्टि न होकर पूर्वपक्ष के अभिप्रायको ही पुष्टि होती हैं। इसी तरह उत्तरपक्ष द्वारा त० च० पृ० ४६ पर आगे के अनुच्छेद में निर्दिष्ट " उत्पादन्यमत्रीभ्ययुक्तं सत्" ( त० सू०.५-३० ) तथा “सद्द्रव्यलक्षणम्" ( ० सू० ५-२८ ) इन सूत्रोंसे भी पूर्वोक्त प्रकार उसके अभिप्रायकी पुष्टि संगत न होकर पूर्वपक्ष के अभिप्रायकी पुष्टि ही संगत होती है। इतना ही नहीं, इसी अनुच्छेद में उत्तरपक्ष स्वयं अपने कथन में यह स्पष्ट स्वीकार कर रहा है कि “नियतिनय प्रत्येक व्यके द्रव्यस्वभावको विषय करता है और अनियतनय प्रत्येक द्रव्यके पर्यायस्वाभावको विषय करता है" । इससे स्पष्ट है कि दोनों नयका विषय वस्तुका एक धर्म न होकर पृथक-पृथक धर्म ही होता है। इसलिये उत्तरपक्षका यह लिखना भी मिथ्या है कि "सत्का अर्थ ही यह है कि जिस कालमें जो जिस रूपमें सत् है उस कालमें वह उस रूपमें स्वरूपले
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
स्ततः सिद्ध स्वयं सत् है । उसकी परसे प्रसिद्धि करना यह तो मात्र व्यवहार है" क्योंकि वस्तु में उत्पाद और व्यय स्वप्रत्ययके माय स्वारप्रत्यय भी आगममें स्वीकार किये गये है। इसके अतिरिक्त उत्तरपक्षने तथा पृ०४६ के इसो अनुच्छेदमें जो और लिखा है उससे भी उत्तरपक्षका तत्त्व ऊपर किये गये विबंधनके अनुसार फलित नहीं होता। अन्तमें उसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "जिस द्रन्यकी जो पर्याय जिस कालमें जिस देशमें जिस विधिसे होना निश्चित है.' इत्यादि, उसके विषयमं आगे तच के पंचम प्रश्नोतरको समीक्षामें विचार किया जायेगा ।
(२) उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के त. च० पु०१५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद (अ) के द्वितीय भागपर विचार
। आगे चल १०४७ पर लिखा है कि "अपरपक्षका अपने पक्षके समर्थनमें दसरा तर्क है कि सभी कार्योंका काल सर्वथा नियत है ऐसा प्रत्यक्षसे ज्ञात नहीं होता । इसके साथ उसका यह भी कहना है कि उनका किसीने कोई क्रम भी नियत नहीं किया है अतः कौल कार्य पहले होने वाला बादमें हुआ और बादमें होनेवाला पहले हो गया यह प्रश्न ही नहीं उठता। इसके आगेत.प. ४८ पर ही उसने लिखा है-"मह अपरपक्ष का अपने पक्ष के समर्थनमं वक्तब्यका सार है । इस द्वारा अपरपक्षन अपने पक्ष के समर्थनमें दो तर्क उपस्थित किये हैं। प्रथम तकको उपस्थित कर वह अपने इंद्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षा (जो परोक्षा है) द्वारा यह दावा करता है कि वह अपने उक्त ज्ञान द्वारा द्रञ्चमें अवस्थित कार्यकरणाम उस योग्यताका प्रत्यक्ष कान कर लेता है जिसे सभी आचार्योने अतीन्द्रिय कहा है। किन्तु उस पक्षका ऐसा दावा करना उचित नहीं है, क्योंकि सभी बाचाोंने एक स्वरसे कार्यको हेत मानकर उस द्वारा विबक्षित कार्य करने में समर्थ अंतरंग योग्यताके ज्ञान करनेका निर्देश किया है"। इसके आगे वहींपर उत्सरपक्षाने अपने कथनके समर्थनमें एक प्रमाण तो आचार्य प्रभाचंद्रके प्रयकमलमार्तण्ड पृ०२३७ का दिया है और दूसरा प्रमाण स्वामी समन्तभद्रकृत स्वयंभू स्तोत्रके अन्तर्गत सुपापर्व जिनकी स्तुतिके "अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतयम्" इत्यादि पद्यको दिया है। इसके भी आगे वहीं पर उसने यह भी लिखा है कि "यद्यपि कहीं-कहीं कारणको देखकर भी कार्यका अनुमान किया जाता है। यह सच है, परन्तु इस परतिसे कार्य का ज्ञान बहीं पर सम्भव है जहां पर विवक्षित कार्यके अविकल कारणोंकी उपस्थितिकी सम्यक जानकारी हो और साथ ही उससे भिन्न कार्यके कारण उपस्थित न हों। इतने पर भी इस कारणमें इस कार्यके करनेकी आंतरिक योग्यता है ऐसा ज्ञान तो अनु. मान प्रमाणसे ही होता है" । अन्त में उपयुक्त सम्पूर्ण कथनके आधारपर उत्तरपक्षने वहीं पर यह निष्कर्ष निकाला है कि "अतः सभी कार्योंका कार्य सर्वथा नियत नहीं है ऐसा दाबा अपरपक्ष अपने प्रत्यक्ष प्रमाचके बलपर तो त्रिकालमें नहीं कर सकता"।
यहाँ इसकी समीक्षा की जाती है
मैं पूर्वमें स्पष्ट कर चुका है कि पूर्वपशने उत्तरपक्षके "प्रेरक कारणके बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा" इस कथनकी असंगतिको सिद्ध करने के लिये त. च० १० १५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद (अ) में सर्वकार्योंका सर्वथा कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है यह लिखकर इसके समर्थन में तीन हेसु दिये है
(१) प्रवचनसारकी अपनी टीकार्मे थी अमृतचन्द्र आचार्य ने कालनय और अकालनय, नियतिनय और अनियतिनय इन नयोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बतलाई है ।
(२) और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है।
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शंका-समाधान १ को सभीक्षा (३) और किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है। इनमेंसे प्रथम हेतुके सम्बन्धमें उत्तरपक्ष के मन्तब्यकी समीक्षा ऊपर की जा चुकी है।।
द्वितीय हेतुके सम्बन्धमें उत्तरपक्षने त० थ० पृ. ४७ पर जो मन्तव्य प्रकट किया है उसपर पूर्वपक्षने अपने "सर्वकार्योका सर्वथा कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इसके समर्थनमें दूसरा तर्फ यह प्रस्तुत किया है कि "और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है। जिसका आशय यह है कि लोकमें
4 तो नियतक्रमसे या नियतकालमें होते हुए देखे जाते हैं और कोई कार्य अनियतक्रमसे या अनियतकालमें होते हुए देख्ने जाते हैं। जैसे पूर्व भी बतलाया है कि माम्रफलको यदि डाली में ही लगा रहने दिया जाये तो वह नियतकालमे ही पक्वताको प्राप्त होगा और उसे तोड़कर यदि कृत्रिम ऊष्मामें रस्म दिया जायेगा तो वह असमयमें ही पककर तैयार हो जायेगा । इसी तरह कोई दर्जी किसी एक व्यक्ति के कपड़े की सिलाई कर रहा है लेकिन उसके पास यदि कोई अन्य व्यक्ति कपड़ा सिलानेके लिये पहुँच जाये तो उसके आग्रह पर वह अपने चालू कामको रोककर उस अन्य व्यक्तिके कपड़ेकी सिलाई करने लग जावेगा । ऐसा अनेक उदाहरण प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्तिकी दृष्टिमें आते रहते हैं। उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के इस आशय पर ध्यान देता तो उसने जो ऊपर तच. पृ० ४७ पर असत्य कथन किया है उसका अवसर उसे प्राप्त नहीं होता। उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके कथनके भाशयको सम सनेकी चेष्टा नहीं की और बिना सोने समझे उसने द्वितीय भागके अन्तर्गत त० च०प०४७ पर अपने असत्य वक्तव्यमें कुतर्क किया है कि पूर्वपक्ष प्रायमें अवस्थित कार्यकरणक्षम उस योग्यताका अपने इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञान कर लेता है जिसे सभी आचार्योने अतीन्द्रिय स्वीकार किया है।
वास्तवमें पूर्ववक्षने त० च०५०१५ पर अनच्छेद (अ) में जो तर्क दिया है कि "और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है" उसका आशय पूर्वोक्त प्रकार यही है कि कार्यको उत्पत्ति समय असमय पर नियतक्रम और अनियतक्रम दोनों तरहसे होती हुई प्रत्यक्ष देखी जा सकती है । स्वयं उत्तरपक्षने भी त० च .४५ पर पूर्वपशके उक्त कथनको "सभी कार्योका काल सर्वथा नियत नहीं है ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है" इस कथनके रूप में मान्य किया है। परन्तु उत्तरपक्षने त०च०१० ४७ पर पूर्वपक्षके उक्त कथनको उत्कटपुलर करके निबद्ध किया है कि ''अपरपक्षका अपने पक्षके समर्थनमें दूसरा तर्क यह है कि सभी कार्योका काल सर्वथा नियत है ऐसा प्रत्यक्षसे ज्ञात नहीं होता" जो पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनके और उसके उपर्युक्त प्रकारके आशयके तथा उत्तरपक्षके त. २० पृ. ४५ पर निर्दिष्ट कथनके सर्वथा विपरीत है। इस तरह उत्तरपक्ष द्वारा त० ०१० ४७ पर निर्दिष्ट अपने कथनमें जो पूर्वपक्षपर उपर्युक्त आरोप लगाया है उसका मिथ्यापन उत्सरपक्षके अपने उक्त कथनसे ही सिद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह कि पूर्वपक्षके कथनसे यह सिञ्च नहीं होता कि वह अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष द्वारा द्रव्यमें अवस्थित कार्यकरणक्षम योग्यताका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेना चाहता है जिसे आचार्योन एक मतसे अतीन्द्रिय मान्य किया है । वास्तविक बात यह है कि पूर्वपक्ष भी उत्तरपक्षकी तरह द्रव्यमें अवस्थित कार्यकरणक्षम योग्यताको अतीन्द्रिय ही मानता है तथा इसके समर्थन में उत्तरपक्षने जो आचार्य प्रभाचन्द्र और स्वामी समन्तभद्रके वचनोंको प्रमाण रूपसे उपस्थित किया है उन्हें भी वह स्वीकार करता है। अतएव उत्तरगक्षका पूर्वपक्षके ऊपर उपर्युक्त प्रकारका आरोप वेबुनियाद है। उत्तरपक्षने दूसरे तर्कको जिस रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया है उस रूपमें पूर्वपक्षने उस अनुष्छेद (अ) में नहीं उपस्थित किया है। अतः उसे पूर्वपक्षकी ओरसे उस रूपमें उपस्थित किया जाना उत्तरपक्षका मनपढ़त है।
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा पूर्वपक्षने अपने "सर्वकार्योका मर्वथा कोई नियतकाल हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इस कयनके समर्थनमें त० च पृ० १५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद (अ) में तीसरा तर्क यह प्रस्तुत किया है कि "और किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है" इसमें भी पूर्वपक्षका आशय यही है कि उत्तरपक्षने त च० पृ. ७ पर प्रेरक कारणके बलसे कार्यको आगे-पीछे करनेके प्रश्नको उठाकर जो उसे असंगत बतलाया है सो उसका इस प्रश्नको उठाना और फिर उसे असंगत बतलाना दोनों अनावश्यक है क्योंकि यह तथ्य है कि किसीने कार्योत्पसिका कोई क्रम नियत नहीं किया है । इसलिये इससे उत्तरपक्षका त० १० त०४८ पर निर्दिष्ट "अब रह गया यह तर्क कि "किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है" सो यह तर्क पढ़ने में जितना सुहावना लगता है उतना यथार्थताको लिये हुए नहीं है" यह कथन भी प्रकृत प्रकरणमें सर्वथा निरर्थक हो जाता है तथा इसके निरर्थक हो जानेसे इसके समर्थनमें उत्तरपक्षके द्वारा नहीं पर प्रतिपादित "क्योंकि हमारे समान सभी तज्ञानी "जं जस्स जम्मि देसे" इत्यादि तथा “पुब्बपरिणामजुत्तं कारणभावेण बढ़दे दवं" इत्यादि घृतके बलसे यह अच्छी तरह जानते हैं कि कार्य जिस कालमें और जिस देशमें जिस विधिसे होता है वह कार्य उस कालमें और उस देशमें उस विधिसे नियमसे होता है। इसे इन्द्र, चक्रवर्ती
और स्वयं तीर्थकर भी परिवर्तित नहीं कर सकते" यह हेतुपरक कथन भी प्रकृत प्रकरणमें निरर्थक हो जाता है।
यहाँपर एक बात यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने “अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" इस बाक्यको केवल ''ओर किसोने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है" इस तर्क वाक्यका अंश समझ लिया है सो मैं उसे यह ध्यान दिला देना चाहता है कि उक्त वाक्यका संबंध केबल इसी तर्कवाक्यसे नहीं है अपितु उक्त अनुच्छेद (अ) के तीनों तर्कवाक्योंसे है। इसी तरह मैं उसे यह भी ध्यान दिला देना चाहता है कि पूर्वपक्ष द्वारा उक्त अनुच्छेद (अ) के प्रारंभमें निर्दिष्ट "सर्वकार्योंका सर्वथा 'कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इस वाक्यका संबंध भी केवल "प्रवचनसारकी अपनी
कामें श्री अमृतचंद्र आचार्यन कालनय और अकालनय, नियतिनय और अनियतिनय इन दोनोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बतलाई है" इसी तर्कवाक्यसे न होकर तीनों तर्कवाक्योंसे है ।
अन्तमें यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रतिशंका तीनमें त. प. पृ० १५ पर पूर्वपक्षके कथनके रूप में जो अनुच्छेद (अ) है उसके अन्तमें जो यह वाक्य लिखा हुआ है कि "अतः आगे-पीछे करनेका प्रश्न ही नहीं उठता", उसमें 'आगे-पीछे करने के बीचमें 'न' शब्द छूट गया है। उसे 'अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" इस रूप में संशोधित कर पढ़ना चाहिए, क्योंकि पूर्वपक्षने लिखा तो यही था कि ''अत: आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" परन्तु टाप करने वालेने उसमें "न" को छोड़ दिया । टाइपिष्टकी इस भूलसे जो गड़बड़ी हुई है उसे ठीक कर लेने पर ससरपक्षको उसके सम्बन्ध आलोचना करनेकी आवश्यकता नहीं रह जायेगी। .
उत्तरपक्षने अपने त० च० पृ० ४८ के उसी अनुच्छेदमें जो यह प्रतिपादन किया है कि "भताव श्रुतिके बलपर हमारा ऐसा जानना प्रमाण है और वह श्रुति दिव्यध्वनिके आधारसे लिपिबद्ध हुई है इसलिये दिव्यध्वनिके बलपर वह श्रुति भी प्रमाण है और वह दिव्यध्यनि केवलज्ञानके आधारपर प्रवृत्त हुई है, इसलिये केवलज्ञानके बलपर दिव्यध्वनि भी प्रमाण है और केवलज्ञानको ऐसी महिमा है कि बह तीन लोक
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शंका-समाधान १ की समीक्षा और त्रिकालबत्ती समस्त पदार्थीको घर्तमानके समान जानता है, इसलिये केवलशान प्रमाण है।" वह भी उपर्युक्त आधारपर प्रकृत प्रकरणमें निरर्थक हो जाता है।
इसी तरह उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेदमें आगे जो यह कथन किया है कि "अतः कार्योका किसीने कोई क्रम नियत नहीं किया है" यह लिखकर "सम्यक् नियतिका निषेषं का विजनहीं."मह भो उपर्युक्त विवेचनके आधारपर प्रकृति प्रकरणमें निरर्थक हो जाता है।
___ यहाँ मैं इतनी बात और कह देना चाहता हूँ कि यद्यपि • उत्तरपक्ष द्वारा प्रकृत प्रकरण में निर्दिष्ट उपर्युक्त श्रुति, दिव्यध्वनि और केवलज्ञानकी चर्चा प्रकृत प्रकरणोंमें निरर्थक ही है तथापि उत्तरपक्ष यदि उनका उपयोग उपर्यवत प्रकारकी सम्यक नियतिके समर्थन में करना चाहता है, तो करे, परन्तु यह स्थल उसके लिये उपयुक्त नहीं है । इसपर मैं प्रश्नोत्तर ५ की समीक्षा विशेष विचार करूंगा।
उत्तरपक्षने अपने इसी अनुच्छेद में लिखा -"एक ओर तो अपरपक्ष "कार्योका किसीने कोई कम नियत भी नहीं किया है" यह लिखकर कार्योंका आगे-पीछे होना मानना नहीं चाहता और दूसरी ओर उत्कर्षण आदिके द्वारा कर्मवर्गणाओंका आगे-पीछे उदयमें आना भी स्वीकार करता है । यह क्या है ? इसे अपरपक्षको मान्यताको विडम्बना ही कहना चाहिए" सो उत्तरपक्षने टाइपिस्टकी उक्त भलका लाभ उठाना चाहा है । परन्तु हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं कि पूर्वपक्षका कथन 'अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" इस रूप में ही था। वास्तव में पूर्वपक्षकी मान्यता तो मही है कि प्रेरक कारणके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है। . इस तरह प्रकृत अनुच्छेदवे. अन्तमें उत्तरपक्षने जो लिखा यह है कि "स्पष्ट है कि अपरपक्षने" सभी कार्योंका सर्वथा काल नियत नहीं है" इत्यादि लिखकर जो सभी कायोंके क्रमनियतपनेका निपंध किया है वह उक्त प्रमाणों के बलसे तर्ककी कसौटी पर कसने पर यथार्थ प्रतीत नहीं होता" इससे वह केवल आत्मसन्तोप हो कर सकता है, क्योंकि न हमारी वैसी मान्यता है और न सभी कार्योका काल सर्वथा नियत है, यह ऊपर सिद्ध किया गया है।
(३) पूर्वपक्षने त० च पृ० १५ पर अनुच्छेद (अ) में निर्दिष्ट "सर्वकार्योका कोई नियतकाल हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इस मान्यताको पुष्टिमें १० च० पृ. १५ पर ही अनुच्छेद (आ) मे यह कथन भी किया है-- कमस्थितिबन्धके समय निक-रचना होकर यह नियत हो जाता है कि अमुक कर्मवर्गणा अमुक समय उदयमें आवेगी किन्तु बन्धावलिके पश्चात् उत्कर्षण, अपकर्षण, स्थितिकाण्डकघात, उदीरणा, अविपाकनिर्जरा आदि के द्वारा कर्मवर्गणा आगे-पीछे भी उदयमैं आती है" इत्यादि । हमारे इस कथनपर उत्तरपक्षने तृतीय भागमें त• च: पु० ४८ पर निम्नलिखित कथन किया है
"अपरपक्षने अपने तीसरे हेतु, कर्मस्थिति आदिके आधाररो विचारकर यह निष्कर्ष फलित करनेकी चेष्टा की है कि बन्धके समय जो स्थितिबन्ध होता है उसमें बन्धावलिके बाद उत्कर्षण आदि देखे अतः जो कार्य जिरा समय होना है उस आगे-पीछे भी किया जा सकता है"। उत्तरपक्षने इसके आगे लिखा है-"यद्यपि इस विषयपर विचार शंका ५ के अन्तिम उत्तरमें करने वाले हैं। यहां तो मात्र इतना ही सूचित करना पर्याप्त है कि सत्तामें स्थित जिस कमका जिस कालमें जिसको निमित्त कार उत्कर्षण आदि होना नियत है उस कर्भका उस कालमें उसको निमित्तकर ही वह होता है, अन्यथा नहीं ऐसी बन्धक समय
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ही उसमें योग्यता स्थापित हो जाती। कर्मशास्त्र में कर्मको बन्ध, उदय और उत्कर्षण मादि जो दस अवस्थाएं बतलायी है वे इसी आधारपर बतलायी है। हाँ, जिस अवस्थाको कर्मशास्त्रमें स्वीकार नहीं किया गया है व किसी का गला सामोके बलप अपरपक्ष होना सिद्ध कर सके तो अवश्य ही यह माना जा सकता है कि यह कार्य बिना उपादान शक्तिके केवल बाह्य सामग्रीको बलपर कर्ममें हो गया"। सो उत्तरपक्षके इस कथनके विषयमें कह देना चाहता हूँ कि पूर्वपक्षको इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष की मान्यता भी यही है कि बिना उपादान शक्तिके केवल बाह्य सामग्रीके बलपर कर्ममें उत्कर्षण आदि नहीं हुआ करते हैं। पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि कर्ममें जो उत्कर्मण आदि होते है वे यद्यपि उसमें पाई जाने वाली उपादान शक्तिके बलपर ही हुआ करते हैं, परन्तु अनुकूल बाह्य सामग्रीका सहयोग प्राप्त होनेपर ही वे हुआ करते हैं । जैसे पूर्व में बतलाया जा चुका है कि चलते तो रेलगाड़ी के डिब्ये ही हैं और वे अपनी उपादान शक्तिके वलपर ही चलते हैं, परन्तु इतना अवक्ष्य है कि वे इंजिनका सहयोग प्राप्त होनेगर ही चला करते हैं। उसके सहयोगके बिना कदापि नहीं चलते हैं। इतना ही नहीं. रेलगाडीके डिब्बों और इंजिनके चलने में रेल पटरीका भी सहयोग आवश्यक रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रेरक कारणका कार्य किसी भी वस्तुमें बिना उपादान शाक्तिके कार्यको निष्पन्न करना नहीं है, केवल उपादानशक्ति विशिष्ट वस्तुम होने वाली कार्योल्पत्तिके प्रति प्रेरक कारणका कार्य उस वस्तुको प्रेरणा प्रदान करना है और उदासीन कारणका कार्य उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तु यदि कार्यरूप परिणत होने के लिए नेवार है तो जसे कार्यरूप परिणत होनेके अवसरपर अपना सहयोग प्रदान करना है अर्थात् प्रेरक कारणके योगसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है और उदासीन कारण यद्यपि कार्यको आगे-पीछे तो नहीं करा सकता है परन्तु बह कार्यरूप परिणत होनेके लिए तैयार उपादानको कार्यरूप परिणति में अपना सहयोग प्रदान किया करता है । यह सब विषय पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है।
यहां मैं एक बात यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें सम्यक् नितिका स्वरूप ऐसा निर्धारित किया है कि जिस कार्यका जिस कालमें और जिस देशम जिस विधिसे होना निश्चित है वह कार्य उस कालमें और उस देशमें "उस विधिसे नियमसे होता है" रारे उत्तरपक्षकी दृष्टिमें सम्यक् निमतिका यदि यही स्वरूप है तो इससे "खोदा पहाड़ निकली चुहिया' वाली कहावत चरितार्थ होती है। यह सब में प्रश्नोत्तर ५ की समीक्षामें स्पष्ट करूंगा। यहां तो मुझे केवल इतनी बात कहनी है कि उत्तरपक्षने जिस प्रकार सम्यक नियतिके स्वरूप में चतराईसे देश, काल और विधिका समावेश करनेकी चेष्टा की है उसी प्रकार वह यदि उनको उपयोगिता पर भी ध्यान देता तो संभव है उसे अपनी इस चेष्टाकी निरर्थकता समझमे आ जाती है और सब उसे त० च० पृ० ४९ पर "अतएव प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि सम्यक नियति आगम सिद्ध है. अन्यथा न तो पदार्थ-व्यवस्था ही बन सकती है और न ही कार्यकारण व्यवस्था ही बन सकती है" यह निष्कर्ष फलित करनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि इसको स्वीकार किये बिना ही पदार्थ-व्यवस्था और कार्य-कारण ब्यवस्था दोनों ही बन सकते हैं । इसका भी स्पष्टीकरण प्रश्नोत्तर ५ की समीक्षा तथा अन्य प्रश्नोंकी समीक्षामें किया जायगा ।
कथन ३० और उसकी समीक्षा
पूर्वपक्षन उत्तरपक्षके प्रति वा
पृ० १५ पर यह कहा है कि-"आपने लिखा है कि" "दो
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
५.१
coats विक्षत पर्यायोंमें निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयसे हैं, निश्वयसे नहीं "सर्वत्र स्थान-स्थान पर इसी पर जोर दिया गया है । व्यवहार नयके पूर्व मात्र शब्द लगाकर उसका अर्थ उपचार करके यह भी दर्शाया गया है कि व्यवहारसे जो कथन है वह वस्तुतः वास्तविक नहीं हैं" ।
उत्तरपक्ष ने पूर्वपक्ष के इस कथनपर विचार करते हुए ० ० पृ० ४९ पर "प्रसंगवश प्रकृतोपयोगी खुलासा" शीर्षक अन्तर्गत लिखा है - "इसी प्रसंग में अपरपक्षने नयोंकी चर्चा करते हुए व्यवहारनयको असद्भूत माननेमे अस्वीकार किया है। उस पक्षका ऐसा कहना मालूम पड़ता है कि जितने प्रकार व्यवहारनव आगममें बतलाये गये हैं वे सब सद्भूत ही हैं। यह प्रश्न अनेक प्रसंगोंमें अनेक प्रश्नोंम उठाया गया है । यदि अपरपत्र आगमपर दृष्टिपात करता तो उसे स्वयं ज्ञात हो जाता कि आगम में व्यवहारनय के जो चार भेद किये हैं उनमे से दो सद्भूत व्यवहारयके भेद हैं और दो असद्भूत व्यवहारनयके भेद हैं ।" आगे इसकी समीक्षा की जाती हूँ
जिस प्रकार उत्तरपक्ष आगमके आवारपर व्यवहारनपके सद्भूत और असद्भूत दो भेद मानकर प्रत्येक अनुपनरत और उपकारत दोन्दी मंद स्वीकार करता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी स्वीकार करता है. अतः उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनका यह आशय निकालना मिथ्या है कि पूर्वपक्ष व्यवहारतयको अद्भूत मानने से अस्वीकार करता है । पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनफा इतना ही आशय है कि व्यवहारनय के सद्भूत और अद्भूत दो भेद तथा इनमे से प्रत्येक के अनुपचारित और उपचरितके रूपमें दो-दो भेद होकर भी अपने-अपने ढंगये वास्तविक है जिसका अभिप्राय मात्र इतना ही है कि इनमें से कोई भी भेद आकाशकुसुमके समान कल्पनारोपित नहीं है। पूर्व में उद्धृत माचार्य विद्यानंदके तत्वार्थश्लोकवातिक पृ० १५१ के कथनमें उक्त सभी प्रकार के व्यवहारनयोंको पारमार्थिक कहकर उनकी कल्पनारोपितताका निषेध किया गया है।' इस तरह दोनों पक्षों मध्य इस बातका मतभेद नहीं है कि व्यवहारनयके सद्भूत और असद्भूत दो भेद है; ऐसा नहीं है कि उत्तरपक्ष तो व्यवहारनयको सद्भूत और असद्भूत दोनों प्रकारका मानता है, परन्तु पूर्वपक्ष उसे केवल सद्भूत हो मानता है। दोनों पक्षोंमें जो मतभेद है वह इतना ही है कि जहां उत्तरपक्ष दो द्रव्योंमें विद्यमान होनेके कारण असद्भूत व्यवहारनयका विषयभूत तिमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध निमित्तके कार्यरूप परिणत न होने और कार्योत्पत्ति में सहायक भी न होनेसे निर्णीत उसकी सर्वथा ऑकचित्करता के आधारपर उसे कल्पनारोपित मानता है वहां पूर्वपक्ष वही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध निमित्तकं कार्यरूप परिणत न होनेसे निर्णीत अकिचित्करता और कार्योत्पत्ति में सहायक होने से निर्णीत कार्यकारिताके आधारपर कथंचित् वास्तविक स्वीकार करता है, सर्वथा कल्पनारोपित नहीं । तात्पर्य यह है कि व्यवहारतय चाहे सद्भूत हो, असद्भूत हो, अनुपचरित हो या उपचरित हो, सभी रूपोंमें अपने-अपने ढंग से वास्तविक ही है अर्थात् कोई भी नय आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित नहीं है। यहां परमार्थ, वास्तविक या सद्भूत तीनों शब्दों यही आशय ग्रहण करना है कि उक्त चारों प्रकारके व्यवहास्तयों में से कोई भी नथ कल्पनारोपित नहीं हैं और न उनका विषयभूत पदार्थ भी कल्पनारोपित है। इसी बात की पुष्टि पूर्वपक्ष के निम्नलिखित कथन करते हैं—
१. तदेवं व्यवहारनयरामाश्रय कार्यकारणभावां विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपितः सर्वच्चाप्यनवद्यत्वात् ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा
(१) "यदि नयों के स्वरूप तथा विषयपर ध्यान दिया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि निमित्त नेमितिक सम्बन्धका कथन निश्चयनयसे न होनेका प्रसंग ही उपस्थित नहीं हो सकता है। जो विषय जिस नयका है उसका कथन उसी नयसे किया जा सकता है, अन्य नयसे नहीं 1 यदि उस ही नयके विषयको अन्य नयका विषय बना दिया जायेगा तो सर्वविप्लव हो जायेगा और नय-विभाजन अर्थात नय-व्यवस्था भी रामीचीन नहीं रह सकेगी 1 जैसे प्रत्येक ट्रव्य व्यवहारनयको अपेक्षासे अनित्य है। यदि निश्चयनयको अपेक्षास भी द्रव्यको अनित्य कहा जायेगा तो व्यवहारनय तथा निश्चयनयम कोई अन्तर नहीं रहेगा। दोनों एक ही हो जावेगें । द्रव्यको नित्य लाने वाला कोई नहीन रखेमा : इस पद के दसरे धर्मका कथन नहीं हो सकनेके कारण वस्तुस्वरूपका ज्ञान एकांगी (सर्वथा एकांत रूप) एवं मिश्या हो जावेगा | अर्थात् द्रव्य एकांशतः अनित्य हो जायेगा और इस प्रकार पूर्ण क्षणिकवाद आ जायेगा । अतः अनित्यताका कथन भ्यवहारनयसे ही हो सकता है, निश्चयनयसे नहीं । निश्चयनय तो व्यवहारनपके विषयको ग्रहण करनेमें अन्य पुरुषके समान है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि व्यवहारनयका विषय होनेसे अनित्यता प्रामाणिक, वास्तविक या सत्य नहीं है। अनित्यता भी उतनी ही प्रामाणिक, वास्तविक व सत्य है जितनी नित्यता" । त• च० पृ० १५
(२) "यदि ब्यवहारनयके विषयको प्रामाणिक नहीं माना जायेगा तो व्यवहारनय मिथ्या हो जायेगा । किन्तु श्रागम में प्रत्येक नयको प्रामाणिक माना गया है। ओ परनिरपेक्ष कुनय होता है उसीको मिथ्या माना गया है, सम्यक् नयको मिथ्या नहीं माना गया है ।" त० ५० १० १५ ।
(३) "एक द्रव्यके खण्ड या दो द्रव्योंका सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है । अतः दो अश्योंका सम्बन्ध होने के कारण निमित्त-नमितिक सम्बन्धका कथन व्यवहारनगसे ही हो सकता है, निश्चयनयसे नहीं। जैसे परद्रव्योंके साथ जो ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है उसका कथन व्यवहारनय से ही हो सकता है. निश्चयनयसे नहीं। चूंकि यहां भी दो द्रव्योंका सम्बन्ध है, जैसे वर्णको आंख बता सकती है, नाक आदि अन्य इन्द्रियाँ नहीं। अतः नाक आदि अन्य इन्द्रियोंसे वर्ण नहीं है, यह कहनेका प्रसंग ही नहीं आता है। इसी प्रकार निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध निश्चयनयसे नहीं, यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि दो द्रव्योंका सम्बन्ध निश्चयनयका विषय ही नहीं है ।" त० च पृ० १५-१६ ।
__ इस प्रकार पूर्वपक्षके उपर्युक्त कथनोंसे यही निर्णीत होता है कि पूर्वपक्ष अराद्भूत ठयवहारनयको भी जो परमार्थ, वास्तविक और सत्य बतलाता है उसका आशय इतना ही है कि वह उसे आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित नहीं मानता है, किन्तु वह प्रत्येक नयके विषयको अपने-अपने तुंगसे ही परमार्थ, वास्तविक और सत्य मानता है अर्थात् निश्चयनयका विषय अपने बैंगसे, अनुमचरित सद्भूत व्यवहार नयका निषय अपने ढंगमे, उपचरित सद्भत व्यवहारनय का विषय अपने हंगसे अनुपचारित असद्भुत व्यवहारनयका विषय अपने ढंगसे और उपचरित असत व्यवहारनयका विषय अपने ढंगसे परमार्थ, वास्तविक और सत्य है। तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर ध्यान देना चाहिए । - उत्तरपक्षने तचपृ० ४९ पर इसी अनुच्छेदमें आगे लिखा है-"जही प्रत्येक द्रव्यको व्यवहारनयसे अनित्य कहा है वहीं वह सद्भत व्यवहारमयसे ही कहा गया है, जिसे आगमपद्धतिमें पर्यायार्थिक निश्चयनयरूप स्वीकार किया गया है, किन्तु जहाँ किसी एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्य के कार्यको अपेक्षा निमित्त व्यवहार किया जाता है वह सद्भुत व्यवहारनयका विषय न होकर असद्भूत त्र्यवहारनयका ही विषय है। कारण कि एक द्रव्यके कार्यका कारणधर्म दूसरे द्रव्यमें रहता हो, यह त्रिकाल में संभव नहीं है। अतः एक
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
द्रव्यके कार्यका दुसरे व्यको निमित्तकारण कहना उपचारित ही ठहरता है ।" तथा इसके भी आगे उसी अनुच्छेद में उसने "यही कारण है कि आलापपद्धतिमें असद्भत व्यवहारनयका लक्षण करते हुए लिखा है।" ऐसा लिखकर आलापपद्धतिके वचनको अपने पक्षके गुमर्थनमें उदधत भी किया है।
इसमें उत्तरपक्षने जो यह लिग्ना है कि "जहाँ प्रत्येक द्रव्यको व्यवहारनबसे अनित्य कहा है वहां वह सदभत व्यवहारनयसे ही कहा है जिसे आगमपद्धतिम पर्यायाधिक निश्चयनय रूपसे स्वीकार किया गया है। किन्तु जहां किसी एक नव्यमें दुमरे प्रत्यके कार्यको अपेक्षा निमित्त व्यवहार किया गया है वहां वह सद्भूत व्यवहारनयका बिषय न होकर असदभत ब्यवहारनयका ही विषय है" सो इस विषय में पूर्वपक्षको उसरपक्षके साथ कोई विवाद नहीं है, क्योंकि पूर्वपन भी ऐसा ही मानता है। विवाद इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्षने किसी एक द्रव्यमें दूसरे द्रलके कार्य की अपेक्षा निमित्त ब्यवहार करने के लिए कोई आधार मान्य नह किया है वहाँ पूर्वपक्षका कहना है कि जहाँ किसी एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्य के कार्यकी अपेक्षा निमित्त व्यवहार होता हूँ वहाँ वह निमित्त व्यवहार इस आधारपर होता है कि वह एक ईध्य दूसरे द्रव्यके कार्यकी उत्पत्ति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी होता है। किन्तु उत्तरपक्ष एक द्रव्यको दूसरे प्रत्यके कार्यमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी न मानकर उसे सहायक न होनं रूपसे अकिचित्कर ही मानता है। इसी तरह उत्तरपक्षने आलापपद्धतिक ''अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्याऽन्यत्र समारोपणमसद्भुतव्यवहारः" इस कथनके आधारपर एक द्रब्यके कार्यका दूसरे द्रव्यको निमित्त अर्थात् कारण कहना उपचरित असद्भूत व्यवहारनपसे माना है सो इसमें भी प्रर्वपक्षको उत्तरपक्षके साथ विवाद नहीं है । तथापि जहाँ पूर्वपक्ष उक्त उपचारप्रबत्तिमें आलापपद्धतिके ही "मुख्याभावे सति निमित्त प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते' इस वचनके अनुसार मुख्यरूपताक अभाव तथा निमित्त और प्रयोजनक सद्भावको आधार मानता है वहाँ उत्तरपक्ष इसे स्वीकार नहीं करता है, अन्यथा उसे एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यके कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी माननेके लिए बाध्य होना पड़ेगा, जो उसे इष्ट नहीं है ।
इसके आगे उत्तरपक्षने त० च० ए०४९ पर हो "वह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करंगा कि प्रत्येक द्रव्यके मुणधर्म उसके उसीमें रहते हैं" यहाँ से लेकर "यही कारण है कि हमने सर्वत्र निमित्त नैमित्तिक
न्धको असद्भूत व्यवहारनयका विषय बतलाकर उसे उपचरित ही प्रसिद्ध किया है।' यहाँ तक जो लिखा है उसके विषयमें भी पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके साथ कोई विवाद नहीं है। केवल विवाद इस बातकाई कि असद्भूत व्यवहारनपके बिषयभूत निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको पूर्वपक्ष तो साहाय्य-सहायक भावफे रूपमें परमार्थ, वास्तविक व सत्य मानता है। परन्तु उत्तरपक्ष उस साहाय्य-सहायक भावके अभावके रूपमें आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित ही मानता हे जो आगम-विरुद्ध है। जैसे अनेक अणुओंकी एकमेकपने रूप मिलावटक आधारपर निष्पन्न पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप बस्तुवे निषचयरूप द्रव्य न होकर व्यवहाररूप (उपचरित) द्रव्य इसलिए मानी गयी हैं कि उनका अस्तित्व एक अखण्ड व्यके रूपमें नहीं है। यदि उनका अस्तित्व एक अखण्ड द्रव्य के रूपमें माना जाये तो कभी भी उनकी स्कन्धरूपताका विघटन नहीं हो सकेगा जबकि उनका विघटन आगम और इन्द्रिय प्रत्यक्षके आधारपर स्वीकार किया गया है। इस प्रकार उनका अस्तित्व उपचरित होकर भी परमार्थ, वास्तविक व सत्य मानना अनिवार्य है. क्योंकि पथिवी जल, अग्नि और वायुरूप ये सभी स्कन्ध अपने- अपने रूपमें लोकमें कार्यकारी ही सिद्ध हो रहे हैं।
आगे वहीं उत्तरपक्षने लिखा है-"नय एक विकल्प हैं यह सद्भूतको तो विषय करता ही है बाह्य
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रत्यासत्ति आदिकी अपेक्षा जिसमें निषित व्यदना : नैमिनिक कालकार किया जाता निक्षेप व्यवहार के अनुसार नाम, स्थापना और द्रव्य विशेषका विषय है उसे भी विषय करता है" । सो इस कथनमें भी पूर्वपक्षको विवाद नहीं है । परन्तु विवादबी बात यह है कि पूर्व पन तो इनके विषयको आकाशकुसुककी तरह कल्पनारोपित नहीं मानकर उस-उस रूप में उसके अस्तित्वको स्वीकार करता है, लेकिन उत्तरपक्ष उसे केवल कथन मात्र कड़कर कल्पनारोपित ही मान लेना चाहता है। इस बातका उत्तरपक्षको अवश्व विचार करना है कि यदि इन नयों और निक्षेपोंका विषय आकाशकुसमकी तरह कलानारोपित मात्र है तो फिर उसे नयों और निक्षेपोंका विषय माना ही कैसे जा सकता है ?
आगे उत्तरपक्षने त. च० प०५० पर यह लिखा है कि "अथवा नैगमनयके स्वरूप द्वारा असद्भुत वमबहारनयको समझा जा सकता है" आदि; सो इसमे इतना ही विवाद है कि पूर्वपक्ष नंगमनयके विषयको आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं मानता है जबकि उत्तरपक्ष उसे कल्पनारोपित मानता है ।
आगे यहींपर उत्तरपक्षने "भेद द्वारा वस्तुको ग्रहण करना जहां सद्भूत व्यवहारनय कहा है" से लेकर "अतएव व्यवहार कहकर भेद व्यवहार और निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार इन दोनोंको एक कोटिमें रखकर प्रतिपादित करना उचित नहीं है" यहां तक जो कुछ कथन किया है वह सब पूर्व पक्ष को मान्य है। परन्तु पूर्वपक्षका कहना है कि असद्भुत व्यबहारनय के विषयका भी मद्भुत व्यवहारनायके समान अस्तित्व स्वीकार करना अनिवार्य है, भले हो वह उपचरित हो। लेकिन ऐसा मानना उत्तरपक्षको अभीष्ट नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर निमित्तको कार्यके प्रति अकिंचित्कर स्वीकार करनेकी उसकी मान्यता समाप्त हो मायेगी।
आगे यहीं पर उत्तरपक्षने ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध और निमित्त-मैमित्तिक सम्बन्ध इन दोनों में जी अन्तर दिखलाया है उसमें पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु जहां पूर्णपक्ष कुम्भकारमं घटकारणता या घटकर्तृत्वका आरोप चटको उत्पत्तिमें कुम्भकारके सहायक होने के आधारपर स्थीकार करता है वहां उत्तरपक्ष कुम्भकारमें घटकारणता या घटकर्तत्वका आरोप घटको उत्पत्तिमें कुम्भकारके सहायक होनेके बिना ही मान लेता है। इस तरह जहां पूर्वपश्चकी मान्यतामें आरोपित पदार्थ भी आकाशकसमकी तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध न होकर आरोपित रूपमें परमार्थ, वास्तविक और सत्य सिद्ध होता है यहां उसरपक्षकी मान्यतामें आरोपित पदार्थ आरोपित रूपमें परमार्थ, बास्तविक और सत्य सिद्ध न होकर आकाशकुसुमकी तरह केवल कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होता है जो आगम-विरुद्ध है। इसे पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है।
यहां इतनी विशेषता भी समझना चाहिए कि यद्यपि उत्तरपक्ष की इस बातसे हम असहमत नहीं है कि जिस प्रकार जेय स्वरूपसे शेय और ज्ञायक स्वरूपसे ज्ञायक है उसी प्रकार कुम्भकार घटोत्पत्तिमें स्वरूपसे कारण या कर्ता नहीं है व घट स्वरूपसे कुम्भकारका कार्य नहीं है। तथापि यह अवश्य है कि कुम्भकारमें घटोत्पत्तिके प्रति सहायक होने रूपसे योग्यताका सद्भाव है और घटमें कुम्भकारके सहायकत्वमें उत्पन्न होने की योग्यताका सद्भाव है, अन्यथा घटोत्पत्तिमें कुम्भकारको निमित्त और घटको नैमित्तिक कहना असंभव हो जायेगा।
आगे उत्तरपक्षने और लिखा है कि-"नेत्र रूपको जानता है, रसको नहीं । फिर भी उसको रसको जानने वाला कहा जायेगा तो यह असद्भृत व्यवहार ही ठहरेगा" | इरा विषयमें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षको मान्य यह असद्भुत व्यवहार आकाशका कुसुम जैसा है। परन्तु "कुम्भकार घटका कारण या का
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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है" और घट कुम्भसारका कार्य है'. यह अतद्भुत व्यवहार आकाशकुसुम जैसा असद्भुत व्यवहार नहीं है, क्योंकि जो कुम्भकारको घटका कारण या कर्ता कहा जाता है और षटको कुम्भकारका कार्य कहा जाता है वह उपर्युक्त प्रकार घटोत्पत्ति में कुम्भकारके सहायक होने और पटके कुम्भकारकी सहायतामें उत्पन्न होनेके आधारपर ही कहा जाता है। अतः "नेत्र रराको जानता है" यह व्यवहार और "कुम्भकार घटका कारण या कर्ता है" व "चट कुम्भकारका कार्य है" ये दोनों प्रकारके व्यवहार असद्भुत व्यवहार होते हुए भी समान नहीं कहे जा सकते हैं, क्योंकि "मेष रसको जानता है" यह असद्भुत व्यकार जहाँ माकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित है वहां "कुम्भकार षटका कारण या कर्ता है' और 'घर कुम्भकारका कार्य है" यह असद्भूत व्यवहार आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित नहीं है, प्रत्युत वह उपर्युक्त प्रकारसे परमार्थ, वास्तविक व सत्य है । यतः आगमसम्मत इस मान्यताको उत्तरपक्ष मानने के लिए तैयार नहीं है अतः इस विषयमें पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य विरोष है। तत्त्वजिज्ञासुओंको तथ्य पर ध्यान देना चाहिये।
इस विवेचनसे वह बात अच्छी तरह निर्णात हो जाती है कि उत्तरपक्षका “इस प्रकार नयोंका प्रसंग उपस्थितकर अपरपक्षने जो हमारे" दो द्रश्यों की विवक्षित पर्यायोंमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारमयसे है निश्चयनयसे नहीं "इस कथनपर टीका की है वह कैसे आगम-विरुद्ध है, इसका विचार किया" यह कथन सर्वथा निःसार सिन्न हो जाता है, क्योंकि उत्तरपक्षके कथनपर पूर्वपक्षने जो टीका की है वह आगमके अनुसार ही की है । जैसा कि उपर्युक्त प्रकाररो स्पष्ट है। कथन ३१ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने त० च० पृ०५० पर "कर्ता-कर्म आदिका विचार" शीर्षकके अन्तर्गत कर्ता और कर्म आदिके विचारफे प्रसंगमें प्रथमतः पूर्वपक्षके त० च० पू०१६ पर निर्दिष्ट बक्तब्यके निम्न अंशको उद्धृत किया है
"इस तरह हमारे आपके मध्य मतभेद केवल इतना ही रह जाता है कि जहां हमारा पक्ष आत्मामें उत्पन्न होनेयाले रागादि विकार और चतुर्गतिभ्रमण कार्यको उत्पत्ति में प्रध्यकमके उदयरूप निमित्त कारण या निमित्तकर्ताको सहकारी कारण या सहकारी कत्तोंके रूप में सार्थक (उपयोगी) मानता है वहां आपका पक्ष उसे उपचरित कहकर उक्त कार्यमें अकिंचित्कर अर्थात् निरर्थक (निरुपयोगी) मानता है और तब आपका पक्ष अपना यह सिद्धान्त निश्चित कर लेता है कि कार्य केवल उपादानकी अपनी सामर्थ्यसे स्वतः ही निष्पन्न हो जाता है । उराको निष्पत्तिमें निमित्त की कुछ भी अपेक्षा नहीं रह जाती है जबकि हमारा पक्ष यह घोषणा करता है कि अनुभव, तर्क और आगम सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कार्यकी निरुपति उपादान में ही हुआ करती है अर्थात उपादान हो कावंरूप परिणत होता है फिर भी उपादानकी उस कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकी अपेक्षा बराबर बनी रहती है अर्थात् उपादानकी जो परिणति आमममें स्वपरप्रत्यय स्वीकार की गयो है वह परिणति उपादानकी अपनी होकर भी निमित्तकी सहायतासे ही होती है। अपने आप (निमित्तकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना) नहीं होती। चूंकि आत्माके रागादि रूप परिणमन और चतुर्गतिभ्रमणको आगममें उसका (आत्माका) स्वपर प्रत्यय परिण मन प्रतिपादित किया गया है अतः वह परिणमन आत्माका अपना परिणमन होकर भी द्रवर्मोदयकी सहायतासे ही हुआ करता है"। इसपर उत्तरपक्षने अपना मन्तव्य (त० च० पु. ५१ पर) निम्न प्रकार व्यक्त किया है
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रदेश भेद है।
"यह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक अखण्ड सत्को भेद विवक्षामें तीन भागों में विभक्त किया गया है - द्रवसत् गुणसत् और पर्यायसत् पक्ष द्रव्य और गुमशक स्वरूपको तो पत शिद्ध मानने के लिए तैयार है किन्तु पर्वायसत् के विषय में उसका कहना है कि वह परकी सहायता से अर्थात् परके द्वारा उत्पन्न होता है। उपादान स्व हैं और अभेद विवक्षामें जो उपादान है वहीं उपादेय है इसलिए वह अपने अपने में अपने द्वारा आप कर्त्ता होकर कर्मरूपसे उत्पन्न हुआ यह कथन यथार्थ बन जाता है । किन्तु जिस बाह्य सामग्रीमें निमित्त व्यवहार किया जाता है वह (स्वयं परके कार्थका स्वरूपसे निमित्तकारण नहीं है यह बात यहाँ ध्यानमें रखना चाहिए) पर है, अतः उसमें यह कार्य हुआ इसे तो यथार्थं न माना जाये और उसके द्वारा आप कर्ता होकर इस कार्यको उसने उत्पन्न किया इसे यथार्थ कैसे माना जा सकता है अर्थात् त्रिकालमें यथार्थ नहीं माना जा सकता है, क्योंकि दोनों में सर्वथा सत्ता भैव है, कर्त्ता आदिका सर्वथा भेद तो है ही । परके द्वारा कार्य हुआ या परकी सहायता से कार्य हुआ इसे आगम प्रमाणसे यदि हम अद्भूत व्यवहार कथन या उपचरित कथन बतलाते हैं तो अपरपक्ष उसे निरर्थक या निरुपयोगी लिखने में ही अपनी चरितार्थता समझता है इसका हमें आश्चर्य है । जहाँ उपादान और उपादेय में भेदविवक्षा करके उनसे उपादेवको उत्पति हुई यह नाथन ही व्यवहार कथन ठहरता है यहाँ परके द्वारा उससे सर्वथा भिन्न परके कार्यको उत्पत्ति होती है इसे असद्भूत व्यवहार कथन न मानकर सद्भूत व्यवहार या निश्चय कथन कैसे माना जा सकता है ? इसका स्वमत के समर्थनका पक्ष छोड़कर अपरपक्ष ही ही विचार करे। क्या यह अपरपक्ष आगमसे बतला सकता है कि एक द्रव्य कर्ता आदि कारणधर्म दूसरे द्रव्यमें वास्तव में पाये जाते हैं? यदि नहीं तो वह पक्ष "कुम्भकार घटका कर्ता है" इस कथनको असद्भूत व्यवहारनय (उपचरितोपचारनय) का कथन मानने में क्यों हिचकिचाता है ? पहले तो उसे इस कथनको निःसंकोच रूपमें स्वीकार कर लेना चाहिए और फिर इसके वाद उसकी सार्थकता या उपयोगिता क्या है इसपर विचार करना चाहिए। हमें आशा है कि यदि वह इस पद्धति से विचार करेगा तो उसे इस कथनकी सार्थकता और उपयोगिता भी समझ में आ जावेगी। यह कथन इष्टार्थ अर्थात् निश्चयका ज्ञान कराने में समर्थ है इससे इसकी सार्थकता या उपयोगिता सिद्ध होती है, इससे नहीं कि वह स्वयं अपने में यथार्थ करन है | इसे यथार्थ कथन मानना अन्य बात है और सार्थक अर्थात् उपयोगी मानना अन्य बात है । यह कथन उपयोगी तो है पर यथार्थ नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।" आगे इसको समीक्षा की जाती है
दोनों पक्षोंके इन उपर्युक्त वक्तव्योंपर ध्यान देनेपर पाठकों को यह बात सरलतासे समझमें आ सकती है कि उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें पूर्वपक्ष के वक्तव्यकं विषयमें जो कुछ लिखा है उसे लिखते समय उसने या तो पूर्वपक्ष के वक्तव्य के आशय को समझने की चेष्टा नहीं की है अथवा जान-बूझकर तत्त्वजिज्ञासुओं को भ्रम में डालने का प्रयत्न किया है। यहाँ वास्तविकताको स्पष्ट करनेका प्रयास किया जाता है ।
(१) पूर्वपक्ष सत् और गुणसत्को स्वतः सिद्ध ही मानता है, जैसा कि उत्तरपक्षने लिखा है और स्वतः सिद्धा अर्थ है कि द्रभ्यसत् और गुणसत् दोनों ही अनादि निधन है ।
(२) उत्तरपक्ष पर्यायसत्को भी स्वतः सिद्ध मानता है और वह यहाँ स्वतः सिद्धका अर्थ " अपने से, अपने में, अपने द्वारा आप कर्त्ता होकर कार्यरूसे उत्पन्न हुआ" करता है। इसे भी स्वीकार करनेमें पूर्वपक्षकी कोई आपत्ति नही है । केवल उसका कहना यह है कि जहां उत्तरपक्ष पर्यायकी उत्पत्तिको बाह्य सामग्री के सहयोग बिना अपने आप होती हुई मानता है वह पूर्वपक्ष उस उत्पत्तिको आवश्यकतानुसार बाह्य
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शंका-समाषान १ की समीक्षा
९७ सामग्रीके सहयोगके आधारपर होती हुई मानता है। यहाँ "आवश्यकतानुसार" कहने में हेतु यह है कि आगममें पर्यायसत्को स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय इन दो भेदों में विभक्त किया गया है। इनमें स्वपरप्रत्यय परिणमन ऐसा है जो बाह्य सामग्रीका सहयोग प्राप्त हए बिना नहीं उत्पन्न होता । पत: उत्तरपक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनकी उत्पत्ति के विषयमें इस बातको मानने के लिए तैयार नहीं है कि वह बाह्म सामग्रीका सहयोग प्राप्त हुए बिना उत्पन्न नहीं होता, अतः पूर्वपक्षका उत्तरपक्ष के साथ इसमें मतभेद है। यद्यपि उत्तरपक्ष स्वपरप्रत्यम परिणमनकी उत्पत्ति के अवसरपर वाह्य सामग्रीको उपस्थितिको स्वीकार करता है परन्तु उसका कहना है कि उस बाह्य सामग्रीके सहयोगको अपेक्षा उस परिणमनकी उत्पत्तिमें मण मात्र भी नहीं रहा करती है, जो आगम-विरुद्ध है क्योंकि आगममें स्वपरप्रत्यय परिणमनको उत्पत्तिमें बाह्य सामग्रीके सहयोगकी आवश्यकताको स्वीकार किया गया है।
(३) उत्तरपक्षने अपने उक्त वक्तव्यमें पूर्वपक्षके स्वपरप्रत्यय परिणमनके विषय में परकी सहायतासे उत्पन्न होने सम्बन्धी कथनके इस आशयको विकृतरूपसे प्रस्तुत करनेकी चेष्टा की है कि "पूर्वपक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनको परके द्वारा उत्पन्न हुआ मानता है" सो उसकी यह चेष्टा अनुचित है, क्योंकि पूर्वपक्ष स्वपरप्रत्मय परिणमनका परकी सहायतासे उत्पन्न होना स्वीकार करता है, परके द्वारा उत्पन्न होना स्वीकार नहीं करता । इसका कारण यह है कि एक वस्तु अपना अस्तित्व स्वतन्त्र रखते हए दूसरी वस्तुके कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक तो हो सकती है, परन्तु उसके कार्यको वह त्रिकालमें नहीं कर सकती, क्योंकि यदि वह वस्तु दूसरी वस्तुके कार्यको करने लग जाये तो उसे अपना अस्तित्व उस दूसरी वस्तुमें संक्रमित कर देना होगा, जो असम्भव है ।
(४) यद्यपि दोनों पक्षोंने स्वपरप्रत्यय परिणमन की उत्पत्तिके प्रसंगमें उपादान और बाह्य सामग्रीको स्थान दिया है, परन्तु दोनों के विचारों में निम्नलिखित मसक्य और मतभेद पाया
(क) दोनों पक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनकी उत्पत्ति में उपादानको निश्चपकारण, यथार्थकारण व मुख्यकर्ता मानते हुए उसे निश्चयनयका विषय स्वीकार करते हैं व बाह्य सामग्रीको व्यवहारकारण, यथार्थकारण और उपचरितकर्ता मानते हुए उसे व्यवहारनयका विषय मानते हैं। परन्तु दोनों पक्ष दाहा सामग्रीको व्यवहारकारणता, अपथार्थकारणता और उपचरितकर्तृत्वके स्वरूपका निर्धारण भिन्न-भिन्न प्रकारसे करते हैं। पूर्वपक्ष जहाँ स्वपरप्रत्यय परिणमनकी उत्पत्तिमें बाह्य सामग्रीको व्यवहारकारणता, अयथार्थकारणता और उपचरिकर्तृत्वके स्वरूपका निर्धारण उसमें उसके सहयोगी होते रूपसे कार्यकारिताके आधारपर करता है वहाँ सत्तरपक्ष उसमें उसके सहयोगी न होने रूपमें अकिंचित्करताके आधारपर करता है। इनमें पूर्वपक्षकी मान्यता युक्ति एवं आगम राम्मत है और उत्तरपक्षकी मान्यता उससे विपरीत है। इसे पहले विशदतमा स्पष्ट किया जा चुका है।
(ख) दोनों ही पक्ष निश्चयनयके द्रव्याथिक निश्चयनय और पर्यायाथिक निश्चयनय ये दो भेद स्वीकार करते हैं व व्यवहारनयके सद्भुत और असद्भत ये दो भेद मानकर दोनोंके अनुपचरित और उप
. १. तदसामर्थ्यमखण्यदकिंचित्कर कि सहकारिकारणं स्यात् ।-अष्टशती, अष्टसहस्री पृ० १०५
( नि सा प्रकाशन) स०-१३
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
चरित ये दो भेद स्वीकार करते हैं । परन्तु व्यवहारनमकी असद्भूतता के विषय में दोनोंकी दृष्टि भिन्न-भिन्न किया।
है, जिसे वाले यहीं
(ग) दोनों ही पक्ष स्वपरप्रत्यय कार्यकी उत्पत्ति में उपादानकारणभूत वस्तुको द्रव्यार्थिक निश्चयनयका विषय मानते है । इरा नमके आधारपर ही घटको उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत मिट्टी द्रव्यार्थिक निश्चयनमका विषय सिद्ध होती है।
(घ) पूर्वपक्षकी मान्यता अनुसार उक्त कार्यको उत्पत्ति में उपादानकारणभूत वस्तुको सुक्ष्म दृष्टिसे कार्याध्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याय और स्थूल दृष्टिसे कार्यव्यवहित पूर्वकी नानाक्षणवर्ती पर्याय पर्यायार्थिक निश्चयनय या अनुपचिरत सद्भूत व्यवहारनयका विषय सिद्ध होती है । जैसे घटकी उत्पत्ति सूक्ष्म दृष्टिसे मिट्टीको कार्यरूप घटपर्याय या अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याय और स्थूल दृष्टिसे उस पर्यायसे अव्यवहित पूर्वकी नालाक्षणवर्ती कुशूलपर्याय या तो पर्यायार्थिक निववयनयका विषय होती है या अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयका विषय सिद्ध होती है । सम्भवतः उत्तरपक्षको भी यह बात मान्य होगी ।
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(च) पूर्वपक्ष की मान्यता के अनुसार उक्त कार्यकी उत्पत्ति में उपादानकारणभूत वस्तुकी सूक्ष्म दृष्टिसे कार्याध्यवहित कारणभूत पूर्णक्षणवर्ती पर्यायसे अथवा स्थूल दृष्टिसे कार्याञ्चवहित कारणभूत पूर्वकी नामाक्षणवर्ती पर्यायसे अव्यवहित पूर्वकी क्षणवर्ती था नानाक्षणवर्ती पर्याय परम्परया पर्यायार्थिक निश्चयनका अथवा उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका विषय होती है। जैसे घटकी उत्पत्तिमें सूक्ष्म दृष्टिसे घट पर्यायसे अव्यवहितपूर्वकी एक क्षणवर्ती पर्यायसे भी अव्यवहित पूर्वकी क्षणवर्ती पर्याय या स्थूल दृष्टिसे कुशूलपर्यायसे अव्यवहित पूर्वको कोशपर्याय परम्परया पर्यायार्थिक निश्चयनयका अथवा उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका विषय सिद्ध होती है । सम्भवतः उत्तरपक्षको यह बात भी मान्य होगी।
(छ) पूर्वपक्ष की मान्यता अनुसार उक्त कार्यकी उत्पत्ति में कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुके कार्यरूप परिणत होने के अवसरपर बाह्य सामग्री भी सहायक होने रूपसे कारण सिद्ध होती हैं जो असद्भूत व्यवहारनयका विषय । इसमें भी साक्षात् और परम्परया कारणताका भेद पाया जाता है। अतः जो साक्षात् कारण हो वह तो अनुपचारित असद्भूत व्यवहारनयका विषय है और जो परम्परया कारण हो वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनयका विषय है । इस व्यवस्थाको घटोत्पत्तिमें इस प्रकार समन्वित किया जा सकता है कि उस बटोत्पत्ति में मिट्टीकी तरह कुम्भकार, चक्र, दण्ड आदि भी कारण होते हैं । उनमेंसे मिट्टी रूप परिणत होने के आधारपर कारण होती है और कुम्भकार, चक्र, दण्ड आदि उनमें सहायक होने के आधारपर कारण होते हैं। इन कुम्भकार आदि कारणों में भी कुम्भकार सहायक होने रूपये साक्षात् कारण होता है और चक्र, दण्ड आदि सहायक होने रूपसे परम्परया कारण होते हैं। अतः कुम्भकार तो अनुपचरित और असद्भूत व्यवहारनयका विषय है और चक्र, दण्ड आदि उपचरित असद्भूत व्यवहारनयके विषय हैं । यतः उक्त कार्यकी उत्पत्तिमें उत्तरपक्ष बाह्य सामग्रीको सहायक होने रूपसे कारण नहीं मानता है केवल कार्योत्पत्तिके अवसरपर उसकी उपस्थिति मात्र स्वीकार करता है अतः उसकी असद्भूत कारणता को वह कल्पनारोपित मात्र मानता है । दोनों पक्षों का यही मतभेद है । इनमेंसे पूर्वपक्षको मान्यता आगमसम्मत है परन्तु उत्तरपक्षकी मान्यता आगमसम्मत नहीं है। इसे भी पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है ।
इस विवेचनका निष्कर्ष यह है कि पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनोंके मध्य कार्योत्पत्ति के विषयमें कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुमें द्रव्यरूप उपादान कारणताको स्वीकार करने और उसे द्रव्यथिक निश्चयनय
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झांका-समाधान १ की समीक्षा का विमा पानो काई विवाद नहीं है। इसी प्रकार कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुको पर्यायोंमें अभेदविकासे उपादान मारणताको स्वीकार करने और उन्हें पर्यायाथिक निश्चयनयका विषय मानने में तथा उन पर्यायोंमें भेदविवक्षासे सद्भुतव्यवहारकारणताको स्वीकार करने और उन्हें उपर्युक्त प्रकार अनुपचरित
और उपचरित सद्भुत व्यवहारनपका विषय मानने में भी कोई विवाद नहीं है। इसी तरह दोनों पक्षोंके मध्य बाह्य वस्तुमें निमित्त कारणताको उपर्युक्त प्रकार यथायोग्य अनुपचरित और उपचरित कारणताके रूपमें स्वीकार करने और उन्हें यथायोग्य अनुपचारित और उपरित असद्भूत व्यवहारनवका विषय स्वीकार करने में भी कोई विवाद नहीं उठता। केवल विवाद इस बात है कि जहाँ पूर्वपक्ष बाह्य सामग्रीका कार्योत्पत्तिमें राहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण मानकर उसी कार्वकारिताके आधारपर स्वीकृत निमित्तकारणताको असद्भुत व्यवहारमयका विषय मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उस बाह्य सामग्रीको कार्योत्पत्तिमें सहायक न होने रूपमे अफिचिस्कर निमित्तकारण मानकर इसी अकिचित्करताके आधारपर स्वीकृत निमित्त कारणताको असदभत धवनारनयका विषय मानता है।
इस प्रकार जहाँ पूर्वपक्षकी मान्यतामें असद्भूत व्यवहारनयका विषय उपर्युक्त प्रकारको कार्यकारिताके आधारपर आगमके अनुसार परमार्थ, वास्तविक या सत्य सिद्ध होता है वहाँ उत्तरपक्षकी मान्यतामें असदभत व्यवहारमयका विषय उपयुक्त प्रकारको अकिंचित्करताके आधारपर आगमसे विरुद्ध आकाशाकुरामकी तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होता है। यह सब पूर्व में भी कहा जा चुका है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य 'कुम्भकार घटका कर्सा है" इस कथनको असद्भुत व्यवहारमयका कथन मानने में विवाद नहीं है । विवाद दोनों पक्षोंये. मध्य केवल यह है कि "कुम्भकार घटका कर्ता है' यह कथन असद्भूत व्यवहारनयका विषय होकर उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार जहाँ अपने ढंगसे आकाशाकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होता है वहाँ पूर्वपक्षको मान्यताके अनुसार वह अपने हंगसे परमार्थ, वास्तविमा और सत्य सिद्ध होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने वक्तवयमें पूर्वपक्षपर जो आरोप लगाये हैं वे युक्त नहीं है।
उत्तरपक्षने इसी वक्तध्यमें जो यह बतलाया है कि कुम्भकार यद्यपि घटका कर्ता नहीं होता, तथापि उसे घटका का कहनेसे इष्टार्थ अर्थात् निश्चयार्थका ज्ञान हो जाया करता है। इसके सम्बन्ध में मह कहना चाहता हूँ कि इस कथनसे इष्टार्थका बोन किस आधारपर होता है ? इसपर उत्तरपक्षने विचार नहीं किया, क्योंकि इस कथनसे इष्टार्थका बोध, तभी संभव है जब कुम्भकारको घटोत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण माना जाये, अन्यथा नहीं। अतः इस प्रकार घटोत्पत्तिमें घटरूप परिणत होने रूपसे निश्चयकारणभूत मिट्टी परमार्थ कारण है उसी प्रकार वहाँपर उस मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे असद्भुत व्यवहारकारणभूत कुम्भकार भी परमार्थ कारण है अर्थात् आकाशकुसुमकी तरह यह बहापर कल्पनारोपित या कथानमात्र कारण नहीं । इसपर यदि उत्तरपक्ष यह कहना चाहे कि घटोत्पत्ति में असदृभूत व्यवहारकारणभूत कुम्भकारको कल्पनारोगित इसलिए नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वह मिट्टीकी इष्टार्थभूत निश्चयकारणताका बोध कराता है तो इस विषयमें हमारा कहना है कि वह मिट्टीकी इष्टार्थभूत निदचपकारणताका बोच किस रूपमें कराता है, इसका स्पष्टीकरण उत्तरपक्षको करना चाहिए था। दूसरे, उत्तरपक्षकी दृष्टि में कुम्भकार जब मिट्टीकी घटरूप परिणतिके होनेमें सर्वथा अकिंचित्कर बना रहता ई तो किस आधारपर वह मिट्टी को इष्टार्थभूत निश्चयकारणताका बोध कराता है, इसका स्पष्टीकरण उसे
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
करना चाहिए था और तीसरे, यह प्रश्न भी होता है कि उत्तरपक्षकी मान्यता के अनुसार जब कुम्भकार घटोत्पत्तिके प्रति मिट्टीकी निश्चयकारणताका बोध कराता है तो फिर उसे वहाँपर सर्वथा अकिचित्कर कैसे कहता है ?
आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष आगमके तथ्य और पूर्वपक्ष की दृष्टिपर ध्यान न देकर केवल अपने पूर्वाग्रह पर ही तत्त्वचर्चा में प्रवृत्त हुआ है, उसको दृष्टि अणुमात्र भी तत्व फलित करनेकी नहीं रही है । कथन ३२ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने सहकारी कारणके लक्षणके प्रसंग तु० च० पू० ५२ पर आचार्य विद्यानंदके तत्त्वार्थलोकवाकि कि है-
" यदनन्तर हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत् कार्यमिति । "
इसका अर्थ भी उसने यह किया है कि "जो जिसके अनन्तर नियमसे होता है वह उसका सहकारी कारण है दूसरा कार्य है" ।
उक्त वचनका उत्तरपक्ष द्वारा किया गया यह अर्थ असंगत है, क्योंकि सहकारी कारणके सद्भाव में भी बाधक कारणके उपस्थित हो जानेपर अथवा विवक्षित वस्तु कार्यको उपादान शक्तिका अभाव रहनेपर कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है । जैसे त्रयोदश गुणस्थान के प्रथम समयमें मोक्षमार्गको पूर्णता हो जानेपर भी Saree कारणभूत योग और अत्रातिया कर्मोका सद्भाव रहने के कारण जीवको मोक्षको प्राप्ति नहीं होती है । तथा कुंमकारके घटानुकूल व्यापाररूप सहायक कारण के सद्भाव में भी उपादानशक्तिरहित घालू मिश्रित मिट्टी से घटोत्पत्ति नहीं होती है। अतः उक्त वचनका अर्थ मद्द करना चाहिए कि जिसके अनन्तर हो जो नियमसे होता है वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है" । उक्त वचनका ऐसा अर्थ करने से एक तो उपर्युक्त दोनों प्रकारके दोषों का निराकरण हो जाता है, दूसरे उस वचनमें विद्यमान 'हि' शब्दकी इससे सार्थकता सिद्ध हो जाती है जबकि उत्तरपक्ष द्वारा किये गये अथसे उक्त वचनमें विद्यमान 'हिं' शब्द निरर्थक ठहरता है।
आगे उत्तरपक्षने लिखा है- "इसका तात्पर्य यह है कि जब जो कार्य होता है तब उसका जो सहकारी कारण कहा गया है वह नियमसे रहता है ऐसी इन दोनोंमें कालप्रत्यासति है । यह यथार्थ है अर्थात् उस समय विवक्षित कार्यका होना भी यथार्थ है और जिसमें सहकारी कारणमा स्थापित की गई है उसका होना भी यथार्थ है यह इन दोनोंकी कालप्रत्यासत्ति हूँ" ।
उत्तरपक्षने अपने इस वक्तव्य से यह सूचित करनेका प्रयत्न किया है कि कार्योत्पत्तिके अवसर पर उसका सहकारी कारण भी वह उपस्थित रहता है। इससे वह यह बतलाना चाहता है कि कार्यात्पत्ति के ब सरपर सहकारी कारणके उपस्थित रहनेपर भी उसका कार्योत्पत्ति में कोई उपयोग नहीं होता है। उत्तरपक्षका यह दृष्टिकोण सम्यक नहीं है, क्योंकि हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं कि अष्टसहस्री पृ० १०५ पर निर्दिष्ट अष्टशतीके वचनानुसार बाह्यवस्तुमें कार्य के प्रति सहकारीकारणताका व्यवहार करनेके लिए उस बाह्यवस्तुकी उस कार्य के प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारिताको स्वीकार करना परम आवश्यक है । अष्टशतीका वह वचन निम्न प्रकार है
तदसामर्थ्य मखण्डयद किचित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ?"
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शंका-समाधान १ को समीक्षा अर्थ-उसकी (उपादानकारणभूत वस्तुकी) कार्योत्पत्ति न हो सकने रूप असामर्थ्य (अशक्ति) का खण्डन न करते हुए बाह्यवस्तु वहाँपर यदि अकिंचित्कर. ही बनी रहती है तो क्या असे सहकारीकारण कहा जा सकता है ? अर्थात नहीं कहा जा सकता है।
___ यतः तत्त्वार्थश्लोकवातिक और अट सहनीके रचयिता आचार्य विद्यानंद ही हैं अतः अष्टसहस्रीमें निर्दिष्ट होने के कारण उनके द्वारा मान्य अष्टशतीफे उक्त पचनका तत्वार्थश्लोकवातिकके उक्त बचनके साथ सामंजस्य स्थापित करनेके लिए उसका (तत्त्वार्थश्लोकवातिकके उक्त वचनका) तदनुकूल अर्थ ही ग्रहण करना उचित है । इस कथनसे यह निर्णीत होता है कि उपादानवारणभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति होनेके अवसरपर सहायक कही जानेवाली वस्तूकी केवल उपस्थिति दोनों की कालप्रत्यासत्ति नहीं है प्रत्युत उस वस्तुका उपादान कारणभूत वस्तुको कार्यरूप परिणत होने के लिए समर्थ बना देना ही दोगोंकी कालप्रत्यासत्ति है ।
सा वह निष्कर्ष निकलता ई रितु रूपानकारगर वस्तुकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे हो कार्यकारी होती, वह सहायक न होने पसे अकिंचित्कर नहीं रहती है।
तात्पर्य यह है कि सहकारीकारणभूत द्रव्यकर्मोदयके होनेपर उगादासकारणभूत संसारी आत्मा अपनी रागादिरूप परिणत न हो सकने रूप असामर्थ्यको नष्ट कर विकारमान और चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणत होता है अर्थात कार्यकी उपादानशक्ति (कार्य रूप परिणत होनकी योग्यता) विशिष्ट संसारी
आत्मा द्रश्यकर्मोदयकी सहायता प्राप्त होनेपर ही रागादि रूप परिणत होता है और संसार परिभ्रमण किया करता है । और यदि कर्मोदयका अभाव हो जावे तो वह न तो रागादिरूप परिणत हो सकता है और न संसार परिभ्रमण कर सकता है। यही कारण है कि जिनागममें जीवोंको द्रब्यकर्मोदयको समाप्ति करनेका उपदेश दिया गया है । यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि सहकारी कारण होनेरो द्रव्यकर्मोदयका प्रवेश संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण रूप कार्य में प्रसक्त हो जायेगा, क्योंकि कार्य में उपादान कारणके हो प्रवेशका नियम है, सहकारी कारणके प्रवंशका नहीं। इस सम्बन्धमें हम पहले भी काफी प्रकाश डाल चुके हैं।
यही कारण है कि कुम्भकारके बदानुकूल व्यापारके बिना उपादानकारणभूत मिट्टी की घटरूप परिणत नहीं हो सकती है। अतएब कुम्भकार स्वयं अथवा अन्यकी प्रेरणासे जब घटानुकूल च्यापार करने में प्रवृत्त होता है तभी मृतिका घटरूप परिणत होती है।
इस प्रकार उत्तरपक्षका ऐसा मानना भ्रान्तिपूर्ण है कि जब मिट्टी अपना परिणमन घटरूप करनेके लिये उद्यत होती है त। कुम्भकार भी अपना तदनुकूल व्यापार करनेमें प्रवृत्त होता है। इसके विपरीत यही सम्यक् है कि जब कुम्भकार अपना व्यापार घटोत्पत्तिके अनुकूल करता है तभी उपादान कारणभूत मिट्टी अपना घटरूप परिणमन किया करती है ।
आगे उत्तरपक्षने लिखा है-"किन्तु इसके स्थान में उक्त कथबका यदि यह अर्थ किया जाये कि जिसे सहकारी कारण कहा गया है यह अपने व्यापार द्वारा अन्य व्यके कार्यको उत्पन्न करता है तो उक्त कथनका ऐसा अर्थ करना यथार्थ न होकर उपचारित हो होगा" । सो उत्तरपक्षक इस कथनको पूर्वपक्ष भीम परन्तु उत्तरपक्ष जहाँ उस उपचारको आकाशकसमकी तरह कल्पनारोपित मात्र मानता है वहां पुर्व कल्पनारोपित मात्र न मानकर सहायककारणताके आधारपर परमार्थ, वास्तविक सत्य मानता है। उत्तरपक्षके उस उपचारको कल्पनारोपित माननेका कारण यह है कि वह सहायक कारणको कार्योत्पत्सिमें
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा सहायक न होने रूपसे अकिंचिकर ही मानता है और पूर्वपक्ष उस उपचारको परमार्थ, वास्तविक व सत्य इसलिए मानता है क्योंकि वह सहायक कारण कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी है । और चूंकि सहायक कारण कार्योत्पत्तिमें उपादान कारणसे भिन्न निमित्तकारणभूत वस्तु रूप होता है । अतः “पराश्रितो व्यवहारः" इस आगमवच नके अनुसार यह कथंचित् असद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है, सर्वथा काल्पनिकताके रूपमें असद्भूत व्यवहारनयका विषय नहीं।
आगे इसी अनुच्छेद में उत्तरपक्षने लिखा है-"आचार्यने सहकारी कारणका लक्षण करते हुए जो वाक्यरचना निबद्ध की है थोड़ा उसपर दृष्टिपात कीजिए। वे सहकारी कारणका यह लक्षण नहीं लिख रहे है कि जिसका व्यापार जिलो काम करता है सकारा हिन्तु इसने इपानपर वह यह लिख रहे है कि जिसके अनन्तर जो नियमसे होता है यह सहकारी कारण है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि बाहा सामग्री का व्यापार अन्य द्रव्य में कार्यको उत्पन्न नहीं करता । पदि उसे अन्य द्रव्यके कार्यका सहकारी कारण कहा भी गया है तो केवल इसलिये कि उसके अनन्तर अन्य प्रश्यका यह कार्य निममसे होता है" । इसकी समीक्षा निम्मप्रकार है
यह सीक है कि आचार्य विद्यानन्दने महकारीकारणके लक्षणके विषयमें यह नहीं लिखा है कि जिसका व्यापार जिसे उत्तान्न करता है वह सहकारी कारण है क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षकी मान्यतामें भी सहकारी कारण अन्य व्यके कार्यको त्रिकालमै उत्पन्न नहीं कर सकता है । परन्तु यह अवश्य है कि वह अन्य द्रव्यके कार्यमें सहायक नियमसे होता है। अतः पूर्वपक्षकी मान्यता आगमसम्मत है। किन्तु उत्तरपक्षको मान्यता आगमसम्मत नहीं है। इसे पूर्व में विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है। पूर्व में यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि तत्वार्थक्लोफवार्तिकके उक्त वचनका यह अर्थ नहीं है कि "जिसके अनम्तर जो
होता है वह उसका सहकारी कारण है" प्रत्यत जसका अर्थ यह है कि जिसके अन्तर ही जो नियमसे होता है वह उसका सहकारी कारण है । इससे यह निर्णीत होता है कि सहकारी कारणके सद्भावमें उसकी सहायतासे ही कार्य होता है । वह न तो सहकारी कारणके अभावमें होता है और न उसकी सहायताके बिना होता है । इस तरह तन्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथनमें पठित 'अनन्तर' शब्दका यही अभिप्राय लेना चाहिए कि सहकारी कारण के सद्भावमें उसकी सहायतासे ही कार्यको उत्पत्ति होती है। इसलिये उत्तरपक्षका मह दृष्टिकोण कि "कार्य सहकारी कारणको सहायताके बिना अपने आप ही हो जाया करता है" असंगत है।
आगे त. च० १०५२ पर उत्तरपक्षने लिखा है-"समयसारकलशमें जो 'न जात' इत्यादि कलश निबद्ध किया है वह भी इसी अभिप्रायसे निबद्ध किया गया है कि एक द्रव्य दूसरे दृश्यको परिणमा ता नहीं" सो उसमें पूर्वपक्षको विवाद नहीं है। इसके भी आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि "इसमें आया हा 'परसंग' पर ध्यान देने योग्य है। अपने रामरूप परिणामके कारण आत्मा परकी.संगति अर्थात परमें राग बद्धि करता है और इसीलिये उसे परके संयोगमे सुख-दुःखादि रूप फलका भागी होना पड़ता है, उससे वह बच नाये स्पष्ट है कि यहां परको सुख-दुःखादि रूप परिणमानेवाला नहीं कहा गया है। किन्तु परकी संगति करने रूप अपने अपराधको ही सुख-दुःखादिका मूल हेतु कहा गया है"। सो इसमें भी पूर्व पक्षको विवाद नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष भी परको जीवके सुखदुःखादिका कर्ता नहीं मानता है । पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि परका संयोग जीवकी सुख-दुःखादि रूप परिणतिमें निमित्त (सहायक) मात्र होता है। आगमका भी यही अभिप्राय है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
प्रश्न केवल यह है कि परसंगरूप निमित्तकारण आरमाकी विकारपरिणतिरूप कार्यमें सहायक रूपसे किंचित्कर है या सहायक न होने रूपसे अकिंचिकर है? इसका समाधान खोजनेपर यही मिलता है कि जीवकी सुख-दुःखादि परिणति परके संयोगका निमित्त मिलनेपर ही होती है। यही नहीं, जीवकी रागादिरूप परिणति भी व्यकर्मोदयके साथ परका संयोग पाकर हुआ करती है। जीव कर्मोदय के बिना और परकी संगतिके बिना अपने आप अर्थात् स्वभावसे ही रागादिरूप परिणत नहीं होता है। यही कारण है कि जीबकी रागादिरूप परिणतिको स्वभाव परिणति न मानकर विभाव परिणति हो आगममें माना गया है। अतः 'न जात' इत्यादि कलशसे उत्तरपक्ष जो यह सिद्ध करना चाहता है कि जीव परकी सहायताके बिना अपने आप ही सुख-दुस्खादिरूप या रागादिरूप परिणति करता रहता है सो उसका यह प्रयत्न निरर्थक ही है। एक बात यह भी है कि अचेतन मिट्टीको जो घटादिरूप परिभाति होती है वह कुम्भकारकी सहायताके बिना नहीं होती । इसलिये उत्तरपक्षको यह विचार करना है कि मिट्टी कामकारका संग करके घटरूप परिणत होती है या कुम्भकारका संग होनेपर वह घटरूप परिणत होती है। पहला विकल्प तो मिट्टी के अचेतन होनेके कारण संगत नहीं हो सकता है, दूसरा विकल्प ही संगत हो सकता है । लेकिन ऐसा स्वीकार कर लेनेपर उत्तरपक्षको मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें कुम्भकारको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानना अनिवार्य हो जाता है। उसे तथा तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर गम्भीरताके साथ विचार करना चाहिए।
___ आगे तक च० पृ० ५२ पर ही उत्तरपक्ष ने "जीवपरिणामहेंदु" से लेकर "कोई किसी दूसरेके परिणामका वास्तविक कर्ता नहीं है" यहाँ तक जो कुछ लिखा है वह निर्विवाद है । परन्तु उसने जो यह लिखा है कि "फिर भी यदि अपरपक्ष सहकारी कारणका यह अर्थ करता है कि वह दूसरे प्रख्यकी क्रियाको सहायक रूपमें करता है तो उसे अपने इस सदोष विचारके संशोधनके लिये समयसारगाथा ८५-८६ पर दृष्टिपात करना चाहिए।" इस विषयमें हमारा कहना है कि समयसार माथा ८५-८६ का अभिप्राय यह है कि यदि जीवको अपने भावों और पुदगलके भावों (परिणामों) का वास्तविक कर्ता माना जाता है तो उसमें परकी और अपनी दोनों क्रियाओंको फर नेकी प्रराक्ति होती है, जो आगम और अनुभवके प्रतिकूल है । इसलिये ऐसा मानने वाला जीव मिध्यादृष्टि है। इस तरह समयसारकी ८५-८६ गाथाएँ एक द्रव्यमें दुसरे द्रव्य के कार्यके वास्तविक (निश्चय) कर्तत्वका ही निषेध करती है, सहायकरूप उपचरितकर्तत्वका नहीं, क्योंकि एक द्रव्य अपनी क्रियाको करता हुआ भी दूसरे द्रव्यको क्रिया में सहायक हो सकता है, इसमें आगम, अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंसे कुछ भी विरोध नहीं है और न यह लोकव्यवहारके ही विरुद्ध है । अतः उत्तरपक्ष द्वारा ऊपर "फिर भी यदि" इत्यादिके रूपमें जो कुछ लिखा गया है वह निरर्थक है तथा उसके आमें उसने और लिखा है कि ''यदि वह उसका कालप्रत्वामत्तिवश "पदनन्तर यद्भवति" इतना ही अर्थ करता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। ऐसा अर्थ करना आगमसम्मत है" सो इसके विषयमें भी हमारा कहना यह है कि सहायक कारणको कार्यके साथ कालप्रत्यासत्तिका केवल इतना ही रूप नही है कि कार्य सहायक कारणके सद्भावमें होता है, प्रत्युत उसका रूप यह है कि कार्य सहायक कारणके सद्भावमें उसकी सहायतासे हुआ करता है, क्योंकि कालप्रत्यासत्तिका कार्योत्पत्तिके अवसरपर सहायक कारणका केवल सद्भाव अर्थ करनेसे एक तो "तदसामर्थ्य मखण्डयत्" इत्यादि आगम प्रमाणसे विरोध आता है। दूसरे, कार्योत्पत्तिके अवसरपर विद्यमान सहायक कारणसे अतिरिक्त अन्य वस्तुओंकी भी कार्यके साथ कालप्रस्पासत्ति स्वीकार करनेका प्रसंग उपस्थित होता है और तीसरे, कालप्रत्यासत्तिका केवल सदभाव अर्ष स्वीका
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जयपूर (खानिया) तत्वचर्चा और उसको समीक्षा
करनेसे सहायक कारणको सहायक कारण कहना भी असंगत हो जाता है । उत्तरपक्षके सामने ये सब समस्यायें हैं, जिनका समाधान उसके लिये संभव नहीं है ।
आगे उत्तरपक्षनेत० च० ० ५३ पर जो यह लिखा है कि "जीवम्हि हेदुभूदे" इत्यादि गाथा में आया हुआ “उवयारमण " पद ममद्भूत अर्थका सूचक है । सो इसमें भी पूर्वपक्षको विवाद नहीं है । परन्तु उसने आलापपद्धति के आधारपर जो असद्भूत व्यवहारको कल्पनारोपित मात्र सिद्ध करनेका प्रयास किया है उसका निराकरण पूर्वमें हो किया जा चुका है ।
आगे उत्तरपक्षनेत च० ५० ५३ पर ही लिखा है कि "परद्रव्य अन्य द्रव्यके कार्यका वास्तविक निमित्त नहीं और न वह कार्य उसका निमित्तिक है । यह व्यवहार है जो असद्भूत है । यही बात "उक्यारमत्तेण " इस पद द्वारा सूचित की गई है" सो उसके द्वारा निमित्तिला और नेमित्तकताको जो असदभूत व्यवहार माना गया है वह तो ठीक है, परन्तु निमित्तता और नैमितकता में दोनों सहाय्य सहायक भावके रूपमें वास्तविक ही है, कल्पनारोपित मात्र नहीं हैं ।
कथन ३३ और उसकी समीक्षा
पूर्व सहकारीकरणको कार्यके प्रति कार्यकारिताकी सिद्धिके लिये त० ० पृ० १८ पर अष्टसही पृष्ठ १०५ पर निर्दिष्ट अष्टराती के निम्नलिखित वचनको उद्धृत किया है
'तदसामथ्र्यंमखण्डयद किचित्कर कि सहकारिकारणं स्यात् ?"
I
इसका अर्थ उसने यह किया है कि "उसकी अर्थात् उपादानको असामथ्र्यका खण्डन नहीं करते हुए सहकारी कारण यदि अकिचित्कर ही बना रहता है तो उसे सहकारी कारण कहा जा सकता है क्या ? अर्थात् नहीं कहा जा सकता है । राो इस पर विचार करते हुए उत्तरपक्षने त० च० पृ० ५३ पर यह कथन किया है -- "मीमांसादर्शन शब्दको सर्वथा नित्य मानकर सहकारी कारणसे ध्वनिकी प्रसिद्धि मानता है और फिर भी यह कहता है कि इससे शब्द अविकृत रूपसे नित्य ही बना रहता है । अष्टशती (अत्री पृ० १०५) का " तदसामर्थ्यमखण्डयत्" इत्यादि वचन इसी प्रसंग में आया है। इस द्वारा भट्टाकलंकदेवने मीमांसादर्शनपर दोषका आपादन किया है । इस द्वारा जैन दर्शनके सिद्धांत का उद्घाटन किया है, ऐसा यदि अपरपक्ष समझता है तो इसे हम उस पक्ष की भ्रमपूर्ण स्थिति हो मानेंगे। हमें इसका दुःख है कि उसकी ओर से अपने पक्ष के समर्थन में ऐसे वचनों का भी उपयोग किया गया है ।" इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है
भट्टाकलंकदेव ने अपने ग्रन्थ अष्टवाती में " तदसामर्थ्य मखण्डयत्" इत्यादि वचनका निर्देश मीमांसादर्शन द्वारा शब्दको सर्वथा नित्य मानकर सहकारी कारणसे ध्वनिकी प्रसिद्धि क्रियं जानेपर दोषका आपादान करनेके लिये फिया है | परन्तु इससे सहकारी कारण की कार्य के प्रति पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत कार्यकारिताको सिद्धिमें कोई बाघा नहीं आती है। यदि उत्तरपक्षको इसमें कोई बाधा समझ में आई थी तो उसे उसका स्पष्ट निर्देश करना चाहिए था । वास्तव में भट्टाकलंकदेवका भावाय उक्त कथन करनेमें यह है कि मीमांसादर्शन में एक ओर तो शब्दको सर्वथा नित्य मानकर सहकारी कारणसे ध्वनिकी प्रसिद्धि की गई है और दूसरी ओर ऐसी स्थिति में भी शब्दको अविकृत रूपसे नित्य हो स्वीकार किया गया है, जो असंभव है, क्योंकि भट्टा कलंकदेव के कथनानुसार यदि सहकारी कारण शब्दकी ध्वनि रूपसे परिणत न हो सकने रूप असामर्थ्यका खण्डन नहीं करता है-वह यहां पर सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है तो उसे सहकारी कारण नहीं कहा
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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जा सकता है । इस तरह इससे अहाँ एक और मीमांसा दर्शनके प्रति दोषका आपादन होता है वहीं दूसरी और इरारी जैन दर्शनके सिद्धान्तका उद्घाटन भी हो जाता है। अतः भ्रमपूर्ण स्थिति पूर्वपक्षकी न होकर उत्तरपक्षको ही हो रही है । उत्तरपक्ष उक्त वचन के विषयमें इस तथ्यको समझ ले तो उसकी वह भ्रमपूर्ण स्थिति समाप्त हो जायेगी तथा पूर्वपक्षके प्रति दुःख प्रगट करनेको उसे कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी।
___ उत्तरपक्ष का कहना है कि अष्टशतीफे उक्त बघनसे जैन दर्शनके सिद्धांतका उद्घाटन नहीं होता है, क्योंकि उसका यह भ्रम बना हुआ है कि जैन दर्शन सहकारी कारणको कार्यके प्रति अकिषिरकर ही स्वीकार करता है। किन्तु यह स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें सहकारी कारणको कार्योत्पत्ति के प्रति कार्यकारी स्वीकार किया गया है । यह हम प्रमेयकमलमार्तण्ड (२-१, पृ० १८७) के उद्धरण द्वारा पूर्वमें विशेषरूपसे स्पष्ट कर आये है और उसका अर्थ भी यहाँपर दिया गया है ।
तात्पर्य यह कि प्रमेयकमलमार्तण्डका यह कथन सहकारी कारणको कार्योत्पत्ति के प्रति स्पष्ट रूपसे कार्यकारी सिद्ध करता है। पूर्वपक्षने त. च.१०४०६ पर भी प्रमेयकमलमार्तण्डके उस उद्धरण को दिया है तथा स्वयं उत्तरपक्षने भी तब च ५० ३८५ पर उसे दिया है। पूर्वपक्षने तच में सर्वत्र ऐसे बहतसे आगमप्रमाणोंके उद्धरण दिये है, जिनसे कार्योत्पत्ति के प्रति सहकारी कारण की कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। अत: उत्तरपक्षका सहकारी कारणको कार्यके प्रति सर्वथा अकिंचित्कर मानना असंगत है। उत्तरपक्षको पूर्वाग्रहका परित्याग करके तटस्थ भावसे वस्तुस्थितिपर विचार करना चाहिए।
___ उत्तरपक्षने उक्त अनुच्छेदमे आगे यह लिखा है कि "सर्वपा नित्यवादी मीमांसक यदि पान्दको सर्वथा नित्य मानता रहे, फिर भी वह उसमें ध्वनि आदि कार्यकी प्रसिद्धि सहकारी कारणोंसे माने और ऐसा होनेपर भी वह शब्दों में विकृतिको स्वीकार न करे तो उसके लिये यही दोष तो दिया जायेगा कि सहकारी कारणोंने उसकी सामर्थ्यका यदि खण्डन नहीं किया सो उन्होंने ध्वनि कार्य किया यह कैसे कहा जा सकता है, वे तो अकिंचित्कर ही बने रहे । स्पष्ट है कि इससे अपरपक्षके अभिप्रापकी अणु मात्र भी पुष्टि नहीं होती।"
___ मालूम पड़ता है कि उत्तरपक्षने ऐसा कहते समय प्रकृतका गहराईसे विचार नहीं किया है, क्योंकि उसके कयनसे ही स्पष्ट है कि शब्दोंमें ध्वनि कार्यको प्रसिद्धिके प्रति सहकारी कारण अकिचिस्कर नहीं बने रहते हैं, अपितु उनके सहयोगसे ध्वनि रूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट शब्द ध्वनि रूप परिणत होने में समर्थ होते है । अन्यथा उन्हें सहकारी कारण नहीं कहा जा सकता है। उसरपक्षके इस वक्तव्यसे सहकारी कारणोंकी कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारिता स्पष्ट सिद्ध होती है । अतएव उसका यह लिखना असंगत है कि ''स्पष्ट है कि इससे अपरपक्षक अभिप्रायको अणु मात्र भी पुष्टि नहीं होती है" । जबकि उसके ही अभिप्रायकी पुष्टि होती है।
__ उत्तरपक्षने वहीं यह लिखा है कि "सहकारी कारणोने उसकी सामर्थ्यका यदि खण्डन नहीं किया तो उन्होंने ध्वनि कार्य किया यह फैसे कहा जा सकता है"? सो इसमें जो उस 'सामर्थ्य' शब्दके स्थान में सामर्थ्य शब्दका परिवर्तन किया है वह उसकी अनवधानताका सूचक है, क्योंकि अष्टशतीके उक्त बचनमें 'सामर्थ्य' शब्दका पाठन होकर 'असामथ्र्य' शब्दका ही पाठ है और दही प्रकृतसंगत है। यदि उत्तरपक्षने 'असामय' शब्दके स्थानमें 'सामर्थ्य' शब्दका प्रयोग बुधिपूर्वक किया है तो यह उसका छस है क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार एक वस्तु दूसरी वस्तु की सामर्थ्यका खण्डन कभी नहीं कर सकती है। जिनागममें सहकारी कारणसे उपादान (कार्यरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट वस्तु) के सामर्यका खान होना नहीं बतलाया है, अपितु उसकी
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
असामर्थ्य का खण्डन होना ही बतलाया गया है । अष्टशतीके उक्त वचन तथा अन्य आगम प्रमाणसे यही अवगत होता है कि सहकारीरूप वस्तु किसी दूसरी कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादानरूप वस्तुकी कार्यरूप परिणत न हो सकनेरूप असमार्थ्यका हो खण्डन करती हूँ, न कि उसकी सामथ्र्यका तात्पर्य यह हैं कि उपादान शक्ति ( कार्यरूप परिणत होने की योग्यता ) विशिष्ट वस्तु जो कार्यरूप परिणत होने में असमर्थ रहती है उसकी उस असमर्थताका खण्डन करके सहकारी कारण उसे कार्यरूप परिणत होनेके लिये समर्थ बना देता है । जैसे चलनेकी योग्यता विशिष्ट पंगु मनुष्य तभी गमन कर सकता है जब उसे लाठीका सहारा मिल जाता है। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि लाठी उस पंगु व्यक्तिको चलनेको योग्यताका खण्ड कर देती है तथा ऐसा भी नहीं समझना चाहिए कि सहकारी कारण उपादान शक्तिसे रहित वस्तुमें उस उपादान शक्तिको उत्पन्न कर देता है । जैसे चलने की योग्यता रहित छोटा शिशु लाठीका सहारा मिल जानेपर भी गमन नहीं कर सकता है। इस प्रकार सहकारी कारणका कार्य न तो विवक्षित उपादान शक्ति से रहित वस्तुमें उपादानशक्तिको उत्पन्न करना है और न विवक्षित उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तुको उस उपादान शक्तिको समाप्त करना है, केवल विवक्षित उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तुको कार्यक्षम बनाना ही सहकारी कारणका कार्य है। इसका आशय यह है कि सहकारी कारणका सहयोग प्राप्त होनेपर ही उपादान कारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है ।
उत्तरपक्षनेत० ० ० ५३ पर आगे लिखा है कि "अपरपक्षने अष्टशतीके उक्त वचन में आये हुए 'तत्' शब्दका अर्थ 'उपादान' जान-बूझकर किया है जबकि उसका अर्थ 'सर्वथार नित्य शब्द' है। यह सूचना हमने पूर्व की हैं और इस अभिप्राय से की है कि जैनदर्शनमें उपादानका अर्थ 'नित्यानित्य वस्तु' किया गया है किन्तु मीमांसा दर्शन शब्दको ऐसा नहीं स्वीकार करता” सो उत्तरपक्षके इस कथनमें पूर्वपक्ष को कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु अष्टशती के 'तत्' शब्दका अर्थ "सर्वथा मित्व शब्द" होनेपर भी प्रकरणवश उसका वहाँ उपादान अर्थ करना असंगत नहीं है, भले ही मीमांसक ध्वनिकी अपेक्षा उपादान कारणभूत शब्दको सर्वथा नित्य माने व जैन सभी उपादान कारणभूत वस्तुओंको नित्यानित्य माने । इतना अवश्य है कि वस्तुको सर्वथा नित्य मानने से उसका कार्यरूप परिणत होना असंभव है । नित्यानित्य मानने से ही वस्तु सहकारी कारणका सहयोग प्राप्त होनेपर कार्यरूप परिणत हो सकती है। वस्तुतः यहाँ 'सहकारी कारण' के प्रयोगते तत् शब्द से 'उपादान कारण' का ग्रहण ही अभीष्ट है। इस तरह पूर्वपक्षने प्रकरणवश "तत्" शब्दका यदि उपादान अर्थ किया वो इससे जैन सिद्धान्तका विघात नहीं होता हूँ ।
कथन ३४ और उनकी समीक्षा
आगे उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ५३ पर ही लिखा है- "अपरपशने समयसार गाया १०५ की आत्मख्याति टीकाको उपस्थित कर जो अपने विचारोंकी पुष्टि करनी चाही है वह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त टीकाके अन्त में आये हुए "स तु उपचार एव न तु परमार्थ" इस पदका अर्थ है - वह विकल्प तो उपचार ही हैं अर्थात् उपचरित अर्थको विषम करनेवाला ही है। परमार्थरूप नहीं है अर्थात् यथार्थ अर्थको विषय करने वाला नहीं है" ।
"स्
ऊपर उसरपक्षने पूर्वपक्ष द्वारा किये गये समयसारगाथा १०५ की आत्मख्याति टीकाके उल्लिखित अर्थके विषय में गलत चित्रण किया है। उत्तरपक्ष ने अपने वक्तव्यमें जो लिखा है कि "टीकाम आयें हुए
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शंका समाधान १ की समीक्षा तु उपचार एव न तु परमार्थ: " इस पदका अर्थ है वह विकल्प तो उपचार ही है अर्थात् उपचरित अर्थको विषय करने वाला ही है, परमार्थरूप नहीं है अर्थात् यथार्थ अर्थको विषय करने वाला नहीं है"। उसमें उत्तरपक्षने "स तूपचार एव न तु परमार्थ" इसका अर्थ करते हुए यह दिखलानेका प्रयत्न किया है कि इसमें आये हुए "स:" पदका अर्थ "वह विकल्प" ही स्वीकार करना उचित है। इस सम्बन्धमें मेरा कहना हैं कि पूर्वपक्षने "स तूपचार एव न तु परमार्थः " इस पदका अर्थ करते हुए "सः" पदका "आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह अर्थ किया है । उमके अतिरिक्त और अभिप्राय नहीं लिया जा सकता है । इसी तरह पूर्वगभने 'म तूपचार एवं इस संपूर्ण पदका जो "आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह उपचार ही है अर्थात् निमित्तनैमित्तिक भावकी अपेक्षासे ही है" यह अर्थ किया है, इससे वह यह बताना चाहता है कि यतः उपचारकी प्रवृत्ति आलापपद्धतिके वचन के अनुसार मुख्यके अभाव और निमित्त तथा प्रयोजनके सद्भावमें ही हुआ करती है । अतः इससे स्पष्ट होता है कि आत्माको जो उपचारसे पुद्गल कर्मका कर्त्ता कहा गया है वह इसलिए कि एक तो आत्मा स्वयं (आप) पुद्गलकर्मरूप परिणत नहीं होता। दूसरे, वह जब तक अपना अज्ञानरूप परिणमन करता रहता है तब तक वह पुद्गल के कर्मरूप परिणमनमें सहायक हुआ करता है, जो इस बातको सिद्ध करता है कि उपचार केवल आकाश कुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र न होकर निमित्तनैमित्तिक भावको वास्तविकता के आधारपर परमार्थ, मास्तविक और सत्य है । इस तरह उतरपक्षनेत० पु० ५३ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त अनुच्छेदमें ही आगे जो यह लिखा है कि "हमें आश्चर्य है कि अपरपक्षने उक्त वाक्यके प्रारम्भ में आये हुए "स:" पदका अर्थ "विकल्प" न करके "आत्मा द्वारा पुद् गलका कर्मरूप किया जाना" यह अर्थ कैसे कर लिया" । सो यह उसने पूर्वपक्ष के अभिप्रायको न समझ गलत समझा है, जैसा कि ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट हैं । इसी तरह उसने इसी अनुच्छेदमें आगे जो यह लिखा है कि "निमित्त व्यवहार और नैमित्तिक व्यवहार उपचरित होता है" सो इसमें हमें एतराज नहीं है । परन्तु इसके आगे जो यह लिखा है कि " और यह तब बनता है जब परने परके कार्यको किया" ऐसे विकल्पकी उत्पति होती हैं" सो उसका ऐसा लिखना संगत नहीं है, क्योंकि "परने परके कार्यको किया" यह विकल्प तो उपचार ही है और यह तब बनता है जब एक वस्तु दूसरी वस्तुको कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण होती है ।
उपचारकी स्थिति भिन्न-भिन्न स्थलों में भिन्न-भिन्न प्रकारसे निर्मित होती है, जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
(१) निमित्तकारणको कार्यके प्रति जो उपचारित कारण कहा जाता है उसमें हेतु यह है कि निमित्त. कारण उपादानकारणकी तरह कार्यरूप परिणत न होकर कार्योत्पत्ति में सहायक मात्र हुआ करता है। लेकिन जिस प्रकार उपादानकारणका कार्यरूप परिणत होना वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तकारणका उपादान कारणको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होना भी वास्तविक । घटोत्पत्ति में निमित्तकारणभूत कुम्भकार मिट्टीकी तरह रूप परिणत न होकर मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें वास्तविक रूपसे सहायक होता है । इसी लिए उसे उपचारित कारण कहा जाता है ।
(२) निमित्तकारणको कार्यके प्रति जो उपचरितकर्त्ता कहा जाता है वह आलाप पद्धतिके उपचारलक्षणके अनुसार उसमें मुख्य कर्तृत्वका अभाव और वास्तविक रूपमें सहायक होने रूप से निमितकारणताका सद्भाव १. मुख्याभावे सति निमित्ते प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते ।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा होनेसे कहा जाता है। यह हम अनेक जगह कह चुके हैं कि जैसे घटोत्पत्ति के प्रति निमित्तकारणभूत कुम्भकार घटका मुख्य कर्ता तो नहीं है, क्योंकि कुम्भकार घटरूप परिणत नहीं होता, फिर भी मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें वह वास्तविक रूपमें सहायक होता है । अतः उसे घटका उपचरितकर्ता कहा जाता है।
उपचरितकारण और उपचरितकर्ता दोनोंमें यह अन्तर है कि निमित्त कारण कार्यके प्रति सहायक हाने रूपसे वास्तविक कारण होकर भी कार्यसे भिन्न वस्तुरूप होता है, इसीलिए उसे उपचरित कारण कहते है और कार्यसे भिन्न उस वस्तुमें सहायक होने रूपसे वास्तविक निमित्तकारणताके आधारपर आलापपञ्चतिके अनुसार कर्तत्वका आरोप किया जाता है। इसलिए उसे उपचारतकर्ता कहा जाता है। यतः उपचरित कारण और उपचरिकर्ता दोनों ही कार्यसे भिन्न वस्तुरूप होते हैं, अतः दोनों ही असद्भूत व्यवहारनयके विषय होते हैं।
(३) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चारों वस्तुओंको उपचरित वस्तु कहा जाता है। इसका कारण यह है कि ये चारों वस्तुएँ नाना अणुओंके पिण्डस्प होनेसे सखण्ड हुआ करती है । तथा सखण्ड होकर भी स्कन्ध रूप से अखण्ड होती है। अतः स्कन्धरूपसे अखण्डरूपताको प्राप्त ये चारों वस्तुएँ अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयका विषय है और चूंकि नाना अणुओंके पिष्टरूप होनेसे उनमें सखण्डरूपता भी रहती है, अतः उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका भी विषय होती है।
आलापपद्धतिके उल्लेखानुसार जो उपचारको प्रवृति होती है वह भी भिन्न-भिन्न स्थलोंमें भिन्नभिन्न प्रकारके निमित्तोंके माघारपरे होती है। ऊपर कुम्भकारमें घटकर्तृत्वके उपचारको प्रवृत्तिके विषय में बतलाया जा चुका है कि कुम्भकार इसलिए उपचरित कर्ता है कि वह घटकार्यके प्रति सहायक होनेके आधारपर वास्तविक निमित्त कारण होता है। यहां आलापपद्धतिके अनुसार उपचारप्रवृत्तिके अन्य स्थलोंका भी दिग्दर्शन कराया जाता है ।
मिट्टीके घड़ेको जो घीका घड़ा कहा जाता है वह उपचार रूपमें ही कहा जाता है और वह इस आधारपर कहा जाता है कि उस घड़ेमें पीरूपताके अभावके साथ घड़ा और घी में विद्यमान संयोग संबंधाश्रित वास्तविक आधाराधेयभाष निमित्त बना हुआ है। "अन्न ही प्राण है" यहाँपर जो अन्नको प्राण कहा जाता है बह उपचारसे कहा जाता है और वह इस लिए कि अन्नमें प्राणरूाताके अभाघके साथ प्राणोंकी सुरक्षाकी वास्तविक सहायकता पाई जाती है। "गंगा नदी में टपरा है" इस कथनका अर्थ है कि 'गंगाके तटपर टपरा है' सो यह सपरित अर्थ है और यह अर्थ इस आधारपर किया जाता है कि गंगा नदीमें टपराकी स्थिति रूप मुख्याधुके अभावके साथ गंगा और तटमें वास्तविक सामीप्य पाया जाता है। लोकमें बालकको सिंह कह दिया जाता है वह भी उपचारसे कहा जाता है और वह इस आधारपर कि यद्यपि बालकमें सिंह, रूपताका तो अभाव है, किन्तु सिंहके समान गुणोंका वास्तविक रूपमें सद्भाव है । "मंच (मचान) चिल्लाते है" इसका जो 'मंचपर बैठे पुरुष चिल्लाते हैं, यह अर्थ किया जाता है वह भी उपचारसे किया जाता है, क्योंकि उसमें मंचरूप मुख्यार्थक अभावके साथ मंच और पुरुषोंमें वास्तविक संयोग पाया जाता है । "धनुष दौड़ता है" इस वाक्यका जो 'घुनधारी पुरुष दौड़ता है' यह अर्थ किया जाता है वह भी उपचरित अर्थ है
और वह इसलिए कि यहाँ पर धनुष रुप मुख्यार्थके अभाबके साथ धनुष और पुरुषमें वास्तविक संयोग है। इस विषयमें लोक और आगममें और भी ऐसे उदाहरण मिल सकते हैं, जिनमें उपर्युक्त प्रकार मुख्यरूपताके अभावफे साथ पृथक-पृथक् प्रकारके निमित्तोंका वास्तविक सदभाव पाया जाता है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
उपचार-प्रवृत्तिके इन उदाहरणोंके प्रकाश में प्रकृप्तमें भी ज्ञातव्य है कि समयसार गाथा १०५ और उसकी टीका मात्माको जो पुद्गलकर्मका कबितलाया गया है वह उपचारसे बतलाया गया है, जो इस आधारपर सिद्ध होता है कि आत्मामें पुद्गलकर्मके कर्तृत्वका ययार्थ रूपमें अभाव है, क्योंकि कर्मरूप परिणमन आत्माका न होकर पुद्गलका ही होता है । तथा समयसार माया १०५ और उसकी टीकाके अनुसार वह यात्मा पुदगलके उस कर्मरूप परिणमनमें सहायक होमे रूपसे वास्तविक निमित्त (सहायक) होता है । अतः यहाँपर भी आलापपद्धतिके पूर्वोक्त वचनका समन्वय होता है।
तात्पर्य यह है कि आत्मामें पुद्गलकर्मके उपचरितकर्तृत्वकी सिद्धि के लिए समयसार गाथा १०५ और उसकी टोकाके अनुसार उसमें पुद्गलके कर्मरूप परिणमनके प्रति सहायक होने रूपरो वास्तविक निमित्तकारणताको स्वीकार करना आवश्यक है। अर्थात समयसार गाथा १०५ और उसकी आत्मस्याति टोकामें यही बतलाया गया है कि जीवके हेतुभूत अर्थात् सहायक होने रूपसे कारण होनेपर ही पुद्गलकर्मका वन्धरूप परिणमन देखा जाता है, अतः "जीवने कर्म किया' यह उपचान्से कहा जाता है। उसी टीका यह बात और भी स्पष्ट रूपसे मतला दी गई है कि जबतक आत्माका परिणमन अज्ञानरूप ( मोह, राग और देष रूप) होता रहता है तबतक ही पुद्गलका कर्मरूप परिणमन होता है और जब आत्माका अज्ञानरूप ( मोह, राग और द्वेषरूप) परिणमन होना समाप्त हो जाता है तब पूदगलका कर्मरूप परिणमन होना भी समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि नीवको पुद्गलके कर्मरूप परिणमनको रोकनेके लिए अपने मोह, राग और 'ष रूप अज्ञानको समाप्त करने की प्रेरणा आगममें की गई है।
इससे ज्ञात होता है कि आत्मामें पुद्गलकमकर्तृत्वका उपचार आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं है, अपितु साहाय्य-सहायक भावरूप वास्तविक निमित्त नैमित्तिकभावपर आधारित है। सर्वत्र उपचारप्रसिद्धिके लिए इसी प्रक्रियाका अवलम्बन उपयुक्त होता है।
___ इस तरह उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त बक्तव्यमें जो कुछ लिखा है उसके विषयों पूर्वपक्षका केवल इतना ही मन्तव्य है कि जहाँ उत्तरपक्ष निमित्त (सहायक) कारणको कार्यके प्रति सहायक न होने रूपसे स्वीकृत अकिंचित्करताके आधारपर अवास्तविक मानता है और निमित्तकारणभूत वस्तुमें स्वीकृत उपपरित कर्तृत्वको आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोगित मात्र मान लेता है वहाँ पूर्वपक्ष तस निमित्त (सहायक) कारणको कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे स्वीकृत कार्यकारिताके आधारपर वास्तविक मानता है और उस निमित्तकारणभूत वस्तुमें स्त्रीकृत उपवरित कर्तृत्वको आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित न मानकर उसे वास्तविक ही मानता है। इस अभिप्रायसे ही पूर्वपक्षने समयसार गाया १०५ की टीकाका अर्थ करते हुए जो यह लिखा है कि "आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह उपचार ही है अर्थात् निमित्तनमित्तिक भावकी अपेक्षासे ही है। परमार्थ भूत नहीं है अर्थात् उपादानोगादेय भावको अपेक्षासे नहीं है।" वह संगत है।
कथन ३५ और उसकी समीक्षा
(३५) उत्तरपक्षने त० च. प० ५४ पर पूर्वपक्षके प्रति यह कथन किया है कि "अपरपक्षाने 'यः परिणमति स कर्ता' इत्यादि कालाको उद्धृत कर 'यः परिणमति' पदका अर्थ किया है. -''जो परिणमन होता है अर्थात जिसमें या जिसका परिणमन होता है।" जबकि इस पदका वास्तविक अर्थ है-"जो परिणमता है
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जयपुर (खनिया) तत्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा
या परिणमन करता है।" उक्त पद्य में "यः परिणमति" पद है "पत्परिणमनं भवति" पद नहीं है, नहीं मालूम, अपरगक्षने उक्त पदके यथार्थ अर्थको न करके स्वमतिसे अन्यथा अर्थ क्यों किया। स्पष्ट है कि बह पक्ष उपादानको यथार्थकर्ता बनाये रखने में अपने पक्षकी हानि समझता है। तभी तो उस पक्षके द्वारा इस प्रकारसे अर्थमें परिवर्तन किया गया ।"
__उत्तरपक्षके इस कथनकी समीक्षामें मैं सर्वप्रथम यह कहना चाहता हूँ कि उसने (उत्तरपक्षने) "य: परिणमति" पदके "जो परिणमन होता है" इस अर्थको लेकर जो यह निष्कर्ष निकाला है कि "स्पष्ट है कि यह पक्ष उपादानको यथार्थ कर्ता बनाये रखने में अपने पक्षकी हानि समझता है तभी तो उस पक्षके द्वारा इस प्रकारसे अर्थमें परिवर्तन किया गया।" सो उसका उक्त अर्थवे आधारपर ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है, जयोंकि उस अयंका इस तरहके निष्कर्षके साथ कोई मेल नहीं बैठता है। दूसरे, तत्त्वममि "यः परिणमति पदका जो यह अर्थ पाया जाता है कि "जो परिणमन होता है" सो यह पूर्वपक्ष पारा स्वीकृत अर्थ नहीं है । उसके द्वारा स्वीकृत अर्थ तो यह है कि "जो परिणमित होता है, जिसकी पुष्टि पूर्वपक्ष द्वारा किये गये "अर्थात जिसमें या जिसका परिणमन होता है। इस स्पष्टीकरणसे हो जाती है, क्योंकि पह स्पष्टीकरण "जो परिणमित होता है" इस अर्थका ही हो सकता है । "जो परिणमन होता है" इस
का नहीं। इस बातको उसरपक्ष न समझता हो, ऐसा नहीं है। वास्तव में पूर्वपक्षने "यः परिणमति" पदका यद्यपि "जो परिणमित होता है" यही अर्थ किया था, परन्तु टाइप करने वालेकी भलसे उसके स्थानमें "जो परिणमन होता है" यह टाइप हो गया, जिसका संशोधन नहीं हो सका । अतः उत्तरपक्षने इस सामान्य अशुखिको लेकर जो पूर्वपक्षकी आलोचना की है वह केवल बातका बवण्डर बनाना है । अतः उक्त पदका अर्थ पूर्वपक्षने 'जो परिणमित होता है' यह किया है, जिसे उत्तरपक्ष अस्वीकार नहीं कर सकता। कथन ३६ और उसकी समीक्षा
(३६) उत्तरपक्षने त• च० पृ० ५४ पर यह कथन किया है कि "आगममें निमित्त व्यबहार और निमित्तकर्ता आदि व्यवहारको सूचित करनेवाले वचन पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध होते है इसमें संदेह नहीं, पर उसी आगममें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि ये सब बचन असद्भूत व्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर ही भागममें निबद्ध किये गये है।"}-इसके लिए देखो, समयसार गाथा १०५ से १०८ तथा उनकी आत्मख्याति टीका, बृहदव्य संग्रह गाथा ८ की टीका आदि)।
___ इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्ष भी ऐसे सभी वचनोंको असद्भूतव्यवहारनयके ही वचन मानता है । परन्तु दोनों पक्षोंमें अन्तर यह है कि जहां उत्तरपक्ष असद्भूतव्यवहारनयकै विषयको उपचरित मानकर भी उस उपचारको कल्पनारोपित मात्र मानता है वहीं पूर्वपक्ष असद्भुतस्यवहारनयको उपचरित मानकर भी उस उपचारको कल्पनारोपित मात्र न मानकर उपचरित रूपमें वास्तविक ही मानता है। कथन ३७ और उसकी समीक्षा
(३७) पूर्वपक्षने त० च पृ० १९ पर उत्तरपक्षके प्रति यह कथन किया है कि इसमें "जो परिगमित होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है यह कर्ता है" कर्ताका यह लक्षण उपादानोंपादेमभावको लक्ष्य में रखकर ही माना गया है। परन्तु इसपर ध्यान न देते हए इस लक्षणको सामान्यरूपसे
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१११ कर्ताका लक्षण मानकर निमित्त नमित्तकभावको अपेक्षा सामनन प्रतिपादित कर्तृ-कर्मभावको उपचरित (कल्पनारोपित) स्वीकार करके आपके द्वारा निमित्तकर्ताको अकिंचित्कर (कार्य के प्रति अनुपयोगी) करार दिया जाना गलत ही है" अपने इस कथनके समर्थन में पूर्वपश्चने वह पर समयसार गाथा १०० और उसकी आत्मख्याति टीकाको भी उधत किया है।
पूर्वपक्षके इस कथनपर उत्तरपक्षने त ब.० ५४ पर यह कथन किया है-"यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार आगममें उपादानकर्ता और उपादानकारणके लक्षण उपलब्ध होते है और साथ ही उन्हें यथार्थ कहा गया है उस प्रकार आगममें निमित्तकर्ता या निमित्तकारणके न तो कहीं लक्षण हो उपलब्ध होते है और न ही वहाँ उन्हें यथार्थ ही माना गया है, प्रत्युत ऐसे अर्थात् निमित्तकर्ता या निमित्तकारणपरक घ्यबहारको अनेक स्थलोंपर अशानियोंका अनादिरून लोकव्यवहार ही बतलाया गया है । देखो, समयसार गाथा ८४ और उसकी दोनों संस्कृत टीकार्य आदि ।'
उत्तरपक्षका यह कथन मिथ्या है क्योंकि आगममें उपादानकर्ता और उपादानकारणके लक्षणोंको तरह निमितकर्ता और निमित्तकारणके भी लक्षण उपलब्ध है, जिसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं
(१) आचार्य विद्यानन्दने त० श्लोक वा० १० १५१ पर निमित्तकारणका निम्नलिखित लक्षण निर्धारित किया है
'यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणम् ।' अर्थात् जिसके अनन्तर ही जो नियमसे होता है वह उसका सहकारी (निमिस) कारण है। इस विषयको पूर्व में विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है और पूर्वपक्षने इसे तत्त्वचर्चा में भी स्पष्ट किया है।
(२) आचार्य अकलंकवने अष्टशती ( अष्टसहस्री पृ० १०५) में निमित्तकारणको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित वचन निबद्ध किया है
'तदसामध्यमखण्डयदकिंचित्करं किम् सहकारिकारणं स्यात् ?' अति उपादान (कार्यरूप परिणत होनेको योग्यता विशिष्ट वस्तु) की असामर्य (कार्यरूप परिणत न हो सकने रूप अशक्ति) का खण्डन नहीं करता हुआ अकिचित्कर रहनेपर सहकारी कारण हो सकता है क्या? अर्थात् नहीं हो सकता है । इसमें निमित्तकारणका लक्षण स्पष्ट परिलक्षित है और पूर्वपक्षने भी तत्त्वचर्चामें इसे स्पष्ट किया है।
(३) आचार्य प्रभाचाद्रने भी प्रमेयकमलमार्तण्डके पृ० १८७ पर "यच्चोच्यते" इत्यादि कथन द्वारा सहकारी (निमित्त) कारणको कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारी स्वीकार किया है, जिससे सहकारी कारणका लक्षण बताना प्रभाचंद्रको इष्ट है। इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है और पूर्वपक्षने भी तत्त्वचर्चा में स्पष्ट किया है।
(४) आचार्य विद्यानन्दने त० श्लो० वा० के १० १५१ पर "तदेव व्यवहारनयसमाश्रयणे" इत्यादि द्वारा प्रतिपादन किया है कि असदभूतव्यवहारतयका विषयभूत निमित्त-मैमित्तिकभाव रूप कार्यकारणभाव पारमार्थिक ही होता है, कल्पनारोपित नहीं होता। इससे भी निमित्तकारणका लक्षण ध्वनित होता है। इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है और पूर्वपक्षाने तत्त्वचर्चा में भी स्पष्ट किया है ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इन प्रमाणोंसे यह स्पष्ट है कि आगम में निमित्तकारणका लक्षण भी निर्धारित किया गया है तथा आग में जिसप्रकार उपादानकारणको कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर कार्यकारी मानकर उसकी वास्त विकताको स्वीकार किया गया है उसी प्रकार आगम में निमित्त कारणको उपादानकारणकी कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधारपर कार्यकारी मानकर उसको भी वास्तविकताको स्वीकार किया गया है ।
११२
हाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वस्तुतस्वकी वास्तविकता अनेक प्रकारसे अवगत की जाती है । उपादानकारणको जो वास्तविक कहा गया है वह इस आधारपर कहा गया है कि स्वयं वह कार्यरूप परिणत होता है । तथा निमित्तकारण यद्यपि स्वयं कार्यरूप परिणत नहीं होता तथापि वह उपादानकी कार्यरूप परिणति में अनिवार्य सहायक होने रूपसे कार्यकारी कारण होता है, अतः उसे भी वास्तविक माना जाता है। जैसे जलको शीतलता उसका स्वभावधर्म होनेसे वास्तविक है । किन्तु उष्णता स्वभावधर्म न होनेपर भी समयसार गाथा १४ की आत्मख्याति के अनुसार भूतार्थ ( वास्तविक ) है क्योंकि वह अनिके संयोगसे जन्य जलकी ही विकृति है ।
यद्यपि जलमें अग्नि संयोगसे उत्पन्न होनेवाली उष्णता तथा कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादान रूप वस्तुसे भिन्न निमित्तकारणरूण वस्तुमें उस कार्यके प्रति सहायक होते रूपसे पाई जानेवाली निमित्तकारणता दोनों ही वास्तविक सिद्ध होती हैं। परन्तु उनमें यह भेद है कि जहाँ जलमें पाई जानेवाली शीतलता जलका स्वभावधर्म होनेरो निश्चयनयका विषय है तथा जलकी परिणति होनेसे सद्भूतव्यवहारनयका और उसी जल में पाई जानेवाली उष्णता अग्निसंयोगजन्य होनेसे असद्द्भूतव्यवहारनयका विषय है वहाँ उपादानकारणता कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुका नित्यता (द्रव्य) के रूपमें स्वभावधर्म होनेसे निदचयनयका और अनित्यता ( पर्याय) के रूप में स्वभावधर्म होने से सद्भूतव्यवहारनयका विषय है तथा निमित्तकारणता कार्यरूप परिणत होने वाली वस्तुसे भिन्न कार्योत्पत्ति में सहायक होने वाली वस्तुका धर्म होनेसे असद्भूत व्यवहारका विषय है । उत्तरपक्षको आगमके इसी अभिप्राय के अनुसार वस्तुस्थिति प्रकट करना चाहिए ।
अतएव उपादानकर्तृत्व इसलिये यथार्थ है कि उपादानभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है और निमित्तकर्तृत्व इसलिये यथार्थ नहीं है कि निमित्तभूत वस्तु कार्यरूप परिणत नहीं होती है । तथापि निमित्तभूत वस्तु आलापपद्धति के उक्त वचन के अनुसार उपादानभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधार पर स्वीकृत उपचरितकर्तृत्व भी आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित न होकर उपचरित रूपमें वास्तविक ही है । तात्पर्य यह है कि उपादानकारणता और उपादानकर्तृत्व दोनों ही उपादानभूत वस्तु वास्तविक धर्म हुँ क्योंकि उपादानकारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है । यतः निमित्तभूत वस्तु उपा
नभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति में सहायक (निमित्त ) होती है। अतः निमित कारणता भी इस आधारवर निमित्तभूत वस्तुका वास्तविक धर्म सिद्ध है और चूंकि निमित कर्तृश्व निमित्तभूत वस्तुका उपचरित धर्म होता है, इसलिये वह भी उपचरित रूपमें वास्तविक धर्म सिद्ध होता है । वह आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं है ।
हम इस विवेचनसे जान सकते हैं कि उपादान और निमित्तकी वास्तविकता किस रूपमें है। उत्तरपक्षको इस पर ध्यान देना चाहिए ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथन के अन्तमें जो यह लिखा है कि "निमित्तकर्त्ता" या निमित्तकारणपरक व्यवहारको अनेक स्थलोंपर अज्ञानियोंका अनादिरूढ़ लोकव्यवहार ही बतलाया गया है । सो वह एक
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
दृष्टिसे है, सर्वथा नहीं । आगममें निमित्तकर्ता या निमित्तकारणपरक व्यवहारको अज्ञानियोंका अनादिरूढ़ लोकव्यवहार बतलानेका अभिप्राय यह है कि जो जीव व्यवहारकी व्यवहाररूपताको और निश्चयरूपताको पृथक्-पृथक् नहीं समझकर व्यवहारको व्यवहाररूपताको निश्चयरूपता समझ बैठे है ये अज्ञानी है। ऐसे अशानियों के प्रति हो समयसारगाथा ८५-८६ की रचना आचार्य कुन्दकुन्दने की है, जिसका आशय यह है कि व्यवहारकी व्यवहाररूपताको निश्चयरूपता समझ लेनेसे व्यवहारमें व्यवहाररूपताके साथ निश्चयरूपताकी प्रसक्ति होती है जो जिनाज्ञाके विरुद्ध है। जैसे कुम्भकार घटके प्रति व्यवहारकारण अर्थात् निमित्तकारण होता है। अब यदि उसे घटका निश्चयकारण अर्थात उपादानकारण मान लिया जावे तो उसमें घटके प्रति सहायक होने रूप अपनी कियाके साथ घटरूप परिणत होने रूप क्रियाकी भी प्रसक्ति हो जावेगी, जो कि उपादानभूत मिट्टीकी क्रिया है ।
____ आगे सप्तरपक्षाने त० च० पु० ५४ पर ही लिखा है-"अपरपक्षने हमारे कथनको लक्ष्यकर जो यह लिखा है "कि परन्तु इस पर ध्यान न देते हुए उस लक्षणको सामान्यरूपसे क्रर्ताका लक्षण मानकर निमित्त-नैमित्तिक भावकी अपेक्षा आगममें प्रतिपादित कर्त-कर्मभावको उपचरित (कल्पनारोपित) मानते हुए आपके द्वारा निमित्तकर्ताको अकिंचित्कर (कार्य के प्रति निरूपयोगी) करार दिया जाना गलत ही है' । किन्तु अपरपनकी हमारे कथनपर टिप्पणो करना इसलिये अनुचित है, क्योंकि परमागममें एक कार्यके दो कर्ता वास्तव में स्वीकार ही नहीं किये गये हैं"।
इसकी पुष्टि में उत्तरपसने "नकस्य हि कत्रो द्वौ स्तः" इत्यादि समयसार कलश ५२ को भी उधत कर लिखा है--"इससे स्पष्ट विदित होता है कि अब एक कार्यके परमार्थरूप दो कर्ता ही नहीं है, ऐसी अवस्थामें परमागममें दो कर्ताओंके लक्षण निबद्ध किया जाना किसी भी अवस्था सम्भव नहीं है, इसलिये प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि 'यः परिणमति स कर्ता' इस रूपमें कर्ताका जो लक्षण निबद्ध किया गया है वह सामान्य रूपसे भी कर्ताका लक्षण है और विशेष रूपसे भी, क्योंकि जहाँपर दो या दो से अधिक एक जातिको वस्तुयें हों वहाँ पर ही सामान्य और विशेष ऐसा भेद करना सम्भव है। यहाँ जब एक कार्यका का एक ही है तो एक कर्ताके दो लक्षण कैसे हो सकते हैं ? यही कारण है कि एक कार्यका एक कर्ता होनेसे परमागममें कत्तका एक ही लक्षण लिपिबद्ध किया गया है। निमित्तकर्ता वास्तबमें कर्ता नहीं, इसलिये परमागममें इसका लक्षण भी उपलब्ध नहीं होता। यह तो व्यवहार मात्र है। अतएव इस सम्बन्धमें हमारा जो कुछ भी कथन है वह यथार्थ है ऐसा यहाँ समझना चाहिए" ।
इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है
लगता है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके अभिप्रायको ठीक तरह नहीं समझा है। उसने त. च० पू० १९ पर "परन्तु इसपर ध्यान न देते हुए' इत्यादि जो कथन किया है उसका अभिप्राय है कि आगममें कतकि दो भेद निश्चित किये गये है-एक उपादानकर्ता और दूसरा निमित्तकर्ता । इनमेंसे उपादानकर्ता कार्यरूप परिणत होनेके रूप में यथार्यकर्ता है और निमित्तकर्ता कार्यरूप परिणत न होकर उपादानकी कार्यप परिगतिमें सहायक होने रूपसे सहायककर्ता-अयथार्यकर्ता है। आलापपद्धतिके पूर्वोक्त वचनके अनुसार उसका आशय यही है। इससे स्पष्ट है कि आगममें कार्यके प्रति दो कर्ता माने गये हैं। पर वे दोनों एक जातिके नहीं है अर्थात् एक कर्ता तो वह है जो कार्यरूप परिणत होता है और दूसरा का वह है जो कार्य रूप परिणत न होकर उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे का होता है । "नकस्य हि कर्तारौ
सक-१५
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा वो स्तः" इत्यादि समयसारकलश ५२ एक कार्यके दो उपादानकर्ताओंका ही निषेध करता है । वास्तवमें किसी भी एक कार्यका एक उपादानकर्ता होता है और दूसरा निमित्तकर्ता होता है । इसका वह निषेध नहीं करता। अतः उसके आधारपर उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्षको एक कार्यके प्रति एक उपादानकर्ता और दूसरा निमित्तका इन दो कर्ताओंकी मान्यताका निषेध किया जाना उचित नहीं है।
पूर्वपक्षने अपनी इस मान्यताके समर्थनमें समयसार गाया १०० और उसकी आत्मख्याति टीकाको भी वहीं उद्धृत किया है जिससे स्पष्ट विदित होता है कि कार्योत्पत्ति के प्रति उपादानकर्ताक साथ निमित्तकताको भी आगममें स्वीकार किया गया है। इसके अलावा आगममें स्वप्रत्यय परिणमनके अतिरिक्त स्वपरप्रत्यय परिणमनकी स्वीकृतिसे भी पूर्वपक्षको उक्त मान्यताको पुष्टि होती है। इस प्रकार उत्तरपक्षने त० च० पृ. ५४-५५ पर इस विषयमें जो कुछ लिखा है वह सब तर्कहीन और आगमविरुख है। आगेतच.५८ ५५ पर उसपने लिए
पर परे बतलाये कि जब जिसमें निमित्त व्यवहार किया गया है उसका कोई भी धर्म जिसमें नैमित्तिक व्यवहार किया गया है उसमें प्रविष्ट नहीं होता तो फिर वह यथार्थ में उसका निमित्त कर्ता-कारण रूपये का कैसे बन जाता है? आगममे जबांक ऐसे कथनको उपचरित या उपचरितोपचरित स्पष्ट शब्दोंम घोषित किया गया है तो अपरपक्षको एस भागमको मान लेने में आपत्ति क्या है। हमारी रायमे तो उसे ऐसे कयनको बिना हिचकिचाहटके प्रमाण मान लेना चाहिए।"
इस विषयमें मेरा कहना है कि पूर्वपक्ष भी ऐसे कयनको उपचरित या उपचरितोपचरित स्वीकार करता है। परन्तु वह उस उपचरित और उपचरितोपचरित कथनको कल्पनारोपित नहीं मानता है जबकि उत्तरपक्ष उसे कल्पनारोपित मात्र मानता है। यह प्रकट है कि मिट्टी में होने वाली घटोत्पत्तिम कुम्भकार, चक्र, दण्ड मावि सहायक होने रूपसे कारण होते हैं। इनमेंसे कुम्भकार उपचारतकारण है क्योंकि वह उस घटोत्पत्तिम साक्षात सहायक होता है। चक्र उस घटोत्पत्तिमें कुम्भकारका सहायक होकर परम्परया सहायक कारण होता है, अतः वह उपचरितोषचरित कारण और दण्ड उस घटोत्पत्तिमे चक्रका सहायक होकर कुम्भ- . कारका सहायक होता हुआ अपरपरम्परया सहायक कारण होता है, अतः वह उपचारतोपरितोपरित कारण है । इस तरह यद्यपि ये तीनों असद्भूत कारण है और असद्भुत व्यवहारनयके विषय है तथापि तीनोंकी उपयोगिता मिट्टीसे उत्पन्न होने वाले घटकी उत्पत्तिमें असन्दिग्ध है, क्योकि इनमसे किसी भी अभावमें घटोसत्ति नहीं होती। अतः तीनों ही अपने-अपने ढंगसे यथार्थ है । वे आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित कारण नहीं है अर्थात् घटोत्पत्तिमें इनकी उपचरित आदि रूपमें सहायता वास्तविक ही है, कल्पनारोपित नहीं है। कथन ३८ और उसकी समीक्षा
पूर्वपक्षने त० च० पृ० २० पर लिखा है कि "आगममें सर्वत्र कार्यकारणभावका अन्वय-त्र्यतिरेकके आधारपर ही माना गया है अर्थात् जिस वस्तुका जिस कार्यके साथ अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह वस्तु उस कार्यके प्रति कारण होती है ऐसा कथन आगमका है" इराकी पुष्टि के लिये ही उसने प्रमेयरत्नमाला (समुद्देश ३, सूत्र ६३ की व्याख्या) का उद्धरण भी दिया है।
पूर्वपक्षक इस कथनकी भी उत्तरपक्षने त० च० ५० ५५ पर आलोचना की है। लिखा है कि "अपरपक्षने प्रमेमरत्नमाला समुद्देश ३ सूत्र ५३ से "अन्वय-व्यतिरेक" इत्यादि वचन उद्धृत कर अपने पक्षका
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
समर्थन करना चाहा है 1 किन्तु इस पचनसे भी इतना ही ज्ञात होता है कि जिसके अनन्तर जो होता है वह उसका कारण है और इतर कार्य है। यही बात इसी सूत्रकी व्याख्या इन शब्दोंमें कहीं गई है-"तस्य कारणस्य भावे कार्यस्य भाबित्व तद्भावभावित्व" (उसके अर्थात् कारणके होनेपर कार्यका होना यह तद्भावभावित्व है) । किन्तु यह सामान्य निर्देश है। इससे बाहा सामग्रीको उपचरितकारण क्यों कहा और आभ्यन्तर कारणको अनुपचारित कारण क्यों कहा, यह ज्ञान नहीं होता" ।
इसकी समीक्षा इस प्रकार है
पूर्वपक्षने त० च०५० २० पर किये गये अपने उक्त कथनके आगे यह भी लिखा है कि “इसमें अपादान कारणके समान निमित्तकारणमें भी कार्यके प्रति अन्वय और व्यतिरेक माने गये है। अतः जिस प्रकार कार्यके प्रति उपादानकारणभूत वस्तु अपने ढंगसे आषय रूपसे वास्तविक कारण होती है उसी प्रकार कार्यके प्रति निमित्तभूत वस्तु भी अपने से अर्थात उपादानके सहकारी रूपसे वास्तविक कारण होती है। उसकी अर्थात् निमित्त भूत वस्तुकी यह उपादानसहकारितारूप कारणता काल्पनिक नहीं है ।'' इस कथनसे स्पष्ट है कि पूर्वपक्षने प्रमेयरत्नमालाके उपर्युक्त वचनका उसरण निमित्तकारणको उसरपक्षको मान्य काल्पनिकताका निषेध करनेके लिये दिया है । अतएव उत्तरपक्ष द्वारा की गयी पूर्वपक्षको उपर्युक्त आलोचना निरर्थक एवं अनुपयुक्त है।
आगे उत्तरपक्षने त. च० १० ५५ पर ही लिखा है कि “यह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक द्रनमें एक कालमें एक हो कारणधर्म होता है और उस धर्मके अनुसार वह अपना कार्य भी करता है। जैसे कुम्भकारमें जब अपनी क्रिया और विकरण करनेका कारणधर्म है तब वह अपनी क्रिया और विकल्प करता है. गिदीकी घटनिष्पतिरूप क्रिया नहीं करता। ऐसी अवस्था में कुम्भकारको घटका का उपचारसे ही तो कहा जायेगा" । पूर्वपक्षको इसमें कोई विवाद नहीं है । वह भी ऐसा ही मानता है। उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेदमें पुनः लिखा है कि "और उस उपचारका कारण यह है कि जब कुम्भकारको विवक्षित क्रिया और विकल्प होता है तब मिट्टी भी उपादान होकर घटरूप परिणमती है" सो इसमें भी पूर्वपक्षको कोई विवाद नहीं है । आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि “इस प्रकार कुम्भकारकी विवक्षित क्रियाके साथ घट कार्यका अन्वय ध्यतिरेक बन जाता है" । यहाँ पर इतना ध्यान और रखना चाहिए कि कुम्भकारकी उस क्रियाके साथ घट कार्यका जो अन्नय-पतिरक बनता है वह इस आधार पर बनता है कि कुम्भकारको वह क्रिया घटकार्यके प्रति सहायक होतो देखी जाती है ।
आगे इसी अनुच्छेदमें तत्तरपक्षने लिखा है कि "यही कारण है कि कुम्भकारको घटका कर्ता उपचारसे कहा गया है। किन्तु ऐसा उपचार करना तभी सार्थक है जब वह यथार्थका ज्ञान करावे, अन्यथा वह व्यवहाराभास ही होगा यह वस्तुस्थितिका स्वरूप निर्देश है। इससे बाह्य सामग्रीमें अन्य ट्रष्यके कार्यको कारणता काल्पनिक ही है यह ज्ञान हो जाता है। फिर भी आगममें इस कारणताको काल्पनिक न कहकर जो उपचरित कहा है यह सप्रयोजन कहा है खुलास पूर्वमें ही किया गया है और आगे भी करेंगे" ।
इस सम्बन्धम मेरा कहना है कि घटकार्यके प्रति कुम्भकारको जो उपचारसे कप्त कहा गया है वह इसलिये कहा गया है कि वह घटरूप गरिणत न होकर मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें मिट्टीका सहायक होता है। अतः उत्तरपक्षका यह कथन कि "किन्तु ऐसा उपचार करना तभी सार्थक है जब वह यथार्थका ज्ञान करावे,
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अन्यथा यह व्यवहाराभास होगा" निरर्थक है । इसी तरह "यह वस्तुस्थितिका स्वरूप निर्देश है" ऐसा लिखकर उत्तरपक्षने लिखा है कि "इससे बाझ सामग्रीमें अन्य द्रव्यके कार्यकी कारणता काल्पनिक ही है" । सो उसका यह कथन वस्तुस्थिति के विरुद्ध है, क्योंकि पूर्वपक्षने त च में तथा हमने इस समीक्षामें सर्वत्र स्पष्ट किया है कि आगममें बाह्य सामग्रीको जो कार्योस्पसिके प्रति उपचरितकर्ता माना गया है उसका आधार यह बतलाया गया है कि बात सामग्रो कायोत्पत्ति में उपादानको सहायक होने रूपसे अनिवार्य कारण होतो है । उत्तरपक्षका उससे यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा गलत है कि "फिर भी आमममें इस कारणताको काल्पलिक न कहकर जो उपचरित कहा है वह सप्रयोजन कहा है" क्योंकि काल्पनिक और उपचरितमें बड़ा अन्तर है। काल्पनिक तो अवस्तु होती है परन्तु उपधरित वस्तु होती है। फिर जब उत्तरपक्ष उपचार कथनको सप्रयोजन मानता है तो नाह्य सामग्रीको कार्योत्पत्ति में अकिंचित्कर कसे माना जा सकता है ? कथन ३९ और उसकी समीक्षा
(३९) पूर्वपक्षने त च० पृ. २० पर धवल पुस्तक १३ पृ. ३४९. के "एवं दुसंजोगादिणा" इत्यादि वचनको उद्धृत कर जो यह कहा है कि "पवलाझा यह वचन स्वपर प्रत्यय परिणमनकी उभयक्तिजन्यताका स्पष्ट उपदेश दे रहा है। उत्तरपक्षने इसकी आलोचना करते हुए त० च० पृ० ५६ पर लिया है कि "धवला पुस्तक १३ १० ३४९ का उच्चरण (जिसे अपरपक्षने प्रस्तुत किया है। संयोगको भूमिकामै उपचरित अनुभागका ही निरूपण करता है" | उत्तरपक्षके इस कथनमें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। परन्तु उपचारको काल्पनिक मानना प्रमाणसंगत नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार स्वप्रत्यय कार्य स्वप्रत्ययरूप में वास्तविक है उसी प्रकार स्वपरप्रत्यय कार्य भी स्वपरप्रत्ययरूपमें वास्तविक ही है, काल्पनिक नहीं है। कथन ४० और उसकी समीक्षा
(४०) पूर्वपक्षने त० च० पृ. २. पर "उपचारकी प्रवृत्ति के लिये आगममें उपचारकी व्याख्या इस प्रकार की गई है" इस कथनके साथ आलापपद्धतिके 'मुख्याभाने' इत्यादि बचनको उद्धृत किया है और यह बतलानेका प्रयत्न किया है कि जहां मुख्परूपताका अभाव हो तथा निमित्त और प्रयोजनका सद्भाव हो वहीं उपचारकी प्रवृत्ति होती है । तथा इसके समन्वयके लिए कहा है कि जैसे अन्नमें प्राणोंका या बालकमें सिंहका उपचार लोकमें किया जाता है" आदि । सो इसकी आलोचना करते हुए उत्तरपक्षने तः च. पृ० ५६ पर लिखा है कि "अपरपक्षने 'मुरुपाभावे सति' इत्यादि वचनको उपचारको व्याख्या माना है जो अयुक्त है। इस कथन वारा तो मात्र उसकी प्रवृत्ति कहाँ होती है यह बतलाया गया है" तथा इस कथनके अनन्तर उपचारकी व्याख्यास्वरूप आलापपद्धतिके "अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भुतव्यवहारः । असद्धृतव्यवहार एव उपचारः" । इस वचनको उक्षत किया है । इस विषयमें मुझे केवल इतना हो कहना है कि यदि पूर्वपक्षने उपचारके प्रवृत्तिस्थलको उपचारकी व्याख्या समावेश कर दिया है तो इसमें क्या अमुक्तता है; यह समझ में नहीं आया, क्योंकि व्याख्याका अर्थ केवल लक्षण ही नहीं होता है । व्याख्यामें वस्तुके स्वरूप, विषय, भेद-प्रभेद और प्रवृतिस्थल आदि सभीका समावेश होता है। उत्तरपक्षको उचित है कि बालकी खाल न निकाल संगत ही वक्ताके अभिप्रायको समझे ।
आगे इसी विषयका विस्तार करते हुए त० च. १० ५६ पर उत्तरपक्षने लिखा है-"प्रकृतमे कार्यकारणभावका विचार प्रस्तुत है। कार्य एक है और कारण दो-एक बार सामग्री, जो अपने स्वचतुष्टय
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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द्वारा कार्य के स्वचतुष्टयको स्पर्श करने में सर्वथा असमर्थ है और दूसरी अन्तःसामग्री, जो कार्य अव्यवहित प्रागुरूप स्वरूप है। ऐसी अवस्था में इन दोनों कारणों में कार्यका वास्तविक कारण कोन ? दोनों या एक ? इसे यथार्थ रूपमें समझने के लिए कारकोंके स्वरूप पर दृष्टिपात करना होगा । कारक दो प्रकारके है - एक निश्चयकारक और दूसरे व्यवहारकारक। निदचयकारक जिस द्रव्यमें कार्य होता है उसे अभिन्न होते हैं और व्यवहारकारक जिस द्रव्यमें कार्य होता है उससे भिन्न माने गये हैं । प्रत्येक द्रव्य में अपना कार्य करने में समर्थ उससे अभिन्न छः कारक नियमसे होते हैं । इसको समझने के लिए पंचास्तिकाय गाथा १२ और उसकी टीका देखने योग्य है" । उत्तरपक्षका ग्रह कथन बच्चों जैसा है और पिसेको पीसता है, क्योंकि उसमें हमें विवाद नहीं है । वह सब तो हम स्वीकार करते ही हैं ।
इसके आगे उत्तरपक्षने वहीं पर प्रत्येक द्रव्य में अपना कार्य करने में समर्थ उससे अभिन्न छः कारकों की स्वागत निर्दिष्ट आचार्य अमृतचन्द्र के वचनका प्रमाण दिया है तथा वहीं पर अनगारधर्मामृत और त० ० ० ५७ पर परमात्मप्रकाशके वचनोंको भी प्रमाणरूपसे उपस्थित किया है। सो उसमें भी हमें विवाद नहीं है । परन्तु इसके आगे उसने इनके निष्कर्ष के रूपमें जो लिखा है कि "इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रत्येक समय में निश्चय कारकरूपसे परिणत हुआ प्रत्येक दम्य स्वयं अपना कार्य करने में समर्थ है " सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह कथन द्रव्य के प्रतिसमय होने वाले स्वप्रत्ययरूप कार्यके विषय में ही लागू होता है, स्वपर प्रत्यय कार्यके विषय में नहीं । इस विषयको पूर्व में प्रेरक निमितोका विवेचन करते समय स्पष्ट किया गया है ।
इसके आगे इस विषय के समर्थन में उत्तरपक्षने त० श्लो० वा० पृ० ४१० का एक अधूरा उद्धरण इस प्रकार दिया है- " ततः सूक्तं लोकाकाशधर्मादिद्रव्याणामाधाराधेयता", इसपर मेरा कहना है कि कमसे कम उत्तरपक्षको मह उद्धरण उसके द्वारा किये गये स्पष्टीकरणके अनुसार पूरा देना था जो इस प्रकार है"ततः सूक्तं लोकाकाशधर्मादिद्रव्याणामाश्राराधेयता व्यवहारनयाश्रया प्रतिपत्तव्या बाधकाभावादिति निश्चयनयान्न तेषामाधाराधेयता युक्ता" इत्यादि और स्पष्टीकरणके प्रारंभ में इतना और जोड़ देना था कि "इसलिये ठीक ही कहा है कि लोकाकाश और धर्मादि द्रव्योंकी आधाराधेयता व्यवहारनगाश्रित जानना चाहिए" I ऐसा करनेसे ही व्यवहारनयके विषय में उद्धृत त० श्लो० वा० के उद्धरणका ठीक अभिप्राय समझ में आ
सकता था ।
वास्तव में त० श्लो० वा० के उक्त कथनसे व्यवहारनय भी व्यवहार कथनमें उसी प्रकार वास्तविक सिद्ध होता है जिस प्रकार निश्चय निश्चयके कथनमें वास्तविक हैं । यतः यह बात पूर्वपक्षको तो अभीष्ट हैं, किन्तु उत्तरपक्षको अभीष्ट नहीं है । इसीलिये उत्तरपक्षनेत श्ली० वा० का उक्त उद्धरण अपने विपरीत पड़ने से पूरा देने में कंजूसी बरती और उसका स्पष्टीकरण भी आगमक अभिप्रायके विपरीत अपनी इच्छानुसार किया । इसे क्या कहा जाये ? तनिर्धारण तो नहीं कहा जा सकता । अस्तु ।
मक । अभिप्राय यह है कि वस्तुतत्त्वको समझने में निश्चयनयकी जितनी उपयोगिता है उतनी ही उपयोगिता व्यवहारनयकी कार्यको सिद्ध करनेमें है। इस भावना से ही आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारकी आत्मस्याति टीका में निम्न आगम वचनको उद्घृत क्रिया है
जई जिणमयं पवजह ता मा बवहारणिच्छए, मुग्रह 1 एक्केण विणा छिज्जह तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इसका अर्थ यह है कि "यदि जिन शासनकी प्रवत्ति (रक्षा, प्रचार, प्रसार) चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारके छोड़नसे वर्मतीर्थ का नाश होता है और निश्चयको छोड़ देनेसे वस्तुतत्त्व नष्ट होता है। अतः दोनोंका ग्रहण आवश्यक है।"
इसको ध्यानमें रखकर जहाँ पूर्वपक्ष व्यवहार और निश्चय दोनों नवों को अपने-अपने दष्टिकोणका प्ररूपण करनेसे वास्तविक स्वीकार करता है वहाँ उत्तरपथ निश्चयनयको वास्तविक और व्यवहारनमको अवास्तविक ( कल्पनारोपित ) मात्र मानना चाहता है । यही पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके विवादकी मूल
आगे उत्तरपक्षने तक च०१० ५७ पर त. इलो० वा०प०४१० का यह कथन भी उद्धृत किया है कि "व्यवहारनयादेवोत्पादादीनां सहेतकत्वातीतः" और उसका अर्थ भी उमने यह किया है कि "ध्यदहारनयसे ही उत्पादादिक सतक प्रतीत होते है । परन्तु प्रश्न फिर भी असमाहित रहता है, क्योंकि व्यवहारनयके विषयको वह आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र मानता है, जो प्रमाणविरुद्ध है। इसे पूर्वमें भो स्पष्ट किया जा सका है।
मागे त च पृ० ५७ पर ही उत्तरपक्ष लिखा है---''यह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा कि व्यवहारनयके दो भेद है" इत्यादि । सो इसे स्वीकार करने में पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है तथा उसकी पष्टिके लिए उसने जो अष्टसहस्री प. ११२ का उद्धरण दिया है जो उसमें और उसके अर्थमें भी पूर्वपक्षका कोई विरोध नहीं है । परन्तु उसने अष्टसहस्री १० ११२ के उद्धरणके अंशभत "तद्विशेषे एव हेतुव्यापारोपगमात" वचनके अभिप्रायको समझने के लिए जो अष्टसहस्त्री १० १५० का उद्धरण प्रस्तुत किया है उसके आधारपर प्रकट किये गये अभिप्रायसे पूर्वपक्ष सहमत नहीं है क्योंकि उससे वह स्वपरप्रत्यय कार्यमें मी बाह्य सामग्रीकी अकिंचित्करताको सिद्ध करना चाहता है किन्तु वह अष्ट राइसीके उक्त वचनसे सिद्ध नहीं होती है। उसके त०च. प० ५८ पर निर्दिष्ट इस कथनसे कि "सदभत व्यवहारमयसे अन्तःसामग्रीको और असदभूतव्यवहारमयस बाय सामग्रीको उत्पादक कहा गया है। एकको दूसरेवा उत्पादक कहना व्यवहार है और स्वयं उत्पन्न होता है यह कहना निश्चय है अर्थात निश्चयनयका विषय है" पूर्वपक्षको विरोध नहीं है। परन्तु उत्तरपक्ष जो उससे असद्भूत व्यवहारनयके विषयको आकाशकुसुमकी तरह काल्पनिक मानना चाहता है वह किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं किया जा सकता है । इसे पूर्व में अनेक स्थलोपर स्पष्ट किया जा चु
इसके आगे त० च० ० ५८ पर ही उत्तरपक्षने जो "यह वस्तुस्थिति है" इत्यादि अनुच्छेद लिखा है उसके विषयमें भी पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन उसने इस अनुच्छेदके अन्तमें जो यह लिखा है कि "हमें विश्वास है कि अपरपक्ष पूर्वोक्त उदाहरण द्वारा आसमप्रमाणों के प्रकाशमें इस तथ्यको ग्रहण करेगा ।" यह उसने पूर्वपक्षने निश्चय और व्यवहारके विश्यमें आगम प्रमाणोंके आधारपर निर्णीत दृष्टिकोणको नहीं समझने के कारण ही लिखा है। इस विषयमें पूर्वपक्षका क्या दृष्टिकोण है, यह बात पूर्वपक्षने अपने वक्तव्यों में स्वयं स्पष्ट की है और इस समीत में मैं भी अनेक स्थलोंपर स्पष्ट कर चुका है।
___ इसके आगे उत्तरपलने त. च० पृ० ५८-५९ पर यह कथन किया है कि 'अपरपक्षने उपचार कहाँ प्रवृत्त होता है यह बतलाने के लिए जो अन्य दो उदाहरण प्रस्तुत किये हैं उनका आशय भी यही है । अन्न अपने परिणामलक्षण क्रियाका कर्ता है। और अपने परिणाम लक्षणक्रियाके का है। ये परस्पर
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
११९ एक दूसरेकी क्रिया नहीं करते । फिर भी कालप्रत्यारात्तिवश यहाँ अन्नमें प्राणोंकी निमिसता उपचरित की गई है। अतएव अन्न जैसे प्राणोंका उपचरित हेतु है उसी प्रकार प्रकृतमें जान लेना चाहिए। वचनमें परार्थानुमानका उपचार क्यों किया जाता है इसका खुलासा भी इससे हो जाता है और इस उदाहरणसे भी यही ज्ञात होता है कि कुम्भकार वास्तवमें घटोत्पत्तिका हेतु नहीं है।"
इस कथनकी समीक्षामें मुझे इतना ही कहना है कि "अन्न हो प्राण हैं" यहाँपर अन्नमें प्राणोंका उपचार किया गया है और वह इन आधारों पर किया गया है कि अन्न यद्यमि प्राणहणताका अभाव है लेकिन वह अन्न प्राणोंके संरक्षणमें वास्तवमें निमित्त (सहायक) है, इसलिये आलापद्धतिके "मुख्याभावें" इत्यादि वचनके अनुसार अन्नको जो प्राण कहा गया है वह उपचारसे कहा गया है। इससे स्पष्ट होता है, कि अन्नमें प्राणों के संरक्षणको निमित्तता उपचरित नहीं है किन्तु प्राणोंके संरक्षणमें वास्तविक रूपमें निमित्त (सहायक) होनेके आधारपर अन्नमें प्राणरूपता उपचरित की गई है।
उत्तरपनने इसी अनुच्छेदमें जो यह लिखा है कि "ववनमै परार्थानुमानका उपचार क्यों किया जाता है इसका खुलासा भी इससे हो जाता है" सो उसका ऐसा लिखना असंगत है, क्योंकि वचन परार्थ अनुमानज्ञानमें हेतु होता है अतः वचनको भो परा अनुमान कहा गया है। तात्पर्य यह है कि परार्थ अनुमान प्रमाण तो वास्तव में ज्ञानरूप ही होता है, लेकिन उसके होनेमें वचन सहायक रूपसे हेतु होता है, अतः उस वचनको भी परार्थ अनुमान कहा जाता है। यहाँ कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। और ऐसा उपचार वस्तुबोधक होने काल्पनिक नहीं है, वास्तविक है ।
इसी अनुच्छेदके अन्तमें उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "इस उदाहरण से भी ज्ञात होता है कि कुम्भकार दास्तबमें घटोत्पत्तिमें हेतु नहीं है" सो उसका यह भ्रम है, क्योंकि कुम्भकार घटोत्पत्ति मिट्टीकी तरह घटरूप परिणत न होने पर भी मिट्टीकी उस घटरूप परिणतिम सहायक होने रूपसे वास्तविक हो हेसु है अर्थात् आकाशकुसुमको तरह कल्पनारोपित हेतु नहीं है और इस सहायकहेतुताके आधारपर कुम्भकारमें घटकर्तृत्वका उपचार किया जाता है । तात्पर्य यह है कि घटोत्पत्तिमें कुम्भकारका सहायक होना उपचरित नहीं है, वह तो वास्तविक है लेकिन सहायक होनेके आधारपर उसमें (कुम्भकारमें) घटका कर्तृत्व उपचरित है।
मागे उत्तरपक्षने त० च०१० ५९ पर यह कथन किया है कि "अपरपक्षने अपने प्रकृत विवेचनमें सबसे बड़ी भूल तो यह की है कि उसने बाध सामग्रीका स्वरूपसे अन्यके कार्यका निमित्त स्वीकार करके अपना पक्ष उपस्थित किया है। किन्तु उस पक्षकी ओरसे ऐसा लिखा जाना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त कथनको वास्तविक माननेपर अन्य व्यके कार्यका कारणधर्म दूसरे द्रव्यमें वास्तबमें रहता है यह स्वीकार करना पड़ता है और ऐसा स्वीकार करनेपर दो द्रव्योंमें एकताका प्रसंग उपस्थित होता है। अतएवं अपरपक्षको प्रकृतमें यह स्वीकार करना चाहिए कि बाह्म सामग्रीको अन्य कार्यका हेतु कहना यह प्रथम उपचार है और उस आधारसे उसे वही कहना या उसका कर्ता कहना यह दूसरा उपचार है। "अन्न वै प्राणाः" यह वास्तवमें उपचरितोपचारका उदाहरण है सर्वप्रथम तो यहाँ व्यवहार (उपचार) नयसे अन्नमें प्राणोंको निमित्तता स्वीकार की गई है और उसके बाद पुनः व्यवहार (उपचार) नयका आश्रय कर ही प्राण है ऐसा कहा गया है। यहाँ व्यवहार पद उपचारका पर्यायवाची है। अतएव बागममें जहाँ भी एक
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
व्यको दूसरे द्रव्य कार्यका व्यवह्नानयसे निमित्त कहा गया है यहाँ उसे उस फार्मका उपचारनयते निमित्त कहा गया है ऐसा समझना चाहिए ।"
इसकी समीक्षा इस प्रकार है
उत्तरपनने ऐसी चतुराईसे पूर्वपक्षका उपस्थापन किया है, मानो वह उसे नहीं मानता और उत्तरपक्ष उसकी गलती बतलाकर उसे मनवाना चाहता है । किन्तु उसका यह दूषित प्रयास है । उत्तरपक्षने अपने इस वक्तव्य के प्रारंभ में जो यह लिखा है कि "अपरपक्षने अपने प्रकृत विवेचनमें सबसे बड़ी भूल तो यह की है कि उसने बाह्य सामग्रीको स्वरूपसे अन्यके कार्यका निमित्त स्वीकार करके अपना पक्ष उपस्थित किया है ।" इस पर मेरा कहना है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी इस स्वीकृतिको कि "बाह्य सामग्री स्वरूपसे अन्यके कार्यका निमित्त बनी हुई है" जो उसकी भूल समझ रहा है, सो उसका ऐसा समझना असंगत है, क्योंकि अपरपक्ष निमित्तका अर्थ सहायक कारण मानता है । आगममें भी कार्योत्पत्ति में जहाँ उपादानकी सापेक्षता में faivai प्रयोग किया गया है वहीं उसका अर्थ सहायक कारण ही किया गया है। कार्योत्पतिमें सहायक कारण कार्यरूप परिणत होने वाली उपादानकारणभूत वस्तुसे भिन्न वस्तु ही होता है और यह आगमसिद्ध हैं। तथा एक वस्तु कार्य में अन्य वस्तुके सहायक होने रूप निमित्तता वास्तविक ही होती है । तात्पर्य यह है कि एक वस्तुमें जैसे उपादान और उपादेयका भेद है। जो वस्तु कार्यरूप परिणत होती है वह उपादान कही जाती है और उसका यह कार्य उपादेय कहा जाता है। इनकी वास्तविकता तादात्म्य संबंधाश्रित है । वैसे ही उस वस्तुये अन्य वस्तु उस कार्य में सहायक होनेसे निमित्त होती है और वह कार्य उसका नैमित्तिक कहा जाता है तथा उनकी यह वास्तविकता संयोगसंबंधाश्रित है । तादात्म्य और संयोग दोनों ही सम्बन्ध अपने-अपने ढंग से वास्तविक होते हैं। इसे पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । इस तरह एक द्रव्यके कार्य में दूसरे द्रव्यकी सहायक होने रूप निभिप्तताको स्वीकार करनेपर भी दो द्रव्योंमें एकताका प्रसंग कहा जाता है ?
इसी अनुच्छेद में इसके आगे उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "अतएव अपरपक्षको प्रकृतमें यह स्वीकार करना चाहिए कि बाह्य सामग्रीको अन्य कार्यका हेतु कहना यह प्रथम उपचार है और उस आधारसे उसे वही कहना या उसका कर्त्ता कहना यह दूसरा उपचार है ।" सो उत्तरपक्षको ज्ञात होना चाहिए कि पूर्वपक्ष द्वारा भी निमित्तको उपचरितकारण स्वीकार किया गया है । परन्तु इस उपचारको वह पराश्रितता के आधारपर उपचार मानता है व इसके आधारसे उसी निमित्तने अन्य वस्तुके कर्तृत्व का उपचार यह आलापपद्धतिके पूर्वोक्त वचनके आधारपर स्वीकार करता है । इस तरह उत्तरपक्ष और पूर्वपक्ष दोनोंमें जो मतभेद है वह यह है कि जहाँ उत्तरपक्ष इन दोनों ही उपचारोंको कल्पना रोपित मात्र मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उन्हें कल्पनारोपित नहीं मानता है । पूर्वपक्षकी यह मान्यता आगमसम्मत है । पर उत्तरपक्षकी मान्यता आगमसम्मत नहीं है ।
यहाँ ध्यातव्य है कि हेतु (कारण) केवल उपादान ही नहीं होता । बाह्य सामग्री भी हेतु होती है । इसीस 'हेतुत्रमाविष्कृतकार्यलिङ्गा', 'बाह्येत रोपाधिसमग्रतेय' जैसे मागम वचन हैं ।
इसी अनुच्छेद में आगे उत्तरपक्ष ने लिखा है कि "अन्नं वै प्राणाः " यह वास्तव में उपचरितोपचारका उदाहरण है, आदि, सो इस विषय में भी पूर्वपक्षको विरोध नहीं है। वह उत्तरपक्षकी तरह उसे केवल कल्पनारोपिठ मानने को तैयार नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्षको मान्यता अन्नकी प्राणोंके संरक्षणमें स्वीकृत
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शंका-समाधान १ की समीर
निमितता सहायक होने रूपसे वास्तविक है। मात्र पराश्रितताके आधारपर वह उपचरित है । वास्तवमें अम्नमें प्राणरूपताका कथन आलापपद्धतिके उक्त वचनके अनुसार उपचरित है। इसी प्रकार आगेके अनुच्छेदमें व्यवहार और उपचारको एकार्थवाची बतलाते हुए उत्तरपक्षने लिखा है कि "उपचार और व्यवहार ये एकार्थवाची है" उसमें भी विवाद नहीं है। परन्तु पूर्वपक्षकी दृष्टिमें व्यवहार या उपचार कल्पनारोपित नहीं है, जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है। इसी प्रकार जसरपक्ष द्वारा त० च० ० ५९ पर निर्दिष्ट "तत्त्वार्थराजबार्तिक अ० ५ सू० १२ रो भी यही तथ्य फलित होता है" इत्यादि अनुच्छेदके विषयमें भी जान लेना चाहिए । अर्थात् उसमें भी पूर्वपदाको विषाद इतना ही है कि उत्तर पक्ष उस तथ्यको कल्पनारोपित स्वीकार करता है जब कि पूर्वपक्ष उसे वास्तविक मानता है।
उपर्युक्त विवेचनके पश्चात उत्तरपक्षनेत० च० १०५९ पर ही जो यह लिखा है कि "यह तथ्य है। इस तथ्य को ध्यानमें रखकर आलापपद्धतिक 'मुख्याभाये सति निमित्त प्रयोजने चोपचारः प्रवतते" इस पदका असद्भुत व्यवहारनयसे यह अर्थ फलित होता है कि यदि मुख्य (यथार्थ) प्रयोजन और निमित्त (कारण) का अभाव हो अर्थात् अविवक्षा हो तथा असद्भूत व्यवहार प्रयोजन और असद्भूत व्यवहार निमित्तकी विवक्षा हो तो उपचार प्रवृत्त होता है ।" वह निराधार है, क्योंकि आलापपद्धतिके उक्त वचनका अर्थ यह है कि जहाँ मुख्य (यथार्थ) का अभाव हो और निमित्त (कारण) व प्रयोजनका सद्भाव हो वहाँ उपचारकी प्रवृत्ति होती है । जैसे-"घी का घड़ा" इस वचनसे 'घीका आधारभूत बड़ा यह अर्य विवक्षित है, जो उपचरित अर्थ है, क्योंकि घीसे घड़े का निर्माण संभव न होनेसे घी से निमित्त घड़ा इस मुख्य (यथार्थ) अर्थका प्रतिपादन "घीका घड़ा" इस वचनसे नहीं होता है तथा "घोका आधारभूत घड़ा" यह अर्थ इस कारणसे किया जाता है कि घड़ा पीका आधार बना हआ है । इतना ही नहीं, "धी का घड़ा लाओं' इस वचनसे वक्ता यह प्रतिपादन करना चाहता है कि जिसमें ची रखा हुआ है या रखा जाता है वह घटा लाओ। जिरामें उसका घी रखने या निकालने का प्रयोजन होता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति विशेषको जो "कुम्भकार" शब्दसे बोला जाता है वह इसलिये नहीं बोला जाता है कि वह व्यक्ति विशेष
। मध्य (उपादान) का है क्योंकि बठ्ठ व्यक्तिविशेष घटरूप परिणत नहीं होता है। परन्तु वह मिट्रीसे होने वाले चटके निर्माण में सहायक होने रूपसे निमित्त (कारण) होता है तथा वह घटानुकूल व्यापार प्रयोजनसे करता है क्योंवि. बटसे जलाहरण आदि कियायें सम्पन्न की जा सकती हैं। इसलिये कुम्भकार झाब्दका 'कुम्भका का" यह अर्थ उपचरित सिद्ध हो जाता है। इसी तरह उसरपक्षने त० च० पृ० ५९ पर ही जो यह लिखा है कि "तया अखण्ड द्रव्यमें भेदविवक्षावश इसका यह अर्थ होगा कि मुख्य अर्थात् द्रव्याथिकनयका विषयभत यथार्थ प्रयोजन और यथार्थ निमित्त का अभाव हो अर्थात् अविवक्षा हो तथा सद्भूत व्यवहाररूप प्रयोजन और सद्भूत व्यवहाररूप निमित्तकी विवक्षा हो तो उपचार प्रवृत्त होता है।" सो "मुख्याभाव" इत्यादि उक्त बचनका यह अर्थ भी उत्तरपक्षकी कल्पनाकी उड़ानके सिवाय और कुछ नहीं है, क्योंकि वह अर्थ उसका नहीं है । आगे त० च०५० ६० पर उत्तरपक्षने लिखा है कि “यही कारण है कि "मुख्याभाये' इत्यादि वचतके बाद उस उपचारको कहीं अविनाभाव संबंधरूप, कहीं संश्लेष रूप और कहीं परिणाम परिणामिसम्बन्ध आदि रूप बतलाया गया है। यह लिखना भी उसका असंगत है, क्योंकि जब "मुख्याभावे" इत्यादि बचनका उत्तरपक्ष द्वारा किया गया उपयुक्त अर्थ हो असंगत है तो इस कथनका उसके साथ समन्वय करनेकी निरर्थकता अपने आप सिद्ध हो जाती है तमा त च पृ० ६० पर
स०-१६
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ही किया गया उसका यह कथन भी निरर्थक है कि "इसलिये आलापपद्धतिके उक्त वाक्यको ध्यान में रखकर अपरपक्षने उसके आधार से यहाँ जो कुछ भी लिखा वह ठीक नहीं यह तात्पर्य हमारे उक्त विवेचनसे सुतरां फलित हो जाता है ।" अच्छा होता, उत्तरपक्ष उन स्थलोंको भी यहाँ बतला देता, जहाँ उपचारको अविनाभावसम्बन्धरूप, संश्लेषसम्बन्धरूप और परिणाम - परिणामी सम्बन्ध आदि रूप बतलाया गया है । उसे यह भी उचित था कि वह इन सम्बन्धों के साथ उपचारका समन्वय करके दिखाता, जिससे उनकी भी समीक्षा या विमर्श किया जाता । उत्तरपक्षने यह राब कथन गुमसुम रूपमें ही किया है, अतः उसके विषय में कुछ भी नहीं लिखा जा सकता है ।
कथन ४१ और उसकी समीक्षा
(४१) पूर्वपक्षनेत० च० पृ० २१ पर व्याकरण के आधारपर उपादान और निमित्त दोनों शब्दों के अर्थको स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उसके विषयमें उत्तरपक्षने ० च० पृ० ६० पर कहा है कि "अपरपक्षने इसी प्रसंग उपादान पदको निरुक्ति तथा व्याकरण से सिद्धि करते हुए लिखा है कि " जो परिणमनको स्वीकार करे, ग्रहण करे था जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते है । इस तरह ज्यादान कार्यका आश्रय ठहरता है" । तथा निमित्त पदकी निरुक्ति और व्याकरणसे सिद्ध करते हुए उसके विषय में बिसा है कि "जो मित्रके समान उपादानका स्नेहन करे अर्थात् उसकी कार्यपरिणति में मित्रके समान सहयोगी हो वह निमित्त कहलाता हूँ" । उपादान और निमित्तके विषयमें यह अपरपक्षका वक्तव्य है। इससे विदित होता है कि अपरपक्ष उपादानको मात्र कारण मानता है और निमित्त सहयोगी होता है कि कार्यका कौन होता है ? अपरपक्ष अपने उक्त कथन द्वारा कार्यको उपादानका तो स्वीकार कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं, अन्यथा उपादान के लिए "उसकी कार्यरूप परिणति में" ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करता । परन्तु वह उपादानको कार्यका मुख्य ( वास्तविक ) कर्ता नहीं मानना चाहता, इसका हमें आश्चर्य है । '
इसके सम्बन्धमें मुझे केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनमे हो यह सिद्ध होता है कि उपादान कार्यका कर्त्ता होता है और यह भी सिद्ध होता है कि वह उसका मुख्य कर्त्ता होता है तथा निमित्त उसको कार्यरूप परिणति में अपना सहयोग प्रदान करता है। इसलिये उत्तरपक्षने अपरपक्षपर जो आरोप लगाया है कि वह उपादानको कार्यका मुख्य ( वास्तविक ) कर्ता नहीं मानना चाहता है, इसका हमें आश्चर्य है । वह केवल तत्त्वजिज्ञासुओं के समक्ष पूर्वपक्षको गलत प्रस्तुत करनेका कुत्सित प्रयत्न है । कथन ४२ ओर उसकी समीक्षा
(४२) उत्तरपक्षनेत० प० पृ० ६० पर ही लिखा है कि "समयसार कलश में यदि जीव पृद्गलकर्म को नहीं करता है तो कौन करता है ऐसा प्रश्न उठाकर उसका समाधान करते हुए लिखा है कि यदि तुम अपना तीव्र मोह (अज्ञान दूर करना चाहते हो तो कान खोलकर सुनो कि वास्तवमें पुद्गल ही अपने कार्यकार्ता है जीव नहीं"। इसके आगे उसने समयसार के उस कलशको भी उद्धृत किया है। इसके आगे उसने लिखा है कि "अपरपक्ष जबकि कार्यके प्रति व्यवहारकर्ता या व्यवहारहेतु आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त हुए बाह्य पदार्थको उपचारकर्त्ता या उपचार हेतु स्वीकार कर लेता है ऐसी अवस्था में उसे भगममें किये गये उपचार पदके अर्थको ध्यान में रखकर इस कथनको अवास्तविक मान लेनेमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए । इससे उपादानकर्ता वास्तविक यह सुतरां फलित हो जाता है । बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहारको लक्ष्यमे रखकर उपचारकर्त्ता या उपचार हेतुका आगम में कथन क्यों किया है, इसका प्रयोजन है और इस प्रयोजनको
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शंका-समाधान १ को समीक्षा
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लक्ष्यमें रखकर यह नाथन व्यर्थ न होकर सार्थक और उपयोगी भी है। किन्तु इस आधारपर अपरपक्ष द्वारा इरा कचनको ही वास्तविक ठहराना किसी भी अवस्थामें उचित या परमार्थरूप नहीं कहा जा सकता है"।
इसकी समीक्षा इस प्रकार है
समयसार कलशमें जो कुछ बतलाया गया है उसे पूर्वपक्ष भी स्वीकार करता है । परन्तु वह कार्यक प्रति व्यवहारकर्ता या व्यवहार हेतु आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त हुए बाह्य पदार्थको उपचारकर्ता या उपचार हेतु स्वीकार करते हुए भी बाह्य पदार्थको उपचारको वास्तविक जगतः समापाय-प्रमानों आधार उसने अपने चमतव्योंमें बार बार स्पष्टीकरण किया है और इरा समीक्षामें भी उसका बार बार स्पष्टीकरण किया गया है । उसकी उत्तरपक्ष जान-बूझकर उपेक्षा कर रहा है।
बास्तबमें जिस प्रकार कार्यके प्रति उपादानकारण कार्यरूप परिणत होने रूपसे वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तकारण भी उपादानको कार्यरूप परिणतिमें जसका सहायक होने रूपसे वास्तविक है। किन्तु निमित्तकारणको जो आगममें उपचार हेतु कहा गया है उसका कारण यह है कि जिस प्रकार उपादानकारण कार्यस अभिन्न वस्तुरूप होता है उस प्रकार निमित्तकारण कार्य से अभिन्न वस्तुरूप न होकर उससे वस्तुरूप होता है। इसी तरह वाह्य वस्तुको जो उपचरितकर्ता कहा जाता है उसका भी कारण यह है कि वह उपादानके समान कार्यरूप परिणत न होकर उपादानकी कार्यरूप परिणतिम नियमसे सहायक मात्र हुआ करती है, वह वहां अकिंचित्कर नहीं रहती है, इसलिए आलापपद्धतिके "मुख्याभावे” इत्यादि वचनके अनुसार उसे उपचरित फा भी कहा जाता है। उस रपक्षने अपने उपर्युक्त कपनमें स्वयं स्वीकार किया है कि बाह्य सामग्रीको आगममें जो उपचारका या उपचारहेतु कहा गया है उसका प्रयोजन है और इस प्रयोजनको लक्ष्यमें रखकर यह कथन व्यर्थ न होकर सार्थक और उपयोगी भी है।
यद्यपि उत्तरपक्षने अपने कथनमै बाह्य वस्तुको उपचारकर्ता और उपचार हेतु मानने में प्रयोजनका संकेत करते हुए भी वह प्रयोजन क्या है यह नहीं बतलाया है तथापि वह प्रयोजन यही है कि वह बाह्य वस्तु उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी हुआ करती है वह वहां सर्वथा अकिंचित्कर नहीं बनी रहती है। इसलिए उसको कार्यकारिता आवाशकुसुमके समान कल्पनारोपित नहीं है, अतएय वास्तविक है। उसे उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथनमें जो सार्थक और उपयोगी कहा है उससे भी यही ध्वनित होता है कि वार्य प्रति बाह्य वस्तुको उपचरितकारणता या उपचरितकर्तृता आकाशकुसुमके समान कल्पनारोपित मात्र न होकर पारमार्थिक ही है। इस तथ्यपर उत्तरपक्षको गम्भीरतासे ध्यान देना चाहिए । उत्तरपक्ष यदि इसे स्वीकार कर लेता है, तो फिर उत्तरपक्ष और पूर्व पक्षके मध्य प्रकृत विषयमें कोई विवाद नहीं रह जाता है। कथन ४३ और उसकी समीक्षा
(४३) कार्योत्पत्ति में जिस प्रकार उपादान कार्यरूप परिणत होने रूपसे कार्यकारी होता है उसी प्रकार निमित्त अपादानका सहायक होन रूपसे कार्यकारी होता है। निमित्त का कार्य' वापर केवल हाजिरी देना मात्र नहीं है। पूर्व पक्ष ने अपनी इस मान्यताकी पष्टिमें तः च०५०२२ पर एक उदाहरण अष्टसहस्री ५० १५० का दिया है. जिसका भाव यह है कि स्वर्ण जो केयूर आदि रूप परिणत होता है वह तभी होता है जब स्वर्णकारको व्यापार आदि रूप बाह्य साभग्नीका उसे सन्निपात (संयोग) प्राप्त होता है । अर्थात् जब तक
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
तब तक वह स्वर्ण केयूर निर्दिष्ट देवागम स्तोत्रके जोबोंमें जो अनेक तरहके अर्थात् जीव जिस प्रकारका
स्वर्णको स्वर्णकारके व्यापार आदि रूप बाह्य सामग्रीका संयोग प्राप्त नहीं होता आदि रूप परिणत नहीं होता। दूसरा उदाहरण अष्टसहली पू० २६७ पर "कामादिप्रभवश्चित्र:" इत्यादि पद्य ९९ का दिया है, जिसका भाव यह है कि कामादिविकार उत्पन्न होते हैं वे सब पुद्गलकर्मके बन्धके अनुसार ही होते पुद्गलकर्म बद्ध होता है उसके अनुसार उसमे (जो मे ) मादिविकारोंकी उत्पत्ति होती है । ऐसा नहीं हैं कि वे विभिन्न प्रकारके काम, क्रोधादि पुद्गल कर्मबन्धके बिना भी उत्पन्न हो जाते हैं। तीसरा उदाहरण प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाका दिया है, जिसका भाव यह है कि एक ही प्रकारके बोजोम भूमिकी विपरीतता के कारण जिस प्रकार कार्योत्पत्तिको विपरीतता देखी जाती है उसी प्रकार प्रवास्तराग-लक्षण शुभोपयोगका फल भी पात्रकी विपरीतताके कारण विपरीत होता है । इसका हेतु उसी गाथाकी टीका यह दिया है कि कारण विशेष से कार्य में विशेषताका होना अवश्यंभावी है ।
इसके उत्तरमें उत्तरपक्ष ने त० ० ० ६०-६१ पर लिखा है कि "अपरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन में आगमके जो तीन उदाहरण उपस्थित किये हैं उनमें से अष्टसहस्री पृ० १५० का उदाहरण निश्चय उपादान के साथ बाह्यसामग्री की मात्र कालप्रत्यासत्तिको सूचित करता है । देवागम कारिका ९९ से मात्र इतना ही सूचित होता है कि यह जीव अपने रागादिभात्रोंको मुख्य कर जैसा कर्मबन्ध करता है उसके अनुसार उसे फलका भागी होना पड़ता है। फलोपभोग में कर्म तो निमित्तमात्र है, उसका मुख्यकर्त्ता तो स्वयं जीव ही
| अपरपक्षने इस कारिकाके उत्तरार्द्धको छोड़कर उसे आगम वचन के प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है । इससे कर्म और जीवके रागादिभावों में निमित्तनैमित्तिक योग कैसे बनता है इतना ही सिद्ध होता है। अतएव इससे अन्य अर्थ फलित करना उचित नहीं है। तीसरा उदाहरण प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाका है । किन्तु इस वनको प्रवचनसार गाथा २५४ और उसकी टीकाके प्रकाशमें पड़ने पर विदित होता है कि इससे उपादान के कार्यकारीपनेका ही समर्थन होता है। रसपाककालमें बीजके समान भूमि फलका स्वयं उपादान भी हूँ इसे अपरपक्ष यदि ध्यानमें ले ले तो उसे इस उदाहरण द्वारा आचार्य किस तथ्यको सूचित कर रहे है इसका ज्ञान होने में देर न लगे। निमित्तनैमित्तिक भावकी अपेक्षा विचार करनेपर इस आगमत्रगण यह विदित होता है कि बीजका जिस रूप में अपने कालमें रसपाक होता है तदनुकूल भूमि उसमें निमित्त होती है और उपादानोपादेयभावकी अपेक्षा विचार करनेपर इस आगमप्रमाणसे यह विदित होता है कि भूमि बीजके साथ स्वयं उपादान होकर जैसे अपने कालमें इष्टार्थको फलित करती है वैसे ही प्रकृत में जानना चाहिए | स्पष्ट है कि इन तीन आगमप्रमाणोंसे अपरपक्ष मतका समर्थन न होकर हमारे अभिप्रायकी ही पुष्टि होती है । बाह्य सामग्री उपादान के कार्यकाल में उपादानकी क्रिया न करके स्वयं उपादान होकर अपनी ही क्रिया करती है, फिर भी बाह्य सामग्री के क्रियाकालमें उपादानका यह कार्य होनेका योग है, इसलिये बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार किया जाता है। इसे यदि अपरपक्ष निमितको हाजिरी समझता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं हूं । निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री उपादान के कार्यका अनुरंजन करती हैं, उपकार करती है, सहायक होती है आदि यह सब कथन व्यवहारनय ( उपचारनय) का ही वक्तव्य हूँ, निश्चयनयका नहीं | अपने प्रतिषेधक स्वभाव के कारण निश्चयनयकी दृष्टिमें यह प्रतिषेध्य ही हूँ । आशा है। अपरपक्ष इस तथ्य के प्रकाश में उपादानके कार्यकालमें बाह्य सामग्रीमें किये गये निमित्तव्यबहारको वास्तविक ( यथार्थ) मानने का आग्रह छोड़ देगा ।"
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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आगे इसकी समीक्षा की जाती है
प्रस्तुतमें मैंने पूर्व पक्षफे अभिप्रायके साथ जो उत्तरपक्षके सम्पूर्ण कथनको दिया है वह इस अभिप्रायसे दिया है कि तत्त्वजिज्ञासुओंको तस्य समझने में सरलता होगी। अर्थात् दोनोंको पढ़नेसे तत्वजिज्ञासू यह समझ लेंगे कि पूर्वपक्ष और उत्तरगम के कथनों में कहाँ अन्तर है। उत्तरपक्ष जहाँ उपादानकी कायोत्पत्तिमें बाह्य सामग्रीको सर्वथा अकिचित्कर कहना चाहता है और उसमें मात्र निमित्त व्यवहार स्वीकार करता है वहाँ पूर्वपक्ष बाह्म सामग्रीको कार्योत्पत्ति में उपादानकी सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी मानकर उसमें निमित्तब्यवहार स्वीकार करता है। फलतः उत्तरपक्षकी मान्यतामें बाह्य सामग्री उपादानकी कायोत्पत्तिमें सर्वथा अकिंचित्कर रहती है और उसमें निमितव्यवहार आकाशकसमको तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होर है तथा पूर्गम को माना गान नामसदानको कार्योत्पत्तिमें अनिवार्य सहायक होने रूपसे कार्यकारी होती है और उसमें निमित्त व्यवहार आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित न होकर वास्तविक सिद्ध होता है।
तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार उत्तरपक्षकी मान्यतामें बाह्य सामग्री उपादानकी क्रिया नहीं करती है उसी प्रकार पूर्वपक्षकी मान्यतामें भी बाह्य सामग्री उपादानकी क्रिया नहीं करती है। इस तरह दोनों पक्षोंकी मान्यतामें इतनी समानता है कि उपादान अपनी क्रिया करता है और बाह्य सामग्री भी अपनी क्रियाका उपादान होकर अपनी ही क्रिया करती है। परन्तु दोनों पक्षोंमें इतनी समानता पाई जानेपर भी यह मतभेद है कि पूर्वपक्ष प्रेरक निमित्त के संबंधों कालप्रत्यासत्तिका इस रूपमें निर्धारण करता है कि जब बाह्य सामग्रीका व्यापार उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणतिके अनुकूल होता है तब उपादान अपनी योग्यता अनुसार उस कार्यरूप परिणत होता है और जब तक बाहा सामग्रीका व्यापार उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणतिके अनुकूल नहीं होता तब तक उपादानकी वह परिणति नहीं होती है । तब उपादानकी वही परिणति होती है जिसके अनुकूल बाह्य सामग्रीका व्यापार उस समय होता है। पर उत्तरपक्ष प्रेरक और उदासीन दोनों ही निमित्तोंके सम्बन्धमें समानरूपसे कालप्रत्यासत्तिका निर्धारण करता है। उसका मन्तब्य है कि जब उपादान विवक्षित कार्यरूप परिणत होता है तभी तदनुकूल बाह्य सामग्री भी वहाँ उपस्थित रहती है। यह कार्यकारी नहीं होती। इसके विपरीत पूर्वपक्ष दोनों (प्रेरक और उदासीन) निमित्तोंको उनकी पृथक-पृथक कालप्रत्यासत्तिके आधारपर कार्यकारी स्वीकार करता है। उत्तरपक्षके उपर्युक्त अक्सध्यसे, जिसमें उसने निमित्त की मात्र हाजिरी मानी है तथा "निमित्तव्यबहारके योग्य बाह्य सामग्रीको उपादानके कार्यका अनुरंजन, उपकार, सहायता करनेवाली बतला कर उस सब कथनको व्यवहारनय (उपचारनय) का हो वक्तव्य कहा है, निश्चयनयका नहीं । प्रकट है कि उत्तरपक्ष उपादानके कार्म में दोनों निमित्तोंको अकिंचित्कर ही मानना चाहता है । यह चिन्त्य है।
इस विषय में मेरा कहना है कि व्यवहारनय (उपचारनय) से बाह्य सामग्री उपादानके कार्यका अनुरंजन करती है, उपकार करती है और उसमें सहायक होती है, इसमें आपत्ति नहीं है। परन्तु उत्तरपक्ष अपने इस कथनसे दोनों निमित्तोंकी अकिचित्करता सिद्ध करना चाहता है, जो मिद्धन होकर उनकी कार्यकारिता ही सिद्ध होती है । इसका कारण यह है कि बाह्य सामग्री द्वारा उपादानका अनुरंजन किया जाना, उपकार किया जाना और उसकी सहायता किया जाना कल्पनारोपित न होकर वास्तविक ही हैं तथा इनके वास्तविक होनेके कारण हो (बाह्य सामग्रीमें) उपादानकी सहकारिता एवं निमित्त-व्यवहार किया जाता
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
है । आगममें यह निश्चयनयका विषय न होकर व्यवहारनयका विषय इसलिये माना गया है क्योंकि वह निमित्तभूत बाह्य वस्तु उपादान भूत वस्तुके कार्यरूप परिणत न होकर उमका अनुरंजन व उपकार मात्र करती है और उसमें सहायक मात्र होती है ।
आशा है उत्तरपक्ष इस विवेचनपर ध्यान देगा और अपनी मान्यतामें परिवर्तन करेगा । इससे उसे यह लाभ होगा कि पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्लुत किये गये उपयुक्त तीनों उदाहरणोंमें जो उसे विसंगति जान पड़ती है वह दूर हो जावेगी।
दुसरा लाभ उसे यह होगा कि जो वह उपादानकी उपादानताकी तो वास्तविक मानता है, किन्तु बाध सामग्रीकी निमित्तताको कल्पनारोपित मात्र मानता है, क्योंकि उस भय है कि यदि बाह्य सामन्त्रीको निमित्तताको भी कार्यके प्रति वास्तविक माना जावे तो उसे भी निश्वयनयका विषम मानना पड़ेगा, सो उसका यह भय भी दूर हो जायेगा, क्योंकि कार्य के प्रति उपादानता और निमित्तता दोनोंको वास्तविक मान लेने में न आगम-विरोध है और न युक्ति-विरोध है ।
प्रतीत होता है कि उत्तरपक्षन्ने अपने उपयुक्त बक्तश्यमें ऐसा रामदाबार लिखा है कि पूर्वपक्ष मानो बाद्य सामग्रीको उपादानकी कायापातमें मुख्य कारण या मुख्य कत्तों व यथार्थकारण या यथार्थकर्ता मानता हो । परन्तु ध्यान रहे कि वह ऐसा नहीं मानता । वह तो बाद्य सामग्रीको उपादानकी कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपसे ही वास्तविक मानता तथा कार्यरूप परिणत न होनेके कारण उसे मुख्य कारण वा मुख्यकर्ता व यथार्थकारण या यथार्थकर्ता नहीं मानता । अब यदि उत्तरपक्ष उपयुक्त प्रकार से आगमसम्मत स्थितिको समस ले और स्वीकार कर ले तो दोनों पक्षोंका उक्त गतभेद समाप्त हो सकता है। उत्तरपक्षने अपने उक्त वक्तव्य अन्त में लिखा है कि "अपने प्रतिषेधक स्वभावके कारण निश्चवनयकी दृष्टि में यह प्रतिषेध्य भी है। इसका क्या आशय ग्रहण करने योग्य है इस विषयमें आगे प्रकाश डाला जावेगा। कथन ४४ और उसकी समीक्षा
(४४) आगे त. च. ५० ६१ पर उत्तरपक्षने लिखा है -"हमने पंचास्तिकाय गाथा ८८ के प्रकाशमें बाह्य सामग्रीमें किये गये निमित ग्यवहारको जहाँ दो प्रकार बतलाया है वहां उसी टीका वचनसे इन भेदोंको स्वीकार करने के कारणका भी पता लग जाता है। जो मुख्यतः अन क्रिया परिणाम द्वारा या राग और क्रिया परिणाम द्वारा उपादानके कार्यमें निमित्त व्यवहार पदवीको धारण करता है उसे आगममें निमित्तकर्ता या हेतुकर्ता कहा गया है। इसोको लोकमें प्रेरक कारण भी कहते है और जो उक्त प्रकारके सिवाय अन्य प्रकारसे हेतु होता है उसे आगममें उदासीन निमित्त कहने में आया है। यही इन दोनों में प्रयोगभेदका मुख्य कारण है । पंचास्तिकायके उक्त वचनसे भी यही सिद्ध होता है। इस प्रकार हमने इन दोनों भेदोंको क्यों स्वीकार किया है इसका यह स्पष्टीकरण है।"
इस विषय में इतना ही कहना पर्याप्त है कि प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके जो पृथक्-पृथक् लक्षण उत्तरपक्षने दिये है उनसे दोनों निमित्तोंमे प्रयोगभेद सिद्ध होनेपर भी उनका कार्यभेद सिद्ध नहीं होता, जबकि इनमें प्रयोगभेद और कार्यभेद दोनों हैं । पंचास्तिकायके कथनसे भी ऐसा ही निर्णीत होता है । इस विषयको मैंने इसी प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट किया है तथा वहीं इनके युक्तिमुक्त और
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करता है और उदासीन निमित्त कार्यरूप पा
शंका-समाधान की समीक्षा
१२७ आगमसम्मत पृथक-पृथक् लक्षणोंका भी निर्देश किया है। इसलिये इस विषयमें यहाँ और विचार करना आवश्यक नहीं रह जाता है।
यद्यपि उत्तरपक्षने त० च० पू० ६१ पर आगे यह भी लिखा है कि "अपरपक्ष इन दोनोंको स्वीकार करनेमें अपादानके कार्यभेदको मुख्यता देता है सो उपादानमें कार्यभेद तो दोनोंके सद्भावमें होता है।" उत्तरपक्षका यह कपन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रेरक निमित्तसे ही कार्यम वैशिष्टय आता है, उदासीन निमित्तसे नहीं । इस विषयमें पूर्वपक्षने अपने वक्तब्यमें आगम प्रमाण भी दिये है। परन्तु उत्तरपक्ष उनको अवहेलना कर रहा है। इस समीक्षामें भी आगम प्रमाणोंके आधारपर स्पष्ट किया गया है कि प्रेरक निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणत न हो सकाने रूप अशक्तिको समाम करके उसे कार्यरूप परिणत होने के लिए तैयार
है और उदासीन निमित्त कार्यरूप परिणत होने के लिए तैयार (उधत) उस उपादानको कार्यरूप परिणत होने में अपना उदासीन (अप्रेरक) सहयोग प्रदान करता है। इसके समर्थनमेंयह दृष्टान्त भी दिया है कि यद्यपि रेलगाड़ीके डिब्बोंमे गतिक्रिया करनेकी स्वभावतः योग्यता विद्यमान रहती है, परन्तु वे तभी गतिक्रिया करते हैं जब उनसे संमुक्त इंजिनमें गतिक्रिया होती है। इससे प्रकट है कि रेलगाडीके डिब्बोंकी गतिक्रिया में इंजिन प्रेरक निमित्त होता है तथा रेलपटरी अप्रेरक निमित्त होती है। उसपर यदि इंजिन और रेलगाड़ीके डिब्बे चलते हैं तो बह जनके चलने में सहायक हो जाया करती है । वह उनको न तो चलाती है और न उसे इस बातसे कोई मतलब है कि वे चलते हैं या नहीं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इंजिनकी मंद या तीव्र गतिके आधारपर उन डिब्बोंकी भी उसीके समान मन्द या तीक गति देखी जाती है । इस तरह यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उपादानके कार्वमें वैशिष्टय प्रेरक निमित्तस आता है, जबति उदासीन निमित्त उपादानके कार्यमें वैशिष्टय लाने में सदा असमर्थ रहता है । अतः उत्तरपक्षका "उपादानमें कार्यभेद तो दोनोंके सद्भावमें होता है" यह कथन मिथ्या है। उदासीन निमित्त उपादानके कार्गमें वैशिष्टय लाने में असमर्थ क्यों रहता है, इसका कारण यह है कि उदासीन निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणतिक अवसरपर उसकी सहायता उदासीन (अप्रेरक) रूपसे करता है। इसका मानना भी आवश्यक इसलिए है कि उसके अभावमें उपादान कार्यरूप परिणत नहीं होता है।
उत्तरपक्षने आगे रख बदलकर लिखा है कि "प्रश्न यह नहीं है, किन्तु प्रश्न यह है कि उस कार्यको वास्तममें कौन करता है ? जिसे आगममें हंत का कहा गया है वह या द्धपादान?" इत्यादि, सो पूर्व पक्षने अपने वक्तव्योंमें और मैंने भी अपने घक्तयों में बार-बार कहा है कि पूर्वपक्ष उत्तरपक्षके समान कार्यका मुख्यकर्ता उपादानको ही मानता है. बाला सामग्री उसमें निमित्तकर्ता, उपचरितकता या अयथार्थकत्ती ही होती है । दोनोंको मान्यताओंमें अन्तर केवल यही है कि उत्तरपक्ष जहाँ उपादानको कार्यरूप परिणति में बाध सामग्रीको सहायक न होनेके आधारपर अकिचिकर रूपमे निमित्तकर्ता आदि मानता है वहां पूर्वपक्ष उसमें बाह्य सामग्रीको सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी रूपमें . निमित्तकर्ता आदि मानता है । इनमें पूर्वपक्षकी मान्यता आगम सम्मत है।
____ आगे उत्तरपक्षने अपने वक्तव्य में यह भी लिखा है कि ''ऐसी अवस्थामें फलित सो यही तथ्य होता है कि उपादानने स्वयं यथार्थवत होकर अपना कार्य किया और बाह्य सामग्री उसमें ध्ययहार हेत हई।" इस कथनसे भी उत्तरपक्ष यही बतलाना चाहता है कि उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है बाह्य सामग्री नहीं । बाह्य सामग्री व्यवहार हेतु होनसे वह उतनी सार्थक नहीं, जितना उपादान है । इस तरह वह अकि
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
चिरकर ही है। परन्तु उत्तरपक्षका यह मन्तव्य पूर्णतया आगम-विरुद्ध है । आगम में उपादान और बाह्य सामग्री दोनों को समान रूपसे कार्योत्यत्तिके साधक माना गया है- कोई अकिचित्कर नहीं है ।
उत्तरपक्षने आगे और लिखा है कि इस अपेक्षावर विचार करनेपर बाह्य सामग्रीको व्यवहारहेतुता एक ही प्रकारकी है, दो प्रकारकी नहीं यह सिद्ध होता है ।" सो यह असंगत है, क्योंकि बागम प्रमाणोंके आधारपर यह सिद्ध है कि दोनों निमित्त उपादान की कार्यरूप परिणति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही हैं तथा इनकी यह कार्यकारिता पूर्वीक प्रकार पृथक-पृथक रूपसे सिद्ध होने के कारण पृथक् पृथक् बाह्य सामग्रीको व्यवहारहेतुता भी पृथक-पृथक दो प्रकारकी सिद्ध होती हैं ।
उत्तरपक्षने आगे लिखा है कि "आचार्य पूज्यपादने इष्टोपदेशमें "नाज्ञो विज्ञत्वमायाति" इत्यादि वचन इसी अभिप्राय से लिखा है। इस वचन द्वारा वे यह सूचित कर रहे हैं कि व्यवहारहेतुता किसी प्रकारसे क्यों न मानी गई हो, अन्य द्रव्यके कार्य में वह वास्तविक न होनेसे इस अपेक्षासे समान है । अर्थात् अन्य द्रव्य कार्य धर्मद्रव्यके समान दोनों हो उदासीन है ।" इष्टोपदेशके उक्त वचनका क्या अभिप्राय है, इसे भी मैं इसी प्रश्नोत्तर के द्वितीय दौरकी समीक्षा में स्पष्ट कर चुका । यहाँ मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंकी व्यवहारहेतुता अन्य द्रव्य कार्य में यद्यपि समान है, परन्तु इनकी उस समानताका आधार अन्य द्रव्यके कार्य में इनकी अकिंचित्करता न होकर सहायक होने रूपसे कार्यकारिता है । इसे भी में उपर्युक्त स्थलपर स्पष्ट कर चुका हूँ जिससे उत्तरपक्षका "व्यवहारहेतुता किसी भी प्रकार क्यों न मानी गई हो, अन्य द्रव्यके कार्य में वह वास्तविक न होनेसे इस अपेक्षासे समान हैं अर्थात् अन्य द्रव्यके कार्य में धर्मद्रव्यके रामान दोनों ही उदासीन है ।" यह कथन इस रूप में भी निराकृत हो जाता है कि "सभी प्रेरक और धर्मद्रव्य सहित सभी उशसीन दोनों प्रकारके निमित्त अन्य द्रव्यके कार्य में अकिचित्कर हो रहा करते हैं" और इस रूपमें भी निराकृत हो जाता है कि "प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकारके निमित्तोंमें कार्यभेद नहीं है ।" इसका कारण पूर्व में आगम प्रमाणों के आधारपर यह स्पष्ट किया जा चुका है। कि प्रेरक निमित्त तो उपादानको कार्यरूप परिणत होनेके लिए उसकी अक्षमताको समाप्त कर सक्षम बनाता है और उदासीन निर्मित कार्यरूप परिणत होने के लिए उद्यत उस उपादानकी कार्यरूप परिणति में अवलम्बन रूपसे सहायता प्रदान करता है। इस विषयको पूर्व में रेलगाड़ीके डिब्वे आदिके उदाहरणों द्वारा स्पष्ट भी किया जा चुका हूँ। इस तरह यह निर्णीत हो जाता है कि उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त सभी उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें कार्यकारी होते हैं तथा तीनोंका कार्यकारित्व अपने-अपने रूपमें है । कथन ४५ और उसकी समीक्षा
(४५) आगे उत्तरपक्षने तु० च० ० ६२ पर लिखा है कि "अब रही प्रेरकनिमित्तव्यवहारयोग्य बाह्य सामग्री के अनुरूप परिणमन की बात, सो यह हम अपरपक्षसे हो जानना चाहेंगे कि यह अनुरूप परिण मन या वस्तु हूं ?'' इसके आगे इसी अनुच्छेद में उसने यह भी लिखा है कि "उदाहरणार्थ कर्मको निमित्तकर जीवके भाव संसारको सृष्टि होती है और जीवके रागद्वेषको निमित्तकर कर्म की सृष्टि होती है। यहां कर्म निमित्त है और राग-द्वेष परिणाम नैमित्तिक । इसी प्रकार राग-द्वेष परिणाम निमित्त हैं और कर्म नैमित्तिक । सो क्या इसका यह अर्थ लिया जाय कि निमित्तमें जो गुणधर्म होते हैं वे नैमित्तिक में संक्रमित हो जाते हैं या क्या यह अर्थ लिया जाय कि जिसको उपादान निमित्त बनाता है उस जैसा क्रियापरिणाम या भावपरिणाम अपनी शक्ति के बलसे वह अपना स्वयं उत्पन्न कर लेता है। प्रथम पक्ष तो इसलिए ठीक नहीं,
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१२९ क्योंकि एक द्रव्यके गुण-धर्मका दूसरे द्रव्यमें संक्रमण नहीं होता । ऐसी अवस्थामें दूसरा पक्ष ही स्वीकार करना पड़ता है"। इसके आगे इसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "समयसार माथा ८०-८२को आत्मख्याति टीकामें "निमित्तीकृत्य" पदका प्रयोग इसी अभिप्रायसे किया गया है। अन्य तथ्य दसरेके कार्य में स्वयं निमित्त नहीं है। किन्तु अन्य द्रव्यको लक्ष्यकर-अवलम्बनकर अन्य जिस द्रश्यका परिणाम होता है उसकी अपेक्षा गरें प्रेरकनिमितन्यवहार नि नाना! पुदगलमा अपनी विशिष्ट स्पर्शपर्यायके कारण दूसरेका सम्पर्क करके अपनी उपादानशक्तिके बलसे जिसका सम्पर्क किया है उसके समान फर्मरूपसे परिणम आता है और जीव अपने कषायके कारण दूसरेको लक्ष्य करके अपनी उपादान शक्ति के बलसे जिसको लक्ष्य किया है वैसा रागपरिणाम अपनेमें उत्पन्न कर लेता है। यही संसार और तदनुरूप कर्मबन्धका बीज है" | इसके आगे उसी अनच्छेदम उत्तरपक्षने लिखा है कि "यही कारण है कि प्रत्येक मोक्षार्थीको आत्मस्वभावको लक्ष्यमें लेनका उपदेश' आगममें दिया गया है। इस लिए प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि प्रत्येक उपादानको कार्य में जो वैशिष्ट्य आता है उसे अपनी आन्तरिक योग्यतावश स्वयं उपादान ही उत्पन्न करता है, बाह्य सामग्री नहीं । फिर भी कालप्रत्यासत्तिवश क्रियाको और परिणामको सदृशता देखकर जिसके लक्ष्यसे वह परिणाम होता है उसमें निमित्तम्यवहार किया जाता है । अन्य द्रव्यके कार्य में प्रेरक निमित्तव्यवहार करनेकी यह सार्थकता है"। आगे उसी अनुच्छेदके अन्त में उत्तरपक्षने लिखा है कि "इसके सिवाय अपरपक्षने इसके सम्बन्धमें अन्य जो कुछ भी लिखा है वह यथार्थ नहीं है"। आगे इन सबकी समीक्षा को जाती है
दोनों हो पा उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें बाद्य सामग्रीको निमित्त स्वीकार करते है और दोनों ही पक्ष मानते हैं कि बाह्य सामग्रीको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त स्वीकर करनेका यह आशय नहीं है कि निमित्तभूत बाह्म सामनोके गुण-धर्म उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें प्रविष्ट हो जाते है, प्रत्युत दोनों पक्षोंकी मान्यता है कि कार्यरूप परिणमन उपादानका ही होता है और वह उपादानमें स्वभावतः विद्यमान कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यताके अनुरूप होता है। किन्तु उत्तरपक्ष अपने वक्तव्यमें आगे जो यह कहता है कि "अन्य द्रव्यको लक्ष्यकर-आलम्बनकर अन्य जिस द्रव्यका परिणमन होता है उसकी अपेक्षा उसमें प्रेरक निमित्त व्यवहार किया जाता है"। सो उत्तरपक्ष अपने इस कथनका यदि यह आशय ग्रहण करता है कि उपादान अपना कार्यरूप परिणमन निमित्तभृत बाह्य सामग्रोरुप न करके अपनेरूप ही करता है, परन्तु निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको लक्ष्यकर-आलम्बनकर अर्थात् सहयोगसे करता है तो ऐसा स्वीकार करने में भी पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन वास्तवमें बात यह है कि उत्तरपक्ष अपने उक्त कथनके
आधारपर उपादानकी कार्यरूप परिणति में निमित्तकारणभत बाह्य सामग्रीको सर्वथा अकिंचित्कर मान लेना चाहता है, इसलिये ही पूर्वपक्षको उसके उक्त कथनमें आपत्ति है, क्योंकि पूर्वपक्ष इसी आधारपर उपादान की कार्यरूप परिणतिमें निमित्तभूव बाह्य सामग्रीको सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध करता है, जैसा कि पूर्व में आगमप्रमाणोंके आधारपर स्पष्ट किया जा चका है।
उत्तरपक्षने समयसार गाथा ८०-८२ को मात्मख्यातिमें निर्दिष्ट "निमित्तीकृत्य" पदका ही 'लक्ष्य कर" और "मालम्बन कर" यह अर्थ स्वीकार किया है । सो यह भी पूर्वपक्षके लिए विवादको वस्तु नहीं है और इसी आधारपर उसने जो यह लिखा है कि "यही कारण है कि प्रत्येक मोक्षार्थीको आत्मस्वभावको लक्ष्यमें लेनेका उपदेश आगममें दिया गया है"। सो पूर्वपक्षको यह भी विवादका विषय नहीं है । परन्तु रपक्ष जब यह मानता है कि बाह्य सामग्रीको लक्ष्य करवालम्बन कर उपादान अपना कार्यरूप परिणमन
स०-१७
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
करता है तो ऐसी हालत में निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको उपादानकी कर्यरूप परिणति में सर्वथा अकिचित्कर कैसे कह सकता है ? क्योंकि यदि निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको ऐसी हालत में भी उपादानको कार्यरूप परिगतिमें सर्वधा अकिंचित्कर माना जाता है तो उस निमित्तभूत बाह्य सामग्री के अभाव में भी उपादानका कार्यरूप परिणत होनेका प्रसंग उपस्थित हो जावेगा, जो उत्तरपक्षको भी मान्य नहीं है, क्योंकि उसकी भी यही मान्यता हूँ कि उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तभूत बाह्य सामग्री के योग में हुआ करती हैं। दूसरी बात यह है कि उपादान तो जड़ और चेतन दोनों ही प्रकारके होते हैं। लेकिन जिस प्रकार चेतन उपादान निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका आलम्बन लेनेका बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ कर सकता है उस प्रकार जड़ उपादान तो उसका आलम्बन लेनेका बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ नहीं कर सकता, इसलिए यही मानना थेयस्कर है कि निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक अर्थात् प्राकृतिक ढंग से समागम मिलनेपर ही उपादानको कार्यरूप परिणति हुआ करती है। इस तरह उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकार से निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको सहायक होने रूपसे कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। उत्तरपक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए।
उत्तरपक्ष ने अपने उक्त वक्तव्य में यह भी कहा है कि "प्रत्येक उपादान के कार्य जो वैशिष्ट्य आता है उसे अपनी आन्तरिक योग्यतावश स्वयं उपादान हो उत्पन्न करता है" मो उत्तरपक्ष इराका यदि यह आशय लेता है कि वह वैशिष्ट्य उपादानकी आन्तरिक योग्यताका हो परिणाम है तब तो पूर्वपक्षको इसमें कोई विवाद नहीं है, लेकिन इसका वह यदि इस रूपमें आशय लेता है कि वह वैशिष्ट्य प्रेरक निर्मित्तसूज बाबाममी के उपादान में अपने आप ही आ जाता है तो यह पूर्वपक्षको मान्य नहीं और न युक्त है, क्योंकि वह वैशिष्टय उपादानकी आन्तरिक योग्यताका परिणाम होते हुए भी अनुकूल प्रेरक निमित्तभूत बाह्य सामग्रीकी सहायता मिलने पर ही उपादान में आता है। पूज्यपाद आदि आचार्योंके साथ आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचंद्रका भी यही दृष्टिकोण है। भले ही उत्तरपक्ष उसे माने या न माने, क्योंकि यह उसकी मर्जीकी बात है ।
उत्तरपक्षने अपने उक्त वक्तव्यके अन्तमें जो यह लिखा है कि "इसके सिवाय अपरपक्षने इसके सम्बन्धमें अन्य जो कुछ भी लिखा है वह यथार्थ नहीं है ।" सो उसका यह लिखना भी मिथ्या है, क्योंकि वह उसने आगमको तोड़-मरोड़ कर या उसके अभिप्रायको नहीं रामज्ञकर ही लिखा है । तत्त्वजिज्ञासुओं को स्वयं इसका निर्णय करना चाहिए ।
कथन ४६ और उसकी समीक्षा
(४६) उत्तरपशने त० च० पृ० ६२ पर ही आगे यह कथन किया है कि "हमने जो यह लिखा है कि प्रेरक निमित्तके बलसे किसी द्रव्यके कार्यको आगे-पीछे कभी भी नहीं किया जा सकता है वह यथार्थ लिखा है, क्योंकि उपादानके अभाव में जबकि बाह्य सामग्री में प्रेरक निमित्त व्यवहार भी नहीं किया जा सकता हैं तो उसके द्वारा कार्यको आगे-पीछे किया जाना तो अत्यन्त ही असम्भव है ।" सो कार्य तो उपादानशक्तिके सद्भाव में ही होता है। मैं इसी प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरको समीक्षा में इस सम्बन्ध में विस्तारसे यह स्पष्ट कर आया हूँ कि प्रेरक निमित्तके बलसे उपादानशक्तिविशिष्ट किसी भी द्रव्यके कार्यको आगे-पीछे कभी भी किम्ा जा सकता है। अतः इस विषय में यहाँ और अधिक लिखना आवश्यक नहीं है। यहाँ उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "क्योंकि उपादानके अभाव में जबकि बाह्य सामग्री में निमित्तम्पवहार भी नहीं किया जा
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शंका-समाधान १ को समीक्षा सकता है तो उसके द्वारा कार्यक्रो आगे-पोछे किया जाना तो अस्पन्त ही असम्भव है।" सो उसका यह लिखना निरर्थक है, क्योंकि उपादानकारणभूत मिट्टीसे घटकी उत्पत्ति हो रही हो या नहीं हो रही हो, फिर भी कुम्भकार उसमें प्रेरक निमित्त होता है यह जानकारी होना जब असम्भव नहीं है तो 'प्रेरक निमित्तके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है' यह निर्णय करना कैसे असम्भव हो सकता है ? इस जानकारी के आधारपर ही लोकमें प्रेरक निमित्तोंको जटाया जाता है और उनके बलले कार्यको आगे-पीछे करने या न करनेकी चेष्टा की जाती है तथा उसमें सफलता भी मिलती देखी जाती है। इस बातको उत्तरपक्ष न जानता हो या वह ऐसी चेष्टा न करता हो, ऐसी बात नहीं है। कथन ४७ और उसकी समीक्षा
(४७अपगे इगी अनुचन्द्र में उत्तरपक्षने लिखा है कि "कर्मकी नानारूपता भावसंसारके उपाशनकी नानास्पताको तथा भूमिको विपरीतता बीजकी सी आदानताको ही सूचित करती है" आदि । सो इसमें बिवाद नहीं है। परन्तु विचारणीय यह है कि ऐसी सूचना सभी प्राप्त हो सकती है जबकि कर्मको भावसंसारकी उत्पत्तिमें और भमिकी विपरीतताको बीजकी विपरीत परिणतिमें सहायक होने रूपसे निमित्त मान लिया जाये । दूसरे, पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि वस्तुमें वैसी उपादानता (कार्यरूप परिणति होनेकी योग्यता ) विद्यमान रहमपर भी उसफी व्यक्ति प्रेरकनिमित्तका सहयोग मिलनेपर ही होती है, इस नियमको उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसका कारण यह है कि समस्त लोक, जिसमें उत्तरपक्ष भी सम्मिलित है, उपादानकी विधक्षित कार्यरूप परिणतिके लिए सतत अनुकूल प्रेरक और उदासीनरूपसे निमित्तभूत वाद्य सामग्रीका अवलम्बन लिया करता है। आगममें उपादानको कार्यरूप परिणतिके विषय में दोनों प्रकारके निमित्तोंको जो स्थान दिया गया है वह भी इसी अभिप्रायसे दिया गया है। यह बात दूसरा है कि वस्तुमें उपादान शक्तिका अभाव रहनेपर कोई भी निमित्त उस शक्तिको उत्पन्न नहीं कर सकता है। लेकिन यह भी सत्य है कि अनुकूल निमित्तभूत वस्तुका सहयोग मिले बिना उपादानमें विवक्षित कार्योत्पत्ति देखनेमें नहीं आती है और ऐसा उत्तरपक्ष भी जानता है । इसलिए वह भी कार्यसिद्धिके लिए सतत अनुकूल निमित्तोंका अवलम्बन लेने की चेष्टा करता है। इतना अवश्य है कि निमित्त-नैमित्तिक भावकी यह व्यवस्था स्वपरप्रत्यय कार्योत्पत्ति ही लागू होती है, स्थप्रत्यय कार्योत्पत्ति में नहीं । यतः वस्तुके षड्गुणहानिवृद्धिरूप परिणमनसे अतिरिक्त राभो परिणमनोंका अन्तर्भाव स्वपरप्रत्वय कार्योम होता है। अतएव कार्यसिद्धिके लिए उत्तरपक्ष भी समस्त लोककी तरह अनुकुल निमित्तोंकी उपेक्षा नहीं कर सकता है और न करता है, भले ही इसके विरोध वह कुछ भी कहता रहे। उत्तरपक्ष यह भी मानता है कि प्रतिकूल निमित्त मिलनेपर कार्य भी प्रतिकूल होता है, इसलिए वह कार्यसिद्धिके लिए सतत अनुकूल निमित्तोंको मिलानेकी ही चेष्टा किया करता है। कथन ४८ और उसकी समीक्षा
(४८) आगे त० च० ० ६२ पर ही उत्तरपक्षने अपनी मान्यताके समर्थनको दृष्टिसे पूर्वपक्षकी मान्यताके विरोधमें यह लिखा है कि ''अपरपक्षने यहाँपर शीतऋतु, कपड़ा और दर्जीका उदाहरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि कपड़ेसे बननेवाले कोट आदिके समान जितने भी कार्य होते हैं उनमें एक मात्र व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका ही बोलबाला है ।" तथा इसके आगे उसने लिखा है कि "इस सम्बन्धमें अपरपक्ष अपने एकांत आग्रहवश क्या लिखता है उसपर ध्यान दीजिए।" और ऐसा लिखकर
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उसने पूर्वपक्षके कथनके कुछ अंशको भी त० च० पृ० ६३ पर उद्धृत किया है। फिर उसने उसकी मालीचनामें आगे लिखा है कि “यह प्रकृतमें अपरपक्षके वक्तव्यका कुछ अंया है। इस द्वारा अपरपक्ष यह बतलाना चाहता है कि अनन्त पुदगल परमाणुओंका अपने-अपने स्पर्श विशेषके कारण संश्लेष सम्बन्ध होकर जो आहारवर्गणाओंकी निष्पत्ति हुई और उनका कार्यास व्यंजन पर्यायरूपसे परिणमन होकर जुलाहेके विकल्प और योगको निमित्तकर जो वस्त्र बना उस वस्त्रकी कोट आदि पर्याय दर्जीके योग और विकल्पपर निर्भर है कि जब चाहे वह उसकी कोट पर्यायका निष्पादन करे न करना चाहे न करे। जो व्यवहारनयसे उस वस्त्रका स्वामी है वह भी अपनी मानुसार उत्सम नामः २१ प्र कार समला है। परनका अगला रूप क्या हो, यह वस्त्रपर निर्भर न होकर दर्जी और स्वामी आदिकी इच्छापर ही निर्भर हैं। ऐसे सब कार्योंमें एकमात्र निमित्तका ही बोलबाला है, उपादानका नहीं। अपरपक्षके कयनका आशय यह है कि विवक्षित कार्य परिणामके योग्य उपादानमें योग्यता हो, परन्त सहकारी कारणसामग्रीका योग न हो या आगे-पीछे हो, तो उसीके अनुसार कार्य होगा। किन्तु अपरपक्षका यह सब कथन कार्यकारणपरम्पराके सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि जिसे व्यवहारनयसे सहकारी सामग्री कहते है उस यदि तपादान कारणके समान कार्यका यथार्थकारण मान लिया जाता है तो कार्यको जैसे उपादानसे उत्पन्न होने के कारण तत्-स्वरूप माना गया है वैसे ही उसे सहकारी सामग्री स्वरूप भी मानना पड़ता है, अन्यथा सहकारी सामग्रीमें यथार्थकारणता नहीं बन सकती। दूसरे दर्शनमें सन्निकर्षको प्रमाण माना गया है । किन्तु जैनाचार्योंने उस मान्यताका खण्डन यह कहकर किया है कि सल्लिकर्ष दोमे होनेके कारण उसका फल अर्थाधिगम दोनोंको प्राप्त होना चाहिए । (सर्वार्थसिद्धि अ० १० १०) वैसे ही एक कार्यकी कारणता यदि दोमें यथार्थ मानी जाती है तो कार्यको भी उभयरूप माननेका प्रसंग आता है। अतः कार्य उभयरूप नहीं होता, अतः अपरपक्षको सहकारी सामग्रीको निर्विवाद रूपसे उपरितकारण मान लेना चाहिए।"
भामें इसकी समीक्षा की जाती है
इतः पूर्व बार-बार कहा जा चुका है कि जिस घस्तुमें जिस प्रकारके कार्यरूप परिणत होनेको योग्यता विद्यमान रहती है वही वस्तु उस कार्यरूप परिणत होती है, इसलिए वह वस्तु उस कार्यको यथार्थ कारण है, इस बातको दोनों पक्ष मानते हैं और दोनों पक्ष यह भी मानते हैं कि जिस बाह्य वस्तुका योग मिलनेपर वह उपाशनभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है वह बाध्य वस्तु वहाँ उपचारित या व्यवहारकारण होती है, इसलिए ये दोनों बातें दोनों पक्षोंको मान्य हैं । दोनों पक्षोंके मध्य विवादग्रस्त बात केवल यह है कि निमित्तका योग रहनेपर ही उपादानकी कार्यरूप परिणति होती है इस बातको मानते हए भी उत्तरपश निमित्तको उपादानझी कार्यरूप परिणति में सर्वथा अकिंचित्कर मान लेना चाहता है जबकि पूर्वपक्ष निमित्तका योग रहने पर ही उगादानकी कार्य रूप परिणति होती है, इस आधारपर निमित्तका उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है। उपादानकी कार्यरूप परिणति में निमित्तको अकिचिकर मानने उत्तरपक्षका कहना यह है कि निमित्त का योग रहनेपर हो उपादानकी कार्यरूप परिणति होता है। इस मान्यताका आवाय यह है कि जब उपादान अपनी विवक्षित कार्यरूप परिणति करता है तब अतुकल निमित्त भी वहां नियमसे उपस्थित रहता है परन्तु उस समय निमित्त और उपादान दोनों स्वतन्त्र रूपसे अपनाअपना ही कार्य किया करते हैं, इसलिए निमित्तको किसी भी हालत में उपादानकी कार्यरुप परिणतिमें कार्यकारी नहीं माना जा सकता है। इसके विपरीत निमित्तको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें कार्यकारी मानने में
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
पूर्व पक्षका कहना यह है कि निमित्त का योग रहनेपर ही उपादानको कार्य रूप परिणति होती है । इस मान्यताका आशय यह है कि जब सुपादानको अपनी विवक्षित कार्यरूप परिणतिके अनुकूल निमित्तका योग मिलता है तभी उपादानकी वह विवक्षित कार्यरूप परिणति होती है और न मिलनेपर नहीं होती है। इस तरह इस व्यवस्थाके अनुसार निमित्त उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध होता है।
यद्यपि यह बात सत्य है कि निमित्त और उपादान दोनों अपना-अपना ही कार्य करते हैं, परन्तु कार्योत्पत्तिमै जिस प्रकार कार्यरूप परिणत होनेरूपसे उपादानको वास्तविक कारण माना जाना है उसी प्रकार वहाँपर उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होतेरूपसे यदि निमित्त को वास्तविक कारण न मानकर केवल कल्पनारोपित कारण माना जाये तो जीवकी संसार और मोक्षकी व्यवस्था भंग हो जायेगी, क्योकि संसार और मोक्षकी व्यवस्था ध्यवहाररूप होनेसे उत्तरपक्षकी दष्टिम अवास्तविक ही सिद्ध होती है। यदि कहा जाये कि संसार और मोश्चकप परिणमन जीवके ही परिणमन है, इसलिए वास्तविक हैं तो भी गुद्ध निश्चयनयको अपेक्षासे तो वे जीवके नहीं है। व्यवहारनयसे ही वे उसके व्यवहत होते हैं, क्योंकि शुद्ध निश्चयनयसे अनादि, अनिधन, स्वाधित और अखण्ड शुद्ध (पर संयोगरहित) पारिणामिक भाव रूप तत्व ही वास्तविक है। अत: जीवकी संसार और मोक्षरूप परिणतियां व्यवनारनयसे ही सिद्ध होती हैं। इस तरह वे व्यवहाररूप होनेपर भी कल्पनारोपित न होकर वास्तविक है। अतः निमित्तकारणता व्यवहाररूप होते हुए भी उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने के रूपमें वास्तविक मानना ही युक्तिसंगत है, कल्पनारोपित मानना युक्तिसंगत नहीं है। फिर भी यदि कहा जाये कि जीवको संसार और मोक्षरूप परिजतिया व्यवहाररूप होकर भी स्व-रूपके आधारपर वास्तविक है तो निमित्तकारण व्यवहाररूप होकर भी सहायक होने रूप पररूपके माधारपर वास्तविक मानना कसे असंगत कहा जा सकता है? वस्तुतः जहाँ संसार मोर मोक्षरूप परिणतिर्वा आत्माकी ही परिणतियां होनेसे उनरूप परिणत होनेवाला उपादानकारणभूत आत्मा स्वाश्मयताके आवारवर निश्चयकारणके रूपमें निश्चयनयका विषय सिद्ध होता है वहीं वे मात्माकी परिणतियाँ पौद्गलिक कर्मके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और श्वयोशम पूर्वक होनेसे उसमें सहायक होनेवाला निमित्तकारणभूत कर्म पराश्रयताके आधारपर व्यवहारकारणके रूपमें व्यवहारनयका विषय सिद्ध होता है।
इस तरह निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणतिम सहायक होने रूपसे वास्तविक सिद्ध हो जानेपर उसकी (निमितकी) वहाँ पर (उपायानकी कार्यरूप परिणतिमे) कार्यकारिता ही सिद्ध होती है, अकिंचित्करता नहीं । अतः इस आधारपर पूर्वपक्षका यह कहना कि "उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट वस्तुकी कार्यरूप परिणति में निमित्तका बोलबाला है" असंगत नहीं माना जा सकता है, क्योंकि उपादानमें विवक्षित कार्यरूप परिणत होनकी योग्यता स्वभावतः विद्यमान रहने पर भी उसकी वह परिणति तभी होती है जब उसे अनुकुल प्रेरक और सक्षसीन दोनों प्रकारके निमित्तोंका सहयोग प्राप्त होता है और तब तक वह परिणति रुकी रहती है जब तक उसे उनका सह्योग प्राप्त नहीं होता।
यहाँ उत्तरपक्ष यह कह सकता है कि उपादान में कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यता स्वभावतः विद्यमान रहनेपर भी उसकी वह कार्यरूप परिणति केवल उस स्वाभाविक योग्यताके आधारपर न होकर तभी होती है जब यह उपादान अपनी कार्यान्यहित पूर्वपर्यायको धारण कर लेता है तथा उपादानके उस
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा कार्याव्यवहित पूर्वपर्यायको धारण कर लेने पर नियमसे बद् कार्योत्पत्ति होती है, इसलिये उस कार्योत्पत्ति में निमित्त का बोलबाला न कहकर कार्यान्यवहित पूर्वपर्यायका ही बोलबाला कहना चाहिए । परन्तु उसका यह कहना इसलिय निरर्थक है कि पूर्वमें प्रमयकमलमार्तण्ड आदि आगम प्रमाणोंके आधारपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि उपादानी वह काविपवाहित पुर्वपर्याय निमित्तका सहयोग मिलनेपर ही होती है, उसके अभावमें नहीं। इस तरह कार्योत्पत्तिमें कार्याब्धयाहित पूर्वपर्यायका बोलबाला सिद्ध न होकर निमित्तका ही बोलबाला स्पष्ट सिद्ध होता है। यतः उपादानको निमित्तका सहयोग प्रायोगिक या प्राकृतिक रूपमें सतत मिलता ही रहता है अतः उसकी कार्योत्पत्ति सतत होती रहती है, उसमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती इस तरह यही मानना युक्तिसंगत है कि जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब उपादानमें कार्योत्पत्ति उसकी अपनी योग्यताके आधारपर उन निमित्तोंके सहयोगके अनुसार ही होती है। इस विवंचनसे उत्तरपक्षका यह कथन भी असंगत सिद्ध होता है कि उपादानके कार्याध्यवाहित पूर्वपर्याधको धारण कर लेनेपर नियमसे विवक्षित कार्यको उत्पत्ति होती है। अतः उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हो जाता है कि जब जैसे निमित्त मिलते है तब उपादानकी कार्यरूप परिणति उसमें विद्यमान योग्यताके आधारपर उन निमित्तोंके अनुसार ही होती है।
___ उत्तरपक्ष उपादानको कार्योत्पत्तिमें निमित्तको अकिंचित्कर. सिद्ध करने के लिए यह भी कह सकता है कि उपादानको प्रत्येक कार्योत्पत्ति के साथ निमित्तका ऐसा ही त्रिकालाबाधित योग रहता है कि ज्यादानको कार्योत्पत्तिके अवसरपर निमित्तके अभावकी कभी कल्पना ही नहीं की जा सकती है और यही कारण है कि उपादानको कार्योत्पत्तिमं सहायक होने रूपसे कारण न होते हुए भी निमित्तको व्यवहार (उपचार) रो कारण कहा जाता है सो उत्तरपक्ष यह कहकर भी निमित्तोंकी अनिवार्य सहकारिताको स्वयं स्वीकार कर लेता है-चमका निषेध या अकिचित्करता कदापि सिद्ध नहीं होती। इतना ही नहीं, इससे कार्योत्पत्ति के लिए बुद्धिपूर्वक्र किये जाने वाले पुरुषार्थको हानिका ही प्रसंग आता है। अतः कार्वोत्पत्तिके विषयमें उत्तरपक्षको मान्य व्यवस्था श्रेयस्कर न होकर पूर्वपक्षको मान्य व्यवस्था ही बेवस्वर है और वहीं आगम, तर्क, अनुभव
और इन्द्रियप्रत्यक्ष सभी प्रमाणोंसे समर्थित है । यह भी पत्य है कि कार्योत्पत्तिके लिए निमित्तोंकी प्राप्ति प्राकृतिक और प्रायोगिक दोनों प्रकारसे होती है । अतः जिस कार्योत्पत्तिमें प्राकृतिक ढंगसे प्राप्त निमित्तोंकी उपयोगिता है यहाँ निमित्तोंका त्रिकालाबाधित योग हो सकता है । परन्तु वहाँ भी कार्योत्पत्ति निमित्तानुकूल ही होती है, इस विगयको और स्पष्ट करने के लिए यहां दोनों पक्षोंको अपने-अपने गसे मान्य कार्योत्पत्तिकी व्यवस्थाका दिग्दर्शन कराया जाता है
(१) पूर्वपक्षका कहना है कि कार्यरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट होनेसे उपादानकारणभूत बस्तु ही विवक्षित कार्यरूप परिणत होती है। परन्तु वह अनुकूल निमित्तकारणभूत वस्तुका सहयोग मिलनेपर ही कार्यरूप परिणत होती है, उसके अभावमें नहीं होती। इसके विपरीत उत्तरपक्षका कहना है कि कार्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट होनेसे उपादानकारणभूत वस्तु ही विवक्षित कार्यरूप परिणत होती है और वह यधपि निमित्तकारणभूत वस्तुको उपस्थितिमें ही होती है, परन्तु उसमें निमित्तकारणभूत वस्तुका कोई उपयोग नहीं होता है वह तो अपने आप ही होती है ।
(२) पूर्वपक्ष का कहना है कि उपादानकारणभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणति नियमसे निमित्तकारणभूत वस्तुके सद्भावमें होनेके कारण आगममें और लोवामें उस निमित्त कारणभूत वस्तुको उस कार्योत्पत्तिमें
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
सहावक होने रूपसे कार्यकारी माना गया है । इसके विपरीत उत्तरपक्षका कहना है कि उपादानकारणभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणति निमित्तकारणभूत बस्तुको उपस्थितिम तो होती है, परन्तु उसमें उस निमित्त. कारण कामा सहाया होलोर से तो नहीं हो। 17 ह निमित्त कारणभूत वस्तु वहाँ कार्यकारी नहीं होकर सर्वथा अकिंचिकर ही बनी रहती है।
(३) पूर्वपक्षका कहना है कि यद्यपि उपादानकारणभूत वस्तु के कार्यरूप परिणत होनेसे उस उपादानभूत वस्तुके साथ कार्यका तादात्म्य संबंध होता है और निमित्तकारणभूत वस्तु के उपादानको कार्य रूप परिणतिमें सहायक होनेरो निमित्तभृत वस्तुका उपादानके साथ संयोग संबंध होता है। तथा जिस प्रकार कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर कार्य प्रति उपादानकारणभत यस्तमें स्वीकृत कारणता वास्तविक है उसी प्रकार उपाधानकारणभूत वस्तुकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यके प्रति निमिसकारणभत बस्तमें स्वीकत कारणता भी वास्तविक है, कल्पनारोपित नहीं है। हो, कार्यके प्रति उपादानकारणभूत वस्तुमें कार्यरूप परिणत होनेके आधार पर स्वीकृत कारणता और निमित्तकारणभूत वस्तुमें उपादानके कार्य के प्रति सहायक होनेके आधारपर स्वीकृत कारणता दोनों अपने-अपने ढंगसे वास्तविक होते हुए भी उपादानकारणभूत वस्तू के साथ कार्यका तादात्य संबंध रहने के कारण उसमें (उपादामकारणभत वस्तुमें) विद्यमान कारणता स्व-पताके आधारपर निश्चयरूप होनेसे निश्चयनयका विषय होती है और निमित्तकारणभूत वस्तुके साथ कार्यका संयोग सम्बन्ध रहने के कारण उसमें (निमित्तकारणभूत वस्सुमें) विद्यमान कारणता पररूपताके आधारपर व्यवहाररूप होनेसे व्यवहारनयका विषय होती है। इसके विपरीत उत्तरपक्षका कहना है कि यतः उपादानकारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है अतः उसके साथ कार्यका तादारम्य सम्बन्ध निश्चित होता है और निमित्त कारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत नहीं होती व उपादानकारणभूत वस्तुको कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी नहीं होती, केवल उपादानकारणभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिफे अवरारपर उपस्थित मात्र रहा करती है, अतः निमित्तकारणभूत वस्तुके साथ उपादानगत कार्यका संयोग सम्बन्ध निश्चित होता है। इस तरह कार्य के प्रति उपादानकारणभूत और निमित्तकारणभूत दोनों वस्सुओं में इतना अन्तर रहने के कारण यह निर्णीत होता है कि जिस प्रकार तापारम्प सम्बन्ध होनेसे कार्यके प्रप्ति उपादान कारणभूत वस्तु स्वीकृत कारणता कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर वास्तविक है उसी प्रकार संयोग सम्बन्ध होनेसे कार्य के प्रति निमित्तकारणभूत वस्तुमें स्वीकृत कारणता कार्यरूप परिणत न होने व उपादानकारणभूत वस्तु की वायुरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर कल्पनारोपित मात्र सिद्ध हो जानेसे वास्तविक नहीं है। अतएव कार्यवे प्रति उपादानकारणभूत वस्तुमें स्वीकृत कारणता उपर्युक्त प्रकार वास्तविक होने के कारण निश्चयरूप हो जानेसे निश्चयनयका विषय होती है और उसी कार्यके प्रति निमित्तकारणभूत प्रस्तुभे स्वीकृत कारणता उपयुक्त प्रकार कल्पनारोपित मात्र होनेके कारण व्यवहाररूप हो जानेसे व्यवहारनयका विषय होती है ।
(४) पूर्वपक्षका कहना है कि यतः उपादानकारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है अतः उस वस्तुमें और कार्यमें द्रव्यप्रत्यासत्ति रहा करती है और निमित्तकारणभत वस्तु उक्त कार्यरूप परिणत न होकर उस कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादानकारणभत बस्सूकी उस कार्यरूप परिणतिम सहायक मात्र होती है, अतः उस वस्तुमें और उपादानगत उस कार्यमें कालप्रत्यासत्ति रहा करती है । यतः निमित्त प्रेरक और खासीन दो प्रकार के होते हैं और उपादानकी कार्थरूप परिणतिमें सहायता रूप कार्य भी पृथक-पृषक् होता है अतः
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जयपूर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उक्त दोनों प्रकारके निमित्तोंमें और उपादानगत कार्यमें स्वीकृत कालप्रशासत्ति भी पृथक्-पृथक् रूपमें ही होती है। अर्थात निमित्त के साथ कार्यकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंका होना यह प्रेरक निमित्त और उपादानगत कार्यकी मालभल्यासास है और कार्यके साथ निभिसकी अन्दय और व्यतिरेक व्यातियोंका होना यह उदासीन निमित्त और उपादानगत कार्यकी कालप्रत्यासत्ति है। इसके विपरीत उत्तरपक्षका कहना है कि मत: उपादानकारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है अतः उस वस्तुमें और कार्यमें द्रव्यप्रत्यासत्ति रहती है और निमित्त कारणभप्त वस्तु कार्यरूप परिणत नहीं होती व उस कार्य में सहायक भी नहीं होती। केवल उपादानकारणभत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिके अवसरपर उपस्थित मात्र रहती है। अतः उस वस्तुमें और उपादानगत कार्यमें कालप्रत्यासत्ति रहती है। निमित्त प्रेरक और उदासीन दो प्रकारके होनेपर भी उनकी तपादानगत कार्यके प्रति कालपत्यासत्तिका कोई अन्तर नहीं रहता है, क्योंकि दोनों ही निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणतिके अवसरपर उपस्थित मात्र रहते हैं। दोनों ही निमित्तोंका उपादानगत कार्य प्रति न तो कार्यरूप परिणत होने रूपसे उपयोग होता है और न उपादानकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे ही उपयोग होता है अर्थात जो क्रियावान बाह्य द्रव्य उपादानगत कार्यके प्रति क्रियाके आधारपर निमित कहा जाता है वह प्रेरक निमित्त कहलाता है और जो कियावान अथवा निष्क्रिय बाह्य द्रव्य उपादानगत कार्य के प्रति क्रियाके आधारपर निमित्त न कहा जाकर निष्क्रियताके आधारपर निमित्त कहा जाता है वह उदासीन निमित्त कहलाता है। इस प्रकारका दोनों निमित्तोंमें अन्तर विद्यमान रहते हुए भी दोनों ही उक्त कार्यकी उत्पत्तिके अवसरपर समानरूपसे केवल उपस्थित मात्र रहा करते है। दोनों ही न तो उपादानगत कार्मरूप परिणत होते हैं और न उपादानगत कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक ही होते है। तात्पर्य यह कि दोनों निमित्तोंमें फेवल प्रयोगका भेद पाया जाता है, कार्यभेद नहीं, अतः दोनों ही निमित्तोंमें कालप्रत्यासत्तिको उपादानगत कार्योत्पसिके अवसरपर उपस्थित रहने मात्रके रूपमें समानता पाई जाती है ।
उक्त विवेचनसे निम्नलिखित तथ्य फलित होते हैं
(१) कार्योत्पत्तिके विषयमें उपादानकी अपेक्षा दोनों पक्षोंको मान्य व्यवस्थाके सम्बन्धमें कोई अन्तर महीं देखने में आता । इसी तरह उसी कार्योत्पत्तिके विषयमें निमित्त की अपेक्षा दोनों पक्षों को माम्प व्यवस्थाके सम्बन्धमें यह समानता पाई जातो है कि दोनों ही पक्ष उपादातगत कार्यकी उत्पत्तिके अवसरपर निमित्तकी स्थितिको स्वीकार करते हैं । दोनों ही पक्ष यह भी स्वीकार करते हैं कि वह निमित्त प्रेरक और उदासीनके भेदसे दो प्रकारका होता है। दोनों ही पक्षोंका यह भी कहना है कि उपादानगस कार्योत्पत्ति के साथ दोनों निमित्तोंकी कालप्रत्यामति पाई जाती है और दोनों यह भी कहते है कि उपादानगत कार्यके प्रति दोनों निमित्तोंमें विद्यमान कारणता व्यवहारनयका विषय होती है। यह दोनों पक्षोंकी समानता विषयक तथ्य है।
(२) दोनों पक्षोंमें निम्नलिखित अन्तर भी पाया जाता है
(क) पूर्वपक्ष उपादानगत उक्त कार्यके प्रति निमिसको स्थितिको उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधारपर अफिविस्कर और लस कार्योस्पत्तिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी रूपमें स्वीकार करता है, जबकि उत्तराक्ष उसो कार्योत्पत्ति के प्रति निमित्तकी स्थितिको उस कार्यरूप परिणत न होने और उस कार्योत्पत्तिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिचित्कर रूपमें ही स्वीकार करता है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा (ख) पूर्वपक्ष उपादानगत उक्त कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्तकी स्थितिको सहायक होने रूपसे कार्यकारी रूप में स्वीकार करके उसे पूर्वोक्त प्रकारसे प्रेरक और उदासीन (अप्रेरक) दो रूप में स्वीकार करता है जबकि उत्तरपश्न उक्त कार्योत्पत्ति के प्रति निमितको स्थितिको उस कार्यरूप परिणत न होने व उसमें सहायक भी न होने रूपसे सर्वथा अकिंचित्कररूपमें स्वीकार करके उस अकिचित्करताकी समानताके कारण कार्यभेद न मानते हुए निमित्तके प्रेरक और उदासीन दो भेद पूर्वोक्त प्रकारके प्रयोगभेदके आधारपर ही स्वीकार करता है।
मो पूर्वपक्ष उपादानगत उक्त कार्योत्पत्ति के साथ दोनों निमित्तोंकी कालप्रत्यासत्तिको इस रूपमें स्वीकार करता है कि उपादान अर्थात कार्यरूप परिणत होनेको योग्यता विशिष्ट बस्तु तभी विवक्षित कार्यरूप परिणत होती है जब उसके अनकल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सद्भावका योग भी उसे प्राप्त रहता है और यदि उसे तदनुकूल प्रेरक और उदासीन निमितोंका सद्भाव प्राप्त न हो तो वह उपादानभूत वस्तु उस समय उस विवक्षित कार्यरूप परिणत नहीं होती है। फिर तो वह उसी कार्यरूप परिणत होती है जिस कार्यके अनुकूल उस समय प्रेरक और उदासोन निमित्तोंका सद्भाव जसे प्राप्त रहता है। इसके विपरीत उत्तरपक्ष उपादानगत कार्योत्पत्ति के साथ दोनों निमित्तोंकी कालप्रत्यासत्तिको इस रूपमें स्वीकार करता है कि जब उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणति उसकी अपनी योग्यवानुसार होती है तब प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्त भी वहाँ उपस्थित रहते हैं। दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने ढंगसे उक्त कालप्रत्पासत्तिका पृथक्-पृथक रूपमें निर्धारण करने का आधार यह है कि जहां पूर्वपक्ष उपादानगत कार्योत्पत्ति में दोनों निमित्तोंको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष चक्त कार्यके प्रति दोनों निमित्ताको सर्वथा अकिंचित्कर ही मानता है ।
(च) यतः पूर्वपक्ष उपादानगत कार्योत्पत्ति के प्रति दोनों निमित्तोंको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है अत: उसके द्वारा उसमें स्वीकृत निमित्तकारणता कल्पनारोपित न होकर वास्तविक ही होती है। लेकिन पररूप होनेके कारण व्यवहाररूप हो जानेसे व्यवहारनयका विषय होती है और यतः उत्तरपक्ष उपादानगत कार्योत्पत्ति के प्रति दोनों निमित्तोंको सर्वथा अकिचित्कर मानता है अत: उसके द्वारा उसमें स्वीकृत निमित्तकारणता कल्पनारोपित मात्र या कथनमात्र सिद्ध होने के कारण व्यवहाररूप होनेसे व्यवहारनयका विषय होती है।
निष्कर्ष यह है कि दोनों पक्षों द्वारा पृथक्-पृथक् रूपमें स्वीकृत उक्त व्यवस्थाओं में पूर्वपक्षकी व्यवस्था आगम, तर्क, अनुभव तथा इन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा समर्थित होनेसे युक्त है । किन्तु उत्तरपक्षकी व्यवस्था केवल दुराग्रहपूर्ण है। कथन ४२ और उसकी समीक्षा
(४९) उत्तरपक्षने तक च० १०६३ पर उक्त अनुच्छेद में 'आगं यह लिखा है कि "अपरपक्षके कथनका बाशय यह है कि विवक्षित कार्यरूप परिणमनके योग्य उपादानमें योग्यता हो, परन्तु सहकारी सामग्रीका योग न हो या आगे-पीछे हो तो उसीके अनुसार कार्य होगा" इस कथनके सही होनेपर भी उसे उत्तरपक्षने कार्य-कारणपरम्पराके विरुद्ध बतलाया है तथा लिखा है कि "क्योंकि जिसे व्यवहारनयसे सहकारी सामग्री कहते है उसे यदि उपादानफारणके समान कार्यका अथार्थ कारण मान लिया जाता है तो कार्यको जैसे उपादानसे उत्पन्न होने के कारण तत्स्वरूप माना गया है वैसे ही उसे सहकारी सामग्री स्वरूप
स०-१८
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जयपुर (खानिया) तस्वधर्चा और उसकी समीक्षा भी मानना पड़ता है, अन्यथा सहकास सामग्री यथार्थकारा नहीं बन सकता है । ' आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर बाह्य सामग्रीको यथार्थ कारण माननेका मिथ्या आरोप लगा रहा है। उत्तरपक्ष बतलाये कि पूर्वपक्ष बाह्य सामग्नीको उपादामकी कार्यरूप परिणतिमें यथार्थ कारण कहाँ मानता है । वह भी अयथार्थकारण ही मानता है। इसलिये कार्यको सहकारी सामग्री स्वरूप माननेका प्रसंग उपस्थित ही महीं होता है। इतना ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार कार्यरूप परिणत होनेसे उपादानमें यथार्थकारणता वास्तविक है उसी प्रकार सहकारी कारणोंमें कार्यरूप परिणत न होनेपर भी उसमें सहायक होनेसे अयथार्थकारणता भी वास्तविक ही है, कल्पनारोपित या कथनमात्र नहीं है। इस तरह पूर्वपसकी उपर्युक्त मान्यता कार्य-कारण परम्पराके विरुद्ध नहीं है । यतः पूर्वपक्ष की उक्त मान्यतानुसार कार्योत्पत्ति में बाल सामग्रीकी मात्र सहायता अपेक्षित होनेके कारण कार्यको बाह्य सामग्री स्वरूप माननेकी प्रसक्ति नहीं आती है, अतः उत्तरपक्षका उक्त आरोप केवल गलत ही नहीं, निरर्थक भी है । कथन ५० और उसकी समीक्षा
(५०) इसके आगे उत्तरपक्षने त.० १०६३-६४ पर लिखा है कि "अपरपक्ष जानना चाहता है कि बाजारसे कोटका कपड़ा खरीदने के बाद जम तक दर्जी उसका कोट नहीं बनाता तब तक मध्यकालमें कपड़े में कौन-सी ऐसी उपादान योग्यताका अभाव बना हुआ है जिसके बिना कपड़ा कोट नहीं बनता। समाधान यह है कि जिस अव्यवहित पूर्वपर्यायके बाद कपड़ा कोट पर्यायको उत्पन्न करता है वह पर्याय उस कपड़े में जब उत्पन्न हो जाती है सब उसके बाद ही वह कपड़ा कोट पर्याय रूपसे परिणत होता है । इसके पूर्व उस कपड़ेको कोटका उपादान कहना म्याधिकनयका वक्तव्य है।" इसके विषयमें मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता है कि जब कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय निमित्तकारणभत बाह्म सामग्रीकी सहायतासे ही निष्पन्न होती है ऐसा आगम है तो उत्तरपक्षके उक्त कथनसे पूर्वपक्ष के प्रश्नका समाधान नहीं होता-वह तदनस्थ बना रहता है। कथन ५१ और उसकी समीक्षा
(५१) इसके आगे उत्तरपक्षने त च पृ० ६४ पर लिखा है कि "अपरपस कोट पहिननेको आकांक्षा रखने वाले व्यक्तिकी इच्छा और दर्जीकी इच्छाके आधारपर कोटका कपड़ा कब कोट बन सका यह निर्णय करके कोट कार्य में बाह्य सामग्रीक साम्राज्यकी भले ही घोषणा करे, किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । अपरपक्षके उस कम्पनको उलटकर हम यह भी कह सकते हैं कि कोट पहिननेकी आकांक्षा रखने वाले व्यक्तिने बाजारसे कोटका कपड़ा खरीदा और बड़ी उत्सूकता पूर्वक वह उसे दर्जीके पास ले भी गया किन्तु अभी जस कपड़े में कोट पर्याय रूपसे परिणत होने का स्वकाल नहीं आया था, इसलिये उसे देखते ही दर्जीकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और जब उस कपडेकी कोट पर्याय खन्निहित हो गई तो दर्जी, मशीन आदि भी उसकी उत्पत्तिमें निमित्त हो गये।" ।
इसके विषय में भी मेरा कहना है कि एक तो कपड़ेकी कोट पर्याय तभी सन्निहित होती है जब निमितभूत बाए सामग्री रूप दीं, मशीन आदिका व्यापार तदनुकल होता है। दूसरे, उत्तरपक्षका उक्त कथन आगम, युक्ति, अनुभब और इन्द्रियप्रत्यक्ष के भी विरुद्ध है। क्या उत्तरपक्ष उक्त प्रमाणोंके आधारसे यह सिद्ध कर सकता है कि जब कपड़ेको कोट पर्याय सन्निहित हो जाती है तभी दर्जी, मशीन आदिका तदनुकूल व्यापार होता है । इतना ही नहीं, उत्तरपक्षका मत कथन उसके इस विषयमें किये जाने वाले
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
विचारों, वचनों और प्रवृत्ति रुप पुरुषार्थक भी विरुद्ध है। इसपर उत्तरपक्षको सोचना चाहिए। वास्तवमें फोटके सृजनमें जो महत्व कपड़ेका है वही और उतना ही महत्व दर्जी, मशीन आदि बाह्य सामग्रीका है। इसे हमें भूलना नहीं चाहिए। कथन ५२ और उसकी समीक्षा
(५२) आगे तक न. पृ० ६४ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है कि "अपरपक्ष वदि इस तथ्यको समझ ले कि केवल द्रव्यशक्ति जैन दर्शन में कार्यकारी नहीं मानी गई है, क्योंकि वह अकेली नहीं पाई जाती है और न केवल पर्यायशक्ति ही जैन दर्शनमें कार्यकारी मानो ई है, क्योंकि वह भी अकेली नहीं पाई जाती। अतएव प्रतिविशिष्ट पर्यायशक्तियुक्त असाधारण द्रव्यशक्ति ही जैन दर्शनमें कार्यकारी मानी गई है। तो कपड़ा कब कोट बने ग्रह भी उसे समझ में आ जाये और इस बातके समझमें आनेपर. उसके विशिष्ट कालका भी निर्णय हो जाये ।" इसकी समीक्षामें कहना चाहता हूँ कि जैन दर्शनकी यह जो मान्यता है कि पर्यायशक्ति विशिष्ट द्रव्य शक्ति ही कार्योत्पत्तिमें कार्यकारी होती है उसे पूर्वपक्ष भी नहीं मुठलाता है । परन्तु द्रव्यमें उस पर्यायशक्तिकी उताप्ति अनुकूल बाह्य निमित्त सामग्रीकी सहायतासे ही होती है, यह भी ध्यानमें रखना आवश्यक है । इससे गिद्ध होता है कि उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होनेको योग्यता विशिष्ट वस्तुकी कार्योत्पत्तिमें निमित्तोंका जितना बोलबाला है। उतना निमित्तोंके आधारपर उत्पन्न होने वाली पर्यायशस्तिका नहीं। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि यद्यपि पर्यायशक्ति स्वयं कार्यरूप होनेसे उसकी उत्पत्ति बाह्य निमित्तशामग्रीके आधारपर ही होती है, तथापि द्रव्यशक्तिके साथ उसे भी जो कार्योत्पत्तिमें कारण माना गया है उसका कारण यह है कि उस कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय और कार्यमें पूर्वोत्तरभाव पाया जाता है । कथन ५३ और उसकी समीक्षा
(५३) आगे उत्तरपक्षने प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है, इसकी पुष्टिके लिए हरिवंशपुराण सर्ग ५२ के लोकों ७१-७२ को भी उद्धृत किया है जिनका अर्थ उसने यह किया है कि “जब तक उत्कृष्ट देव बल है तभी तक चतुरंग बल, कालपत्र.मित्र और पौरुष कार्यकारी है। देवबलके विफल होनेपर काल और पौरुष आदि सब निरर्थक है ऐसा जो विद्वत्पुरुष कहते हैं वह यथार्थ है, अन्यथा नहीं ॥७१-७२।।"
इस सम्बन्धमें मेरा कहना है कि हरिवंशपुराण, सर्ग ५२ के उक्त दोनों श्लोक ७१-७२ स्पष्ट वतला रहे हैं कि चतुरंगबल, काल, पुत्र, मित्र और पुरुषार्थ कार्योत्पत्तिमें कार्यकारी होते हैं, इसे उत्तरपक्षने भी उक्त दोनों श्लोकोंका अर्थ करते हुए स्वीकार किया है। केवल इतनी बात है कि चतुरंगबल आदिकी कार्यकारिता तभी तक है जब तक देववलका सद्भाव रहता है, जो निर्विवाद है। परन्तु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि देवबल चतुरंगबल आदि बाह्य सामग्रीके समागमके बिना ही कार्यकारी होता है। इसलिये इनके आधारपर उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिमें बाह्य सामग्रीको अकिचित्करताको कसे सिद्ध कर सकता है ? इसके साथ मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि हरिवंशपुराणके उक्त दोनों श्लोकोंमें दैवबलका अर्थ प्रधानतया वस्तुकी द्रव्यशक्तिके रूपमें ही अभिप्रेत है, पर्यायशक्तिके रूपमें नहीं, क्योंकि उक्त श्लोकों में इस बातका कोई संकेत नहीं पाया जाता है कि देबबलका अर्थ यहाँ कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय विवक्षित है उसका कारण भी यही है कि वह काव्यिवहित पूर्व पर्याय निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका सहयोग प्राप्त होनेपर ही निष्पन्न होती
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा है । अत्तः हरिवंशपुराणके उक्त कथनसे उत्तरपक्षके इस अभिप्रायकी पुष्टि नही होती है कि कार्योत्पत्तिमें बाह्य सामग्री अकिंचित्कर ही रहा करती है।
इरा विवेचनसे तत्त्वपर्चा पृ० ६४ पर ही निर्दिष्ट उत्तरपक्षका यह कथन भी निरर्थक हो जाता है कि “यह आगम प्रमाण है । इससे जहां प्रत्येक कार्यके विशिष्ट कालका ज्ञान होता है वहाँ उससे यह भी शात हो जाता है कि वैव अर्थात् द्रव्यमें कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके राभाव में ही बाह्य सामग्रीको उपयोगिता है, अन्यथा नहीं।" तात्पर्य यह है कि उत्तरपक्षने अपने इस कयनमें कार्यकारी अन्तरंग योग्यताका अभिप्राय मुख्यतया स्वकाल अर्थात् कार्याव्यवहित पूर्वपर्यायके रूपमें लिया है परन्तु ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जसका कोई संकेत हरिवंशपुराणके उक्त कथनमें नहीं है । दूसरे, ऊपर यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि कार्याव्यवहित उस पूर्वपर्यायको उत्पत्ति निमित्तभूत बाह्य मामग्रीबी सहायतापर ही निर्भर है । इससे यही निर्णीत होता है कि हरिवंशपुराणवो जनत कथनमें दैवबलका अभिप्राय मुख्यतया वस्तुकी द्रव्यशक्ति ही है । यही कारण है कि कार्योत्पत्तिम कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय वारणभूत द्रव्यशक्तिके विशेषणके रूपमें ही प्रयुक्त होता है । इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यातव्य है कि कार्यकारणभाव कार्य और ध्यरूप उपादानशक्तिमें ही उत्पाद्योत्पादकभावके रूपमें होता है। कार्य और पर्यायरूप उगादानशक्तिमें तो पूर्वोत्तरभावरूप कार्यकारणभाव ही होती है, उत्पाद्योत्पावभावरूप कार्यकारणभाव नहीं। यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है और आवश्यकतानुसार आगे भी पट की जागी .
____ उत्तरपक्षने “देव" पदका अर्थ जो "कार्यकारी अन्तरंग योग्यता" ग्रहण किया है इसके विषय में उसका कहना है कि यह उसने आप्तमीमांसा कारिका ६८ की अष्टशती टीकाके आधारपर किया है। इसके साथ ही उसमें वहां अष्टशतोके उस दवनको भी उल्लू त किया है और उसका यह अर्थ भी निर्दिष्ट किया है कि "योग्यता और पूर्वकर्म इनको "देव" संज्ञा है। ये दोनों अदृष्ट है । किन्तु इहचेष्टितका नाम पौरुप है जो दृष्ट है।"
आगे वहींपर उगने लिखा है कि ''आचार्य समन्तभद्रने कार्यमें इन दोनोंके गौण-मुख्य भावसे ही अनेकान्तका निर्देश किया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि कपडा जब कोट बनता है अपनी द्रव्यपर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे ही बनता है और तभी दर्जीका योग तथा विकल्प आदि अन्य सामग्री उसकी उस पर्वायकी उत्पत्ति निमित्त होती है ।"
इसके विषयमें मेरा कहना है कि अष्टशतीके वचन और आचार्य समन्तभद्रके अभिप्रायको प्रगट करने वाले उत्तरपक्ष के उक्त कथन दोनोंसे पद्म पि देव पदके अर्थके रूप में "कार्यकारी अन्तरंग योग्यता' के ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु वह कार्याध्यवाहित पूर्वपर्याय विशिष्ट द्रव्यशक्तिके रूप में ही ग्रहण किया जा सकता है, द्रव्यशक्तिविशिष्ट पर्यायशक्तिके रूप में नहीं। इसमें हेतु यह है कि उक्त पर्याय पूर्वोक्त प्रकार कार्यरूप ही मानी गई है तथा उसकी उत्पति निमित्तभृत बाा सामग्रीकी सहायतासे ही होती है।
इससे यह भी स्पष्ट विदित होता है कि कपड़ा जब कोट बनता है तो अपनी द्रव्यपर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे ही बनता है, परन्तु दर्जी के योग और विकल्प आदि बाहा साग्रीका महयोग मिलनेपर ही वह बनता है । अतएव उत्तरपक्षका यह मानना कि "कपड़ा जब भी बोट बनता है अपनी
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
द्रव्यपर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे ही बनता है और सभी दर्जीका योग तथा विकल्प आदि अन्य सामग्री उसकी नरा पर्याय में निमित्त होती है।" संगत नहीं है।
कथन ५४ और उसकी समीक्षा
(५४) आगे त० च पृ० ६५ पर उत्तरपक्षने लिखा है कि "अपरपक्ष यद्यपि केवल बाह्य सामग्रीके आधारपर कार्यकारणभावका निर्णय करना चाहता है और उसे वह अनुभवगम्य बतलाता है। किन्तु उसकी यह मान्यता कार्यकारी अन्तरंग योग्पताको न स्वीकार करनेका ही फल है जो आगमविरुद्ध होनसे प्रकृतमें स्वीकार करने योग्य नहीं है।" इस विषयमे भी मेरा कहना है कि उत्तरपक्ष का यह सब लिखना युक्त नहीं है, क्योंकि कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके सदभाव और निमित्त भूत बाह्य सामग्रीका सहयोग दोनोंके समागममें ही कार्योत्पत्ति होती है और दोनोंका समागम न होने पर वह नहीं होती। स्वयं उत्तरपक्षने भी पूर्वपक्षकी इस मान्यताको त च०१० ६३ पर स्वीकार किया है कि "अपरपक्षके कथनका आपाय यह है कि विवक्षित कार्यपरिणाम योग्य तपादानमे योग्यता हो, परन्तु सहकारी सामग्रीका योग न हो या आगे-पीछे हो जो सका अनुसार कार्य है। "
उसरपक्षने त० च पृ० ६५ के उसी अनुच्छेदमें आगे और जो कुछ लिखा है वह सब गलत है । प्रकृत विषयमें गलत दृष्टिकोण अपनानेका ही वह फल है और आगमविरुद्ध है ।
उत्तरपक्षके उस लेखको मैं गलत इसलिए कहता हूं कि उसने वह पूर्वपक्षपर कार्योत्पत्तिके प्रति कार्यकारी अन्तरंग योग्यताको न माननेका उपर्युक्त प्रकार मिथ्या आरोप लगाकर लिखा है।
उत्तरपक्षके उस लेखको मैं उसके द्वारा गलत दृष्टिकोण अपनानेका फल भी इसलिए कहता हूँ कि कार्यकारी अन्तरंग योग्यताका मुख्यार्थ द्रव्यशक्ति ही है, क्योंकि द्रव्यशक्ति ही एक अनुकूल पर्यायशक्तिके पश्चात् अन्य अनुकूल पर्यायरूप परिणत होती है तथा पूर्व और उत्तर ये दोनों पर्याय निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका सहयोग मिलनेपर ही उत्पन्न होती हैं। पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि मिट्टीसे घटकी उत्पत्ति स्थूल दृष्टिसे स्थास, कोश और कुशल पर्यायोंकी उत्पत्तिके क्रमसे और सूक्ष्म दृष्टिसे एक-एक क्षणकी पर्यायोंको उत्पत्तिके कमसे होती है । परन्तु मिट्टीको ये सभी पर्यायें कुम्भकारके व्यापार आदि वाह्य सामग्रीके सहयोगपूर्वक ही होती है। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवमें क्रोत्र पर्यायकी उत्पत्ति उसमें विद्यमान तदनुकूल कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके सद्भाबमें होते हुए भी क्रोधकर्मक उदयको निमित्तकर ही होती है तथा उसकी उस क्रोध पर्यायके पश्चात् यदि क्रोध पर्यायको ही उत्पत्ति होती है तो उस उत्पत्ति में भी पूर्व क्रोध पर्यायको कारण मानना उचित न होकर क्रोधकर्मके उदयको ही सहायक रूपसे कारण मानना उचित है, क्योंकि जीवमें कोत्र पर्यायके पश्चात् मान आदि पर्यायोंमेंसे कोई एक पर्यायकी उत्पत्ति भी सम्भव है जिसमें पूर्व क्रोच पर्यायको कारण मानना उचित न होकर मान आदि कोक उदवको ही सहायक रूपसे कारण मानना उचित है। इस बातको पूर्वमें सहेतुक स्पष्ट किया आ चुका है। इससे निर्णीत होता है कि कायोत्पत्तिमें सर्वत्र कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके रूपमें द्रव्यशक्तिको ही मुख्य कारण कहना उचित है, पर्यायशक्तिको नहीं ।
उत्तरपक्षके उस लेख को मैं आगमविरुद्ध भी इसलिये कहता हूँ कि मैंने इस समीक्षा-ग्रन्थमें सर्वत्र उत्तरपक्षकी कार्योत्पत्ति सम्बन्धी उक्त मान्यताको आगमविसव सिद्ध किया है । और पर्यायशक्तिक विषयमें सबसे
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
बड़ा वर्क आगममे यह बतलाया गया है कि उसकी उत्पत्ति उसके कार्यरूप होने से बाह्य सामग्री के बलपर ही होती है। तथा यह बात अनुभव, तर्क और इन्द्रियप्रत्यक्ष से भी सिद्ध है
कथन ५५ और उसकी समीक्षा
(५५) पूर्वपक्षनेत०० पृ० २४ पर लिखा है कि "यहाँ हम उस कपड़े की एक-एक क्षणमें होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे हैं" इत्यादि इसकी आलोचना में उसरपक्षने त० च० पृ० ६५ पर लिखा है कि "अपरपक्ष कालक्रमसे होनेवाली क्षणिक पर्यायोंके साथ कपड़ेको कोट पर्यायका सम्बन्ध जोड़ता उचित नहीं मानता । किन्तु कोई भी व्यंजन पर्याय क्षण-क्षण में होनेवाली पर्यायोंसे भिन्न हो ऐसा नहीं है । अपने सदृश परिणामके कारण हम किसी व्यंजन पर्यायको घटी, घंटा आदि व्यवहार कालके अनुसार चिरस्थायी कहें, यह दूसरी बात है पर होती हैं ये प्रत्येक समय में उत्पाद व्ययरूप ही पर्याय दृष्टिसे प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अन्य अन्य होता है, ऐसी अवस्थामें उस कपड़े को भी प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूपसे स्वीकार करना ही तर्क, आगम और अनुभवसम्मत माना जा सकता है। अतएव कपड़ेको कोट पर्याय कालक्रमसे होनेवाली नियतक्रमानुपाती ही है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।"
प्रतीत होता है कि उत्तरपक्षने जो यह सब लिखा है वह पूर्वपक्षके कथनके अभिप्रायको विपरीत समझकर लिखा है । पूर्वपक्ष के उक्त कथनका यह आश्रम नहीं है कि कपड़े की जो कोट पर्याय अपनी कार्यकारी अन्तरंग योग्यता के अनुसार प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त दर्ज के तदनुकूल व्यापार आदि बाह्य सामग्री आधारपर निष्पन्न हुई हूं वह क्षण-क्षणमें अन्य अन्य रूपताको प्राप्त दर्जीके व्यापार आदि वाह्य सामग्री आधारपर क्षण-क्षण में अन्य अन्य रूपताको नहीं प्राप्त होती हुई हो निष्पन्न हुई हैं, क्योंकि पूर्वपक्ष की मान्यता यह है कि कपड़े की अपनी कार्यकारी अन्तरंग योग्यता के अनुसार निष्पन्न हुई वह कोट पर्याय प्रायोगिक ढंग से प्राप्त दजके व्यापार आदि बाह्य सामग्रीको क्षण-क्षण में होती हुई अन्य अन्य रूपताके आधारपर क्षणक्षण में अन्य अन्य रूपताको प्राप्त होती हुई ही निष्पन्में हुई है । जैसा कि मिट्टी घटको उत्पत्ति कारणभूत नानाक्षणवर्ती स्वास कोश, कुशूल पर्यायोंकी अथवा सूक्ष्मरूपसे एक-एक क्षणवर्ती पर्यायोंकी उत्पत्ति से स्पष्ट है | अतः उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि " अपरपक्ष कालक्रमसे होनेवाली क्षणिक पर्यायोंके साथ कपड़े की कोट पर्यायका सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं मानता" सो उसका यह लिखना मिथ्या ही है। और इसीसे उसका यह कथन कि "कोई भी व्यंजन पर्याय क्षण-क्षण में होनेवाली पर्यायोंमे भिन्न हो ऐसा नहीं है । अपने सदृश परिणामके कारण हम किसी व्यंजन पर्यायको घटी, घंटा आदि व्यवहारकालके अनुसार चिरस्थायी कहें यह दूसरी बात है, पर होती हैं वे प्रत्येक समय में उत्पादव्ययरूप ही पर्यायदृष्टिसे जब कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूप होता है, ऐसी अवस्था में उस कपड़े को भी प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूपसे स्वीकार करना हो तर्क, आगम और अनुभवसम्मत माना जा सकता है ।" अयुक्त है | इतनी बात अवश्य है कि पूर्वपक्षको उतरपक्षका "अतएव कपड़ेकी कोट पर्याय कालक्षपये होनेवाली नियतक्रमानुपाती है" यह कथन इस रूप में मान्य है कि कपड़ेकी अपनी कार्यकारी अन्तरंग योग्यता व प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त दर्जाके व्यापार आदि वाह्य सामग्री के आधारपर निष्पन्न हुई कोट पर्याय उस बाह्य सामग्रीकी क्षण-क्षण में होती हुई अन्य अन्य रूपता के आधारपर क्षण-क्षण में अन्य अन्य रूप ही होती है ।
इस तरह पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य इस समानता के रहते हुए भी पूर्वपक्षनेत० ० पृ० २४ पर जो यह कथन किया है कि "यहां हम उस कपड़ेकी एक-एक क्षण में होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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रहे हैं" इत्यादि । सो उसका आशय यह है कि कोटके निर्माणार्थ लाये गये उस कपड़े में उस समय कालक्रमसे प्रतिक्षण कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके अनुसार प्राकृतिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके आधारपर होनेवाले परिणमनोंकी जो प्रक्रिया चली आ रही थी उन परिमनकी वह प्रक्रिया तो उस कपड़ेका कोट बन जानेपर भी चालू रही। परन्तु कपड़ेका जो प्रतिक्षण अन्यअन्य रूपताको प्राप्त कोट रूप परिणमन हुआ वह चूँकि प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप दर्जीके व्यापार आदि प्रेरक और उदासीने निमित्त बाह्य सामग्री वा कर उसको प्राकृतिक ढंगसे प्राप्त प्रेरक और उदासीन निमित्तभूत बाह्य सामग्री के आधारपर कालक्रमसे प्रतिक्षण होनेवाले उन परिणमनोंकी प्रक्रियाका अंग नहीं माना जा सकता है। इसलिए पूर्वपक्षका ० ० पू० २४ पर निर्दिष्ट "यहाँ पर हम उस कपड़ेकी एक-एक क्षण में होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे हैं" इत्यादि कथन असंगत नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि कपड़े की जो प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त कपड़ा रूप व्यंजन पर्याय बनी वह भी प्रायोगिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमित्तभूत बाह्य सामग्री के आधारपर बनी। इसके पूर्व उसकी जो प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त सूत रूप व्यंजन पर्याय बनी थी वह भी प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त प्रतिक्षण अभ्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमित्तभूत बाह्य सामग्रीके आधारपर ही बनी थी और पश्चात् जो प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त कोट रूप व्यंजन पर्याय बनी वह भी प्रायोगिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमित्त भूत बाह्य सामग्री के आधारपर ही बनी । लेकिन प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त इन सूत, कपड़ा और कोट रूप व्यंजन पर्यायोंके सद्भाव में भी प्राकृतिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमितभूत बाह्य सामग्री के आधारपर प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त जो पर्यायें सतत निराबाध हो रही हैं वे सभी पर्यायें अन्य हैं और जिन सूत, कपड़ा और कोट रूप व्यंजन पर्यायोंमें ये पर्यायें सतत हो रही हैं वे सूत, कपड़ा और कोट रूप व्यंजन पर्यायोंसे अभ्य हैं अर्थात् दोनों तरहकी पर्यायोंको प्रक्रिया पृथक्-पृथक् रूप में एक साथ चल रही है । दोनों तरह की पर्यायें एक प्रक्रियाकी अंग नहीं हैं। मुझे आशा है कि इस विस्तृत विवेचनसे उत्तरपक्ष प्रकृत विषय में वास्तविक स्थिति को समझने की चेष्टा करेगा और पूर्वपक्ष के त० च० पृ० २४ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त कनके विषय में उसे जो मिथ्या भ्रम है उसे दूर कर लेगा, क्योंकि यह बात निर्विवाद है कि प्रत्येक वस्तुमें अण-क्षण में होनेवाले परिणमनोंकी एक प्रक्रिया प्राकृतिक ढंगसे प्राप्त निमित्तभूत बाह्य सामग्री के सहयोग से सतत निराबाध चल रही है। इसके अतिरिक्त वस्तुमें क्षण-क्षण में होनेवाले परिणमनोंकी दूसरी प्रक्रिया भी प्रायोगिक ढंग से प्राप्त निमित्तभूत बाह्य सामग्री सहयोग से यथावसर चलती है। वस्सुके परिणमनों की बोनों प्रक्रियायें पृथक-पृथक हैं। इनमें से पहली प्रक्रियाको सूक्ष्म व्यंजनपरिणमनों (पर्यायों) की प्रक्रिया कहना चाहिए और दूसरीको स्थूल व्यंजनपरिणमनों (पर्यायों) की प्रक्रिया कहना चाहिए। पूर्वपक्षको दृष्टिमें परिणमनोंकी ये दोनों प्रक्रियाएँ थीं, जिनके आधारपर ही उसने त० ० पृ० २४ पर उपर्युक्त कथन किया है।
कथन ५६ और उसकी समीक्षा
(५६) उत्तरपक्ष ने अपने इसी वक्तव्य में लिखा है कि "अपरपक्षने बाह्य सामग्रीको कारण मानकुछ भी कथन किया है वह व्यवहारनयका हो वक्तव्य हूँ ।" इसमें हमें विवाद नहीं है, परन्तु इतना
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जयपुर (सानिया) सत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अवश्य है कि ब्यवहारनयका विषय होनेपर भी वह पूर्वपक्षकी दृष्टिके अनुसार अपने रूपमें वास्तविक ही है, उत्तरपक्ष की दृष्टि के अनुसार कल्पनारोपित मात्र नहीं है । यह बात पहले स्पष्ट की जा चुकी है। कथन ५७ और उसकी समीक्षा
(५७) उत्तरपक्षने अपने इसी वक्तव्यमें यह लिखा है कि "निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करनेपर अनन्त पुदगलोंके परिणामस्वरूप फपड़ेकी जिस कालमें अपने उपादानके अनुसार संघात या भेदरूप जिस पर्यायके होने का नियम है जरा कालमें वही पर्याय होती है, क्योंकि प्रत्येक कार्य उपादान कारणके सदृश होता है ऐसा नियम है।" सो यह उसने निमित्तको अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए ही लिखा है जो आगम-विरुद्ध है । भागम तो यह है कि निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करनेपर अनन्त पुद्गलोंके परिणामस्वरूप कपड़ेकी अपने उपादानके अनुसार संघात या भेदरूप जिस पर्यामके होनेका नियम है वही पर्याय होती है परन्तु वह तभी होती है जब उसे अनुकूल बाह्य निमित्तसामग्रीका सहयोग प्राप्त होता है। इस तरह इससे उपादानकी तरह कार्योत्पत्तिमें निमित्त की भी कार्यकारिता सिद्ध होती है। आचार्य जयसेन द्वारा समयसार गाथा ३७२ की टीकामें निर्दिष्ट "उपादानसदृशं कार्य भवति" इस कयनका समन्वय पूर्वपक्षके कथनके साथ ही उचित ढंगसे होता है उत्तरपक्षके कथनके साथ नहीं, क्योंकि उत्तरपक्षका कथन व्यवहारनम निरपेक्ष होनेसे मिथ्या ही सिद्ध होता है । जबकि पूर्वपक्षका निश्चवनयकथन व्यवहारनय सापेक्ष होनेसे सम्यक है । तात्पर्य यह है कि निश्चयनय वही सम्यक है जो व्यवहारनयसापेक्ष होता है। यतः कार्योत्पत्तिमें उत्तरपक्ष केवल निश्वयनयके विषयभूत उपादानको ही कार्यकारी मानता है, व्यवहारनयके विषयभूल मिमित्तको वहां वह पूर्वोक्त प्रकार अकिंचित्कर ही मानता है। अतः उसका कथन व्यवहारनयनिरपेक्ष होनेसे सम्यक नहीं है। कथन ५८ और उसको समीक्षा
(५८) उत्तरपक्षने त. च० पू० ६५ पर ही आगे लिखा है कि "दर्जी जब उसकी इच्छामें आता है तब कपड़ेका कोट बनाता है यह पराश्रित भाव है और कपड़ा उपादानके अनुसार स्वकालमै कोट बनता है यह स्वाश्रित भाव है । अनुभव दोनों हैं । प्रथम अनुभव पराधीनताका सूचक है और दूसरा अनुभव स्वाधीनताका सूचक है । यह अपराक्ष निर्णय करे कि इनमें से किसे यथार्थके आश्रय माना जाये।"
इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्षको उसरपक्षके इस कथनमें केवल इस बातका विरोध है कि उत्तरपक्ष स्वकालका यह अर्थ स्वीकार करता है कि जिस कालमें कपड़ेका कोट बननेका नियम है उस कालमें कपड़ा कोट बनता है । इसके विपरीत पूर्वपक्ष उसका यह यह अर्थ स्वीकार करता है कि जिस कालमें कपड़ेको कोट निर्माणके अनुकूल बाह्य सामग्रीका योग मिलता है उस कालमें कपड़ा कोट बनता है 1 तथा स्वाश्रित अनुभव ही यथार्थ के आश्रयसे है यह उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्षको भी मान्य है । परन्तु उपर्युक्त प्रकारके पराथित अनुभवको उत्तरपक्ष भले ही कीमत न करे, क्योंकि वह कपड़ाका कोट बनने में दर्जीकी इच्छा आदि बाह्य सामग्रीको अकिचिकर मानता है। परन्तु पूर्वपक्ष-स्वाश्रित अनुभवके साथ-साथ पराश्रित अनभवकी भी कीमत करता है, क्योंकि वह कपड़ेका कोट बनने में दीकी इच्छा आदि बाह्य सामग्रीको भी कार्यकारी मानता है। कथन ५९ और उसकी समीक्षा
(५९) आगे उत्तरपक्षने त २० पृ० ६५-६६ पर यह कथन किया है कि-"अपरपक्ष इष्टोपदेशके "नाजो विज्ञत्वमायाति" इत्यादि श्लोकको द्रव्यकर्मके विषय में स्वीकार नहीं करता, क्यों स्वीकार नहीं
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शंका-समाधान शीक्षा करता, इसका उसकी ओरसे कोई कारण नहीं बतलाया गया है ।" यह उत्तरपक्षका पूर्वपक्षपर मिथ्या लांछन है, क्योंकि पूर्वपक्षने तच प० २४-२५ पर स्पष्ट लिखा है कि "आगे आपने आचार्य पूज्यपादके इष्टोपपदेशका 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि श्लोक उपस्थित करके यह बतलानेका प्रयत्न किया है कि 'जो कुछ होता है वह केवल उपादानको अपनी योग्यताके बलपर ही होता है परन्तु हम बतला देना चाहते हैं कि इससे भी आप अपने मतकी पुष्टि करनेमें असमर्थ ही रहेंगे, कारण कि उक्त श्लोक एक तो द्रब्यकर्मके उदयके विषयमें नहीं है। दूसरे, वह हमें इतना ही बतलाता है कि जिसमें जिस कार्यके निष्पन्न होने की योग्यता विद्यमान नहीं है उसमें निमित्त अपने बलसे उस कार्यको उत्पन्न नहीं कर सकता है।" पूर्वपक्षके इस कयनकी आलोचना करते हुए उत्तरपक्षने उक्त कथन किया है। परन्तु उत्तरपक्षका यह कथन कि "अपरपक्ष इष्टोपदेशके "नाज्ञो विशवमायाति' इत्यादि श्लोकको द्रव्यकर्मके विषयमें स्वीकार नहीं करता" सत्त्वजिज्ञासुओंको भ्रममें डालने वाला है, क्योंकि पूर्वपशके सम्पूर्ण कथनपर दृष्टि डालनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षका उक्त कथन पूर्वपक्षके मही अभिप्रायको प्रकट नहीं करता है। पूर्वपक्ष का कहना तो यह है कि “नाझो विज्ञत्वमायाति" इत्यादि श्लोक साक्षात् द्रव्यकर्मसे सम्बन्ध नहीं रखता है तथा परम्परया पूर्वपक्षने उस श्लोकका सम्बन्ध द्रव्यकर्म के विषय में स्वीकार किया ही है, जैसा कि उसके “दूसरे वह हमें इतना ही बतलाता है कि जिसमें जिस कार्यके निष्पन्न होनेकी योग्यता विद्यमान नहीं है उसमें निमित्त अपने बलसे उस कार्यको उत्पन्न नहीं कर सकता है" इस दूसरे विकल्पसे स्पष्ट है। अतः उत्तरपक्षको इस विषय को लेकर पूर्वपक्षाके ऊपर आक्षेप करनेक्री गुजाइश नहीं रह जाती है। कथन ६० और उसकी समीक्षा
(६०) पूर्वपक्षने त च० पृ० २५ पर अपने उपर्युक्त कथनके आगे यह कथन किया है-"और यह बात हम भी मानते है कि मिट्टी में जब पटरूपसे परिणत होनेको योग्यता नहीं पाई जाती है तो जुलाहा आदि निमित्तोंका सह्योग मिल जाने पर भी मिट्टीसे पटका निर्माण असम्भव ही रहेगा" इत्यादि ।
इसपर आक्षेप करते हुए उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कयनमें आगे लिखा है कि "अगरपक्ष मिट्टी में पट बननेकी योग्यताको स्वीकार नहीं करता। किन्तु मिट्टी पुद्गल द्रव्य है । घट और पट दोनों पुद्गलकी व्यंजन पर्याय है। ऐसी अवस्थामें मिट्री में पटरूप बननेकी योग्यता नहीं है यह तो कहा नहीं जा सकता । परस्परमें एक दूसरे रूप परिणमनेकी योग्यताको ध्यानमें रखकर ही इनमें आचार्योंने इतरेतराभावका निर्देश किया है।" इसके आगे वहींपर उत्तरपक्षने यह लिखा है कि "फिर क्या कारण है कि मिट्टीसे जुलाहा पटपर्यायका निर्माण करनेमें सर्वत्र असमर्थ रहता है । यदि अपरपक्ष कहें कि वर्तमानमें मिट्टी में पटरूप बननेको योग्यता न होनेसे ही जुलाहा मिट्टीसे पट बनानेमें असमर्थ है तो इससे सिद्ध हुआ कि जो द्रव्य जब जिस पर्यायके परिणमनके सम्मुख होता है तभी अन्य सामग्री उसमें व्यवहारसे निमित्त होती है और इस दृष्टिसे विचार कर देखनेपर यही निर्णय होता है कि बाद्य सामग्री मात्र अन्यके कार्य करने में वैसे ही उदासीन है जैसे धर्मद्रव्य गतिमें उदासीन है।"
इसकी समीक्षा में यह कहना चाहता हूँ कि पूर्वपक्ष अपने वक्तव्य द्वारा मिट्टी में पट निर्माणकी योग्यताके अभावकी बात कर रहा है। परन्तु गुद्गलमें पट निर्माणकी योग्यताके अभावकी बात नहीं कर रहा है। उत्तरपक्षको पूर्वपक्षके ऊपर आक्षेप करनेसे पूर्व यह बात अवश्य सोचना चाहिए थी। मिट्टी पुद्गल द्रव्य अवश्य है, क्योंकि यह शुद्ध अर्थात अणुरूप नाना पुद्गल द्रव्योंका ही पिण्ड (स्कन्ध) है। परन्तु
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अणुरूप नाना पुद्गल द्रव्योंका स्कन्ध होनेके आधारपर उसमें पट निर्माणकी वोग्यता का सद्भाव वही स्वीकार कर सकता है जिसने इस विषय संबंधी जैन दर्शनको व्यवस्थाको नहीं समझा है। जैन दर्शनकी व्यवस्थाके अनुसार प्रत्येक अणुरूप पुद्गल में घट पट आदि पर्यायोंकी योग्यताओंका सद्भाव स्वीकार करते हुए भी नाना अणुओं स्कन्ध रूप मिट्टी में घट निर्माणकी योग्यताका सद्भाव और पट निर्माकी योग्यताका प्रभाव स्वीकार करनेका कारण यह है कि मिट्टी में पुद्गलत्वके आधारपर घटका निर्माण न होकर मृत्तिकास्वके आधारपर ही घटका निर्माण होता है। इसी तरह नाना अणुओंके स्कन्ध रूप कपासमें भी पुद्गलत्वके आधारपर पटका निर्माण न होकर कार्पासत्वके आधारपर ही पटका निर्माण होता है। इसका आशय यह है कि पुद्गलमें मृत्तिकात्वका उद्भव हो जाना ही घटोत्पत्तिकी द्रव्यगत योग्यता है और पुद्गल कार्यासत्वका उद्भव हो जाना ही पटोत्पत्तिको द्रव्यगत योग्यता है । इस तरह वह योग्यता पर्यायगत नहीं हूं 1 घटमें और पदमें आचार्यने जो इतरेतराभाव स्वीकार किया है कारण यह है कि फपास रूप स्कन्धके परमाणु वहांसे निकल कर मिट्टीरूप स्कन्धमें मिलकर घटरूपताको धारण कर सकते हैं और मिट्टी रूप स्कन्धके परमाणु हाँसे निकलकर कपास रूप स्कन्धमें मिलकर पदरूपताको धारण कर सकते हैं। इतना ही नहीं, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप स्वम्षोंके परमाणु भी उस उस स्कन्धसे निकलकर एक-दूसरे से भिन्न यथायोग्य पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप स्कम्भों में मिलकर उस उस रूपताको धारण कर सकते हैं। इसका arra यह है कि अणुरूप पुद्गल म पृथ्वी रूप हैं, न जल रूप हैं, न अग्निरूप है और न वायुरूप हैं किन्तु उनमें ऐसी योग्यता विद्यमान हैं कि वे पुद्गल परमाणु यथायोग्य पृथ्वी आदि किसी भी स्कन्धमें मिलकर उस उम्र रूपको धारण कर सकते हैं। इस तरह केवल घट और पटमें ही नहीं, अपितु पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुमें भी आचायने इतरेतराभाव ही स्वीकार किया है। अत्यन्ताभाव नहीं, क्योंकि अत्यन्ताभाव एक स्वतंत्र द्रव्यका दूसरे स्वतंत्र द्रव्य में ही हुआ करता है और वह कालिक होता है | अतः पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तथा मिट्टी और कपास या घट और पट सभी पुद्गल द्रव्य हैं, अतः गुद्गल द्रव्य होने के कारण इन सभी में इतरेतराभाव हो स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार पूर्वपक्ष ऐसा मानता है कि मिट्टी में पट बननेकी कार्पासत्वरूप द्रव्यगत योग्यताका अभाव है। वह उत्तरपक्ष के समान यह नहीं मानता है कि मिट्टी में पट बननेकी का सत्य रूप पर्यायगत योग्यताका अभाव क्योंकि जब तक मिट्टी मिट्टी बनी रहती है तब तक उसमें पटरूप बनने की कार्पासत्व रूप योग्यताका अभाव विद्यमान रहता | केवल वह मिट्टी जब मिट्टी न रहकर कपास बन जाती है तब मिट्टी में नहीं, किन्तु कपासमें हो कार्पासत्व रूप पट बननेकी योग्यताका सद्भाव माना जा सकता है। और यह युक्तिसंगत भी प्रतीत होता है। फलतः उत्तरपक्षका
अपने वक्तव्य में यदि अपरपक्ष कहे' इत्यादि कथन अविचारित रम्य ही है ।
इसी प्रकार उत्तरपक्षने जो यह कथन किया है कि "अपरपत्र मिट्टी में पट दननेकी योग्यताको स्वीकार नहीं करता | किन्तु मिट्टी पुद्गल द्रव्य है । घट और पट दोनों पुद्गल द्रव्यकी व्यंजन पर्यायें हैं । ऐसी अवस्था में मिट्टी में पटरूप बनने की योग्यता नहीं है यह तो का नहीं जा सकता । परस्पर में एक दूसरे रूप परिणमनकी योग्यताको ध्यान में रखकर ही इनमें आचार्योंने इतरेतराभावका निर्देश दिया है ।" उसका यह सब कथन भी निरर्थक है ।
इसी तरह उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी मिट्टी में पटनिर्माणको योग्यताका अभाव रहनेसे जुलाहा उससे पट बनाने में असमर्थ है ।" इस मान्यतासे जो यह सिद्ध करना चाहता है कि "जो द्रव्य जब जिस पर्याय परिणमनके सन्मुख होता है तभी अन्य सामग्री उसमें व्यवहारसे निमित्त होती हैं।" सो इस संबंध में उत्तरपक्षका
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
यह प्रयास निरर्थक है, क्योंकि कार कहा जा चुका है कि मिट्टीके अंशभूत परमाणुओंके मिट्टीसे पृथक् होकर कपासके अंश बन जानेपर मिट्टीमें नहीं, अपितु कपासमें ही पट निर्माणकी द्रव्यगत योग्यताका सदभाव स्वीकार किया जा सकता है और उस अवसरपर भी तब तक उनसे पटका निर्माण नहीं होता जब तक जुलाहे द्वारा उस कपासको अपने सहयोगसे सूत आदि रूप पर्यापोंके रूपमें परिणमित नहीं करा दिया जाता है । उत्तरपक्षने कपासके सूत आदि पर्यायोंके रूपमें परिणमनके न होनेमें जुलाहेके सहयोगके अभादको कारण न मानकर केवल विवक्षित सूत आदि पर्यायोंसे अध्ययहित पूर्वपर्याय रूप परिणमनके अभावको ही जो कारण मान्य किया है उसका निराकरण पूर्वमें किये गये मेरे विवेचनसे हो जाता है अर्थात् पूर्वमें यह स्पाट किया जा चुका है कि कार्योत्पत्तिके प्रति कारणरूपसे स्वीकृत उस कार्याव्यवहित पर्यायकी उत्पत्ति निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीका सहग प्राप्त होनेचर हो होती है। इसी तरह प्रकृतमें भी पूत आदि विवक्षित पर्याय रूप कार्य प्रति कारण रूपसे स्वीकृत उस कार्यसे अव्यवहित पूर्वपर्यायकी उत्पत्ति निमित्त कारणभूत जुलाहे आदि बाह्य सामग्रीका सहयोग प्राप्त होनेपर ही होती है. ऐसा जानना चाहिए। उत्तरगमने अपने "जो द्रव्य अब जिस परिणमनके सन्मुख होता है तभी अन्य सामग्री उसमें
त होती है" इस वचनमें जो यह लिखा है कि "अन्य सामग्री उसमें व्यवहारसे निमित्त होती है" सो अन्य सामग्रीको व्यवहारसे अन्य व्यके कार्य में निमित्त मानने में तो पूर्वपक्षको आपत्ति नहीं है, क्योंकि पूर्वम यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्ष अन्य सामग्रीको अन्य दध्यके कार्य व्यवहारसे ही निमित्त मानता है । परन्तु उत्तरपक्षका "जो द्रव्य जब जिस पर्यायके परिणमके सन्मुख होता है तभी अन्य सामग्री उसमें निमित्त होती है" यह कथन पूर्वपक्षको मान्य नहीं है, क्योंकि कोई भी द्रव्य किसी भी विवक्षित पर्यायके परिणमनके सन्मुख तभी होता है जब प्रेरक निमित्त कारणभूत अन्य सामग्रीका सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है । और जब तक उसे उसका सहयोग प्राप्त नहीं होता तब तक वह उस पर्यायके परिणमनके सन्मुख नहीं होता है । यह बात भी पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है।
इसी तरह उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमे जी यह लिखा है कि "बाह्य सामग्री अन्य द्रव्यले कार्यको करने में वैसे ही उदासीन है जैसे धर्मद्रन्य गतिमें उदासीन है" सो पूर्व में उत्तरपक्षके इस कथनके विरुद्ध यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि कोई बाह्य सामग्रो तो अन्य ट्रम्प के कार्यमें प्रेरक रूपसे पृथक् निमित्त होती है और कोई बाह्य सामग्री अन्य द्रश्यके कार्य में धर्मद्रव्यके समान उदासीन रूपसे पृथक् निमित्त होती है । इतना ही नहीं, उत्तरगम उदासीनताका अर्थ जो अकिचित्करताके कगमें मानता है उसका निषेध भी पूर्व में आगम प्रमाणके आधारपर किया जा चुका है। अतः उत्तरपक्षका प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंको समानरूपसे उदासीन निमित्त मानना भी असंगत हैं और उसके द्वारा "उदासीन" शब्दका अकिंचित्कर अर्थ किया जाना भी असंगत है। कथन ६१ और उसकी समीक्षा
(६१) इसी तरह उत्तरपक्षने उसी अनुच्छेदमें अपने उपर्युक्त कथनके आगे जो यह कथन किया है कि "सब द्रव्य प्रत्येक समयमें अपना-अपना कार्य करने में ही व्यस्त रहते है। उन्हें तीनों कालोंमें एक क्षणका भी विश्राम नहीं मिलता कि वे अपना कार्य छोटकर दूसरे द्रव्यका कार्य करने लगें।" सो पूर्वगक्षके लिए यह विवादकी वस्तु नहीं है क्योंकि पूर्वपक्ष भी यह नहीं मानता है कि अन्य द्रव्य अन्य व्यके कार्यका कर्ता
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा होता है । उसका कहना तो यह है कि अन्य द्रव्य अन्य द्रत्यफे कार्यमें मात्र सहायक ही होता है । परन्तु वहींपर आगे उसने (उत्तरपशने) जो यह लिखा है कि "अतएव इष्टोपदेशके उक्त बचनको अनुसार प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि जिस प्रकार धर्मद्रव्य अन्यका कार्य करनेमें उदासीन है उसी प्रकार अन्य सभी द्रव्य अन्यका कार्य करने में उदासीन है"। सो इसका निराकरण भी परके कथनसे ही हो जाता है अति अपर यह बतलाया गया है कि कोई बाह्य सामग्री तो अन्य द्रब्बके कार्य में प्रेरक रूपमे पृथक निमित्त होती है, कोई बाह्य सामग्री अन्य द्रव्यके कार्य में धर्मद्र व्यके समान उदासीन रूपसे पृथक निर्मित होती है तथा यह भी बतलाया गया है कि प्रकृतमें उदासीनताका अर्थ अकिविस्करता नहीं है | इससे उत्तरपक्षका "अतएव इष्टो. पदेशके उक्त वचनके अनुसार" इत्यादि काथन भी निराकृत हो जाता है। कथन ६२ और उसकी समीक्षा
(६२) इसी तरह उत्तरपक्षने वहींपर अपनी मान्यताके रामर्थनमें लिखा है कि "यह तो कालप्रत्यासत्तिका ही साम्राज्य समझिये किती रहीं नाले कार्य सिमित न्यनतारापत्तीको प्राप्त हो जाते हैं और कभी और कहीं अन्यके कार्य में उदासीननिमित्तव्यवहारपदवीको प्राप्त हो जाते है । सो प्रकृतमें उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत कालप्रत्यासत्ति तो पूर्वपक्षको भी मान्य है, परन्तु कालपत्यासत्तिक स्वरूपकी मान्यताम पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य मतभेद है तथा प्रेरक निमित्त की कालप्रत्यासत्ति और उदासीन निमित्तकी कालप्रत्यासत्तिको उत्तरपक्ष जहां एक रूप हो मानता है वहां पूर्वपक्ष दोनोंकी कालप्रत्यासत्तिको पृथक्-पृथक रूपमें ही स्वीकार करता है। इसी तरह जहाँ उत्तरपक्ष अपनेको मान्य कारप्रत्यासत्तिके आचार पर प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंको अन्य व्यके कार्य प्रति अकिचिल्कर मान लेना चाहता है वहाँ पूर्वपक्ष अपनेवो मान्य कालप्रत्यासत्तिके आधारपर प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंको कार्यकारी ही मानता है । यह सब विषय पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। कथन ६३ और उसकी समीक्षा
(६३) पूर्वपक्षाने त० च०ए०२५ पर अपने कथनके तात्पर्यने रूपमें लिखा है कि "उपादानमें अनूफूल स्वपरप्रत्यय परिणमनकी योग्यता न हो लेकिन निमित्त-सामग्नी विद्यमान हो तो कार्य निापन्न नहीं होगा । इसी तरह उपादानमें अनुकूल स्वपरप्रत्यय परिणमनकी योग्यता हो, लेकिन निमित्तसामग्री प्राप्त न हो तो कार्य नहीं होगा। इसी तरह यषि उपादानमें उक्त प्रकारको योग्यता हो और निमित्त सामग्री भी विद्यमान हो लेकिन प्रतिबन्धक बाह्य सामग्री उपस्थित हो जावे, तो भो कार्य नहीं होगा। इरा भौतिक विकासके युगमें व्यक्ति या राष्ट्र जितनी अभूतपूर्व एवं आश्चर्य में डालनेवाली वैज्ञानिक खोजें कर रहे हैं वे सब हमें निमित्तोंके असीम शक्ति-विस्तारकी सूचना दे रही है । इसके आगे पृष्ठ २५ पर ही पूर्वपक्षने लिखा है कि "पूज्यपाद आचार्यके उक्त इलोकम जो "निमित्तमात्रमन्यस्तु' पद पड़ा हुआ है उसका आशय यह नहीं है कि निमित्त उपादानकी कार्यपरिणतिमें अकिचिकर ही बना रहता है जैसा कि आप मान रहे हैं। किन्तु उसका आशय यह है कि उपादानमें यदि कार्योत्पादनको शक्ति विद्यमान हो तो निमित्त उस कायोत्पत्ति में उसे (उपादानको) केवल अपना सहयोग प्रदान कर सकता है। ऐसा नहीं कि उपादानमें अविद्यमान योग्यताकी निष्पत्ति भी निमित्त द्वारा की जा सकती है। इससे यह तथ्य फलित होता है कि जिस प्रकार जैन संस्कृति वस्तमें स्वप्रत्यम और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार करती है उसी प्रकार वह माय परप्रत्यय
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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परिणमनका बुताके साथ निषेध भी करती है। अर्थात् प्रत्येक वस्तुस्व अर्थात् उपादान और पर अर्थात् निमित्त दोनों संयुक्त व्यापारसे निष्पन्न होनेवाले स्वपरप्रत्यय परिणमनके साथ- साथ जैन संस्कृति ऐसे परि मन भी स्वीकार करती है जो निमितोंकी अपेक्षाके बिना केवल उपादानके अपने बलपर ही उत्पन्न हुआ करते हैं और जिन्हें वहाँ स्वप्रत्यय परिणमन नाम दिया गया है, परन्तु किसी भी वस्तुमें ऐसा एक भी परियमन किसी क्षेत्र और किसी कालमें उत्पन्त नहीं हो सकता है जो स्व अर्थात् उपादानकी उपेक्षा करके केवल पर अर्थात् निमित्त के बलपर निष्पन्न हो सकता हो । इस तरह जैनसंस्कृतिमें मात्र परश्यय परिणमनको दृढ़ता के साथ अस्वीकृत कर दिया है।" इसके आगे पृष्ठ २५ पर ही पूर्वपक्षने लिखा है कि "इस प्रकार आपका यह लिखना असंगत है कि 'निमित्तकारणोंमें पूर्वोक्त दो भेद होनेपर भी उनकी निमित्तता प्रत्येक व्यके कार्य के प्रति समान है । कार्यका साक्षात् उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं क्योंकि इस तरह की मान्यताको संगति हमारे ऊपर लिखे स्थन के अनुसार जैन-संस्कृतिको मान्यता के विरुद्ध बैठती है ।"
पूर्वपक्षके इन सम्पूर्ण कथनों की आलोचना में उत्तरपक्षने त० च० पृ० ६६ पर सर्वप्रथम लिखा है कि "बौद्ध दर्शन कारणको देखकर भी कार्यका अनुमान किया जा सकता है इसे स्वीकार नहीं करता। इसी बात को ध्यान में रखकर कंसः कारणरूप लिंग कार्यका अनुमापक होता है यह सिद्ध करनेके लिए यह लिखा है कि जहाँ कारण सामग्री की अविकलता हो और उससे भिन्न कार्यकी शापक सामग्री उपस्थित न हो वहाँ कारणसे कार्यका अनुमान करने में कोई बाधा नहीं आती। किन्तु हमें खेद है कि अपरपक्ष इस कथनका ऐसा विपर्यास करता है जिसका प्रकृटमें कोई प्रयोजन नहीं इसका विशेष विवार हम घटी शंकाके तीसरे दौर के उत्तरमें करनेवाले हैं, इसलिए इस आधार से यहाँ इसकी विशेष चर्चा करना हम इष्ट नहीं मानते । किन्तु यहां इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते है कि जिस प्रकार विवक्षित कार्यकी निर्वाचित वा सामग्री ही नियत हेतु होती है उसी प्रकार उसकी विवक्षित उपादान सामग्री ही नियत हेतु हो सकेगी। अतएव प्रत्येक कार्य प्रत्येक समयमै प्रतिनियत आभ्यन्तर बाह्य सामग्रीको निमित्त कर ही उत्पन्न होता है ऐसा समझना चाहिए | स्वपरप्रत्ययपरिगमनका अभिप्राय भी यही है। इसपर से उपादानको अनेक योग्यतावाला कहकर बाह्य सामग्री के बलपर चाहे जिस कार्यकी उत्पत्तिकी कल्पना करना मिया है ।"
दोनों पक्षों के उपर्युक्त कथनों के विषय में निम्नलिखित कथन कर देना ही पर्याप्त समझता हूँउत्तरपक्षकी मान्यता है कि प्रत्येक कार्य उपादानकी अपनी योग्यता के बलपर ही निष्पन्न हो जाता
है निसि यहाँपर सर्वपा बकिचित्कर ही बना रहता है।
पूर्वको मान्यता है कि प्रत्येक कार्य उपादानकी अपनी योग्यता के बलपर तो होता है परन्तु निमित्तका सहयोग मिलनेपर ही होता है न मिलनेपर नहीं होता है। इसलिए निमित्त उपादानको कार्यरूप परिणति सर्वथा अकिंचित्कर न रहकर सहायक होने रूपसे कार्यकारी हुआ करता है।
पूर्व० ० ० २५ पर निर्दिष्ट उपयुक्त वक्तव्योंके आधारपर अपने मन्तव्यको पुष्टि करनेका प्रयत्न किया है और उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ६६ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त वक्तव्य द्वारा अपने मन्तव्यको पुष्टि करनेका प्रयत्न किया है । यतः इस समीक्षायें में सर्वत्र यह स्पष्ट कर चुका हूं कि पूर्वपक्ष की मान्यता आगमसम्मत है व उत्तरपक्ष की मान्यता आगमविरुद्ध है। अतः अब यहां इस विषय कुछ भी लिखना बाव श्यक नहीं रह गया है ।
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जयपुर (सानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा कथन ६४ और उसकी समीक्षा
(६४) उत्तरपक्षाने अपने उपयुक्त वक्तव्यमें ओ यह लिखा है कि "किन्तु हमें खेद है कि अपरपक्ष इस कथनका ऐसा विपर्यास करता है जिसका प्रकृतमें कोई प्रयोजन नहीं है। तथा उसके आगे उसने जो यह लिखा है "इसका विशेष विचार हम छठी शंकाके तीसरे दौर के उत्तर में करनेवाले है ।” सो इसकी समीक्षा भी मैं वहींपर करूंगा। कथन ६५ ओर उसकी समीक्षा
(६५) उस रकाने अपने उपयुक्त वक्तव्य आगं स्वप२ प्रत्यय परिणमनका अभिप्राय बतलानेका जो प्रमत्म किया है उसके विषयमें मात्र मेरा कहना यह है कि उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिमें निमित्तको सर्वथा अकिचिकर ही मानता है तो ऐसी हालतमें उसके मतसे स्वपरप्रत्यय परिणमनकी सिद्धि करना असम्भव हो जानेसे उसके द्वारा स्वपरप्रत्यय परिणमनके अभिप्रायको प्रगट किया जाना अनावश्यक है। कथन ६६ और उसकी समीक्षा
(६६) उपर्युक्त वक्तव्य के आगे उत्तरपक्षने त १० पु६६ पर भी यह लिखा है कि "अपरपक्षका कहना है कि बाह्य सामग्री उपादानके कार्यमें सहयोग करती है तो यह सहयोग क्या वस्तु है' ? तथा इसके अमन्तर उसने सहयोगके स्पष्टीकरण के सम्बन्धमें विविध प्रकारके विकल्प उठाकर उनका खण्डन किया है। मैं उन विकल्पोंको और उनके खण्डनको अपनी समीक्षाके साथ यहां उद्धृत कर देना उचित समझता हूँ ।
(२) उत्तरपक्षने पहला विकल्प "श्या दोनों मिलकर यह कार्य करते हैं यह सहयोगका अर्थ है ? यह उठाकर इसका खण्डन इन शाब्दोंमें किया है कि "किन्तु यह तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक क्रिया नहीं कर सकते ऐसा व्य स्वभाव है" (देखो-समयसार कलश ५४) इसकी समीक्षामें मेरा कहना है कि "दो द्रव्य मिलकर एक क्रिया नहीं कर सकते" यह तो सामान्यतया निर्विवाद है। परन्तु उपादान और निमित्त दोनों मिलकर इस रूपमें स्त्रपरप्रत्यय कार्य सम्पन्न किया करते हैं कि उपादान कार्य रूप परिणत होता है और निमित्त उपादानको उस कार्यरूप परिणत होने में प्रेरक एवं उदासीन रूपसे बलाधायक होता है, यह बात पदमनन्दिपंचविशतिका "द्वयवृतो लोके विकारो भवेत" इस वधनसे सिद्ध होती है।
(२) उत्तरपक्षने दूसरा विकल्प 'क्या एक द्रव्य दूसरे द्रध्यकी क्रिया कर देता है यह सहयोगका अर्थ है ?" यह उठाकर इसका खण्डन इन शब्दोंम किया है कि "किन्तु यह भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि एक द्रव्य अपनेसे भिन्न दूसरे द्रव्यको क्रिया करने में सर्वथा असमर्थ है। (देखो प्रवचनसारगाथा १५ को जयसेनीय टीका)" । इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके इस कथनमें कोई विवाद नही है।
(३) उसरपक्षने तीसरा विकल्प "क्या एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी पर्यायमें विशेषता उत्पन्न कर देता है यह सहयोगका अर्थ है ?" इसका खण्डन इन शब्दोंमें किया है कि "किन्तु अब कि एक द्रव्यका गुण-धर्म दूसरे द्रव्यमें संक्रमित ही नहीं हो सकता ऐसी अवस्थामें एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी पर्यायमें विशेषता उत्पन्न कर देता है यह कहना किसी भी अवस्थामें परमार्थभूत नहीं माना जा सकता।" (देखो समयसारगाथा १०३ और
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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उसको आत्मख्याति टोका)। इसकी समीक्षामें मैं यह कहना चाहता हूं कि "एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको पर्यायमें विशेषता उत्पन्न कर देता है" यह कहना एक द्रव्यके गुण-धर्मका टूरारे द्रव्यमें प्रवेश न हो सकनेके कारण तो वास्तवमें परमार्थभत नहीं है, परन्तु उपादानके वार्यके प्रति निमित्तका कार्य पूर्वोक्त प्रकार प्रेरक उदा म हि.4: परे ३ माभूत ही हैं तो वैसा कहना कल्पनारोपित मात्र नहीं है। (देखो समयसारमाथा ९१, १०५, १०६, १०७ और १०८ )
तात्पर्य यह है कि समयसारगाथा ९१ यह बतलाती है कि आत्माफे रागादि रूपसे परिणत होनेपर ही पुद्गलका कर्मरूप परिणमन होता है, इसलिये पुद्गलके कर्मरूप परिणमनके प्रति आत्मामें स्वीकृत निमित्तकारणता सहायक होने रूपसे परमार्थभूत ही सिद्ध होती है, अकिंचित्कर रूपसे कल्पनारोपित मात्र सिद्ध नहीं होती । इसी तरह रामयसारगाथा १०५ यह बतलाती है कि जीवके हेतु होनेपर ही उसके स पुद्गल कर्मका बन्ध होता है, इसलिये जीय उपचारसे पदगल कर्मका का है। इससे निर्णीत होता है कि उपचरिप्तकर्तृत्व निमित्त के उपादानकी कार्योत्पत्तिके प्रति सहायक होनेके कारण उपचरित रूपमें परमार्थभूत ही होता है, कल्पनारोपित भाव नहीं होता। इसी प्रकार समयसारगाथा १.६ यह बतलाती है कि जिस प्रकार युद्ध में योद्धाओंकी प्रवृत्ति राजाके आदेश से होनेके कारण राजाको ब्यवहारसे (उपचारसे) युद्धका कर्ता मानना कल्पनारोपित मात्र न होकर नुपचरित रूपमें परमार्थभूत ही होता है उसी प्रकार पुद्गलकी ज्ञानावरणादिरूप परिणति जीवके रागादि परिणामोंके आधारपर होनेके कारण जीवको भी व्यवहारसे (उपचारसे) ज्ञानावरणादि कोका कर्ता मानना कल्पनारोपित मात्र न होकर उपचरित रूपमें परमार्थभूत ही होता है। इसो पकार समयसार गाया १०७ यह बतलाती है कि आत्मा पुद्गलको उतान्न करता है आदि कथन निश्चयनयसे परमार्थभूत न होकर भी व्यवहारनयसे तो परमार्थभूत ही होता है, कल्पनारोपित मात्र नहीं होता । इसी प्रकार समयसारगाथा १०८ यह बतलाती है कि जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है (यथा राजा तथा प्रजा) इस लोकोक्तिके आधारपर जिस प्रकार राजाको प्रजाके दोषोंका और गुणोंका व्यवहारसे (उपवारसे) उत्पादक मानना कल्पनारोपित मात्र न होकर उपचरितरूपमें परमार्थभूत ही है उसी प्रकार जीवको अन्य द्रव्यके दोषों और गुणों का व्यवहाररो उत्पादक मानना भी कल्पनारोपित मात्र न होकर उपपरितरूपमें परमार्थभूत हो है ! इस तरह ये सभी गाथायें इस बातको बतलाती हैं कि एक वस्तु के गुणधर्मका दुसरी वस्तुमें प्रवेश न होते हुए भी एक वस्तुकी दूसरी वस्तुके कार्योल्पादन में सहायक होने रूपसे निमित्तकारणनाको कल्पनारोपित मात्र कदापि नहीं माना जा सकता है ।
एक बात और है कि यदि एक वस्तु की अन्य वस्तुके कार्योत्पादन में सहायक होने रूप निमितकारणताको उस रूपमें परमार्थभूत न मानकर केवल कल्पनारोपित मात्र माना जाता है तो उपादानमें कार्योत्पत्तिका होना असंभव हो जायेगा । यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है।
(४) उत्तरपक्षने चौथा विकल्प "उपादान अनेक योग्यता वाला होता है, इसलिये बाह्य सामग्री उसे एक योग्यता द्वारा एक कार्य करने में ही प्रवृत्त करती रहती है क्या वह सहयोगका अर्थ है ?" यह उठाकर इसका खण्डन इन शब्दोंमें किया है कि "किन्तु अपरपक्षको यह तर्कणा असंगत है, क्योंकि आगममें विशिष्ट पर्याय युक्त द्रव्यको ही कार्यकारी माना गया है । (देखो, अष्टसहस्री १०१५०, स्वामिकातिकेयानुपेक्षा माथा २३०, श्लोकवार्तिक पृ० ६९ तथा प्रभेयकमलमार्तण्ड पृष्ठ २०० आदि।" इसकी समीक्षामें मैं यह कहना
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चाहता हूँ कि यद्यपि विशिष्ट पवियुक्त द्रव्य ही कार्यकारी होता है, परन्तु इस विशिष्ट पर्यायकी उत्पत्ति बाह्य सामग्रीका सहयोग मिलनेपर ही होती है। (देखो-प्रमेयकमलमार्तण्ड २.२ पत्र ५२ शास्त्राकार निर्णयसागरीय प्रकाशम) । इस तरह कहा जा सकता है कि पूर्वपक्षकी "उपादान अनेक योग्यता वाला होता है और बाह्य सामग्री उसे एक योग्यता द्वारा एक कार्यमें प्रवृत्त करती है ।'' यह तर्कणा असंगत नहीं है।
(५) उत्तरपक्ष ने पांचवाँ विकल्प "क्या क्षेत्रप्रत्यासत्ति या भावप्रत्यासत्तिके होनेपर उपादानमें कार्य होता है ?" यह सहयोगका अर्थ है ?" यह उठाकर इसका खण्डन इन शब्दों में किया है कि "किन्तु सहयोगका यह अर्थ करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देवाप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्तिके होनेपर अन्य तथ्य नियमसे अन्य द्रश्यके कार्यको उत्पन्न करता है ऐसा कोई नियम नहीं है। (देखो-श्लोकवार्तिक पृ० १५१)।' इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्षको इस संबंधमें उत्तरपक्ष के साथ कोई विद्याद नहीं है।
उत्तरपक्षने आगे लिखा है कि "इस प्रकार सहयोगका अर्थ उक्त प्रकारसे करना तो बनता नहीं। उक्त विकल्पोंके आवारपर जिननी भी तर्कणायें की जाती हैं वे सब असत ठहरती हैं। अब रही कालप्रत्यासत्ति, सो यदि अपरपक्ष 'बाल सामग्री उपादानके कार्य में सहयोग करती है इसका अर्थ कालप्रत्यासत्ति करता है तो उसके द्वारा सहयोगका यह अर्थ किया जाना आगम, तर्क और अनुभवसम्मत है, क्योंकि प्रकृत में "फालप्रत्यासत्ति" पद जहाँ कालकी विवक्षित पर्यायको सूचित करता है वहां वह विवक्षित पर्याययुक्त
ह्याभ्यन्तर सामग्रीको भी सचित करता है। प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रश्यको अपना कार्य करनेके लिए ऐसा योग नियमसे मिलता है और उसके मिलनेपर प्रत्येक समयमें प्रतिनियत कार्यको उत्पत्ति होतो है,ऐसा ही दृश्य स्वभाव है । इसमें किसीका हस्तक्षेप करना संभव नहीं । स्पष्ट है कि प्रकृतमें निमित्तके सहयोगकी चर्चा करके अपरपक्षने स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंके विषयमें जो कुछ भी लिखा है वह आगम, तर्क और अनुभवपूर्ण म होनेसे तत्त्वमीमांसामें ग्रहण नहीं माना जा सकता है।" आगे इसको समीक्षा की जाती है
उत्तरपक्षने अपने इस वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि "इस प्रकार सहयोगका अर्थ उक्त प्रकारसे करना तो बनता नहीं । उक्त विकल्पोंके आधारगर जितनी भी तर्कणायें की जाती हैं वे सब असत् ठहरती हैं।" सो इस विषयमें मेरा कहना यह है कि उक्त विकल्पोंमें सहयोग शब्दसे जो अर्थ उत्तरपक्षने कल्पित किये हैं उनमें और उनके स्लण्डनमें आगमके अनुसार उत्तरपक्षके साथ पूर्वपक्षका किस प्रकारका मतसाम्य और मतभेद है इसका दिग्दर्शन उपर किया जा चुका है । इसके आगे उसने (उत्तरपलने) जो यह लिखा कि "अब रही कालप्रत्यारात्ति सा यदि अपरपक्ष बाह्य सामग्री उपादानके कार्य में सहयोग करती है" इसका अर्थ कालप्रत्यासत्ति रूप करता है तो उसके द्वारा सहयोगका यह अर्थ किया जाना आगम, तर्क और अनुभव सम्मत है"। सो पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके इस कथनमें तो सहमति है, परन्तु उसके आगे उसका यह लिखना कि "क्योंकि प्रकृति कालप्रत्यासत्ति पद नहीं कालको विवक्षित पर्यायको सूचित करता है वहां वह विक्षितपर्याययत्रत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको भी सूचित करता है। प्रत्येक समयमें प्रत्येक द्रश्यको अपना कार्य करनेके लिए ऐसा योग नियमसे मिलता है और उसके मिलनेपर प्रत्येक समयमै प्रतिनियत कार्यकी उत्पत्ति होती है ऐसा व्यस्वाभाव है। उसमें किसीका हस्तक्षेप करना सम्भव नहीं है"। आगम विरूद्ध है, क्योंकि कालप्रत्यासत्तिका यह अभिप्राय नहीं है जो उत्तरपक्षने अपने उपर्यस्त वक्तव्यमें स्वीकार किया है। किन्तु उसका यह अभिप्राय है कि उपादानको जिस कालम जिस प्रकारको निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका योग मिलता
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१५३
हैं उस काल में उस सामग्री के अनुरूप ही उपादानसे निजी योग्यता के आधारपर कार्यकी उत्पत्ति होती है । आगम में कालप्रत्यासत्तिका इसी रूप में अभिप्राय प्रगट किया गया है। इसे पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है तथा तर्क, अनुभव, इदयप्रत्यक्ष और लोकव्यवहारसे भी उसका यही अभिप्राय सिद्ध होता है । अपने उपर्युक्त वक्तव्य के अन्त में उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "स्पष्ट कि प्रकृत में सहयोगी चर्चा करके अपरपक्षने स्वप्रत्यय और स्वपप्रत्यय परिणमनों के विषयमें जो कुछ भी लिखा है वह आगम, तर्क और अनुभवपूर्ण न होनेसे तत्वमीमांसा में ग्राह्य नहीं माना जा सकता है"। सो यह उसने अपनी पूर्वोक्त प्रकार गलत मान्यता के संस्कार ही लिखा है । तत्वजिज्ञासुओं को इसपर विचार करने के लिए मेरी प्रेरणा है ।
कथन ६७ और उसकी समीक्षा
(६७) आगे उत्तरपक्षनेत० च० पू० ६७ पर ही यह लिखा है कि "इस प्रकार पूर्वोक्त विवेचनके आधारपर हमारा यह लिखना सर्वथा युक्तियुक्त हैं कि "निमित्तकारणों में पूर्वोक्त दो भेद होनेपर भी उनकी निमितता प्रत्येक द्रव्यमें कार्य के प्रति समान है। यही जैनदर्शनका आशय है। अनादिकालसे जैन-संस्कृति इसी आधारपर जीवित चली आ रही है और अनन्त कालतक एकमात्र इसी आधारपर जीवित रहेगी इससे अपरपक्ष यह अच्छी तरह जान सकता है कि जैन संस्कृति के विरुद्ध अपरपक्षकी हो मान्यता है, हमारी नहीं ।"
उत्तरपक्षके इस कथन के विषय में मेरा कहना यह है कि प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंकी प्रत्येक द्रव्यमें आके प्रति समानाकार सहायक होते कार्यकारिता के आधारपर ही जैन दर्शनमें स्वीकृत की गई है, अकिचित्करताके माधारपर नहीं, इसलिए उत्तरपक्ष जिस आधारपर जैन संस्कृतिको अनादिकालसे अनन्त कालतक जीवित रखनेकी बात करता है वह उसका भ्रम है, क्योंकि जैन- संस्कृति अनादिकालसे अपने तर्कपूर्ण और अनुभवपूर्ण आगम में वर्णित पूर्वमें प्रतिपादित सिद्धान्तों के आधारपर जीवित रहती आई है और अनन्तकालतक उन्हीं सिद्धान्तोंके आधारपर जीवित रहेंगी। उत्तरपक्ष जैसे अनेक पक्षोंके थपेड़े हमेशा हो उसको लगते आये हैं और आगे भी लग सकते हैं परन्तु मे थपेड़े कर सके और आगे भी नहीं कर सकेंगे, वे स्वयं ही चकनाचूर होते आये और होते जायेंगे । कथन ६८ और उसको समीक्षा
उसका अणुमात्र भी बिगाड़ नहीं
(६८) आगे उत्तरपक्ष ने त० च० पृ० ६७ पर ही अपने मलके समर्थन में हरिवंशपुराण सर्ग ९८ का श्लोक १२ उद्धृत कर उसका यह अर्थ किया है कि "यह आत्मा स्वयं अपना कार्य करता है, स्वयं उसके फलको भोगता है, स्वयं ही संसार परिभ्रमण करता है और स्वयं ही उससे मुक्त होता है ।"
इसकी समीक्षा में मेरा कहना यह है कि हरिवंशपुराणके उस श्लोकके उत्तरपक्ष द्वारा किये गये इस अर्थ में तो पूर्वपक्षको सामान्यतया कोई विवाद नहीं है । केवल इतना संकेत उसके विषय में अवश्य करना है. कि "यह आत्मा स्वयं अपना कार्य करता है" इसमें "अपना कार्य" के स्थान में "कर्मबन्ध" पद रखना उचित जान पड़ता है। इस तरह श्लोक का यह अर्थ होता है कि "यह आत्मा स्वयं (आप हो) कर्मबन्ध करता है, आप ही उसके (कर्मबन्धके) फलको भोगता है, आप ही संसार परिभ्रमण करता है और आप ही उस संसार परिभ्रमण से मुक्त होता है"। इसके साथ ही में यह भी संकेत कर देना चाहता हूँ कि हरिवंश पुराणके उरा श्लोकसे उत्तरपक्ष यदि कार्योत्पत्ति में निमितको चित्कर सिद्ध करके स्वप्रत्यय और स्वपर
स०-२०
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जयपुर (स्वानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रत्यय दोनों प्रकारके रखे जमानरूपन्य प्रमही मान लेना चाहता ले तो उसके इस अभिप्रायकी पुष्टि हरिवंशपुराणके उस लोकसे होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उस श्लोकसे "जो करता है वहीं भरता (भोगता) है" मात्र इस सिद्धान्तकी पुष्टि होती है। इससे यह अभिप्राय फलित नहीं होता कि आत्मा निमित्तभूत बाह्य सामग्रोका सहयोग प्राप्त किये बिना ही उक्त कायौंको सम्पन्न कर लेता है । कथन ६९ और उसकी समीक्षा
(६९) इसके आगे त० च० पृ० ६७ पर ही उत्तरपने लिखा है कि "मालूम नहीं अपरपक्ष पराश्रित जीवनका समर्थन कर किस उलझनमें पड़ा हुआ है, इसे वह जाने। वैज्ञानिकों की भौतिक खोजसे हम भलिभांति परिचित है। उससे तो यही सिद्ध होता है कि किस विशिष्ट पर्यायवुक्त बायाभ्यन्तर सामग्रीके सद्भावमें क्या कार्य होता है। हमें मालम हआ है कि जापानमें दो नगरोंपर अणुबमका विस्फोट होनेपर जहां असंख्य प्राणी कालकवलित हुए वहाँ बहुतसे क्षुद्र जन्तु रेंगते हुये भी पाये गये। क्या इस उदाहरणसे उपादानके स्वकार्य कर्तृत्वकी सिद्धि नहीं होती है, अपितु अवश्य होती है" । आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वपक्षके सामने पराश्रित जीवनके समर्थनका प्रश्न नहीं है। सभी मानते है कि पराश्रित जीवन अच्छा नहीं है। परन्तु इतने मात्र पराश्रित जीवनका अभाव तो नहीं माना जा सकता है। लोकमें पराश्रित जीवनका अस्तित्व तो निर्विवाद है इसे उत्तरपक्ष माने या न माने । परन्तु इसपरसे उत्तरपक्ष यदि यह आशंका प्रकट करे कि इससे उपादानके स्वकार्यकर्तृत्वकी हानि हो जायेगी तो उसकी यह शंका निराधार है, क्योंकि कार्यका कर्ता तो उपादानको ही सभी मानते है । केवल मतभेद इतना ही है कि जहाँ उत्तरषक्ष उपादानकी कार्यरूप परिणतिको निमित्तका सहयोग प्राप्त किये बिना ही मानता है वहां पूर्णपक्ष उपादानकी कार्यरूप परिणतिको निमिसके सहयोगसे ही मानता है। अर्थात जहाँ उत्तरपक्ष उपादानकी कार्यपरिणतिमें सहायक न होने के आधारपर निमित्तको अकिचित्कर मानता है वहीं पूर्वपक्ष निमित्तको उपादानकी कार्यरूप परिणति में सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी ही मानता है, अकिंचित्कर नहीं । तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्षकी मान्यताके अनुसार वस्तुमें बाणहानि वृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमनोंसे अतिरिक्त उपादानगत सभी स्वपरप्रश्यम परिणमन निमित्तभूत बाह्म सामग्री के सहयोगसे ही उत्पन्न हुआ करते हैं। इस बातको आगमके आधारपर पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इतना ही नहीं, उत्तरपक्ष जिस विधिष्टि पयस्थियुक्त बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके सद्भावमें कार्योत्पत्ति स्वीकार करता है उस विशिष्ट पर्यायकी उत्पत्तिकै विषयमें भी आगमके आधारपर पूर्वमें यह सिद्ध किया जानका है कि उस विशिष्ट पर्यायकी वह उत्पत्ति भी निमिसभत बाध सामग्रीफे सहयोगसे ही हआ करती है। यदि जापानमें अबमका विस्फोट होनेपर असंख्य प्राणियोंकी मत्यके साथ ही क्षद्र जन्सुओंकी उत्पत्ति हो गई तो इससे यह तो सिद्ध नहीं हो जाता कि उनकी यह उत्पत्ति केवल उपादानगत योग्यताके आधारपर हो गई। उनकी वह उत्पत्ति भी बाध सामग्रीकी सहायताके आधारपर उपादानगत योग्यताके अनुसार हुई ऐसा मानना चाहिए । अर्थात अणुबमका विस्फोट होने पर जो भूमिमें गरमाहट आई उसे ही उन जन्तुओंकी उत्पत्ति में कारण मानना चाहिए ।
कथन ७० और उसकी समीक्षा
(७०) पूर्वपक्षने त० च• पृ० २५ पर यह कथन किया है कि "आगे आपने स्वामी समन्तभद्रकी "बाह्मतरोपाधिसमग्रतेयं" इत्यादि कारिकाका उल्लेख करके बाह्य ओर आम्यन्तर कारणोंको समग्रताको
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शंका-समाधान १ को समीक्षा
१५५ कार्योत्पत्तिमें साधक मान लिया है यह तो ठीक है, परन्तु कारिकामें पठित "द्रव्यगतस्वभावः' पदका अर्थ समझने में आपन भूल कर दी है और उस भूलके कारण ही आप निमित्तको उपादानसे कार्योत्पत्ति होने में उपचरित अर्थात् कल्पनारोपित कारण मानकर केवल उपादानसे ही कार्योत्पत्ति मान बैठे हैं। इसके साथ अपना एक कल्पित सिद्धान्त भी आपने बिना आगम प्रमाणके अनुभव और तक के विपरीत प्रस्थापित कर लिया है कि प्रत्येक समयमे निमित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार ही होती है जिसका आशय संभवतः आपने यह लिखा है कि उपादान स्वयं कायोत्पत्तिके समय अपने अनुकूल निमित्तोको एकत्रित कर लेता है।
इराकी आलोचना करते हुए उत्तरपक्षने त० च पृ० ६७ पर लिखा है कि ''आगे अपरपक्षने हमारे द्वारा उल्लिखित स्वामी समन्तभद्रकी "बाह्येतरोपाधि" इत्यादि कारिकाकी चर्चा करते हुए हमारी मान्यताके रूपमें लिखा है कि संभवतः हम वह मानते है कि "उपादान स्वयं कार्योत्पत्तिके समय अपने अनुकूल निमित्तोंको एकत्रित कर लेता है"। किन्तु अपरपक्षने किस कथनके आधारपर हमारा यह अर्थ फलित किया है यह हम नहीं समझ सकें"। इसके आगे उसने (उत्तरपक्षने) स्वयं लिखा है कि "हमने भट्टाकलंक देवकी अष्टदातीके ''तादृशी जावत बुद्धिः"--इस कथनको प्रमाण रूप से अवश्य ही उद्धत किया है और यह निर्विवाद रूपसे प्रमाण है । परन्तु इससे भी उक्त आशय सूचित नहीं होता' |
इसको समीक्षामें मेरा कहना यह है कि "तादृशी आयते युतिः" इत्यादि वचनको उत्तरपक्ष प्रमाण तो मानता हो है अतएव इसके आधारपर हो पूर्वपक्षने उसके स च पृ० ९ पर निर्दिष्ट "पर नियम यह है कि प्रत्येक समयमें निमित्तको प्राप्ति उपादानके अनुसार ही होती है। इस कथनका उसके (उत्तर द्वारा उपत आशय लिये जानेकी संभावना प्रगट की है। अब यदि उत्तरपक्ष 'ताशी जायते बुद्धिः" इत्यादि कथनको प्रमाण मानकर भी यह कहता है कि "इससे भी उयत आशय सुचित नहीं होता तो उसे इसका स्पष्टीकरण करना चाहिए था । पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि "तादृशी जायते बुद्धिः" इत्यादि कथन इसी बातको सूचित करता है कि "उपादान स्वयं कार्योत्पत्तिके समय अपने अनुकूल निमित्तोंको एकत्रित कर लेता है" परन्तु इसके साथ पूर्वपक्षका यह भी कहना है कि उक्त कथन जनागमका नहीं है, इसलिए प्रमाण रूप नहीं है। आचार्य भट्टाकलंकदेवने अष्टशती में उसका उद्धरण लोकोक्तिके रूपमें उन लोगोंकी मान्यताका खण्डन करने के लिए किया है जो गुरुषार्थसे अर्थसिद्धि मानते हुए भी "तादृशी जायते बुद्धिः" इत्यादि कथनके आभारपर पुरुपा की सिद्धि देवगे स्वीकार करते हैं। इस कथनको जैनागमका कथन न मानने में हेतु यह है कि जैनागमके अनुसार कार्योत्पत्ति भवितव्यता और पुरुषार्थ आदि स्वतन्त्र होते हुए एक दूसरेके पूरक होते है अर्थात दोनोंमसे कोई भी एक दुसरेकी अधीनतामें निष्पन्न नहीं हुआ करता है । केवल इतनो बात अवश्य है कि कार्योत्पत्ति में दोनों ही अपेक्षित रहा करते है । इसका आशय यह होता है कि भवितव्यता हो लेकिन पुरुषार्थ आदि बाह्य साधन विद्यमान न हों तो कार्योत्पत्ति नहीं होगी। इसी तरह भवितव्यता न हो, लेकिन पुरुषार्थ आदि बाह्य साधन हों तो भी कार्य नहीं होगा। इस तरह "तादुशी जायते बुद्धि." इत्यादि कथन जैनागमका अंग नहीं हूँ यह बात अच्छी तरह निर्णीत हो जाती है। . कथन ७१ और उसकी समीक्षा
(७१) आगे उत्तरपक्षने त० च० १० ६८ पर उक्त अनुच्छेदमें ही यह लिखा है कि "निमित्तोंको जुटाने की बात तो अपरपक्ष की ओरसे ही मथार्थ मानी जाती है। उसकी ओरसे इस आशयका कथन ५वीं शांकाके तीसरे दौर में किया भी गया है। हम तो ऐसे कपनको केवल विकल्पका परिणाम मानते हैं। अतएव
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जयपुर (खनिया) तत्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा
इसको लेकर अपरपक्षने यहाँ " द्रव्यगतस्वभाषाः परकी जो विवेचना की है वह कुछ नहीं है किन्तु उसका आशय इतना ही है कि जिसे आगम में स्वप्रत्यय परिणमन (स्वभावणर्याय) कहा है और जिसे आगम स्वपरप्रत्यय परिणमन (विभाव पर्याय) नहा है वह सब वाह्याभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होता है ऐसा द्रव्यगत स्वभाव है।"
इस सहाय उत्तरपक्ष द्वारा अपने उपर्युक्त वक्तव्य प्रतिपादित निमित्त जुटाने की बात के विषय में पूर्वपक्षने ५वीं शंकाके तीसरे दौर में जो कुछ लिखा है उसका वहीं पर स्पष्टीकरण करना उचित होगा। यहाँ तो मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष बसे कचनको केवल विकल्पका परिणाम मानता है तो उसे स्वयं अपने अनुभवपर दृष्टिपात करना चाहिए, ताकि वह उस अनुभवा अपने इस विकल्प परिणामकी मान्यताका समन्वय कर सके और इस तरह उसकी विवक्षित कथनको विकल्पका परिणाम स्वीकृत करनेकी मान्यताका उसके अनुभव के साथ यदि समन्वय न हो सके तो उसे इस मान्यताका श्याग कर देना चाहिए ।
पूर्वपक्ष द्रव्यगतस्वभावः" पदकी ० ० ० २६ पर जो विवेचना की है उसको उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमे युक्तियुक्त नहीं माना है और अपनी ओरसे उसने उसका आशय इस रूप में व्यक्त किया है कि "जिसे आगम में स्वप्रत्यय परिणाम (स्वभाव पर्याय) कहा है और जिसे आगममं स्वपरप्रत्यय परिणाम (विभाव पर्याय) कहा है वह सब वाह्याभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होता है ऐसा मत स्वभाव है।" सो उत्तरपक्ष के इस जिनमें और पूर्वपक्ष के द्वारा इस विवेचनमे तो मुझे द्रव्यगतस्वभावः" पदका एक ही जैसा अभिप्राय समझमे आ रहा है। दोनोंमें केवल यही अन्तर दिखाई देता है कि जहाँ पूर्ववक्ष आगम के आधारपर सभी द्रव्यों को पगुणहानिवृद्धिरूप स्वभाव पर्यायोंको स्वप्रत्यय और सभी द्रव्योंकी शेष स्वभावरूप पर्यायोंको तथा आत्मा और पुद्गलकी इस तरह की स्वभावरूप पर्यायोंके साथ विभावरूण पर्यायको भी स्वपरप्रत्यय मानता है वहां उत्तरपक्षानं अपने उपर्युक्त वक्तव्य में स्वभाव पर्याय स्वप्रत्यय परिणाम और विभावर्याको स्वपर प्रत्यय परिणाम कहा है अर्थात् उत्तरपक्ष पर्यायोंके विषय में स्वप्रत्ययका अर्थ स्वभाव और स्वपरप्रत्ययका अर्थ विभाव ही ग्रहण करना चाहता है और इन दोनोंकी उत्पत्तिको वह बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रतामें स्वीकार करता है जो अपेक्षाकृत होनेसे विवादको वस्तु नहीं है अर्थात् पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनसे उत्तरपक्षके कथनमें मात्र यह विशेषता है कि उत्तरपक्ष सभी द्रव्योंकी गुणहानिबुद्धिरूप स्वप्रत्यय पर्यायों विषयमें उनमें वासम्भव विद्यमान उपर्युक्त शेप राभी स्वपरप्रत्यय पर्यायोंके विषय मौन रहकर केवल आत्माकी कर्मोक उपशम, दाम और क्षयोपशममें होनेवाली स्वभाव पर्यायों को स्वप्रत्यय व कर्मोके उदयमें होनेवाली विभाव पर्यायोंको स्वपरप्रत्यय स्वीकार करता है, इसलिए दोनों पक्षोंके परस्पर भिन्न कथनों में केवल अपेक्षाकृत भेद रहने के कारण विवाद के लिए कोई स्थान नहीं है ।
व
इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य उनके इस वक्तव्यों को देखते हुए केवल "तादृशी जाय बुद्धिः" इत्यादि पद्यकी प्रमाणता और अप्रमाणताका तथा उसका क्या अभिप्राय है, इसका ही विवाद विद्यमान रह जाता है जिसके विषयमे मेरा कहना है कि पूर्वी दृष्टि युक्तियुक्त और आगमसम्मत है, उत्तरपक्ष की दृष्टि युक्तियुक्त और बागमसम्मत नहीं है । तत्वजिज्ञासुओं को इसपर ध्यान देना चाहिए ।
कथन ७२ और उसकी समीक्षा
(७२) पूर्व० ० ० २६ पर जीवकी मोक्ष पर्यापको स्वपरत्यव पर्याय बतलाया है ।
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शंका-समाधान १ को समीक्षा
१५७
उत्तरपक्षने इसका खण्डन करते हए त० च० ५० ६८ पर “आगे अपरपक्षने हमारे कथनको उद्धृत्त कर मोक्षको स्वपरप्रत्यय पर्याय सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु आगममें इसे किस रूप में स्वीकार किया गया है इसके विस्तृत विवेचनमें तत्काल न पड़कर उसकी पुष्टि में एक आगम प्रमाण देना उचित समझते हैं।" इतना लिखकर पंचास्तिकाय गाथा ३६ को आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाका उद्धरण दिया है जो निम्न प्रकार है
"सिद्धो हि उभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमृत्पादयन्नान्यत् किंचिदुत्पादयति" |
इसका अर्थ उसने यह किया है कि "उभय कर्मका क्षय होनेपर सिद्ध स्वयं आत्मा (सिद्ध पर्याय) को उत्पन्न करते हुए अन्य किसीको उत्पन्न नहीं करते ।"
इसपर मेरा कहना यह है कि दोनों पक्षोंकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय पर्यायोंकी मान्यताओंमें अपेक्षाभेदका ही अन्तर है, इसे ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ मैं पुनः स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आगममें द्रव्योंकी पड्मणहानिवृद्धि रूप पर्यायोंको स्वप्रत्यय और उनसे अतिरिक्त उनकी पथासम्भव शेष सभी पर्यायोंको स्वपरप्रत्यय माम्य किया गया है। पूर्वपक्षको मोक्षपर्याय उत्तरपक्षके समान स्वभावपर्याय मानने में आपत्ति नहीं है परन्तु वह कांके क्षयका निमित्त मिलने पर ही उत्पन्न होती है अत. वह स्वपरप्रत्यय पर्याय कही जाती है। पंवास्तिकाय गाया ३६ की आचार्य अमृतत्तन्द्र कृत टीकाके उत्तरपक्ष द्वारा अपने वक्तव्य में नदार उक्त बमनमे भी सोमायने कर्मों के लयको स्पष्ट रूपसे निमित्त स्वीकार किया गया है।
तात्पर्य यह है कि आगममें धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा जीव और पुद्गल इन मभी द्रव्योंकी षड्गुणहानिवृद्धि रूप पर्यायोंको स्वप्रत्यय व इनके अतिरिक्त उनकी एक दूसरे द्रव्यके निमित्तगे होनेवाली पर्यायोंको स्वपरप्रत्यय मान्य क्रिया मया है। सभी द्रव्योंकी षड्णहानिवृद्धि रूप म्बप्रत्यय पर्याय स्वभावरूप ही होता है तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल पोंकी स्वपरप्रत्यय पर्यायों को भी स्वभावपर्याय कहना युषितयत्रत है तथा पद गलकर्म और नोकर्म के सायद जीयोंकी जो कमों के उपशय, क्षय और क्षयोपशम होनेपर स्वपत्प्रत्यय पर्याय होती हैं उन्हें भी सभावपर्याय कहना अयुक्त नहीं है एवं उनकी कमौके उश्यमें होनेवाली स्वपरप्रत्यय पर्यायोंको जो विभाव पर्याय कहा जाता है । यह भी युस्तियुक्त है। इसी तरह पुद्गलोंकी स्कन्वरूप और कर्म-नोकर्म स्वपरप्रत्यय पर्यायों को अशुद्ध पर्याय कहना भी युक्तियुक्त है, ऐसा जानना चाहिए।
इस विवेचन के आधारपर मेरा कहना है कि उत्तरपक्ष का त० च पृ० ६८ पर निर्दिष्ट "इससे स्वप्रत्यय पर्याय और स्वपरप्रत्यय पर्यायके कथनमें अन्तनिहित रहस्का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। किन्तु अपरपक्ष दोनोको एक कोटिम रखकर उक्त रहस्यको दृष्टिपथमे नहीं ले रहा है। इतना ही हम यहाँ कहना पाहेंगे।" यह कथन पूर्वपक्षपर लागू नहीं होकर उत्तरगनपर ही लागू होता है। वास्तबमें तत्त्वजिज्ञासुओंके लिए यह समझना कठिन नहीं है कि क्रोन पक्ष उक्तः रहस्यको दृष्टिपथमें नहीं ले रहा है।
आगेतच. पृ० ६८ पर उत्तरपक्ष ने लिखा है कि "हमने पंचास्तिबायका अनन्तर पूर्व ही कथन उद्धृत किया है उसका जो आशय है वहीं आशय तत्वार्थसूत्रके "बन्धहत्वभाव" इत्यादि वनका भी है।" सो पंचास्तिकावफे उक्त टीका-वचनको समीक्षामें जो कहा गया हो वैसा ही यहां भी समझना चाहिए ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
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कथन ७३ और उसकी समीक्षा
(७३) आगे उत्तरपक्षने त० ० ० ६८ पर ही यह लिखा है कि "यहां अपरपक्षने करणानुयोग और चरणानुयोग की चर्चा कर जो निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र के एक साथ होनेका संकेत क्रिया है। सो उसका हमारी ओरसे कहाँ निषेध किया गया है ।" इस सम्बन्धमं मेरा कहना यह है कि उत्तरपक्षने ऐसा लिखते समय पूर्वपक्ष के सम्पूर्ण कथनपर ध्यान नहीं दिया है। पूर्वपक्ष ने अपना कथन उत्तरपक्ष के "यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंग के प्राप्त होने से पूर्व ही द्रव्यलिंग स्त्रीकार कर लेता है पर उस द्वारा भावलिंगकी प्राप्ति द्रव्यलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो ऐसा नहीं है किन्तु जहाँ उपादानके अनुसार भार्शलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलग रहता हो है । तीर्थंकरादि किसी महान् पुरुषको दोनों की एक साथ प्राप्ति होती हो यह बात अलग हैं।" इस कंपन के सम्बन्ध में किया है और वह इस दृष्टिसे किया है कि उत्तरपक्ष भावसिंग और द्रव्यलिंग में निमित्तनैमित्तिक भावरूप कार्य कारणभाव स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं है। उत्तरपक्षका मात्र इतना ही कहना है कि "जब उपादान के अनुसार भावलिंग होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलिंग रहता ही है ।" इस तरह उत्तरपक्ष भावलिंग की उत्पत्तिमें द्रव्यलिंगको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है जबकि पूर्व आगमके आधारपर यह कहना है कि भावलिंगकी उत्पत्ति में द्रव्यलिंग भी महायक होने रूपसे निमित्तकारण होता हैं अर्थात् द्रव्य लिंगको धारण किये बिना जीवको भावलिंगकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। भले ही द्रव्यलिंगकी प्राप्ति भावलिंगके पूर्व मानी जाये अथवा दोनोंकी एक साथ प्राप्ति मानी जाये |
मन, वचन (मुख) और शरीर ये तीनों पीद्गलिक है, क्योंकि इनकी रचना नोकवर्गणासे हुआ करती है। जीव द्वारा धनके समन्वित अबलम्बनपूर्वक जो मोक्षके अनुकूल क्रिया की जाती है उसे ही आग में द्रव्यलिंग कहा जाता है और इसके आधारपर उन-उन कर्मोंका यथासंभव उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविशुद्धि प्रगट होती है उसे आग नावलिंग कहा गया है । तात्पर्य यह है कि दर्शन मोहनीय कर्मभेद मिथ्यात्व सम्प्रमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति तथा चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तातुबन्धी काषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात कर्माकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविशुद्धि जीव में प्रगट होती है उसे निश्चय वा भाव सम्यग्दर्शन कहा जाता है तथा इसके अनुकूल मन, वचन और कायके समन्वित अवलम्बनपूर्वक जीव द्वारा संकल्पी पापोंसे निवृत्त होकर जो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और अस्तिक्य रूप आचरण किया जाता है उसे व्यवहार यह द्रव्ध सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसी तरह चारित्रमोहनीय के ही भेद अप्रत्याख्यानावरण करायरूप क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कर्मप्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविद्युद्धि जीव में प्रगट होती है उसे देशविरतरूप निश्चय या भावसम्यक् चारित्र कहा जाता है। तथा इसके अनुकूल मन, वचन और कारकं समन्वित अवलम्बनापूर्वक जीव द्वारा एक देश आरम्भी पापोंसे विरत होकर जो अणुव्रतादि रूप आचरण किया जाता है उसे देशविरतरूप व्यवहार या द्रव्यभ्यचारित्र कहते हैं । इसी तरह चारित्रमोहनीय कर्मके ही भेद प्रत्याख्यानावरण कषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कर्म प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविशुद्धि जीवमें प्रगट होती है उसे सविरतरूप निश्चय या भावसम्यक् चारित्र वहा जाता है तथा उसके अनुकूल मन, बचन और कायके समन्वित अवलम्बनपूर्वक जीव द्वारा सर्वदेश आरम्भी पापोंसे विरत होकर जो महाव्रतादि रूप आचरण किया जाता है उसे सर्वविरत रूप व्यवहार या द्रव्यसम्यकुचारित्र कहते हैं ।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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इस तरह व्यवहार या व्यसम्बग्दर्शन, देगविरतरूप पबहार या द्रब्यसम्यकचारित्र और सर्वविरतरूप न्यवहार या व्यसम्यकचारित्र क्रमशः निश्चय या भात्र सम्बग्यम, निश्चय या भाव देशचारित्र और निश्चम या भाव सकल चारित्रमें कारण सिद्ध हो जाते हैं। स्वयंभस्तोत्रके "बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरन्स्त्वमाध्यारिमकस्य तपसः परिवहणार्धम्" इत्यादि पद्य से भी यही सिद्ध होता है। किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि उक्त व्यवहार या द्रव्यसम्पम्दर्शन आदिको धारण कर लेनेपर जीव नियमसे निश्चय या भावसम्यग्दर्शन आदिको प्राप्त हो जाता है, क्योंकि उक्त व्यवहार या द्रव्यसम्यग्दर्शन आदि निश्चय या भाव मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्यके भी गम्भव है। इतना ही नहीं, निश्चय या भाव मिथ्यादष्टि भव्य जीवोंमेंसे विरले जीव ही द्रव्य या व्यवहार सम्यग्दर्शन आदिक आधारपर निश्चय या भाव सम्यग्दर्शन आदिको प्राप्त होते हैं जिनके अन्तःकरणमें उनो बलगे मोक्ष प्राप्त करने की उत्कट भावना जागृत हो जाती है अर्थात् करणलब्धिको प्राप्त कर जो परमार्थ (आत्मकल्याण) की ओर जाते है। तथा उनको धारण कर जिनकी भावना सांसारिक ध्रोगोंकी रहा करती है देशभ गतिको प्राप्त होते हए भी संमार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं और जो जीव उन्हें मन, वचन और कायसे समन्वयपूर्वक नहीं धारण करके "मनमें कुछ और रचनमें कुछ और तथा करे कुछ और" को कहावतको चरितार्थ करते हुए धारण करसे है वे अपने इस पाखंडी रूपके कारण हमेशा दुर्गतिके ही पात्र बने रहते हैं। समयसारका "किलश्यन्तां स्वयमेव दावारतरैः" इत्यादि कलश १४२ व "तम्हा जहित्तु लिगे" इत्यादि समयसार गाथा ४११ ये दोनों ग्रही उपदेश देते हैं कि ध्यवहार या द्रव्यसम्यग्दर्शन आदिको एक तो पाग्तण्डरूपमें धारण न करके मन, वचन और कायके समन्वयपूर्वक घारण करो और दूसरे, सांसारिक भोगोंकी आकांक्षासे घारण न कर आत्मकल्याणकी भावनासे ही उन्हें धारण करो।
इस प्रकार उत्तरपक्षका त• च० ० ६९ पर निर्दिष्ट "इसमे स्पष्ट ज्ञात होता है कि परमदीतराग चारित्रकी प्राप्तिका साक्षात् मार्ग एक पात्र स्वभाव सम्मुख हो तन्मय होकर परिणमना ही है। इसके सिवाय अन्य सब निमित्त मात्र है" | यह कथन तभी विवाद रहित हो सकता है जब उत्तरपक्ष निमित्तभूत व्यवहार पा द्रव्य सम्यग्दर्शन आदिको उसकी प्राप्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी माननेके लिए तैयार हो
उत्तरपक्ष निमितभूत व्यवहार या द्रव्य सम्पग्दर्शन आदिको उसकी प्राप्ति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी न मानकर सहायक त होने रूपसे अकिंचित्कर ही मानता है । अतएव उत्तरपक्षके साथ पूर्वपक्षको विवाद है। कथन ७४ और उसकी समीक्षा
(७४) उत्तरपक्षने त० ८० पृ०६९ गर ही आगे यह कथन क्रिया है.--''अपरपक्षका कहना है कि भावलिङ्ग होनेगे पूर्व द्रव्यलिंगफो तो उसकी उत्पत्ति के लिए कारणरूपसे मिलाया जाता है"। किन्तु अपरपक्षका यह कथन इसी प्रान्त ठहरता है कि एक व्यलिंगी साधु आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एकपूर्व कोटि काल तक द्रव्यलिंगको धारण वारके भी उस द्वारा एक क्षण के लिए भी भावलिंग धारण नहीं कर पाता और आत्माके सन्मुख हुआ एक गृहस्थ परिणामयिशुद्धिकी वृद्धि के साथ बाह्य में निम्रन्थ होकर अन्तर्मुहूर्त में छपकश्रेणीका अधिकारी होता है"। सो उत्तरपक्षका इस कथनके आधारपर पूर्वपशके "भावलिंग होनेसे पूर्व द्रयलिंगको तो उसकी उत्पत्तिक लिए काररूपसे मिलाया जाता है। इस कथनको भ्रान्त कहना असंगत
पक्षका उस कथनसे यह आशय है कि जब तक व्यलिंग धारण नहीं किया जायेगा तक तक
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भावलिंग की प्राप्ति असंभव । उसका आशय यह नहीं है कि द्रव्यलिंगको धारण करनेपर जीव नियमसे भावलिगको प्राप्त हो ही जाता है। यह बात ऊपर स्पष्ट की भी जा चुकी है ।
कथन ७५ और उसकी समीक्षा
(७५) उत्तरपक्षने अपने उगी अनुच्छेद में आगे जो यह लिखा है कि "स्पष्ट है कि जो इम्पलिंग भाषलिंगका सहचर हानेवे निमित्त संज्ञाको प्राप्त होता है वह मिलाया नहीं जाता, किन्तु परिणामविशुद्धि की वृद्धि के साथ स्वयमेव प्राप्त होता है । आगम में द्रव्यलिंगको मोक्षमार्गका उपचारसे साधक कहा है तो ऐसे ही द्रव्यलिगको कहा है। मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्डके प्रतीक स्वरूप द्रव्यलिंगको नहीं" । सो उत्तरपक्षका यह कथन पूर्व के लिए निम्नलिखित कारणोंके आधारपर विवादग्रस्त हूं—
(१) उत्तरपक्ष द्रव्यलिंगको भावलिंगका मात्र सहचर मानता है जबकि पूर्वपक्ष द्रव्यलिंगको भावलिंग के प्रगट होने में सहायक मानता है।
(२) उत्तरपक्षका कहना है कि जो द्रव्यलिंग भावलिंगका सहचर होनेसे निमित संज्ञाश प्राप्त होता है वह मिलाया नहीं जाता, किन्तु परिणामविशुद्धिके साथ स्वयमेव प्राप्त होता है। इसके विपरीत पूर्वपक्षका कहना है कि द्रव्यलिंग पूर्वोक्त प्रकार मन, वचन और कायके समन्वित अवलम्बनपूर्वक मोक्षके अनुकूल पुरुषार्थ के रूपमें जीव द्वारा धारण किया जाता है और तब उसकी सहायतासे जीव में परिणाम विशुद्धि प्रगट होती है ।
(३) उत्तरपक्षका कहना है कि "आगम में प्रचलिंगको जो मोक्षमार्गका उपचारसे साधक कहा है तो ऐसे ही द्रव्यलिंगको कहा है" । सो इस कथन में उसका अभिप्राय यह है कि दयलिंग सहचर होनेके कारण भावलिगका उपचाररो अर्थात् कथन मात्र रूपमें यानी अकिचित्कररूपमें ही साधक माना जाता है जबकि पूर्वपक्षका कहना है कि द्रव्यलिंग भावलिगका सहकारी रूपसे कार्यकारी होकर ही साधक होता है । उसे जो उपचारसे साधक माना जाता है उसका आधार यह है कि यह भावलिंग की तरह केवल आत्माश्रित न होकर मन, वचन और का समन्वित सहयोग से होने वाले आत्मपुरुषार्थ रूप होता है ।
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(४) उत्तरपक्षका यह भी कहना है कि मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्ड के प्रतीक स्वरूप द्रव्पलिंगको मोक्षमार्गका साधक नहीं कहा जाता है परन्तु पूर्वपक्षका कहना है कि मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्डको प्रयलिंग कहना ही अयुक्त है। उसे तो कुलिंग ही कहा जा सकता है, क्योंकि द्रव्यलिंग तो जीवके उस पुरुषार्थका नाम है जो योगत्रयके समन्वित अवलम्बनपूर्वक मोक्षके अनुकूल पुरुषार्थके रूपमें किया जाता है । अभव्य जोव जिस प्रकार के द्रव्य लिंग के आधारपर स्वर्गादि शुभ गतिको प्राप्त होता है वह ऐसे हो द्रव्यलिंग के आधारपर स्वर्गादि शुभ गतिको प्राप्त होता है जो योगत्रय के समन्वित अवलम्बन. पूर्व मोक्ष के अनुकूल पुरुषार्थके रूपमें उसके द्वारा पालन किया जाता है। मिथ्या अहंकार से पुष्ट हुए द्रव्य - लिंग अर्थात् कुलिंग आधारपर वह अभव्य जीव ही नहीं अपितु भव्य जीव भी कदापि सद्गति प्राप्त करनेका पात्र नहीं होता है । वह अभव्य जीव मोक्ष के अनुकूल उपर्युक्त प्रकारके विशुद्ध द्रव्यलिंगको धारण करके भी जो गोक्ष प्राप्त करनेका अधिकारी नहीं होता उसका कारण तो यह है कि उसमें मोक्ष प्राप्त करनेकी स्वभावभूत योग्यताका अभाव है। इसके अतिरिक्त उसका लक्ष्य उपर्युक्त प्रकारके विशुद्ध द्रव्यलिंगके आधारपर सांसारिक भोगों की ओर ही रहता है। जैसा कि समयसार गाया २७५ से प्रकट है।
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शंका-समाधान १ की समीक्षा तात्पर्य यह है कि बहुतसे मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य जीव जो मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य अणुव्रत और महाव्रतरूप क्रियाकाण्डको धारण कर लिया करते है वे वास्तव में कुलिंगी ही हुआ करते है, उन्हें शुभ गतिकी प्राप्तिका कोई नियम नहीं है। किन्तु ऐसे भी विरले मिथ्यादष्टि भव्य और अभव्य जीव होते है जो मन, वचन और कागके समन्वित अवलम्बनपूर्वक मोक्षके लिये अनुकुल बाह्य अणुमत और महाव्रतरूप क्रियाकाण्डको अर्थात् दन्यलिङ्गको धारण कर नियमसे शुभ गतिको प्राप्त होते है तथा इसी प्रकारके द्रव्यलिंगको धारण करने वाले उन चिरले भन्य जीवोंमसे विरले भव्य जीव ऐसे होते हैं जो मोक्ष प्राप्तिकी उत्कट भावना-- से उसी द्रव्यलिंगके आधारपर उन-उन कर्मोका यथायोग्य उपशम, क्षय गौर क्षयोपशम कर निश्चय या भाव सम्यग्दष्टि, निश्चय या भान देशविरत व निश्चय या भाव सर्वविरत होते हए अन्तम मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
इस तरह द्रव्पलिंगके विषयमें उत्तरपक्ष और पूर्वपाकी जो दृष्टियां है उनमें पूर्वपक्ष की दृष्टि मागमानुफूल तथा युक्तियुक्त है। उत्तरपक्षनी दृष्टि न तो आगमानुकूल है और न युक्तियुक्त है । तत्वजिज्ञासुओंको इसपर गहराईसे ध्यान देना चाहिये । कथन ७६ और उसकी समीक्षा
(७६) आगे उत्तरपक्षने त च. पृ०६९-७० पर यह कथन किया है कि "अपरपक्षने "युगपत् होते हूँ प्रकाश दीपक ते होई (छहढाला ढाल ४-१)" वचनको उद्धृत कर यह स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि निश्चयचारियका सहचर द्रश्चलिग ही आगममें व्यवहारनयसे उसका साघन कहा गया है । अतः पूर्वमें धारण किया गया व्यलिंग भावलिंगवा साधन है, अपरपशक इस कथनका महत्व सुतरां कम हो जाता है" ।
इसके विषयमें मैं कहना चाहता है कि मोक्ष प्राप्त करने की उत्कट भावनासे युक्त भव्य जीव सर्वप्रथम उपर्युक्त प्रकारके द्रव्यलिगको चारण करता है और ऐसा विचारकर धारण करता है कि द्रश्यलिंगको धारण करनेपर ही भावलिंगकी प्राप्ति सम्भव है, उसके अभावमें नहीं। इस तरह पूर्वपक्षके "पूर्वमें धारण किया गया द्रव्यलिंग भाव लिंगका साधन है" इस कथनका महत्व कहाँ कम होता है, अपितु वह बढ़ता है । पूर्वपक्षने जो छहढालाके उपर्युक्त वचनका उद्धरण दिया है वह इसलिए नहीं दिया है कि द्रव्यलिंग और भावलिंग नियमरो साथ ही उत्पन्न होते है। उसका कहना तो यह है कि सामान्यतया द्रव्धलिंगको धारण करने के पश्चात भावलिंग होता है। यदि कदाचित उनकी उत्पत्ति साथमें भी हो तो भी दीपक और प्रकाशकी तरह उन दोनोंम निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्यकारणभाव स्वीकार करना असंमत्त नहीं होगा। इसी तरह सहचर और व्यवहारनयका विषय होनेपर भी निमित्त उपादानकी कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी होता है, यह बात हहहालाक उक्त वचनसे भी सिद्ध होती है। कथन ७७ और उसकी समीक्षा
(७७) आगे इसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "थाली भोजनका साधन कहा जाता है, पर . जैसे थालीसे भोजन नहीं किया जा सकता उसी प्रकार अन्य जिन साधनोंका उल्लेख यहाँपर अपरपनने किया है उसके विषय में जान लेना चाहिए । थे यथार्थ साधन नहीं हैं यह उक्त ऋथनका तात्पर्य है। मुख्य साधन वह कहा जाता है जो स्वयं अपनी क्रिया करके कार्यरूप परिणमता है अन्यको यथार्थ साधन कहना कल्पनामात्र है। यह प्रत्यक्षसे ही दिखलाई देता है कि बाह्य सामग्री न तो स्वयं कार्यरूप ही परिणमती है
और न काय द्रव्यकी क्रिया ही करती है ऐसी अवस्थामें उन्हें यथार्थ साधन कहना मार्गमें किसीको लुटता हुआ देखकर "मार्ग लुटता है" इस कथनको यथार्थ मानने के समान ही है"।
सं०-२१
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसको समीक्षा ___ उत्तरपक्ष पूर्वपक्षके कथनपर विचार न कर अपने पूर्वाग्रहको ही दोहराता है, क्योंकि पूर्वपक्ष द्रव्य लिंगको मोक्षका तदरूप परिणत होने रूपसे यथार्थ कारण कहीं मानता है । यह तो उसमें सहायक होने रूपसे अयथार्थ कारण ही मानता है। उसका स्पष्ट कहना है कि ज्यालिग मालकी प्राप्तिम साधनभूत भावलिंगके प्रगट होने में सहायक होने रूपसे कार्यकारी साधन है। उत्तरपक्ष उन द्रब्यलिंगको मोक्षकी प्राप्लिमें साधनभूत भावलिंगके प्रगट होने में सहायक होने स्पसे कार्यकारी साधन नहीं मानता । उसे सर्वथा कल्पनामात्र कहकर अकिंचित्कर ही मानता है, जो आगम संगत नहीं है । यह विषय पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। कथन ७८ और उसकी समीक्षा
(७८) आगे उत्तरपक्षने स०प० पृ०७० पर यह कथन किया है कि "अपरपक्षने हमारे कथनको ध्यानमें लिए बिना जो कार्य-कारण भावका उल्टा चित्र उपस्थित किया है वह इसलिये ठीक नहीं, क्योंकि म तो उपादानके कारण निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीको उपस्थित होना पड़ता है और न ही निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री के कारण उपादानको हो उपस्थित होना पड़ता है। यह सहज योग है जो प्रत्येक कार्यमें प्रत्येक समय में सहज हो मिलता रहता है। "मैंने अमुक कार्य के निमित्त मिलाये" यह भी कथन मात्र है जो पुरुषके योग और विकल्पको लक्ष्यमें रखकर किया जाता है। वस्तुतः एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको क्रियाका कर्ता त्रिकाल में नहीं हो सकता। अतः यहां हमारे कथनको लक्ष्यमें रखकर अपरपक्षने कार्यकारणभावका जो उल्टा चित्र उपस्थित किया है उसे कल्पनामात्र हो जानना चाहिए"। आगे इसकी समीक्षा की जाती है।
वायु चलती है तो वृक्ष की हालियो हिलती हैं । इसमें वायुका चलना वायुमें हो रहा है और वृक्षकी डालियोंका हिलना आलियों में हो रहा है। लेकिन यदि वायु में चले तो डालियां नहीं हिल सकतीं, ऐसा ज्ञान यदि लोकको होला है तो क्या उत्तरमश उसे असंगत मान लेना चाहता है ? यदि ऐसा है तो भवन-निर्माण करते समय उस भवनमें वायुके प्रवेशके लिए वह बुद्धिपूर्वक खिड़कियों को रखने की चेष्टा क्यों करता है ?
और जिस समय उसे वायुकी उपयोगिता अनुभव में नहीं आ रही है अथवा वह वायु हानिकर अनुभव में आ रही है तो वह उन खिड़कियोंको बन्द करने की बुद्धिपूर्वक चेष्टा क्यों करता है? यदि इन सब बातोंको वह निमित्त और उपादानका अथवा निमित्त और कार्य का सहज योग मानता है, तो वह बुद्धिपूर्वक खिड़कियों के खोलने और बन्द करने या विविध कारणोंको जुटानेको भी चेष्टा क्यों करता है?
उत्तरपक्ष अपने कार्यकी सम्पन्नताके लिये संकल्प भी करता है, उस संकल्प के अनुसार बुद्धिका विकल्प भी उसके मस्तिष्कमें उत्पन्न होता है और तदनुकूल बह प्रयन भी करता है। अब यदि उसका संकल्प, बुद्धिका विकल्प और प्रयत्न अभिप्रेत कार्यके अनुकूल होते है तो कार्य भी सम्पन्न होता है और यदि प्रतिकूल होते हैं तो कार्य सम्पन्न नहीं होता या उनके आधारपर उपादामकी योग्यताके अनुसार प्रतिकूल कार्य सम्पन्न हो जाता है। इतना ही नहीं, उसका संकल्प, बुद्धिका विकल्प और प्रयत्न कार्मक अनुकूल होते हुए भी यदि वहाँपर अन्य निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका अभाव हो या बाधक कारण उपस्थित हो जाय या उपादानमें कार्यानुकूल योग्यताका आभाव हो तो भी कार्य सम्पन्न नहीं होता है। उत्तरपक्षसे मेरा एक ही प्रश्न है कि यह ऐसी स्थितिमें क्या अपने संकल्प, विकल्प और प्रयत्नको कार्योत्पत्ति में सर्वथा 'कल्पनामात्र' और अकिंचित्कर माननेके लिए तैयार है ? और यदि वह इन्हें जहाँ सर्वथा कल्पनामात्र व अकिचिकर ही मानता है तो उसके ये संकल्प, विकल्प और प्रवल तीनों असम्यक् हो जानेसे फिर वह यह सब क्यों
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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करता है ? इसपर उत्तरपक्षको गहराईसे सोचना एवं विचार करना चाहिए, क्योंकि उसकी मान्यता है कि यह सब सहज योगके रूपम होता है। क्या इसे कोई भी बुद्धिमान स्वीकार कर सकता है?
उत्तरपक्षने अपने उपर्यस्त वक्तव्यम कार्योत्पत्तिके अवसरपर पुरुषके योग और विकल्पकी समवेत स्थितिको स्वयं स्वीकार किया है। उसने यह अवश्व कहा है कि "वस्तुतः एक द्रव्य दुसरे द्रव्यको क्रियाका का त्रिकालमें नहीं हो सकता" । उसमें पूर्वपाको वियाद कहाँ है । परन्तु इससे वहाँ पुरुषके योग और विकल्पकी सहायक होने रूपसे अनुभवगम्य स्थितिका निषेध नहीं किया जा सकता है और न उसका असम्यगमा ही सिद्ध किया जा सकता है।
बात वास्तव में यह है कि सभी द्रव्योंके अपने परिणमन-स्वभाषके आधारपर होनेवाले षणहानिवृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमन निःसर्गतः होनेके कारण अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं । इतना ही नहीं, सभी शुद्ध द्रव्यों के अपने परिणमन-स्वभावके आधारपर एक-दूसरे द्रव्यके निमित्तसे होनेवाले स्वपरप्रत्यय परिणमन भी अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं. क्योंकि श्रर्म, अधर्म, आकाश, काल और अणुरूप पुद्गल ये सभी शुद्ध दव्य अचेतन है। आत्मा यणि नेतन है तथापि उसके शुद्ध हो जानेपर उसके जो उक्त प्रकारके स्वपरप्रत्यय परिणमन होते है वे भी अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं, क्योंकि उनमें बुद्धिके अवलम्बनमत मस्तिष्कका अभाव पाया जाता है । यद्यपि एकादश गुणस्पनिस लेकर पंश स्थान और नगर बाथ सम्बद्ध रहनेके कारण आत्मा मस्तिष्क सहित रहा करता है। परन्तु चतुर्दशगुणस्थानमें मस्तिरकका सद्भाव रहते हुए भी अपनी निष्क्रियताके कारण यह आरमा बुद्धिके उत्पन्न होने में सहायक नहीं होता है अतः आत्माके चतुर्दशगुणस्थान में जो स्वपरप्रत्यय परिणमन होते हैं ये अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं । यद्यपि एकादशगुणस्थानसे लेकर प्रयोदशगुणस्थान तक आत्मामें नोकर्मभूत मन, बचन और कायके सहयोग पूर्वक क्रिया होती रहती है। परन्तु उराकी वह क्रिया नोकर्मभुत उक्त मन, वचन और कायमें होनेवाली निसर्गज क्रियाके आधारपरही हुआ करती है। इस क्रियाम आत्मा बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त नहीं होता, अतः उन गुणस्थानों में विद्यमान आत्माके स्वपरप्रत्यय परिणमन भी अबुद्धिपूर्वक ही होते हैं । यतः प्रथमगुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक आत्माकी बहत-सी क्रियायें द्धिपूर्वक हुआ करती हैं और उसकी बहुत-सी क्रियायें अबुद्धिपूर्वक हा करती है, अतः इन गुणस्थानों में विद्यमान आत्माके स्वपरप्रत्यय परिणमन यथायोग्य बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक दोनों ही प्रकारसे होते हैं। पुगल स्कन्धोंके जो स्वपरप्रत्यय परिणम न होते हैं वे भी उन स्कन्धोंकी अचेतनता के कारण अबुद्धिपूर्वक ही होत है । इस तरह यह ऐसी वास्तविकता है जिसे उत्तरपक्ष टाल नहीं सकता ।
इरा विवेचनसे यह निर्णीत होता है कि कार्योत्पत्तिमें जीवके जितने भी संकल्प विकल्प और प्रयत्न होते हैं उन्हे वहाँ कदापि अकिंचित्कर नहीं माना जा सकता है । इतना अवश्य है कि उसके वे संकल्प, विकल्म और प्रवल कुत्रचित विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति, सहायक होने रूपसे कार्यकारी होते हैं । लेकिन जहाँ उनकी सहायतामे विवक्षित कार्योत्पत्ति नहीं होती है वहाँ ऐसा जान लेना चाहिए कि या तो उपादानभत वस्तूमें उस कार्य की योग्यताका अभाव है या जीवके संकल्प, विकल्प और प्रयत्न तीनोंमें समन्वयका अभाव है अथवा अन्य साधन-सामग्री का अभाव या बाधककारणोंका सद्भाव बना हुआ है।
___ इस तरह उत्तरपक्षने त० च पृ०७० पर जो उपर्युक्त कथन किया है और उसमें उसने कार्योस्पत्ति के प्रति जो उपादान और निमित्त भूत्त सामग्रीक सहजयोगका प्रतिपादन किया है वह युक्ति और अनुभवके विरुद्ध है तथा पूर्वोश प्रकार आगमके भी विरुद्ध है और लोकव्यवहार के विरुद्ध तो वह है हो ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा इसी सरह "मैंने अमुक कार्य के निमित्त मिलाये" यह कथन मात्र तो नहीं है । किन्तु इतना अवश्य है कि यदि किमीको इसमें अहंकार उत्पन्न हो जाये तो वह अनुचित है, क्योंकि कार्यके निमित्त मिलनेके साथ कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुमें उपादानशक्तिका सद्भाव व बाधक कारणों का अभाव आदिका योग मिलनेपर ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। "उत्तरपक्षके "एक द्रव्य दरारं द्र व्यकी क्रियाका कर्ता त्रिकालमें नहीं हो सकता'' इस कथन में पूर्वपक्षको अणुमात्र भी विवाद नहीं है। किन्तु एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी सहायता अवश्य करता है । इसी अभिप्रायसे आचार्य गद्धपिच्छने तत्वार्थसूत्रमें 'परमारोपनहो जोवनाम् सूत्र (५-२१) का सृजन किया है।
इस तरह उत्तरपक्ष भले ही कहता रहे कि "अपरपक्षने हमारे कथनको ध्यान में न रखका कार्यकारणभावका उलटा चित्र उपस्थित किया है किन्तु उसका ऐसा कहना वास्तविक नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्षने पूर्वक्ति प्रकारसे युक्ति और आगम-सम्मत कार्यकारणभाव प्रदर्शित किया है। कथन ७१ और उसकी समीक्षा
(७९) आगे उत्तरपक्षने त च० ए०७. पर ही यह कथन किया है-"हमारा उपादानके अनुसार भालिंग होता है" यह कथन इसलिये परमार्थरूप है, क्योंकि कर्मक क्षयोपशम और भावलिगका एक काल में होनेका नियम होनेस उपचारसे यह कहा जाता है कि योग्य क्षयोपशमके अनुसार मात्माम भावलिंगकी प्राप्ति होती है। जिस पंचास्तिकायका वहाँ अपरपक्षने हवाला दिया है उसी पचास्तिकाव गाथा ५८ में पहले सब भावोंको कर्मकृत बतला कर गाथा ५९ में उसका निषेध कर यह स्पष्ट कर दिया है कि आत्माक भावोंको स्वयं आरमा उत्पन्न करता है, कम नहीं, अतः चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशमके अनुसार भालिंग होता है, इसे यथार्थ कयन न समझकर अपने उपादानके अनुसार भालिग होता है, इसे हो आगमसम्मत यथार्थ कथन जानना चाहिए। इसपर अपरपक्ष भी स्वयं निर्णय कर सकता है कि यथार्थ कथन अपरपक्षका न होकर हमारा ही है।"
इसपर मेरा कहना है कि पूर्वपक्ष भी पादानकी अपेक्षा "उपादानके अनुसार भावलिंग होता है" इसे यथार्थ मानता है। किन्तु वह "चारित्रमोहनीयकर्मक वयोपधामके अनुसार भावलिंग होता है" इसे भी निमित्त कथनकी अपेक्षा यथार्थ मानता है। इतना विशेष है कि "उपादानके अनभार भावलिंग होता है" इसकी यथार्थतामें पूर्व पक्षकी "उपादान ही भावलिंग रूप परिणत होता है' यह दृष्टि है और "चारियमोहनीयकर्मक क्षयोपशमके अनुसार भावलिंग होता है" इसकी यथार्थतामें उसकी "चारित्रमोहनीयकर्मका क्षयोपशम उपादानके भावलिंग रूप परिणमनमें सहायक होता है" यह दष्टि है । जबकि उत्तरपन "जपादान ही भावलिंग रूप परिणत होता है। इसे ही यथार्थ मानता है और "चारित्रमोहनीयकर्मका योपशम उपादानके भालिंग रूप परिणमन में राहायक होता है इसे यथार्थ नहीं मानना चाहता. क्योंकि व धानके भावलिंग रूप परिणमनमें चारित्रमोहनीयकर्मके मयोपशमको सहायक होने रूपसे कार्यकारी न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिचित्कर कहकर काल्पनिक हो मानता है। दोनों में यही मतभेद है। उनमें इस मान्यताके विषयमें कोई विवाद नहीं है कि उपादान भावलिंगका यथार्थ अर्थात निश्चय कारण है और चारित्रमोहनीवकर्मका क्षयोपशम अयथार्थ अर्थात् ब्यवहार या उपरित कारण है। विवाद यही है कि जहां पूर्वपक्ष चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशमको भावलिंगमे उपादानका सहायक होने के आधारपर कार्यकारी
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
रूपमें अयथार्थ अर्थात् यवहार या उपचरित कारण मानता है यहाँ उत्तरपक्ष उसे वहाँ पर सहायक न होने के आधारपर अकिंचित्कररूपमै अपथार्थ अति व्यवहार या उप-वरित कारण मानता है। इसी तरह दोनों पक्षोंके मध्य इस मान्यताके विषयमें भी कोई विवाद नही है कि उपदान भायलिंगका यथार्थ अर्थात् निश्चय कारण होनेसे निश्चयनका विषय है और चारित्रमोहनीयकर्मका क्षयोपशम अयथार्थ अर्थात् व्यवहारमा उपचरित कारण होनेसे व्यवहारनवका विषय है। इसमें भी विवाद यही है कि जहां पूर्वपक्ष चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमको भावलिंग उपादानका सहायक होनेके आधारपर कार्यकारीरूपमें अययार्थ व्यवहार या उपचरित कारण मानकर व्यवहारनवका विषय मानता है वहीं उत्तरपक्ष उस चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमको भालिंगमें उपादानका सहायक न होनेके आधारपर अकिचिकर रूपमें अयथार्थ अर्थात व्यवहार या उपचरित कारण मानकर व्यवहारमयका विषय मानता है। यह बात पूर्व में भी निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्य-कारणभावको लेकर समाप्टकी जा चुकी है। उत्तरपक्ष निष्पक्ष विचार करे, तो वह समझ जायेगा कि उसका कथन यथार्थ नहीं है। पूर्वपक्ष का कथन ही यथार्थ है। पंचास्तिकाय गाथा ५८ और ५९ को इसी दृष्टिसे देखना चाहिए, तभी उनके अर्थ एवं आशयको ठीक तरहसे हृदयंगम किया जा सकेगा।
कथन ८० और उसकी समीक्षा
(८०) आगे उत्तरपक्षने त० च० पू० ७० पर ही यह कथन किया है कि "आगे अपरपक्षने निमित्त व्यवहारको यथार्थ सिद्ध करनेके लिए उलाहनक रूपमें जो कुछ भी वक्तव्य दिया है उससे इतना ही ज्ञात होता है कि अपरपक्ष नयकी अपेक्षा या वक्तव्य आगममें किया गया है इस ओर ध्यान न देकर मात्र अपनी मान्यताको आगम बनाने के पक्ष है, अन्यथा वह पक्ष असद्भुत व्यवहारनयके वक्तव्यको असद्भुत मानकर उस नमकी अपेक्षा कथन आगममें किस प्रयोजनसे किया गया है इसपर दृष्टिपात करता।"
इसकी समीक्षा करनेसे पूर्व में यह बतला देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपना उक्त कथन पूर्वपक्षके त० च०५.२८ पर निर्दिष्ट "आपके उपयक्त सिद्धांतत्र अनुसार जन उपादान अपने अनसार कार्य कर ही लेता है तब निमित्तकी आवश्यकता हो क्या रह जाती है ? चूंकि आगममें सर्वत्र यह प्ररूपण किया गया है कि निमिस तथा उपादान का उभयकारणोंसे ही कार्य होता है और निमित्त हेतुका भी होता है अतः शब्दों में तो आपने उसे (निमित्तको) इन्कार नहीं किया, किन्तु मान शब्दोंम स्वीकार करते हुए भी आप निमित्तभूत वस्तुमें कारणत्व भाव स्वीकार नहीं करते हैं तथा निमित्तको अविचिकर बतलाते हुए मात्र उपादानके अनुसार ही अर्थात एकान्ततः उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं। आगमके शब्दोंको केवल निवाहने के लिए यह कह दिया गया कि निगित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार हुआ करती है ताकि यह न समझा जाये कि आगम माननीय नहीं है। इस एकान्त सिद्धांतकी मान्यतासे यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्तकारण मात्र शब्दोंमें माना जा रहा है, वास्तव में उसे कारण रूप नहीं माना गया है" इस कपनको आलोचना करते हुए किया है।
उत्तरपक्षके सक्त मन्तव्यपर यहाँ विमर्श किया जाता है। स्मरण रहे कात्पित्तिके प्रति उपादान और निमित्त दोनों कारणों के विषय में जिनागमका क्या अभिप्राय है, इसे पूर्वमें अनेक आगमवननोंके उद्धरण देकर स्पष्ट किया गया है । फिर भी आश्चर्य है कि उन स्पष्ट आगमके उद्धरयो बाबजूद उत्तरपक्ष अपने आग्रहपर भान है । यहाँ पुनः और स्पष्ट किया जाता है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
समयसार गाथा ८० में बतलाया गया है कि जीवपरिणामके हेतु (निमित्त ) होनेपर पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं और पुद्गलकर्मके निमित्त होनेपर जीव भी उसी प्रकार अर्थात् रागादिभावरूप परिणत् होता है। उसकी गाथा ८१ में वतलाया गया है कि जीव कर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और कर्म जीवगुणरूप परिणत नहीं होता, केवल एक दूसरेके निमित्तसे दोनों अपने उपर्युक्त प्रकारके परिणमन किया करते हैं। इन दोनों गाथाओंका आशय यह है कि जब जीनकी पुद्गलकर्मके साथ और पुद्गलकी जीवके रामादि परिणामों के साथ कालप्रत्यासत्ति अर्थात् एक कालमें योग होता है तब हो दोनों अपना-अपना उपर्युक्त प्रकारका परिणमन करते हैं, अन्यथा नहीं ।
यद्यपि जिनागम में यह भी बतलाया गया है कि प्रत्येक वस्तु सतत परिणमन करती रहती है। एक ris लिए भी उसका परिणमन रुकता नहो, एक साथ ही यह भी जिनागम में बतलाया गया है कि वस्तुका स्वपरप्रत्यय परिणमन निमित्तसापेक्ष होता है और स्वप्रत्यय परिणमन निमित्तनिरपेक्ष होता है । समयसार गाथा ८० और ८१ में जीव और पुद्गलके निमित्त गापेक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनोंकी व्यवस्थाका ही दिग्दर्शन कराया गया है | यही व्यवस्था समस्त वस्तुओंके निमित्तसापेक्ष स्वरप्रत्यय परिणमनों के सम्बन्धमें भी समझ लेना चाहिए ।
पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष में इन निमित्तसापेक्ष परिणमनोंकी व्यवस्थाके सम्बन्ध में हो विवाद है अर्थात् पूर्व में किये गये विवेचन के अनुसार उत्तरपक्ष का कहना है कि वस्तुमें परिणमनोंकी प्रक्रिया सतत चालू रहते हुए उसका जिस समय जो परिणमन होता हैं उस समय उसके अनुकूल निमित्तकारणभूत वस्तुका योग उसे नियमसे मिल जाया करता है। उसके इरा कथनका अभिप्राय यह है कि वह एक वस्तुकी परिणतिमें अन्म भूत वस्तुको सर्वथा अकिचित्कर मानता है । पर पूर्वपक्षका कहना है कि वस्तुमें परिणमनको प्रक्रिया चालू रहते हुए भी जिस समय उसके जिस परिणमनके अनुकूल उसे निमित्त सामग्रीका योग मिलता है उस समय ही उसका यही परिणमन होता है । पूर्वपक्ष ऐसा कथन इसलिये करता है कि वह एक वस्तुकी परिपतिमें अन्य निमित्तभूत वस्तुको अनिवार्य सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है । यतः पूर्वपक्ष ने तत्त्वचर्चा में और मैंने उसकी इस समीक्षामें आगम प्रमाणके भावापर यह सिद्ध किया है कि निमितभूत वस्तु उपादानभूत वस्तुको परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही होती है । अतः पूर्वपक्षका उक्त कथन आगमसम्मत होने से सम्यक है, उत्तरपक्षका नही है । उत्तरपक्षने आगमका अर्थ ठीक तरहसे समझने की चेष्टा नहीं की है । कोई भी भाषाविज्ञानी व्यक्ति समयसार गाथा ८० और ८१ के अर्थ पर ध्यान देकर यह स्वीकार करनेके लिए बाध्य हो जायेगा कि निभिसभूत वस्तु उपादानभूत वस्तुको परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी होती है | आगमको इस व्यवस्थाको यदि उत्तरपक्ष अस्वीकृत करनेकी अपनी जिद नहीं छोड़ता है तो उसकी इस जिदको समाप्त करनेका अरहंत भगवानके पास भी उपाय नहीं है ।
जिलागम में यह बतलाया गया है कि मिट्टीकी घटरू परिपति हो जानेपर भी घट मिट्टीके रूपको नहीं छोड़ता, अतः मिट्टी और घटमें अभेद होनेसे घटमें विद्यमान मिट्टीका रूप निश्चयनयका विषय है तथा मिट्टी में घटकी उपादानता पाई जाती है और घटमें मिट्टीको उपादेयता पाई जाती है। अतः इन दोनोंमें इस उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावके आधारपर भेद सिद्ध हो जानेसे घटव सद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है । उसी जिनागममें यह भी बतलाया गया है कि मिट्टी से बननेवाले घटके निर्माण में कुम्भकार भी सहायक होने रूपसे कारण होता है । इतना अवश्य है कि घट और कुम्भकार में वस्तुभेद विद्यमान
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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रहने से कुम्भकारका घट रूपसे परिणत होना सम्भव नहीं है, अतः इन दोनोंमें उपादानोपादेयभाव सिद्ध न होकर निमित्तनैमित्तिकभाव हो मित्र होता है । इस तरह कुम्भकारमें विद्यमान निमित्तता और घटमें विद्यमान नैमित्तिकता दोनों अद्भूत व्यवहारनयका त्रिपथ है ।
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस प्रकार मिट्टी और टमें विद्यमान उपादानोपादेयभाव कल्पना - रोपितमात्र न होकर वास्तविक है उसी प्रकार कुम्भकार और घट में विद्यमान निमित्तनैमित्तिकभाव भी कल्पनारोपित न होकर वास्तविक हो है । अन्तर केवल इतना है कि मिट्टी और घटमें विद्यमान उपादानोपादेयभाव एक वस्तुनिष्ठ तादात्म्यसंवंचालित होने के आधारपर वास्तविक है और कुम्भकार द घटमें विद्यमान निमित्त नैमित्तिकभाव वस्तुनिष्ठ संयोगसंबंधाश्रित होनेके आधारपर वास्तविक हूँ । अथवा मिट्टी घटरूप परिणत होती है अतः मिट्टी में विद्यमान उपादानकारणता और टमें विद्यमान उपादेयता रूप कार्यता दोनों वास्तविक हैं । तथा कुम्भकार मिट्टी की घटरूप परिणतिमें सहायक होता है अतः कुम्भकारमें विमान वितरना नैतिकता रूप कार्यता ये दोनों भी वास्तविक हैं । अर्थात् इनमें कोई भी आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं है। इसी प्रकार मिट्टी और घटने विद्यमान उपर्युक्त प्रकारकी अभेदरूप वास्तविकता निश्चयनयका विषय है तथा इनमें विद्यमान उक्त प्रकारको कथंचित् भेद रूप refreता सद्भूत उपवहारनयका विषय हैं व कुम्भकार और घट में विद्यमान उपर्युक्त प्रकारकी सर्वथा भेदरूप वास्तविकता अद्भूत व्यवहारनयका विषय है । यद्यपि असद्भूत व्यवहारनम और इसका विषय अयथार्थ असत्यार्थ या उपचरित अवश्य हूँ परन्तु वे पराश्रितता के आधारपर ही अयथार्थ, असत्यार्थ और उपचरित हैं, कल्पनारोपितता के आधारपर अयथार्थ, असत्यार्थ और उपचारित नहीं है ।
उपर्युक्त विवेचनके आधारपर यह कहा जा सकता है कि उत्तरपक्षने अपने उल्लिखित वक्तव्यमें जो यह कहा है कि "अपरपक्ष किस नमकी अपेक्षा या वक्तव्य आगम में लिखा गया है इस ओर ध्यान न देकर मात्र अपनी मान्यताको आगम बनाने के फेर में हैं, अन्यथा वह पक्ष असद्भूत व्यवहारनयके वयसम्यको असद्भूत मानकर इस नयकी अपेक्षा कथन आगम में किस प्रयोजनसे किया गया है इसपर दृष्टिपात करता ।" सो उसका यह लिखना असंगत ही है, क्योंकि पूर्वपदाने आगमके आशयको समक्ष कर ही उक्त प्रतिपादन किया है । और उसकी यह मान्यता आगमसे प्रमाणित 1 यह पूर्व में नित भी किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में उत्तरपक्ष के प्रति ही यह कहा जा सकता है कि वह किस नयकी अपेक्षा क्या वक्तव्य आगममें लिखा गया है इस ओर ध्यान न देकर मात्र अपनी मान्यताको आगम बनाने के फेर में है, अन्यथा वह असद्भूत व्यवहार को पराश्रितता के रूपमें असद्द्भूत मानकर इस नथकी अपेक्षा कथन आगममें किस प्रयो जनसे किया गया है, इस ओर अवश्य दृष्टिपात करता ।
कथन ८१ और उसकी समीक्षा
(८१) आगे उत्तरगक्षने त च० पृ० ७० पर यह कथन किया है कि " प्रवचनसारगाथा १६९ की आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका में "स्वयं" पद आया है। हमने उसका अर्थ प्रकृत शंका प्रथम उस रमे "स्वयं" ही किया है। किन्तु अपरपक्षको यह अर्थ मान्य नहीं। वह इसका अर्थ "अपने रूप" करता है। इसके समपूर्वपक्षकी मुख्य युक्ति यह है कि सहकारी कारणके बिना कोई भी परिणति नहीं होती, इसलिए कार्यकारणभाव के प्रसंग सर्वत्र इस पदका अर्थ "अपने रूप" या "अपने में" करना ही उचित है ।"
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उसने यह कथन पूर्वपक्ष के त० ० ० २८ पर निर्दिष्ट "हमने अपनी दूसरी प्रतिशंकामें यह स्पष्ट किया था कि प्रवचनसार गाथा १६९ तथा उसको श्री आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें जो "स्वयं" शब्द आया है उसका अर्थ " अपने आप' न होकर "अपने रूप" ही है। इस कथन की और पूर्वपक्ष ही तु० च० १० २९ पर निर्दिष्य" इस विषय में हमारा यह कहना है कि "स्वयमेव" पद कुन्दकुन्द स्वामीके मन्थोंमें जहाँ भी कार्य-कारणभाव के प्रकरण आया है वहाँ सर्वत्र उसका अर्थ "अपने रूप" अर्थात् "स्वयंकी वह परिणति है" या "स्वयंगे ही वह परिणति होती है" ऐसा करना चाहिए बिना सहकारी कारणके अपने आप यह परिणति होती है ऐसा कदापि संगत नहीं हो सकता है ।" इस कथन की आलोचना करते हुए किया है।
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आगे उत्तरपक्ष के उक्त कथन की समीक्षा की जाती है
यतः उत्तरपक्ष उपादानभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्तभूत वस्तुको सर्वथा अकिंचित्कर मानता है, अतः व प्रवचनारगाथा १६९ की आचार्य अमृतमन्द्र कृत टीकामें आये हुए "स्वयं" पदका अर्थ "स्वयं" करके यह दिखलाना चाहता था कि कर्मत्व शक्तिके धारक मुद्गल स्कंध "स्वयं" भर्यात् निभिभूत जीवकी सहायता के बिना अपने बाप ही कर्मरूप परिणत होते हैं ।
यतः पूर्वपक्ष उपादानभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति में निमित्तभूत वस्तुको सहायक होने रूपसे कार्य - कारी मानता है, अतः वह प्रवचनसार गाथा १६९ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें आये हुए "स्वयं" पदका अर्थ "अपने रूप" करके यह बताना चाहता है कि कर्मस्व शक्तिके वारक पुद्गल स्कंध यद्यपि निमित्तभूत जीवकी सहायता से कर्मरूप परिणत हुआ करते हैं, परन्तु उनकी वह कार्यरूप परिणति निमित्त - भूत जीवके अनुरूप न होकर उनमें विद्यमान कर्मरूपसे परिणत होनेकी शक्ति के अनुरूप ही हुआ करती है ।
तात्पर्य यह है कि प्रवचनसार गाथा १६९ में पठित "स्वयं" पदका दोनों पक्षोंने जो अपने-अपने ढंगसे पृथक्-पृथक् अर्थ स्वीकार किया है उसके आधारपर दिये गये उपर्युक्त स्पष्टीकरणसे ज्ञात होता है कि दोनों पक्षोंके मध्य इस बात की तो समानता है कि कमरूपसे परिणत होनेकी योग्यता धारक पुद्गल स्कंध ही कर्मरूप परिणत हुआ की हैं। परन्तु उक्त स्पष्टीकरणये यह भी ज्ञात होता है कि उत्तरपक्ष "स्वयं” पदका "स्वयं" अर्थ करके अपनी इस गाम्यताको पुष्टि कर लेना चाहता है कि कर्मरूप परिणत होनेकी योग्यता के वारक पुद्गल स्कंध अपने आप" अर्थात् "निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना ही कर्मरूप परिणत होते हैं। इसके विपरीत पूर्वपक्ष "स्वयं" पदका "अपने रूप" अर्थ करके अपनी इस मान्यताकी पुष्टि करता है कि कर्मरूप परिणत होनेकी योग्यताके धारक पुद्गल स्कंध निमित्तभूत जीवके सहयोगपूर्वक अपनी उस योग्यता अनुरूप ही कर्मरूप परिणत होते हैं ।
अब देखना यह है कि प्रवचनसार गाथा १६९ और उसको आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकासे क्या उत्तरपक्षकी मान्यताका समर्थन होता है या कि पूर्वपक्ष की मान्यताका ? इसका निर्णय करनेके लिए मैं यहाँपर उक्त गाथा और उसकी टीकाको उद्धृत करता है
गाथा -कम्मत्तणपाओग्या खंधा जीवस्स परिदि मया । गच्छति कम्मभावं न हि ते जीवेण परिणमिदा ॥ १६९ ॥
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शंका-समाधान १ की समोक्षा
अर्थ-कर्मत्वके योग्य अर्थात कर्मरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट पदगल स्कंध जीवकी परिणतिको अर्थात रागादि परिणतिको प्राप्त कर अर्थात आधय कर कर्मभावको अर्थात कर्मरूप परिणतिको प्राप्त होते हैं । वे जीव द्वारा कर्मरूप परिणत नहीं किये जाते अर्थात् कर्मरूप परिणत होनेकी शक्तिसे रहित पुद्गलस्कंधोंको जीव कर्मरूप परिणत करा देता हो, ऐसा नहीं है।
टीका-यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढजीवपरिणाममात्र बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्यपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधार्यते न खलु पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ।
अर्थ-जिस कारणगे तुत्य क्षेत्रमें अवमाहनको प्राप्त जीवको परिणति मात्र अर्थात् रागादि रूप परिणति मात्र बाद्य साधनका आश्रय करके परिणमन करानेवाले जीवके बिना भी कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट पदनालस्कन्ध स्वयं अर्थात कमस्वशक्तिके अनुरूप ही कर्मरूपसे परिणत होते हैं। इससे निर्णीत होता है कि जीव पुदगलस्कन्धोंके कर्मरूप परिणमनका कर्ता नहीं है।
उक्त माथा और उसकी उक्त टोकासे यह ध्वनित होता है कि यद्यपि जीवके सहयोगसे ही पुद्गलस्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन होता है । तथापि जीबके सहयोगसे घे ही पद्गलस्कन्ध कर्मरूप परिणत होते हैं, जिनमें कर्मरूपसे परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता पाई जाती है अर्थात् जोब उन पुद्गलस्कन्धोंको कर्मरूप परिणत नहीं कराता है, जिनमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वभाविक योग्यता नहीं पाई जाती है। इससे प्रतीत होता है कि जीव मुद्गलस्कन्धोंके कर्मरूप परिणमनका कर्ता नहीं होता है । अतः सिद्ध होता है कि पुद्गलस्कन्धोंकी कर्मण परिणति उरामे विद्यमाम कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होती है । जीव तो उनकी उस परिणतिके हानेमें निमित्त (सहायक) मात्र होता है 1 पुद्गलस्कंधोंके साथ वह जीव भी कर्मरूप परिणत होता हो, ऐसा नहीं है।
आचार्य जयसेनने उक्त गाथाकी टीकामें स्पष्ट लिखा है कि जीव निश्चयसे कर्मका कता नहीं होता, जिसका तालार्य यह है कि जीव व्यवहारसे कर्मका का होता है अर्थात् जीव कर्म का ऋर्ता कर्मरूप परिणत होने रूपसे न होकर पुद्गलके कर्मला परिणमन में सहायक होने रूपसे होता है। इससे भी यही प्रकट होता है कि कर्मरूप परिणति तो पुद्गलकी ही होती है और वह उसी पुद्गलकी होती है जिस पुद्गलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता पाई जाती है। केवल इतनी बात अवश्य है कि पुद्गलको बह कर्मरूप परिणति जीवकी सहायतासे होती है, उसकी सहायताके बिना नहीं होती।
इस प्रकार इस विवेचनसे अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि प्रवचनसार माथा १६९ और उसकी आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका तथा आचार्य जयसेन कृत टीकासे भी प्रकृत प्रकरणमें "स्वयं' पदका पूर्वपक्षको मान्य अर्थ ही गहीत होता है, उत्तरपक्षको मान्य अर्थ नहीं, अर्थात उक्त गाथा और उसकी दोनों टीकाओंके अनुसार कर्मरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट पदगल ही कर्मरूप परिणत होने रूपसे कर्मका का होता है, जीव उसका उस रूपसे परिणत होने रूपसे का नहीं होता। केवल वह पुद्गलकी उस कर्मरूप परिणति में सहायक मात्र होता है। इस तरह जीवमें पुद्गलकी कर्मरूप परिणतिका कर्तृत्व न होनेपर भी पूर्वपक्षको मान्य सहकारीपनेकी सिद्धि तो उसमें अवश्य होती है, उसका उत्तरपक्ष द्वारा मान्य निषेध सिद्ध नहीं
सं०-२२
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
होता । अतः समयसारमामा १६९ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें "स्वयं" पदका पूर्वपक्षको मान्य "अपने रूप" अर्थ ही संगत है, उत्तरपक्षको मान्य "अपने आप " अर्थ संगत नहीं ।
कथन ८२ और उसकी समीक्षा
(८२) ० ० ० ७० पर ही आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि "इस प्रकार अपरपक्षके इस कथन मालूम पड़ता है कि वह पक्ष उत्पाद-यौव्यरूप प्रत्येक सत्को उत्पत्ति परकी सहायताये या परसे होती है यह सिद्ध करना चाहता है किन्तु अपना यह मान्यता दया "
1
इसको समीक्षा में कहना चाहता हूँ कि पूर्व
उत्पादव्ययीव्य रूप प्रत्येक सलुकी उत्पत्तिको यथायोग्य परकी सहायतासे मानता है, पर नहीं मानता अर्थात् पर उसका कल होता है ऐसा वह नहीं मानता है। अतएव उसका "परकी सहायतासे" यह लिखना तो उचित है, परन्तु "परखे" लिखना बिलकुल निराधार और गलत है। ऐसा पूर्वपक्षने कहीं भी नहीं लिखा ।
उत्पादादिको परकी सहायता से माननेको पूर्वपक्षकी मान्यताको आगमविरुद्ध बतलाना मिथ्या है. क्योंकि सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० ७ में यह स्पष्ट बतलाया गया है कि उत्पादव्यय-शक्ति से स्वभावतः सम्पन्न प्रत्येक सत्का उत्पाद-यय स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो प्रकारसे होता है तथा इस बार पूर्वपक्ष प्रत्येक सतुको उत्पाद-व्यय-धन्य शक्ति स्वभावतः सम्पन्न मानकर उस शक्ति के अनुसार होनेवाले उसके उत्पाद व्ययको स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो प्रकारसे मानता है। इसके विपरीत उत्तरपक्षका कहना है कि प्रत्येक सत् यतः स्वभावतः उत्पाद-व्यय- श्रीव्याक्तिसे सम्पन्न है अतः इरा शक्तिके अनुसार होनेवाला इसका प्रत्येक उत्पाद व्ययरूप परिणमन भी प्रतिक्षण स्वभावतः अर्थात् अपने आप ही हुआ करता है उसको अपने उस उत्पाद व्यय किसी भी परिणमनके होनेगें परकी सहायता अपेक्षित नहीं होती है।
परन्तु उत्तरपक्ष की यह मान्यता आगम-विरुद्ध है, जैसा कि उक्त सर्वार्थसिद्धि प्रतिपदन से प्रकट है।
कथन ८३ और उसकी समीक्षा
(८३) आगे ० ० ० ७०-७१ पर उत्तरपक्षने लिखा है--"अतएव जहाँ भी नवनवी अपेक्षा कम किया गया है वहाँ पर प्रत्येक कार्य यथार्थमें परनिरपेक्ष ही होता है इस सिद्धांतको ध्यान में रखकर "स्वयमेव" पदका "स्वयं ही" जयं करना उचित है। इतना अवश्य है कि यदि विस्तारसे ही उस पदका अर्थ करना हो तो निश्चय पर कारकरूप भी इस पदका अर्थ किया जा सकता है. क्योंकि प्रत्येक द्रभ्य निश्चयनयसे आप कर्ता होकर अपने में अपने लिये अपनी पिछली पर्यायका अपादान करके अपने द्वारा अपनी पर्यावको आप उत्पन्न करता है। इसमें परका धनु मात्र भी योगदान नहीं होता। हां, असद्भूत व्यवहारनयसे परसापेक्ष कार्य होता है यह कहना अन्य बात है। किन्तु इस कथनको परमार्थभूत नहीं जानना चाहिए। यही कारण है कि समयसार में सर्वत्र व्यवहारपक्षको उपस्थित कर निश्चयनयके कथन द्वारा असत् कहकर उसका प्रतिषेध किया गया है। कार्य कारणभावमें भी इसी पद्धतिको अपनाया गया है।"
आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वबतलाया जा चुका है कि "शिष्य पढ़ता है" इसका अभिप्राय यह है कि पठनक्रिया शिवयकी अपनी ही क्रिया है । वह शिष्यमें ही हो रही है और वह उसमें स्वभावतः पाई जानेवाली पठनक्रियाकी
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
योग्यताके अनुरूप ही हो रही है उसकी उस क्रिया में ही उसका ही पुरूषार्थ हो रहा है और यह उसके ही लाभके लिए हो रही है। इतना ही नहीं वह शिष्यमें पिछली क्रियाका अपादान होकर हो रही है और वह उसके द्वारा ही की जा रही है। परन्तु उसके होने में अध्यापकके प्रेरणात्मक व्यापारको उपेक्षित नहीं किया जा सकता है, इसलिये "शिष्य पढ़ता है" इस प्रयोगके साथ वहां "अध्यापक पढ़ाता है" इस प्रयोगकी भी उपयोगिता बुद्धिगम्य हो जाती हैं। इसके साथ उसमें अवलम्बन रूपसे "दीपकके प्रकाशमें शिष्य पढ़ता है" इस अभिप्रायको प्रगट करनेवाले "दीपक पड़ाता है" इस प्रयोगकी उपयोगिता भी बृद्धिगम्य हो जाती है। इस प्रकार परस्पर सम्बद्ध इन तीनों प्रयोगों से प्रथम प्रयोग निश्चयनयका है, क्योंकि वह प्रयोग पठनक्रियामें तद्रूप परिणत होनेके आधार पर शिष्यकी उपादानबारणताको बतलाता है । दूसरा प्रयोग असद्भुत कपबहारनबका है, क्योंकि वह प्रयोग शिष्यको पठनक्रिवाके होने में प्रेरक रूपसे अध्यापककी सहायक होने रूप निमित्तकारणताको प्रकट करता है और तीसरा प्रयोग भी अराद्भत व्यवहारनयका है, क्योंकि वह प्रयोग शिष्यको पठनक्रियाक होने में अवलम्बन रूपसे दीपककी सहायक होने रूप निमित्तकारणताको ज्ञात कराता है ।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक ब्रब्यकी क्रिया नहीं कर सकता है और करता है जिसमें उस क्रियाकी सरूप परिणत होने की योग्यताके रूपमें उपादानकारणता विद्यमान रहती है। दूसरा द्रव्य उस एक द्रव्यको उस क्रियाको न तो कदागि कर सकता है और न करता ही है, क्योंकि उस दूसरे दृश्यमें उस एक द्रव्यकी उस रूप परिणत होनेकी योग्यताके रूपमें उपादानकारणता नहीं पाई जाती है। वह दूसरा व्य सर्वदा अपनी ही क्रिया कर राकता है और करता है, क्योंकि उसमें भ. उसामा कमी क्रिया कारकी उपादानकारणता पाई जाती है। वह अवश्य है वह दूसरा द्रव्य अपनी क्रिया करते हुए उस एक द्रव्यकी क्रियाके होने में सहयोगी बन जाता है, क्योंकि उस एक द्रव्यकी वह क्रिया उस दूसरे द्रव्यको क्रियाके होमेके अवसर पर हो होती है और न होनेके अवसर पर नहीं होती है। इसकी पुष्टिमें दूसरा उदाहरण पूर्वमें रेलगाड़ी के डिब्बेका, इंजिनका और रेलपटरीका भी दिया जा चुका है। अर्थात रेलगाड़ी के डिब्बे में होनेवाली क्रिया उसकी अपनी ही क्रिया है, ऋयोंकि उमकी वह क्रिया उसमें विद्यमान तदनुकूल योग्यताके अनुसार ही हुआ करती है, परन्तु इंजिनकी क्रियाका और रेलपटरीका यथारूप सहयोग प्राप्त होने पर ही उसकी वह क्रिया हुआ करती है । उनके यथारूप सहयोगके बिना उसकी वह क्रिया कदापि नहीं होती है।
इमसे यह निर्णीत होता है कि प्रत्येक द्रव्य उसमें विद्यमान तदनुकूल योग्यताके अनुसार ही अपनी स्वपप्रत्यय क्रिया क्रिया करता है। मात्र इतना ही निश्चयनयका विषय है। परन्तु उसकी वह क्रिया प्रेरक और सदासीन (अप्रेरक) निमित्तभूत अन्य द्रव्योंके यथानुरूप सहयोगसे ही होती है। उन अन्य द्रव्योंका यथानुरूप सहयोग प्राप्त हुए बिना उसकी वह क्रिया कदापि नहीं होती, इसलिये सहयोगके रूपमें ही उन अन्य द्रव्योंको वहाँ असद्भूत व्यवहारनयका विषय माना गया है ।
इससे स्पष्ट विदित होता है, कि निश्चयनय और व्यवहारनय दोनोंका विषय परस्पर सापेक्ष ही होता है और इस सापेक्षताके आधार पर हो उन्हें सम्यक् नय कहा जाता है। अन्यथा (निरपेक्ष होने पर) वे मिथ्या कहे जायेंगे।
यतः उत्तरपक्ष प्रत्येक व्यकी स्वपप्रत्यय क्रियाको स्वप्रत्यय क्रियाकी तरह प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग प्राप्त हुए बिना ही स्वीकार करता है, अतः उसकी इस स्वीकृतिमें निश्चयनयका विषय
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा व्यवहारनयके विषयसे निरपेक्ष होनेके कारण बह निश्चयनयनय न रहकर मिथ्या हो जाता है, क्योंकि उत्तरपक्षने अपने बनव्यमें स्पष्ट लिखा है कि "इसमें परका अणुमात्र भो योगदान नहीं होता।" इस कथनसे उसके मतमें निश्चयनय व्यवहारनय निरपेश होने के कारण निश्चयनय नय न रहकर मिथ्या हो जाता है ! अतः उसके द्वारा ऊपर जिस रूपमें निदचयनयका विषय माना गया है वह आगमसम्मत नहीं है।
इसी तरह जो दार्शनिक एक द्रव्यको क्रियाको उस में तदनुकूल योग्यताका अभाव रहते हए के बल परसे मानते हैं उनके मतमें व्यवहारनयका विषय निश्चयनयके विषयस निरपेक्ष हो जाने के कारण उसका प्रतिपादष व्यवहारनय भी नय न रहकर मिथ्या हो जाता है; ऐसा जानना चाहिए ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि "असद्भूत व्यवहारनयसे परसापेक्ष कार्य होता है यह कहना अन्य बात है, किन्तु इस कथनको परमार्थ रूप नहीं मानना चाहिए ।' सो इसके विषयमे मेरा कहना यह है कि असद्भूतव्यवहारनयका विषय उपयुक्त प्रकार निश्चयनयके विपयके रूपमें भले ही परमार्थ रूप न हो, परन्तु उपयुक्त प्रकार हो अराद्भूतव्यवहारनपके विषको रूपमै तो वह परमार्थभूत ही है । अर्थात् “एक द्रव्यकी क्रिया दूसरा द्रव्य नहीं करता" इस रूपमें तो वह परमार्थभूत ही है, क्योंकि एक द्रव्यको क्रियामें दूसरे द्रव्य का सहयोग कल्पनारोपित मात्र या कथन मात्र नही होता है, यह नहीं भूलना चाहिए। कथन ८४ और उसकी समीक्षा
(८४) उसी वक्तव्यमें आगे चलकर. उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि ''यही कारण है कि समयसारमें सर्वत्र व्यवहारपक्षको उपस्थितकर निश्चयनय के कथन द्वारा असत्' कहकर उसका विरोध कर दिया गया है । कार्य-कारणभावमें इसी पद्धतिको अपनाया गया है। सो उसका यह लिखना सर्वथा भ्रमपूर्ण है, क्योंकि समयसारमें जहाँ भी व्यवहारपक्षको उपस्थित कर निश्चयनयके कथन द्वारा उसका निषेध किया गया है वहाँ ग्रंथकारका यही आशय है कि जो लोग व्यवहारपक्षको निश्चयपक्ष समझकर व्यवहारविमूढ़ हो रहे हैं उनकी यह व्यवहारविमूढ़ता समात हो जाये । उसमें ग्रंथकारका अभिप्राय व्यवहारपक्षको सर्वथा असत्य सिद्ध करनेका नहीं है । तात्पर्य यह है कि व्यवहार व्यवहाररूपसे तो मदरूप ही है, परन्तु उस जिसने निश्चयरूप समझ रखा है उसकी यह भ्रान्ति है और इसो भ्रान्तिको समाप्त करनेके लिए ही समयसारमें उक्त कथन किया गया है । आगे उदाहरणों द्वारा इस कथनको स्पष्ट किया जाता है
(१) बालकको सिंह सदृश गुणोंके आघारमे उपवरित या आरोपित सिंह मानना तो मिथ्या नहीं है, परन्तु उसे उसरूपसे वास्तविक सिंह मान लेना मिथ्या है।
(२) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके अणुओंके पिण्डरूप स्वन्धको उपचरित वस्तु मानना तो मिथ्या नहीं है, परन्सु उन्हें अणुओंके समान स्वतः सिद्ध रूपमें यथार्थ वस्तु मानना मिथ्या है ।
(३) बीका आधार होने के कारण मिट्टीके घड़ेको घोके घड़े के रूप में उपवरित या आरोपित बड़ा मानना मिथ्या नहीं है, परन्तु उसे मिट्टीसे निर्मित पड़ेके समान पीसे निर्मित पड़ेक रूपमें घीका मानना मिथ्या है।
(४) कुम्भकार व्यक्तिको मिट्टीकी कुम्भरूप परिणति में सहायक होलेके कारण उपचारसे कुम्भकार
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१७३ कहना अर्थात् कुम्भका कर्ता मानना तो गिथ्या नहीं है, परन्तु उसे मिट्टीकी तरह कुम्भरूप परिणत होने रूपसे कुम्भकार अथति कुम्भका कत्ती गानमा मिथ्या है।
इन उदाहरणोंसे निर्णीत होता है कि उपचरित या आरोपित वस्तु उपत्तरित या आरोपित रूपमें सद्रूप ही है, आकाश कुरामकी तरह कल्पनारोपित या कथनमान नहीं है, क्योंकि उसको उगपरित या आरोपितरूपसे लोकमें उपयोगिता निविवाद है। अर्थात लोकव्यवहार होता है और वह अपने रूपसे यथार्थ है। कथन ८५ और उसकी समीक्षा
(८५) आगे चलकर तन० प्र० ७१ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है--"अगरपक्षने प्रवचनसार गाथा १६९ की उक्त टीकाके आघारसे यह चनों दलाई है। उसमें पुद्गलस्वान्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति" यह वाक्य आया है जिसका अर्थ होगा-"पद्गलस्वान्घ स्वयं ही कर्मरूपसे परिणम्न है।" जैसा कि अपरपक्षका कहना है उसके अनुसार यह अर्थ कदानि नहीं हो सकता कि "पुदगलस्बन्ध अपने रूप कर्मरूपसे परिणमते है ।" क्योंकि ऐसा अर्थ करने पर "अपनेरूप" तथा "कर्मापसे" इन दोनों बचनामें से एक वचन पुनरुक्त हो जाता है ।''
__ इसके सम्बन्धमें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षका यह कथन न केवल भ्रमपूर्ण है, अपितु मिथ्या भी है, क्योंकि टीकाके उक्त दोनों वचनोंका पूर्वपश्च द्वारा किया गया अर्थ मंगत हैं और दोनों वचन भिन्नायक है । दोनोंके किये अर्थों-'पुद्गलस्कन्ध अपने रूप कर्मरूपसे परिणमते हैं'--का अभिप्राय है कि 'गुद्गलस्कन्ध' 'अपने रूप' अर्थात अपनी स्वाभाविक कमवशक्तिके अनुरूप करूागे' परिणम है। इस तरह 'अपनेख्य और 'कर्मलपस' ये दोनों वचन भिन्न-भिन्न अभिप्रायको प्रकट करते हैं। अतः इनमेंसे कोई भी वचन पुनरुक्त नहीं है-दोनों ही अपुनरुक्त है।
इसका और भी खुलासा इस प्रकार है। पूर्वपशके कथनमें प्रवचन सारयो उक्त टीकामे आये 'स्वयं' पदका जो 'अपने रूप' अर्थ किया गया है उससे पुदगल कन्चोंकी कर्गरूप परिणत होनेको स्वभावभूत योग्यता सूचित की गयी है और कर्मभावेन' पदका जो 'वार्मरूप' अर्थ दिया गया है, उसमे उस योग्यताके आधारपर होनेवाली उन पुद्गलस्कन्धोंकी कर्मरूप परिणतिको बतलाया गया है। दोनों वननोंक अोंका अभिप्राय अलग-अलग है। अतः दोनों ('अपनेरूप' और 'कर्मफप') वचनोंका प्रयोग पुनरुक्त नहीं है। उन्हें पुनरुक्त समझना या बताना अपरपशका मात्र भ्रम है।
एक बात और है। यदि उत्तरपक्षकी मान्यता अनुसार 'पुद्गल स्कंधाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति' इस वाक्यमें आये स्वयंका अर्थ 'अगने आष' स्वीकार किया जाये, तो 'स्वयमेव' पद 'अपने आप अर्थात् निमित्तभुत जीवके सहयोगले बिना' अर्थका बोधक होनेसे पुद्गलक कर्मरूप परिणमन में जीवकी परिणति अकिंचित्कर मिद्ध होती है। फलतः उक्त गाथामें पठित 'जीवस्य परिणदि पप्पा' पद और उसके अर्थ के रूपमें टीकामें अभिहित 'तुल्यक्षेत्रावगाढ़ जीवपरिणाममात्र बहिरंगसाधनमाश्रित्य' पद दोनों निरअंक सिद्ध होते हैं । इसके विपरीत उक्त वननोंका यदि पक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ किया जाये, तो 'स्वयमेव' पद 'अपने रूप' अर्थात 'अपनी बर्मस्वशक्ति के अनुरूप' वर्गका बोधक होनेसे पुद्गलके कर्मरूप परिणमनमें जीवकी परिणति मिराबाध एवं अनिबार्य सहायक होनेसे कार्यकारी सिद्ध होती है तथा दोनों (गाथा व टीकाके)
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
पदोंकी सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है। पुद्गलोंका कर्मरूप परिणत होना कार्य है और उसमें उपादान स्वयं पुद्गल है और निमित्त उसमें जीवपरिणति है । 'स्वयं' का अर्थ 'अपने आप' करनेपर जो परिणति मुगलोंके कर्मरूप परिणयन में कारण (निमित्त) नहीं हो सकेगो और उस हालत में गाथा व टीकाके उक्त पद निरर्थक हो जायेंगे। अतः 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'अपने रूप ''अपनी कर्मशक्ति के अनुरूप यहो युक्त एवं संगत है।
कथन ८६ और उसकी समीक्षा
सर्व
(८६) त० च० पृ० ७१ पर ही उत्तरपक्षने यह कहा है कि "अपरपखने इसी प्रसंग समयसारको ११६ से १२० तकको गाओंको उपस्थित कर उन गाथाओं की अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न होने के वह आर्य कुन्दकुन्द इन गाथाओं द्वारा परिणामस्वभावको सिद्धि कर रहे हैं. अपने शाप (स्वतः सिद्ध) परिणामस्वभावकी सिद्ध नहीं कर रहे हैं । किन्तु अपरपक्ष इस बात को भूल जाता है कि जिसका जो स्वभाव होता है वह उसका स्वरूप होनेसे स्वतः सिद्ध होता है. इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र ने उन गाथाओंकी अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न देकर प्रत्येक द्रव्यकी स्वतःसिद्ध स्वरूपस्थितिका हो निर्देश किया | अतएव अवतरणिकाके आवार से अपरपक्षने जो यह लिखा है कि उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तु परिणामी स्वभावकी सिद्धि करना ही आचार्यको अभीष्ट रहा है। अपने आप परिणामी स्वभावकी नहीं' यह युक्त प्रतीत नहीं होता । "
खेदकी बात है कि उत्तरपक्ष अपनी मान्यताको पूर्वपक्षपर लादनेका अनुचित प्रयास करता है और उसके कथनका विपर्यास करता है । पूर्वपक्षनेत० च० पृ० ३० पर वस्तुके परिणामी स्वभावको सिद्ध करनेवाली आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारकी ११६ मे १२० गाथाएँ उद्धृत कर तथा इन गाथाओंकी अमृतचन्द्रकृत टीकागत अवतरणिकाके, जिसमें 'स्वयं' पद नहीं दिया हुआ है, आधारसे लिखा था कि 'उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तु परिणामी स्वभावकी सिद्धि करना हो आचार्यको अभीष्ट है, अपने आप परिणामी स्वभावको नहीं' और इसका स्पष्टीकरण वहाँ आगे किया गया है। किन्तु उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के इस कथन में प्रयुक्त 'अपने आप' पक्षका ब्रैकेट में 'स्वतः सिद्ध' पर्यायशब्द अपनी ओर जोड़ कर पूर्वपक्ष के कथनको विकृत करनेका प्रयत्न किया है। सांख्य आत्मा ( पुरुष ) को अपरिणामी मानता है, यह सर्वविदित है। आचार्यने उक्त गाथाओं द्वारा आत्माको परिणामी सिद्ध किया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जीवमें पुद्गलद्रव्य अपने रूपसे बंधा है और उसकी अपने रूपये कर्मरूप परिणति होती हैं। यदि ऐसा न हो तो जीव अपरिणामी (चतुर्गतिके भ्रमण से रहित ) हो जावेगा । इस प्रतिपादन से विदित है कि आचार्यको यह अभिप्रेत है कि जीवके साथ पुद्गलद्रव्य उसमें कर्मरूप परिणत होनेकी योग्यता होनेसे पूर्व मे बंधा है और उसमें कर्मरूप परिणमनेकी योग्यता होनेसे ही वह कर्म (ज्ञानावरणादि) रूप परिणमता है। यहाँ माचार्यको 'कर्मरूप परिणमनेकी योग्यता' हो 'स्वयं' दशन्दसे विवक्षित है, जिसका सीधा अर्थ 'अपनेरूक' है, अपनेआप जीवको परिणतिरूप निमित्तनिरपेक्ष अर्थ विवक्षित नहीं है । यह पूरे सन्दर्भसे अवगत हो जाता है। आचार्य अमृतचन्द्रकी इन्हीं गाथाओं की टोकाकी अवतरणिकासे भी ज्ञात होता है, जैसाकि उल्लिखित उद्धरण के पूर्वपक्ष द्वारा किये गये अर्थसे प्रकट है। फिर भी उत्तरपक्ष पूर्वपक्षको उलझानेका अराफल प्रयास करता है। किन्तु तथ्य क्या है, इसे तत्त्वजिज्ञासु अच्छी तरह समझ सकते हैं। हमारी रोष्टा है कि उत्तरपक्ष भी गहराईसे इसपर विमर्श करे । एक बात हम और कहना चाहते हैं कि उत्तरपक्ष समझता है कि 'जिसका जो स्वभाव होता है वह
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१७५ उसका स्वरूप होनेसे स्वतः सिद्ध होता है, इसलिये आचार्य अमृत चन्द्रने उन गाथाओंकी अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न देकर प्रत्येक द्रब्बकी स्वतः सिद्ध स्वरूप स्थितिका निर्देश किया है ।" किन्तु उसका ऐसा समाना निताई क्योंनि र एरो लेगरी प्रत्येल टाकी स्वरूप स्थितिका निर्देश हो सकता था । वास्तवमें 'स्वयमेव' पद न देनेका जो अर्थ या आशय उत्तरपक्षने रामझा है वह उसकी अपनी कल्पना है। सच तो यह है कि यहां उसके बतानेका प्रसंग ही नहीं है। प्रसंग तो द्रव्यके परिणामीस्वभावको सिद्ध करनेका है, जिसे आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार अमृतचन्द्र ने द्रव्यको सहेतुक एवं अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक परिणामीस्वभाव सिद्ध किया है तथा सांस्यादिक अपरिणामी आदि स्वभावका निरसन किया है। स्पष्टतया दोनों ही आचार्वाका अभिप्राय जीवमें बंधे पुदगल द्रव्यको तथा आगामीकालमें बंधनेवाले पुद्गलद्रव्यको कर्मरूपसे परिणमन करनेवाला मिह करता है और वह कर्मरूपसे परिणत तभी होगा, जब उसमें कर्मरूप परिणत होनेको स्वभावभूत योग्यता होगी। इसी भावको व्यक्त करने के लिए स्वयं' पद गाथाओंमें दिया गया है। यह अवश्य है कि स्वरूप स्वतः सिद्ध होनेपर भी उसकी अभिव्यक्ति तो उभय कारणोसे ही होती है। केवलज्ञान जीवका स्वत: सिद्ध स्वरूप है, किन्तु उसकी व्यक्ति अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारणोंसे होती है। यहाँ दुख्यको परिणामीस्वभाव सिद्ध करने से उस परिणमन में कार्यकारणभाव बताना ही मुख्य अभिप्रेत है, स्वतः सिद्ध स्वरूपका निर्णय करना नहीं। उसका यहां प्रकरण ही नहीं है। फिर वह तो स्वतः सिद्ध है ही। इसपर उत्तरपक्षको गंभीरतासे विचार करना चाहिए ।
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इसका खुलासा इस प्रकार है। पूर्वपक्ष पुद्गलकी कर्मरूपसे परिणत होनेकी पाक्ति अवश्य उसकी स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्ति मानता है। किन्तु वह यह भी कहता है कि उसके आधारपर होनेवाला उसका कर्मरूप परिणमन जीवके रागादि परिणामोंका सहयोग मिलनेपर ही होता है। उसका वह कर्मरूप परिणमन न तो पुद्गलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्तिके अभावमें हो सकता है और न जीवके रागादि परिणामों के सहयोगके बिना हो सकता है। पुद्गलके कर्मरूप परिणमनमें सक्त दोनोंका सद्माव नियमसे कारण होता है। आचार्य अमृतचन्द्रने आचार्य कुन्दकुन्दकी उल्लिखित (११६-१२०) गाथाओंके अर्थको भी अपनी टीकामें स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यदि पुद्गलद्रव्य जीवके साथ स्वयं अर्थात् अपनी कर्मरूपसे परिणत होनेको स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्तिके अनुरूप कर्मरूपसे परिणत नहीं होता यानी पुद्गल में यदि जीवके साथ बद्धता या कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्ति विद्यमान नहीं है तो वह पुद्गल द्रव्य अपरिणामी (कटस्थ) हो जावेगा। अर्थात ऐसी स्थिप्तिमें वह न तो जीवके सा बद्ध हो सकेगा और न कभी कर्मरूपमे परिणत ही हो सकेगा। इस तरह कार्माण वर्गणाओंके कर्मरूपसे परिणत न होनेपर संसारका अभाव हो जायेगा। अर्थात् जीवबा चतुर्गति परिभ्रमण नहीं होगा । अथवा सांख्यमत प्रसक्त हो जायेगा। यदि कहा जाय कि जीव पुदगलद्रव्यको कर्मरूपसे परिणभाता है, अतः संसारका अभाव नहीं होगा-युगलद्रग (प्रकृति) का दन्ध-संसार सिद्ध हो जायगा। इसपर प्रश्न होता है कि परिणमते पुद्गद्रदपको जीव परिणमाता है या अपरिणमते पुद्गल ब्रम्पको यह कर्मरूपसे परिणमाता है ? प्रथमपक्ष तो इसलिए युक्त नहीं है, क्योंकि जब पुद्गलद्रव्य स्वयं-कर्मरूप परिणभनेकी योग्यतासे कर्मरूप परिणमेगा तो दूसरे परिणमानेवाले जीवकी वह क्यों अपेक्षा करेगा। द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि जो कर्मरूप परिणमनेकी योग्यताके अभावसे परिणम नहीं रहा है वह उसके अभाव में जीषके द्वारा भी परिणमाया नहीं जा सकता। प्रसिद्ध है कि 'जो शक्ति स्वतः नहीं है वह अन्यके द्वारा नहीं लायी जा सकती।'
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थात् कर्मरूप परिणगने की योग्यता के अभाव में पुद्गलद्रव्यको जीव कर्मरूपसे कदापि नहीं परिणमा सकता है! प्रकट है कि वस्तुओं की स्वभावभूत शक्तियाँ परमुखापेक्षी नहीं होतीं । अर्थात् जीवमें बद्ध एवं बंधनेवाला पुद्गलद्रव्य कर्मरूप तभी परिणमता है जब उसमें कर्मरूपसे परिणमने को अपनी वास्तविक शक्ति (स्तुति) होती है। अतः पुद्गलद्रव्य स्वयं-कर्मरूप परिणमनेकी योग्यतासे कर्मरूपसे परिणामस्वभाववाला ही सिद्ध होता है। ऐसा स्वीकार करनेपर कलशरूप परिणमनेकी योग्यतासे परिणत (विशिष्ट) मिट्टी जैसे कल गमती है उसी प्रकार जस्वभाव पुद्गलद्रभ्य ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमनेकी योग्यता से कर्मरूप परिणत होता हुआ जानावरणादिकर्म कहा जाता है। इसरो सिद्ध होता है कि पुद्गलय परिणामस्वभावी है । आचार्य अमृतचन्द्रने उल्लिखित गाथाओं पर जो अन्तमें कला दिया जाता है उससे तो प्रस्तुतकी सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है । उसमें उन्होंने बहुत ही संक्षिप्त किन्तु सारभूत शब्दों में लिखा है कि 'इस प्रकार उक्त प्रकारसे गुद्गलद्रव्यको परिणमनशक्ति स्वभावभूत निर्विघ्त सिद्ध हुई। उसके सिद्ध होनेपर पुद् गला अपने जिस भावको करता है उसका वह पुद्गल ही कर्त्ता है । '
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इस विवेचनसे स्पष्ट है कि पुद्गल में कर्मरूप परिणमनेकी स्वभावभूत शक्ति के सद्भाव में हो कर्मरूपसे परिणमन होता है, जिसका उपादान कर्ता वही है और निमित्तकर्ता सहकारी कारण आत्माकी रागादि है। १६९ को आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें जो वह भाषप पाया जाता है कि 'कर्मत्वपरिणमनशक्ति योगिनः पुद्गलस्कन्धरः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति' इसमें पठित 'स्वयमेव' पत्रका उत्तरपक्षकी मान्यता के अनुसार "दिमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप अर्थ संगत न होकर पूर्वपथके द्वारा किया गया उसका 'कर्मवशक्ति के अनुरूप अर्थ ही प्रकरणसंगत एवं मूलकार तथा टीकाकारसम्मत है । उत्तरपक्ष के द्वारा स्वीकृत उपर्युक्त अर्थ उसका माननेपर जीवमें बंधे या आगामी बंधनेवाले पुद्गल के कर्मरूप परिणाम में जहाँ उसकी स्वतः सिद्ध कर्मस्वशक्ति कारण ( उपादान) सिद्ध है वह उसमें सहायकरूपसे कारण होनेवाली जीवकी रागादि परिणतिकी सर्वथा उपेक्षा है, जबकि सिद्धान्ततः उसमें दोनों ही कारण व्याप्त होते हैं, क्योंकि वह स्वपरप्रत्यय परिणमन है । उनमें किसी एकके भी अभा
में वह नहीं हो सकता। इसने विस्तृत विवेचन एवं निष्कर्षसे इसी परिणामपर पहुँचते है कि 'स्वयं' पदका अर्थ 'अपने रूप-स्त्रक्ति के अनुरूप यही किया जाना चाहिए, उसका 'अपने आप' अर्थ नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस अर्थ में पुद्गल के कर्मरूप परिणमनमें अनिवार्यरूपसे सहायक जीवको रागादि परिणतिका निराकरण हो जाता है। अतः पूर्वपक्षका कथन सर्वथा मुक्त है, अयुक्त नहीं। उत्तरपक्षका कथन ही अयुक्त है।
कथन ८७ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षनेत० ० पृ० ७१ पर आगे लिखा है कि "इसी प्रसंग में दूसरी आपत्ति उपस्थित करते हुए अपने लिखा है कि 'गाथा ११७ के उत्तरार्धमें जो संसारके अभावको अथवा सांख्यमतको प्रसक्तिरूप आपत्ति उपस्थित की है वह मुद्गलको परिणामी स्वभाव न मानने पर ही उपस्थित हो सकती है, अपने आप ( स्वत: सिद्ध) परिणामी स्वभाव के अभाव में नहीं' आदि। किन्तु यह आपत्ति इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यको परतः परिणामी स्वभाव माननेपर एक तो वह द्रव्यका स्वभाव नहीं ठहरेगा और ऐसी अवस्थामे द्रव्यका ही अभाव मानना पड़ेगा । दूसरे, यह जीव पुद्गल कर्मसे सदा ही बद्ध बना रहेगा, अतएव मुक्ति के लिए यह आत्मा स्वतन्त्र रूपसे प्रयत्न भी न कर सकेगा। यदि अपरपक्ष इस आपत्तिको उपस्थित
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१७७ करते समय गाथा ११६ के पूर्वार्धपर दृष्टिपात कर लेता तो उसके द्वारा यह आपत्ति ही न उपस्थित को गई होती।"
मालुम पड़ता है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षके कथनके अभिप्रायको समझ नहीं सका है । पूर्वपक्षके कयनका अभिप्राय तो यह है कि उत्तरपक्ष पुनलका स्वय अपने आप अर्थात निमित्तभूत जीवकी परिणतिकी सहायता के बिना कर्मरूप परिणत होने का स्वभाव मानता है तो उसके अभावमें संसारके अभाब या सांख्यमतकी प्रसक्ति न होकर परतः अर्थात् निमित्तभूत जीवकी परिणतिको सहायतासे पुद्गलका कर्मरूप परिणत होनेका स्वभाष प्रसक्स होगा, जो उत्तरपक्षके लिए इष्ट नहीं है। साथ ही भाचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र के आशयके विरुद्ध है। उत्तरपक्षको अपने लेखमें इस समस्याको सुलझानेका ही प्रयत्न करना था। उसने अपने लेखमें जो कुछ कहा है उससे तो ऐसा जान पड़ता है कि वह पक्ष मानो पूर्वपक्षकी ओरसे बोल रहा है।
कठिनाई यह है कि उत्तरपक्ष अपरपक्षके खण्डन करनेका ही प्रयत्न करता है, उसके प्रश्नका मागमसम्मत समाधान नहीं करना चाहता । आचार्यने पुदमलको परिणामीस्वभाव न माननेपर गाथा ११७ के उस्तराधमें संसारके अभाव अथवा सांस्यमतके प्रसंग आनेकी आपत्ति दी है। उसे ही पूर्वपक्षने भी दोहराया था और कहा था कि वह आपत्ति अपने-आप (स्वत: सिद्ध) परिणामी स्वभावके अभाव में नहीं उपस्थित हो सकती है, किन्तु जीवकी रागादि परिणतिकी सहायकतारूप बाह्य कारण और पुद्गल द्रव्यकी स्वभावभूत परिणामशक्तिरूप आभ्यान्तर कारण दोनों की अपेक्षासे होनेवाले पुद्गलके परिणमन स्वभावको न माननेपर ही उपस्थित हो सकती है । इसका स्पष्ट आशय है कि आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रस्तुत आपत्तिको पूर्वपक्षने भी स्पष्ट किया है । पूर्वपक्षके उक्त कथनसे न तो प्रत्येक द्रव्यका परतः परिणामस्वभाव सिद्ध होता है और न जीन पुद्गल कर्म से सदा बद्ध बना रहता है, जिससे वह मुक्तिके प्रयत्नसे वचित रहे। यह समस्पा तो उत्तरपक्षके कथनसे ही उत्पन्न होती है अतः उसे ही इसपर ध्यान देना है। पूर्वपक्ष तो उक्त कयन द्वारा इतना ही सिद्धान्त स्पष्ट करना चाहता है कि पुदगलका, यहाँ तक कि प्रत्येक द्रव्यका जो परिणमन होता है, वह बाह्यकारण बीवकी परिणति आदि और आभ्यन्तर कारण अपने-अपने रूपसे परिणमनकी स्वाभाविक शक्ति इन दोनोंसे ही होता है। अतः प्रकृतमें पुदगल द्रव्यको कर्मरूप परिणमनेकी शक्ति के अनुरूप कर्मरूपसे परिणामस्वभावी मानना ही सिद्धान्त है, अपने आप परिणामस्वभावी नहीं । उत्तरपक्षसे क्या हम आशा करें कि वह शास्त्रार्थ के लटके या छल-निग्नहकी प्रवृत्तिको छोड़कर सत्त्वनिर्णयके लिए प्रयत्न करेगा।
यहाँ इतना और कह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने उक्त कथनमें उद्धत पूर्वपक्ष के त० ० पु० ३० पर निर्दिष्ट गाथा “११७ के उत्तरार्धमें." आदि कथनके साथ उपलल्ध 'अपने आप पदके अर्थ के रूपमें धैकटके अन्तर्गस जो 'स्वतः सिद्ध' पद लिखा है वह भी उसमें पूर्वपक्षके अभिप्रायको न समझ सकनेके कारण अपनी ओरसे ही लिखा है । पूर्वपक्षका कथन केवल इस रूपमे है कि "गाथा ११७ के उत्तरार्धमें जो संसारके अभावकी अथवा सांख्यमतकी प्रसवितरूप आपत्ति उपस्थित की है वह पुद्गलको परिणामी स्वभाव न माननेपर ही उपस्थित हो सकती है, अपने आप परिणामी स्वभावके अभाव नहीं।" और उसने यह कथन इस अभिप्रायसे किया है कि वह पुदगल में कर्मरूपसे परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताको स्वत:सिद्ध मानता हुआ उस योग्यताके आधारपर होनेवाले पुद्गलके कर्मरूप परिणमनको निमित्तभूत जीपके सहयोगसे मानता है, निमित्त भूत जीवके सहयोगके बिना अपने आप नहीं मानता है। परन्तु उत्तरपक्ष पुद्गलमें कर्मरूपसे
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताको पूर्वपक्षकी तरह स्वतः सिद्ध मानता हुआ भी उसके आधारपर होनेवाले पुद्गल के कर्मरूप परिणमनको भी निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप हो मानता है । अतएव इसका निषेध करनेके लिए पूर्वपक्षनेत० ० पृ० ३७ पर "गाथा ११७ के उत्तरार्ध में" आदि उक्त कथन किया है। इसके अतिरिक्त यह कहना चाहता हूँ कि के उक्त कथनमें उसके इस अभिप्रायको न समझ सकने के कारण ही उत्तरपक्ष ने अपने कथनमें " किन्तु यह आपत्ति इसलिए ठीक नहीं" आदि आका अंश
लिखा है, जो पूर्वपक्षी ही दृष्टिको स्पष्ट करता है ।
पूर्वपक्षनेत० १० २२-३० पर समयसार ११६ से १२० तक की गाथाओंका उल्लेख प्रवचनसार गाथा १६९ के समर्थन में किया है। अतः वहां पर भी उसने उसका यही अर्थ ग्राह्य माना है और इसकी पुष्टिके लिए उन गाथाओंका आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाके आधारपर स्पष्टीकरण किया है।
सामान्यतः दोनों पक्षों में इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि पुद्गलका कर्मरूप ही परिणमन होता है, क्योंकि उसमें उस रूपसे परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताका सद्भाव दोनों ही पक्ष स्वीकार करते है । विवाद केवल उनमें इस बात का है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुद्गलके उस कर्मरूप परिणमनको निमित्तभूत जीवके सहयोगसे मानता है वहाँ उत्तरपक्ष पुद्गलके उस कर्मरूप परिणमनको निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप ही मानता है। यहाँ ध्यातव्य है कि आचार्य अमृतचन्द्र कृत समयसारकी टीका कलश १७५ में परद्रव्यको निमित्तताका स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। वह कलश निम्न प्रकार है।
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न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥
इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सूर्यकान्त मणि अपनी रक्तादि परिणतिका आप निमित्त कभी नहीं होता उसी प्रकार आत्मा भी अपनी रामादि परिणतिका आप निमित्त कभी नहीं होता । किन्तु जिस प्रकार सूर्यकान्तमणिके रक्तादि परिणमनमें रक्तादि परद्रव्यका संग ही निमित्त होता है उसी प्रकार आत्माके रागादि परिणमनमें भी रागादि परद्रश्यका संग ही निमित्त होता है, वास्तव में यह वस्तुका स्वभाव है ।
यतः सांख्यमतानुयायी वस्तु के स्वतः सिद्ध परिणमन स्वभावको अर्थात् वस्तु में परिणमन होने की स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यताको स्वीकार नहीं करता है, अतः समयसार गाथा ११६ में यह बतलाया गया है कि यदि पुद्गल द्रव्य जीवके साथ 'स्वयं' अर्थात् अपनी बद्ध होने की स्वतः सिद्ध स्वभाविक योग्यता के आधारपर बद्ध नहीं होता और स्वयं अर्थात् अपनी कर्मरूपसे परिणत होने की स्वतः सिद्ध स्वभाविक योग्यता के आधारपर कर्मरूपसे परिणत नहीं होता अर्थात् पुद्गलमें जोवके साथ बद्ध होने और कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यता विद्यमान नहीं है तो उस हालत में पुद्गल द्रव्य अपरिणामी ( कूटस्थ ) ही ठहरेगा | इसके पश्चात् समयसार गाथा ११७ में यह बतलाया गया है कि पुद्गल द्वय समयसार गाथा ११६ के कनके अनुसार जब अपरिणामी ( कूटस्थ ) हो जायेगा वो उसके कर्मरूप परिणत न होने के कारण संसारका अभाव अथवा सांख्यमतकी प्रभक्ति उपस्थित हो जायेगी, जो जिनशासन के प्रतिकूल होने के कारण दोनों पक्षोंको अभीष्ट नहीं है ।
अब यहाँ विचारणीय हैं कि यद्यपि दोनों पक्ष पुद्गल के कर्मरूप परिणमनको उसकी कर्मरूप परिणत होनेकी स्वतः सिद्ध स्वभाविक योग्यता के आधारपर स्वीकार करते हैं, परन्तु जहाँ पूर्वपक्ष पुद्गल कर्म
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
परिणत होने में आगमकी इस अवस्थाको मान्य करता है कि उसका वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवकी परिणतिके सहयोगसे होता है वहाँ उत्तरपक्ष पदगलके कर्मला परिणस होने में आगमकी इस व्यवस्थाको मान्व नहीं करता कि उसका कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवको परिणतिके सहयोगसे होता है। उसकी मान्यता है कि पुद्गलका वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवके सह्योगके बिना अपने आप ही होता है।
उत्तरगक्षकी इस मान्यतामै दोष यह है कि उसे, समयसार माथा ११६ के प्रथम तीन चरणोंका "यदि पुद्गल द्रम्पको जीवमें स्वयं अर्थात् निमित्तभूत जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही बद्ध न माना जाये व उसके कर्मरूप परिणमनको स्वयं अर्थात निमित्तभत जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही न माना जाय" यह अर्थ स्वीकार करना होगा। इसका परिणाम यह होगा कि उसकी उक्त मान्यताके आधारपर पुद्गल द्रव्यको समयसार गाथा ११६ के चतुर्थ चरणके अनुसार अपरिणामो (कूटस्थ) न मानकर परत:परिणामी अर्थात् पर के सहयोगसे परिणमन करनेवाला स्वीकार करना होगा, जो उत्तरपक्ष को अभीष्ट नहीं है, क्योंकि वह पुदगलके कर्मरूप परिणममकी उत्पत्तिको स्वयं अर्थात निमित्तभत जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही मान्य करता है । इस तरह सपयसार गाथा ११६ का चतुर्थ चरण असंगत हो जायेगा । इतना ही नहीं, हम गाथा ११६ का गाथा ११७ के साय समन्वय करना भी असम्भव हो जायेगा, क्योंकि गाथा ११७का सुसंगत अर्थ यह है कि ''पदमलकर्मवर्गणाएँ जन अपरिणामी (कटस्थ) बनी रहेंगी तो संसारका अभाव अथवा सांख्यमत प्रसक्त होता है।
इस तरह रामपराार गाथा ११६ के चतुर्थ चरणके साथ उसके प्रथम तीन चरणोंकी संगति बिठलाने के लिए और गाथा ११७ के साथ उसका (माथा ११६ का) समन्वय करनेके लिए गाथा ११६ के प्रथम तीन चरणोंका "यदि पुद्गल द्रश्यका जीवमें स्वयं अर्थात् अपनी स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यताके अनुरूप बद्ध न माना जाये व उसके कर्मरूप परिणमनको भी स्वयं अर्थात् अपनी स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यताके अनुरूप न माना जाये" यह अर्थ मान्य करना ही अनिवार्य है । अतएव पूर्वपक्षका कहना है कि समयसार ११६ से १२० तककी गाथाएँ पुद्गलकी कर्मरूप परिणत होने की स्वत-सिद्ध स्वभाविक योग्यताको ही बतलाती है। उसका यह कमरूप परिगमन स्वयं अर्थात निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप होता है इस बातको नहीं बतलाती हैं। अतः गाथा ११६ में पठित 'स्वयं' पदका पूर्वपक्षकी मान्यताके अनुसार 'अपने रूप' अर्थात् पुदगलकी कर्मरूप परिणति होने की योग्यताके अनुरूप" अर्थ करना ही सुसंगत है। उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार 'अपने आप' अर्थात् 'निमित्तभूत जीवके सहयोगके बिना' अर्थ करना सुसंगत नहीं है । इसकी पुष्टि इम्ही ११६ से १२० तककी गाथाओंको आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाके अन्त में रचे गये उनके कलश ६४ से मी होती हैं । वह कलश निम्न प्रकार है
स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मानस्तस्य भवेत् स कर्ता ॥६४।।
इसका अर्थ यह है कि इस प्रकार पृद्गलकी परिणामशक्ति (परिणमित होनेकी योग्यता) निर्विघ्नरूपसे स्वभावभूत सिद्ध होती है । उसके सिद्ध होनेपर वह पुदगल अपना जो भाव (परिणाम) करता है उसका यह कर्ता होता है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस तरहसे भी यह निर्णीत होता है कि समयसार गाथा ११६ में पटित 'स्वयं' पदका अर्थ 'अपने रूप' ही स्वीकृत करने योग्य है, अपने आप नहीं ।
इस विशेषनके आधारपर अब उत्तरपक्षको ही यह निर्णय करना है कि समयसार, गाया ११६ में पठित 'स्वयं' पदका उसकी मान्यताके अनुसार 'अपने आप' अर्थ स्वीकार किया जाये या पूर्व पक्ष की मान्यता के अनुसार 'अपने रूप' अर्थ स्वीकार किया जाये ?
उत्तरपक्षने उपर्यवत अपने कथनके अन्त में लिखा है-'यदि अपरपक्ष इस आपत्ति को प्रस्तुत करते समय गाषा ११६ के पूर्वार्धपर दृष्पिात कर लेता तो उसके द्वारा यह आपत्ति ही उपस्थित न की गई होती ।"
इसपर मेरा कहना यह है कि गाथा ११६ में परित 'स्वयं गदका अपने रूप अर्थ मान्य करने पर ही समयसारकी ११६ से १२० तककी सभी गाथाओं और उनकी आचार्य अमतचन्द्रकृत टीकाकी सुसंगति बट सकती है, 'अपने आप' अर्थ मान्य करनेपर नहीं। कथन ८८ और उसकी समीक्षा
(८८) आगे तक च पृ० ७१ पर इसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्ष ने यह कथन किया है कि "युद्गल अपने परिणामस्वभावके कारण आप स्वतन्त्र कर्ता होकर जीवन साथ बद्ध है और आप मुक्त होता है । इसोस बद्ध दशामें जीवका संसार बना हआ है। यदि ऐसा न माना जाये और पुदगलको स्वभावसे अपरिणामी माना जाये तो एक तो संसारका अभाव प्राप्त होता है, दूसरे सांरूप' मतका प्रसंग आता है। यह उक्त गाथाओंका तात्पर्य है।"
इसपर मेरा कहना है कि उत्तरपक्षका उक्त गाथाओंका ऐसा तालार्य निकालने में हमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु विचारणीय बात यह है कि उक्त गाथाओंका ग्रह तात्पर्य तभी ग्रहण किया जा सकता है जब समयसार गाथा ११६ में पठित 'स्वयं' पदका पूर्वपक्षके दष्टिकोणके अनुसार 'अपने रूप' अर्थ स्वीकार किया जाये । यतः उत्तरगक्ष उक्त 'स्वयं' पदका 'अपने रूप अर्थ ग्रहण न करके अपने आप ही अर्थ ग्रहण करता है । अतः पूर्वपक्षका कहना है कि उक्त गाथाओंका उक्त तात्पर्य ग्रहण करना उत्तरपक्षके लिए सम्भव नहीं है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्ष सक्त गाथाओंका वही तात्पर्य ग्रहण करता है जिस तात्पर्यको उत्तरपक्षने अपने इस वक्तव्यमें स्पष्ट किया है, इसलिए पूर्वपक्षने प्रकृतमें उत्तरपक्ष के साथ इस बात को लेकर विरोध प्रगट नहीं किया है । पूर्वपक्षने प्रकृतमें उत्तरपक्षके साथ इस बातको लेकर ही विरोध प्रगट किया है कि उत्तरपक्ष समयसार गाथा ११६ में पटिस 'स्वयं' पदका 'अपने रूप' अर्थ न करके अपने आप' अर्य ग्रहण करता है जिसका प्राशय यह होता है कि पदगलका कर्मरूप परिणमन जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही होता है। इस तरह 'स्वयं' पदके इस अर्थके आधारपर समप्रसार गाथा ११६ और ११७ का वह तात्पर्य सिद्ध नहीं होता जो तात्पर्य उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्य में दिया है।
स विवेचनसे यह भी निर्णीत होता है कि उन अनुच्छेदये. अन्त में "स्पष्ट है कि यह दूसरी आपत्ति भी प्रकृतमें अपरपक्ष के इष्टार्थको सिद्ध नहीं करती" वह बाथन भी उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्ष के अभिप्रायको उपयुक्त प्रकार सही रूपमें न समझ सकनेके आधारपर ही लिखा गया है, जो निष्प्रयोजन होने से उपेक्षणीय है।
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शंका-समाधान १ को समीक्षा
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कथन ८९ और उसकी समीक्षा
(८९) उत्तरपक्षने अपने दृष्टिकोणका समर्थन करनेके लिए आगे तक च० पृ० ७१-७२ पर समयसारकी ११८ से १२० तक की गाथाओंकी आचार्य अमृतचंद्रकृत टीका और उसके पश्चात् पृ० ७२ पर इस टीकाको पं० जयचन्द्रजी द्वारा कृत हिन्दी अर्थको उद्धृत किया है।
उस सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि आचार्य अमचन्द्र कृत टीका और उसका पं0 जयचन्द्रजी कृत हिन्दी अर्थ दोनों पदगलके गरिणामी स्वभाव अति पगलकी कर्मरूपस परिणत होनेकी स्वभावभूत योग्यताको सिद्धिके लिए लिखे गये है। उनका यह अभिप्राय कशाप नहीं लिया जा सकता है कि पुद्गलका कर्मरूप परिणत होने की स्वभावभूत योग्यताके आधारगर होनेवाला कर्मरूप परिणमन "स्वयं" अर्थात् निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप ही होता है।
तात्पर्य यह है, जैसा कि पूर्व में भी स्पष्ट किया जा चुका है कि समयसारकी ११६ से १२० तककी माथाओं, उनकी आचार्य अमचन्द्र कृत टीका तथा दोनोंने ६० जयचन्द्र जी कृत हिन्दी अर्थका यही अभिप्राय है कि पुद्गलका कर्मरूप परिणमन यद्यपि निमित्त भूत जीवके सहयोगसे ही होता है, परन्तु वह कर्मरूप परिणमन पुद्गल में विद्यमान फर्मरूप परिणत होनेकी स्वभाव भुत योग्यतावे. अनुरूप होता है। ऐसा नहीं समचाना चाहिए कि कर्मरूप परिणत होनेकी स्वभावगत योग्यताका अभाव रहते हुए उसका (पदगलका) बह कर्मरूप परिणमन जीव द्वारा करा दिया है। साथ ही ऐरा मनमाना रहा कि पगलका कर्मरूपसे परिणत होनकी स्वभावभूत योग्यताके अनुरूप होनेवाला वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवके सह्योगके बिना अपने आप ही होता है । उत्तरपक्ष इस तथ्यको समझ ले तो वह उन गाथाओं, उन माथाओंकी टीका और उनके हिन्दी अर्थ में निहित आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य अमतचन्द्र और पं० जयचन्द्रजीके अभिप्रायको सही रूपमें समझ सकता है। परन्तु वह (उत्तरपक्ष) इस तथ्यको समझानेका प्रयत्न नहीं करता। वह पुद्गलके कर्मरूप परिणत होने में निमित्तभूत जीवको सर्बधा अविविस्कर ही मानता है । यह उसका दुराग्रह ही समझना चाहिए।
पह सच है कि जैन शासनमें पुद्गलके वार्मरूप परिणमनम उस पुद्गल को ही यथार्थकर्ता माना गया है, क्योंकि वही वार्मरूप परिगत होता है। इसे दोनों पक्ष स्वीकार करते हैं और दोनों ही इसे भी स्वीकार करते हैं कि पदमल द्रव्यक उस कर्मरूप परिणमनमें जोच यथार्थ कत्ता नहीं होता, क्योंकि जीव कर्मरूप परिणत नहीं होता । इमलिये वहां पर जीवको दोनों ही पक्ष अयथार्थ पत्ता मानते है। परन्तु इस विषय में दोनों पक्षोंमें मतभेद यह है कि जहाँ पूर्वपक्ष पदमल के उस कर्मरूप परिणमनमें जीवक उस अयथार्थकर्तवको उसके (पदगलके उस कर्मरूप परिमानने सहायक होनेके आवाग्पर कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष पुदगल के कर्मभप परिणमनमें जीनके उस अयथार्थकतत्वको उसमें सहायक न होनेके आधापर अकिंचित्कर स्वीकार करता है। अतः सत्वजिज्ञासुओंको निर्णय करना है कि पूर्वपक्षकी मान्यता जनशासन सम्मत है या उत्तरपक्षकी मान्यता जनशासनसम्ममस है। कथन ९० और उसकी समीक्षा
(९०) आगे तक च०ए०७२ पर ही उत्तरपक्षने समयसारकी ११८ मे १२० तककी गाथाओंकी आचार्य अमरचन्द्र कृत टीका और उसके पं0 जयचन्द्रजी कुत हिन्दी अर्थ के आधारपर यह कथन किया है
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१८२
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा "यह परमागमको स्पष्टोक्ति है जो निश्चयपक्ष और व्यवहारपक्षके कथनका आशय क्या है ? इसे विशद रूपसे स्पष्ट कर देती है । निश्चयसे देखा जाये तो प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभाव वाला होनेसे उत्पादव्ययरूप परिणमनको अपने में, अपने द्वारा, अपने लिये, आग ही करता है । उसे इसके लिए पर की सहायता की अणु मात्र भी अपेक्षा नहीं होती । यह कथन वस्तु स्वरूपको उद्घाटन करनेवाला है, इसलिये वास्तविक है, कथनमात्र नहीं है। व्यवहारनयसे देखा जाये तो कुम्भकारके विवक्षित क्रियापरिणामके समय मिट्रीका विवक्षित क्रियापरिणाम दृष्टिपथमें आता है। यतः कुम्भकारका विवक्षित क्रियापरिणाम मिट्रीके घट परिणामकी प्रसिद्धिका निमित्त (हेत) है. अतः इस मयसे कहा जाता है कि कुम्भकारने अपने क्रियापरिणाम द्वारा मिट्टीमें घट किया । अतः यह कथन वस्तुस्वक्तपको उद्घाटन करने वाला न होकर उसे आच्छादित करनेवाला है। अतः वास्तविक नहीं है, धनमात्र हैं। परमागममें निरच्यको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य क्यों बतलाया गया है ? यह इससे स्पष्ट हो जाता है।
इसकी समीक्षामें मैं यह बाह्ना चा:ता हूँ कि पूर्वपक्षको उस रपक्षके साथ समयसार ११८ से १२० तककी गाधाओंकी आचार्य अमचन्द्र कुत टीका और उसके पं० जयचन्द्र जी कृत हिन्दी अर्थके विषयमें कोई विवाद नहीं है 1 किन्तु उनके आधारपर उत्तरपक्षने जिस रूपमे निश्चयनय और व्यवहारनयके कथनका आशय व्यक्त किया है वह सम्ध नहीं है । इसका कारण निम्न प्रकार है ।
__पहले यह स्पष्ट किया जा चुका है कि निश्चयनय और व्यवहारमय दोनों परस्परको सापेक्ष ताके आधारपर ही नय कहे जाते है । यदि ऐसा न हो तो दोनों मिथ्या हो जायेंगे। इसलिये जिस प्रकार निश्चयनयका विषय सदरूप है उसी प्रकार व्यहारनयका विषय भी सदरूप ही है। वह कल्पित नहीं है। इतना अवश्य है कि निश्चयनय वस्तूक स्वाश्रित रूपको विषय करता है और व्यवहारनय वस्तु के पराश्रित रूपको विषय करता है । पर जिस प्रकार बस्तुका स्वाथित रूप सद्रूप है उसी प्रकार वस्तुका पराश्रित रूप भी सद्प ही है।
तात्पर्य यह है कि पुद्गलका जो वार्मरूप परिणमन होता है वह पुद्गलका ही परिणमन है, क्योंकि पुद्गल ही अपनी कार्यरूप परिणत होने की स्वतःसिद्ध स्वाभाविक योग्यताके अनुसार कर्मरूपसे परिणत होता है और यही कारण है कि वह स्वरूप होनेसे निश्चयनयका विषय है। परन्तु पुद्गलका वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवके सहयोगने ही होता है, जीवके सहयोगके बिना अपने आप कदापि नहीं होता। इसलिये पुद्गलका कर्महप परिणमन जीवके ग्रहयोगाधित होमेसे यह व्यवहारनयका विषय है. निश्चयनयका नहीं। इस तरह निदचय और व्यवहारनयोंकी परस्पर सापेक्षता सिद्ध होनेने उत्तर पक्ष के उक्त वक्तव्यका "निश्चयनयरो देखा जाये" यहाँसे लेकर “यतः यह कथन वस्तुस्वरूपको उद्घाटन करनेवाला न होकर उसे आच्छादित करने वाला है, अतः वास्तविक नहीं है, कथन मात्र है।" यहाँ तकका सम्पूर्ण कथन ऐकान्तिक होने से मिथ्या है।
इस विवेचनसे उत्तरपक्षके उक्त वक्तव्यका "परमागममें निश्चयको प्रतिपंधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य क्यों बतलाया गया है ? यह इमने स्पष्ट हो जाता है।" यह कथन भी एकान्तदृष्टिगरक होनेसे मिथ्या है । पूर्व में भी में स्पष्ट कर चुका है कि व्यवहारनय निश्चयनयका इसलिये प्रतिषेध्य नहीं है कि वह सर्वथा असदुरूप पदार्थको विषय करता है अपितु इमलियं प्रतिषेध्य है कि व्यबहारनयका विषम सद्रूप होकर भी निषचयनयका विषय जिस रूपसे सद्रूप है उस रूपमें सद्प न होकर उससे पृथक् रूपमें ही सदरूप है । जैसे
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शंका-समाधान की समीक्षा
निश्चयनयका विषयभूत स्वद्रव्य-क्षेत्र काल-भावाश्रित अस्तित्व वस्तुका वस्तुत्व है उसी प्रकार व्यवहारनयका विषयभूत परब्रव्य-क्षेत्र काल - भावाश्रित नास्तित्व भी वस्तुका वस्तुत्व है। अर्थात् जिस प्रकार वस्तु के वस्तुकी सिद्धि के लिए स्वद्रव्य क्षेत्र - काल- भावाश्रित मस्तित्व धर्म वस्तु स्वीकृत करना आवश्यक है उसी प्रकार उसकी सिद्धिके लिए परद्रव्य-क्षेत्र काल-भावाश्रित नास्तित्त्र धर्म भी वस्तु स्वीकृत करना आवश्यक है, क्योंकि यदि वस्तु निश्चयनयाश्रित उक्त अस्तित्व धर्मके साथ व्यवहारनयाश्रित उक्त नास्तित्व धर्मको स्वीकार न किया जाये तो विश्वकी सभी वस्तुओं में अद्वैतगने की प्रसक्ति हो जायेगी, जो दोनों पक्षोंको इष्ट नहीं है । इसलिये उत्तरपक्षका वस्तुके व्यवहार धर्मको आकाशमकी तरह काल्पनिक अवास्तविक, कयनमात्र मानना युक्त नहीं है ।
कथन ९१ और उसको समीक्षा
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(९१) इसी तरह उत्तरपक्षने त० च० पृ० ७२ पर ही "व्यवहारनय असत् पक्षको कहने वाला है" कहते हुए उसके समर्थनमें वहीं पर लिखा है कि "वह अन्य द्रव्यके धर्मको अभ्यका कहता है" तथा इसकी पुष्टि उसने वहीं पर समयसारकी गाथा ५६ की भाचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका और पं० टोडरमलजी के मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ २८७ तथा पृष्ठ ३६९ पर निर्दिष्ट कथनों के उद्धरणों द्वारा की है।
इस संबंध में प्रथम तो यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "व्यवहारनय असव् पक्षको कहने वाला है" उसका निराकरण करते हुए मैंने पूर्वमें स्पष्ट क्रिया है कि व्यवहारनयका विषय भी निश्चयन विषयको तरह अपने ढंग से वास्तविक ही है। वह आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा असत् नहीं है । इतना ही है कि व्यवहारनयका विषय निश्वमनयके विषय के समान सदरूप नहीं है । दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि अपने कथन के समर्थन में उत्तरपक्षने लिखा है कि "वह अन्य द्रव्य धर्मको अन्यका कहता है" सो इससे उसके उक्त कथनका समर्थन नहीं होता, क्योंकि उसके द्वारा उद्धृत समयसार गाथा ५६ को आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका और पं० टोडरमलजीके मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ० २८७ व २६९ के वचनोंसे यही आशय प्रकट होता है कि पवहारना निश्चयकी तरह स्वाश्रितरूपमें यथार्थ अर्थको ग्रहण न करके पराश्रित रूपमें अयथार्थ अर्थात् उपचरित अर्थ को ही ग्रहण करता है, जिस पराश्रित रूपको आगम में आकाशकुसुमकी तरह सर्वषा असत् न माना जाकर अपने ढंगसे सद्रूप ही माना गया है। इस तरह उत्तरपक्षका "व्यवहारनय असत् पक्षको कहने वाला है" यह करन आगम के अभिप्रायके विरुद्ध हो सिद्ध होता है । कथन ९२ और उसकी समीक्षा
(१२) उत्तरपक्षने भागे त० च० पृ० ७३ पर अपने कथनका निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है कि "इस प्रकार इतने विवेचन द्वारा यह सुगमतासे समझ में आ जाता है कि समयसारकी उक्त गाथाओं द्वारा पुद्गल द्रव्य के स्वतः सिद्ध परिणामस्वभावका ही कप्पन किया गया है। जबकि पुद्गल द्रव्य परकी अपेक्षा किये बिना स्वभाव से स्वयं परिणामी स्वभाव है ऐसी अवस्था में वह परसापेक्ष परिणामी स्वभाव है इसका निषेध ही होता है, समर्थन नहीं । यह बात इतनी स्पष्ट जितना कि सूर्यका प्रकाश ।"
इसकी समीक्षामें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षके 'सभवसारकी उक्त गाथाओं द्वारा पुद्गल द्रव्यके स्वतः सिद्ध परिणाम स्वभावका ही कथन किया गया है।" इस कथनका निषेध पूर्वपक्ष ने नहीं किया है। यह तो पूर्वपक्षकी ही मान्यता है । उसका निषेध तो उत्तरपक्षके इस कथन से होता हैं कि 'पुद्गल द्रव्य परकी
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जयपुर (खानिया) तरवचर्चा और उसकी समीक्षा
अपेक्षा किये बिना स्वभावरो स्वयं परिणामी स्वभाव है। क्योंकि 'पुद्गलका परिणामी स्वभाव स्वतः सिद्ध है। और 'पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है। इन दोनोंके अभिप्रायमें अन्तर है। पहले कथनका अभिप्राय यह है कि कप नरिणा , खराः सर्व परिणाम स्वभावके आधारपर तो होता है, परन्तु जीवको रागादि परिणतिका सहयोग मिलनेपर होता है, जब कि दूसरे कथनका यह अभिप्राय है कि पुद्गलका कर्मरूप परिणमन उसके स्वतःसिद्ध परिणमन स्वभावके आधारपर जीवकी रागादि परिणतिके सहयोगके जिना अपने आप होता है। इनमें पहला कथन ही आगम सम्मत है. दूसरा कथन आगम विरुद्ध है । इसे पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है।
इस विवेचनसे उत्तर पक्षका त. च० पृ०७३ पर निर्दिष्ट यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि 'इस प्रकार उक्त निवे उनसे एकमात्र यही सिद्ध होता है कि पुद्गल स्वयं परिणामी स्वभाव है' और ऐसी अवस्था में उसका यह फलितार्थ भी निरस्त हो जाता है कि 'अपरपक्षने अपने तौके आधारपर उक्त माधाओंका जो अर्थ किया है वह ठीक नहीं है ।' कथन ९३ और उसको समीक्षा
(९३) उत्तरपक्षने त० च० १० १७३-७४ पर ही अपने उक्त वक्तव्यफे आगे यह कथन किया है कि "वैसे तो यहाँपर उक्त गाथाओंका अर्थ देने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु अपरपक्षने जब उमका अपनी मतिसे कल्पित अर्थ अपनी प्रस्तुत प्रतिशंका दिया है ऐसी अवस्थामें महा सही अर्थ दे देना आवश्यक है। और इसके आगे उसने उक्त गाथाओं का जो सही अर्थ समक्षा है वह भी लिखा है जो निम्न प्रकार है. "यदि यह पुद्गल द्रम्प जीवमें स्वयं नहीं बन्धा और कर्मभावसे स्वयं नहीं परिणमता तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है। ऐसी अवस्था कर्म वर्गणाओंके कर्मरूपसे स्वयं नहीं परिणमनेपर संसारका अभाव प्राप्त होता है अथवा सांस्यमतका प्रमंग आता है। यदि यह माना जाये कि जीव पुद्गल द्रव्योंको कर्मरूपसे परिणामाता है, तो ( प्रदन होता है कि ) स्वयं नहीं परिणमते हुए उन पुद्गल द्रव्योंको चेतन आत्मा से परिणमा सकता है। इसलिये यदि यह माना जाये कि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मरूपसे परिणमता है तो जीव कर्म अर्थात पदगल द्रव्यको कर्मरूपसे परिणमाता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। इसलिये जैसे नियमसे कर्मरूप परिणत पुद्गल द्रव्य कर्म ही हं वैसे ही ज्ञानावरणादि रूप परिणत पुद्गल द्रव्य ज्ञानाबरणादि हो है ऐसा जानो" । (११६-१२०)
इसकी समीक्षामें प्रथम बात तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष "पुदगल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है" ऐसा मानकर इसका आशय 'स्वयं' पदका 'अपने आप' अर्थ करके यह लेना चाहता है कि पुद्गल द्रव्यका स्वभाव अपने आप अर्थात् निमित्तभूत जोवके सयोगके बिना परिणमन करनेका है और पूर्वपक्ष "पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है' ऐसा मानकर इसका आशय "स्वयं" पदका 'अपने रूप" अर्थ करके यह लेना चाहता है कि पुद्गल द्रश्यका स्वभाव अपने रूप अर्थात् परिणमन करनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप परिणमन करनेका है। इस तरह पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है इस आगमवाक्यका दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने टंगसे परस्पर भिन्न आशय स्वीकार किये जानके आधारपर यह निष्कर्ष निकलता है कि यद्यपि दोनों ही पक्ष यह मानते है कि कर्मरूप परिणमन पुद्गलका ही होता है या पुद्गल ही कर्मरूप परिणत होता है। परन्तु जहाँ पूर्वपक्ष की मान्यताके अनुसार पुद्गलका वह कर्मरूप परिणमन उसमें विद्यमान
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शंका-समाधान १ की समीक्षा कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार होनेपर भी निमित्तभूत जीवके सहयोगसे होता है वहाँ उत्तरपक्ष की मान्यताके अनुसार पुद्गलका वह क्रर्मरूप परिणमन उसमें विद्यमान कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार होनेके कारण अपने आप अर्थात् निमित्त भूस जीवके सहयोगके बिना ही होता है। इस तरह जहाँ पूर्वपक्षकी मान्यतामें पुद्गलके कर्मथप परिणमनमें निमित्तभूत जीव सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी सिद्ध होता है वहाँ उत्तरपक्षकी मान्यता पुद्गलके फर्मरूप परिणमनमें निमित्तभूत जीव सहायक न होनेके आधारगर अकिंचित्कर सिद्ध होता है ।
उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत समयसारको ११६ मे १२० तक की गाथाओंके उपत अर्थक विषममें मैं दूसरी नात यह कहना चाहता है कि उत्तरपक्ष द्वारा किये गये उक्त अर्थ के विषयमें पूर्वपक्षको सामान्यतः कोई विवाद नहीं है। परन्तु इतनी वात अवश्य है कि पूर्वपक्ष उसमें विद्यमान "स्वयं" पदका "आगने रूप" अर्थ करके यह सिद्ध करना चाहता है कि पुदगलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विद्यमान है, इसलिये उसका वह परिणयन निमित्तभूत जीवका सहयोग होनेपर ही पुद्गलकी उस शक्तिके अनुरूप होता है और उत्तरगा उसमें विद्यमान "स्वयं" पदका "अपने आप" अर्थ करके यह सिद्ध करना चाहता है कि पुद्गलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विद्यमान है इसलिये उस शक्तिके आधारपर होने वाला उसका वह परिणमन निमित्तभूत जीवझे सहयोगके बिना ही होता है।
पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि उक्त गाथाओंके लिखने में आचार्य कुन्दकुन्दको और उनकी टीका करने में थाचार्य अमृतचन्द्रकी जो दुष्टि रही है उसे समझनेका पूर्वपक्षने तो प्रयास किया है इसलिये उसका कथन आगमानुकूल है । पर उत्तरपक्षनं उस समझनेका प्रयास हो नहीं किया है। केवल अपने पूर्वाग्रहयश ही उसने वह कथन किया, अतः उसका कथन आगमानुकूल नहीं है । तत्वजिज्ञासुओंको इसपर विचार करना चाहिए। कथन १४ और उसकी समीक्षा
(९४) उत्तरपक्षने त. व० पृ०७४ पर समयसार ११६ से १२० तक की गाथाओंका अर्थ करने के अनन्तर यह कथन किया है-"इस प्रकार इरा अर्थपर दृष्टिपात करनेसे ये दो सथ्य स्पष्ट हो जाते है-प्रथम तो यह कि अपरपक्षने उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है वह उन गाथाओंकी शब्दयोजनासे फलित नही होता। दूसरे इन गाथाओं में आये हुए "स्वयं" पदका जो मात्र "अपने रूप" अर्थ किया है वह ऐकान्तिक होनेसे ग्राह्य नहीं है। कर्ताक अर्थमें उसका अर्थ "स्वयं ही" या "आप ही" कुछ करना संगत है और यह बात आगम विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य आप कर्ता होकर अपने परिणामको उत्पन्न करता है" । इसकी समीक्षा निम्नप्रकार है
उसरपक्षने अपने इस वक्तव्यमें जो यह कथन किया है कि "अपरपक्षन उक्त गाथाओंका जो यह अर्थ किया है उन गाथाओंकी याब्दयोजनासे फलित नहीं होता"। सी उसके सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्ष इस कथनके पूर्व यदि पूर्वपक्षके उस कथित अर्थका भी निर्देश कर देता जिसको लक्ष्यमें लेकर उसने यह कथन किया है तो उत्तम होता, क्योंकि वास्तविकता यह है कि उक्त गायानका पूर्वपन भी वही अर्थ मान्य करता है जिसे उत्तरपक्षने सही मानकर त०१०प०७३-७४ पर निर्दिष्ट किया है। उस अर्थके विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य केवल यह मतभेद है कि जहां उत्तरपक्ष उस अर्थमें "स्वयं" पदका "स्वयं ही" या "आप ही" अर्थ स्वीकृत करके उसका यह आशय ग्रहण करता है कि पुदगलका कर्महप परिमन उसके
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
अपने परिणमन स्वभाव के आधारपर होता हुआ निमित्तभूत जीवको सहायता के बिना ही हुआ करता है । वहाँ पूर्वपक्ष "स्वयं" पदका "स्वयं ही" या "आप हो" अर्थ स्वीकृत करके उसका यह आशय ग्रहण करता है कि पुद्गल द्रव्यका कार्यरूप परिणमन उसके अपने परिणमन स्वभावके आधारपर होता हुआ भी निमित्तभूत जीant सहायतारो हुआ करता है । इनमेंगे पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत आय ही आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचंद्र के अभिप्रायके अनुकूल है, उत्तरपश्च द्वारा स्वीकृत आशय आचार्य कुन्दकुन्दके और आचार्य अमृतचंद्रके अभिप्रायके अनुकूल नहीं है ।
उत्तरपक्ष ने अपने इस वक्तव्यमें जो यह कथन किया है कि "उन गाथाओं में आये हुए "स्वयं" पदका जो मात्र " अपने रूप" अर्थ किया है वह ऐकान्तिक होनेसे ग्राह्य नहीं है" सो इसके संबंध में भी मेरा यह कहना है कि "स्वयं" पदका "अपने रूप" अर्थ कैसे ऐकान्तिक है और उस कारण से वह क्यों ग्राह्य नहीं है ? इस विषय पर भी उत्तरपक्षको प्रकाश डालना चाहिए था। मैं "स्वयं" पदके "अपने रूप" अर्थकी संगति और "अपने आप " अर्थकी विसंगतिके विषयमें पूर्व में ही विस्तार से प्रकाश डाल चुका हूँ ।
कथन ९५ और उसकी समीक्षा
( ९५ ) उत्तरपक्षनेत० च० पू० ७४ पर मागे 'स्वयं' पदके अर्थ विपयमें यह कथन किया है— "कत के अर्थ में उसका अर्थ "स्वयं ही" या "आप ही " कुछ करना संगत है और यह आगम विरूद्ध भी नहीं है"। इसके विषय में मेरा कहना यह है कि यह बात तो निर्विवाद है । परन्तु अपने इस कथन के समर्थनमें उसने (उत्तरपक्षने) आगे जो यह कथन किया है कि निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य आप कत्त होकर अपने परिणामको उत्पन्न करता है" सो यह विवादग्रस्त है, क्योंकि उत्तरपक्ष अब निश्चयनयके विषयको व्यवहारनय निरपेक्ष ही मान्य करता है तो ऐसी हालत में निश्चयनय नय न रहकर मिथ्यापनका रूप धारण कर लेता है - इस विषयपर भी मैं पूर्वमें विस्तारसे प्रकाश डाल चुका हूँ ।
कथन ९६ और उसकी समीक्षा
(९६) उत्तरपक्षने आगे अपने "कत कि अर्थ में उसका अर्थ "स्वयं ही" या " आप ही " करना संगत है" इस कथन के समर्थन में जो समयसार गाथा १०२ तथा हरिवंशपुराण सर्ग ५८ के श्लोक ३३ और ३४ को उद्धत किया है। सो उत्तरपक्ष इस सम्बन्धमें पूर्वपक्ष के दृष्टिकोणपर ध्यान देनेका प्रयत्न करता तो यह सब लिखनेकी उसे आवश्यकता ही नहीं रह जाती ।
मेरे द्वारा "स्वयं" पदको लेकर किये गये इस सम्पूर्ण विवेचनका अभिप्राय यह है कि "स्वयं" पदके अर्थ विषयमें जो कथन पूर्वपक्षने तत्त्वचर्चा में किया है उसपर उत्तरपा द्वारा ध्यान न दिये जानेका ही यह परिणाम है कि उसने उपर्युक्त निरर्थक और आगमके विपरीत प्रतिपादन किया है। तत्त्वजिज्ञासुओं को इसपर विचार करने की आवश्यकता है ।
कथन ९७ और उसकी समीक्षा
(९७) आगे त० च० पृ० ७४-७५ पर उत्तरपक्षने वह कथन किया है- "इससे प्रकृतमें "स्वयं" पदका क्या अर्थ होना चाहिए यह स्पष्ट हो जाता है" । तथा इसके अनन्तर उसने यह कथन भी किया है कि "यहां अपरपक्षने "स्वयं" पवके "अपने आप " अर्थ का विरोध दिखलाने के लिए जो प्रमाण दिये हैं उनके free सो हमें विशेष कुछ नहीं कहना है, किन्तु यहाँ हम इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते कि
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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एक तो प्रस्तुत प्रश्न के प्रथम व दूसरे उत्तरमें हमने "स्वयमेव" पदका अर्थ "अपने आप” म करके "स्वयं हो" किया है। इस पदका "अपने आप" यह अर्य अपरपक्षने हमारे कथनके रूप में प्रस्तुत प्रश्नकी दूसरी प्रतिशंका में मानकर टीका करती प्रारम्भ कर दी है जो युक्त नहीं। हमने इसका विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्चय कर्त्ताक अर्थ में "स्वयमेव" पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं। ऐसी अवस्था में "अपने आप" पदका अर्थ होमा “परकी सहायताके बिना आप कर्ता होकर' । आशय इतना ही है कि जिसकी क्रिया अपने में हो कार्य अपने में हो वह दुसरेकी सहायता लिये बिना अपने कार्यका आप का होता है । अन्य पदार्थ नहीं"।
इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि यद्यपि उत्तरपक्षने प्रकृतमें "स्वयं'' पदका "स्वयं ही" अर्थ किया है, परन्तु वह उसका "अपने आप" के रूपमें ही आशय लेना चाहता था। यह बात उसीके "हमने
का विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्चयकर्ताक अर्थ में "स्वयमेव" पदका यह अर्थ ग्रहण करनमें भी कोई आपत्ति नहीं है" इस कथनसे जानी जाती है और इस बातको ध्यानमें रखकर ही पूर्वपक्षने अपने कथनमें "स्वयमेव" पदका उत्सरपक्षकी ओरसे "अपने आप" अर्थ मानकर उसकी टीका की है, इसलिये उसने जो पूर्वपक्षके कथनको अगुत्रत कहा है उराका यह कथन हो अयुक्त है । दूसरी बात यह है कि यदि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी उस टोकाको अयुक्त समझता था तो उसे वहींपर उसका विरोध करना चाहिये या और वहोंपर उसे 'स्वयं" पदके स्वय हो' अर्थका स्पष्टीकरण भी कर देना चाहिये था । यतः उत्तरपक्षने वहां पर न तो पूर्वपक्षके कथनका विरोध किया है और न "स्वयं' पदके "स्वयं ही' अर्थका स्पष्टीकरण ही किया है अतः मालूम होता है कि "स्वयं' पदका 'स्वयं ही" अर्थ करने में उसने छलसे काम लेना चाहा है। इस तरह मेरा कहना है कि उत्तरपक्षका यह प्रयत्न तत्त्व फलित करने की दृष्टि से उचित नहीं है।
उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें जो यह कहा है कि "हमने इसका विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्चपक के अर्थ में "स्वयमेव" पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं। ऐसी अवस्था में "अपने आप" पदका अर्थ होगा "परकी सहायता के बिना आप का होकर", उत्तरपक्षने अपने इस कथन के स्पष्टीकरणके रूपमें आगे यह भी कहा है कि "आशय इतना ही है कि जिसको क्रिया अपने हो, कार्य भी अपनेमें हो वह दूसरे की सहायता लिये बिना अपने कार्यका कर्ती होता है अन्य पदार्थ नहीं" सो इसके विषयमें मेरा कहना है कि पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य विवाद भी इसी बातका रहा है कि जहाँ उत्तरपक्ष मानता है कि जिसकी क्रिया अपने में हो कार्य भी अपने में हो वह दूसरेकी सहायताके बिना अपने कार्यका कर्ता होता है, जबकि पूर्वगन मानता है कि जिसको त्रिया अपने हो, कार्य भी अपनेमें हो वह दूसरेकी सहायतासे अपने कार्यका कर्ता होता है । और इस विवादको समाप्त करनेकी दृष्टिसे ही तस्वचर्चामें प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया गया था, लेकिन यह स्पष्ट है कि वह विवाद तत्वचर्चासे समाप्त नहीं हो सका, अतएव सस्वचर्चाकी इस समीक्षाको लिखनेकी ओर ध्यान देना पड़ा है। आशा है इससे दोनों पक्षों के मध्य उपत विवाद समाप्त हो जायेगा और यदि उक्त विवाद समाप्त न भी हो तो भी तत्वजिज्ञासुओंको तत्वका निर्णय करनमें इस समीक्षासे मार्गदर्शन अवश्य ही प्राप्त होगा। कथन ९८ और उसकी समीक्षा
(९८) अन्त में प्रवृत्त विषयका समापन करते हुए उत्तर पक्षने त० च० पृ० ७५ पर यह कथन किया है-"इस प्रकार प्रवचनसार माघा १६९ की टीका में "स्वयमेव' पदका क्या अर्थ लेना चाहिये इसका
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जयपुर (खानिया) सत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
खुलासा किया। अन्यत्र जहाँ-जहाँ कार्यकारणभावके प्रसंगमें यह गद आया है वहां-वहाँ इस गढका अर्थ करनेमें वही स्पष्टीकरण जानना चाहि।। यदि और गहराईसे विचार किया जाये तो यह पद निश्चयकतकि अर्थ में तो प्रयुक्त हुआ ही है इसके सिवाय इस पबसे अन्य निश्चय कारकोंका भी ग्रहण हो जाता है"।
___ इसकी समीक्षामें मेरा कहना पह है कि कार्यकारणभावके प्रमंगमें दोनों पक्षोंके मध्य पूर्वोक्त प्रबार विदादका विषय "स्वयमेव" पदका "स्वयं ही" या "आप ही" अर्थ करना नहीं है और न ही यह विवादका विषय है कि इस पदको प्रयोग निश्वयकर्ता आदि सभी कारकोंके अर्थ में होता है। पूर्वपक्ष को उत्तरप के साथ विवादका विषय यह है कि उत्तरपक्ष कार्यकारणभावके प्रसंगमें आये हुए "स्वयं" पदके आधारपर यह मान्य करता है कि उपादानमें कार्यको उत्पत्ति अपने आप अर्थात् निमित्तभूत जीवको सहायताके बिना हो होती है। इसकी पुष्टि उत्तरपक्षके त०१० पृ०७४-७५ पर निर्दिष्ट "यहां अपरपक्षने स्वयं पदफे 'अपने आप' अर्थका विरोध दिखलानेके लिए जो प्रमाण दिये हैं" इत्यादि वक्तव्य के अंशभूत "इस पदका 'अपने आप यह अर्थ अपर पक्षने हमारे कथनके रूप में प्रस्तुत प्रश्नकी दूसरी प्रतिशंका में मानकर टीका करनी THE वी जोमा नहीं है। हमने इसका विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्वयबर्ताक अर्धमें 'स्वयमेव' पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं है" इत्यादि कथनसे होती है। पूर्व पक्षको इस विषय में विवाद इसलिये है कि वह (पूर्वपक्ष कार्यकारणभावके प्रसंग में आये हा 'स्वयं' पदवे. यह मान्य करता है कि उपादान में कार्यकी उत्पत्ति निमित्तकारणभूत ब्राह्य वस्तुकी सहायताने ही होती है, परन्तु यह कार्य निमित्तभूत माह्य वस्तुरूप न होकर उगादानके अपने रूप अर्थात् उपादानगत कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होता है । प्रकृतमें भी उत्तरपक्ष कर्मरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट पुदगलके कर्मरूप परिणमनको स्वयं' पदके आधारपर अपने आप अर्थात निमित्तभूत जीवकी सहायताके बिना मान्य करता है जो पूर्वपक्षको विवादका विषय है, कोकि पूर्वपक्ष ऐसा न मानकर स्वयं पदवे आधार पर ही ऐसा मानता है कि कर्मरूप परिणत होनेकी स्वभाविक योग्यता विशिष्ट पुद्गलकी कर्मरूप परिणति निमित्त भूत जोरकी सहायतासे ही होती है. परन्तु वह जीवरूप न होकर पृद्गलके अपने रूप अर्थात् पुद्गलकी अपनी कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होती है । कथन ९९ और उसकी समीक्षा
(९९) स० च पृ० ७५ पर हो उत्तरपक्षने "आगे अपरपझने उपचार' पदके अर्थक विषयने निर्देश करते हए धवल पुस्तक ६ प०११ के आधारसे जो उस पदके 'अन्य के धर्मको अन्यमें आरोपित करना उपचार है' इस अर्थको स्वीकार कर लिया है वह उचित ही किया है"-इत्यादि अनुच्छेद लिखा है उसकी समीक्षा करनेसे पूर्व में यह बतलाना चाहता है कि उत्तरपक्षने प्रतिशंका दो का समाधान करते हुए तब पृ० १० पर उद्धृत घवल पुस्तक ६ पृ० ११ के 'मुह्यत इति मोहनीयम्' इस वषनका जो "जिसके द्वारा मोहित किया जाता है वह मोहमीय कर्म है' यह अर्थ किया है ग़लत है। उसका सही अर्थ 'जो मोहित किया जाता है या जो मोहित होता है यह मोहनीय है' यही है । इसे मैं प्रकृत प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें स्पष्ट कर चुका हूँ। उस गलतीके आधार पर उत्तरपक्षने दूसरी गलती यह की है कि वह स० च० ० ७५ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त अनुच्छेदमें आगे यह कथन भी गलत कर गया है कि 'धवल पु० ६ १० ११ में जीवके कर्तृत्व धर्मका उपचार जीवसे अभिन्न (एक क्षेत्रावगाही) मोहनीय द्रव्य कर्म करके जीवको मोहनीय कहा गया है। इसमें गलतपना यह है कि उत्तरपक्षमे उपचार तो जीनक कर्तत्व धर्मका
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शंका-समाध १ की समीक्षा
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मोहनीय द्रव्यकर्म किया है, परन्तु उस उपचारके आधार पर उसे ( उत्तरपक्षको ) जहाँ मोहनीय द्रव्यकर्मको मोहनीय कहना था वहां यह जीवको मोहनीय कह गया है। इस तरह यहाँ उसने उपचारको गलत प्रक्रियाको अपना लिया है। पूर्वपक्षने प्रकृत प्रश्नोत्तरके तृतीय दौर में त० ० पृ० ३१ पर जो यह लिखा है कि 'आत्माके कर्तृवचन उपचार यदि द्रव्यकर्म में आप करेंगे तो इस उपचार के लिये सर्वप्रथम आपको निमित्त तथा प्रयोजनको देखना होगा, जिनका कि यहां पर सर्वथा अभाव है, यह उसने उत्तरपक्ष के उस उपचारकी गलत प्रक्रियाको स्वीकार करने के कारण लिखा है। इसलिये मैं उत्तरपक्षसे यह कहना चाहूंगा कि जिस प्रकार वह समयसार गाथा १०५ में कर्मरूप परिणतिकी कर्तृभूत कर्मबर्गणाओंके कर्तृत्व धर्मका उपचार उसमें निमित्तभूत जीव में करके जीवको उपचारमे कर्त्ता स्वीकार करता है उसी प्रकार उसे (उत्तरपक्षको ) धवल पु० ६ १० ११ के वचनमें भी जीवके कर्तृत्य धर्मका उपचार एक क्षेत्रावगाही मोहनीय द्रव्यकर्म में स्वीकृत करने के आधारपर मोहनीयद्रव्यकर्मके ही उपचारसे मोहनीय कहना चाहिये । उत्तरपक्षसे मेरा एक यह भी अनुरोध है कि उसने अपने विवेचनोम आलापपद्धतिके 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते' इस बचनका गलत अभिप्राय प्रकट किया है, अतः गम्भीरता के साथ विचार कर उसमें भी सुधार कर लेना चाहिये ।
विषयका उपसंहार
स्वानिया तत्त्वचके प्रथम प्रश्नोत्तरकी इस समीक्षासे यह अच्छी तरह स्पष्ट होता है कि दोनों पक्षोंके मध्य प्रकृत विषय सम्बन्ध में अन्य कोई विवाद न होकर केवल निम्न विवाद हो थे—
(१) जहाँ पूर्वपक्ष संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष संसारो आत्माके उस विकारभार और चतुर्गति भ्रमण कर्मके उदयको सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्त कारण मानता है ।
(२) जहाँ पूर्वपक्ष संमारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको उम कार्यरूप परिणत न होकर उसमें सहायक मात्र होन के आधारपर यथार्थ कारण और उपचरितकर्ता मानता है वहाँ उसरपक्ष संसारी आत्माके विकारभाष और चतुर्गति भ्रमणमें द्रव्यकर्मके उदयको उस कार्यरूप परिणति न होने और उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर अथथार्थ कारण और उपचारिकर्त्ता मानता I (a) जहाँ पूर्वपक्ष संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको उस कार्यरूप परिणत न होने के आधारपर अभूतार्थं कारण और उस कार्य में सहायक होने के आधारपर भूतार्थ कारण मानकर व्यवहारनयका विषय मानता हूँ वहाँ उत्तरपक्ष संसारी आत्माके विकारभाव और चर्तुगति प्रमाण में श्यकर्मके उदनको उस कार्यरूप परिणत न होने और उसमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वधा अभूतार्थं मानकर व्यवहार नयका विषय मानता है ।
उत्तरपक्षको अपने उत्तर में प्रश्नके इन विषयों पर ही विचार करना था। परन्तु उसने इनकी उपेक्षा करके अप्रकृत और निर्विवाद विषयोंको विवादका विषय बनाकर उनके खण्डनमें हो अपनी शक्तिका अधिकतम उपयोग किया है। यद्यपि पूर्वपक्ष ने यथास्थान उस रपक्षको इसका स्मरण करानेका भी प्रयत्न किया है, परन्तु उत्तरपक्ष ने उसपर ध्यान न देकर अन्त तक अपनी प्रारब्ध प्रक्रियाको नहीं छोड़ा है। अतएव इस समीक्षा में मैंने पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के दृष्टिकोणों और मान्यताओंका विस्तारसे स्पष्टीकरण करते हुए सिद्धान्तका प्रतिपादन करनेका प्रयत्न किया है । आशा ही नहीं विश्वास भी है कि इससे सत्यजिज्ञासुओंको प्रकृत प्रश्नपर सैद्धान्तिक निर्णय करने में सरलता होगी । इति
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
१. प्रश्नोत्तर २ को सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं त.च० पृ०७६ ।
उत्तरपक्षका उत्तर---जीवित शारीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यमी पर्याय होने के कारण उराका अजीव तस्वमें अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्म भाव है और न अधर्मभाष ही है । त० च० ० ७६ । प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षका अभिप्राय
पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाले थात्मामें धर्म और अधर्म मानता है। अतः उत्तरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है, अतः उसने उत्तरपक्षके समक्ष प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया था । जीवित शरीरकी क्रियासे पूर्वपक्षका आशय
जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकारकी होती है-एक तो जीवके महयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया और दूसरी शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया । इन दोनोंमसे प्रकृतमें पूर्वपक्षको शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवक्री क्रिया ही विनक्षित है, जीवके राहयोगगे होनेवाली शरीरकी क्रिया विवक्षित नहीं है। इसका कारण यह है कि धर्म और अमचे दोनों जीवकी ही परिणतियां है और उनके सुख-दुःख रूप फलका भोक्ता भी जीव ही होता है। अत: जिस जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होते हैं उसका की जीवको मानना ही युक्तिसंगत है, शरीरको नहीं । उत्तरपक्षके उत्तरपर विमर्श
उत्तरपक्षने प्रश्नका जो उत्तर दिया है उससे उसरपक्षकी यह मान्यता ज्ञात होती है कि वह जीवित शारीरकी क्रियाको मात्र पुदगलद्रकी पर्याय मानकर उसका अजीव तत्त्व में अन्तर्भाव करके उससे आत्मामें धर्म और अधर्म होनेका निषेध करता है। उत्तरपक्षकी इस मान्यतामें पूर्वपक्षको जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा तो कुछ विरोध नहीं है, परन्तु आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्म के प्रति पूर्वपक्ष द्वारा कारण रूपसे स्वोवृत शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाकी अपेक्षा विरोध है । यदि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षको मान्य शारीरके सहयोगसे होनेवाली जीववी किया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसको पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानकर अजीव तत्त्वमें अन्तर्भूत करे तथा उरासे आत्मामें धर्म और अवर्मको उत्पत्ति न माने तो उसकी इस मान्यतासे पूर्वपक्ष गहमत नहीं है, क्योंकि चरणानुयोगका समस्त प्रतिपादन इस बातकी पुष्टि करता है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया जीवित शरीरकी क्रिया है और पुद्गल द्रव्यको पर्याय न होनेरो अजीव तत्त्वमें अन्तर्भूत न होकर जीवकी पर्याय होनेसे जीव तत्त्वमें अन्तर्भत होती है तथा उससे आत्मामें धर्म और अधर्म उत्पन्न होते हैं। उत्तरपक्षके समक्ष एक विचारणीय प्रश्न
उत्तरपन यदि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवक्री क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसे पुदगल द्रव्यको पर्याय मानकर उसका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव करे तथा उसको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्म के प्रति कारण न माने तो उसके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मामें धर्म और अधर्मकी उत्पसिका आधार क्या है ! किन्तु पूर्वपक्षके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि वह शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवको कियाको आत्मामें होनेवाले धर्म और अघमके प्रति कारण रूपसे आधार मानता है।
यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि धर्म और अधर्मकी उत्पत्ति में आत्माका पुरुषार्थ कारण है, तो वह पुरुषार्थ शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीनको क्रियासे भिन्न नहीं है। इसका विवेचन आगे किया जायेगा। इसके
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
अलावा यदि वह यह कहे कि आत्मामें धर्म और अधर्म आत्माको कार्याव्यवहितपूर्वक्षणवर्ती पर्यायरूप नियतिके अनुसार होते है तो इस प्रकारको नियतिका निर्माण आत्माकी नित्व उपादान शक्ति (स्वाभाविक योग्यता) के आधारपर शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप आत्मपुरुषार्थ के बलपर ही होता है । इसका विशेष कथन प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किसानका है और आगे भी पहरणानमार किया जायेगा। प्रकृत विषयके संबन्धमें कतिपय आधारभूत सिद्धांत
(१) धर्म और अधर्म दोनों जीवको भाववती शक्तिके परिणमन है और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रिया उसको (जीवकी) क्रियावती शक्तिका परिणमन है । और जीवकी क्रियावती शक्तिका यह प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रियापरिणाम ही उसकी भाववती शक्ति परिणमन स्वरूप धर्म और अधर्म में कारण होता है।
(२) प्रकृतमें 'जीवित शरोर' पदके अन्तर्गत 'शरीर' शब्दसे शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन (बोलनेका स्थान मुख) और शरीर इन तीनोंका ग्रहण विवक्षित है, क्योंकि जीवकी भाववती दाक्तिके परिणमनस्वरूपधर्म और अधर्ममें जीवको क्रियावती शक्तिका प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप जो क्रियारूप परिणाम कारण होता है वह शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन (मुख) और शरीर इन तीनोंमेंसे प्रत्येकाकै सहयोगसे अलग-अलग प्रकारका होता है तथा जीवकी क्रियावती शक्तिका वह क्रियापरिणाम यदि बाह्य पदार्थोके प्रति प्रवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे आत्माकी उस भावबती शक्तिका वह परिणमन अधर्म रूप होता है और यदि उसी क्रियावती शश्तिका वह क्रिया परिणमन बाह्य पदाथोंके प्रति प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे आत्माकी उस भाववती शक्तिका वह परिणमन धर्मरूप होता है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
जीव द्रव्यमनके सहयोणसे शुभ-अशुभ संकल्प के रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है, वचन (मुख) के सहयोगसे शुभ-अशुभ बोलनेके रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रयत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-ब्वापार करता है और शरीरके सहयोगसे याभ-अशभ हलन-चलन के रूपमें प्रवत्तिरूप या उस प्रकारको प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है । द्रव्यमन, वचन और पारीरक सहयोगसे होनेवाला जीनका उक्त शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप वा उस प्रकारको प्रवत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापारका अपर नाम आत्म-पुरुषार्थ है और इसे ही जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमन रूपमें जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया कहते हैं।
(३) जीयका संसार, शरीर और भोगोंके प्रति अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, भोग और संग्रह रूप पांच पापीके प्रति उक्त प्रकारका मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप आत्म-व्यापार अशुभ कहलाता है व उसका देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दान, अणव्रत, महाव्रत, समिति आदिके प्रति मानसिक वाचनिक और काविक प्रवृत्तिरूप आत्मव्यापार शुभ कहलाता है। तथा उसका इन मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप आत्मव्यापारोंसे मनोगुत्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध आत्मव्यापार होता है।
(४) शरीरके अंग-भूत दव्य मन, बचन और शरीरके सहयोगसे होनेवाले उक्त तीनों प्रकारके आत्मव्यापारों से शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप दोनों प्रकारके आत्मव्यापारोंसे जीव यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मोंका बन्ध करता है व उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप आत्मव्यापरोसे जीव उन कर्मोंका संबर और निर्जरण करता है। इस तरह बद्धकोंके उदयसे जीवमें भाव
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
वती शक्तिके विशव परिणामके रूपमें अवर्मभाव प्रगट होता है तथा बंधनेवाले कर्मकि बन्धमें रुकावटरूप संबर और बद्ध कर्मोके उपशम, क्षय और क्षयोपशम रूप निर्जरणसे जीवमें मानवती शक्तिके स्वभावपरिणमनके रूपमें धर्मभाव प्रगट होता है।
यहाँपर यह ज्ञातव्य है कि जब तक प्रथम गुणस्थानमें विद्यमान जीव केवल अशुभ प्रवृत्ति करता है तब तक वह यथायोग्य कर्माका अन्ध ही करता है। तथा प्रथम, द्वितीय और तुतीय गुणस्थानोंमें विद्यमान जीव जो अशुभ प्रवृत्तिके साथ गुभ प्रवृत्ति करते हैं वे भी यथायोग्य कर्मोका बन्ध ही करते हैं। इतना ही नहीं, यदि कदाचित् कोई मिन्मादष्टि भव्य या अभत्र्य जीव भासक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर अशक्तिवश होनेवाली अाभ प्रवृत्ति के साथ शुभ प्रवृत्ति करने लगा हो तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई मिथ्यादृष्टि भव्य या अभव्य जीव कदाचित् आसक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्तिके सर्वथा त्याग पूर्वक अगक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश मा सर्वदेश त्याग कर देता है तथा यथावश्यक या किंचित् अनिवार्य मशक्तिवश होनेवाली अनुभ प्रवृत्ति के साथ प्रधानतया शुभ प्रवृत्ति करने लगता है तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है । लेकिन कोई बिरला मिथ्यादृष्टि भन्य जीव या सम्यमिथ्यादृष्टि जीव आराक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के सर्वथा त्यागके आधारसे कारणलब्धिके रूपमें आत्मोन्मुख हो जाता है तो वह वायोग्य कर्मोंका संचर और निर्जरण भी करने लगता है व अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के माम शुभ प्रवृति करता हुआ कर्मोंका आलव और बन्ध भी करता है। इसी प्रकार आसक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्ति के सर्वथा त्याग पूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय वा चतुर्थ गुणस्थानवी जीव यदि अभाक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृतिका भी एक देश त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोंके संबर और निर्जरणमें वृद्धि कर प्रथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के साथ शुभ प्रवृति के आधारपर कौका आस्रव और बन्द करता है। इसी प्रकार आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय, चतुर्थ या पंचम गुणस्थानवर्ती जीव यदि शक्तिवश होनेवाली प्रवृत्ति का यथायोग्य रावदेश त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोंके संघर और निर्जरणमें और भी वृद्धि करके यथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के साथ शुभ प्रवृत्ति के आधारपर कोका आस्रव और बन्ध करता है। इसी तरह आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रश्रम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम या षष्ठ गुणस्थानवी जीव यदि अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोके संघर और मिर्ज रणमें और भी वृद्धि करके क्रमशः सप्तम, अष्टम, नवम और दशम गुणस्थानों में पहुँचकर केवल आम्यन्तर शुभ प्रवृत्तिकै आधारपर कमोका आत्रव और बन्ध करता है। इसी तरह ऐसा दशम गुणस्थानवी जीव अन्तमें अपनी शुभ पुरुषार्थरूप प्रवृत्तिको भी समाप्त कर यथायोग्य आत्मोन्मुखताकी पूर्णताको प्राप्त होकर संघर और निर्जरणमें वृद्धिकर एफादा या द्वादश गुणस्थानमें और द्वादश गुणस्थानके पश्चात् योदा गुणस्थानमें केवल मानसिक, वाचनिक और काविक योगप्रवत्तिके आधारपर मात्र सातावदनीय कर्मका केवल प्रकृति और प्रदेश बन्धक रूपमें आस्रव और बन्ध करने लग जाता है और प्रयोदश गुण स्थानवर्ती जीवको जब उक्त योगप्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है तो वह चतुर्दश गुण स्थानके प्रारम्भ में पूर्ण संवरको प्राप्तकर तथा अन्त रामय में शेष विद्यमान अघातिया कर्मोंका भी क्षयके रूपमें पूर्ण निर्जरण करके नोकर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध समाप्त कर सिद्ध पदचीको प्राप्त हो आता है।
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप जीवित शरीरको क्रियाके आधारसे अपनी भाववसी शक्तिके परिणामस्वरूप विभावरूप अधर्मभावको प्राप्त होता है और अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रिया आघारसे वह अपनी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप स्वभावरूप धर्मभावको प्राप्त होता है ।
इस विवेचन के आधारसे उत्तरपक्ष यदि कदाचित् प्रकृत विषय संबन्धी आगम के अभिप्रायको समझनेकी चेष्टा करें, तो मुझे विश्वास है कि वह पूर्वपक्षकी इस मान्यताको नियमसे स्वीकार कर लेगा कि शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया से आत्मामें धर्म-अधर्म होता है ।
अब आगे प्रकृतप्रश्नोत्तर के प्रत्येक दौरकी समीक्षा की जाती है ।
२. प्रश्नोतर २ के प्रथम दौरको समीक्षा
उत्तर प्रश्न के आशय के प्रतिकूल और निरर्थक
प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा - प्रकरण से यह स्पष्ट है कि पूर्वपक्षका प्रश्न शरीरकै सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे संबंध रखता है। अर्थात् पूर्वपक्षने अपने प्रश्न में उत्तरपक्ष यह पूछना चाहा है कि शरीरके सहयोग से होनेवाली जीबकी क्रियारूप जीवित शरीरकी किवासे आत्मा धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? लेकिन उत्तरपक्षने प्रश्नका जो उत्तर दिया है उसे देखनेसे स्पष्ट विदित होता है कि उत्तरपक्षका वह उत्तर शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रिया संबंध न रखकर जीवके राहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रिया से संबंध रखता है। अर्थात् उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के उपर्युक्त इनके उत्तर में यह बतलाना चाहता है कि जीयके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे आत्मायें धर्म-अधर्म नहीं होता है। इस तरह उत्तर प्रश्न आशय के प्रतिकूल सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीर की क्रियारूप औबित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होने या न होनेका विवाद नहीं है, क्योंकि उत्तरपक्ष के समान पूर्वापन भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मायें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति नहीं मान्य करता है। इससे उत्तरकी निरर्थकता भी सिद्ध होती है। इसी तरह इससे भी यह निर्णीत होता है कि पूर्वपक्षका प्रश्न जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे सापेक्ष न होकर शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे सापेक्ष है, क्योंकि दोनों पक्षों के मध्य विवादका विषय यही है । फलतः उत्तरपक्ष के सामने पूर्वपक्षका प्रश्न अभी भी अनिर्णयको स्थिति में अवस्थित है ।
प्रकृत विषय में उत्तरपक्षकी आगमसे विपरीत मान्यतायें
उत्तरपक्ष शरीर सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियाको भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया मान लेना चाहता है । यह बात उत्तरपक्षने अपने उत्तरके समर्थन में त० ० ० ७६ पर नाटक समयसार पद्य १२१-१२३, समपसार कलश २४२ और परमात्मप्रकाश पद्य २ १९१ के जो उद्धरण दिये हैं उनसे ज्ञात होती है, क्योंकि नाटक रामयसार आदि उक्त वचनोंमें जो प्रतिपादन किया गया है वह सब शरीर के सहयोग होनेवाली जीवकी किमासे संबंध रखता है । तथापि उत्तरपक्षने उन वचनोंके आधारसे स०-२५
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
जो अपने उत्तर-वचन के औचित्यको सिद्ध करने का प्रयास किया है उससे सिद्ध होता है कि वह पक्ष शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको भी जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरकी क्रिया मानता है और इस तरह इससे यह भी सिद्ध होता है कि वह पक्ष जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरकी क्रियाके समान शरीरके सहयोगसे हीनेवाली जीवकी उस क्रिया भी आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति नहीं मानता है सो उत्तरपनकी ये दोनों मान्यतायें आगमसे विपरीत है, क्योंकि प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा-प्रकरणमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि चरणानुयोगका समस्त प्रतिपादन प्रकृतमें विविक्षित क्रियाको एक तो शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवको क्रिया बतलाता है, जीवके महयोगसे होनेवाली दारीरकी क्रिया नहीं | दूसरे, चरणानुयोगका वह प्रतिपादन यह भी बतलाता है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी उस क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होते हैं। जीवकी उस क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होनेकी प्रक्रियाको प्रकृति प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा प्रकरणमें विस्तारसे स्पष्ट किया गया है। उत्तर प्रश्नकी सीमासे बाय होनेने अनार और राना यः२. मनावश्यक
पूर्वपक्षने अपने प्रश्नमें उत्तरपनसे इतना ही पूछा है कि जीवित शरीरको क्रियासे आत्मामें धर्मअधर्म होता है या नहीं ? उत्तरपक्षने अपने उत्तर-वचनमें इराका उत्तर न देकर यह बतलाया है कि जीवित शारीरकी क्रिया पुद्गलद्रव्यको पर्याय होनेके कारण अजीवतत्वमें ही अन्तर्भूत होती है इसलिये वह आस्माका धर्मभाव भी नहीं है और न अधर्मभाव ही है । इस तरह उक्त उत्तरको प्रश्नके साथ पढ़नेसे यही ज्ञात होता है कि उक्त उत्तर प्रश्नकी सीमासे वाह्य है, क्योंकि पूर्वपक्षने अपने प्रश्नमें यह नहीं पूछा है कि जीवित शरीरको क्रिया आत्माका धर्मभाष है या अधर्मभाव । एक बात और है कि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित पारीरको क्रियाको पुर्वपक्ष भी आत्माका धर्मभाव या अधर्म भाव नहीं मानता है। इतना ही नहीं, पूर्वपक्ष तो शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीत्रकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाको भी आत्माका धर्मभाव या अधर्मभाव नहीं मानता है। वह उसे केवल आत्मामें होनेवाले धर्मभाव
और अधर्मभावकी उत्पलिमें पृथक्-पृथक् परो कारण मात्र मानता है, जैमा कि प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा-प्रकरण में स्पष्ट किया गया है। इस तरह उत्तरपक्षका तच० ए० ७६ पर यह लिखना कि "मात्र जीवित शरीरको क्रिया धर्म नहीं है" बिलकुल अनावश्यक है तथा उत्तरपक्षके इस लेखके अनावश्यक हो जानेसे अपने इस कथनकी पुष्टि के लिये उसके द्वारा माटक समयसारके पद्य १२१-१२३ को, समयसार कला २४२ को और परमात्मप्रकाश पद्य २-१९१ को उधत किया जाना भी अनावश्यक है। उत्तरपक्षका एक अन्य कथन और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने त० च० १० ७६ पर ही अपने प्रथम दौरके अन्समें यह कान किया है-"फिर भी जीवित शरीरकी क्रियाका धर्म-अधर्मके साथ नोकर्मरूपसे निमित्त-नैमित्तिक संबंध होनेके कारण जीवके शुभ, अशुभ और शुद्ध जो भी परिणाम होते हैं उनको लक्ष्यमें लेते हुए उपचारनयका आश्रयकर जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म-अधर्म होता है यह कहा जाता है।"
इसकी समीक्षामें मैं एक बात तो यह कहता हूँ कि उत्तरपक्ष जिस जोबित शरीरकी क्रियाका जीव की धर्म-अधर्मरूप परिणतियोंके साथ निमित-नैमित्तिक संबंध होने की बात करता है वह शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी ही क्रिया हो सकती है, क्योंकि जीवके शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामोंके साय इसी
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
१९५ जीवित शरीरकी क्रियाका साक्षात् निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध स्थापित होता है। यद्यपि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप लीवित शरीरकी क्रिया जीवको शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणतियोंमें साक्षात् निमित्तकारणभूत सरोरके सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया में निभिसकारण होती है, अतः शरीरकी उस क्रियाको भी परम्परया जीवको सम. अषभ और परिणतियों में निमि माना जा सकता है। परन्तु प्रकूसमें शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाका ग्रहण ही अगेक्षित है, जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रियारूप जीवित पारीरकी क्रियाका ग्रहण अपेक्षित नहीं। इसका कारण यह है कि जीवको क्रियावती शमितके परिणमनस्वरूप और शरीरके अगस्त द्रव्यमन, वचन और कायके सहयोगसे होनेवाली शुभ-अशभ प्रवत्तिरूप क्रियायें कर्मबन्धका कारण होतो है और उनमेसे शुभ प्रवृत्तिरूप क्रियाओंके साथ जीवमें पूर्वोक्त प्रकार यदि यथायोग्य संसार, शरीर और भोगोंसे निवृत्तिपूर्वक आत्मोन्मखता आ जावे तो कर्म बन्धके साथ वह संसार, शरीर और भोगोंसे निकृप्ति जीवमें कर्मो के संवर और निर्जरणका कारण होती है। जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरके अंगभत द्रव्यमन, वचन और कायकी क्रियाओंका जीवके कर्मबन्ध या कर्मकी निर्जराके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, यह बात पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोंनोंको अभीष्ट है और आगमसम्मत भी है। इसे प्रकृत प्रश्नके सामान्य समीक्षाप्रकरणमें विस्तारसे स्पष्ट किया जा चका है और आवश्यकतानुसार आगे भी स्पष्ट किया जायेगा।
उत्तरपक्षके उक्त कथनकी समीक्षा में दूसरी बात यह कहता हूँ कि यसः उत्तरपक्ष निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धको निमित्तभूत बस्तुकी कार्यके प्रति सहायक न होने रूप अकिचित्करताके आधारपर ही मान्य करता है जब कि वह निमित्त-नैमित्तिक संबंध आगमके अनुसार निमित्तभूत वस्तुकी कायके प्रति सहायक होने रूप कार्यकारिताके आधारपर मान्य किया जा सकता है, जैसा कि प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामं स्पष्ट किया जा चका है । अतः उत्तरपक्षका "उपचारनयका आश्रय कर जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है यह कहा जाता है" यह कथन निमित्तकारणभूत वस्तुकी कार्य के प्रति सहायक न होने रूप अकिंचित्करता का प्रतिपादक होने के कारण असंगत सिद्ध होता है । कार्यके प्रति निमित्त कारणभूत वस्तुकी सहायक होने रूप कार्यकारिताका समर्थन और उसकी कार्यके प्रति सहायक न होने रूप अकिंचित्करताका खण्डन प्रश्नोत्तर १ की समीक्षाभं स्थान-स्थानपर विस्तारके साथ किया जा चुका है। वहीं मैं यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि निमित्तभूत वस्तु और कार्यमें स्वीकृत कर्तृ-कर्म संबंधके विषयमें उपचारकी प्रवृत्ति आलापपद्धतिके "मुख्याभावे सति निमित्त प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते" इस वचनके अनुसार पूर्वपक्षको मान्य कार्य के प्रति निमित्तकारणभूत वस्तुमें मुख्य कर्तुत्वका अभाव और सहायक होने रूप कार्यकारिताका सद्भाव रहनेपर ही होती है, उत्तरपक्षको मान्य कार्यके प्रति उस निमित्तकारणभूत वस्तुम मुख्य कर्तृत्वका अभाव और सहायक न होने रूप अकिंचित्करताका सद्भाव रहनेपर नहीं होती है । इससे निर्णीत होता है कि दो वस्तुओंमें विद्यमान निमित्त-मैमित्तिक संबंध तो वास्तविक ही है केवल उसके आधारपर न दो वस्तुओं में स्वीकृत कर्त-कर्म संबंध ही उपचरित होता है फिर भी उसे आकाशकुसुमकी तरह कथनमात्र या कल्पनारोपित मात्र कदापि नहीं माना जा सकता है । इतना अवश्य है कि दो वस्तुओंमें विद्यमान निमित्त-नमित्तक संबंधके आधारपर सिद्ध क-कर्म संबंध तो उपचरित होनसे व्यवहारनय द्वारा गृहीत होता है और दो वस्तुओंमें विद्यमान निमित्तनैमित्तिक संबंध पराश्रिततात. आधारपर या एक ही वस्तुके दो धर्मों में विद्यमान निमित्तमित्तिक सम्बन्ध भेदाश्रितताके आधारपर व्यवहारमय द्वारा गृहीत होता है।
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३. प्रश्नोत्तर २ के द्वितीय दौरकी समीक्षा द्वितीय दौरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौरमें उसरपक्षके प्रथम दौर की आलोचनाके प्रसंगमें तक प० १५० पर अनुच्छेद एकमें सर्वप्रथम 'जीवित शरीरको सर्वथा अजीव तत्व मान लेनेपर जीवित तथा मृतक शरीरमें कुछ अन्तर नहीं रहता । जीवित शरीर इष्ट स्थानपर जाता है, मृतक शरीर इष्ट स्थानपर नहीं जा-आ सकता' यह कथन करते हुए उत्तरपक्षके जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल प्रन्यकी पर्याय होने के कारण उसका अजीव तत्वमें अन्तर्भाव होता है। इस कथनको आगम, अनुभव और प्रत्यक्षके विरुद्ध बतलाया है तथा अपने इस कथनके आगे उसने (पूर्वपक्षने) इसी अनुच्छेद एकमें 'दांतोंसे काटना, मारना, पोटना, तलवार बन्दुक लाठी चलाकर दूसरोंका बात करना, पूजा-प्रक्षाल करना, सत्पात्रोंको दान देना, लिखना, केशलोंच करना, देखना, सुनना, सूंघना, बोलना, प्रश्न उत्तर करना. शराब पीना, मांस खाना आदि क्रियायें यदि अजीव तत्वको ही है तो इन क्रियाओं द्वारा आत्माको सम्मान, अपमान, दण्ड, जेल आदि क्यों भोगना पड़ता है तथा स्वर्गनरक आदि क्यों जाना पड़ता है ?' यह कथन किया है। इस कथनके भी आगे उराने वहींपर अनुच्छेद दो में 'अणुव्रत, महावत, बहिरंग तप, समिति लादि जीवित पारीरसे ही होते हैं, भगवान ऋषभदेवने एक हजार वर्ष तक तपस्या शरीरसे ही की थी, अर्हन्त भगवानका विहार तथा दिव्य-ध्वनि आदि शरीर द्वारा ही होती है।' यह कथन भी किया है । इसी तरह इसके भी आगे उसने यही अनुच्छेद ३ में 'कायबाङ्मनः कर्म योगः' (६-१ त० सू०) इस सूत्रके अनुसार कर्मानाबमें शरीर तथा तत्सम्बन्धी वचन एवं दामन कारण है। अजीवाधिकरण आनवका कारण है। यह भी जीवित शरीरके अनुसार है। जीवित शरीरसे ही उपदेश दिया जाता है, प्रवचन किया जाता है, शास्त्र लिखा जाता है, प्रवचन सुना जाता है । वह कथन किया है। पूर्वपक्षके इन सब कथनोंके आधारपर यह सिद्ध होता है कि प्रश्नमें पठित जीवित शरीरकी क्रियासे उसका अभिप्राय यागरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाका ही है, जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरको क्रियाका नहीं । इसी तरह उसने (पूर्वपक्षने) वहीं अनुच्छेद ४ में पं० बनारसीदासजीके नाटक समयसार, समयसारकलया और परमात्मप्रकाशके उत्तरपक्ष द्वारा अपने पक्षके समर्थनके लिए प्रथम दौरम उधृत पद्योंके आशयको स्पष्ट किया है तथा त नु० (६-२०) के आधारस शरीरके राहयोगसे होनेवाली जीवकी असत् क्रियाओंसे उसके (जीवके) संसार परिक्रमणकी पृष्टि को है और अन्तमें पंचास्तिकाच गाथा १७१ की टीका तथा रणयसार गाथा ११ के आधारपर अपनी 'जीवित शारीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है। इस मान्यताको पुष्टि की है।
द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षके विविध कथन और उनकी समीक्षा
(१) उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दीरमे पूर्वपक्षके द्वितीय दौरकी आलोचनाके प्रसंगमें त• च० पृ० ७८ पर यह कथन किया है कि-'यह तो सुविदित रात्य है कि आत्माम निश्चयरत्नत्रयको यथार्थ धर्म कहकर उसके साथ जो देवादिको श्रद्धा, संयमासंयम और संयम सम्बन्धी प्रतादिमें प्रवृत्तिरूप परिणाम होता है उसे व्यवहारधर्म कहा है ।'
इसकी समीक्षामें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षने अपने इस कथनमे निश्चवरत्नत्रयको जो यथार्थ धर्म कहा है वह तो ठीक है, परन्तु इस कथन में इतना विशेष ज्ञातव्य है कि यथायोग्य वोका उदय होनेपर आत्माकी
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शंका-समाधान २ को समीक्षा
भाववती शक्तिका जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप विभाव परिणमन होता है उसे तो आत्मपरिणतिके रूपमें निश्चयरूप अधर्म जानना चाहिए तथा उन्हीं कर्मोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर आस्माको भाववती शक्तिका जो सम्यग्दर्शन, राम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारिषरूप स्वभाव परिणमन होता है उसे आत्मपरिणप्तिके रूपमें निश्चय धर्म जानना चाहिए । इसी तरह उसने (उत्तरपक्षने) देवादिको श्रद्धा संयमासंयम और संयम संबंधी व्रतादिमें प्रवृत्ति रूप परिणामीको जो व्यवहारधर्म कहा है वह भी ठीक है, परन्तु इस कथनमें भी इतना विशेष ज्ञातव्य है कि हृदयके सहारेपर होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप देवादिकी श्रद्धाके साथ संयमासंयम और संयम सम्बन्धी प्रतादिमें प्रवृत्तिरूप जो परिणमन होता है वह तो आत्माको क्रियाक्ती शक्ति का ही परिणमन है और दूसरे वह आत्माकी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप आसक्तिषश और अशक्तिवश होनेवाली प्रवत्तियोंसे यथायोग्य नितिपूर्वक हो तो ही उसे व्यवहार धर्म कहा जा सकता है। कंबल देवादिकी श्रद्धाने साथ संयमासंयम और संमम सम्बन्धी प्रसादिम प्रवृत्तिका नाम व्यवहारधर्म नहीं है। उसे तो मात्र पथ्यकर्म ही कहना चाहिए। इस विषय का सर्वांगीण विवेचन इसी प्रश्नोत्तरको सामान्य समीक्षाके प्रकरणमें विस्तारसे किया जा चुका है।
(२) आगे अपने द्वितीय दौरमें तप० पृ० ७८ पर ही उत्तरपशने यह कथन किया है--'और सम्यग्दृष्टिके शरीर में एकस्वबुद्धि नहीं रहती। यदि कोई जीय शरीर में एकत्यबुद्धि कर शरीरको क्रियाको आत्माको क्रिया मानता है तो उसे अप्रतिबद्ध कहा है।' तथा इसी कधनकी पुष्टि के लिए उसने त च० पु. ७८-७९ पर आगे समयसार गाथा १९ प्रवचनसार गाथा १६० और उसको टोका व प्रवचनसार गाथा १६१ को उद्धृस किया है तथा प्रवचनसार गाथा १६२ और नियमसारका उल्लेख करत हुए सोलापुरसे मुद्रित नयचक्रके पू० ४५ पर निर्दिष्ट 'शरीरमपि यो प्राणी प्राणिनो वदति स्फुटम् ।' इत्यादि पदको भी उद्धृत
किया है।
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इसकी समीक्षा में मैं यह कहना चाहता है कि उत्तरपक्षका यह सब कथन एक तो निर्विवाद होनेसे दुसर, प्रकृत विषयके लिए निरापयोगी होने से प्रकुत विषयसे बाहर है, क्योंकि प्रकृतमे विचारणीय विषय यहा है कि जीवित शरीरको क्रियाको पदगलकी क्रिया माना जा या उरो जीवको क्रियाके रूप में भी मान्य किया जाये? एवं उसके आधारपर आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्तिको स्वीकृत किया जाये या नही? अतः उपयुक्त तो यही होता कि उत्तरपक्ष इसी विषयपर अपने विचार प्रकट करता।
___इस सम्बन्धमें मैं अपने विचार इस रूपमें व्यक्त कर चुका हूँ कि जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकार की होती है-एक तो जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रिया और दूसरी शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया । इनमेंसे जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको पदगलकी क्रिया मानना भो निर्विवाद है और उससे आत्माम धर्म-अधर्म नहीं होता है यह मानना भी निर्विवाद है। इस तरह विवादका विषय यह रह जाता है कि उत्तरपक्ष शरीरके सहयोगसे होनेवालो जीबकी क्रियाको भी पुदगलकी क्रिया मानता है और उससे आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति भी नहीं मानता है जबकि पूर्वपक्ष गरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको पुदगलकी क्रिया न मानकर जीवकी ही क्रिया मानता है और उससे आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति भी मानता है। इनमेंसे पूर्वपशकी मान्यता सम्यक् है उत्तरपक्षको मान्यता सम्यक नहीं है। इस बातको प्रकृत प्रश्नोत्तर के सामान्य समीक्षा प्रकरणमें स्पष्ट किया जा चुका है।
उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्यमें आगम-वचनोंके आधारपर यह स्वीकार किया है कि यदि कोई
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बयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
जीव शरीरमें एकरवबुद्धि कर शरीरकी क्रियाको आत्माकी क्रिया मानता है तो उसे अप्रतिबुद्ध कहा है।' सो म सम्बन्धमें मेग कलना राह है कि जिस प्रकार शरीरकी क्रियाको आत्माकी क्रिया भामनेवाला अप्रतिबुद्ध है उसी प्रकार जब उत्तरपक्ष शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको शरीरकी क्रिया मानता है तो उसे भी अप्रतिबुद्ध क्यों न कहा जाये ? इसका निर्णय उत्तरपक्षको स्वयं ही करना चाहिए । मेरा कहना तो यह है कि जो जीव गरीरकी क्रियाको आश्माकी क्रिया मानता है वह भी अप्रतिजुद्ध है और जो जीव जीवकी क्रियाको शरीरकी क्रिया मानता है वह भी अप्रतिबद्ध है, क्योंकि समयसार गाथा १९ में स्पष्ट लिखा है कि शरीरको जीव और जीवको शरीर माननेवाला या शरीरको जीवका और जीवको शरीरका माननेवाला ये दोनों ही अप्रतिवृद्ध है।
इस प्रकार मेरे इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरके सहयोगगे होनेवाली जीवकी क्रिया जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियामे पथक है। अतः जीवके सहयोगसे होनेवाली शारीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म न होते हुए भी शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियासे आस्मामें धर्म-अधर्मके होने में कोई बाधा नहीं है।
(३) उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके मन्तव्यको अपने द्वितीय दौरके प्रारंभमें इस रूप लिखा है-'प्रतिशंका नं० २ को उपस्थित करते हए तत्वार्थसूत्र म०६, सू० १, ६ व ७ तवा पंचास्तिकाय गाथा १७१ और रयणसारगाथा ११ को प्रमाणरूपसे उपस्थित कर तथा कतिपय लौकिक उदाहरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयल किया गया है कि जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है। और इसके विरोध ही उसने (उत्तरपक्षने) अपना द्वितीव दौर लिखा है।
इस संबंध में उत्तरपक्षसे पूछना चाहूँगा कि क्या वह साहसपूर्वक यह कह सकता है कि पूर्वपक्षने अपने दूसरे दौरमें आगमवचनोंके साथ लौकिक उदाहरणोंमें जो कुछ बतलाया है उसका कर्ता जीव न होकर पुद्गल (शरीर) ही होता है और उसका सुख-दुःस्वरूप फल जीवको नहीं भोगना पड़ता है। यदि ऐसा साहस यह करता है तो इसे इसका दुस्साहस ही कहा जायेगा, क्योकि एक तो वह भी इस सिद्धांतको माननेके लिये बाध्य है कि उसका फल जीवको ही भोगना गड़ता है। दूसरे जिन आध्यात्मिक ग्रन्थोंके आधारपर उसने अपने पक्षकी पुष्टि करनेका प्रयत्न किया है उन ग्रन्थोंका अभिप्राय यह है कि जीव शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन और शरीरके अवलम्बनसे जो कुछ करता है उसका कर्ता वह स्वयं ही है। अतः यदि वह क्रिया शुभअशुभ प्रवृत्तिरूप हो तो उससे होनेवाले कर्मबन्धके आधारसे वह जीव संसार परिभ्रमण करता है और वह क्रिया यदि उक्त प्रकारको प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूप निवृत्तिरूप हो तो उससे कर्मोके संबर और निर्जरणपूर्वक यही जीव रासार परिभ्रमणसे मुक्त होता है। इस विषयको भी प्रकृत प्रश्नोसरके सामान्य समोक्षा-प्रकरणमें स्पष्ट कर दिया गया है । इसपर भी उत्तरपक्षको विचार करना चाहिए। उसे केवल ऐसा समझकर नहीं रह जाना चाहिए कि शरीर के अंगभूत द्रवमन, वचन और शरीरके अवलम्बनपूर्वक होनेवालो जो क्रियायें संसारी जीवमं देखी जाती है उनका कर्ता जीव न होकर शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन और शारीर ही उनके कर्ता होते हैं।
देखने में आता है और अनभवमें भी आता है कि संसारी जीवको मतिरूप पदार्थ ज्ञान पोदगलिक इन्द्रियों के सहारेपर होता है और श्रुतरूप पदार्थ ज्ञान मस्तिष्कके सहारेपर होता है । इस संबंध यदि यह कहा जाये कि संसारी जीवको जो मतिरूप पदार्थ ज्ञान होता है वह पौदगलिक इन्द्रियोंके सहारपर न होकर उसके स्वयंके सहारेपर ही होता है तथा उसको जो थुतरूप पदार्थ ज्ञान होता है वह भी पौद्गलिक मस्तिष्कके
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शंका-समाधान की समीक्षा
सहारेपर न होकर उसके स्वयंको सहारेपर ही होता है तो ऐसा कहना सम्यक नहीं है, क्योंकि उसको जो पदार्थ ज्ञान मतिरूपमें और श्रुतरूपमें होते हैं वे यदि इन्द्रियों और मस्तिष्कके सहारेपर न होकर केवल उसके अपने ही सहारेसर होते हैं ऐसा माना जाये तो उनका इन्द्रियों और मस्तिष्कके अभावमें होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । इस तरह सब उन्हें मतिशान और श्रुतज्ञान कहना हो असंगत हो जायेगा। इस आपत्तिको दूर करने के लिए यदि उन ज्ञानोंका कर्ता जीवको न मानकर इन्द्रियोंको और मस्तिष्कको ही माना जाये तो जड़ होनेके कारण इन्द्रियों और मस्तिष्कको उनका कत्ता मानना संभव नहीं होगा। प्रकार यही मानना था स्कर है कि उक्त दोनों प्रकार के ज्ञानोंका कर्ता तो जीव ही है, परन्तु वे ज्ञान जीवको इन्द्रियों और मस्तिष्कके सहारेपर ही होते हैं।
___इसी प्रकार यह भी अनुभवमें आता है कि जीव पौद्गलिक मनके सहारेसे संकल्प-विकल्परूप क्रिया करता है, पौद्गलिक वचनके सहारेसे बोलनेरूप क्रिया करता है और पौलिक शरीरके सहारेसे विशिष्ट प्रकारकी हलनचलनरूप क्रिया करता है । इसमें भी यदि यह कहा जाये कि ये सब क्रियायें जीवकी पौगलिक मन आदिके सहारेसे न होकर उसके स्वयंके सहारेपर ही होती है तो ऐसा कहना सम्पक नहीं है, क्योंकि उसकी जो संकल्प आदिरूप क्रियायें होती है वे यदि द्रव्यमान आदिके सहारेपर न होकर केवल उसके अपने सहारेपर होतो है ऐसा माना जावे तो पौदगलिक मन आदिके अभाव में भी उनको प्रसक्ति हो जायेगी । इस आपत्तिको दूर करनेके लिये यदि उन संकल्पादि क्रियाओंका कर्ता जीवको न मानकर द्रव्यमन आदिको हो उनका कर्ता माना जाय तो जड़ होनेके कारण उनका फी द्रव्यमन आदिको मानना संभव नहीं होगा। फलतः यही मानना श्रेयस्कर है कि वे सब संकल्प आदिरूप क्रियायें होती तो है जीवको ही, परन्तु वे पौद्गलिक मन आविके सहयोगसे हो हुआ करती हैं। अतः निर्णीत होता है कि द्रव्यमन, वचन और क्रायफे सहयोगपूर्वक संकल्प आदिके रूपमें पूर्वोक्त प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप क्रियायें जीयकी ही होती है। और वे जीवित शरीरको क्रियायें कहलाती हैं व उनसे जीवमें धर्म-अधर्म होते हैं ।
(४) उत्तरपक्षने आगे त० च० पू० ७९ पर यह कथन किया है--'प्रतिशंका २ द्वारा श्री तत्त्वार्थसूत्र आदिके उद्धरण देकर जो जीवित शरीरसे धर्मकी प्राप्तिका समर्थन किया गया है सो बह आस्रव का प्रकरण है। उस अध्याय में धर्मका निर्देश नहीं किया गया है। उसमें भी जहाँ कहीं निमित्तको अपेक्षा निर्देश मी हा है सो निमित्त तो अनेक पदार्थ होते है तो क्या इतने मात्रसे उन सबसे धर्मकी प्राप्ति मानी जावेगी। शरीर आदि पदार्थोको जहाँ भी निमित्त लिखा है सो यह विजातीय असद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षा ही निमित्त
कहा है।
इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि यह तो ठीक है कि तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ का कथन आस्रवके प्रकरणको ध्यानमें रखकर किया गया है। परन्तु जब उत्तरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म या अधर्म कुछ भी नहीं मानता है तो उसकी दृष्टि से वह जीवित शरीरको क्रिया आसबका भी कारण कैसे हो सकती है? पूर्वपक्ष तो यह मानता है कि जीवके महयोगसे होनेवाली शरीरको क्रियासे न तो धर्म होता है और न अधर्म ही होता है, परन्तु शरीरके सहयोगसे जो जीवकी क्रिया होती है वह यदि आसक्तिवश और अशक्तिवश होनेवाली संसार, कारीर और भोगों में प्रवृत्तिरूप है तो अधर्मका साधन है और यदि वह उक्त प्रकारको प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूपमें निवृत्तिरूप है तो वह धर्मका साधन हो जाती है । यही कारण है कि तत्वार्थसूत्रके सप्तम अध्यायमें जहाँ अहिंसा आदिको प्रवृत्तिके रूपमें मालधका कारण माना गया है वहाँ
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
नवम अध्यायमें अहिंसा आदिको हिंसादिमें प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूपमें धर्मका साधन माना गया है । उत्तरपक्षने इसी कथनमें जो यह लिखा है कि 'निमित तो अनेक पदार्थ होते हैं तो क्या इतने मानसे इन सबसे धर्मकी-प्राप्ति मानी जायेगी ? लो इसके विषय में मेरा कहना यह है कि जो निमित्त धर्मफे साधन हों उन्हें धर्म प्राप्तिका निमित्त मामा जाता है और जो निमित्त अधर्मप्राप्तिके साधन हों उन्हें अधर्मप्राप्तिका निमित्त माना जाता है तथा जिनसे धर्म या अधर्म किसीकी भी प्राप्ति न हो सके उन्हें वहां पर निमित्त ही नहीं माना जा सकता है। उत्तरपक्षने अपने इस वक्तब्यमें जो यह लिखा है कि 'शरीर आदि पदार्थोको वहाँ भी निमित्त लिखा है सो वह विजातीय असद्भुत व्यवहारमयको अपेक्षा ही निमित्त कहा है।' सो यह निर्विवाद है, परन्तु इसके संबंध मेरा यह कहना है कि अदभूत व्यवहारनयकी अपेक्षा जिसको निमित्त कहा है वह कार्यमें सहायक होने रूपसे कार्यकारिताके आधारपर ही कहा है, सहायक न होन रूपसे अकिंचित्करताके आधारपर नहीं, जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है । इसे प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट कर दिया गया है।
(५) उत्तरपक्षने अपने पशके समर्थनमें आगे त• च. पृ० ७९ पर ही स्वयंभू स्तोत्रका निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है
पदस्त गा गणतोषोनिमित्तमाभ्यन्तरमूलहेतोः ।
अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमाभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥५९|| इसका अर्थ उसने यह किया है कि 'अभ्यन्तर अर्थात् उपादानकारण जिसका मूल हेतु है ऐसी गुण और दोषोंकी उत्पत्तिवा जो बाह्य वस्तु निमित्त मात्र है, मोक्षमा पर आरूढ़ हए जीवके लिए बह गौण है, क्योंकि हे भगयन् ! आपके मन में उपादान हेतु कार्य करनेके लिए पर्याप्त है ॥५९॥
आगे तक च०५०८. पर उसने उक्त पद्यका अभिप्राय इस रूपमें लिखा है-'तात्पर्य यह है कि जो अपने उपादानवी सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार कार्यकालमें निमित्त अवश्य ही मिलते है । ऐसा नहीं है कि उपादान अपने कार्य करने के सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल ऐसे निमित्त न मिले । इस जीवका अनादिकालसे पर द्रध्यके साथ संयोग बना चला आ रहा है, इसलिये वह संयोग कालमें होनेवाले कायौंको जब जिस पदार्थका मयोग होता है उससे मानता आ रहा है, यही इसकी मिथ्या मान्यता है। फिर भी यदि जीवित शारीरकी क्रिया धर्म माना जावे तो मुनिके ईपिवसे गमन करते समय कदाचित् किसी जीवके उसके पगका निमित्त पाकर मरनेपर उस क्रियासे मुनिको भी पापबन्ध मानना पड़ेगा, पर ऐसा नहीं है। अपने इस अभिप्रायके समर्थनमें उसने सर्वार्थसिद्धिके 'वियोजयप्ति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते । (७-१३)' को भी उच्च त किया है और उसका उसने यह अर्थ लिखा है कि "दूसरेको निमित्त कर दूसरेके प्राणोंका वियोग हो जाता है, फिर भी वह हिंसाका भागी नहीं होता है।" और अन्तमें उसने यह निष्कर्ष लिखा है कि 'अतएव प्रत्येक प्राणीको अपने परिणामोंके अनुसार ही पुण्य, पाप और धर्म होता है। जीवित शरीरको क्रियाके अनुसार नहीं, यही निर्णय करना चाहिए और ऐसा मानना ही जिनागमके अनुसार है।'
आगे इसकी समीक्षाफी जाती है
स्वयंभू स्तोत्रके उल्लिखित पद्यका बास्तविक अर्थ यह है कि 'अभ्यन्तर अर्थात अंतरंग परिणाम जिसका मूल हेतु है ऐसे गुणों और दोषोंबी उत्पत्तिका जो बाह्य वस्तु निमित्त अर्थात् अवलम्बन है अध्यात्ममें प्रवृत (लोकोत्तर) जनके लिए वह बाह्य वस्तु जिसका अंग अर्थात् गौण रूपले सहायक बनी हुई है ऐसा अंतरंग परिणाप केवल भी हे भगवन् ! आपके मतमें समर्थ है ।'
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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महाँ प्रकरण भगवान वासुपूज्यकी भक्ति करनेका है। लौकिक और लोकोत्तर दोनों जनोंके भक्ति करनेके प्रकारमें यह अन्तर पाया जाता है कि जहाँ लौकिकजन भक्ति करनेमें चित्तकी स्थिरताके लिए बाह्य वस्तुका अवलम्बन लेता है वहाँ लोकोत्तरजन चित्त स्थिर हो जानेसे भक्तिके विषय में बाह्य वस्तुका अवलम्बन लेनेका प्रयत्न नहीं करता है। यह बात अवश्य है कि वहाँ भी बाह्य वस्तुका यथायोग्य सहयोग रहा करता है । इस तथ्यको समझने के लिए स्तोत्रके पांचों पद्योंके समन्वित अभिप्रायपर ध्यान देना आवश्यक है। अतः यहाँ उनका समन्वित अभिप्राय प्रगट किया जा रहा है ।
स्वामी समन्तभदने स्तोत्रके प्रथम पद्य में बतलाया है कि हे भगवन् ! आप कल्याणकारी अभ्युदयकी क्रियाओंम पूज्य होनसे देवेन्द्रों द्वारा पूज्यताको प्राप्त होने के कारण वासुपूज्य कहलाते हैं, अतः आप मेरे द्वारा भी पूज्य है। इस तरह स्वामी समन्तभद्रने सर्वप्रथम इस पद्य वारा भगवान ओर अपनेमें पूज्य-पूजक भावका विधान किया है। दूसरे पक्ष में बतलाया है कि हे भगवन् ! राग और द्वेषसे रहित होने के कारण आपका पूजा या निदासे कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि आपके पवित्र गुणोंका स्मरण करनेसे मेरा अन्तःकरण अवश्य पवित्र हो सकता है । इस तरह पूजाके फलका दिग्दर्शन कराकर स्वामी समन्तभद्रने भगवान की पूजामें की जानेवाली अपनी प्रवृत्तिको उचित सिद्ध किया है। तीसरे पद्ममें बतलाया है कि हे भगवन् । आपकी पूजामें प्रवृत्त जनको कुछ सायद्य प्रवृत्ति भी करनी पड़ती है, परन्तु पुण्यकी बहुलताके सामने वह नगण्य है। इस तरह स्वामी जीने प्रजामें पुजक द्वारा स्वीकृत वा वस्तु के अवलम्बनको उचित ठहराया है। चौथे पद्यमें बतलाया है कि अन्तरंग परिणाम जिसका मूल हेतु है ऐरो गुम और दोषको उत्पत्तिमें जो बाह्य वस्तु निमित्त अर्थात् अवलम्बन होती है लोकोत्तर जनके लिए वह बाह्य पस्तु जिसका अंग बनी हुई है ऐसा अन्तरंग परिणाम केवल भी है भगवन् ! आपके मतमें समर्थ है। इस तरह उन्होंने चित्तको स्थिरताके लिए पूजकको पुजामें बाह्य वस्तुका अवलम्बन उपादेय बतलाते हुए लोकोत्तर जनके लिए चित्त की स्थिरता विद्यमान रहने के कारण उस बाह्य वस्तुको अन्तरंग परिणामका अंग बतलाकर अंतरंग परिणामकी प्रधानताको बतला दिया है। पांचवे पद्यमें बतलाया है कि कार्योत्पत्तिको सम्पन्नता बाच और अन्तरंग सामग्रीको समग्नता पर ही निर्भर है ऐसा द्रव्यका स्वभाव है। इस तरह उन्होंने कार्योत्पत्ति में बाह्य वस्तुमें अन्तरंग परिणामके प्रति अंगताका समर्थन किया है।
इस विवेचगसे यह निर्णीत होता है कि उत्तरपक्षने स्वयंभू स्तोत्रके उक्त पद्य ५९से जो यह निष्कर्ष निकालने की बेष्टा की है कि कार्योत्पत्ति में उपादान ही समर्थ कारण है, निमित्त वहाँ सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है सो उसकी यह चेष्टा निरर्थक ही है, क्योंकि इस पद्यमें एक तो लौकिक जनके लिए भगवानको पूजामें बाह्म वस्तु के अवलम्बनका समर्थन किया गया है । दूसरे लोकोत्तर जनके लिए बाह्य वस्तुके अवलम्बनका सर्वथा निषेध नही किया गया है। किन्तु उसे उसका अंग मान लिया गया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिस प्रकार लौकिक जन भगवानकी भक्ति के लिए जिस प्रकारकी बाह्य सामग्रीका चित्तकी स्थिरताके लिए अवलम्बन लिया करते हैं उस प्रकार लोकोत्तरजनको स प्रकारको बाह्य सामग्रीका अवलम्बन लेना आवश्यक नहीं रहता, क्योंकि उनका चित स्थिर हो जाता है। फिर भी वे भी भगवानकी प्रतिमा मादिका जो अवलम्बन तो लेते हैं सो इतना अवलम्बन लेना उनके लिए अनुचित नहीं है। तीसरे, भगवानको भक्ति लौकिकजन या लोकोत्तर जन दोनों ही द्रश्यमन, वचन (मुख) और कायके अवलम्बन पूर्वक ही किया करते है । उनमेंसे अन्तरंग परिणाम पूजकको भाववती शक्ति का मानसिक परिणमन है और बहिरंग परिणाम
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जयपुर (स्लानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
पूजककी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमन है। इनभेमे अन्तरंग परिणाम जो मानसिक परिणमन है वही प्रधान रहता है, क्योंकि यदि अन्तरंग परिणाम भक्ति करनेका न हो तो वाचनिक और कायिक बाह्य परिणामोंको आगममें निरर्थक बतलाया है और अनुभव भी यही बतलाता है । यही कारण है कि लौकिक जनके लिए चित्तको स्थिरता न रहने के कारण उनकी उस स्थिरताके लिए बाह्य वस्तुका अबलम्बन लेना आवश्यक बतलाया गया है और लोकोत्तर जनके लिए चिप्स स्थिर हो जानेके कारण बाह्य वस्तुका अवलम्बन यद्यपि आवश्यक नहीं बतलाया है, फिर भी प्रतिमा आदिका अवलम्बन गौणरूपसे लेने में असंगति भी नहीं है, इतना ही आशय स्वयंभू स्तोत्रके उक्त चतुर्थ पद्य का ग्रहण करना चाहिए ।
महाँ मैं एक बात यह भी कहना चाहता हूँ कि उसरपक्षने स्वयंभू स्तोत्रके उक्त पय ५९ का उद्धरण कार्योत्पत्तिमें निमित्तकी अकिंपित्करता सिद्ध करने के लिए ही दिया है और इसीलिये उसने उम पद्य के 'तदंगभूते' पदको स्वतंत्रपद मानकर उराका अर्थ अपने मतके अनुसार किया है । परन्तु वह यदि स्वयंभूस्तोत्रके ही पद्य ६० पर ध्यान देता तो वह ऐसा गलत प्रयत्न कदापि नहीं कर सकता था। दूसरी बात यह भी कह वेना चाहता हूँ कि उसने "तदंगभूतम्" पदमें पठित "अंग" शब्दका "मौण' अर्थ स्वीकार किया है जो बहाँपर कार्योत्पत्ति में निमित्तभूत बाह्य वस्तुको मानो तो सिर का विम जसको कामचित्करताको नहीं । उत्तरपक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए था ।
उत्तरपक्षने अपने वक्तव्य में तक च० ० ८० पर यह लिखा है कि "यदि जीवित शरीरको क्रियासे धर्म माना जावे तो मुनिको ईपिथसे गमन करते सगय कदाचित् किसी जीवके उसके पगका निमित्तपाकर, मरने पर उस क्रियासे मुनिको पाप बन्ध मानना पड़ेगा।" तथा अपने इस मन्तब्यके समर्थन में उसने सर्वार्थसिद्धिके बचनको भी उद्धृत किया है सो उसे मालम होना चाहिए था कि उसका यह सब कथन जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा ही संगत हो सकता है, शरीरके सहयोगसे होने वाली जीवक्री क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियाकी अपेक्षा नहीं। इसका कारण यह है कि शरीरके अंगभूत मन, वचन और कायके सहयोगसे जोन द्वारा किया गया प्रयत्न और साथ ही इनके सहयोगसे होनेवाली जीवकी निसर्गतः होने वाली योग रूप क्रिया ये दोनों कर्मबन्धका ही कारण होते है।
तात्पर्य यह है कि जीवकी क्रियावती दाक्तिका पौद्गलिक मन, वचन और कायवे सहयोगसे जो कियारूप परिणमन होता है वह एक तो जोव द्वारा प्रयत्नपूर्वक्र किया जाता है जिसे पुरुषार्थ कहते हैं और दूसरा बिना प्रयत्न के प्राकृतिक ढंगरो हुशा करता है जिसे योग कहते हैं । मन, वचन और कायफे सहयोगसे होने वाले ये दोनों क्रियारूप परिणमन नियमसे कर्मके प्रकृति और प्रदेश बन्यके निमित्तकारण हुआ करते हैं। यत: पुरुषार्थरूप जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन नियमसे भावयतो शक्तिके परिणमन स्वरूप अन्तरंग परिणाम रूप कषायभाबरो अनुरंजित रहा करता है अतः उस अवसरपर कर्मके स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध भी हुआ करते हैं।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवबो प्रवृत्ति रूप जीवित शरीरकी क्रिया तो हर हालतमें बन्धका ही कारण होती है। इसके अतिरिके जोकके सहयोगसे होने वाली शरीरकी प्रवत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रिया कभी भी बन्धका कारण नहीं होती है। इस तरह सर्वार्थसिद्धिक उन बचनका यही अभिप्राय लेना चाहिए कि जो मुनि सावधानी पूर्वक ईपिथसे गमन कर रहा हो उसकी यह
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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क्रिया तो नियमसे बन्धका कारण है। परन्त यदि कोई जीव उस अघरार पर उसके पगसे अनायास दब कर मरणको प्राप्त होता है तो जराका निमित्त शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको कदापि नहीं माना जा सकता है, प्रत्युत जीव के निमित्तसे होनेवाली पारीरकी क्रिया ही उसका निमित्त होती है, ऐसा मानना ही युक्तिसंगत है। इसमें निणीत होता है कि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियाजन्य प्राणिवधका अपराध जीब नहीं है, इसलिये उससे जीवको कर्मबन्ध नहीं होता। इतना अवश्य है कि गमनक्रियाजन्य वन्य जीवो उस समय भी होता है, क्योंकि वह गमनक्रिया शरीरके सहयोगसे होनेवालो जीवको ही किया है।
(६) उत्तरपक्षने त० ५० पृ० ७८ पर निर्दिष्ट अपने वक्तव्यमें जो यह लिया है कि "जो उपादानकी सम्हाल करता है उसके लिए उपादान के अनुसार कार्यकालमें निमित्त अवश्य ही मिलते है। ऐसा नहीं है कि उपादान अपना कार्य करनेके सम्मख हो उसे कार्य में अनुकल ऐसे निमित्त न मिलें। इसके संबंध मेरी समीक्षा निम्न प्रकार है :
(क) यहीं पर "जो उपादानकी सम्हाल करता है" इस कथनसे उत्तरपक्षका क्या अभिप्राय है। यह स्पष्ट नहीं होता । मेरा तो यह बह्नना है कि ममक्ष जीवका भोक्ष प्राप्त करने के लिए कर्मबन्धकी कारणभूत पूर्वोक्त मानसिक, वाचनिक और काचिक संसारिक प्रवृत्तियोंमें मनोगप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिकप पुष्पार्थ करना ही अपने उपादानकी सम्हाल करता है, क्योंकि ऐसा करने से ही उस मुमुक्ष जीवमें मोक्षके कारणभूत कर्मसंबर और कर्मनिर्जरण होते हैं । यदि उत्तरपक्ष भी उपादानकी सम्हाल करनेका यही अभिप्राय मान्य करता है तो प्रकृत विषयमें पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंक मध्य विवाद नहीं रह जाता है, कारण कि इस तरह पूर्वपक्षकी पूर्वमें स्पष्ट की गई शारीरके सहयोगरा होनेवाली जीवक्री क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होने की मान्यता निविवाद हो जाती है।
(ख) उत्तरपक्षक "जो उपादानको सम्हाल करता है" इत्यादि कथनके आधार पर उसके सामने यह विकल्प भी अनायास ही खड़ा हो जाता है कि जो जीव अपने उपादानको सम्हाल नहीं कर रहा है उसको कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त मिलते ही नहीं हैं या प्रतिकूल निमित्त मिलते हैं ? यदि उसको निमित्त मिलते ही नहीं है-ऐसा माना जाये तो उस समय उपादानको क्या स्थिति रहती है। यह बात स्पष्ट करनेकी समस्या उत्तरपक्ष के सामने खड़ी हो जाती है और यदि प्रतिकूस निमित्त मिलते हैं--ऐसा माना जाए तो उसके सामने उसकी मान्यताके विरुद्ध यह बात प्रसक्त होती है कि उस समय उन प्रतिकूल निमित्तोंके योगसे उपादानमें प्रतिकूल कार्य भी नियमसे होना चाहिए जिसका निराकरण करना उत्तरपेक्षके वशकी बात नहीं है।
(ग) जहाँ तक उपादामकी सम्हाल करनेकी बात है-यह चेतन होने के कारण जीवका ही कार्य हो सकता है, अचेतन होने के कारण अजीवका कार्य कदापि नहीं हो सकता। परन्तु कार्योत्पत्ति जीव और अजीच दोनों में होती है, इसलिये जीवके लिए अपने उपादानकी सम्हाल करनेका क्या प्रयोजन रह जाता है ? यदि कहा जाए कि जीवको अपने उपादानकी सम्हाल करनेका प्रयोजन यह है कि कि ऐसा करनेसे उसका अभिलषित कार्य सम्पन्न हो सकता है, अन्यथा अभिलषित कार्य के प्रतिकूल भी कार्य सम्पन्न हो सकता है, तो इसके पूर्व उत्तरपक्षको यह मान्य करना आवश्यक है कि निमित्त उपादानकी कार्योत्पत्तिम कार्यकारी ही होता है, अकिंचित्कर नहीं ।
(घ) उत्तरपक्षका कहना है कि "जो उपादानको सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा कार्यकालमें निमित्त अवश्य ही मिलते हैं ।" इस पर मेरा कहना है कि उत्तरपक्षा उपादानसे होने वाले कार्यमें निमितको जब अकिंचित्वर ही मानता है तो उपादानके अनुसार कार्यकालमें निमित्त मिलने न मिलनेका उत्तरपक्षके लिए क्या महत्त्व रह जाता है ? पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि जिस समय जैसे निमित्त मिलते हैं या मिलाये जाते हैं उस समय उस उपादानसे उसकी योग्यताके आधारपर उन निमित्तोंके अनुकूल ही कार्य निष्पन्न होता है।
(च) लत्तरपक्षका यह भी कहना है कि उपादान जम अपना कार्य करनेके सम्मुख होता है तब उस कार्यके अनुकूल निमित्त अवश्य ही मिलते हैं । लेकिन उसकी यह मान्यना मिथ्या है, क्योंकि प्रश्नोत्तर एकको समीक्षामें प्रमाणों के आधारपर मैं स्पष्ट कर चुका है कि उपायान की कार्य के प्रति सम्मुखता प्रेरक निमित्त के जलसे ही होती है और वहीं पर यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि उपादानम कार्योत्पत्ति के लिए उदासीन मिनितोंका सनाव जाधक कारणों का अभाव भी अपेक्षित रहता है ।
इस विवेचनसे निर्भाव होता है कि उत्तरपक्षका "जो उपादानकी सम्हाल करता है" इत्यादि कथन अनर्गल प्रलाप मात्र है और जो उसके स्वयंके लिए एक मुसीबत है।
(७) इस विवेचनसे उत्तरपक्षका "इस जीवका अनादिकालसे परद्रव्यके साथ संयोग बना चला आ रहा है। इसलिये वह संयोग कालमे होनेवाले कायोंबो जन जिस पदार्थका संयोग होता है उरासे मानता चला आ रहा है। यही उसकी मिथ्या मानता है।" यह कथन भी महत्वहीन हो जाता है। तत्वजिज्ञासुओंको इस पर ध्यान देना चाहिये।
(८) उत्तरपक्षने अपने प्रकुत वक्तव्यके अन्त में जो यह लिखा है कि 'अतएव प्रत्येक प्राणीको अपने परिणामों के अनुसार ही पुष्प, पाप और धर्म होता है, जीवित शरीरको क्रियाके अनुसार नहीं-यही पहा निर्णय करना चाहिए और ऐसा मानना हो जिनागम के अनुसार है।" सो में स्पष्ट कर चुका हैं कि जोधकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म अधर्ममें शरीरके अंगभूत द्रव्यमान, वचन और शरीर तीनोंके सहयोगसे होनेवाली तथा जीवकी क्रियावती दाक्तिके परिणामस्वरूप शुभ और अदाम प्रवृतिरूप तथा इस प्रकारको प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचन गुप्ति और कायंगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप जीवित शरीरको क्रिया ही यथायोग्यरूपमें कारण होती है। इस तरह उत्तरपक्षके "प्रत्येक जीबके परिणामोंके अनुसार ही पुण्य, पाप और धर्म होते है।" इस कथनमें कोई विवाद नहीं रह जाता है, क्योंकि जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप पुण्य, पाप और धर्म में जीवके जिन परिणामोंको उत्तरपक्ष कारण मानता है के परिणाम निविवादरूपस जीवको भानवती शक्तिके ही परिणमन है तथा उनकी प्रेरणासे शरीरके अंगभूत द्रश्वमन, वचन और शरीरके सह्योगसे होने वाली जीवकी कियारूप जीक्ति शरीरकी क्रियायें जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमन है । इसके आधारपर मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं, कि "प्रत्येक प्राणीको अपने परिणामोंके अनुसार पुण्य, पाप और धर्म होता है" इस कयनका अभिप्राय उत्तरपक्षको इस रूपमें ग्रहण करना बाहिए कि जिस जीक्ति शरीरको क्रिया में जीवका उपयोग लग रहा हो वह तो जीवकी क्रिया है और जिस जीवित शरीरकी क्रियामें जीवका उपयोग नहीं लग रहा हो वह जीवकी क्रिया न होकर वह शरीर की ही क्रिया है। इस तरह पृथ्य, पाप और धर्म जीवकी क्रियारो ही सिद्ध होते है शरीकी क्रियासे नहीं । इस तरह यदि उत्तरपक्ष मेरे इस कथन पर ध्यान देता है तो उसे पूर्व पक्षको जीवित शरीरको क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है-इस मान्यताको स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
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शंका-समाधान २ को समीक्षा
४. प्रश्नोंत्तर २ के तुतीय बौरकी समीक्षा तृतीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने आने तृतीय दौरमें सर्वप्रथम यह स्पष्ट किया है कि उत्तरपक्षने अपने उत्तरमें हमारे प्रश्नका उत्तर नहीं दिया है। इसके पश्चात् उसने उत्तरपक्षके द्वितीय दौरकी सामग्रीकी आगम प्रमाणोंके आधारपर आलोचना करते हा आगम प्रमाणों के आधारपर ही यह सिद्ध करनेका प्रयत्न क्रिया है कि जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है । तृतीय दौरमें उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौर में त० च०प० ८५ पर सर्वप्रथम 'प्रथम और द्वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार' शीर्षकसे अन्तर्गत अपने प्रथम और द्वितीय दोनों दौरोंकी सामग्रीको संगति बिठलानेका प्रयत्न किया है जो निम्न प्रकार है :
(१) 'इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें हमने सर्वप्रथम यह स्पष्ट कर दिया था कि जीवित शरीरकी क्रिया पदगल द्रश्यकी पर्याय है इसलिये उसका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव होता है। वह न तो जीवका धर्मभाव है
और न अधर्मभाव ही। दूसरी यह बात स्पष्ट कर दी थी कि इसकी नोकर्मम परिगणना की गई हैं। अतएव जीवभावमें यह निमित्त मात्र कही गई है। किन्तु निमित्त कथन असदभत्त व्यवहारनयका विषय होने से इस कथनको उपचरित ही आनना चाहिए।'
(२) "किन्तु अपरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाका भजीव तत्वमें अन्तर्भाव करने के लिए तैयार नहीं है । इसका खुलासा करते हुए प्रतिशंका २ में उसका कहना है कि 'जीवित शरीरको सर्वथा अजीव तत्त्वमें मान लेनेपर जीवित तथा मृतक शरीरमें कुछ अन्तर नहीं रह जाता' इस प्रतिशंकामें अन्य जो कुछ भी कथन हुआ है वह इसी आशयकी पुष्टि करता है।"
(३) 'अतएव इसके उत्तरमें निश्चय-व्यवहार धर्म का स्वरूप बसलाकर हमने लिखा है कि शरीर शरीरकी क्रियामें एकत्व बुद्धि यह अप्रतिबुद्धका लक्षण है। मतएव सम्यग्दृष्टि इससे धर्मको प्राप्ति नहीं मानता । अधर्मकी प्राप्ति भी उससे होती है ऐसी भी मान्यता उसकी नहीं रहती। वह तो कार्यकालमें निमित्त मात्र है।'
उत्तरपक्षके इन तीनों अनुच्छेदोंकी समीक्षामें मेस मात्र' इतना ही कहना है कि यदि उत्तरपक्ष मेरे प्रकृत प्रपनोत्तरकी सामान्य समीक्षाक प्रश्रम और प्रितीय दोनों दौरोंकी समीक्षाक कथनोंपर ध्यान देता है तो उसे अपनी प्रकृत विषय सम्बन्धो भूतका पता हो सकता है। इसलिये इस विषयमें मुझे यहाँपर अब कुछ कहना शेष नहीं है।
उत्तरपक्षने अपने प्रथम और द्वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार' शीर्षक के अन्तर्गत उक्त कथनके आगे 'प्रतिशंका तीनके आधारसे विचार' शीर्षकसे पूर्वपक्षके तृतीय दीरकी सामग्रीकी आलोचना करते हुए अपने मन्तव्यके समर्थनमें जो कुछ लिखा है उसकी समीक्षा यहाँ यथाक्रमसे की जाती है।
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कथन १ और उसकी समीक्षा
सर्वप्रथम ० ० पृ० ८५ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है- 'हमने प्रथम उत्तरमें ही यह स्पष्टीकरण किया हैं कि जीवित वारीरकी क्रिया जीवका न तो धर्म है और न अधर्म ही । इसपर अपरपक्षका कहना है कि यह हमारे मूल प्रश्नका उत्तर नहीं है। समाधान यह है कि यदि जीवित शरीरकी क्रियारो धर्म-अधर्मकी प्राप्ति स्वीकार की जाये तो उसे आत्माका धर्म-अधर्म भी मानना अनिवार्य हो जाता है ।' आगे इस कथन के समर्थन में उसने ( उत्तरपक्षने) समयसारगाथा १६७ और रत्नकरण्ड श्रावकाचार पथ को उद्धत करते हुए लिखा है कि 'जो धर्म और अधर्मके कारण हैं वे स्वयं धर्म और अधर्म भी है।' इसकी समीक्षा निम्न
प्रकार है
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
(क) पूर्वपक्षके प्रतिशंका २ और ३ के विवेचनों पर ध्यान देनेसे यह बात समझ में आती है कि उसे उत्तरपक्ष की जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाको पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानकर उसे अजीव तत्यमें असंभूत करने और उससे आत्मायें धर्म-अधर्म न माननेके विषय में कुछ भी आपत्ति नहीं है। मैंने अपनी प्रकृत विषय संबंधी समीक्षा में भी इस बात को स्पष्ट कर दिया है । परन्तु वहीं पर मैंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पूर्वपक्षकी एक अन्य मान्यता यह भी हैं कि शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिम पुद्गल द्रव्यकी पर्याय न होकर जीनकी ही पर्याय है अतः उसका अन्तर्भाव अजीव तत्व में न होकर जीव तत्वमें ही होता है व वह क्रिया आत्मा में होनेवाले धर्म और अधर्ममें कारण भी होती है । और मैंने अपनी उक्त समीक्षामें यह भी स्पष्ट किया है कि पूर्वपक्षका प्रश्न भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया विषयमें न होकर शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित दारीरकी क्रिमाके विषय में हो है ।'
(ख) उत्तरपक्ष के द्वारा पूर्वपक्ष की शंका एक व प्रतिशंका र और ३ के विषयमें दिये गये उतरोंपर ध्यान देने से यह बात समझमें आती है कि वह पक्ष जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया के समान शरीर के सहयोग से होनेवाली जौवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाको भी पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानकर उसको अजीव तत्वमें ही अर्न्तभूत करता है और उससे भी वह आत्मामें धर्म और अधर्म नहीं मानना चाहता है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि दाँतों से काटना, मारना पीटना, तलवार - बन्दूक - लाठी चलाकर दूसरोंका पात करना, पूजा-प्रशाल करना, सत्पात्रोंको दान देना व अणुव्रत महाव्रत आदिको धारण करना आदि क्रियायें भी पुद्गल द्रव्यकी पर्यायें हैं। अतः उनका अजीव तत्वमें हो अन्तर्भाव होने से उनसे आत्मामें धर्म और अधर्म नहीं होते हैं। परन्तु उत्तरपक्षकी इस प्रकारकी मान्यताको में अपने विवेचन में आगमविरुद्ध स्पष्ट कर चुका हूँ। और में वहीं यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि दाँतोंसे काटना आदि उक्त सभी क्रियायें पुद्गल की पयें न होकर जीवकी ही पर्यायें हैं। केवल इतनी बात अवश्य है कि वे जीवकी पर्यायें होकर भी पुद्गल के सहयोगसे हुआ करती है। अतः उनका अन्तर्भाव अजीव तत्व में न होकर जीव सत्व में ही होता है और उनसे आत्मायें धर्म और अधर्म हुआ करते हैं।
(ग) मैंने प्रकृत विषय के संबंध में सामान्य समीक्षायें तथा प्रथम और द्वितीय दोनों दौरोंकी समीक्षा में यह भी स्पष्ट किया है कि "जीवित शरीरको क्रिया" इस पदमें पठित 'शरीर' शब्दसे शरीर के अंगभूत द्रव्यमन, वचन और काय इन तीनोंका ग्रहण विवक्षित है तथा इन तीनोंके क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियायें जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमन हैं
सहयोग से होनेवाली जीवकी व धर्म और अधर्म आत्माकी
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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भारपती शक्तिके परिणमन हैं। एवं वे सभी क्रियायें आत्मामें उक्त धर्म और अधर्मके होने में कारण होती है। इस तरह जीयकी क्रियायती शक्तिके परिणमन स्वरूप जोवित शरीरको क्रियाओंमें और आत्माकी भावबती शक्तिके परिणमन स्वरूप धर्म और अधर्ममे कार्य-कारणभाव सिद्ध हो जानेसे यह निर्णोत हो जाता है कि जीवकी वे क्रियायें स्वयं धर्म और अधर्म रूप नहीं हैं। इतना अवश्य है कि जीयकी उन क्रियाओंको जीवके ही अर्म और अधर्म रूप परिणमनोंमे कारण होनेसे व्यवहार रूपसे धर्म और अधर्म कहा जाना आगमसे समर्थित होनेसे पूर्वपक्षको मान्य है।
(4) मेरे इस विवेचनसे उत्तरपक्षका 'यदि जीवित धारीरकी क्रियासे धर्म और अधर्मकी प्राप्ति स्वीकारकी जाये तो उसे आत्माका धर्म-अधर्म भी मानना अनिवार्य हो जाता है। यह कथन भी निरर्थक हो जाता है।
(च) मैंने प्रकृत विषयके सामान्य समीक्षा-प्रकरण में यह भी साष्ट कर दिया है कि शरीरके अंगभूत व्रज्यमन, वचन और कायके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप जीवित शरीरकी क्रिया यदि संसार, शरोर और भोगों के प्रति अथना देवपूजा आदिके प्रति प्रवृत्तिरूप हो तो उसे जीवके साथ यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मों के होनेत्राले बन्धमें कारण होनेसे जीवके अधर्मभाश्रमें कारण माना गया है तथा वह जीवित शरीरकी क्रिया यदि उक्त प्रकारकी शुभ और अशुभ प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और फायगुप्तिके रूपमें निवृतिरूप हो तो उसे कर्मोंके संबर और निर्जरण में कारण होनेसे जीवके धर्मभावमें कारण माना गया है।
(छ) इस विवेचनसे यह बात भी समझ में आ जाती है कि जीवकी उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिरूप व उस प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रियासे कर्मोका यथायोग्य बन्धया संवर और निर्जरण होना ही जीवकी क्रियावती शक्तिकी सार्थकता है। यतः उत्तरपक्ष शरोरके गंगभूत यमन, वचन और कायके सहयोगसे होनेवाली 'दांतोंसे काटना' आदि उल्लिखित प्रवृत्तिरूप शुभ और अशुभ क्रियाओंको ओर उन प्रवृत्तिरूप दाभ और अशुभ क्रियाओंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप क्रियाओंको जीवकी पर्याय न मानकर पुद्गलकी ही पर्याय मानता है, अतः इन प्रवृत्तिरूप और निवृत्तिरूप क्रियाओंमें जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म और अधर्मको कारणताका अभाव सिद्ध हो जानेसे वह पक्ष उक्त धर्म और अधर्मकी कारणता पूर्वक्षणवर्ती जीवको भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म और अधर्म ही मान लेना चाहता है जिससे उसके सामने जीवको क्रियावती शक्तिकी क्या सार्थकता है ? यह प्रपन विचारणीय हो गया है जिसका समाधान करना उसके वशकी बात नहीं है।
(ज) इसके अतिरिक्त तत्वार्थसूत्रके 'कायवाङ्मनः कर्म योगः (६-१)' और 'स आस्त्रधः (६-२)' सूत्रोंपर तथा आगमके अन्य इसी प्रकारके वचनोंपर भी ध्यान दिया जाये तो समझमें आ सकता है कि जीव के साथ पोद्गलिक कर्मोक बन्धका मुख्य कारण जीवकी क्रियावती शक्तिकी मानसिक, वानिक और कायिक अर्थात् मन, वचन और कायके अवलम्बनसे होने वाली प्रवृत्ति रूप क्रिया ही है जिसे आगममें योग नामसे कहा गया है। यद्यपि इस योगसे सामान्यतया कोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्य ही होते है, परन्तु यह योग जबतक कषायोदयमे अनुरंजित रहता है तब तक इससे कर्मों के प्रवृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भी होते हैं । और जब इसमें कषायका अनुरंजन समाप्त हो जाता है तब केवल प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ही कोंके होते हैं, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध तब नहीं होते । और जब उक्त प्रकारके
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
योगका जीव में सर्वथा अभाव हो जाता है तब कर्मोके प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध भी समाप्त हो जाते हैं । यह विवेचन पूर्व में किया जा चुका है।
इस विवेचन से मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपनी मान्यताके समर्थन में और पूर्वपक्षकी मान्यता के विरोध में जो समयसार गाथा १६७ का उद्धरण अपने वक्तव्य में दिया है उसका यही आशय ग्रहण करना युक्तिसंगत है कि जीव की क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियारूप परिणमन जबतक बद्ध कर्मोंके उदयसे प्रभावित जीवको भाववती शक्तिके रागादि रूप परिणमनसि प्रभावित रहता है तबतक हो जीवके साथ कर्मोका बन्ध स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके रूप में होता है। उक्त गायाका यह आशय कि 'जब तक जीनकी भारतीय पनि होता रहता है तब तक ही कर्मोंका बन्ध हुआ करता है और जब उसका रागादिरूप परिणमन समाप्त हो जाता है तब कर्मोका बन्ध समाप्त हो जाता है' ग्रहण करना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जीवकी नाथवती शक्तिके रागादि रूप परिणमनों की समाप्ति हो जानेपर भी जीवकी क्रियावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियारूप परिणमनोंके आधारपर कर्मोंके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध चालू रहते हैं । अतः उनका कारण जीवको भाववती शक्तिके परिणमनोंको न माना जाकर उसकी क्रियावतो शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोंको हो उक्त आगम वचनोंके आधारपर माना जा सकता है। इसपर उत्तरपक्षको विचार करनेकी आवश्यकता है ।
इस तरह उत्तरपक्षने अपनी मान्यता के समर्थन में जो रत्नकरण्ड श्रावकाचारके पद्य ३ का उद्धरण दिया है उसका आशय भी निश्चयरूपमें इस रूप ग्रहण करना चाहिए कि मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर जीवको भाववती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनके रूपमें निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र प्रकट होते हैं व मोहनीय कर्मके उदयके आधारपर जीवको भाववती शक्ति के विभा भूत परिणमनके रूपमें निश्चय मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र प्रगट होते । जिनके प्रगट होने की व्यवस्था निम्न प्रकार है
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(क) दर्शनमोहनीय कर्मके भेद मिथ्यात्व कर्मके उदय में जीव की धद्धारूप भाववती शक्तिके विभाव परिणमनके रूप में निश्चय मिथ्यादर्शन रूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
(ख) दर्शनमोहनीय कर्मके ही भेद सम्परिमथ्यात्व कर्मके उदय में जीवकी श्रद्धारूप भाववती शक्तिके विभाव और स्वभाव के मिश्रित परिणमन के रूपमें निश्चयसम्यग्मिथ्यात्व रूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
(ग) दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें जीवको प्रारूप शक्ति के स्वभाव परिणमनके रूपमें औपशमिक क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चय सम्यग्दर्शनरूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
( ) दर्शनमोहनीय कर्मके उपय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम में उक्त निश्चयमिध्यादर्शन, निश्चयसभ्य मिथ्यादर्शन और निश्वयसम्यदर्शनके समान ही जीवकी ज्ञानरूप भाववती शक्तिके यथायोग्य विकृत, विकृताविकृत और भविकृत परिणमनके रूपमें निश्चय मिथ्याज्ञान आदि रूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
(च) मोहनीय कर्म अनुबन्ध कषायके उदयमें जीवको चारित्ररूप भाववती शक्तिके विभाव परिणाम के रूप में निश्चयः मिथ्याचारित्ररूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
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शंका-समाधान २की समीक्षा
(छ) उक्त अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशममें उक्त निश्चय मिथ्याचारित्रके अभावके साथ चारित्रमोहनोयकर्मके ही भेद अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायोंके उदयम जीवकी चारित्ररूप भाववती शक्तिके विशिष्ट प्रकारके विभाव परिणमनके रूपमें निश्चम अविरतिरूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
(ज) अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशममें उक्त निश्चय मिथ्याचारित्रके अभावके साथ अप्रत्याश्यानतरण कषायके म्योपशममें जीवको चारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूप में निश्चयदेशविरतिरूप आत्मस्थिति हुआ करती है।
(झ) अनन्तानबन्धी कषावके उपराम, क्षय या क्षयोपशममें उक्त निश्चय मिथ्याचारित्रके अभाव साथ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंके क्षयोपशममें जीव की चारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूपमें निश्चय सर्वविरतिरूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
(ट) सम्पूर्ण चारित्रमोहनीय कर्म के उपशममें जीवको बारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूपमें निश्चय औपशामिक चारित्ररूप आत्मस्थिति हुआ करती है। इसे यथाख्यातचारित्र भी कहा जाता है।
(ठ) सम्पूर्ण चात्रिमोहनीय कर्मके क्षयमें जीवको चारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूपमें निश्चय क्षायिकचारित्ररूप आत्मस्थिति हुआ करती है । इसे भी मथाख्यातचारित्र' कहा जाता है । - इसी प्रकार रत्नकरण्डनावकाचरके पद्य ३ का आशय व्यवहार रूपमें भी इस रूप ग्रहण करना चाहिए कि जीवको जो भाववती और क्रियावती ये दो शक्तियाँ हैं उनमें भाववती शक्तिका एक परिणमन तो मस्तिष्कके सहारेपर च्यवहार मिथ्याज्ञान और व्यवहार सम्यग्ज्ञान रूप होता है और दूसरा परिणमन मन (हृदय) के सहारेपर व्यवहार मिध्यादर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन रूप होता है तथा क्रियावती शक्तिका परिणमन भो मन, वचन और कायके सहारेपर व्यवहार मिथ्याचारित्र और व्यवहार सम्यक्चारित्र रूप होता है । इनकी व्यवस्था निम्न प्रकार है।
(क) जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर व्यवहार मियाज्ञानके रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव लत्त्वको अतत्त्व और अतत्त्वको तत्व समझता रहता है तथा वीतरागी देव, वीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरुन गुरुको अहितकर व सरागी देव, सरागताके पोषक शास्त्र और ससमताके मार्गपर आरून गुरुको हितकर समझता रहता है | इसे जीवका अज्ञानभाष कहते हैं । इसी तरह जीवको भाववती शक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर ही व्यवहार सम्यग्ज्ञान के रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव तत्त्वको तत्म और अतत्त्वको अतस्व समझने लगता है तथा घीतरागी देव, वीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरुढ गरुको हितकर व सरागी देव सरागताके पोषक शास्त्र और सरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुको हितकर समझने लगता है उसे जीवका ज्ञानभाव कहते हैं ।
(ख) जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर व्यवहारमिथ्यादर्शन के रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव तत्त्वमें अनास्था व अतत्त्वमें आस्था रखता है तथा वीतरागी देव, दीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरूढ गुममें अनादर भाव और भरागी देव, सरायताके पीपक शास्त्र और सरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुमें आदर भाव रखता है। इसे जीवका एकान्त, विपरीत, विनय और संशय
स०-२७
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा रूप दुरभिनिवेश कहते है । इसी तरह जीवको भावयतो शक्तिका हृदयके सहारेपर ही व्यवहारसम्यग्दर्शनके रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव तस्वमें आस्था व अतत्त्व अनास्था रखने लगता है तथा धीतरागी देव, वीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरुढ़ गहमें आदरभाव व सरागी देव, सरागताके पोषक शास्त्र और सरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरूमें अनादर भाव (माध्यस्ध्यभाव) रखने लगता है। इसे जीयका प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्सिक्य भाष रूप सभ्यअभिनिवेश कहते है।।
(ग) जीवकी क्रियावती शक्तिका मन, वचन और कायके सहारेपर व्यवहार मिथ्याचारिक रूपम ऐसा परिणमन होता है कि जीव भाववती शक्तिके परिणाम स्वरूप आसक्तिवश होनेवाला संकल्पी पालरूप अशुभ प्रवृत्ति किया करता है।
(घ) जीवकी क्रियायती शक्तिका मन, वचन और कायके सहारेपर ही व्यवहार अविरतिके रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव भाव बती शक्तिके परिणामस्वरूप अशिक्तवश होनेवाली आरंभी पापरूप अशुभ प्रति किमा करता है ।
(च) जीवकी क्रियावती शक्तिका मन, वचन और कायके सहारेपर ही ऐसा भी परिणमन होता है कि जीव कर्तव्यवश होनेवाली पुष्यरूप शुभ प्रवृत्ति किया करता है।
(छ) जीव अपनी क्रियावती शक्तिको मन, वचन और कायके सहारेपर आसक्तिवश और अशक्तिवश होनेवाली पाप परिणतिस्वरूप अशुभ प्रवृत्तिसे व मन, वचन और कायके सहारेपर ही कर्तव्यवश होनेवाली पुण्यपरिणतिस्वरूप शुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें यथाविधि निवृत्तिको प्राप्त हो जाया करता है।
___ यहां इतना विशेष समन्नना चाहिये कि शुभ और अशुभ प्रवृत्तियां कर्मबन्धका कारण होती है और शुभ तथा अशुभ प्रवृत्तिसे यथाविधि निवृत्ति कर्मसंवर और कर्मनिर्जरणका कारण होती है। इस विषयका विस्तृत विवेचन प्रकृत प्रश्नोत्तर के सामान्य समीक्षा-प्रकरणमें किया जा चुका है।
यहां यह भी विशेष समझ लेना चाहिए कि जौवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले परिणमनके रूप में निर्णीत उक्त व्यवहार मिथ्यादर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन तथा इसी भाववती शक्तिके मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले परिणमनके रूपमें नित उक्त व्यरहार मिथ्याजाम और व्यवहार सम्यग्ज्ञान अपने-अपने रूपमें कर्मबन्धक या कर्मसंवर ब कर्म-निर्जरणके साक्षात कारण नहीं होते है। कर्म-बन्ध या कर्मसंवर व कर्म-निर्जरणके अपने-अपने रूपमे साक्षात कारण तो जीवकी क्रियावती शक्तिके उपर्युषप्त प्रकारसे प्रवृत्तिरूप या निवृत्तिरूप आत्मपरिणमन ही हुआ करते है । भाववती शक्तिके वे परिणमन क्रियावती शनिके कर्मबन्ध या कर्मसंबर और कर्मनिर्जरण में कारणभूत उक्त परिणमनोंको प्रभावित करने मात्रसे चरितार्थ हो जाया करते है।
तात्पर्य यह है कि भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप ज्ञान और श्रद्धामका सर्वथा अभाव व उनका मिथ्या या सम्यक परिणमन इन में से कोई भी कर्मबन्च या कर्मसंबर और कर्मनिर्जरणके कारण नहीं हआ करते है। तथा न अचेतन मन, वचन और कापकी क्रियाएं ही कर्मबन्धके या कर्मसंबर और कर्मनिर्जरणमें कारण होती है, केवल जीवकी क्रियावती शक्तिके उक्त प्रकारको प्रवृत्तिरूप या उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप परिणमन ही मथायोग्य कर्मबन्धके या कर्मसंवर और कर्म-निर्जरणके कारण हुआ करते हैं ।
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शंका-समाधान २ को समीक्षा
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इसके अतिरिक्त यहां यह भी समझ लेना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि जोव प्रायः आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्ति ही किया करते हैं। परन्तु बहुतसे मिथ्यादृष्टि जीव आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पाएरूप प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश होनेवाली पुण्यरूप प्रवृत्ति भी किया करते है। कोई-कोई मिथ्यादृष्टि जीव आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक अपाक्तिवश होनेवाली आरंभी पापरूप प्रवृत्तिके साथ कर्तव्यवश होनेवाली पुण्यरूप प्रवृत्ति किया करते हैं। इतना ही नहीं, कोई-कोई मिथ्यादृष्टि जीच आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्ति के सर्वथा त्याग पूर्वक अशक्तिवश होनेवाली आरंभी पायरूप प्रवृत्तिका भी एक क्षेप या सर्वदेश त्याग करते हए यथायोग्य आवश्यकरूपसे या अनिवार्य रूपसे आरंभी पापरूप प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश होनेवाली पुष्यरूप प्रवृत्ति किया करते है।
यहांपर यह भी ध्यातव्य है कि ऐसी उक्त प्रकारकी सभी प्रवृत्तियां मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव समान रूपसे यथावसर करते रहते हैं। परन्तु ये जीव इनके आधारपर कर्मोका बन्द ही किया करते हैं। इतना अवश्य है कि कोई बिरला मिथ्वादृष्टि भन्य यदि आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मख हो जावे तो बह यथायोग्य आरंभी पापरूप और पुण्यरूप प्रवृत्तियोंके करने के साधारपर कर्मोंका बन्ध करते हुए भी आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृतिसे निवृत्ति होनेके आधारपर कर्मोका संवर और निर्जरण भी करने लग जाते हैं।
शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों और इस प्रकारको प्रवृत्तियोंसे होनेवाली निवृत्ति तथा उनसे होनेवाले यथायोग्य कर्मबन्ध मा कर्मसंबर और कर्मनिर्जरण सम्बन्धी जीवकी आगेके मुणस्थानोंमें किस प्रकारको व्यवस्था है इसे प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा-प्रकरणमें विस्तारसे स्पष्ट कर दिया गया है।
इस विवेचनसे उत्तरपक्षका 'जो धर्म और अधर्मके कारण है वे स्वयं धर्म और अधर्म भी है' यह कथन निरस्त हो जाता है, क्योंकि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि धर्म और अधर्म जीवकी भाववती शक्ति के परिणमन हैं और उनमें जो यथायोग्य साक्षात या असाक्षात् कारण होते हैं वे जीवकी भाववती और क्रियावती शक्तिके परिणमन है। इतना अवश्य है कि उन्हें जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म
और अधर्ममें कारण होनेसे यदि व्यवहार धर्म कहा जाये तो यह आगन सम्मत है। कथन २ और उसकी समीक्षा
आगे उत्तरपक्षने त० च० पृ० ८६ पर यह कयन किया है -'यतः अपरपक्ष जीवित शरीरको क्रियासे धर्म और अधर्मको प्राप्ति मानता है अतः उस पक्षके इस कथनसे जीवित शरीरकी क्रिया भी स्वयं धर्मअधर्म सिद्ध हो जाती है। यही कारण है कि मूल प्रश्न उत्तरके प्रारम्भमें ही हमने यह स्पष्टीकरण करना उचित समझा कि जीवित शरीरको क्रिया न तो स्वयं आत्माका धर्म ही है और न अधर्म ही। अपरपक्षने अपनी इस प्रतिशंका ३ में विधिमुखरो यह तो स्वीकार कर लिया है कि धर्म और अधर्म शात्माकी परिणतियां हैं और वे आत्माम ही अभिव्यक्त होती है। किन्तु निषेध मुखसे वह पक्ष यह और स्वीकार कर लेता कि जीवित शरीरकी किया न तो स्वयं धर्म है और न अधर्म ही, तो उस पक्ष के इस कथनसे यह शंका दूर हो जाती कि वह पक्ष अपनी भूल शंका द्वारा कहीं जीवित शरीरकी क्रियाको ही तो धर्म-अधर्म नहीं ठहराना पाह रहा है। अतः इस शंकाका निर्मुलन हो जाय इसी भाबको ध्यान में रखकर हमने प्रथम उत्तरके प्रारंभमें यह खुलासा किया है कि जीवित शरीरको क्रिया न तो स्वयं मात्माका धर्म है और न अधर्म ही ।'
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षके इस कथनकी समीक्षामें भी मैं अधिक कुछ न कहकर केवल इतना कहना पयप्ति समझता हूं कि उसका यह कयन भी मेरे उपर्युक्त विशेषनसे निरस्त हो जाता है, क्योंकि पूर्वपक्षका कहमा तो यह है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है तथा उत्तरपक्षका जो यह कहना है कि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया से आत्मामें धर्म-अधर्म नहीं होता है सो इसके विषयमें पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है। इस तरह उत्तरपक्षके सामने पूर्वपक्षका 'जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं? यह प्रश्न शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीव की क्रियाकी अपेक्षा अभी भी असमाहित होकर जैसा-का-तैसा खड़ा हुआ है।
__उत्सरपा शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको जो जीबके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया ही मान लेना चाहता है, सो इसका निराकरण में पूर्व में इस आधारपर कर चुका हूं कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवको निया जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणाम होने के कारण शरीरकी क्रिया न होकर जीवको ही क्रिया सिद्ध होती है। अब समाजशासुओको इसप विचार करना चाहिए ।
इसी तरह उत्तरपक्षकी जो यह मान्यता है कि 'जीवित शरीरकी क्रिया न तो स्वयं आत्माका धर्म ही है और न अधर्म हो' ती यह मान्यता पूर्वपक्षको जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी मियारूप जीवित शरीरकी अपेक्षा तो मान्य है ही, साथ ही पूर्वपश शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाको भी आत्माका धर्म-अधर्म नहीं मानता है, क्योंकि वह पक्ष आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मको उसकी भाववती शक्तिका परिणाम मानता है और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको उसकी क्रियादती शक्तिका परिणाम मानता है जो क्रियावती शक्ति उस भाववती शक्तिसे भिन्नताको प्राप्त है। इतना अवश्य है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणामस्वरूप उस क्रियाको उसकी भाववती शक्तिके परिणामस्वरूप धर्म और अधर्ममें निमित्तकारण होनेसे वह पूर्वपक्ष पं० दौलतरामजी द्वारा रचित हवाला (३-१) के 'कारण सो ववहारौ' वचनके अनुसार व्यवहार रूपसे आत्माका धर्म और अधर्म भी मान्य करता है । तत्वजिज्ञासुओंको इसपर भी विचार करनेको आवश्यकता है । कथन ३ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने तक च० पृा ८६ पर ही आगे यह कथन किया है-'अपरपक्षका कहना है कि आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होनेमें जीवित शरीरकी क्रियायें निमित्त है सो इसको हमारी ओरसे अस्वीकार कहाँ किया गया है। अपने दोनों उत्तरों में हमने इसे स्पष्ट कर दिया है किन्तु शरीर द्वारा होनेवाली सभीचीन और
चीन प्रवत्तियोंके सम्बन्धमें यह खलासा कर देना आवश्यक है कि आत्माके दाभाशभ परिणामों के आधार पर ही उन्हें समीचीन और असमीचीन कहा जाता है। वे स्वयं समीचीन और असमीचीन नहीं होती । यदि व स्वयं समीचीन और असमीचीन होने लगे तो अपने परिणामोंके सम्हालकी आवश्यकता ही न रह जाय।
उत्तरपक्षके इरा कम्पनकी समीक्षा में पहली बात यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष का यह कथन प्रकृतमें असंगत है, क्योंकि उसने पूर्वपक्षके कथनके आशयको विपरीत समझकर ही यह कथन किया है। अर्थात् जहाँ पूर्वपक्ष अपने कथनके 'जीवित शरीरकी क्रिया' इस वचनका 'शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया' यह अर्थ स्वीकार करके शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी नियासे आत्मामें धर्म-अधर्म मानता
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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है वहाँ उत्तरपक्ष उमत कथनके 'जीवित शरीरकी क्रिया' इस वचनका पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत उक्त अर्थक विपरीत 'जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया' यह अर्थ स्वीकार करके जीवके सहयोगसे होनेवालो पारीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होने का निषेध करता है। यह सब में पूर्वमें स्पष्ट कर चुका हूँ। तत्वजिज्ञासुओंको तत्वनिर्णय करनेकी दण्टिसे दोनों पक्षोंकी मान्यताभोंके इस अन्तरको समझनेकी आवश्यकता है।
उत्तरपक्षके उक्त कथनकी समीक्षामें मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्म तो दोनों पक्षोंकी मान्यतामें जात्माकी भाववती शक्तिके परिणमन है, परन्तु उनके होनेमें जहाँ पूर्वपक्ष जीवकी ही क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको निमित्तकारण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष इससे विपरीत जोवके राहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको उसमें निमित्तकारण मानता है। इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य मान्यताओंका इतना मतभेद विद्यमान रहनेसे मैं कह सकता हूँ कि उत्तरपक्षके 'परपक्षका कहना है कि आत्माके धर्म-अधर्म के अभिव्यक्त होनेमें जीवित शरीरकी क्रिया निमित्त है सो इसको हमारी ओरसे अस्वीकार कहां किया गया है ? इस कथनको असंगत ही समझना चाहिए, क्योंकि 'जीवित शरीरकी क्रिया' इस वचनका उत्तरपशको जब पूर्वपक्षके मान्य अर्थक विपरीत अर्थ हो अभीष्ट है तो उसके उक्त कथनको असंगत मानना मुक्तियुक्त हो जाता है ।
यद्यपि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया आत्माके धर्म-अधर्गक अभिव्यक्त होने में निमित्तभूत और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाके अभिव्यक्त होनेमे निमित्त होती है, अतः जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको भी आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होने में परम्परया निमित्त माना जा सकता है । परन्तु उत्तरपक्ष के कथनसे ऐसा ध्वनित होता है कि वह जीयके राह्योगसे होनेवाली शरीरको क्रिमाको आत्माके धर्म-अधर्मक अभिव्यक्त होनेमें साक्षात् निमित्तकारण ही मानता है जबकि मैं ऊपर यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होनेमें शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया ही साक्षात् निमित्त होसी हैं, जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रिया परम्परया ही निमित्त होती है, साक्षात् नहीं। इस तरह उत्तरपक्षका जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरकी क्रियाको आरमाके धर्म-अधर्मक अभिव्यक्त होने में साक्षात निमित्त मानना असंगत सिद्ध हो जाता है।
इसी तरह उत्तरपक्ष द्वारा मान्य आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होनेमें जीवके सहयोगसे होनेवाली शारीरकी क्रियाकी साक्षात् निमित्तताके असंगत सिद्ध हो जानेसे उसका शरीर द्वारा होनेवाली समीचीन और असमीचीन प्रवृत्तियोंके सम्बन्धमें यह खुलासा कर देना आवश्यक है कि आत्माके शुभाशुभ परिणामोंके भाधारपर ही उन्हें समीचीन और असमीचीन कहा जाता है। वे स्वयं समीचीन और असमीचीन नहीं होती।' यह कथन अनावश्यक हो जाता है, क्योंकि पूर्वपक्ष जब जीवके सहयोगसे होनबाली शरीरको क्रियाको आत्माके धर्म और अधर्मके अभिव्यक्त होने में साक्षात निमित्त मानता ही नहीं है तो उसकी समीचीनता और असमीचीनताके विषय में विचार करना निरर्थक सिल हो जाता है।
एक बात और है कि आत्माके धर्म और अधर्मके अभिव्यक्त होने में साक्षात् निमित्तभूत व शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको पूर्वपक्ष जीपकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभाशुभ मानसिक
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जयपुर (खानिया) तस्यचर्चा और उसकी समीक्षा
परिणामोंके माघारपर ही समीचीन और असमोचीन मानता है, वह स्वयं समीचीन और असमीचीन होती है - ऐसा पूर्वपक्ष नहीं मानता है, इसलिए भी उत्तरपक्षका उक्त कथन अनावश्यक सिद्ध हो जाता है ।
प्रसंगवश यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष आत्मा के शुभाशुभ परिणामों के आधारपर जो शरीर द्वारा होनेवाली प्रवृतियोंके सम्बन्ध में समीचीनता और असीचीनताकी बात कर रहा है, वह शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी प्रवृत्तियों (क्रियाओं) के सम्बन्ध में ही कर रहा है, क्योंकि वह शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी प्रवृत्तियों (क्रियाओं) को ही यहाँ भ्रमचया जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको प्रवृत्तियाँ (क्रियायें ) समझ रहा है । यह बात में पूर्व में स्पष्ट कर चुका हूँ तथा वहींपर में उत्तरपक्ष की इस समझके मिथ्यापनको भी इस आधारपर स्पष्ट कर चुका हूँ कि जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रिया और शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवको क्रिया ये दोनों अपने-अपने पृथक्-पृथक् हेतु और आश्रम आधारपर पृथक पृथक् ही सिद्ध होती हैं ।
उत्तरपक्ष के उक्त कथनको समीक्षामें में तीसरी बात यह कहना चाहता हूं कि उस पक्षने अपने कथनके अन्त में जो यह लिखा है कि 'यदि वे स्वयं समीचीन और असमीचीन होने लगे तो अपने परिणामों के सम्हालको आवश्यकता ही न रह जाय। सो इस सम्बन्धमें भी मैं यही कहना चाहता हूँ कि जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया तो दूर रही, पूर्वपक्ष तो शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको मी स्वयं समीचीन और असमीचीन नहीं मानता है, अपितु वह जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभाशुभ मानसिक परिणामोंके आधारपर ही उसे समीचीन और असमीचीन मानता है, क्योंकि उसकी मान्यता है और जो आगमसम्मत है कि जीवका द्रव्य मन, बचन (मुख) और काय के सहयोगसे होनेवाला जीवको ही क्रियावती शक्ति के परिणामस्वरूप योग एकादश द्वादश और त्रयोदश इन तीन गुणस्थानोंमें भी हुआ करता है और वह योग इन तीनों गुणस्थानोंमें विद्यमान जीवोंके साथ सातावेदनीय कर्मके प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध में निमित्त भी होता है । वह उन गुणस्थानोंमें विद्यमान जीवोंके साथ उस कर्मके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध में निर्मित नहीं होता, क्योंकि योगकी शुभता और अशुभतामें कारणभूत जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप उस जीवके शुभाशुभ मानसिक परिणाम कषायके उदयमें दशम गुणस्थान तक ही हुआ करते हैं, जिनके बलपर ही वह योग वहाँ कर्मोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध के साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धमें कारण होता है। इस तरह दशम गुणस्थानके अन्त समयमें जब कषायका सर्वथा उपशम या क्षय होता है तो एकादश द्वादवा और त्रयोदश गुणस्थानोंमें जीव के योगका सद्भाव रहते हुए भी उस योगकी शुभता और अशुभताका अभाव रहनेके कारण बन्धयोग्य सातावेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध रूप बन्ध न होकर केवल प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध रूप ही बन्ध होता है। इसके साथ यह भी कहना चाहता हूं कि आगममें जीवको अपने जिन परिणामोंकी सम्हालका उपदेश fदिया गया है वे द्रव्य भनक सहयोगसे होनेवाले व जीवको भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुभाशुभ परिणाम ही हैं, क्योंकि उन परिणामोंसे ही प्रभावित योग जीव में कमोंके प्रकृतिबन्ध और प्रवेशयन्धके साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबंधका कारण हुआ करता | उत्तरपक्ष द्वारा अपने कचनके समर्थन में त० च० पु० ८६ पर उधृत सागारधर्मामृत अ० ४ पद्य २३ का व सर्वार्थसिद्धि अ० ६ सूत्र ३ का भी यही अभिप्राय है ।
इस विवेचनसे उत्तरपक्षका त० च० पू० ८७ पर निर्दिष्ट 'हमें विश्वास है कि इस स्पष्टीकरण
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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के आधारपर अपरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाओंके स्वयं समीचीन और असमीचीन होनेके विचारका त्याग कर अपने इस विचारको मुख्यता देगा कि प्रत्येक प्राणीको मोक्ष के साधनभूत स्वभाव सम्मुख हुए परिणामोंकी सम्हाल में लगना चाहिए। संसारके छेदका एकमात्र यही भाव मूलकारण है, अन्यथा संसारकी वृद्धि होगी ।' भनिएता है. यह कथन पूर्वपक्षके अभिप्रायको न समझ सकने के कारण ही किया है। यह बात ऊपरके कथनसे स्पष्ट हो जाती है। इसलिए तत्त्वजिज्ञासुओंसे अनुरोध है कि वे पूर्वपक्षके जीवित शरीरकी क्रियाले आत्मामें धर्म मधर्म होता है या नहीं इस प्रश्नका सत्य समाधान मेरे इस समीक्षात्मक विवेचन के प्रकाश में देखनेका प्रयत्न करें।
उत्तरपक्षने अपने उक्त कथनके अन्त में जो यह लिखा है कि 'प्रत्येक प्राणीको मोक्षके साधन भूत स्वभाव सन्मुख हुए परिणामों की सम्हालमें लगना चाहिए । संसारके छेदका एकमात्र यही भाव मूलकारण है, अन्यथा संसारकी वृद्धि होगी ।' यह निर्विवाद है । परन्तु मैं इस विपयमें यह कहना चाहूँगा कि उत्तरपक्ष ने इस बातको स्पष्ट करने का कहीं प्रयत्न नहीं किया है कि मोक्षके साधनभूत स्वभाव सम्मुख हुए परिणामोंकी सम्हाल करनेका उपाय क्या है ? पूर्वपक्षका और मेरा इस सम्बन्ध में यह कहना है कि द्रव्य मन, वचन (मुख) और काय अवलम्बनपूर्वक होनेवाली और जीवको यथायोग्य भाववती और क्रियावती शक्तिके परिमनस्वरूप शुभाशुभ प्रवृत्तियोंसे यथाविधि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुष्तिके रूपमें निवृत्ति प्राप्त करना ही मोक्षसाधनभूत स्वभावसन्मुख हुए परिणामों की सम्हाल करनेका उपाय है, जिसे उत्तरपक्ष अकिंचित्कर कहकर उपेक्षित करना चाहता है। यह सब पूर्व में विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया जा चुका है ।
कमन ४ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्ष ने स० च० पृ० ८७ पर ही लिखा है- 'बाह्य क्रिया धर्म नहीं है, इस अभिप्रायकी पुष्टिमें ही हमने नाटक समयसारके वचनका उल्लेख किया था ।'
इसकी समीक्षा में मेरा कहना इतना ही है कि उत्तरपक्ष का यह कथन तो निर्विवाद है, परन्तु उसने जिस अभिप्रायसे इसको यहाँपर लिखा है उस अभिप्रायकी समीक्षा इसी प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में पूर्व में कर चुका हूँ। पूर्वपक्ष भी अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंके कथनमें उत्तरपक्ष के उस अभिप्रायको आलोचना की है । तत्व- जिज्ञासुओंको उनपर ध्यान देनेकी आवश्यकता है।
कथन ५ और उसकी समीक्षा
आगे उत्तरपश्चने त० च० पु० ८७ पर ही यह कथन किया है- 'अपरपक्षका कहना है कि क्रियाको तो सर्वथा धर्म-अधर्म हम भी नहीं मानते । तो क्या इसपरसे यह आशय फलित किया जाय कि अपरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाको कथंचित् धर्म-अधर्म मानता हूँ ? यदि यही बात है तो अपरपक्षके इस कथन की कि 'धर्म और अधर्म आत्माकी परिणतियाँ है और ये आत्मामें ही अभिव्यक्त होती है ।' क्या सार्थकता रही ? इसका अपरपक्ष स्वयं विचार करें। यदि यह बात नहीं है तो उस पक्ष को इस बातका स्पष्ट खुलासा करना था ।"
इसकी समीक्षा में मैं प्रथम तो यही कहना चाहता है कि उत्तरपक्षने यह कथन जीवित शरीरको क्रियाके विषय में पूर्वपक्ष के अभिप्रायको विपरीत समझकर ही किया है क्योंकि पूर्व मे स्पष्ट किया जा चुका है।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कि प्रकृत में शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियाको ही पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रिया मानता है, जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरकी क्रियाको नहीं। परन्तु उत्तरपक्ष इससे विपरीत जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको हो जीवित शरीरकी क्रिया मानता है, शरीर के सहयोग होनेवाली जीवकी क्रियाको नहीं 1 इतना ही नहीं, उत्तरपक्ष शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियाको भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया मानता है। दूसरे में यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने कथनमें जो यह लिखा है कि 'अपरपक्षका कहना है कि क्रियाको तो सर्वथा धर्म-अधर्म हम भी नहीं मानते तो क्या इसपर से यह आशय फलित किया जाय कि अपरपक्ष जीवित शरीरको क्रियाको कथंचित् धर्म-अधर्म मानता है, सो इसके विषय में मेरा यह कहना है कि पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाको कथंचित् धर्म-अधर्म तो स्वीकार करता है, परन्तु वह 'जीवित शरीरका क्रिया' इस बचाए होग होनेवाली जीवकी क्रिया यह अर्थ मान्य करके ही ऐसा स्वीकार करता है, 'जीवित शरीरको क्रिया' इस वचनका उत्तरपक्षको मान्य 'जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया यह अर्थ मान्य करके नहीं। इसके साथ ही पूर्वपक्ष 'कथंचित्' पदका 'व्यवहार' अभिप्राय ग्रहण करता है जिससे यह स्पष्ट हो जाता कि पूर्वपन शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियाको आत्माकी वास्तविक धर्म-अधर्मरूप परिणतियों के प्रगट होने में कारण होनेके आधारपर व्यव हार अर्थात् उपचरितरूपसे धर्म-अधर्म स्वीकार करता है। व्यवहार या उपचारका स्पष्टीकरण प्रश्नोत्तर १ की समीक्षा में विस्तारसे किया गया है तथा आवश्यकतानुसार इस प्रश्नोत्तर २ की समीक्षामें भी पहले किया जा चुका है।
उत्तरपक्षने अपने इसी कथनमें आगे जो यह लिखा है कि "यदि यही बात है तो अपरपक्षके इस कथनको कि 'धर्म और अधर्म आत्माकी ही परिणतियों है और वे आत्मामें ही अभिव्यक्त होती है' क्या सार्थकता रही ?" सो इस विषयमें मेरा यह कहना है कि पूर्वपक्ष प्रकृत में वास्तविक धर्म-अधर्म तो जीवको भाव
शक्तिके स्वाश्रित परिणामोंको मानता है तथा व्यवहाररूप या उपचरित धर्म-अधर्म जीवको भागवतीशक्ति के मानसिक परिणामको व जीवकी क्रियावतीशक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणामोंको मानता हूँ । इस तरह उत्तरपक्षका वहीं पर यह लिखना कि "यदि यह बात नहीं हूँ तो उस पक्ष को इस बातका स्पष्ट खुलासा करना था" अनावश्यक हो जाता है ।
बात वास्तव में यह है कि उतरपक्षने पूर्वपक्षके प्रति जो आपत्ति प्रस्तुत की है, वह उसने 'जीवित शरीरकी क्रिया' इस वचनका 'जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रिया' यह अर्थ स्वीकार कर की है जबकि प्रकृत में पूर्वपक्ष ने 'जीवित शरीरकी क्रिया इस वचनका 'शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवको किया' यही अर्थ स्वीकार किया है। अतः उत्तरपक्षको ही यह विचार करना है कि उसका कथन सम्यक है या पूर्वपक्षका कथन सम्यक् है ? मैंने इस प्रश्नोत्तरमें जो विवेचन किया है उससे स्पष्ट है कि पूर्वपक्षका कथन ही सम्यक् है, उत्तरपक्षका नहीं । तत्व जिज्ञासुओं को ध्यान देकर इसका निर्णय करना चाहिये ।
कथन ६ और उसकी समीक्षा
आगे त० च० पृ० ८७ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है- 'यह तो अपरपक्ष भी जानता है कि निमित्त और कारण पर्यायवाची संज्ञायें हैं। वह वाह्य भी होता है और आभ्यन्तर भी । उसमें से आभ्यन्तर निमित्त कार्यका मुख्य निश्चय हेतु है। यही कारण है कि बाचार्य समन्तभद्रने स्वयंभू स्तोत्र कारिका ५९ में मोक्षमार्ग में बाह्य निमित्त की गोणता बतलाकर आभ्यन्तर हेतुको पर्याप्त कहा है। इस कारिकामें लाया हुआ 'अंगभूतम्'
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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पद गोणपनका ही सूचक है और तभी 'आम्यन्तर केवलमप्यलं ते' इस वचनकी सार्थकता बन सकती है।"
आगे इसको समीक्षाकी जाती है
निमित्त शब्दको सामान्यतया कारणका पर्यायवाची मानना निर्विवाद है। परन्तु कारणके जब अपादान 'और निमित्त ये दोन स्वीकृत करना आश्यक तो नादानका अर्थ कार्यरूप परिणत होनेवाला और निमित्तका अर्थ उपादान का मित्र के समान स्नेहन करनेत्राला अर्थात् सहायता करनेवाला कहना ही उचित है, क्योंकि उगादान और निमित्त दोनों शब्दोंकी व्युत्पत्तिके आधारपर उनका पृथक्-पृथक ऐसा ही अर्थ ध्वनित होता है । आगममें भी उपादान और निमित्त दोनों शब्दोंके अन्तरको स्पष्ट दिखलाया गया है। समयसारकी ८०-८२ गाथायें व पुरुषार्थसिद्धध्युपायकी १२-१३ कारिकाएं उपादान और निमित्त दोनों शब्दोंके अन्तरका स्पष्ट प्रतिपावन करती है।
'अंगभूत' परका गौण अर्थ पूर्वपक्षको भी मान्य है-यह बात पूर्वमें स्पष्ट की जा चुकी है। फेवल इसके सम्बन्धमें दोनों पक्षोंके मध्य विवाद इस बातका है कि जहां पूर्वपक्ष 'तदंगभूतम्' पदको 'आम्यन्तरम्' पदका विशेषण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उसे स्वपत्रपद मान लेता है। यही कारण है कि दोनों पक्षों द्वारा स्वयंभूस्तोत्रके पद्म ५९ के स्वीकृत अर्थ में अन्तर पाया जाता है। उनमें से पूर्वपक्षका अर्थ सम्यक् है, उत्तरपक्षका अर्थ सम्यक नहीं है इसका स्पष्टीकरण मैं पूर्वमें कर चुका हूँ। मैं पूर्वमें यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि उत्तरपक्ष 'अंगभूत' पदका जश्च गौण अर्थ स्वीकार कर लेता है तो उसने 'आभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते' वचनका जो अर्थ स्वीकार किया है वह असंगत सिद्ध हो जाता है। इसी तरह उक्त पद्य में पठित 'बलम्' पदका प्रकृतमें उत्तरपक्षको मान्य ‘पर्याप्त' अर्थ ग्रहण न करके 'समर्थ अर्थ हो ग्रहण करना चाहिये। मैंने पूर्वमें 'अलम्' पद का समर्थ' अर्थ ही ग्रहण किया है। कथन ७ और उसकी समीक्षा
मागे त० च० पू० ८७ पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है-'अपरपक्षने जीवित शरीरको क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्ममें निमित्त स्वीकार करके यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में दोनों कारणोंको पूर्णता आवश्यक है और इसके समर्थनमें स्वयंभूस्तोत्रका 'बाह्यतरोपाघिसमग्रतेयम्' पचन उद्धृत किया है। किन्तु प्रकृतमें विचार यह करना है कि मोक्ष दिलाता कौन है ? क्या शरोर मोक्ष दिलाता है या वनवृषभनाराचसंहनन मोक्ष दिलाता है या शरीरकी क्रिया मोक्ष दिलाती है ? मोक्षकी प्राप्तिमें विशिष्ट कालको भी हेतु कहा है। क्या वह मोक्ष दिलाता है। यदि यही बात है तो आचार्य गृद्धपिन्छ तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारिवाणि मोक्षमार्गः १-१ इस सूत्रको रचना न कर इसमें बाह्याम्वन्तर सभी सामग्रीका निर्देश अवश्य करते । क्या कारण है कि उन्होंने बाह्य सामग्रीका निर्देश न कर मात्र आम्वन्तर सामग्रीका निर्देश किया है, अपरपक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए । किसी कार्यकी उत्पत्तिके समय आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रताके साथ चार सामग्रोको समग्रताका होना अन्य बात है और आभ्यन्तर सामग्री के समान ही बाह्य सामग्रीको भी कार्यकी उत्पादक मानना अन्य बात है। 'अन्तरम्' 'महदन्तरम् इस महान अन्तरको अपरपक्ष ध्यानमें ले, यही हमारी भावना है। यदि वह इस अन्तरको ध्यान में ले ले तो उस पक्षको यह हृदयगम करनमें सुगमता हो जाय कि हम बाह्य सामग्रीको उपरित कारण और भाभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचारित कारण क्यों कहते हैं ? यह वो कोई भी साहसपूर्वक कह सकता है कि आत्मसम्मुख
स०-२८
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
हुआ आत्मा रनको उत्पन्न करता है और रत्नत्रयपरिगत आत्मा गोलको उत्पन्न करता है, परन्तु यह बात कोई साहसपूर्वक नहीं कह सकता कि जीवित शरीरको किया रत्नत्रय या मोक्षको उत्पन्न करती है।"
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उत्तरपक्ष के इस कथनसे ऐसा लगता है कि वह अपनेको तो तरनज्ञ समझता है और पूर्वपक्ष को अतत्वज्ञ समझता है । केवल यहीं पर नहीं, अपितु तत्वचर्चा में सर्वत्र उत्तरपक्ष ने ऐसा ही समझकर अपनी लेखनी चलाई है। लेखनी चलाने से पूर्व उसने कहीं पर भी यह समझने का प्रयास नहीं किया कि पूर्वपक्षी अमुक विषयमें क्या मान्यता है और यह अपने भक्तों में क्या कह रहा है यदि वह पूर्वपक्ष की मान्यताओं और उस वक्तव्योंके अभिप्रायोंको समझकर अपनी देवी चलाने की बात सोचता तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वह (उत्तरपक्ष) अपनी लेखनी अनर्गक रंगसे कदापि नहीं चलाता । उत्तरपक्ष द्वारा सर्वत्र अनर्गल ढंगसे लेखनी चलाने का यह परिणाम हुआ हूँ कि तत्वचर्चा अत्यधिक लम्बायमान हो गई है और वह सार्थक भी नहीं हो सकी है।
प्रकृत में उत्तरपने अपने वक्तव्य पूर्वपत्र के प्रति जो कुछ लिखा है उसमें मेरा कहना यह है कि जिस प्रकार उत्तरपक्ष कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण और आभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचारित कारण मानता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण और आभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचरित कारण मानता है। दोनों पक्षोंकी मान्यताओंमें अन्तर केवल यह है कि उत्तरपक्ष कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीको जो उपचरित कारण मानता हूँ यह अकिंचित्कर रूपमें मानता है। और पूर्वपक्ष कार्योत्पत्ति बाह्य सामग्रीको जो उपचरित कारण मानता है वह अफिचिरकर रूपमें न मानकर उपादानका सहायक होने के आधारपर कार्यकारी रूपमें मानता है। अब देखना यह है कि क्या उत्तरपक्ष साहसपूर्वक यह कह सकता है कि कोई भी भव्य जीन मानवशरीर प्राप्त किये बिना और उसमें भी बच्च वृषभनाराच संहनन प्राप्त किये बिना मोक्ष प्राप्त कर सकता है तथा वह क्या सुषमा दुःषमा, दुःषमा- सुषमा और दुःषमा-इन तीन कालोंसे अतिरिक्त किसी अन्य कालमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है? यदि नहीं, तो मोक्ष प्राप्ति में इनको अकिंचित्कर कैसे माना जा सकता है ? रही उपादानके समान इनको कारण माननेकी बात सरे पूर्वपक्ष इन सबको उपादानकारणके समान कारण कहाँ मानता है? यह तो इन्हें केवल उपादानका सहायक कारण ही मानता है, क्योंकि इनके अभाव में कोई भी भव्य जीव त्रिकालमें मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है । इसलिये 'अन्तरं महदन्तरम्' की बात पूर्व पक्षपर लागू न होकर उत्तर पक्षपर ही लागू होती ही वास्तविक मूल्य हो सकता है कि इस महान्
इस तरह उतरपक्षको अपेक्षा मेरे इस कपनका अन्तरको उत्तरपक्ष ध्यानमें ले यही मेरी भावना है ।'
यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि पूर्व पक्ष जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियाको मोक्षका साधन नहीं मानता है वह तो शरीरके सहयोग से होनेवाली जोक्की क्रियाको ही मोक्षका साधन मानता है और वह किस प्रकार मोक्षका साधन होती है तथा किस प्रकार संसारका साधन बन रही है, इसका स्पष्टीकरण प्रकृत प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में विस्तारसे किया जा चुका है, इसलिये उत्तरपक्षने अपने प्रकृत कथन में यह तो कोई भी साहसपूर्वक कह सकता है' इत्यादि जो कुछ लिखा है वह सब निरर्थक हो सिद्ध होता है।
उत्तर पक्षने अपने प्रकृत कनके समर्थन में सर्वार्थसिद्धि ० १ ० १ में निर्दिष्ट निम्नलिखित वचन उपयुक्त किया है-
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tter समाधान २ की समीक्षा
'संसारकारण निवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तकियो परमः सम्यक् चारित्रम् ।'
इसका अर्थ उसने यह किया है कि संसार के कारणोंकी निवृत्तिके प्रति उद्यत हुए ज्ञानी पुरुष कर्म ग्रहण में निमित्तभूत क्रियाका उपरत होना सम्यक्चारित्र है ।'
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ะ
मेरा कहना कि पूर्वपके लिये यह सब विवादको वस्तु नहीं है। यह बात मेरे समीक्षात्मक विवेचनसे स्पष्ट हो जाती है। विवाद तो इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष इसमें 'क्रिया' पदसे जीवके सहयोगसे होने वाली शरीरकी क्रियाका अभिप्राय ग्रहण करता है वहाँ पूर्वपक्ष इसमें 'क्रिया' पदसे शरीरके सहयोग से होने वालो जीचकी क्रियाका अभिप्राय ग्रहण करता है । मेरे समीक्षात्मक विवेचनसे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि इनमेंसे पूर्वपक्ष की दृष्टि सम्यक् है और उत्तरपक्षकी दृष्टि असम्यक् है ।
उत्तरपक्षतं सर्वार्थसिद्धिके उक्त वचनके आधारपर आगे त० च० पृ० ८८ पर यह कथन किया है - " यह आगम वचन है। इससे विदित होता है कि रागमूलक और योगमूलक जो भी क्रिया होती है वह मात्र बन्त्रका हेतु है। अब अपरपक्ष हो बतलावे कि उक्त क्रिया शिवाय ओर ऐसो शरीरकी कौन-सी क्रिया बचती है जिसे मोक्षका हेतु माना जाय । हमने भी जीवित शरीरको क्रियाको धर्म-अधर्मकी निमित्त कहा है । किन्तु उसका इतना ही आशन कि बाह्य are sserनिष्ट बुद्धि होनेपर उसके साथ जो भी शरीरको क्रिया होती है उसे उपचारसे अधर्मका निमित्त कहा जाता है और इसी प्रकार आत्मसन्मुख हुए जीवके धर्म परिणति के कालमें शरीरकी जो भी क्रिया होती है, उसे उपचार से धर्मका निमित्त कहा जाता है । इसी प्रकार देव-गुरु-शास्त्रको लक्ष्य कर शुभ भावके होने पर उसके साथ जो भी क्रिया होती है उसे उपचारसे उसी भावका निमित्त कहा जाता है ।'
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इस कथनके सम्बन्धमें में पहली बात तो यह कहना चाहता हूँ कि पूर्वपक्षकी मान्यता के अनुसार भी रागमूलक और योगमूलक जो भी क्रिया होती है वह बन्धका ही कारण होती है, परन्तु वह क्रिया जीवके सहयोगसे होने वाली शरीरको क्रिया न होकर शरीर के राहयोगसे होने वाली जीवकी ही क्रिया है ऐसा मान्य आगम सम्मत है। इसमें विशेष यह ज्ञातव्य है कि वह क्रिया यदि केवल प्रवृत्तिरूप है तो वह बन्धका ही कारण होती हैं और वह क्रिया यदि यथायोग्य प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक हो रही है तो वह कर्मबन्धके साथ कर्मसंवर और कर्मनिर्जरणका भी कारण हो जाती है। इस विषयको प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा - प्रकरण में विस्तार के साथ स्पष्ट किया जा चुका है ।
करना
इस कथन के विषय में मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि यहाँ प्रकरण इस बातका चल रहा है कि मोक्षको प्राप्ति के लिये भव्य जीवको मनुरुदेहकी प्राप्ति होना व उसका वज्रवृषभनाराच संहननविशिष्ट होना आवश्यक है या नहीं ? तथा सुषमा दुःषमा दुःषमा- सुषमा वा दुःषमा कालकी प्रवृत्ति आवश्यक है या नहीं ? उत्तरपक्षका कहना है कि मोक्षकी प्राप्ति तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-वारिश्र से ही होती हैं, परन्तु उस अवसर पर यह सब बाह्य सामग्री भी विद्यमान रहती है। पूर्व पक्षका कहना यह है कि मोक्षकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से ही होती है, परन्तु उक्त बाह्य सामग्री उसकी सहायक हुआ करती है । उत्तरपक्षकी मान्यतासे यह बात निश्चित होती है कि उक्त अवसरपर बाह्य सामग्रीका रहना नियत है तथा पूर्वपक्षको मान्यतासे यह बात निश्चित होती है कि उपादान सामग्री के साथ यदि बाह्य सामग्रीका समागम हो जावे
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जयपुर (खानिया) सत्त्वचा और उसकी समीक्षा
तो हो कार्य निष्पन्न होगा और यदि उपादानको बाह्य सामग्रीका समागम प्राप्त नहीं हो तो कार्य निष्पान नहीं होगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्तरपक्ष की मान्यताके अनुसार कार्योत्पत्तिमें बाह्य सामग्री अकिंचिकर सिद्ध होती है व पूर्वपक्षको मान्यता के अनुसार उसकी कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपरो कार्यकारिता सिद्ध होती है। दोनों पक्षोंके मध्य केवल इतना ही मतभेद है। मैंने इस समीक्षा-मेघमें इस बातको सिद्ध किया है कि पूर्वपक्षकी मान्यता ही अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष, युक्ति और आगमसे संगत सिद्ध होती है, उत्तरपक्षकी नहीं । अब तत्त्व-जिज्ञासुओंका कर्तव्य है कि वे स्वयं विचार कर इसका निर्णय करें।
उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्यमें अन्य जो कुछ लिखा है, उसके विषयमें पूर्णपक्षकी दष्टिका स्पष्टीकरण मेरे उपर्युक्त विवेचन, इसी प्रश्नोत्तरके अन्य समीक्षात्मक विवेचन और प्रश्नोत्तर १ के समीक्षात्मक विवेचनसे हो जाता है।
आगे त० च० "०८८ पर ही उत्सरपक्षने अपने उपयुक्त वक्तव्यके समर्थन में तत्वार्थश्लोकवातिकके वचनको भी उपस्थित किया है। उसके विषयमें भी. पूर्वपक्षके दष्टिकोणका स्पष्टीकरण मेरे उपर्युक्त विवेचनसे, इसी प्रश्नोत्तरके अन्य समीक्षात्मक विवंचनसे और प्रश्नोत्तर १के समीक्षात्मक विवंचनसे हो जाता है। इसी तरह उत्तरपक्षने वहीं पर जो प्रमाणदृष्टि, निश्चयनमदृष्टि, व्यवहारतयदृष्टि, सद्भूतव्यवहारनयष्टि और असद्भुतन्यवहारनप्रदष्टि -इनका विवेचन किया है, उनके विषयमें पूर्वपक्षके दृष्टिकोणका साष्टीकरण उपर्युक्त आधारोंपर ही हो जाता है । तात्पर्य यह है कि उत्तर पक्षक 'यह प्रमाणदष्टि और निश्चयनयष्टिका निर्देशक वचन है । इमसे हमें यह सुस्पष्टरूपसे ज्ञात हो जाता है कि सम्यग्दर्शनादि एक-एकको मोक्षका कारण कहमा यह सद्भुत होकर भी जबकि व्यवहारनयका सूचक वचन है ऐसी अवस्थामें विशिष्ट काल या शरीरकी क्रियाको उसका हेतु कहना यह तो असद्भुत व्यवहार चचन ही ठहरेगा। इसे यथार्थ कहना तो दो द्रव्योंको मिलाकर एक कहनेके बराबर है।' इस कथन के विषय में भी पूर्वपक्षका स्पष्टीकरण यही है कि प्रमाणका विषय, निश्चयनयका विषय, यवहारनयका विषय, सद्भुत व्यवहारनाका विषय और असद्भुत व्यवहार नयका विषय---ये सभी अपने-अपने ढंगसे वास्तविक ही हैं, कोई भी कल्पनारोपित या कथन मात्र नहीं है । क्या उत्तरपक्ष कह सकता है कि नाना अणुरूप वास्तविक पुद्गल व्योंके परस्पर बन्धसे जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूा अवास्तविक (उपचरित) गार्थीका निर्माण होता है वे सब पदार्थ कल्पनारोपित या कथन मात्र ही हैं । यदि ऐसा माना जाम तो इन पदार्थो का जो लोकमें जपयोग देखने में आता है, उसे भी काल्पनिक
और कथन मात्र मानना होगा जो उत्तरपक्षको भी अभीष्ट नहीं होगा, क्योंकि ऐसा माननेसे उसके समस्त जीवन-व्यवहार ही समाप्त हो जावगे । इसलिये यही मानना श्रेयस्कर है कि दो द्रव्य मिलकर एक अर्थात् तादात्म्य-सम्बन्धाश्रित वास्तविक द्रव्य न होते हुए भी संयोग सम्बन्धाषित रूपसे तो वे वास्तविक है हो । जैनदर्शनके अनेकान्तवादका यही चमत्कार है। कथन ८ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने त च १०८८ पर ही आगे यह लिखा है-'अपरपक्षका कहना है कि मात्र बाह्य या आभ्यन्तरको ही कारण माननेपर पुरुषके मोक्षकी सिद्धि नहीं हो सकती।' आदि-इराके आगे इसके समापानके रूपमें उसने लिखा है
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शंका-समाधान २ को समीक्षा
२२१ 'समाधान यह है कि जिस समय जो कार्य होता है उस समय उसके अनुकूल आग्यन्तर सामग्रीकी समग्रताके समान बाह्य सामग्रीको समग्रता होतो ही है। इसीका नाम द्रव्यगत स्वभाव है । किन्तु इन दोनोंमें से किसमें किस रूपये कारणता है इसका विचार करनेपर विदित होता है कि बाह्य सामग्रीमें कारणता असद्भुत व्यवहारनयसे ही बन सकती है। आभ्यन्तर सामग्रीमें कारणताको जिस प्रकार राभूत माना गया है, उसी प्रकार यदि बाह्य सामग्रीमें भी कारणताको सदभत माना जाय तो पुरुषकी मोक्ष विधि नहीं बन सकती । यह उक्त कारिकाका आशय है।' आगे इसकी समीक्षा की जाती है
कारिकाका क्या भाशय है ? यदि इसे दूर रखा जाय तो कहा जा सकता है कि उत्तरपक्षका यह लेख विवादका विषय नहीं है, ऐसी स्थिति में उसने पूर्वपक्षके प्रति जो यह धारणा बना ली हैं कि वह बाह्य सामग्रीमें भी कारणताको आभ्यन्तर सामग्रीमें विद्यमान कारणताके सदृश सद्भूत मानता है सो उसका यह या तो भ्रम है या जानते हुए भी वह उसपर यह आरोप तत्त्व-जिज्ञासुओंको भुलावे में डालनेके लिये लगा रहा है। कुछ भी हो, इसमें मेरा कहना तो यह है कि पूर्वपक्षकी मान्यता तो यह है कि कार्यके प्रति आभ्यन्तर सामनी भी होती है और शह; सामसोनाडोती : साम्यन्तर सामग्रीको कारणता तादात्म्य संबंधाबित होनेसे निश्चयनय या सदभुत व्यवहारनयका विषय है और वाह्य सामग्रीकी कारणता संयोग संबंधाश्रित होनेसे असत व्यवहारमयका विषय है, क्योंकि आभ्यन्तर सामग्री कार्यरूप परिणत होती है और बाध सामग्री उस कार्यमें उपादानको सहायक होती है। इस तरह दोनों ही अपने-अपने ढंगरो कार्यकारी हुआ करती है। दोनोंमें कोई भी अकिंचित्कर नहीं रहा करती है। इससे निणीत होता है कि दोनों पक्षोंके मध्य विवाद कार्योत्पत्तिके प्रति बाह्य सामग्नीमें विद्यमान कारणताको असद्भूत मानने न माननेका नहीं है, अपितु विवाद इस बातका है कि जहाँ पूर्वपल नाह्य सामग्री में स्वीकृत कारणताको कार्योत्पत्ति में उपादान कताके रूपमें कार्यकारी स्वीकार करता है वहां उत्तरपक्ष बाह्य सामग्रीमें स्वीकृत कारणताको कार्योत्पत्तिक प्रति सहायक न होने सृगमें सर्वथा किंचित्कर स्वीकार करता है। प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पूर्वपक्षकी मान्यता राभ्यक् है उत्तरपक्षकी मान्यता सम्यक नहीं है । उपर्युक्त कारिकाका क्या आशय है, यह पूर्व में इसी प्रश्नोत्तरकी समीक्षामं स्पष्ट कर दिया गया है।
कथन ९ और उसको समीक्षा
उसरपनने आगे त च० प्र० ८९ पर यह कथन किया है-"अपरपक्षने इसी प्रसंगमें 'यवस्तु बाध इत्यादि कारिकाका उल्लेख कर अपनी दृष्टि से उसका अर्थ किया है किन्तु वह ठीक नही, क्योंकि उसका अर्थ करते समय एक तो 'आभ्यन्तरमूलहेतोः' पदको ‘गुणदोषसूतेः' का विशेषण नहीं बनाकर 'अध्यात्मवृत्तस्य आभ्यन्त रमूलहेतोः तत् अंगभूतम्' ऐसा अन्वय कर उसका अर्थ किया है ।दूसरे, 'अंगभूतम्' पदका अर्थ प्रकृती 'गौण' है। किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय साभिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है । तीसरे, चौथे चरणमें आये हए 'अलम' पदकी सर्वथा उपेक्षा करके उसका ऐसा अर्थ किया है जिससे पुरी कारिकासे ध्वनित होनेवाला अभिप्राय ही मटियामेट हो गया है ।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
उत्तरपक्षने प्रतिक्षका २ का समाधान करते हुए स०च. पृ० ७९ पर 'यदनस्तु बास्' इत्यादि कारिकाका अपने पक्ष के समर्थन में उद्धरण देकर उसका जो अर्थ किया है, उससे पूर्वपक्ष सहमत नहीं था और न है भी। इसका स्पष्टीकरण मैंने प्रकृत प्रश्नोत्तरक द्वितीय दौरकी समीक्षामें विस्तारके साथ किया है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा इसना अवश्य है कि कारिकाका अर्थ करनेमें पूर्वपक्षने जो मार्ग अपनाया है उससे भी उसका (कारिकाका) अभिप्राय मटियामेट नहीं हुआ है, तथापि मैं मानता हूँ कि 'आम्बन्त रमूलहेतोः' पक्ष कारिकामें 'गुणदोषसूते.' पदका विशेषण मान्य करना भी अनुचित नहीं है, इसलिये मैंने समीक्षा-प्रकरणमें उसे 'गणदोषसूतेः' पदका विशेषण स्वीकार करके ही उसका अर्थ किया है। इस तरह उक्त कारिकाके दो अर्थ विचारणीय हो जाते है-एक तो उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ और दूसरा मेरे द्वारा स्वीकृत अर्थ । दोनों अर्थ निम्न प्रकार है
उस रपक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ यह है कि अम्यन्तर अर्थात् उदादान कारण जिसका मूल हेतु है, ऐसी गुण और दोषोंकी उत्पत्तिका जो बाद्य वस्तु निमित्त मात्र है, मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुए जीवके लिये वह गौण है, क्योंकि हे भगवन् ! आपके मतमें उपादान हेतु कार्य करने में पर्याप्त है ॥५९।। (त० च० पृ० ७९) । उत्तरपक्ष द्वारा त० च पृ० ८१ पर जो अर्थ किया गया है, वह भी इसीसे मिलता-जुलता है।
मेरे द्वारा स्वीकृत अर्थ यह है कि अभ्यन्तर अर्थात् अन्तरंग परिणाम जिसका मूल हेतु है ऐसे गुणों और दोषोंकी उत्पत्तिका जो बाह्य वस्तु निमित्त अर्थात् अवलम्बन है अध्यात्ममें प्रवृत्त (लोकोत्तर) जनके लिये बह बाह्य वस्तु जिसकी अंग अर्थात् गौण रूपसे सहायक बनो हुई है ऐसा अन्तरंग परिणाम केवल भी हे भगवन् ! आपके मतमें समर्थ है—(प्रश्नोत्तर के द्वितीय दौरकी समीक्षा)।
मैंने प्रश्नोतर २ के द्वितीय दौरकी समीक्षामें जो प्रकृत विषयका स्पष्टीकरण किया है उससे निर्णीत हो जाता है कि उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ उक्त कारिकाका सम्यक् अर्थ नहीं है अपितु मेरे द्वारा स्वीकृत अर्थ ही सम्यक् है । अब यदि तत्त्व जिज्ञासुजल प्रॉपर IE-
स स पापाः कि पूर्वपक्ष द्वारा या मेरे द्वारा कृत अर्थसे कारिकासे ध्वनित होनेवाला अभिप्राच मटियामेट नहीं हुआ है, अपितु उत्तरपक्ष द्वारा कृत अर्थसे ही यह मटियामेट हुआ है क्योंकि पूर्णपक्षने या मैंने तो अपने अर्थमें आगमको घ्यानमें रस्ता है, परन्तु उत्तरपक्षने अपने अर्थमें आगमकी पूर्णतया उपेक्षा कर दी है। इसका स्पष्टीकरण इसी प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें किया गया है।
मागे वहींपर उत्तरपक्षने लिखा है कि "कारिकामें आया हुआ 'अपि' पद एवं' अर्थको सूचित करता है" सो उसका यह कहना उचित न होकर 'अपि' पदका 'भी' अर्थ करना ही उचित है। यह बात भी प्रकृत प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें मेरे द्वारा कृत स्पष्टीकरणसे जानी जा सकती है।
अपने प्रकृत कथन में उत्तरपक्षने जो यह लिखा है--'दुसरे अंगभूतम्' पदका अर्थ प्रकृतमें 'गौण' है। किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय सामिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है।' सो उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष के प्रति यह लिखना असत्य है क्योंकि पूर्वपक्षने इस विषयमें जो कुछ लिखा है वह निम्न प्रकार है
स्वयंभूस्तोत्रके इससे पूर्ववर्ती श्लोक--'यद्वस्तु वाह्यं गुणदोषसूते.'--का जो अर्थ आपने अपने प्रत्युत्तरमें किया है दरासे बाह्येत्तरोपाधि-पलोकके साथ पूर्वापर विरोध प्रतीत होता है. इसलिये हमारी दृष्टि से यदि उसका निम्न प्रकार अर्थ किया जाय तो उससे पूर्वापर विरोध ही दूर नहीं होता, बल्कि संस्कृत टीकाकारके भावकी भी सुरक्षा होती है।
अर्थ-गुण, दोषकी उत्पत्ति में जो बाह्य वस्तु निमित्त है वह कि अध्यात्मवृत्त-आत्मामें होनेवाली शुभाशुभ लक्षणरूप अन्तरंग मल कारणका अंगभूत है-सहकारी कारण है, अतः केवल अन्तरंग भी कारण कहा जा सकता है।
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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फिर यह पात्रको विशेषताको लक्ष्यमें रखकर कथन किया गया है, अतः इससे कार्य-कारणकी व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता। पात्रको विशेषताको दृष्टि में रखकर किसी कथनको विवक्षितमुख्य और अविवक्षित- पौण तो किया जा सकता है परन्तु उसे अवस्तु भूत- अपरमार्थ नहीं कहा जा सकता ।' ( ० ० पृ० ७९ ) ।
पूर्वी इस लेखले
हो'' शब्दका गौण अर्थ ही अभीष्ट है। इसकी पुष्टि पूर्वपक्ष द्वारा वहीं पर लिखे गये उक्त कथनसे हो जाती है । अतः उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें दूसरे 'अंगभूतम्' पदका अर्थ प्रकृत में 'गौण' है । किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय साभिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है' ऐसा जो असत्य कथन कर दिया है, यह आश्चर्य और दुःखकी बात है ।
कथन १० और उसकी समीक्षा
त० ० पृ० ८९ पर ही आगे उत्तरपक्षने यह कथन किया है - "अपरपक्ष ने उक्त कारिकाका अपने अभिप्रायसे अर्थ करनेके बाद जो यह लिखा है कि "फिर यह पात्रकी विशेषताको लक्ष्यमें रखकर कथन किया गया है, अतः इससे कार्यकारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता। पात्र की विशेषताको दृष्टिमें रखकर किसी serat विवक्षित मुख्य और अविवक्षित-गौण तो किया जा सकता है, परन्तु उसे अवस्तुभूतअपरमार्थ नहीं कहा जा सकता ।" उसका समान यह है कि इसमें सन्देह नहीं कि पात्रविशेषको लक्ष्यमें रखकर यह कारिका लिखी गई है, क्योंकि जो अध्यात्मवृत्त जीव होता है उसको दृष्टिमें असद्भूत और सद्भूत दोनों प्रकारका व्यवहार गौण रहता है, क्योंकि परमभावग्राही निश्चयको दृष्टिमें गौण कर तथा सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहारको दृष्टिमें मुख्य कर प्रवृत्ति करना यह तो मिध्यादृष्टिका लक्षण है, सम्यग्दृष्टिका नहीं । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा २ में स्वसमय (सम्यग्दृष्टि ) और परसमय (मिध्यादृष्टि ) का लक्षण करते हुए लिखा है कि जो दर्शन-ज्ञान चारित्र में स्थित है वह स्व-समय हूँ और जो पुद्गलकर्मप्रदेशों में स्थित है वह पर समय है। यह दृष्टिकी अपेक्षा कथन है ।"
आगे इसकी समीक्षा की जाती है ।
जैनागम में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे छह प्रकारकी वस्तुओं मानी गईं हैं । इनमेंसे प्रत्येक वस्तु एकदुसरो वस्तुसे भिन्नताको प्राप्त है। यहाँ तक कि अनन्त जीव परस्पर भिन्नताको प्राप्त हैं, अनन्त पुद्गल परस्पर भिन्नताको प्राप्त हैं और असंख्पात काल परस्पर भिन्नताको प्राप्त हैं । जीवोंमें यह विशेषता है कि वे अपने से भिन्न वस्तुओंको भी अपनेरूप या अपनी मान रहे हैं जो मिथ्या है। इस तरह समयसार गाया २ में आचार्य कुन्दकुन्दने यह बतला दिया है कि जो जीव परको अपना या अपने रूप मानता है यह मिथ्यादृष्टि है और जिस जीवने परको अपना या अपने रूप मानना छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्रको ही अपना या अपने रूप मान लिया है, वह समय दृष्टि है ।
इसी तरह कार्योत्पत्ति उपादान और निमित्त दो प्रकारके कारणोका योग मिलनेपर होती है। इन दोनों प्रकारके कारणों से उपादान तो कार्यरूप परिणत होने रूपसे कारण होता है और निर्मित उसमें सहायक होने रूपसे कारण होता है। जैनागमकी यही मान्यता है । अब यदि कोई जीव निमित्तकारणको उपादानकारणके सदृश कारण मानता है तो वह मिध्यादृष्टि है और वह भी मिथ्यादृष्टि है जो निमित्त कारणकी सहायता प्राप्त हुए बिना ही उपादानसे कार्योत्पत्ति मानता है तथा जो कार्योत्पत्तिमें उपादान
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जयपुर (लानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा कारण और निमिसकारण दोनोंके योगदानको उपर्युक्त प्रकारसे यथारूप (जैसा है येसा) मानने लगता है और कार्योत्पत्ति में उनकी उस रूपसे उपयोगिताको समझने लगता है वह सम्यग्दृष्टि है।
यहाँ इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि संयोग सम्बन्धके आधारपर सम्यग्दृष्टि जीव भी 'मह मेरा पुत्र है' 'यह मेरा मकान है' इत्यादि प्रकारके अपनेपनकी बुद्धि किया करता है । और इसे जैनागममें मिथ्यादुष्टि नहीं माना गया है। इसी प्रकार सम्पग्दृष्टि जीध घटोत्पतिमें कुम्भकारफे सहायक होनेके आधारपर 'कुम्भकारने घट बनाया ऐसा मानता है तो उसे भी जैनागममें मिथ्यावृष्टि नहीं माना गया है । अर्थात् तादात्म्य सम्बन्धको अपेक्षा जो बात मिथ्या है वह संयोग सम्बन्धको अपेक्षा सत्य हो जाती है । इसी प्रकार कार्यरूप परिणतिके रूपमे यदि निमित्तकारणताको मिथ्या कहा जाता है तो वही निमित्तकारणता कार्यम उपादानके प्रति सहायकपनेकी अपेक्षा सत्म भी मानी जाती है।
इस तरह प्रकृत वक्तव्यमें उत्तपक्षने जो यह लिखा है कि परमभावनाही निश्चयको दृष्टिमें गौणकर तथा तद्भूत व्यवहार और ससद्भुत व्यवहारको दृष्टि में मुख्यकर प्रवृत्ति करना यह तो मिथ्यादृष्टिका लक्षण है, मो उसका ऐमा लिखना जैनागमके विपरीत है, क्योंकि निश्चवदृष्टिको गौण और व्यवहार दृष्टिको मुख्य तो सभ्यग्दृष्टि भी कर सकता है। इसलिए, व्यवहारदृष्टिको निश्चवदृष्टि बना लेना ही मियादृष्टिका लक्षण है-ऐसा जानना चाहिए ।
आगे अपने मतकी पुष्टि के लिए उत्तरपक्षने वहींपर पण्डितप्रवर दौलतरामजीके 'हम तो कबहुँ म घर आये' इत्यादि भजन को भी उद्धृत किया है । परन्तु उससे उत्तरपक्षके दृष्टिकोणका समर्थन न होकर मेरे उपर्युक्त समीक्षात्मक दृष्टिकोणका ही समर्थन होता है । तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर ध्यान देना चाहिये । कथन ११ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने त च पृ० ८९-९० पर यह कथन किया है-"अपरपक्ष ने जो यन्त्र लिखा है कि "अतः इससे कार्यकारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता है ।" हम इसे भी स्वीकार करते है, क्योंकि उपचरित और अनुपचारित दोनों दृष्टियोंको मिलाकर प्रमाणदृष्टिसे आगममें कार्य-कारणको जो व्यवस्था की गई है वह 'बाह्य और आभ्यन्तर उपाक्षिकी समग्रतामें प्रत्येक कार्य होता है यह प्रन्यगत स्वभाव है' इस व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर ही की गई है। दोनोंकी समनतामें प्रत्येक कार्य होता है मह यथार्थ है, करूपना नहीं, किन्तु इनमेंसे आभ्यन्तर कारण अधार्थ है और यह यथार्थ क्यों है तथा बाह्य कारण अयथार्थ है और वह अयथार्थ क्यों है, यह विचार दूसरा है। इसे जो ठोक तरहसे जानकर वसी श्रद्धा करता है वह कार्य-कारणभावका यथार्थ ज्ञाता होता है, ऐसा यदि हम कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।"
आगे इसकी समीक्षा की जाती है ।
उत्तराशका यह कथन निर्विवाद होते हुए भी इसमें केवल इतना ही विवाद रह जाता है कि निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको पूर्व पक्ष इसलिए अयथार्थ कारण मानता है कि वह निमित्तभूत बाह्य सामग्री स्वयं कार्यरूप परिणत न होकर कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादानभत अन्तरंग सामग्रीकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक मात्र हुआ करती है और उस निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको उत्तरपक्ष इसलिए अयथार्थ कारण मानता है कि वह निमित्तभूत बाद्य सामग्री कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादानभूत अन्तरंग सामग्रीकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी नहीं हुआ करती है। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षकी परस्पर भिन्न हम
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
२२५ मान्यताओंमेसे पूर्वपक्षको मान्यता सम्यफ हैं और उत्तरपक्षकी मान्यता सम्यक नहीं है, यह प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामें स्पष्ट कर दी गई है । तत्य -जिज्ञासुओंको इस पर भी ध्यान देना चाहिए । कथन १२ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने आगे त. च. पृ० ९० पर मह कथन किया है-"विचार तो कीजिये कि यदि बाह्माम्यन्तर दोनों प्रकारको सामग्री यथार्थ होती तो आचार्य अध्यात्मवृत्त के लिए निमित्त व्यवहार योग्य बाह्य सामग्रोको दृष्टिमें गौण करनेका उपदेश क्यों देते और क्यों मोक्षकी प्रसिद्धिमें अभ्यन्तर वारणको ही पर्याप्त बतलाते । वस्तुतः इसमें संसारी बन रहने और मुक्त होनेका बीज छुपा हुआ है । जो पुरुष बाय सामग्रीको यथार्थ कारण जान अपनी मिथ्या बुद्धि या राग बुद्धि के कारण उसमें लिपटा रहता है वह सदा काल संसारी बना रहता है और जो पुरुष अपने आत्माको ही यथार्थ कारण जान तया व्यवहारसे कारणसंज्ञाको प्राप्त बाह्य सामग्रीमें हेयबुद्धि कर अपने आत्माकी शरण जाता है वह परमात्म पदका अधिकारी होता है।"
इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि एक तो पूर्वपन मोक्ष की सिद्धिके लिए बाह्य सामग्रीको मयार्थ कारण न मानकर अयथार्य कारण मानता है तथा अन्तरंग सामग्नोको ही यथार्थ कारण मानता है, केवल उसका कहना महकमोक्षसीहा बारा अवार्थकारमाना कल्पनारोपित या कथन मात्र नहीं है, अपितु सहायक होने रूपसे वास्तविकताको लिए हुए ही है। यह बात मैं सस्वचर्चाकी इस समीक्षामें स्थान-स्थान पर स्पष्ट करता माया है। दूसरे, पूर्वपक्षको यह बात मान्य है कि अध्यात्मवृत्त अर्थात लोकोसर जनके लिये उसमें बाह्य सामग्री गौण कारण है और अन्तरंग सामग्री मुख्य कारण है। परन्तु उत्तरपक्षका "वस्तुतः इसमें संसारी बने रहने और मुक्त होने का बीज छिपा हुआ है" इत्यादि कथन एकांगी है, क्योंकि अध्यात्ममें प्रवस जनको भी मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्नमें गौणरूपसे तब तक दाद्य सामग्रीका अबलम्बन रहा करता है जब तक वह पूर्ण आत्म-निर्भर नहीं हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अध्यात्ममें प्रवृत्त मुनि षष्ठ गुण स्थानमें दृष्टिरूपमें पीछी कमण्डलु आदि बाह्य सामग्रीका अवलम्बन लिए हुए रहता है। तथा सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशमगुणस्थान तक अदृष्टरूपमें द्रव्यमनका अवलम्बन उसके रहा करता है। इसके पश्चात् हो वह आत्मनिर्भर होता है। यदि ऐसा न माना जाथ और षष्ट गुणस्थानका मुनि पोछीकमण्डलु आदिको स्वीकार न करे तो वह उस अवस्थामें मुनि ही नहीं रह जायगा । इसी तरह सप्तमसे लेकर दशम तकके गुणस्थानोंमें उसकी सभी प्रवृत्तियोंको म्यमनके आधारपर मानना अनिवार्य है। ऐसा स्वीकार करके भी पूर्वपक्ष उत्तरपक्षको इस बातको मानता है कि 'जो पुरुष बाह्य सामग्रीकी यथार्थ कारण आम अपनी मिथ्याधुद्धि या रागबुद्धिके कारण उससे लिपटा रहता है वह सदा काल संसारी बना रहता है ओर जी पुरुष अपनी आत्माको ही यथार्य कारण जान तथा व्यवहारके कारण संज्ञाको प्राप्त बाह्य सामग्री में हेय वृद्धि कर अपने आत्माकी शरण आता है वह परमात्मा पदका अधिकारी होता है।' तथापि उत्तरपक्षको पूर्वपक्षके समान इस बातका ध्यान रखना अनिवार्य होगा कि मोक्षार्थी पुरुष जब तक जैनागममे निर्धारित उक्त व्यवस्थाके अनुसार प्रवृत्ति नहीं करेगा तब तक वह संसारी ही बना रहेगा। तात्पर्य यह है कि ममक्षको मोक्षमार्गी बनने के लिए सर्वप्रथम आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्तियोंका त्यागकर अपने जीवनको केवल अशक्तिवश होनेवाली आरम्मी पापरूप प्रवत्तियोंपर ही निर्भर रखना होगा। इसके पश्चात् अपाक्तिवश होनेवाली आरम्मी पापरूप प्रवृत्तियोंका भी यथाशक्ति क्रमशः एकदेश और सर्वदेशा त्याग करना
स०-२९
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
होगा अर्थात् अणुव्रती और पश्चात् महाव्रती बनना होगा। इसके भी पश्चात् वह बाह्यावलम्बनका सर्वथा त्याग कर सप्तम गुणस्थानमे वशम गुणस्थान तक द्रव्यमनके आधारपर अन्तरंग में पूर्ण आत्मावलम्बी बननेका पुरुषार्थ करेगा और इस तरह तभी एकादश वा द्वादश गुणस्थानमें ही वह पूर्णरूपसे आत्मा की शरण पा सकता है। यदि उत्तरा यवहारमय सोकर निर्भरताको बात सोचता हूँ तो उसका ऐसा सोचना बबूल के वृक्षसे आम प्राप्त करने की चाह करना मात्र है । कथन १३ और उसकी समीक्षा
आगे त० ० पृ० ९० पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है- "अपरपक्षने अपने प्रत्यक्षको प्रमाण मानकर और लौकिक दृष्टिसे दो-तीन दृष्टांत उपस्थित कर इस सिद्धान्तका खण्डन करनेका प्रयत्न किया है। कि 'उपादानके अपने कार्यके सम्मुख होने पर निमित्तव्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है । किन्तु उस पक्षका यह समग्र कथन कार्यकारणको विडम्बना करनेवाला ही है। उसकी सिद्धि करनेवाला नहीं । हम पूछते हैं कि मन्दबुद्धि शिष्यके सामने अध्यापन क्रिया करते हुए अध्यापक के रहने पर शिष्य ने अपना कोई कार्य किया या नहीं ? यदि कहो कि उस समय शिष्यने अपना कोई कार्य नहीं किया तो शिष्य को उस समय अपरिणामी मानना पड़ेगा। किन्तु इस दोषसे चचनेके लिए अपरपक्ष कहेगा कि शिष्यने उस समय भी rorer कार्यको छोड़कर अपना अन्य कोई कार्य किया है। तो फिर अपरपक्षको यह मान लेना चाहिये कि उस समय शिष्यका जैसा उपादान था उसके अनुरूप उसने अपना कार्य किया और उसमें निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री निमित्त हुई, अध्यापक निमित्त नहीं हुआ। जिस कार्यको लक्ष्य में रखकर अपरपक्षने मह दोष दिया है, वस्तुतः उस कार्यका शिष्य उस समय उपादान ही नहीं था। यही कारण है कि अध्यापन क्रियामें रत अध्यापक के होनेपर भी वह निमित्त व्यवहारके अयोग्य हो बना रहा। यह कार्य कारण व्यवस्था है, जो प्रत्येक द्रव्यके परिणाम स्वभावके अनुरूप होने से इस तथ्य की दृष्टि करती हैं कि उपाशनके कार्यके सम्मुख होने पर निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है ।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
कार्य-कारण व्यवस्थाको निर्णीत करते में उत्तरपक्षका मुख्य मुद्दा यह है कि 'उपादान के अपने कार्यके सन्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य सामग्री मिलती ही है।' विचार कर देखा जाय तो उत्तरपक्ष इस कथनका यह अभिप्राय होना चाहिये कि उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट वस्तु जिसे नित्य उपादान कहते हैं, तभी स्वपरप्रत्यय कार्यरूप परिणत होती है जब वह कार्यरूप परिणत होनेके सम्मुख अर्थात् कार्याव्यवहित पूर्वपर्यायके रूपमें अनित्य उपादान रूप परिणत हो जाती है । तो यह मान्यता तो पूर्वपक्ष भी है, परन्तु इस सम्बन्ध में पूर्वपक्षका यह कहना अवश्य है कि उसकी यह अनित्य उपादानरूप परिणति निमित्तभूत बाह्य मामग्री के सहयोगपूर्वक ही हुआ करती है और उसके अनन्तर पश्चात् जो विवक्षित कार्यरूप परिणति होती है वह भी निमित्तभूत बाह्यवस्तुके सहयोगपूर्वक ही हुआ करती हैं, क्योंकि पूर्व और उत्तर दोनों ही पर्यायें अपनी-अपनी पूर्व पर्याका कार्य होती हैं और उत्तर पर्यायका अनित्य उपादान होती हैं । पूर्वपक्षने इस आधार पर ही उत्तरपक्षके 'उपादानके अपने कार्यके सम्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्यसामग्री मिलती ही है।' इस सिद्धान्तका खण्डन किया है। इस खण्डनमें हेतु यह है कि उत्तरपक्षके उक्त सिद्धान्तसे कार्योत्पत्ति में निमित्त कारणकी अकिचित्करता सिद्ध होती हैं जबकि पूर्वपक्ष कार्योत्पत्ति में निमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर न मानकर सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही मानता है । कार्य कारण व्यवस्था के संबंध में दोनों पक्षोंके मध्य यही मतभेद है ।
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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इस मतभेद के विषय में मैंने प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें यह सिद्ध किया है कि पूर्वपक्ष की मान्यता ही प्रमाणसम्मत है, उत्तरपक्षको मान्यता प्रमाणसम्मत नहीं है । यहाँपर भी मैं संक्षेपमें इस बात को स्पष्ट कर रहा हूँ
उत्तरपक्ष यदि अपने अनुभव पर दृष्टि डाले तो उसे ज्ञात हो जायगा कि यह स्वयं उपादानसे विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति के लिये निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका बुद्धिपूर्वक अवलम्बन लिया करता है और यदि वह अपने इन्द्रियप्रत्यक्ष से समझना चाहे तो उसे समझ में आ जायगा कि दूसरे व्यक्ति भी उपादानसे विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति के लिये निमिलभूत बाह्य सामग्रीका बुद्धिपूर्वक अवलम्बन लेते हुए देखे जाते हैं ।
कार्योत्पत्ति के विषय में अनुभव और इन्द्रिय
कार्य-कारणकी पूर्व पक्षको मान्य उपर्युक्त व्यवस्था निश्चित होनेसे यदि कदाचित् कार्यत्पित्ति न हो तो इसका कारण या तो यह होगा कि वस्तुमें विवक्षित कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता रूप नित्य उपादान शक्तिका अभाव है या यह होगा कि नित्य उपादान शक्तिरूप योग्यताका सद्भाव रहते हुए भी उसमें विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिक अनुकूल निभिसभूत बाह्य सामग्रीका सहयोग नहीं मिल रहा है । जैसे यदि छात्र मन्द बुद्धि हूँ अर्थात् उसमें अध्ययन करनेकी fior उपादान शक्ति रूप स्वाभाविक योग्यताका अभाव है तो अध्यापक या पुस्तक आदि निमित्त सामग्रीका सहयोग प्राप्त होने पर भी उसमें अध्ययन रूप विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति नहीं होगी । इसपरसे यदि उत्तरपक्ष यह सिद्ध करना चाहे कि इसीलिये तो उपादानके अनुसार कार्य होता है यह सिद्धान्त मान्य किया गया है, तो इसके विषय भी यह बात कही जा सकती है कि यदि छात्र सुबोध है अर्थात् उसमें अध्ययन करनेकी नित्य उपादान-शक्तिका सद्भाव है, लेकिन यदि अध्यापक या पुस्तक आदि निमित्त सामग्रीका सहयोग प्राप्त न न हो तो वह भी अध्ययनकार्य से वंचित रह जायगा। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अध्ययन के लिए शिष्यका सुबोध होना भी आवश्यक है और अनुकूल निमित्त सामग्रीका सहयोग मिलना भी आवश्यक है । इस तरह विवक्षित कार्यको उत्पत्ति में निमित्त सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध हो जाता है ।
इसी प्रकार यदि उत्तरपक्ष तर्कके आधारपर विचार करे तो उसे ज्ञात हो जायगा कि उपादानसे जो कार्यकी उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है वह तदनुकूल निमित्तभूत बाह्य सामग्री के सहयोगपूर्वक ही देखी जाती है और उसके अभाव में कभी नहीं देखी जाती है तथा वह यदि आगमपर भी दृष्टिपात करे तो उसे ज्ञात हो जायेगा कि प्रमेयकमलमार्तण्ड (शास्त्राकार) के पत्र ५२ पर स्पष्ट लिखा है कि नित्य उपादानभूत वस्तुसे अनित्य उपादानभूत कार्याव्यवहित पूर्व पथमिकी उत्पत्ति और उसके अनन्तर पश्चात् होनेवाले कार्यकी उत्पत्ति दोनों हो अनुकूल निमित्तभूत बाह्य सामग्री के सहयोगपूर्वक होती हैं, अन्यथा नहीं । प्रमेयकमलमार्तण्डके वचनका उद्धरण मैंने प्रश्नोत्तर एकको समीक्षा में दिया है ।
इस तरह अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष तर्क और आगम - इन सभी प्रमाणोंसे पुष्ट उपर्युक्त विवेचनसे उत्तरपक्षका उसके अपने प्रकृत वक्तव्य में निर्दिष्ट 'अपरपक्षने अपने प्रत्यक्षको प्रमाण मानकर और लौकिक दृष्टिसे दो-तीन दृष्टान्त उपस्थित कर इस सिद्धान्तका खण्डन करनेका प्रयत्न किया है कि उपादान के अपने कार्य के सम्मुख होनेपर निर्मित्तव्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है। किन्तु उस पक्ष का यह समग्र कथन कार्यकारणकी बिडम्बना करनेवाला ही है, उसकी सिद्धि करनेवाला नहीं ।' यह कथन निरस्त हो जाता है तथा यह निर्णीत हो जाता है कि पूर्वपक्षका कथन कार्य-कारणकी सिद्धि करनेवाला हो है उसकी बिडम्बना करने
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
वाला नहीं है । प्रस्तुत उत्तरपक्षका कथन ही कार्य-कारणकी बिडम्बना करने वाला है, उसकी सिद्धि करने वाला नहीं ।
उत्तरपक्ष पूर्व कथनको कार्यकारणकी विम्बना करनेवाला सिद्ध करनेके लिए अपने प्रकृत में ही आगे जो यह लिखा है कि "हम पूछते हैं कि मन्द बुद्धि शिष्य के सामने अध्यापन किया करते हुए अध्यापक के रहने पर शिष्यने अपना कोई कार्य किया या नहीं ? यदि कहो कि उस समय शिष्यने अपना कोई कार्य नहीं किया तो शिष्यको उस समय अपरिणामी मानना पड़ेगा । किन्तु इस दोष से बचने के लिए अपरपक्ष कहेगा कि शिष्यने उस समय भी अध्ययन कार्यको छोड़कर अपना अन्य कोई कार्य किया है।" सो पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके इस कथनको स्वीकार करने में तो कोई आपसि नहीं है, परन्तु इसके आगे नहीं पर उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "तो फिर अपरपक्षको यह मान लेना चाहिए कि उस समय शिष्यका जैसा उपादान था. उसके अनुरूप उसने अपना कार्य किया और उसमें निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री निमित्त हुई तो इसे पूर्वपक्ष इस रूप में स्वीकार कर सकता है कि उस मन्दबुद्धि शिष्यने उस समय अध्ययन कार्यको छोड़कर जो अपना अन्य कार्य किया वह अपनी नित्य उपादान अर्थात् कार्योत्पप्तिकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप हो किया, उसकी उपेक्षा करके नहीं किया, परन्तु वहीं कार्य किया जिसके अनुकूल निमित्त भूत बाह्य सामग्रोका उसे उस समय सहयोग प्राप्त हो गया निमित्तभूत बाह्य सामग्री सहयोगकी उपेक्षा करके नहीं किया | उत्तरपक्षको भी पूर्वोक्त प्रकार अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष तर्क और आगम प्रमाणोंके आधार पर ऐसा ही स्वीकार करना उचित है ।
तात्पर्य यह है कि वस्तु में एक कार्य तो षड्गुणहानिवृद्विके रूप में निमित्तोंको अपेक्षा किये बिना ही एकके बाद एक क्रमसे सतत् स्वभावतः ही होता रहता । इसे आगम में स्वप्रत्यय कार्य कहा गया है। इसके अतिरिक्त दूसरा कार्य भी वस्तुमें हुआ करता है जिसे आगम में स्वरपरप्रत्यय कार्य कहा गया है । यह स्वरपरप्रत्यय कार्य वस्तुमें कई प्रकार से हुआ करता है। जैसे कोई स्वपरप्रत्यय कार्य वस्तुमें कार्योत्पत्सिकी नित्य उपादानभूत नाना स्वाभाविक योग्यताओंका एक साथ सद्भाव रहनेपर भी जिस योग्यता के अनुकूल प्राकृतिक रूपये निमित्तका सहयोग उस समय प्राप्त हो रहा हो उसके अनुसार हुआ करता हूँ । खानमें पड़ी हुई मिट्टी में ऐसा ही स्वपरप्रत्यय कार्य होता रहता है तथा वस्तुओं में जो पुरानापन या जोर्णता आदि अवस्थायें उत्पन्न होती हैं, वे ऐसे ही स्वपरप्रत्यय कार्य में अन्तर्भूत होती हैं। इस प्रकारके कार्य वस्तुओं में बिना का चटके सतत होते रहते हैं। इसी प्रकार वस्तु नाना योग्यताओं का सद्भाव रहते हुए भी प्राकृतिक रूपसे यदाकदा प्राप्त निमित्तोंके सहयोग से और भी विलक्षण कार्य उत्पन्न होते रहते हैं । जैसे भूकम्प आदिसे मकान आदि वस्तुओंका विनष्ट हो जाना आदि कार्य ऐसे ही कार्यमें अन्तर्भूत होते हैं । भूकम्प आदिसे नाना वस्तुओं में जो समान परिणमन न होकर पृथक-पृथक रूपमें परिणमन हुआ करते हैं, उनका कारण उनकी उपादान शक्तियोंकी भिन्नता या निमित्तों के सहयोगकी विविश्ररूपताको जानना नाहिये । इनके अतिरिक्त व्यक्ति पुरुष बलसे संग्रहीत विविध प्रकार के निमित्तोंके राहयोगसे भी यदा-कदा वस्तुओं में अपनी-अपनी उपादान शक्ति रूप स्वाभाविक योग्यताओं के आधारपर भिन्न-भिन्न प्रकारकं विवक्षित स्वपरप्रत्यय कार्य उत्पन्न होते रहते हैं । ऐसे कार्योंमें जो विविधता देखी जाती हैं वह भी उपादानशक्तिको विविधता या मिती विविधताके आधारपर ही आती हैं तथा इनके होने में व्यक्तिको कुशलता और प्रभाव हुआ करता है।
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पांका-समाधान २ की समीक्षा
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उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिके सम्बन्ध में अनुभवसे सिद्ध, इन्द्रिया त्यक्षसे ज्ञात, तकसे निश्चित और आगमसे प्रसिद्ध इस प्रकारकी कार्य-कारणव्यवस्थाकी उपेक्षा करके कल्पनाओंके श्राकाशमें विचरण करता हत्या तत्वज्ञानकी बात करता है, इससे अधिक विचारशून्यताकी बात और क्या हो सकती है?
उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्य में ही आगे जो यह लिखा है कि 'अध्यापक निमित्त नहीं हुआ' सो यह भी विवादरहित है, क्योंकि पूर्वपक्षकी गान्यता तो यही है कि कार्यरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्ति के सद्भावमें ही निमितभूत बाह्य सामग्री कार्योत्पत्तिके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारी हुआ करती है, उसका सद्भाव यदि वस्तुमें न हो तो निमित्तभूत बाल वस्तु महापर अकिंचित्कर ही बनी रहती है ।
वतः मन्दबुद्धि शिष्यमें अध्ययन रूप कार्योत्पत्तिकी स्वाभाविक योग्यता रूप नित्य उपादान शक्तिका अभाव बना हुआ है, अतः अध्यापन क्रिया करते हए अध्यापक के उपस्थित रहनपर भी उस मन्दबुद्धि शिष्य में जब अध्ययनरूप कार्यकी उत्पत्ति हो ही नहीं रही है तो अध्यापककी अध्यापन क्रियाको बाँपर निरर्थक मानने पूर्षपसको क्या आपत्ति हो सकती है ? अर्थात उसे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। इसलिए उत्तरपक्षने अपने उसी वक्तव्यमें आगे जो यह लिखा है कि 'जिस कार्यको लक्ष्यमें रखकर अपरपक्षने यहाँ दोष दिया है, बस्सुप्तः उस कार्यका शिष्ध उस समय उपादान ही नहीं था। यही कारण है कि अध्यापन क्रिया में रत अध्यापकके होने पर भी वह निमित्त व्यवहारके अयोग्य ही बना रहा ।' तो यह अनावश्यक सिद्ध हो जाता है, क्योंकि पूर्वपक्षने जो दोष दिया है उसके साथ इसका कोई विरोध नहीं है। विरोध तो तब होता जब पूर्वपक्ष कार्योत्पत्तिमें उगादानको महत्व न देकर केवल निमित्तको महत्व देता। वह तो कार्योत्पत्तिमें उपादान और निमित्त दोनोंको ही अपने-अपने रूपमें महत्व देता है। जैसा कि उसने (पूर्वपक्षने) त. च. पृ० ८२ पर उत्तरपक्षके अन्यतम प्रतिनिधि पं० फलचन्दजीके वर्णी ग्रन्थमालासे प्रकाशित तत्वार्थसूत्र सम्बन्धी कथनका उद्धरण देकर स्पष्ट क्रिया है । उनका यह उद्धरण निम्न प्रकार है
- 'जो कारण स्वयं कार्यरूप परिणम जाता है वह उपादानकारण कहा जाता है । किन्तु ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य उपादानकारण और निमित्तकारण दोनोंके मेलसे होता है, केवल एक कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, छात्र सुबोध है, पर अध्यापक या पुस्तकका निमित्त न मिले तो वह पद नहीं सकता। यहाँ उपादान है, किन्तु निमित्त नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ। छात्रको अध्यापक या पुस्तकका निमित्त मिल रहा है, पर वह मन्दजु धि है, इसलिए भी वह पढ़ नही सकता । यहाँ निमित्त है, किन्तु उपादान नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ।
यदि उत्तरपा पूर्व पक्ष द्वारा उद्धत पंक फुलचन्दजीके ही इस कथनपर ध्यान देता तो उसे पूर्वपक्ष की आलोचनाका अवसर नहीं रहता। इतना ही नहीं, उसकी (उत्तरपक्षकी) दृष्ट्रिय प्रकृत विषयकी वास्तविक स्थिति भी आ जाती । मेरा कहना तो इतना है कि उत्तरपक्षने अपने अन्यतम प्रतिनिधि पं० फूलचंदजी की मान्यताको स्वीकार नहीं किया तो वह उत्तका निजी मामला है । इसलिए इस विषयने कुछ न कहकर मैं यहीं कहना चाहता हूँ कि प्रकृत विषयकी समीक्षामें मैंने जो कुछ लिखा है, उससे उत्तरपक्षका अपने वक्तव्यके अन्त में निर्दिष्ट यह कथन कि 'यह कार्य-कारण व्यवस्था है, जो प्रत्येक व्यके परिणामस्वभाधके अनुरूप होनेसे इस तथ्य की पुष्टि करती है कि उपादानके कार्य के सम्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है,' निरस्त हो जाता है, क्योंकि कार्य-कारणव्यवस्थाका जो रूप प्रमाणसम्मत हो
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सकता है, उसको मैं अपने इस समीक्षात्मक कथन में स्पष्ट कर चुका हूँ और वह रूप ऐसा है कि वस्तुमें कार्यकी उत्पत्ति यद्यपि उन वस्तुकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्तिके अनुरूप ही होती है, परन्तु तदनुकूल निमित्तभूत बाह्य सामग्री सहयोगपूर्वक ही होती है जिसका आशय यह होता है कि प्रत्येक वस्तु प्रति समय कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यतारूप अनेक उपादान शक्तियों का सद्भाव रहता है, उनमें प्राप्त निमितों के अनुसार कोई एक कार्यकी उत्पत्ति एक समय में हुआ करती है। जैसे बाजारमें विक्रीके लिए रखे हुए कपड़े में कोट, कमोज, कुरता आदि विविध प्रकारके वस्त्र निर्माण की स्वाभाविक योग्यता रूप नाना नित्य उपादान शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं. परन्तु उपभोक्ता व्यक्ति अपने अनुकूल एक ही प्रकारका वस्त्र उससे निर्मित करता है या दर्जी निर्मित कराता है और नहीं अनुभव सिद्ध स्थिति है। इसके विपरीत उत्तरपक्षको जो यह मान्यता है कि वस्तु प्रति समय एक ही प्रकारको कार्योंत्पत्ति की योग्यता रहा करती है, इसलिए जिस वस्तुमें जिस प्रकारकी योग्यता जिस समय होगी, उस समय वही कार्य उत्पन्न होगा, निमित्त भी वहाँ अवश्य रहेगा। परन्तु वह उसमें सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहेगा, सो यह अनुभव आदि प्रमाणोंके विरुद्ध है । इसे पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है ।
उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन आगे ० च० १० ९० पर ही यह लिखा है 'प्रतमें अपरपक्षक सबसे बड़ी भूल यह है कि निति कार्य तो हुआ नहीं फिर भी वह जिसमें उस समय उसने जिस कार्यकी कल्पना कर रखी है, उसे उस समय उसका उपादान मानता है और इस आधार पर यह लिखनेका साहस करता है कि सुबोध छात्र है पर अध्यापक आदि नहीं मिले, इसलिए कार्य नहीं हुआ । अपरपक्षको समझना चाहिये कि सुबोध छात्र का होना अन्य बात है और छात्रका उपादान होकर अध्ययन क्रियासे परिणत होना अन्य बात है। इसी प्रकार अपरपक्षको यह भी समझना चाहिये कि अध्यापकका अध्यापन रूप क्रियाका करना अन्य बात है और उस क्रिया द्वारा अन्यके कार्य में व्यवहारसे निमित्त बनना अन्य बात है ।' आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वपक्ष ० ० ० ८२ पर सुबोच छात्र और मन्द बुद्धि छावको आधार बनाकर जो कुछ लिखा है उसका अभिप्राय यह है कि सुबोध छात्र में अध्ययन कार्यकी स्वाभाविक योग्यता पाई जाती है, लेकिन अध्यापक आदि निमित्त सामग्रीका सहयोग न मिलने से वह अध्ययन कार्यसे वंचित रह जाता है। और मन्दबुद्धि छात्र में अध्ययनकार्यकी स्वाभाविक योग्यताका ही अभाव रहता है, इसलिए अध्यापक आदि निमित्त सामग्रीका सह्रयोग मिलनेपर भी वह अध्ययन कार्यसे वंचित रह जाता है । उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके कपनकी जो बालोचना की है उसमें उसने पूर्वपक्ष के इस अभिप्रायको समझने की चेष्टा करना आवश्यक नहीं समझा है । इसलिये वह अपने वनतव्यमे लिखता है कि 'अपरपक्ष की सबसे बड़ी भूल यह है कि विवक्षित कार्य तो हुवा नहीं, फिर भी वह जिसमें उस समय उसने जिस कार्यकी कल्पना कर रखी है, उसे उस समय उसका उपादान मानता है और इस आधारपर यह लिखनेका साहस करता है कि सुबोध छात्र है पर अध्यापक आदि नहीं मिले, इसलिए कार्य नहीं हुआ। सो इसे मैं उत्तरपक्षकी हो सबसे बेटी भूल मानता हूं, क्योंकि जिस प्रकार आत्मामें सर्वशित्व और सर्वज्ञत्व ये दोनों शक्तियां स्वभावतः मानी गई है, अन्यथा आत्मा कदापि सर्वदर्शी और सर्वज्ञ नहीं बन सकता हूँ फिर उसमें व दोनों शक्तियां समस्त ज्ञानावरण और समस्त दर्शनावरण कमका क्षय हो जानेपर लब्धि रूपमें व्यक्त होती हैं परन्तु वह जो सर्वदशीं ओर सवंश हो रहा है अर्थात् सर्वको देख और जान रहा है वह देखना और जानना सर्वसापेक्ष ही तो हो रहा है। इसी प्रकार पदार्थोंमें जो
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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स्वपरप्रत्यय कार्योके होने की स्वाभाविक योग्यता मानी गई है वह उपादान और निमित्त उभय कारण जन्यताके सपमें ही स्वीकार करना उचित है जिसका आाय यह होता है कि उपादान जो कार्यरूप परिणत होता है, उसको वह कार्यरूप परिणति निमित्तकारणभूत वस्तुको महायतापूर्वक ही हुआ करती है। इसके अनुसार उपादानभूत वस्तुमें उपाधानता अर्थात कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यताके भमान निमित्तभूत वस्तुमें निमित्तता अर्थात उपादानकी कार्यरूप परिणतिम सहायक होनेरूप स्वाभाविक योग्यता भी स्वीकार करना आवश्यक है। इससे निर्णीत होता है कि उपादान और निमित्त दोनों ही प्रका के कारण नित्य और अनित्य दो-दो प्रकारके होते है। अत: जिस प्रकार कार्यरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तुको नित्य उपादान और उसकी कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायको अनित्य उपादान माना जाता है उसी प्रकार नित्य उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेरूण स्वाभाविक योग्यताविशिष्ट वस्तुको नित्य निमित्त और उसके उस उपादानभत' वस्तुको कर्यरूप परिणतिमें सहायक होनेरूप व्यापारको अनित्य निमित्त जानना चाहिए । जैसे कोई व्यक्ति अपने पुत्रको अध्ययन करने योग्य समझकर उसे अध्ययन करानेकी दृष्टिसे अध्यापक अर्थात् अध्यापन करानेकी योग्यता विशिष्ट व्यक्ति के पास ले जाता है । अध्यागी उन दुई पामार कर यो मतकर उसे लक्ष्य करके अध्यापन क्रिया करने लग जाता है । अब यदि पुत्र सुबोध होता है अर्थात् अध्ययन करनेकी स्वामाविक योग्यता विशिष्ट होता है तो वह अध्यापककी उस अध्यापन क्रियाकी सहायतासे अध्ययन करनेमें सफल हो जाता है। इसके विपरीत पुत्र यदि मन्दबुद्धि हुआ अर्थात् अध्ययन करनेको स्वभाविक योग्यतारहित हुआ तो अध्यापककी अध्यापन क्रियाकी सहायता प्राप्त रहनेपर भी वह अध्ययन करने में असमर्थ ही बना रहता है । कार्यकी उत्पत्ति में उपादानोपादेयभाव और निमित्त नैमित्तिकभावकी यही प्रक्रिया है। परन्तु उत्तरपक्ष ऐसा न मानकर कहता है कि उपादान अपने कार्य के सन्मुख होनेपर अर्थात् कार्यान्यवहित पूर्व पामरूप परिणत होनेपर नियमसे कार्यरूप परिणत हो जाता है और निमित्त यद्यपि वहां उपस्थित रहता है, परन्तु वह उपादानकी उस कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिंचिकर ही बना रहता है अतः उसमें केवल निमित्त व्यवहार किया जाता है, सो उसकी यह मान्यता एकान्त नियतिवाद और एकान्त नियतवादपर ही आधारित है। इन दोनों वादों की समीक्षा में प्रश्नोत्तर ५ और प्रश्नोत्तर ६ को समीक्षा करते समय कामंगा इस सम्बन्धमें मैं यहां मात्र इतना कह देना आवश्यक समझता है कि निमित्तभूत वस्तुमें उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेरूप निमितताको यदि नित्य नहीं माना जाय, तो बद्धिमान व्यक्तिका उस कार्यकी उत्पत्ति में उसकी कार्योत्पत्तिके पूर्व महण करना संभव नहीं रह जायगा। इतना ही नहीं, जब कायोत्पत्ति में निमित्त सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है तो उसमें निर्मितव्यवहार करनेकी क्या आवश्यकता रह जाती है। तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर विचार करना चाहिये ।
उत्तरपक्षने अपने इसी वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि 'अपरपक्षको समझना चाहिए कि सुबोध छात्रका होना अन्म बात है और छात्रका उपादान होकर अध्ययन क्रियासे परिणत होना अन्य बात है।" सो उत्तरपक्षके लिए 'सुबोध छात्रका होना' इस कथनको छात्रकी अध्ययन करनेकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्तिका परिचायक व 'उपादान होकर क्रियासे परिणत होना' इस कथनका अध्ययन करने में प्रवत्तिसे अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप अनित्य उपादान शक्ति का परिचायक ही मानना होगा, जिसके विषयमें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। इसी तरह उत्तरपक्षने वहींपर जो यह लिखा है कि “इस प्रकार अपरपक्षको यह भी समझना चाहिए कि अध्यापकका अध्यापनरूप क्रिया करना अन्य बात है और उस किया द्वारा अन्यके
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कार्यमें व्यवहारसे निमिस बनना अभ्य बात है"सो इस सम्बन्धमे भी मेरा यह कहना है कि इन दोनों बातोंको अन्य-अन्य मानने में भी पूर्वपशको उत्तरपक्ष के साथ कोई विरोध नहीं है, क्योंकि अध्यापक अध्ययन करनेकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्ति बिशिष्ट सुबोध छात्रके समक्ष भी अध्यापन क्रिया करता है और बह अध्ययन करने की स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शाक्तिसे रहित मन्द बुद्धि छात्रके समक्ष भी अध्यापन क्रिया करता है, परन्तु सुबोध छात्रके प्रति उसको वह क्रिया सार्थक होती है और मन्दबुद्धि छात्रके प्रति उसकी वह क्रिया निरर्थक ही बनी रहती है। इस प्रकार पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य मान्यताकी इतनी समानता रहते हुए भी सतभेद यही है कि जहां उत्तरपक्ष कार्योत्पत्ति में कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायको मुख्य उपादान मानकर निमित्तको सर्वथा अकिंचिरफर मान लेता है वहां पूर्वपला ऐसा मानता है कि कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादानशक्ति विशिष्ट वस्तु जय कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायल्प परिणत हो जाती है तभी उस बस्तुकी कार्यरूप परिणति होती है, परन्तु उस वस्तुको वह कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायकप परिणति तथा उसके पक्ष होमेगाली विलित कार गिनिमि मृत डाका सहयोग मिलनपर ही होती है और न मिलनेपर नहीं होती है-ऐसा मानकर पूर्वपश निमित्त को भी उतना ही सहायक होने रूपसे मुख्य मानता हुआ कार्यकारी ही मानता है। यह विषय पूर्व में भी स्पष्ट किया जा चुका है और प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामें भी स्पष्ट किया जा चुका है तथा यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षकी मान्यता ही आगमसम्मत है, उत्तरपक्ष की मान्यता आगमसम्मत नहीं है ।
इसी प्रसंगमें उत्तरपक्षनेतः च ५०९०-९१पर यह भी कथन किया है कि "अध्यापक अध्यापनकला सीखने के लिये एकान्तमें भी अध्यापनक्रिया कर सकता है और मन्दबुद्धि छात्रके सामने भी इस क्रियाको कर सकता है । पर इन दोनों स्थलोंपर वह निमित्तम्यवहारपदवीका पात्र नहीं। इसमें अध्यापनरूप निमित्त व्यवहार तभी होता है जब कोई छात्र उसे निमित्त कर स्वयं पढ़ रहा है। यह कार्य-कारणव्यवस्था है जो सदा काल प्रत्येक कार्यपर लागू होती है। अतः अपरपक्षने अपने प्रत्यक्ष ज्ञानको प्रमाण मानकर जो कुछ भी यहां लिखा है वह यथार्थ नहीं है, ऐसा समझना चाहिये ।' सो इसका निराकरण यथायोग्य रूपमें मेरे उपयुक्त विवेचनसे ही हो जाता है अर्थात अध्यापक अध्यापनकला सीखने के लिये एकान्त जो अध्यापन किया करता है और मन्दबुद्धि छात्रके सामने भी जो अध्यापन किया करता है तो अध्यापकका उक्त दोनों स्थानोंपर क्रिया करना तो निर्विवाद है। परन्तु एकान्तमें की गई वह क्रिया अध्यापन सीखनेकी दृष्टिसे कार्यकारी ही है, निरर्थक नहीं। इसके अतिरिक्त मन्दबुद्धि छारके सामने अध्यापक जो अध्यापन किया करता है, वह यद्यपि निरर्थक है, क्योंकि मन्दबदि छात्रको उससे कोई लाभ नहीं होता, परन्तु इससे अध्ययन और अध्यापनमें जो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बना हुआ है उसपर इसका कोई विरुद्ध प्रभाव नहीं पड़ता है। इस प्रकार उत्तरपक्षका वह लिखना कि यह कार्य कारण व्यवस्था है जो सदा काल प्रत्येक कार्यपर लागू होती है, बिलकुल निरुपयोगी है और अनुभव, युषित और आग मसे विरुद्ध है ।
आश्चर्य तो यह है कि उत्तरपक्ष कार्यकारणको व्यवस्थाका जैशा प्रतिपादन यहाँ कर रहा है उसका उपयोग वह स्वयं नहीं करता है और न कर ही सकता है । इसलिये कहा जा सकता है कि वह स्वयं अन्धकारमें विचरण कर रहा है और दूसरोंको भी उस अन्धकारमें पटक देना चाहता है। इसपर भी उत्तरपक्ष विचार नहीं करना चाहता है तो न करे परन्तु तत्वजिज्ञासुओंको तो विचार करना ही चाहिये।
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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कथन १४ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षनेत० च० पू० ९१ पर ही आगे लिखा है -- अपरपक्षने प्रकृत में पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका, पं० फूलचन्द जी कृत तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका और पादपुराण के प्रमाण देकर प्रत्येक कार्य में बाह्य सामग्री की आवश्यकता सिद्ध की है। समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता में होता है, इस सिद्धान्त के अनुसार नियत बाह्य सामग्री नियत आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक होने से व्यवहारनय से आगम में ऐसा कथन किया गया है किन्तु इतने मात्र से इसे यथार्थ कथन न समझकर व्यवहार कथन ही समझना चाहिये। एकके गुण-धर्मको दूसरेका कहना यह व्यवहारका लक्षण है। अतएव व्यवहारनयसे ऐसा ही कथन किया जाता है जो व्यवहारवचन होनेसे आगममें और लोकमें स्वीकार किया गया है।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वपक्ष द्वारा ० ० ९३ पर उद्धृत पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका, पं० फूलचन्द्रजी कृत तस्यार्थसूत्र की टीका और पार्श्वपुराणके कथनीके विषय में उत्तरपक्षने अपने उक्त कथनमें विरोध न दिखला - कर उसमें उसने केवल यह लिखा है कि 'नियत बाह्य सामग्री नियत आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक होनेसे व्यवहारनयसे मागम में ऐसा कथन किया गया है।' सो उत्तरपक्ष के इस कथन के विषय में ऐसा कहा जा सकता हूँ कि वह पक्ष नाकको सीधे मार्गसे न पकड़कर घुमावदार मार्गसे पकड़ना चाहता है, अर्थात् यह बाह्य सामग्रीको जो आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक मानता है, सो इससे तो कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीकी उसको मान्य अर्किचित्करताका खण्डन हो होता है। दूसरे बाह्य सामग्रीको आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक मानने में उसका आधार क्या है ? यह प्रश्न उसके सामने खड़ा हो जाता है, जिसका समाधान उसके पास नहीं है, तीसरे, बाह्य सामग्रीको कार्योत्पत्ति में जब वह सर्वथा अकिंचित्कर ही मानता है, तो उसे बाह्य सामग्री से आभ्यन्तर सामग्री में कार्योत्पत्तिको सूचना कैसे प्राप्त होती हैं, यह बात भी उसे विचारणीय बनी जाती है। चौथे, जब बाह्यसामग्री आभ्यन्तर सामग्री से होनेवाली कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिचित्कर ही बनी रहती है ऐसी मान्यता उसकी है तो उसको बाह्य सामग्री द्वारा आभ्यन्तर सामग्री से होनेवाली कार्योत्पत्ति में सूचना प्राप्त करने की आवश्यकता हो क्या रह जाती है ? यह भी उसे सोचना है ।
उत्तरपक्ष ने अपने वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि व्यवहारनयसे ऐसा कथन किया जाता है सो यह निर्विवाद है. क्योंकि बाह्य सामग्री आम्मन्तर सामग्री से होनेवाली कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपसे व्यवहार कारण ही होती है, आभ्यन्तर सामग्री की तरह निश्चय कारण नहीं। इसलिये वह निश्चयनयका विषय न होकर व्यवहारनयका ही विषय मानी जा सकती है क्योंकि कार्य कारणभावके प्रसंग में निश्चयनयका विषय वस्तुका कार्यरूप परिणत होना ही मान्य किया गया है। उत्तरपक्ष व्यवहारनयके विषयको जो कपोलकल्पित या कथनमात्र मान लेना चाहता है उसका निराकरण प्रश्नोत्तर १ की समीक्षा में स्थान-स्थानपर किया जा चुका है ।
स०-३०
उत्तरपक्षने अपने वक्तव्य में " एकके गुण-धर्मको दूसरेका कहना" इसे जो व्यवहारनयका लक्षण बतलाया है सो इस विषय में भी पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है । परन्तु एकके गुण-धर्म को दूसरेका वहीं पर कहा जाता है जहाँ मुख्यरूपताका अभाव व निमित्त और प्रयोजनका सद्भाव रहा करता है अन्यथा नहीं । आलाप पद्धतिके 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपकारः प्रवर्तते' इस बचनका यही आशय है । इस विषयको भी प्रयनोसर १ की समीक्षा में स्पष्ट किया जा चुका है ।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
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कथन १५ और उसकी समीक्षा
आगे ८० च० पृ० ९१ पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है- 'अपरपक्षने प्रवचनसार गाथा २११२१२ की टीकाका प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि कहीं कहीं मात्र शरीरको क्रियासे भी धर्म-अधर्म होता है जैसे कि मात्र शरीरकी चेष्टासे संयमका छेद होना' किन्तु अपरपक्षका यह होठ मार्ग न की गई कायचेष्टा के अभावको सूचित करनेके लिये आचार्यने फायचेष्टामात्राधिकृत रायमछेदको बहिरंग-संयम कहा है और इसलिये आचार्यने अल्प प्रायश्चित्त कहा है। स्पष्ट है कि इस वचनसे अपरपक्ष के अभिमतकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत इस वचनसे तो यही सिद्ध होता है कि आत्मकार्य में साववान व्यक्ति यदि बाह्य शरीरचेष्टाको प्रयत्नपूर्वक भी करता है। तो भी शरीरको क्रिया करने का भाव दोषाधायक माना गया है और यही कारण है कि परमागम में सूत्रोक्त विधिपूर्वक प्रत्येक क्रियाका प्रायश्चित्त कहा है ।"
आगे वहीं पर उत्तरपक्षने यह लिखा है- "यहाँ अपरपक्षने जो मणिमाली मुनिकी कथा दी है वह शयन समयकी घटनाएं सम्बन्ध रखती है । उस समय मुनिको कायगुप्ति ऐसी होनी चाहिये थी कि उसको निमित्त कर शरीरखेष्टा नहीं होती, किन्तु मुनि अपनी काय गुप्ति न रख राके। यह दोष हैं। इसी दोषका उद्घाटन उस कथन द्वारा किया गया है। मालूम पड़ता है कि यहाँ अपरपक्ष ऐसे उदाहरण उपस्थित कर यह सिद्ध करना चाहता है कि आरमकार्यमें अन्तरंग परिणामोंके अभाव में भी शरीरको क्रियामास धर्म हो जाता है, जो युक्त नहीं है ।"
उत्तरपक्ष के इन दोनों अनुच्छेदोंकी समीक्षामें में यह कहना चाहता हूँ और पहले कहा भी जा चुका है कि जीवित शरीरकी क्रिया दो तरहको होती है— एक तो शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया और दूसरी जो के सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया ! सो पूर्वपक्षने प्रकृत प्रश्न शरीर के सहयोग से होनेवाली tant कियाको लक्ष्यमें रखकर ही उपस्थित किया है, जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियाको लक्ष्य में रखकर नहीं, क्योंकि पूर्वपक्ष भी सर्वार्थसिद्धि (७-१३) में उद्धृत वियोजयति चासुभिनं स वघेन संपूज्यते' इस वचन के आत्रारपर जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियाले आत्मामें धर्म-अधर्म नहीं मानता है । इसलिये उत्तरपक्षको पूर्वपचको इस दृष्टिको ध्यान में रखकर ही प्रकृतमें विचार करना था । अर्थात् जीवके सहयोगले होनेवाली शरीरकी क्रिया तो किसी भी अवस्थामें धर्म-अधर्मका कारण नहीं होती हैं । अब रह जाती है शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रिया । सो शरीर के सहयोगसे होने वाली जीवकी यह क्रिया दो तरह से होती है - एक तो अन्तरंग मानसिक परिणाम की प्रेरणासे होती है और दूसरी अन्तरंग मानसिक परिणामकी प्रेरणा न होनेपर भी होती है। इनमें से जो शरीर के सहयोग होनेवाली जीवकी क्रिया अन्तरंग मानसिक परि शामकी प्रेरणासे होती है वह तो धर्म-अधर्मका कारण होती ही है, लेकिन जो शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया अन्तरंग मानसिक परिणामकी प्रेरणा के बिना ही होती है, वह भी धर्म-अधर्मका कारण होती है । इसे लक्ष्य में रखकर ही पूर्वपन त० च० पु० ८३ पर अपना कथन उसकी आलोचनामें जो कुछ उक्त अनुच्छेदों में लिखा है वह अप्रासंगिक और निरर्थक है । कथन १६ और उसकी समीक्षा
किया है। इस तरह उत्तरपक्षने
आगे त० च० पृ० ९१ पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है कि 'केवली जिनके पुण्यको निमित्त कर चलने आदि रूप क्रिया होती हैं, इसमें सन्देह नहीं, पर इतने मात्रसे वह मुक्तिकी साधन नहीं मानी
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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जा सकती । अन्यथा योग निरोध करके केबली जिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यानको क्यों ध्याते ? जिस जिनागम में क्षायिक चारित्रके होनेपर भी योगका सद्भाव होने से क्षायिक चारित्रको सम्पूर्ण चारित्र रूप से स्वीकार नहीं किया गया हो उस जिनागमसे यह फलित करना कि केवली जिनकी चलने आदि रूप क्रिया मोक्षका कारण हैं, उचित नहीं हूँ । प्रत्युत इससे यही मानना चाहिए कि केवली जिनके जब तक योग और तदनुसार बाह्य क्रिया है तब तक ईर्यापथ आस्रव ही हैं ।"
आगे उसी पर उतरपक्षने लिखा है - "केवली जिन समुचात अपने वीर्यविशेषसे करते हैं और उसे निमित्त कर तीन कर्मोका स्थिति घात होता है । अन्तरंग में वीतराग परिणाम नहीं है और वीर्यविशेष भी नहीं है। फिर भी यह क्रिया हो गई और उसे निमित्तकर उक्त प्रकारसे कर्मोंका स्थितिघात ऐसा नहीं है !"
गया,
इसकी समीक्षा में मुझे मात्र इतना ही कहना है कि पूर्वपाने जिस अभिप्राय से त० ब० पृ० ८४ पर अपना कथन किया है उससे विपरीत आशय ग्रहण करके ही उत्तरदाने उसकी आलोचना करनेका प्रयत्न किया है जो अयुक्त हैं। उस कथन में पूर्वपक्षका क्या आशय है, इसे ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है ।
यह तो सुनिश्चित है प्रकृतिवन्ध और
तात्पर्य यह है कि पूर्व पशन त० च० पृ० ८५ पर जो कथन किया है उसमें उसका अभिप्राय यह है कि संसारका कारणभूत कर्मबन्न प्रदेशबन्ध के साथ होने वाला स्थिति और अनुभागबन्ध हो होता है । केवल प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध संसारका कारण नहीं होता | इसलिए केवलीजिनको क्रिया प्रकृतिबन्ध और प्रदेशवन्त्र रूप कर्मबन्धका कारण होकर भी नियमसे संखारवृद्धि कारण नहीं होती है । इस अपेक्षासे ही उसे मोक्षका कारण पूर्वपक्षने माना है । उत्तरपक्षने पूर्वपाके' कथनको आलोचना करनेके प्रसंग में उक्त अनुच्छेदों में जो कुछ लिखा है उससे पूर्वपक्ष अनभिज्ञ है या वैसा वह नहीं मानता है, ऐसी बात नहीं है। इसलिये पूर्वपक्ष कथन की आलोचनासे पूर्व उसका कर्तव्य था कि प्रवचनसार गाथा ४५ के अभिप्रायपर विचार करता, क्योंकि जिस प्रकारसे उसने पूर्व पके नको आलोचना की है उस प्रकारसे तो प्रवचनसार गाथा ४५ भी उसका आलोच्य हो जाती है जो संभवतः उत्तरपक्षको अभीष्ट नहीं है। इसलिये मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षकी इस विषय में सिर्फ विरोध के लिए विरोध करनेकी नीति उचित नहीं मानी जा सकती है ।
कथन १७ और उसकी समीक्षा
आगे त० च० पृ० ९२ पर उस रपक्षने पूर्वपाके त० च० पृ० पृ० ३०२ में निर्दिष्ट बचनको उद्धृत कर किये गये विवेचनको उपस्थित करके उसके कुछ लिखा है उसके संबंध में भी मेरा यही कहना है कि उत्तरपक्षने वह भी केवल करने की नीतिको अपना कर ही लिखा है क्योंकि उससे भी पूर्वपक्षकी दृष्टिका नहीं है।
८४ पर धवलसिद्धान्त पुस्तक २
समाधान के रूपमें जो विरोधके लिए विरोध निराकरण होना संभव
इस प्रश्नोत्तर में सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि उत्तरपक्षने पूर्वपदाकी आलोचना करनेका मूल आधार जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको बनाया है जबकि पूर्वपक्षका प्रश्न शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रिया से सम्बद्ध है। उत्तरपक्ष इस बातको अन्त अन्त तक नहीं समझ पाया है या समझ कर भी उसकी उपेक्षा ही करता आया है। अतः अन्त में भी उसने यही लिखा है कि "शरीरकी क्रिया परद्रव्य
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा (पद्-गल) की पर्याय होनेसे उसका अजीव तत्त्व में अन्तर्भाव होता है" यह तो यही कहावत हुई कि 'पंयोंकी बातें सिर माथे पर पनाला वहींका वहीं रहेगा।'
इसी तरह उसने वहींपर जो यह लिखा है कि "अतः उसे आत्माकै धर्म-अधर्ममें उपचारसे निमित्त कहना अन्य बात है। वस्तुत: यह आत्मा अपने शुभ-अशुभ और युद्ध परिणामोंका कर्ता स्वयं है । अतः बही उनका मुख्य हेतु है ।" सो मैं पूर्व में स्पष्ट कर चुका हूँ कि पूर्वपक्षने अपने वक्तव्योंमें शरीरकी क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्ममें उपचरित हेतु नहीं मानकर शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको ही उपरित हेतु माना है क्योंकि आगम में ऐसा ही मान्य किया गया है। इसलिये उत्तरपक्षका शरीरको क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्म में उपरित कारण मानना मिथ्या ही है। अतः उत्तरपक्षको शरीरफे मयोगसे होनेवाली जीवको क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्मका कारण मानना चाहिये । यह सब विषय में पूर्वमें स्पष्ट कर चुका हूँ । पूर्वपक्षने इस बातका कहीं विरोध नहीं किया है कि "वस्तुतः यह आत्मा अपने शुभ-अशुभ और शुद्ध परिणामोंका कर्ता स्वयं है, अतः वही उनका मुख्य (निश्चय) हेतु है ।" पूर्वपक्ष का कह्ना तो यह है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया आत्माकी धर्म-अधर्मरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तवारण होती है वह वहाँ अविचित्कर नहीं रहती है।
१. प्रश्नोत्तर ३ को सामान्य समीक्षा
पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?-ता च पृ० ९३ ।
उत्तरपक्षका उत्तर-(क) इस प्रश्नमें यदि "धर्म" पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदवाकी परिगणना शुभपरिणामोंमें की गई है और शुभ परिणामको आगममें पुण्यभाव माना है ।-त० च पृ० ९३
(ख) यदि इस प्रश्नमें "धर्म" पदका अर्थ वीतराग परिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिच्याव है, क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होने के कारण उसका आस्रव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव होता है, संवर और निर्जरा तत्बमें अन्तर्भाव नहीं होता ।--त. च. पृ० ९३ जीवदयाके प्रकार
(१) जीवदयाका एक प्रकार पुण्यभान रूप है । इसे आगमके आधारपर उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष भी मानता है तथा उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष यह भी मानता है कि पण्यभाव रूप होने के कारण उसक अन्तर्भाष आस्रव और बन्धतत्व होता है, संवर और निर्जरामें अन्तर्भाव नहीं होता। इसके सम्बन्ध दोनों पक्षोंमें इतना मतभेद अवश्य है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुण्यभाष रूप जीवदयाको व्यवहारधर्म रूप जोव दयाकी उत्पत्ति में कारण मानता है वहाँ उस रपक्ष इस बातको स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं है। पुण्यभाव रूप जीबदसा व्यवहारधर्म का जीव दयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है. इस बातको आगे स्पष्ट किया जायेगा।
(२) जीवदयाका दुसरा प्रकार जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चयधर्मरूप है । इराकी पुष्टि पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें धवल पुस्तक १३ के पृष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट निम्न वचनके आधारपर की है
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
" करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो"
अर्थ --- करुणा जीवका स्वभाव है अतः इसके कर्मजनित होने का विरोध है । यद्यपि त्रास नमें जीवदयाको जीवका स्वतःसिद्ध स्वभाव बतलाया है, परन्तु जीवके स्वतः सिद्ध स्वभावभूत वह जीवनमा अनादिकाल मोहनीय कर्मको क्रोध प्रकृतियोंके उदयसे विकृत रहती आई है, अतः मोहनीय कर्मकी उन को प्रकृतियों के यथास्थान यथायोग्य रूपमें होनेवाले उपनाम, क्षय या क्षयोपशमसे जब वह शुद्ध रूपमें विकासको प्राप्त होती है तत्र उसे निश्चयधर्मरूपता प्राप्त हो जाती है । इसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्चतत्व में नहीं होता, क्योंकि जीन के शुद्धस्वभावभूत होने के कारण वह कमके आलव और बन्धका कारण नहीं होती है। तथा इसका अन्तर्भाव संयर और निर्जरा तत्त्व में भी नहीं होता, क्योंकि इसकी उत्पत्ति ही संघर और निर्जरापूर्वक होती है ।
(३) जीवदयाका तीमरा प्रकार अदयाप अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्तिके रूपमें व्यवहार है। इसका समर्थन पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें आगम प्रमाणों के आधारपर किया है । इसका अन्तर्भाव अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनेके आधारपर संबर और निर्जराका कारण होनेसे संवर और निर्जरा तत्त्व में होता है व दयारूप पुण्यप्रवृत्तिरूप होनेके आधारपर आस्रव और बन्धका कारण होनेसे आस्रव और बन्धतत्त्वमें भी होता है। क्रमोंके संवर और निर्जरण में कारण होनेसे यह व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारण सिद्ध होती है।
पुष्यभूत दयाका विशेष स्पष्टीकरण
भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीव सतत विपरीताभिनिवेश और मिथ्याज्ञानपूर्वक आसक्तियश अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं । तथा कदाचित संसारिक स्वार्थवश दयारूप पुष्वमय शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं। ये जीव यदि कदाचित भदवारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति के साथ सम्यक् अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञानपूर्वक कर्त्तव्यवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो उनके अन्तःकरणमें उस अक्ष्यारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे घृणा उत्पन्न हो जाती है और तब वे उस अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। इस तरह वह पुण्यभावरूप जीवदया अदमारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत्तिपूर्वक होने वाली दयारूप, पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहार धर्म की उत्पत्ति कारण सिद्ध होती है ।
निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
निश्चयधर्मरूप जीवक्ष्वाकी उत्पत्ति भय जीव में ही होती है, अभव्य जीन में नहीं । तथा उस भव्यजीव में उसकी उत्पत्ति मोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संजयनरूप कषायोंकी को प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्य उपशम, अय या क्षयोपशम होनेपर शुद्ध स्वभावके रूप में उत्तरोत्तर प्रकर्षको लेकर होती है । इसकी प्रतिक्रिया निम्न प्रकार है
(क) अभव्य और भव्य दोनों प्रकार के जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकाल से अनन्तानुबन्धी आदि उक्त चारों कषायों को क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अवाप विभावपरिणमन होता आया है। दोनों प्रकारके जीवोंमें उस अदयारूप विभावपरिणमनकी समाप्ति में कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रायोग्य लब्धियोंके विकासको योग्यता स्वभावतः विद्यमान है । भव्य जीवों में तो उस अदयारूप विभाव परि
तिकी समाप्तिमें अनिवार्यकारणभूत आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासको योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है। इस तरह जिरा भव्य जीवमें जब क्षयोपशम, बिशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास हो जानेपर उक्त करणलब्धिका भी विकास हो जाता है तब सर्वप्रथम उस करणलब्धिके बलसे उम भन्य जीवमें मोहनीय कर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तोम प्रकृतियोंका व चारित्रमोहनीयकम प्रयग भेद अनन्तानुबन्धी कषायको नियमसे विद्यमान मान, माया
और लोभ प्रकृतियों के साथ क्रोच प्रकृतिका भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर चतुर्थ गणस्थानके प्रथम समय में उसकी उस भावनती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें एक प्रकारकी जीवदयारूप परिणमन होता है।
(ख) इराके पश्चात् उरा भव्य जीवमें यदि उस आत्मोन्मुखताका करणलब्धिका विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलमे उसमें चारित्रमो नीय कर्भके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमरो विद्यमान मान, मामा और लोभ प्रकृतिगोरे स. ध सिमामी क्षोनशन होनेपर पनमगुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म के रूपमे दूसरे प्रकारकी जीवदयारूप परिणमन होता है।
(ग) इसके भी पश्चात् उस भश्य जीवमें यदि आत्मोन्मुखता रूप करणलब्धिका और विशेष उत्कर्ष हो जाये तो उसके बलसे उसमें चारित्र-मोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भो क्षयोपशम होनेपर सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधमक रूपमें तीसरे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि सप्तम गुणस्थानको प्राप्त जीव सतत सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे झुलेकी तरह झूलता रहता है ।
(घ) उक्त प्रकार सप्तमसे षष्ठ और षष्ठरी सप्तम दोनों गुणस्थानोंमें झुलते हुये उस जीयमें यदि सप्तमगुणस्थानों पूर्व ही दर्शनमोहनीय कर्मको उक्त तीन और चारित्रमोहनीय कर्म के प्रथम भेद अनन्तुबन्धी कषायकी उक्त चार इन सात प्रकृतियांका उपशम या क्षय हो चुका हो अथवा सप्तम गुणस्थानमें ही उनका उपवाम या शय हो जावे तो उसके पश्चात् वह जीव उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका सप्तम, अष्टम
और नवम गुणस्थानोंमें क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और भनिवृत्तिकरणके रूप में और भी विशेष उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है और तब नवम गणस्थानमें ही उस जीवमें चारित्रमोहनीय कर्मके उक्त द्वितीय और सतीय भेदरूप अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी क्रोध प्रकृतियों के साथ चारित्रमोहनीयकर्मके ही चतुर्थ भेद संज्वलन कषायकी क्रोष प्रकृतिका भो उपशम या क्षय होनेपर उस जीवको उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें चौथे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है।
इस विवेचनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भव्य और अभय दोनों प्रकारके जीवोंको भाववती शाक्तिका अनादिकालसे चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता है. परन्तु जब जिस भव्य जीवको उस भाबवती शक्ति अदयारूप विभाव परिणमन यथास्थान उरा-उस क्रोध प्रकृतिका यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर यथायोग्यरूपमें समाप्त होता जाता है तब उसके बलसे उस जीवकी उस भाववतोशक्तिका उत्तरोत्तर विशेषता
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शंका-समाधान ३ को समीक्षा
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लिये हुये शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्म के रूपमें दयारूप परिणमन भी होता जाता है । इतना अवश्य है कि उन उन कोष प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्य रूप में होनेवाला वह उपदाम श्रय या क्षयोपशम उस भव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासपूर्वक आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है।
व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
मध्य जीयमें उपर्युक्त पांचों लब्धियोंका विकास तब होता है जब वह जीव अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप मानशिक यावनिक और कायिक दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तियों को क्रियावती शक्ति ही परिणमनस्वरूप मानसिक, वावनिक और कायिक अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृतियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति के रूप में सर्वथा निवृत्तिपूर्वक करने लगता है । इन अश्वारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तियों से सर्वथा निवृत्तिपूर्वक की जानेवाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिका नाम ही व्यवहारधर्मरूप दया है । इस तरह यह निर्णत है कि जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमन स्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदया के बलपर ही भव्य जीवमें भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारणभूत क्षयोपराम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धियोंका विकास होता है। इस तरह निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें व्यवहारश्रर्मरूप जीवदया कारण सिद्ध होती हैं ।
यहाँ यह ज्ञातस्य है कि कोई-कोई अभव्य जीव भी इस व्यवहारधर्मरूप दयाको अंगीकार करके अपने क्षयोपशम विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है। इतना अवश्य है कि उसको स्वभावभूत अभव्यता के कारण उसमें आत्मोन्मुखताहप करणलब्धिका विकास नहीं होता है । इस तरह भी उसमें भागवती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विकास भी नहीं होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भव्य जीव में उक्त क्रोध प्रकृतियों का यथासंभव रूप में होनेवाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम यद्यपि आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है, गरन्तु उसमें उस करणलब्धिका विकास क्रमशः क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चारों लब्धियों का विकास होनेपर ही होता है। अतः इन चारों लब्धियोंको भी उक्त क्रोध प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय वा क्षयोपशममें कारण माना गया है ।
जीवकी भाववती और कियावती शक्तियों के सामान्य परिणमनोंका विवेचन
जीवको भाववती और क्रियावतो दोनों शक्तियोंको प्रश्नोत्तर २ को समीक्षा में उसके स्वतः सिद्ध स्वभाव के रूप में बतलाया गया है। इनमेंसे भावयतीशक्तिके परिणमन एक प्रकारने तो मोहनीय कर्मके उदयमैं विभावरूप व उसके उपग्रम, क्षय या क्षयोपशममें शुद्ध स्वभावरूप होते हैं व दूसरे प्रकारसे हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानरूप या अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्वज्ञानरूप या अतत्त्वज्ञानरूप होते हैं । एवं क्रियावती शक्ति के परिणमन संसारावस्था में एक प्रकारसे तो मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ और पापमय अशुभ प्रवृतिरूप होते हैं। दूसरे प्रकारसे पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्तिके रूपमें निवृत्तिपूर्वक मानसिक, वावनिक और कायिक पुष्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं और तीसरे प्रकार से सक्रिय मनोवर्गणा, वचनवर्मणा और कादवर्गणा के सहारेपर पुभ्यरूपता और पापरूपतासे रहित आत्मक्रिया के रूपमें होते हैं। इनके अतिरिक्त संसारका विच्छेद हो जानेपर जीवकी क्रियावती शक्तिका
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
चौथे प्रकारसे जो परिणमन होता है वह स्वभावतः सर्ध्वगमनरूप होता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके इन चारों प्रकारसे होनेवाले परिणमनों से पहले प्रकार के परिणमन कोंके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्ध में कारण होने हैं। दूसरे प्रकारके परिणमन पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनसे भन्यजीवमें यथायोग्य कर्मोके रांवरपूर्वक निर्जरणमें कारण होते हैं व पुण्यरूप शुभ प्रवृत्तिरूप होनेसे यथायोग्य फोक आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप धारों प्रकारके बन्धमें कारण होते हैं। तीसरे प्रकारके परिणमन पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित होनेसे केवल सातावेदनीय फर्मक आसवपूर्वक प्रकृति तथा प्रदेश बन्धौ कारण होते हैं और चौथे प्रकारका परिणमन केवल आत्माश्रित होनसे कर्मोके आमव और बन्धमें कारण नहीं होता है और कोक सबर ार मरणपूर्वक उन कमका सर्वथा अभाव हो जानेपर होनेरी उसके ककि संवर मोर निर्जरणका कारण होनेका तो प्रश्न ही नहीं रहता है। जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका विश्लेषण
जीवकी भाववती शक्तिके हदयके सहारेपर अतस्वथद्धानरूप व मस्तिष्कके सहारेपर अतत्तवज्ञानरूप जो परिणमन होते है उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते है । एवं कदाचित संसारिक स्थार्थवा पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन भी होते हैं । इसी तरह जीवकी भाववती शक्ति के हृदयके सहारेपर तत्त्ववानरूप और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते है उनसे प्रभावित होकर जीवको क्रियावती शक्तिके एक तो अशनिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्मी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं और दूसरे कर्तव्यवश मानसिक, बाघनिक और कामिक पुण्य मय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं।
संसारी जीव आसक्ति, मोह, ममता तथा राग और द्वेषके वशीभूत होकर मानसिक, वाचनिक और मायिक प्रयसिहा जो लोकविरुद्ध हिंसा, झूठ, चोरी तथा पदाकि अनावश्यक भोग और संग्रह रूप क्रियायें ससत करता रहता है वे सभी किवायें संकल्पी पाप कहलाती है। इनमें सभी तरहकी स्वपरहितविघातक क्रिया अन्तर्भूत होती है।
___रांसारी जीव अशक्ति, मजबूरी आदि अनिवार्य परिस्थितियोंवश मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृतिरूप जो लोकसम्मत हिस अठ, चोरी तथा आवश्यक भोग और संग्ररूप क्रियायें करता है वे सभी क्रिया आरम्भी पाप कहलाती हैं। इनमें जीवनका संचालन, फूटम्बका भरण-पोषण तथा धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र और लोकका संरक्षण आदि उपयोगी कार्योको सम्पन्न करने के लिये नीतिपूर्वक की जानेवाली असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प, वाणिज्य तथा अनिबार्य भोग और संग्रहरूप क्रियायें अन्तर्भूत होती है।
संसारी जीव जितनी परहितकारी मानसिक, वानिक और कायिक क्रियायें करता है वे सभी क्रियायें पुण्य बहलाती है | इस प्रकारको पुण्यरूप क्रियायें दो प्रकारको होती है-एक तो सांसारिक स्वार्थवाकी जानेवाली पुण्णरूप क्रिया और दूसरी कर्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया । इनमेंसे कर्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया ही वास्तविक पुण्य किया है। ऐसी पुण्यक्रियासे ही परोपकार को सिद्धि होती है। इसके अतिरिक्त वीतरागी देवकी आराधना, वीतरायताके पोषक शास्त्रोंका पठन-पाठन, चिन्तन और मनन व वीतरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुओंकी सेवा-भक्ति तथा स्वावलम्बन शक्तिको जामृत करनेवाले व्रताचरण और तश्चरण आदि भी पुण्यक्रियाओंमें अन्तर्भूत होते है।
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उनत भारम्भी पाप भी यदि आसक्ति आदिवे वशीभूत होकर किये जाते है तथा पुष्य भी यदि अहंकार आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तो उन्हें संकल्पी पाप हो जानना चाहिए। संसारी जीवकी क्रियावती शक्तिके दया और अदया रूप परिणमनोंका विवेचन
ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवकी भाववती याक्तिका चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सदयौ अदयारूप विभाव परिणमन होता है व उन्हीं क्रोधप्रकुतियोंके यथास्थान यथासम्भव रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशममें दयारूप स्वभाव परिणमन होता है । यहाँ जीवकी क्रियायती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोकै विषयमें यह बतलाना है कि जीव द्वारा परहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें पुण्यके रूपमें दया कहलाती है और जीन द्वारा परके अहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें संकल्पी पापके रूपमें अदया कहलाती है। इनके अतिरिक्त जीवकी जिन क्रियाओंमें परके अहितकी भावना प्रेरक न होकर केवल स्वहितकी भावना प्रेरक हो, परन्तु जिनसे परका अहित होना निश्चित हो वे क्रियायें भारतीतापके रूपमें अश्या कहलाती हैं। जैसे एक नयक्ति द्वारा अनीतिपूर्वक दूसरे व्यक्तिपर आक्रमण करना संकल्पी पापरूप अदया है। परन्तु उस दूसरे व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षाके लिये उस आक्रमक व्यक्तिपर प्रत्याक्रमण करना मारम्भी पापरूप अदया है।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जीवकी पुण्यमय क्रिया संकल्पी पापमय क्रियाक साथ भी सम्भव है और आरम्भो पापमय क्रियाके साथ भो सम्भव है, परन्तु संकल्पी और आरम्भी दोनों पापरूप क्रियाओंमें जीदकी प्रवृत्ति एक साथ नहीं हो सकती है क्योंकि संकल्पी पापरूप क्रियाओं के साथ जो आरम्भी पापरूप क्रियायें देखने में आतो है उन्हें वास्तवमें संकल्पी पापण क्रियायें ही मानना युक्तिसंगत है । इस तरह संकल्पी पापरूप क्रियाओंके सर्वथा त्यागपूर्वक जो आरंभी पापरूप क्रियायें की जाती हैं उन्हें ही वास्तविक आरम्भी पापरूप क्रियायें समझना चाहिए। व्यवहार धर्मरूप दयाका विश्लेषण और कार्य
ऊपर बतलाया जा चुका है कि जीव द्वारा मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशभ क्रियाओंके साथ परहितकी भावनासे की जानेवाली मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ क्रियायें पुण्यने रूपमें दया कहलाती हैं और वे कर्मोक आस्रव और बन्धका कारण होती हैं। परन्तु मध्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवों द्वारा कम-से-कम मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ विवाभोसे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें होनेवाली सर्वथा निवृत्तिपूर्वक जो मानसिक, वाचनिक और कायिक दयाकै रूपमें पुण्यमय शुभ क्रियायें की जाने लगती है वे क्रियायें ही व्यहारधर्मरूप दया कहलाती हैं । इसमें हेतु यह है कि उक्त संकल्पी पापमय अश्वारूप अशुभ क्रियाओंसे निवृत्तिपूर्वक को जानेवाली पुण्यभूत दया भव्य और अभय दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासका कारण होती है तथा भक्ष्य जीवमें तो वह इन लब्धियोंके विकासके साथ आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासका भी कारण होती है जो करणलब्धि प्रथमतः मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्म की यथासंभय रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यशकुतिरूप तीन व मोहनीयकर्मके भेद चारित्रमोहनीयकर्मको अनन्सानुबम्धी कवायरूप क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस तरह सात
स०-३१
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रकृतियों के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम में कारण होती है। इस तरह उक्त व्यवहारधर्मरूप दया भव्यजीव में कर्मो के संवर और निर्जरण में कारण सिद्ध होती है। इतनी बात अवश्य है कि भव्यजीवकी उस व्यवहारधर्मरूप प्रामें जितना पुण्यस्य दयारूप प्रवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है वह सो कर्मोक आस्रव और बन्धका ही कारण होता है तथा उस व्यवहारधर्मरूप दयाका संकल्पी पापमय अवारूप प्रवृत्ति से होनेवाली सर्वथा निवृत्तिका अंश मौके संवर और निर्जरणका कारण होता है । द्रश्यसंग्रह ग्रन्थकी गाथा ४५ में जो व्यवहारचारित्रका लक्षण निर्धारित किया गया है उसके आधारपर व्यवहारधर्मरूप दयाका स्वरूप स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है। वह गाथा निम्न प्रकार है
अहा विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं । वद समिदिगुतिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ४५ ॥
अर्थ-अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभमें प्रवृत्तिको जिन भगवानने व्यवहारचारित्र कहा है | ऐसा व्यवहाराचारित्र व्रत समिति और गुप्तिरूप होता है।
इस गाथामें व्रत, समिति और गुप्तिको व्यवहारचारित्र कहने में हेतु यह है कि इनमें अशुभसे निवृत्ति और शुभ प्रवृत्तिका रूप पाया जाता है। इस तरह इस गाथासे निर्णीत हो जाता है कि जीव पुष्यरूप atternet जब तक पापरूप अदया साथ करता है तब तक तो उस दयाका अन्तर्भाव पुण्यरूप क्या होता है और वह जीव उक्त पुण्यरूप जीवदयाको जब पापरूप अदमासे निवृत्तिपूर्वक करने लग जाता है तब वह पुण्यभूतदया व्यवहारधर्मका रूप धारण कर लेती है, क्योंकि इस दमासे जहाँ एक ओर पुष्य प्रवृत्तिरूपता के आधारपर कमका आस्रव और बन्ध होता है वहाँ दूसरी ओर उस दयासे पापप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूपताके आधारपर भव्य जीव में कर्मोका संबर और निर्जरण भी हुआ करता है। व्यवहारधर्मरूप दयासे कर्मोंका संबर और निर्जरण होता है इसकी पुष्टि आचार्य वीरसेनके द्वारा जयधवला के मंगलाचरणको व्याख्यामें निर्दिष्ट निम्न वचनसे होती है
"सुह-सुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो"
अर्थ- शुभ और शुद्धके रूपमें मिश्रित परिणामोसे यदि कर्मक्षय नहीं होता हो तो कर्मक्षयका होना असंभव हो जायेगा ।
आचार्य वीरसेनके वचन में "सुह सुद्धपरिणामेहि" पदका ग्राह्य अर्थ
आचार्य वीरसेनके उक्त वचनके "सुह- सुद्धपरिणामेहि' पदमें 'सुह' और 'सुद्ध' दो शब्द विद्यमान हैं । इनमें से 'सुह' शब्दका अर्थ भव्य जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप शुभ परिणमनके रूपमें और 'सुख' शब्दका अर्थ उस भव्य जीवको क्रियावती शक्तिके अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना ही युक्त है । 'सुह' शब्दका अर्थ जीवको भाववती शक्ति के पुण्यकर्मके उदय में होनेवाले शुभ परिणामके रूप में और 'सुद्ध' शब्द का अर्थ उस जीवको भाववती पाक्तिके मोहनीय कर्म के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम में होनेवाले शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना युक्त नहीं है। आगे इसी बात को स्पष्ट किया जाता है---
rtant foयावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन कर्मोके मात्र और बन्धके कारण होते है और उसी क्रिवाती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक उस
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा प्रवृत्तिरूप परिणमनोंसे मनोगुप्ति, वचनगुमि और फायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन भव्य जीवमें कमोंके संबर और निर्जरणके कारण होते है। जीचकी भाववती शक्तिके न तो शुभ और अशुभ परिणमन कोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और न ही उसके शुद्ध परिणमन कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते हैं । इसमें यह हेतु है कि जीवकी क्रियायती शक्तिका मन, वचन और कायके सह्योगमे जो क्रियारूप परिणमन होता है उसे योग कहते हैं-("कायवाइमनः कर्म योगः" त० स०६-१)। यह योग यदि जीवकी भावबती शक्तिके पूर्वोक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे शुभ योग कहते हैं और वह योग यदि जीवकी भाववती शक्तिके पूर्वोक्त अतत्त्ववद्धान और अतत्त्वज्ञान रूप अशुद्ध परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे अशुभ योग कहते हैं । ( "शुभपरिणामनिवृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्दत्तो योगः अशुभः''-सर्वार्थसिद्धि ६-३) । यह योग हो कर्मोंका आस्रव अर्थात् बन्धका द्वार कहलाता है-("स आसवः" त. सू. ६-२) । इस तरह जीवकी क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही कोंके आसवपूर्वक प्रकुति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप बन्धका कारण सिद्ध होता है ।
यद्यपि योगको समरूपता और अशुभरूपताका कारण होनेसे जीवको भाववती दाक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्वज्ञान रूप सुभ परिणमनोको व अतत्वद्धान और अतत्त्वज्ञान रूप अशुभ परिणामों को भी कोके आस्रवपूर्वक बन्धका कारण मानना अयुक्त नहीं है। परन्तु कर्मोके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण तो योग ही निश्चित होता है। जैसे कोई डाक्टर शीशी में रखी हुई तेजाबको भ्रमवश खकी दवाई समझ रहा . है तो भी तबतक वह तेजाब रोगीकी आँखको हानि नहीं पहुंचाती है जब तक वह डाक्टर उस तेजाबको रोगीकी आँख में नहीं डालता है और जब डाक्टर जरा तेजाबको रोगीको खमें डालता है तो तत्काल वह तेजाब रोगोकी आँखको हानि पहुँचा देती है। इसी तरह औखकी दवाईको आँखकी दबाई समझकर भी जब तक डाक्टर उसे रोगीकी आँख में नहीं डालता है तब तक वह दवाई उस रोगीकी आँखको लाभ नहीं पहुँचाती है। परन्तु जब डाक्टर उस दवाईको रोगीकी आँखमें डालता है तो तत्काल वह दवाई रोगीकी आँखको लाभ पहुंचा देती है । इससे निर्णीत होता है कि जीवकी क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही आरव और बन्धका कारण होता है । इतना अवश्य है कि जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला तत्त्वश्रद्धान रूप शुभ परिणमन या अतत्त्वश्रद्धानरूप अशभ परिणमन व जीवकी भाववती शकिका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला तत्त्वज्ञानरूप शुभपरिणमन या अतत्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन भी योगकी शुभरूपता और अशुभरूपतामें कारण होने परम्परया आसव और बन्धमें कारण माने जा सकते है। परन्तु भास्रव और बन्धमे साक्षात् कारण तो योग ही होता है।
इसी प्रकार जीवकी क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनके निरोधको ही कर्मके संबर और निर्जरणमें कारण मानना युक्त है-"आसवनिरोधः संवरः" त० सू०९-१) जीवको भाववती शक्तिके मोहनीय कर्मक यथासम्भव उपशम, वय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंको संबर और निर्जराका कारण मानना युक्त नहीं है, क्योंकि भाषवती शक्तिके स्वभावभत शुद्ध परिणमन मोहनीयकर्मफे यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होने के कारण सवर और निर्जराके कार्य होनेसे कर्मोंके संबर और निर्जरणमें कारण सिद्ध नहीं होते हैं। एक बात और है कि जब जीवकी क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनोंसे कर्मोंका आम्रव होता है तो कर्मों के संवर और निर्जरणका कारण योगनिरोधको ही मानना युक्त है। यही कारण है कि जिस जीव गुपस्थानक्रमसे जितना-जितमा योगका निरोध होता जाता है उस जीवमें यहां उतना-उतना
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
काका संवर नियमसे होता जाता है तथा जब योगका पूर्ण निरोध हो जाता है तब कर्मोंका संघर भी पूर्णरूप से हो जाता है। कर्मोका संबर होनेपर बद्ध कर्मोंकी निर्जरा या तो निषेक रचनाके अनुसार सविपाक रूपमें होती है अथवा "तपसा निर्जरा च" (त गृ० ९.३) के अनुसार क्रियावसी शक्तिके परिणमनस्वरूप तपके बलपर अविपाक रूपमें भी होती है। इसके अतिरिक्त यदि जीयकी भाववती शक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंको संवर और निर्जराका कारण स्वीकार किया जाता है तो जब द्वादश गुणस्थानके प्रथम ममय में ही भाषवती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाता है तो एक तो द्वादश और त्रयोदश गुणस्थानोंमें सातावेदनीय कर्मका आसवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशरूपम बन्ध नहीं होना चाहिए 1 दूसरे द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें ही भाववती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिकर्मोका तथा चारों अघातिकर्मोका सर्वथा अय हो जाना चाहिये । परन्तु जब ऐसा नहीं होता है तो यही स्वीकार करना पड़ता है कि वहां आस्रव और बन्धका मूल कारण योग है व विद्यमान ज्ञानावरणादि उक्त तीनों घातिकर्मोंकी एवं चारों अघातिकर्मीको निर्जरा निषेकक्रमसे ही होती है । त्रयोदश गणस्थानमें केवली भगवान अघातीकोकी समान स्थितिका निर्माण करने के लिए जो समुद्घात करते हैं वह भी उनकी कियावती शक्तिका ही कायिक परिणमन है ।
___इस विवचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्यामें निर्दिष्ट आचार्य वीरसेनके उपर्युक्त वचन के अंगभूत "सुह-सुद्धपरिणामहि" पदमें आये 'गुह' शब्द से जीनको क्रियावती शक्तिके अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक शुभगे प्रवृत्ति रूप परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना ही संगत है । भाववती शक्तिके तत्ववद्वान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ ब मोहनीय कर्मक यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना संगत नहीं है।
___ यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जयधवलाके उक्त वचनके 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दका अर्थ यदि जीवको भाववलीशक्तिके मोहनीय कर्मके यथाराम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम में
को प्राप्त शत परिणगनस्वरूप निश्चयधर्मके रूपमें स्वीकार किया जाये तो उस पदके अन्तर्गत "सह" शब्दका अर्थ पूर्वोक्त प्रकार जीयको भाववतीशक्तिके तस्वयद्वान और लत्त्वज्ञान रूप शुभ परिणमनके रूपमें तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, क्योंकि जीवकी भाववती शक्तिके तस्वश्रद्वान और तत्वज्ञानरूप वे परिणमन पूर्वोक्त प्रकार न तो कोंके आस्त्रव और बन्धके साक्षात कारण होते हैं और न ही बद्ध कर्मोक संवर और निर्जरणके ही साक्षात् कारण होते हैं। इसलिए उस "सुह' शब्दका अर्थ यदि जीवकी क्रियायती शक्ति के परिणमनस्वरूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिकै रूपमें स्वीकार किया जाये तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति तो कमोंके आस्रव और बन्धका ही कारण होती है । अतः उस "सुह" शब्दका अर्थ जीवकी कियावतीयाक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति के रूपमें ही स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारधर्मके पुण्यमय गुभ प्रवृत्तिरूप अंशसे जहाँ कर्मोका आस्रव
और बन्य होता है वहीं उसके पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्ति रूप अंशसे कर्मोका संवर और निर्जरण भी होता है । परन्तु ऐसा स्वीकार कर लेनेपर भी जीवकी भाववती शक्तिके स्वभावभत निश्चयधर्मरूप परि
मनको पूर्वोक्त प्रकार कमौके संवर और निर्जरणका कारण सिद्ध न होनेसे वहाँ "सुद्ध" शब्दका अर्थ कदापि नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार जयधवलाके ''सुह-सुद्धपरिणामेहि" पदवे. अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दके निरर्थक होने का प्रसंग उपस्थित ही जायेगा । अतः उक्त "सुह-सुद्धपरिणामेहि" इस सम्पूर्ण पदका अर्थ
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
२४५ जीषकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे नियुत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही माह्म हो सकता है।
यदि कहा जाये कि जीवको मोक्ष की प्राप्ति उसको भावक्तीशक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्मके रूपमें परिणमन होने पर ही होती है, इसलिए "सुह-सुद्धपरिणामहि" पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्द निरर्थक नहीं हैं तो इस बातको स्वीकार करनेमें यद्यपि कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु ऐसा स्वीकार करनेपर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि मोक्ष की प्राप्ति जीवकी भाववतीयाक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके होनेपर होना एक बात है और उस स्वभावभत शुद्ध परिणमनको कर्मक्षयका कारण मानना अन्य बात है, क्योंकि वास्तव में देखा जाये तो द्वादश गुणस्थानवी जीवका वह शुद्ध स्वभाव मोक्षरूप शुद्ध स्वभावका ही अंश है जो मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय होनेपर ही प्रकट होता है।
अन्समें एक बात यह भी विचारणीय है कि उक्त "सुह-सुद्धपरिणाम हिं' पदके अन्तर्गत ''सुख" शब्दका जोनकी भाववतीशक्तिका स्वभायभूत शुद्ध परिणमन अर्थ स्वीकार करने पर पूर्वोक्त यह समस्या तो उपस्थित है ही कि द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में शुख स्वभावभत निश्चयधर्मका पूर्ण विकास हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिकमोंका तथा चारों अघातिकर्मोंका एक साथ क्षय हॉकी प्रसव हासी । पाप होयह समस्या भी स्थित होती है कि जीवको भावबती शक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके विकासका प्रारम्भ जब प्रधम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व, सभ्यगमिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया ओर लोभ रूप चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है तो ऐसी स्थितिमें उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मोंके सवर और निर्जरणका कारण कैरो माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं माना जा सकता है । यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है। उत्तरपक्षको यह जो मान्यता है कि जीव द्रव्यकर्मोके उदयकी अपेक्षा न रखते हुए स्वयं (अपने आप) ही अज्ञानी' बना हुआ है और उन क्रमोसे यथायोग्य उपशम, भय या क्षयोपशमको अपेक्षा न रखत हए स्वयं (अपने जाप) ही ज्ञानी बनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है सो इस मान्यताका निराकरण प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किया जा चुका है तथा प्रश्नोत्तर षष्ठको समीक्षा भी किया जायेगा। इसी तरह उत्तरपक्षको भान्य नियतिवाद और नियतवादका निराकरण प्रश्नोत्तर पाँचकी समीक्षामें किया जायेगा । प्रकृतमें कर्मोंके आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जसकी प्रक्रिया
(१) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जबतक आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृप्ति करते रहते हैं तबतक वे उस प्रवृत्तिके आधारपर सतत कर्मोका आसव
और बन्ध ही पिया करते हैं। तथा इस संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति के साथ वे यदि कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश मानसिक, बाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी करते हैं तो भी वे उन प्रवृत्तियों के आधारपर सतत काँका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं ।
(२) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जब आसक्तिवश होनेवाले संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृतिको कर्तव्यवश करने लगते है तब भी दे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करने है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
(३) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृतिका मनोति चचनगुप्ति और काय गुप्तिके रूप में सर्वथा त्याग कर यदि अक्तिवश होनेवाले मानसिक, वावनिक और काकि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्तव्यवदा मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कर्मीका मानक और बच ही किया करते हैं ।
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(४)अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जीव यदि उक्त संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति उक्त प्रकार सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भ पापमय अवारूप अशुभ प्रवृत्तिका भी मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और काय गुप्तिके रूप में एक देश अथवा सर्व देश त्याग कर कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दारूण शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कमोंका आलव और बन्ध ही किया करते हैं ।
(५) अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जोव उक्त संकल्प पापमय प्रदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर उक्त आरम्भीपागमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करते हुए अथवा उक्त संकल्पीगापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा व उक्त आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्याग कर कर्तव्या पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हुए यदि क्षयोपशम, विशुद्धि, arer और प्रयोग्य लब्धियोंका अपने में विकास कर लेते हैं तो भी वे कमोंका आस्रव और बन्ध हो किया करते हैं।
(६) यतः मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त सभी गुणस्थान भव्य जीवके ही होते हैं अभय जीवके नहीं, अतः जो भव्य जीव सासादन सम्यग्दृष्टि हो रहे हों उनमें भी उक्त पाँचों अनुच्छेदोंमेंसे दो, तीन और चार संख्यक अनुच्छेदों में प्रतिपादित व्यवस्थाएं यथायोग्य पूर्वसंस्कारवदा या सामान्यरूपसे लागू होती हैं तथा अनुच्छेद तीन और चार प्रतिपादित व्यवस्थाएँ मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि rathara भी लागू होती हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि जोवों में अनुच्छेद एकमे प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे जो एक तो केवल संकल्पीयापभत्र अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति कदापि नहीं करते हैं व उनकी प्रवृत्ति अबुद्धिपूर्वक होने के कारण पृष्यमय दयारूप प्रवृत्ति भी सांसारिक स्वार्थवश नहीं करते हैं । तथा उनमें अनुच्छेद पांच में प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे अपना समय व्यतीत करके नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं। इसी तरह मिध्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अनुच्छेद एक और दोगें प्रतिभारित व्यवस्थाएँ इसलिए लागू नहीं होतीं क्योंकि उनमें संकल्पोपापमय अमरूप अशुभ प्रवृत्तिका अवथा अभाव रहता है तथा उनमें अनुच्छेद पाँचको व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे भी मिध्यात्व गुणास्थानकी ओर झुके हुए होने के कारण अपना समय व्यतीत करके मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इस तरह सासादन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सतत यथायोग्य कमका आलव और बन्ध ही किया करते हैं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन] सम्यग्दृष्टि जीवोंके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्रवृत्तियों भी अबुद्धिपूर्वक हुआ करती हैं ।
(७) उपर्युक्त जीवोंसे अतिरिक्त जो भव्य मिध्यादृष्टि जीव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवसम्यक्त्व प्राप्तिको ओर झुके हुए हों अर्थात् राभ्यत्रत्व प्राप्ति में अनिवार्य कारणभूत करणलब्धिको प्राप्त हो गये हों वे नियमसे यथायोग्य कर्मो का भाव और बन्ध करते हुए भी दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यातत्व,
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन तथा चारित्रमोहनीयकर्मये प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोमरूप चार इस तरह सात कर्मप्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशमके रूपमें संघर और निर्जरण किया करते हैं। इसी तरह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर आगेंके गुणस्थानोंमें विद्यमान जीव भी यथायोग्य कर्मोंका मानव और बन्ध तथा यथायोग्य कमौका संबर और निर्जरण किया करते है । उपर्युषत विवेचनका फलितार्थ .
) कोई अभव्य और भव्य मिश्यादष्टि जीव संकल्पीपापमय अश्यारूप अशुभ प्रवृत्ति ही किया करते है । अथवा संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ सांसारिक स्वार्थवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं। कोई अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्तिको कर्तव्यवश किया करते हैं। कोई अभश्च और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप शुभ प्रवृत्तिके साथ कर्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं एवं कोई अभय और भव्य मिथ्यादष्टि जीब संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृतिके सर्वया व आरम्भीपापमय मदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके एकदेशा अथवा सर्वदेश त्यागपूर्वक कर्तव्यवश पुष्यमव दयारूप शुभ प्रवृत्ति क्रिया करते हैं ।
(२) कोई सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यरूपसे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ पूर्वसंस्कारके बलपर कर्तव्यवश पुग्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं। कोई रासादनसम्यग्दृष्टि जीव पूर्वसंस्कारके बलपर संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक आराम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभरूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं और कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीक पूर्वसंस्कारवश संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा व आरम्भीपापरूप अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से एकदेश अथवा सर्वदेवा निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । परन्तु सासादनसम्यन्दृष्टि जीवकी यथायोग्य ये सब प्रवृत्तियाँ अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करती हैं।
(३) सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव यद्यपि भत्र्य मिध्यादृष्टि और सासादनसम्पादष्टि जीवोंके समान ही प्रवृत्ति किया करते हैं परन्तु उनमें इतनी विशेषता है कि वे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति किसी भी रूपमें नहीं करते हैं। तथा सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवकी भी प्रवृत्तिा सासादन सम्यग्दृष्टि जीवके समान अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करती हैं।
(४) चतुर्थ गुणस्थानमें लेकर आगेके गुणस्थानोंमें विद्यमान सभी जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा रहित होते हैं । इस तरह चतुर्थ गुणस्थानवी जीव या तो अशक्तिवश आरम्भीपापमय बदयारूप अशुभ प्रभृत्ति के साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं अथवा आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से एकदेवा या सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया। करते हैं।
(५) पंचम गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश निवृति
रूप शुभ प्रबत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको पंचम गुणस्थान कदापि प्राप्त नहीं होता है । इतना अवश्य है कि कोई पंचम गुणस्थानवर्ती जीव आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक भी कर्त्तव्यबश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं ।
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अनियत और उसकी समीक्षा
(६) पण्ड गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्तिपुण्यमय शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको पष्ठ गुणस्थान प्राप्त
पूर्व कर्तव्य
नहीं होता।
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(७) वण्ठ गुणस्थानसे आगे गुणस्थानों में जीव आरम्भीपापमय अश्वारूप अशुभ प्रवृत्तिले सर्वथा निवृत्त रहता है तथा पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी बाह्यरूपमें नहीं करते हुए अन्तरंगरूप में ही तब तक करता रहता है जब तक नवम गुणस्थान में उगको अप्रत्यास्थानावरण, प्रत्यास्थानावरण और ज्वलनायकी क्रोध प्रकृतियोंके सर्वथा उपशम या श्रय करनेकी क्षमता प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जीवके अप्रत्या पानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानके अन्त समयतक रहता है व पंचम गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है। इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समयतक रहा करता है व श्रेष्ठ गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम हो रहा करता है तथा इन सभी गुणस्थानों में संज्वलन क्रोध कर्मका उदय ही रहा करता है परन्तु संग्लनको चकर्मका उदय व अप्रत्यास्थानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोधकमौका क्षयोपधाम तब तक रहा करता है जब तक नवम गुणस्थानमें इनका सर्वथा उपशम या अब नहीं हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण को कर्मका अन्ध चतुर्य गुणस्थान तक ही होता है। प्रस्यास्यानावरण क्रोध कर्मका बन्य पंचन गुणस्थान तक हो होता है और संज्वलन को कर्मका अन्य नवम गुणस्थानके एक निश्चित मान तक ही होता है। इन सबके बन्धका कारण जीव की भाववती शक्तिके हृदय और मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाले बयायोग्य परिणमनसे प्रभावित जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक यथायोग्य प्रवृत्तिरूप परिणमन ही है। जोव तु गुणस्थानमें जब तक आरंभीपापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिका यथायोग्य रूप में एकदेशस्याग नहीं करता तब तक तो उसके अस्वास्थानावरण क्रोम कर्मका बन्ध होता ही रहता है। परन्तु वह जीव यदि आरंभोपापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेव स्पाग कर देता है और उस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण को कर्मके क्षयोपशनको क्षमता प्राप्त हो जाती है तो उस जीव में उस क्रोध कर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रथम और तृतीय गुणस्थानों में भी लागू होती है। इसी तरह जीव पंचम गुणस्थान में जब तक आरंभीचापमय अदलारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके प्रत्यास्थानावरण क्रोधकर्मकाबन्ध होता ही है परन्तु यह जीव यदि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग कर देता है और इस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस प्रत्याख्यानावरण क्रोच कर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो उस जीव उस कोच कर्मक वन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था पंदन गुणस्थानके समान प्रथम तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानों में भी लागू होती है। पंचम गुणस्थानके आगे गुणस्थानोंमें तब तक जीव संज्वलनबन्ध करता रहता है जब तक वह नवम गुणस्थान में बन्धके अनुकूल अपनी मानसिक, वाचनिक और काविक प्रवृत्ति करता रहता है और जब यह नवन गुणस्थान में संजालकोधकर्मके उपशम या क्षयकी क्षमता प्राप्त कर लेता है तो उस जीवके उस शोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है ।
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इतना विवेचन करनेमें मेरा उद्देश्य इस बातको स्पष्ट करनेका है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वानिक और कायिक अदयाप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियोंके रूपमें होनेवाले परिणमन ही creen आन और बन्धमें कारण होते हैं व उन प्रवृत्तियोंका निरोध करनेसे हो उन क्रोव कर्मोका संवर
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
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और निर्जरण करनेकी क्षमता जीवमें आती है। जीवकी भाववती शक्तिका न तो मोहनीय कर्मके उदयमें होनेवाला विभावरूप परिणमन आलय और बन्धका कारण होता है और न ही मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय मा क्षयम में होने वाला भाववती शक्तिका स्वभावरूप शुद्ध परिणमन संदर और निर्भराका कारण होता है । इतना अवश्य है कि जोधको भाववतोशक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्वश्रद्धानरूप शुभ और अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ तथा मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप शुभ भोर अतत्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन अपनी 'शुभरूपता और अशुभता आधारपर यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मक आस्रव और बन्धके पर म्परया कारण होते हैं व तत्वज्ञान व्यवहार सम्यग्दर्शन के रूपमें तथा तत्वज्ञान व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूपमें यथायोग्य hits आय और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोके संवर और निर्जराके भी परम्परया कारण होते हैं।
इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि क्रियावतीशक्ति के परिणमनस्वरूप जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियाँ यथायोग्य अशुभ और शुभ कमौके आलव और बन्धका साक्षात् कारण होती हैं तथा अश्यारूप अशुभ प्रवृत्तिमे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति यथायोग्य कर्मोंके आलव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जरणका साक्षात् कारण होती है एवं जीवको क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप तथा दयारूप शुभरूपता और अदयारूप अशुभरूपतासे रहित जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक योगरूप प्रवृत्ति मात्र सातावेदनीय कर्मके आस्त्रचपूर्वक केवल प्रकृति और प्रदेशरूप बन्धका कारण होती है तथा योगका अभाव कर्मो के संवर और निर्जरणका कारण होता है ।
इस सामान्य समीक्षा के सम्पूर्ण विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जीव-वया पुण्यरूप भी होती है. जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्मरूप भी होती है व इस निश्चय धर्मरूप जीवदया की उत्पत्ति में कारणभूत व्यवहार धर्मरूप भी होती हैं। अर्थात् तीनों प्रकारकी जीवदयाएँ अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और महत्व रखती हैं ।
२. प्रश्नोत्तर ३ के प्रथम दौरकी समीक्षा
प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षको दृष्टि
पूर्वपक्षद्वारा प्रकृत में किये गये विवेचनोंसे यह बात स्पष्ट होती है कि आगममे जीवदया पुण्यभूस जीवदया जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्वमघर्मरूप जीवदया और इस निश्चयत्ररूप जीवदया की उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप जीवदया के रूप में जो तीन प्रकार बतलाये गये हैं उन्हें पूर्वपक्ष तो मानता है, परन्तु उनमें से उत्तरपक्ष केवल पृथ्यभूत जीवदयाको मान्य करता है, धर्मरूप जीवदयाको नहीं मान्य करता है । इतना हो नही, वह पूर्वपक्षको धर्मरूप जीवदयाको मान्यताको मिथ्यात्व कहता है । यह ध्यान में रखकर ही पूर्वपक्षने तत्वचर्चा के अवसरपर यह प्रश्न उपस्थित किया था कि "जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?" इस बात को मैं सामान्य समीक्षामें स्पष्ट कर चुका हूँ ।
उत्तरपक्षका उत्तर विसंगत भी है, अर्धसम्मत भी है और अनुचित भी है—
उत्तरपक्ष ने अपने उत्तर में लिखा है दयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है"
स०-३२
कि "इस प्रश्नमें यदि 'धर्म' पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवतथा आगे लिखा है कि "यदि इस प्रश्नमें 'धर्म' पदका अर्थ
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसको समीक्षा वीतराग परिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है" सो यह उत्तर विसंगत है, क्योंकि प्रश्नमें केवल इतना हो पूछा गया है कि जोवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? जिसका आशय यही होता है कि आगममें जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यरूप मान्य किया गया है उसी प्रकार उसे वहाँ धर्मरूप भी मान्य किया गया है। अत एव पूर्वपक्षने प्रश्न भी इसी अभिप्रायसे उपस्थित किया था। परन्तु प्रश्नका सौघा उत्तर न देकर प्रश्नको धर्मपदकी व्याख्याम उलझा देना उत्तरपक्षके लिये शोभाकी बात नहीं कही जा सकती है।
उत्तरपक्षने अपने उत्तरके समर्थन में परमात्मप्रकाश पद्य २-७१ और उसकी टोकाको तथा समयसार गाथा २६४ और उसकी आचार्य अमृतचन्द्रकृत टोकाको उपस्थित किया है। परन्तु प्रश्नके समाधानमें उनका कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि परमात्मप्रकाशका पद्य और उसकी टीकासे जीवश्याको पुण्यरूपताका तो समर्थन होता है, परन्तु उनसे जीवदयाकी धर्मरूपताका निषेध नहीं होता। इसी तरह समयसारकी गाथा और उसकी टीकासे केवल पुण्यभावरूप जीवदयाका आरव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव तो सिद्ध हो सकता है, परन्तु इनसे जीवदयाकी धर्मरूपताका निषेध सिद्ध नहीं होता। एक बात और है कि जीवदयाको पुण्यरूप स्वीकार करने और उसका आनन और बन्धतत्वमें अन्तधि माम्म करनेके विषयमें दोनों पक्षों के मध्य विवाद भी नहीं है, क्योंकि गतीश भी जीवदया मेको नगर पुक वाल और बन्धतत्वमें हो अन्तभर्भाव स्वीकार करता है । यह बात पूर्वपक्ष के द्वितीय और तृतीय दौरोंसे स्पष्ट होती है। विवादका विषय तो केवल यह है कि परमात्मप्रकाशके पद्य २-७१ और समयसारने पद्य २६४ में तथा उनकी टोकाओंसे जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यरूपता सिद्ध होती है और उस पुण्यरूप जीवदयाका आस्रव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव सिद्ध होता है उसी प्रकार पूर्वपक्षद्वारा अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें उपस्थित धवल पुस्तक १३ के पृष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट आचार्य वीरसेनके "करुणाए जीवसहावस्स कम्मणिदसविरोहादो" वचनसे जीवदयाको जीवके फुख स्वभावभूत निश्चयधर्मरूपता व द्रव्यसंग्रहकी गाथा ४५ से उसको व्यवहारधर्मरूपता भी सिस होती है । परन्तु उत्तरपक्ष जोवदयाको पुण्यरूप मानकर भी धर्मरूप नहीं मानता है। फलतः उत्तरपक्षका उत्तर अर्धसम्मत सिद्ध होता है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि उत्तरपक्षके प्रथम दौर में किये गये कयनसे ऐसा भी ध्वनित होता है कि यह पक्ष अपने प्रथम दौरमें जीवदयाकी पुण्यरूपताको स्वीकार करके उसी पुण्यरूप जीवदयाकी धर्मरूपताका निषेध करना चाहता है सो उसका यह प्रयत्न निरर्थक है, क्योंकि पूर्वपक्ष स्वयं पुण्यभूत जीवदयाको धर्मरूप नहीं मानता है और उसका प्रश्न भी पुण्यभूत जीवदयाकी धर्मरूपताके विषय में नहीं है, यह बात उत्तरपक्षको उत्तर देनेमे पूर्व ही सोच लेना चाहिए थी। प्रश्नको बिना समझे उसका उत्तर देना विद्वत्ताका चिह्न नहीं है। उत्तरपक्षने प्रायः सभी प्रश्नोंका उत्तर देने में अपनी ऐसी ही स्थितिका प्रदर्शन किया है । तत्त्वनिर्णय करनेके प्रसंगमें उसकी इस प्रकारको स्थिति अनुचित ही मानने योग्य है।
३. प्रश्नोत्तर ३ के द्वितीय दौरकी समीक्षा द्वितीय दौरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौर, आगम प्रमाणोंके आधारपर जीवस्याकी पुण्यरूपताकी स्वीकृतिके साथ उसको शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूपताको वे इस शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदयाको उत्पत्ति में
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का-समापार की समीक्षा
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कारणभूत व्यवहार धर्मरूपताको स्वीकृति करते हुए इस बातको सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व नहीं है। द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने प्रकृत प्रश्नोत्तर सम्बन्धी अपने द्वितीय दौरके प्रथम अनुढेदमें यह कथन किया है"उक्त शंकाका जो उत्तर दिया गया था उसपर प्रतिशंका करते हए लगभग २० शास्त्रोंके प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्त नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि इनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण है जिनमें संवरके कारणोंमें दयाका अन्तर्भाव हुआ है। जयधबलाका एक ऐसा भी प्रमाण है जिसमें शुद्ध भावके साथ शुभ भावको भी कर्मक्षयका कारण कहा है। श्री धवलाजीके एक प्रमाणमें यह भी बतलाया है कि जिनबिम्बदर्शनसे निपत्ति-निकाचित बन्धकी व्युच्छित्ति होती हैं। इसी प्रकार भावसंग्रहमें यह भी कहा है कि जिनपूजासे कर्मक्षय होता है। ऐसे ही यहाँ जो अनेक प्रमाण संग्रह किये गये है उनका विविध प्रयोजन बतलाकर उन द्वारा पर्यायान्तरसे दयाको पुण्य और धर्म भयरूप सिद्ध किया गया है। ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही है। यदि पूरे जिनागमसे ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाये तो एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ बन जाये। पर इन सब प्रमाणोंके आधारसे क्या पुण्यभावरूप जीवदयाको इतने मात्रसे मोक्षका कारण माना जा सकता है।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
(१) उसरपक्षके इस वचनसे इतना तो निश्चित हो जाता है कि वह भी इस बात को स्वीकार करता है कि आगममें पुण्यभावरूप जिनबिम्बदर्शन, जिनपूजा और जीवदया आदिको कर्मक्षय या मोक्षका कारण प्रतिपादित किया गया है। परन्तु ऐसा प्रतिपादन आगम में क्यों किया गया है इसपर उपयोगी होते हुए भी उसने विचार करनेकी आवश्यकता नहीं समझी है। वास्तवमें आगममें ऐसा प्रतिपादन इसलिये किया गया है कि पुण्यभावरूप जिन बिम्बदर्शन, जिनपूजा और जीवदया भादि प्रवृत्तियोंके आधारसे जीवमें संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तियोंके प्रति घृणा उत्पन्न होती है जिसके बलसे जीव संफरुपी पापमय अशुभ प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग कर कर्मों के संघर और निर्जरणमें कारणभूत व्यवहारधर्मपर आरूढ़ हो जाता है। इस तरह पुण्यभावरूप वे जिनबिम्बदर्शन, जिनपूजा और जीवदया आदि शुभ प्रवृत्तियां भी परम्परया कर्मक्षय या मोक्षका कारण सिञ्च हो जाती है। परन्तु इतना होनेपर भी उत्तरपक्षको यह ज्ञात होना चाहिए था कि पूर्वपक्षका प्रश्न पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म मानने की बातको लक्ष्य में रखकर नहीं है, अपितु इस बातको लक्ष्य में रखकर है कि आगममें जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यभाव रूप माम्म किया गया है उसी प्रकार उसे यहाँ शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधमके रूपमें और इसमें कारणभूत ब्यवहारधर्मके लपमें धर्मरूप भी मान्म किया गया है, अतः जीवदयाको जिस प्रकार पुण्यभाष मानना मिथ्यात्व नहीं है उसी प्रकार उसे धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है। उत्तरपश्चको आगमके अनुकूल पूर्वपक्षके इस आशयको समझकर प्रश्नका उत्तर देनेका प्रयत्न करना चाहिए था। उसने पूर्वपक्षके इस आशयको समझनेकी पेष्टातो की नहीं, प्रत्युत विपरीत आशय ग्रहणवार इस तरह प्रश्नका उत्तर देने का प्रयत्न किया मानों! पूर्वपक्ष पुण्यभावरूप जीवदयाको ही धर्म मानता हो। यह बात उत्तरपक्षक अपयुक्त अनुच्छेदके "पर इन सब प्रमाणोंके आधारसे क्या पुषयभाष रूप जीवदयाको इतने मात्रसे मोक्षका कारण माना जा सकता है?" इस अंशसे ज्ञात होती है। परन्तु उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्षके विषय में इस प्रकारको मिथ्याष्टि बनाकर प्रश्नका उत्तर देना उचित नहीं है।
(२) उत्तरपक्षके उक्त कथनसे यह भी निश्चित होता है कि वह पक्ष इस बातको भी स्वीकार
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
करता है कि जयला शुद्धभावके साथ शुभ भावको भी कर्मक्षयका कारण कहा गया है । परन्तु उसने जयध्वलाके वचन के अभिप्रायको भी स्पष्ट करनेकी चेष्टा नहीं की, जो आवश्यक थी । वास्तवमें जयधवलाका जो "सुहसुद्धपरिणामेहिं कम्माखयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो" यह वचन है इसके अभिप्रायको मैंने सामान्य समीक्षा में विस्तारसे स्पष्ट कर दिया है जो प्रकृतमें संक्षेपसे इस प्रकार है कि अदयाभूत अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिके रूप में शुद्ध और प्रवृति में जनकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदया के दवाभूत शुभ प्रवृत्ति रूप शुभ अंशसे आस्त्र और बन्ध होते हुए भी उसके अयाभूत अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप शुद्ध अंशसे रॉबर और निर्जराके रूपमें कर्मक्षय होता है । यदि उत्तरपक्ष जयवलाके उक्त वचनके इस आशयको समशनेको चेष्टा करता तो विश्वास है कि उसने अपने द्वितीय दौर में जिस प्रकार पुण्यभूत जीवदयासे पृथक् वीतराग परिणतिरूप जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवययाको स्वीकार कर लिया उसी प्रकार वह पुण्यभूत जीवदया से पृथक् व्यवहारधर्म प जीवदया को भी स्वीकार कर लेता और तब उसे पूर्वपक्षकी यह बात भी समझ में आ जाती कि जिस प्रकार जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है उसी प्रकार उसे जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म के रूपमें व इस निश्चयरूप जीवदया की उत्पत्ति में कारणभूत व्यवहारधर्म के रूपमें धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है । प्रकृतमें उत्तरपक्ष द्वारा प्रस्तुत आगमवचनोंपर विचार
उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में यहाँ सर्वप्रथम आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा रचित पुरुषार्थसिद्धयुपाय के पद्य २१२, २१३ और २१४ को व इनके आगे पद्य २९६ को उपस्थित किया है। इतना ही नहीं, आगे समयसार गाथा १५० और उसकी आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाको भी उपस्थित किया है और उन सब आगमप्रमाणोंके आधारपर उसने यह निष्कर्ष निकाला है कि "इस प्रकार इस कथन से स्पष्ट है कि शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिनबिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन करना हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध ही होता है। उससे संवर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है ।"
इसपर मेरा कहना है कि आगम में पुण्यरूप जीवदया को भी मोक्षका कारण माना है। परन्तु इस सम्बम्धमें पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि पुण्यरूप जीवदया जीवकी संकल्पीपापमय अदयासे घृणा उत्पन्न होने में सहायक होती है और इस घृणाके बलपर ही वह जीव उस संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर देता है तथा इस स्थितिमें वह जीव जो पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति करता है उसे वह अशक्तियण आरम्भीपापके रूपमें ही करता है, साथ ही वह कर्तव्यवश दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी नियमसे किया करता है। इस तरह संकल्पपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृतिके साथ जीव जो पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करता है वह व्यवहारधर्मरूप दामें ही अन्तर्भूत होती है । इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती कि पुण्यभूत जीवदया व्यवहारधर्म रूप जीवदया - की उत्पत्ति कारण होती है तथा इस आधारपर ही आगममे पुग्यभूत जीवदथाको परम्परया मोक्षका कारण माना गया है । वास्तव में तो पुष्पभावरूप जीवदया शुभ प्रवृतिरूप होनेसे कर्मकि आस्रव और वन्धका ही कारण होती है और पूर्वपक्ष भी ऐसा ही स्वीकार करता है। इससे निर्णीत होता है कि पूर्वपक्ष पुण्यभाव रूप जीवदयाको उस प्रकार मोक्षका कारण नहीं मानता जिस प्रकार व्यवहारधर्मरूप जीवदया मोक्षका कारण होती है। इस तरह पूर्वपथ पुण्यभावरूप जीवदयाको पुण्यभाव रूप ही मानता है वह उसे धर्मरूप
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
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कदापि नहीं कहता । अतः उसका प्रश्न पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म माननकी दृष्टि से नहीं है, अपितृ इस दृष्टिसे है कि जीवदयाका एक प्रकार जिस तरह पुण्यरूप है उसी तरह दूसरा प्रकार जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मसप भी है और तीसरा प्रकार उस निश्चयवर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप भी है । पूर्वपक्षाने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंम जितना विवेचन किया है वह इसी दृष्टिसे किया है।
जीवदयाके सम्बन्ध में किये गये इस स्पष्टीकरणसे यह बात अच्छी तरह निर्णीत हो जाती है कि पुरुषार्थसिद्धय पायके पद २१२, २१३ और २१४ प्रकृत विषयमें पूर्व पक्षकी दृष्टिका ही समर्थन करते है । अर्थात् व्यवहारधर्मरुप जोवदयामें जितना अंग अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्ति का है वही कर्मोक संवर
और निर्जरणका कारण होकर मोक्षका कारण होता है और उसमें जितना अंदा दयारूप शुभ प्रवृत्तिका है वह तो कोके आनच और बन्धका ही कारण होता है। इसी तरह पुरुषार्थ सिद्धपायके पद्य २१६ में यही बतलाया गया है कि जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला आत्मश्रद्धानरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन, मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला आत्मज्ञानरूप ज्यवहारसम्पम्ज्ञान व जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप क्रियासे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप आत्मस्थिति जिसे व्यवहारसम्पकमारित्र कहना गलत है इन सबरो काँका बन्य नहीं होता है सो यह भी पूर्वपक्षकी प्रकृत विषय सम्बन्धी उपर्युक्त मान्यताके विरुद्ध नहीं है। यदि पुरुषार्थसिद्धयुपायके पद्य २१२, २१३ और २१४ का तथा २१६ का सम्बन्ध निश्चयसम्पग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारिवसे जोड़ा जाये तो यह उचित नहीं है, क्योंकि न तो मोहनीयकर्मके उदयमें होनेवाली मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप विभाव परिणति वमोंके आसप और बन्धका कारण होती है और न ही मोहनीयक के उपशम, क्षय या क्षयोपशयमें होनेवाली सम्यग्दर्शन, सम्यम्मान और सम्यकचारित्र रूप स्वभाव परिणति कर्मोंके संबर और निर्जरणका कारण होती है। यह बात सामान्य समीक्षा-प्रकरणमें स्पष्ट को चा चुकी है।
इसी प्रकार समयसार गाथा १५० और उसकी आचार्य अमतचन्द्र कृत टीकासे भी पूर्वपक्षकी इष्टिका विरोध नहीं होता है, क्योंकि आगममें स्पष्ट कथन है कि व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्जान और प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहारसम्यक्रचारित कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते हैं व व्यवहारमिथ्यादर्शन, व्यवहारमिथ्याग्ज्ञान और प्रवृत्तिरूप व्यवहार मिथ्याचारित्र कमौके आरव और बन्धके कारण होते है । (देखो, रत्नकरण्डवादकाचार पद्य ३)।
__इस तरह इन प्रमाणोंके आधारपर प्रकृत विषयक सम्बन्धमें उत्तरपक्षने जो निष्कर्ष निकाला है वह भी पूर्वपक्षकी दृष्टिके विरुद्ध नहीं है। विरोध तो उत्तरपनको इसलिये मालूम पड़ता है कि यह पक्ष जो पूर्वपक्षका विरोध कर रहा है वह विरोध पुण्यभावरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर कर रहा है जबकि पूर्वपक्षका विवेचन पुण्यभावरूप जीवदयासे पृथक् व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर है।
उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दोरमें आगे तक च० ए० ९९ पर यह कथन किया है-"श्री समयसारजी में सम्यग्दृष्टिको जो अबन्धका कहा है इसका यह अर्थ नहीं कि उसके बन्धका सर्धभा प्रतिषेध किया है । उसका तो मात्र यही अर्थ है कि सम्यग्दृष्टिको रागभावका स्वामित्व न होनेसे उसे अबन्धक कहा है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि और रागदृष्टिमें बड़ा अन्तर है । जो सम्यग्दृष्टि होता है वह रागदृष्टि नहीं होता और ओ राग
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा दृष्टि होता है यह सम्यग्दृष्टि नहीं होता ।" इसके आगे अपने उक्त अभिप्रायकी पुष्टि के लिए त. च. पृ० १०० पर उसमे समयसारगाथा १२१ और २०० को भी उपस्थित किया है तथा इसके भी आगे अपने पक्षके समर्थनमें उसने चेतनाके ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफल चेतनाके रूपमें तीन भेदोंका भी कथन किया है सो इनका भी पूर्वपक्षकी मान्यतापर उपर्युक्त प्रकार प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् उत्तरपक्षका यह सब कथन प्रकृतमें पुण्यभाव रूपजीवदयाको लक्ष्यमें रखकर है जब कि पूर्वपक्षका विवेचन पुण्यभावरूप जीवदयासे पृथक व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर है।
आगं उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दीरमें त. घ. १० १०० पर ही यह कथन किया है कि "यदि प्रकृतमें दयासे वीतराग परिणाम स्वीकार किया जाता है और इसके फलस्वरूप जिन उल्लेखोंके आश्रयसे प्रतिशंका दोमें दयाको कर्मक्षपणा या मोक्षका कारण कहा है तो उसे उस रूप स्वीकार करने में तत्त्वकी कोई होती, क्योंकि रामपरिणाम मात्र बन्धका ही कारण है, फिर भले ही वह दसवें गुणस्थानका सुक्ष्मसाम्पराय रामपरिणाम हो क्यों न हो और वीतरागभाव एकमात्र कर्मक्षपणाका ही हेतु है फिर भले ही वह अविरत सम्यग्दष्टिका वीतराग परिणाम ही क्यों न हो।"
उत्तरपक्षके इस कथनसे यह सूचित होता है कि वह भी पूर्वपक्ष के समान पुण्यभूत जीवदयासे पृथक् वीतराग परिणतिके रूपमें धर्मरूप जीवदयाको मान्य करने के लिए तैयार है। इसलिये उसे यह भी ज्ञात होना चाहिए था कि पूर्वपक्षने प्रकृतमें पुण्यभावरूप जीवदयासे पथक इसी दीतराग परिणतिरूप जीवदयाको धर्मरूप से ग्रहण किया है । इतना अवा किम ताहत्तरपका अपने प्रथम पोरके उत्तरवचनमें यह लिखना कि ''यदि इस प्रश्नमें धर्मपदका अर्थ वीतरागपरिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है।" अगंगत सिद्ध हो जाता है। इसपर उत्तरपक्ष यदि यह कहना चाहे कि उसने तो अपने प्रथम दौर में पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म मानने की बातको मिथ्यात्व कहा है, वीतरामपरिणतिरूप जीवदयाको नहीं, तो जसे इस बातका स्पष्टीकरण प्रथम दोरमें ही कर देना चाहिए था, क्योंकि पूर्वपक्षने अपने प्रश्नमें जीवदयापदका ही पाठ किया है, पुण्यभावरूप जीवदयापदका पाठ नहीं किया है जिसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यास्व नहीं है इसी ऽकार जीवदयाको धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है। इस तरह पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके प्रथम उत्तरसे ही वह बात समझमें आ जाती कि उत्तरपक्ष जीनदयाको पुण्यभाषरूप जीवदयासे पृथक् वीतरागपरिणति के रूपमें धर्मरूप जीवदयाको भी मान्य करता है । तब दोनों पक्षोंके मध्य विवाद केवल व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको मानने न माननेके विषयमें ही रह जाता । इसका यह सुफल होता कि प्रकृत प्रबमके सम्बन्ध में उसे जो अनावश्यक प्रयास करना पड़ा वह उसे नहीं करना पड़ता तथा पूर्वपक्ष भी कुछ तो अनावश्यक प्रयाससे बच जाता।
यहां एक बात अवश्य विचारणीय है कि उत्तरपक्षने पुण्यभूत जीवदयासे पृथक वीतरागपरिणतिरूप जीवदयाको तो मान्य कर लिया है, परन्तु इस वीतरामपरिणतिरूप जीवदयाके दो भेद है-एक तो अनन्तानुअन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोष प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, शव या क्षयोपशममें होनेवाली जीवकी भाववती शक्तिके परिणममस्वरूप वीतराग परिणतिरूप जीवदया और दूसरी जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप वीतराग परिणतिरूप जीवदया। इन दोनोंमेंसे जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप वीतरागपरिणतिरूप जीवदयाका अन्तर्भाव तो पारस्वभाषभूत मिश्चर्पधर्ममें होता है और जीयको
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप वीतरागपरिणतिरूप जीवक्ष्याका अन्तर्भाव पूर्वोक्त प्रकार व्यवहारधर्म होता है। इनमेंसे पहली निश्चयधर्मरूप जीवदयाको तो उत्तरपक्ष ने अपने उपर्युक्त वक्तव्य में स्वीकार कर लिया है, परन्तु दूसरी व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको वह अभी भी मान्य करने के लिए तैयार नहीं है । इमलिए इसके विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य अभी भी विवाद बना हआ है । इसके अतिरिक्त उत्तरपक्षके सामने यह समस्या बनी हुई है कि जिस प्रकार पुण्यभूत जीवदया शुभ प्रवृतिरूप होनेसे कर्मोंके संबर और निर्जरणका कारण न होकर उनके आरव और बन्धका ही कारण होती है उसी प्रकार निश्चयधर्मरूप जीवदया यद्यपि जीवके शुद्ध स्वभावभूत होनेसे कर्मों के बालव और बन्धका कारण नहीं होती है । परन्तु वह कर्मोके संवर और निर्जरणका भी तो कारण नहीं होती है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति कोंके संवर और निर्जरणपूर्वक होती है। इसलिए दयारूप शुभ प्रवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोक आस्रव और श्वध्धका कारण होते हुए भी अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्ति रूपताके आधारपर और अन्तमें दयारूप शुभ प्रवृत्तिसे भी निवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोके संवर और निर्जरणको कारणभूत व्यवहारधर्मरूप दयाको मान्य करना भी उत्तरपक्षको अनिवार्य है।
यहाँ दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि "वीतरागभाव एकमात्र कर्मक्षपणाका हो हेतु है' सा उसने यह याद जीवको भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप वीतरागभावको लक्ष्यमें रखकर लिखा है तो अयुक्त है, क्योकि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि ऐसा वीतरागभाव जब कर्मक्षपणापूर्वक ही प्रगट होता है तो उसे स्वयं कर्मक्षपणाका कारण नहीं माना जा सकता है। इसलिए यहाँ जीवकी क्रियावतो शक्तिले परिणमनस्वरूप वीतरागभाव ही ग्रहण करने योग्य है । फलतः कर्मक्षपणामें कारणभूत भावहारधर्मभूत जीवदयाकी स्वीकृति उत्तरपक्षको न चाहते हुए भी मानना पड़ती है। यह विषय पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है।
__अन्तमें तः च० पु. १०० पर ही उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में जो समयसार कलश १०६ और १०७ को प्रस्तुत किया है सो उसका आशय यही है कि जीवकी भाववती शक्तिका स्वभावभूत ज्ञानस्वरूप परिणमन होना ही मोक्षका हेतु है । परन्तु इसका पन्नु स्वभावभूत ज्ञानस्वरूप परिणमन मथायोग्य कर्मको क्षपणापूर्वक ही होता है और क्षपणा तब तक प्रारम्भ नहीं होती जब तक जीवकी क्रियावतीशक्तिका मानसिक वाचनिक और कायिक अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप परिणमन नहीं होने लगता है । तात्पर्य यह है कि जीवको क्रियावती शक्तिका शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन तो आसवपूर्वक बन्धका कारण होता है और उसका अशुभसे निवृत्तिका परिणमन संवरपूर्वक निर्जरणका कारण होता है। जीवकी भाववती शक्तिका न तो अशुद्ध परिणन आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही उसका शुद्ध परिणमन संवर और निर्जराका कारण होता है । इसका स्पष्टीकरण सामान्य समीक्षामें किया जा चुका है।
४. प्रश्नोत्तर ३ के तृतीय दौरकी समीक्षा तृतीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौरले प्रारम्भमें व० च पृ० १०१ पर उत्तरपक्षके प्रयम और द्वितीय दौरोंकी आलोचना करते हुए निम्न कथन किया है--
"आपके इस उत्तरके निराकरणमें हमने आपको दूसरा पत्रक दिया जिसमें श्री आचार्य कुन्दन्द, बीरसेन, अकलंक, देवसेन, स्वामी कार्तिकेय आदि ऋषियोंके द्वारा प्रणीत प्रामाणिक आर्ष ग्रन्थों-बदल,
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जयधवल, राजबार्तिक, भावपाहुड, भावसंग्रह, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदिके लगभग २० प्रमाण देकर निम्न लिखित दो बातें सिद्ध की थीं
(१) जीवनया करना धर्म है। (२) पुण्यभाव धर्मरूप है । पुण्यभाव या शुभ भावोंसे संवर निर्जरा तथा पुण्यकर्म-बन्ध होता है।"
पूर्वपक्षके इस कथनका अभिप्राय यह है कि आगममें पुण्यरूप जीवदमासे पृथक् व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको भी मान्य किया गया है जो व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीवकी अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक
याभूत शुभ प्रवृत्तिरूप होती है। इस अभिप्रायकी पुष्टि पूर्वपक्षके हो त० ० पृ० १०३ पर निर्दिष्ट निम्न कथन से होती है
___ "आगने रागभावको केन्द्र बनाकर पुण्यभावों या शुभभावोंको केवल कर्मबन्धके साथ बांधनेका प्रयत्न किया है । यह शुभभावोंको अवान्तर परिणतियोंपर दृष्टि न जानेका फल जान पड़ता है। इतनी बात तो अवश्य है कि दसवें गुणस्थान तक रागभान लघु, लघुतर, लघुतमरूपसे पाया जाता है और वह भी सत्य है कि रागभावसे कर्मोका आस्रव तथा बन्ध हुआ करता है। तथा च अमृतचन्द्र सूरिने जो असंयत सम्यग्दृष्टि, संयमासंयमी एवं सरागसंयतके मिश्रित भावोंको अपनी प्रज्ञा छैनीसे भिन्न-भिन्न करते हुए रागांश और रत्नषयांश द्वारा कमरों के बन्धन और अबन्धनकी सुन्दर व्यवस्था पुरुषार्थसिद्धुपायग्रन्थके तीन श्लोकोंमें की है उनमें एक अखण्डित मिश्रितभाक्का विश्लेषण समझानेके लिए प्रयत्न किया गया है। यह मिश्रित अखण्डभाब ही शुभ भाव है, अतः इससे आस वचन्ध भी होता है तथा संवर निर्जरा भी होता है।"
____ इस कथनके अतिरिक्त पूर्वपक्षद्वारा आगम प्रमाणोंके आधारपर आगे किये गये अन्य कथनोरो भी यही निर्णीत होता है कि पूर्वपक्ष जीबदयाको मात्र शुभ प्रवृत्ति के रूपमें पुण्यरूप भी मानता है जो केवल कर्मोके आम्रव और बन्धका ही कारण होती है तथा वह उसे जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप भी मानता है जो मोहनीयकर्मकी क्रोधप्रकृतियोंके यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक जीयम प्रगट होती है। तथा जो न तो कमोंके आस्रव और बन्धका कारण होती है और न ही कोक संवर और निर्जरणका कारण होती है। एवं इन दोनों के अतिरिक्त वह उसे व्यवहारधर्मरूप भी मानता है जो तत्-तत पापमय प्रवृत्तिसे यथायोग्य निवृत्तिरूप होनेसे रलावांशके रूपमें कोंके संबर और निर्जरणका भी कारण होती है तथा पुण्यमय शुभ प्रवृतिरूप होनेरो रागांशके रूपमें कर्मोके आसव और बन्धका भी कारण होती है। इस तरह यह ज्यवहारधर्मरूप' जीवदया रत्नत्रयांश के रूपमें जीवके शुद्धस्वभावभुत निश्चयधर्मरूप जीबदयाकी उत्पत्तिमें कारण भी सिद्ध हो जाती है। यह सब विषय सामान्य समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है! तृतीय दौरमें उत्तरपक्षका प्रारंभिक कथन और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरफे प्रारम्भमें "प्रथम और वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार" शीर्षकसे त. च० पृ० ११० और १११ पर पांच अनुच्छेद लिखे हैं। उनमेंसे प्रत्येक अनुच्छेदको उद्धृत कर उसकी समीक्षा की जाती है
(१) प्रथम अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'जीवदयापदफे स्वदया और परवया दोनों अर्थ सम्भव है। किन्तु प्रकृतमें मूल प्रश्न परदयाको ध्यानमें रखकर ही है, इस बातको ध्यानमें रखकर हमने प्रथम उत्तरमें
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा यह स्पष्टीकरण किया कि यदि धर्मपदका अर्थ पुण्यभाव लिया जाये तो जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है । इस उसरमें आगम प्रमाण भी इस अर्थकी पुष्टिमें दिये।'
इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदमें "जीवदया" पदके स्वदया और परदयाके रूपमें जो दो भेद मान्य किये हैं, उनमें विवाद नहीं है। परन्तु उसने वहींपर जो यह लिखा है कि "प्रकृतमें मूल प्रश्न परदयाको ध्यानमें रखकर ही है' सो उसका यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि पूर्वपक्षका प्रश्न परदया अर्थात् पुष्पभावरूप जीवदयाको ध्यानमें रखकर नहीं है, अपितु सामान्य रूपसे जीवदयाको ध्यानमें रखकर ही है. क्योंकि पूर्वपक्ष अपमे प्रश्नमें उत्तरपक्षसे मात्र इतना पूछ रहा है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या? पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म मानना भय्यावया ? यह नहीं पूछ रहा है और ऐसा न पूछनेका कारण यह है कि उत्तरपत्रके समान पूर्वपक्ष भी पुण्यभावरूप जीपदयाको धर्म नहीं मानता है। यह बात प्रथम दौरकी समीक्षा स्पष्ट की जा चुकी है। यतः पूर्वपक्ष समझता था कि उत्तरपक्ष जीपदयाको धर्मरूप नहीं मानना चाहता है अतएव उसने प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया था। यद्यपि उत्तरपक्षाने अपने द्वितीय दौरमें और इस तृतीय दौरमें जीवदयाको वीतराग परिणतिके रूपमें जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म भी स्वीकार कर लिया है, परन्तु वह इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभत व्यवहारधर्मरूप जीवदनाको अभी भी भानने के लिए तैयार नहीं है।
(२) द्वितीय अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "अपरपनने अपनी प्रथम प्रतिशंकामें एक अपेक्षासे हमारे उक्त कथनको तो स्वीकार कर लिया किन्तु साथमें आगमके लगभग २० प्रमाण उपस्थित कर यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जीवदयाका संवर और निर्जरा तत्वमें भो अन्तर्भाव होता है, इसलिये वह मोक्षका भी कारण है।"
इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षका इस अनुच्छेदमें "अपर पक्षने अपनी प्रथम प्रतिशंका एक अपेक्षासे हमारे उक्त कथनको स्वीकार कर लिया' यह लिखना भ्रामक है, क्योंकि पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ जीवदयाके पुण्यभाव रूप होने और उसका आस्रव व बन्ध तत्त्वमें अन्तर्भाव होने के सम्बन्धमें विवाद न होकर केवल उसे धर्मरूप माननेके विषयमें ही विवाद था, इसीलिये पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौरमें 'इस प्रश्नके उत्तरमें आपने जीवदयाको धर्म मानते हुए उसको शुभ परिणामोंमें परिगणना की है यह एक अपेक्षासे ठीक होते हुए भी' यह कथन किया है। उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदमें पूर्वपक्षके कथनके रूपमें जो यह लिखा है कि "किन्तु साथमें आगमके लगभग २० प्रमाण उपस्थित कर यह भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया कि जीवदयाका संवर और निर्जरा तत्त्वमें भी अन्तर्भाव होता है इसलिये वह मोक्षका भी कारण है ?" सो ऐसा प्रयत्न पूर्वपक्षने पुष्पभूत जीवदयासे भिन्न व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर हो किया है, क्योंकि आगमके आधारपर वह व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको संवर और निर्जराका कारण मानकर मोक्षका भी कारण मानता है। इस बातको उसने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें स्पष्ट भी किया है तथा इस समीक्षामें मैंने भी स्पष्ट किया है।
(३) तृतीय अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'अपरपक्षने जो प्रमाण उपस्थित किये उनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण हैं जिनमें धर्मको दया प्रधान कहा गया है या करुणाको जीवका स्वभाव कहा गया है या शुभ और शुद्ध भावोंसे कमौकी क्षपणा कही गई है और साथ ही ऐसे प्रमाण भी उपस्थित किये जिनमें स्पष्ट रूपसे रागरूप पुण्यभावकी सूचना है। किन्तु इनमेंसे किस प्रमाणका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा गया । वे कहां किस अपेक्ष से लिखे गये हैं यह भी नहीं खोला गया । इसलिये हमें अपने दूसरे उत्तर में यह टिप्पणी करने के लिये बाध्य होना पड़ा कि 'ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही हैं । यदि पूरे जिनागममेरो ऐसे प्रमाणका संग्रह किया जाये तो स्वतंत्र ग्रन्थ बन जाये ।'
इसकी समीक्षामें मेंरा यह कहना है कि पूर्वपक्ष जीवदयाको पुण्यरूप भी मानता है, जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म रूप भी मानता है और निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारणभुत व्यबहारधर्म रूप भी मानता है तथा अपनी इस माम्मताको पुष्टि के लिये ही उसने उक्त आगमप्रमाणोंको उपस्थित किया है । उनमेंसे कोई प्रमाण जोवकी पुण्यरूपताका समर्थक है। कोई प्रमाण उसकी शुद्ध स्वभावभूत' निश्चयधर्मरूपताका समर्थक है और कोईमाण उनकी दवहारधारूपताका समर्थक है। उत्तरपक्षका भी यही कर्तव्य था कि वह जीवदयाको उन प्रमाणोंके आधारपर पुण्यरूप, जीवके शुद्ध स्वभावभुत निश्चयधर्मरूप और इसमें कारणभूत ज्यवहारधर्मरूप स्वीकार कर लेता। उत्तस्पक्ष ने इस अनुच्छेदमें जो यह लिखा है कि "किन्तु इनमें किस प्रमाणका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया गया । वे कहाँ किस अपेक्षासे लिखे गये है यह भी नहीं खोला गया इसके सम्बन्ध में पहली बात तो यह कहना चाहता है कि पूर्वपक्षने इन बातोंपर इसलिये ध्यान नहीं दिया कि उसने प्रकुलमें इन बातोंको स्पष्ट करनेकी कोई आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि उसके सामने प्रश्न केवल जीवदयाके उपयुक्त तीन भेदोकी पुष्टि करनेका था । दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि यदि उत्तरपक्ष इन बातोंको स्पष्ट करने की आवश्यकता समझता था, तो अच्छा होता कि इन बातोंको यही प्रदनके रूपमें उपस्थित न करके वह स्वयं ही स्पष्ट कर देता । तीसरी बात मैं यह कहना चाहता है कि द्वितीय दौरकी समीक्षामें मैंने इन बातोंका स्पष्टीकरण कर दिया है इसलिये अब यहाँ मेरे लिए भी इनको स्पष्ट करना आवश्यक नहीं रह गया है | उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदके अन्तमें जो यह लिखा है कि 'इसलिये हमें अपने दूसरे उत्तरमें यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि ये सब प्रमाण तो लगभग २५ ही है यदि पूरे जिनागममेसे ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाये तो स्वतंत्र ग्रन्थ बन जामे ।' सो उसके इस लेखके विषयमें तो कोई आपत्ति नहीं है, तथापि उत्तरपक्ष यदि टिप्पणी करनेसे पूर्व प्रश्नके विषय में इन आगम प्रमाणोंको उपस्थित करने में पूर्वपक्ष के आशयको समझनेकी चेष्टा कर लेता तो अच्छा रहता । परन्तु जब उसरपक्षने प्रश्नके विषय में पूर्वपक्ष के आशयको नहीं समझकर और प्रश्नको विपरीत दिशामें मोड़कर पहले से ही मूलमें भूल कर दी है तो फिर उससे इसके अतिरिक्त और क्या आशा की जा सकती थी।
(४) चतुर्थ अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'फिर भी उन प्रमाणोंको ध्यान में रखकर हमने दूसरे उत्तरमें यह स्पष्टीकरण कर दिया कि पुण्य (शुभ राग) भाव रूप जो दया है वह तो मोक्षका कारण नहीं है । हाँ, इसका अर्थ वीतरागभाव यदि लिया जाये तो वह संबर और निर्जरा रूप होनेसे अवश्य ही मोक्षका कारण है।'
इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदमें जो यह लिखा है कि 'इन . प्रमाणोंको ध्यान में रखकर हमने अपने दूसरे उत्तरमें यह स्पष्टीकरण कर दिया कि पुण्य (शुभ राग) भाव रूप जो दया है वह तो मोक्षका कारण नहीं है ।' सो यह भी उसने प्रश्नके विषयमें पूर्वपक्षके आशयको नहीं समझ सकनेके कारण लिखा है, क्योंकि पूर्वपक्ष पुण्य (शुभराग) भावरूप दयाको मोक्ष का कारण मानता ही नहीं हैं और मानता भी है तो परम्परया इस रूपमें मानता है कि पुष्यरूप जीवदया जीव. संकल्पी पापोंसे घृणा उत्पन्न होनेमें कारण होती है और जीवमें जब संकल्पी पापोंसे घृणा उत्पन्न हो जाती है तो वह जीव
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
उन संकणी पापोंका सर्वथा त्यागकर अशुमसे निवृत्तिपूर्वफ होने वाली शुभमें प्रवृत्तिरूप ब्यवहारधर्मको अंगीकार कर लेता है जो व्यवहारधर्म कोंके संवर और निर्जरण पूर्वक मोक्षका कारण होता है इस विषयको पूर्वमें विस्तारस स्पष्ट किया गया है। उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदके अन्त में जो यह लिखा है कि इसका अर्थ वोतरागभाव यदि लिया जाये तो यह संवर और निर्जरा रूप होनेसे अवश्य ही मोक्षका कारण है ।' सो यह लेख उसने वीतरागभावका अर्थ शुद्ध स्वभावभूत निश्चयवर्मक रूपमें ग्रहण कर लिखा है । इसलिये मिथ्या है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप यह बीतरागभाब कर्मोंके संवर और निर्जरणपूर्वक होनेसे कमौके संबर और निर्जरणका कारण नहीं हो सकता है । इसलिये यदि उत्तरपक्ष वीतरागभावका अर्थ व्यवहारधर्मके अंशभूत पापभूत अशुभ प्रवृत्तिमे निवृत्ति के रूप में स्वीकार कर ले तो उसका उक्त कथन संगत हो सकता है, क्योंकि व्यवहार धर्मके अंशभूत पापभूत अशुभसे निवृत्ति ही कौके संवर और निर्जराका कारण होती है । इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है।
(५) पंचम अगुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आगममें सरागसम्यक्त्वको वा रारागचारित्र आदिको जहाँ बन्धका कारण कहा है वहां उन्हें परम्परा मोक्ष का कारण में कहा है। पर समा ज मा है, हालिये प्रकुतमें उसकी विवक्षा नहीं है। यहाँ तो निर्णय इस बातका करना है कि रागरूप शुभ भाव या पुण्यभाव भी क्या उसी तरह मोक्षका कारण है जिस तरह निश्चयधर्म । इन दोनोंम कुछ अन्तर है या दोनों एक समान है। पूरी चर्चाका केन्द्र बिन्दु यही है । हमने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तरमें इसी आशयको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है।'
इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्ष ने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तरमें जो कुछ लिखा है यह सब अपनी इस धारणाके आधारपर लिखा है कि पूर्वपक्ष पुण्यरूप जीवदयाको ही धर्म मानता है जो मिथ्या है, क्योंकि पूर्वपश तो पुण्यरूप जीवदयासे पृथक् जीवके शुद्ध स्वभावभूप्त निश्चयधर्मके लपमें व इसमें कारणभूत व्यवहारधर्मके रूपमें ही जीवदयाको धर्मरूप स्वीकार करता है। अतः इस बातको मैं इसी समीक्षामें विस्तारके साथ स्पष्ट कर चुका हूँ, इसलिये इस अनुच्छेदमें उत्तरपक्षका यह लिखना कि 'यहाँ तो निर्णय इस बातका करना है कि रागरूप शुभ भाव या पुष्यमाव भी क्या उसी तरह मोक्षका कारण है जिस तरह निश्चय रत्नत्रय । इन दोनोंमें कुछ अन्तर है या दोनों एक समान हैं।' निरर्थक और अनुचित सिद्ध हो जाता है। उत्तरपक्षके इस लेवसे ऐसा भी ज्ञात होता है कि वह पुण्यभाव या शुभ भावको मोक्षका कारण तो मानसा है, परन्तु उस तरह नहीं मानता है जिस तरह वह निश्चय रत्नत्रयको मानता है, इसलिये पुण्यभाव या शुभभाव जीवदयाको बह किस तरह मोक्षका कारण मानता है यह बात उसे स्पष्ट करनी थी। यतः उसने इस बातको स्पष्ट नहीं किया, अतः इसमें उसकी दूषित मनोवृत्ति ही कारण जान पड़ती है, क्योंकि इस स्पष्टीकरणसे उसका पक्ष उसीके द्वारा निरस्त हो सकता था। पूर्व पक्ष एक तो पुण्यभाव या शुभ भावरूप जीवदयाको कमों के आस्रव और बन्धका कारण होनेसे मोक्षका कारण मानता ही नहीं है वह तो व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको ही आस्रव और बन्धका कारण होने के साथ संवर और निर्जराका भी कारण होनेरी मोनका कारण मानता है। दूसरे, वह जो ज्यभाव या शुभभावरूप जीवदयाको मोक्षका कारण मानता है वह इस तरह मानता है कि पुण्यभाव या शुभभाव रूप जीवदया व्यवहारधर्म रूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है । इसलिये वह उसे परम्परया ही मोक्षका कारण मानता है । यह सब विषय इसी समीक्षामें विस्तारके साथ स्पष्ट किया जा चुका है । इस अनुच्छेदमें उत्तरपने जो मह लिखा है कि 'यहाँ यह स्पष्ट
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कर देना आवश्यक है कि आगममें सराग सम्यक्त्यको या सरागचारित्र आदिको जहां कर्मबन्धका कारण कहा है वहाँ परम्परा मोक्षका भी कारण कहा है।' सो उसका यह कथन तो निर्विवाद है, परन्तु इसके
आगे उसने जो यह लिखा है कि उसका आशय दूसरा है। सो अच्छा होता यदि वह उस दूसरे आशयको महाँ स्पष्ट कर देता। इस विषयमें उसने आगे जो केवल यह लिख दिया कि 'प्रकृतमें उसकी विवक्षा नहीं है।' सो इसे उसका उस आशयको स्पष्ट करने की बातको तो टालना ही कहा जा सकता है। लेकिन उसका इस तरह आवश्यक बातको टाल देना उचित नहीं है, क्योंकि सम्भव है उसके द्वारा उस आशयको स्पष्ट कर देनेसे प्रकृत विषयकी समस्याके सुलझनेका मार्ग प्रशस्त हो जाता।
तात्पर्य यह है कि जीवकी क्रिमावती शक्तिके परिणमन स्वरूप अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारचारित्रके रूपमें जो सम्पचारित्र है वह शुभ प्रवृत्तिके रूपमें तो बन्धका कारण है और अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिके रूपमें परम्परया मोक्षका कारण है। इसे परम्परमा मोक्षका कारण कहनेका आशय यह है कि इस व्यवहारसम्यक चारित्रके आधारपर भव्यजीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण लब्धियों को अपने विकसित कर लेता है । तथा करण लब्धिका विकास मोहनीय कर्मक यथास्थान यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण होता है और इसके अनन्तर ही उस जीयमें आत्मविशुद्धिके रूपमें निश्चयमोक्षमार्ग प्रगट होता है। इसी तरह सराम सम्यक्त्व भी उस जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्वश्रद्धानरूप परिणमनके रूपमें ज्यबहारसम्यक्त्व है। ऐसे मरागसम्यक्त्व और सरागचारित्र दोनों ही अपने अपने ढंगसे बन्ध और मोक्षके कारण होते है । जो मनीषी मोहनीय कर्मक यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले दशम गुणस्थान तकके निश्चयसम्यक्त्व और निश्चयमारित्रको ही सरागसम्यक्त्व और सरागचारित्र कहते हैं वे भ्रममें है, क्योंकि निश्चयसम्यक्त्व और निश्चयचारित्र जिस गुणस्थानमें जिस रूपमें प्रगट होते हैं जीयके शुद्ध स्वभावरूप होनेसे बन्धके का नहीं होते हैं और मोहनीय कर्म के यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होनेसे संवर और निर्जराका कार्य होनेसे ने संबर और निर्जराके कारण भी नहीं होते है। इस विषयको तथा व्यवहार या सराग सम्यक्त्व और व्यवहार या सराम चारित्रकी अपने-अपने ढंगकी मोक्ष कारणताको सयुक्तिक इस समीक्षा पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। तृतीय दौरमें निर्दिष्ट उत्तरपक्षके आगेके कथनोंकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने ततीय दौर में आगे "प्रतिर्शका ३ के आधारसे विचार" शीर्षकसे जो विचार व्यक्त किये हैं वे विचार उसने प्रथम और द्वितीय दौरोंके समान पूर्वपक्षके "जीवदयाको धर्मं मानना मिथ्यात्व है क्या? इस प्रश्नको "पण्यरूप जीवदयाको धर्म मानता मिथ्यात्व है क्या?" इस रूपमें ग्रहण करके पुण्यभूत श्याको लक्ष्यमें रखकर ही व्यक्त किये हैं। उसे मैं पहले भी उत्तरपक्षकी "मूल में भूल' कह आया हूँ आगे उसरपक्षके उन विचारोंकी समीक्षा की जाती है
(१) उत्तरपक्षने त० च० पृ० १११ पर परमात्मप्रकाश पद्य ७१ को लेकर पूर्वपक्ष की आलोचना की है वह ठीक नहीं, क्योंकि प्रकृतमें यह आलोचना मात्र आस्रव और बन्धमे कारणभूत पुण्यरूप दयाको दृष्टिमें रखकर की है जबकि पूर्वपक्षका कथन आस्रव और बन्धके साथ संवर और निर्जरामें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप दयाको लक्ष्यमें रखकर है।
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
(२) भागे लसी पृष्ठपर उत्तरपक्षने जो "पर जोयोंकी दयाका विकल्प तो सम्यग्दृष्टियों यहाँ तक की मुनियोंको भी होता है"--इत्यादि कथन किया है, सो उसे समझना चाहिए या कि परजीवोंको दयाफा विकल्प सम्यग्दृष्टियों और मुनियों का पहले किये गये विवेचनके अनुसार केवल पुण्यभावरूप जीवदयाके रूपमें न होकर ब्यवहारधर्मरूप जीव दयाके रूपमें ही होता है । केवल पुण्यभाष रूप जीवदयाका विकल्प पूक्ति प्रकार संकल्पी पापभूत अश्या प्रवृत्त मि-पाटि जायके है। होचा है ।
(३) उत्तरपक्षने त० च० १० ११२ पर "अपरपक्षने अपने प्रतिशंका रूप दूसरे पत्रझमें विविध ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण दिये है" इत्यादि कथन किया है वह भी उसने केवल पुण्यभावरूप जीवदयापर दृष्टि रखकर ही किया है । यदि यह पक्ष उस प्रकारका कथन करनेसे पूर्व व्यवहारधर्म रूप जीवदयापर दृष्टि डालनेका प्रयत्न करता तो उसे वह सब लिखने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
वहींपर उत्तरपक्षने "अपरपक्ष यदि व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म दोनोंको मिलाकर निश्चयधर्म कहना चाहता है"-इत्यादि कथन किया है, सो यह भो उसको दूषित दृष्टिका परिणाम है। वास्तवमें उत्तरपक्षको व्यवहारधर्म और निश्चयधर्मके स्वरूपका निर्धारण करना ही आवश्यक है । इनके निर्धारणमें आगमका दृष्टिकोण यह है कि व्यवहारधर्म तो अशुभमे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिके रूपमें जीवको क्रियावती शक्तिका परिणाम है और निश्चयधर्म मोहनीय कर्मके यथास्थान यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होनेवाला जीवको भाववती शक्तिका परिणाम है। इस विषयको मैंने सामान्य समीक्षा विस्तारमे स्पष्ट किया है।
(५) इसके आगे नहींपर उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थनमें प्रवचनसारको गाथा ९और ११ को भी उपस्थित किया है, तो उनका भी यहाँ कोई उपयोग नहीं है । लगता है कि यह मात्र शुभ भाव और व्यवहारधर्मके अंशरूप शुभभाव इन दोनोंके भेदकों समझने में असमर्थ रहनेके कारण ही एमा कर रहा है। माना कि मात्र शुभ भाव पुष्यबन्धका कारण है, परन्तु अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाला शुभ भाव तो व्यवहारधर्मके रूप में एक अपेक्षासे आस्त्रव और बन्धका भी कारण है और एक अपेक्षासे संवर और निर्जराका भी कारण है। उत्तरपक्षने त च० पु. ११३ पर जो "अपरपक्षने अपने दूसरे पत्रकमें जो आगम प्रमाण दिये है-- इत्यादि कथन किया है उसमें भी उसे मात्र पुण्यभाव और व्यवहारधर्मजप पुण्यभाव इन दोनोंके भेदको समबानेको आवश्यकता है। इसी तरह त च० १० ११३ पर ही उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "हमने अपने पिलले उत्तरमें जो बह लिखा है कि शभ भाव नाहे दया हो, करुणा हो, जिनबिम्ब दर्शन हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्च ही होता है उससे संवर, निर्जरा और मोक्षको सिद्धि होना असम्भव है" तथा आगे और भी जो कुछ लिखा है वह सब मात्र पुण्यभावको अपेक्षा सो निविवाद है. परन्तु इससे गथक पापभानसे निवत्तिपूर्वक होनेवाला पुण्यभाव व्यवहारधर्मके रूपमें बन्धका कारण होकर भी संवर और निर्जरा पूर्वक मोक्षका भी कारण होता है। इस बातपर भी उत्तरपक्षको ध्यान रखना था। एक बात यह भी विचारणीय है कि यद्यपि पापभाव और पुण्यभाव बन्धके कारण होनेसे समान है, परन्तु दोनोंमें यह भेद भी है कि अहाँ पापभाव दुर्गतिका कारण है वहाँ पुण्यभान्न मुगतिका कारण है। इतना ही नहीं, पुण्य भावमें पापभावसे वह भी विशेषता है कि वह संवर और निर्जरपूर्वक मोक्षक कारणभूत व्यवहारचर्मकी उत्पत्तिमें भी कारण है जैसा कि पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा (६) आगे उत्तरपक्षने त० प० पृ० ११३ पर ही जयपवलाके “शुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभाव तक्खयाणुववत्तदो" कथनकी भी वर्षा उठाई है तथा इसके अभिप्रायका निर्णय करनेके लिए प्रवचनसार गाथा ११ की आचार्य जयमेन कृत टीकाको भी प्रस्तुत किया है और लिखा है कि "यह आगम प्रमाण हैं । इस द्वारा शुभ और शुद्ध दोनों प्रकारके भावोंका क्या फल है यह स्पष्ट किया गया है । इस द्वारा हम यह अच्छी तरह जान लेते हैं कि शुभ भावोंको जो श्री जयधवलामें कर्मक्षयका हेतु कहा गया है वह किस रूपमें कहा गया है । वस्तुतः तो वह पुण्यबन्धका ही हेतु है । उसे जो कर्मक्षयका हेतु कहा गया है वह इस आशयमे कहा गया है कि उसके अनन्तर जो शुदोपयोग होता है वह वस्तुतः कर्मक्षयका हेतु है इसलिये उपचार उसे भी कर्मक्षयका हेतु कहा गया है ।" इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है
जयधवलाके उक्त कथनका क्या अभिप्राय होना चाहिए, इसका विस्तारसे विवेचन मैंने सामान्य समीक्षामें किया है। उसमें मैंने स्पष्ट किया है कि शुभ-शव परिणामोंका अर्थ उस बचनमें जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप अशुभसे निवृत्तिरुप शुद्ध और शुभमें प्रवृत्तिरूप शुभके रूपमें ही ग्रहण करना युक्त है, क्योंकि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप केवल शुभ परिणाम आस्रव और बन्धका ही कारण होता है और भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुद्ध परिणाम संबर और निर्जरा पूर्वक प्रगट होनेसे संवर और निर्जराका कारण नहीं है । सरह उत्त जमा 'यह आगम प्रमाण -इत्यादि जो उपर्युक्त अपना अभिप्राय प्राट किया है वह असंगत सिद्ध हो जाता है। उस कथनमें उत्तरपक्षने जो यह बतलाया है कि शुभ भाव तो पुष्यबन्धका ही हेतु है, सो इसमें तो विरोध नहीं है परन्तु शुद्धोपयोग भी तो कर्मसका हेतु नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगकी उत्पत्ति ही कर्मक्षय पूर्वक होती है । तथा शुद्धोपयोगको कर्मक्षयका हेतु मान्य करने में अन्य आपत्तियां भी उपस्थित होती है जिन्हें मैं सामान्य समीक्षामें प्रकट कर चुका हूँ। इस तरह जयश्वलाका "सृह सुद्धपरिणामेहि"-इत्यादि अचन अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्मका ही ज्ञापन करता है यही मानना श्रेयस्कर है।
(७) त• च पृ० ११४ पर "शुभभाव बन्धका कारण है" इसकी सिद्धिके लिए उत्तरपक्षने पंचास्तिकाय गाथा १४७ को उपस्थित किया है । परन्तु जब "शुभभाव बन्धका कारण है" इसे पूर्वपक्ष भी मानता हैं तो उत्तरपक्षको इस सम्बन्ध में इतना प्रयास करनेकी आवश्यकता ही नहीं थी।
(८) आगे तम् प० पृ. ११४ पर ही उत्सरपक्षने 'हमने तो जीक्दमा किस अपेक्षासे पुण्यभाव है और किस ओक्षासे वीतरागभाव है" इत्यादि कथन किया है। इसके सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षको इतना और ज्ञातव्य है कि वीतराग परिणाम दो प्रकारका होता है-एक तो जीवकी भाववतीशक्तिका मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाला शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप परिणाम और दूसरा जौवको क्रियावती शक्तिका मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारणभूत अशुद्धसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूए और अन्तमें शुभसे भी निवृत्तिरूप व्यवहारधर्मरूप परिणाम । इस बातको मैं द्वितीय दौरकी समीक्षामें स्पष्ट कर चुका है।
(९) उत्तरपक्षने आगे त० च पृ० ११४ पर ही पुरुषार्थसिद्धधुपाग आदि शास्त्रीय प्रमाणोंके आधारपर मह कथन किया है कि "यदि जीवदयाको शुभ परिणामरूप लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्ध तत्त्वमें होता है और उसे शुद्ध परिणामरूप लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव संबर,
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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निर्जरा और मोक्ष तत्त्वमें होता है ।" सो इसमें उत्तरपक्षको ही इतना ध्यान और देना है कि शुभ भाव और शुद्धभाव के अतिरिक्त तीसरी जीवदया व्यवहारधर्मरूप भी होती है और उस व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका ही अन्तर्भाव पूर्वोक्त प्रकार आस्रव और बन्धके साथ संबर और निर्जरा तत्वमें होता है । सुखभावरूप जीवदया का नहीं। यदि उत्तरपक्ष जीवदयाके पुण्यभाव और शुद्धभाव रूप दोनों भेदोंके साथ तीसरा व्यवहारधर्म रूप भेद भी मान्य कर लेता और उन तीनोंके कार्यका विभाजन भी आगम और युक्सिके आधारपर सहीरूपमें में समझ लेता तो फिर अणुमात्र भी विवाद नहीं रह जाता । एवं उत्तरपक्ष द्वारा अपने पक्ष के समर्थन में उपस्थित प्रवचनसारगाथा १८१ और १५१ तथा तत्वार्थसार पच २५ और २६ का भी युक्तिसंगत समन्वय हो जाता, क्योंकि इनके सम्बन्ध में पूर्वपक्षको विवाद नहीं है। उत्तरपक्ष को तो अपनी भ्रमबुद्धिसे विवाद समझ लेनेके कारण ही निरर्थक प्रयास करना पड़ा है। बोधप्राभूतमें उत्तरपक्ष दयाका जो वीतराग अर्थ ग्रहण करना चाहता है वह भो विवादग्रस्त नहीं है । परन्तु उसे यह ध्यान रखना चाहिए था कि वीतराग भाव जहाँ जीवकी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप होता है वहीं वह उस शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्ति कारणभूत जीवको क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप व्यवहारधर्मरूप भी होता है । धवल पृस्तक १३ के "करुणाए जीवसहावस्स” — इत्यादि वचनका क्या आशय है, इसे में सामान्य समीक्षा में स्पष्ट कर चुका हूँ। इसलिए उतरपक्षने इसके सम्बन्ध में त० च० पृ० ११५ पर जो कुछ लिखा है वह विशेषकी वस्तु नहीं
है।
(१०) उत्तरपक्षनेत० च० पू० ११५ पर अपने अभिमतकी पुष्टि में अपरपक्षने भावसंग्रहको "sti" इत्यादि गाथा उपस्थित की है।" आदि कथन किया है । परन्तु उत्तरपक्षने उदय कथनमें गाथाके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उससे ज्ञात होता है कि वह गाथाके अभिप्रायको नहीं समझ सका है । गाथाका अभिप्राय इस रूपमें लेना चाहिए कि वास्तव में तो सम्यग्दृष्टिका पुण्य मोक्षका ही कारण होता है परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि वह निदान न करे। इसका तालार्य यह है कि औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव तो निदान करते ही नहीं है, केवल क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ही ऐसा है जिसके मोहनीयकर्मकी सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय रहनेके कारण उसके प्रभाव में निदान सम्भव है। गायामें जो "पुष्णं" पदका पाठ है उसका अर्थ व्यवहारधर्मरूप पुष्प्रभाव हो ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि सम्यदृष्टि जीवके व्यवहार धर्मरूप पुण्वभाव ही सम्भव है । केवल पुण्यभाव सम्भव नहीं है। इस बातको सामान्य समीक्षामें स्पष्ट किया जा चुका है तथा व्यवहारधर्मरूण पुण्यभाव शुभ प्रवृत्तिके रूपमें मलय और बन्धका कारण होते हुए भी अशुभसे निवृत्तिके रूपमें संवर और निर्जराका भी कारण होता है। यह बात इसी प्रश्नोत्तरको समीक्षा में स्थान, स्थानपर स्पष्ट की जा चुकी है। फलतः उसकी मोक्षकारणता असंदिग्ध
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(११) उत्तरपक्षने त० ० पृ० ११६ पर अपने समग्र कथमका सार चार विकल्पोंमें निरूपित किया है । वे चारों विकल्प इस प्रकार हैं कि (१) दयापद आगम में दोनों अर्थों में व्यवहृत हुआ है - पुण्यभावके अर्थ में भी और वीतराग भाषके अर्थ में भी । (२) शुभभाव परभाव होनेके कारण उसका यथार्थमें आम्रव और बन्ध तत्त्वमें हो अन्तर्भाव होता है । जहाँ भी इसे निर्जराका हेतु कहा है वहाँ सा कथन व्यवहारनयसे ही किया गया । (३) वीतरागभाव निजभाव होनेसे उसका अन्तर्भाव संवर, निर्जरा और मोक्षतत्व में होता है । (४) वीतरागभाव व्यवहारसे आस्रव और बन्धका कारण है, यह व्यवहार वीतरागभावपर लागू नही होता, क्योंकि वह सब प्रकार के व्यवहारको दृष्टिमें गौणकर एकमात्र निश्चयस्वरूप शायक आत्माके बालम्बनसे तन्मयस्वरूप
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उत्पन्न होता है । अतः वह स्वरूपसे ही सब प्रकारके व्यवहारसे अतीत है । उसपर किसी प्रकारका उपचार लागू नहीं होता । इनमेंसे प्रथम विकल्प विवादरहित है। केवल यह ज्ञातव्य है कि एक वीतरागभाव जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनरूप होता है और एक वीतरागभाव जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनरूप होता है। इस बातको पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। दूसरा विकल्प भी विवादरहित है। परन्तु वहाँ भी यह बात ज्ञातव्य है कि केवल परभावरूप जो शुभ भाव है वह तो आस्रव और बन्धका ही कारण होता है व उसका सदभाव मंकल्पी पापोंमें प्रवृत्त मिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है। परन्तु उसके आवारपर ही वह जीव संकल्पीपापरूप अशुभसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्मको अंगीकार करता है जो व्यवहारधर्म मानव और बन्धके साथ संवर और निर्जराका भी कारण होता है। तीसरे विकल्पक विषयमें इतना स्पष्टीकरण आवश्यक है कि एक वीतरागभाव शुद्ध स्वभावभूत निदचयधर्मके रूपमें जीयकी भाववती शक्तिकै परिणमनस्वरूप होता है जो न तो आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही सेवर और निर्जराका कारण होता है तथा एक वीतरागभाव प्रवृत्तिसे निवृत्ति के रूपमें जीनकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप भी होता है जो संबर और निर्जराका कारण होता है। चौथे विकल्पके विषयमें सामान्यरूपसे तो यही कहा जा सकता है कि वह अणुमात्र भी विवादको वस्तु नहीं है । परन्तु विशेष रूपसे यह कहना चाहिए कि व्यवहारधर्मका अंश जो वीतरागभाव है वह तो वास्तविक रूपमें ही संबर और निर्जराका कारण होता है और उसके साथ उसका जो अंश पुण्यभाव है वह वास्तविक रूपमें ही आनद और बम्धका कारण होता है। यहां किसी भी प्रकारके उपचारके लागू करनेकी कोई आवश्यकता ही नहीं है और न पूर्वपक्षने किसी भी प्रकारका उपचार यहाँ माना ही है। ससरपक्षने चार विकल्पोंका कथन करने के अनन्सर जो यह लिखा है कि "क्या ही अच्छा हो कि अपरपक्ष रागरूप पुण्य भाव और वीतरागावमें वास्तविक अन्तरको समझकर 'दया' पदका जहां जो अर्थ इष्ट हो उसे उसी रूपमें स्वीकार कर ले और इस प्रकार शुभभाव और वीतरागभावमें एकत्व स्थापित करने से अपने को जुदा रखे ।" सो यह उसकी पूर्वोक्त प्रकारकी भ्रमबुद्धिका ही परिणाम है तथा अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध और शुभमें प्रवृत्तिरूप शुभके रूपमें शुभ-शुद्ध रूप व्यवहारधर्मभूत दयाको न माननेका परिणाम है अतः उसका यह कथन उसपर ही लागू होता है । पूर्वपक्ष शुभभाय और वीतरागभावमें न तो एकत्व मानता है और न कहीं पर उसने उन दोनोंम एकस्व स्थापित करनेकी बात कही ही है।
(१२) उत्तरपक्षने त च० पृ० ११६ पर ही आगे "हमें शुभभावों को अचान्तर परिणतियोंका पूरा ज्ञान हो या न हो" इत्यादि जो कुछ भी कथन किया है वह भी शुभभावसे अतिरिक्त उक्त शुभ-शुद्ध भावरूप व्यवहारधर्मको न माननेका ही परिणाम है । यदि वह शभभावसे अतिरिक्त शभ-शुद्ध भावरूप आ धर्मको भी मान्य कर ले तो उसके व्यर्थ के सब विकल्प समाप्त हो जायेंगे | उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में जो समयसारखी गाथा १५६ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाको उपस्थित किया है उसका अभिप्राय यही है कि केवल शुभ प्रवृतिरूप त, तप आदि अर्थात् संकल्पी पापमय प्रवृत्तियों के साथ किये जानेवाले अत, तप आदि आस्रव और बन्धके ही कारण होते है । परन्तु यदि वे ही प्रत, तप आदि कम-से-कम संकल्पो पापोंसे निवृत्तिपूर्वक किये जावं तो अभब्य जीवमें उनके बलमे क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकाम होता है और भव्य जीवमें उनके ही बलसे इन लब्धियोंके साथ करणलब्धिका भी विकास हो जानेपर मोहनीय कर्मका यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या भयोपशम होनेपर शुम स्वभावभत निश्चयधर्म प्रकट होता है । उसरपक्षको वहींपर स्वयं उयत समयसार कलश ११० के अभिप्रायको भी समझनेकी आव
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा एयकता थी । उसका भाशय यह तो है ही कि पाप और पुण्यरूप कर्म द्रव्यान्तरस्वभाव होनेसे आस्रव और बन्धके ही कारण है परन्तु इससे अतिरिक्त उसका यह भी आशय है कि शुभ-शुद्ध रूपताको प्राप्त व्यवहारधर्मकी शुभरूपता भी आस्रव और बन्धका ही कारण होती है । यह बात समयसार कलमा' १०९-११० और १११ के सम्मिलित अर्थपर ध्यान देनेसे समझ में आ सकती है।
(१३) उत्तरपक्षने त च० १० ११६ पर आगे यह अनुच्छेद लिखा है-"हमें प्रसन्नता है कि अपरपझने रागमात्रको बन्धका हेतु मान लिया है। किन्तु इतना स्वीकार करनेके बाद भी उसकी ओरसे जो रागांश और रत्नत्रयांशमें एकत्व स्थापित करने के लिए यक्ति दी गई है वह सर्वथा अयुक्त है।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
उत्तरपक्षने अपने इस अनुच्छेदमें जो यह कथन किया है कि "हमें प्रसन्नता है कि अपरपक्षने रागमात्रको बन्धका हेत मान लिया है" सो यह कथन करनेसे पहले ही उसे पूर्वपक्षके प्रकत विषय सम्बन्धी कथनोंके आधारपर यह ज्ञात हो जाना चाहिए था कि पूर्वपक्षने रामभावको बन्धका ही कारण माना है। उसने कहींपर भी यह नहीं कहा है कि रागभाव बन्धका कारण नहीं है तथा यह भी नहीं कहा है कि रागभाव मोनका कारण है। पूर्वपक्ष के कथनके दिपपमें उत्तरपक्षको यह भी ध्यान देना चाहिये था कि उसने (पूर्वपक्षने) रागांश और रत्नत्रयांदामें मिथित अखण्डभाव तो स्वीकार किया है, परन्तु अखण्ड एकत्वको नहीं स्वीकार किया है।
यद्यपि पूर्वपक्षने त० च० पृ० १०१ पर यह अवश्य कहा है कि "जीवदया करना धर्म है । पुण्यभाव धर्मरूप है । पुण्यभाव या शुभभावोंसे संवर-निर्जरा तथा पुण्यकर्मबन्ध होता है ।" परन्तु उसके इस कथनका सम्बन्ध प्रकृसमें पुण्यभावरूप जीवदयासे न होकर व्यवहारधर्मरूप जीवदयासे ही है। यह बात उसफेत. च. १० १०३ पर निर्दिष्ट "आपने रागभावको केन्द्र बनाकर पुण्यभावों या शुभभावोंको केवल कर्मबन्धके साथ बांधनेका प्रयल किया है। यह शुभभावोंकी अवान्तर परिणतियोंपर दृष्टि न जानेका फल जान पड़ता है।" इत्यादि कथनसे शास होती है। पूर्वपक्षक त. च० १० १०३ पर निर्दिष्ट कथनसे यह बात भी ज्ञात होती है कि वह पक्ष केवल पुण्यभाषरूप जीवदयाको ही नहीं, अपितु उक्त व्यवहारधर्मरूप जीवक्ष्याफे अंशभूत पुण्यम् १. सन्यस्तव्यभिवं समस्तमपि तत्कमेव मोक्षाथिना.
सन्यस्ते सति तत्र का किल क्रया पुण्यस्य पापत्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ।।१०९|| यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिनिस्म सम्पङ् न मा, कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः । किन्त्वनापि समुल्लसत्यवतो पत्कर्म बन्धाय तमोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ।।११०।। मानाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये, मग्ना माननयषिणोऽपि यदप्तिस्वमहम्दमंदोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्म् च ॥१११॥
स०-३४
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
दामें प्रवृत्तिको भी बन्धका ही कारण मानता है वह उक्त व्यवहाररूपदा अंशभूत केवल पापमय अदया प्रवृत्ति से निवृत्तिको ही संवर-निर्जरापूर्वक मोक्षका कारण मानता है ।
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इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि उत्तरपक्षने अपने उक्त अनुच्छेद में जो यह कहा है कि हमें प्रसन्नता है कि अपरपक्ष ने रागभावको बम्धका हेतु मान लिया है" वह निरर्थक ही हैं। इसके अतिरिक्त उसके इस कंचनके आधारपर यह भी कहा जा सकता है कि वह पक्ष पूर्वरक्षक प्रकृत विषय सम्बन्धी मान्यता से अनभिज हो रहा है । अभ्यथा वह उपर्युक्त प्रकार के कथन करनेका निरर्थक प्रयास कदापि नहीं करता मुझे तो यहाँ तक विवास होता है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के मन्तव्यकी आलोचनामें जो कुछ लिखा है उसको लिखनेके पूर्व उसने पूर्वपक्ष के अनेक कथनों पर तो दृष्टि डालना तक आवश्यक नहीं समझा है, केवल अपने संस्कारवश ही उसने सब कुछ लिख डाला है ।
उत्तरपक्षने उक्त अनुच्छेद में जो यह कथन किया है कि 'किन्तु इतना स्वीकार करने के बाद भी उसकी ओरसे जो रागांश और रत्नत्रयांशमें एकत्व स्थापित करनेके लिए युक्ति दी गई है वह सर्वथा अयुक्त है' सो यह कथन करने से पूर्व उत्तरपक्षको पूर्वपक्षके त० च० पृ० १०३ पर निर्दिष्ट " तथा च अमृतचन्द्र सूरिने जो असंयत स॒भ्यग्दृष्टि, संयमासंयमी एवं सरागसंयत के मिश्रितभावोंको अपनी अज्ञानीसे भिन्न-भिन्न करते हुए शमांश और रत्नत्रयांश द्वारा कर्मके बन्धन और अवन्धनकी सुन्दर व्यवस्था पुरुषार्थनिष्युपाय प्रत्यके तीन श्लोकों की है उनमें एक अखण्डित मिथितभावका विश्लेषण समझाने के लिये प्रयत्न किया गया है। यह मिश्रित अखण्डभाव ही शुभभाव है, अतः उससे मात्र बन्ध भी होता है तथा संवर- निर्जरा भी होती है।" इस कथनपर भी उसे ध्यान दे लेना चाहिए था। यदि उत्तरपक्ष उक्त कथन करनेसे पूर्व पूर्वपक्ष के इस कथनपर ध्यान दे लेता तो उसे समझ में आ जाता कि पूर्वपक्ष रागोश और रत्नत्रयांमें एकल्य न मानकर मिश्रणकी स्थितिको ही स्वीकार करता है। इस तरह उत्तरपक्ष उक्त कथन में पूर्वपक्षपर रागांश और रत्नत्रयांश में एकस्व स्थापित करनेका असत्य आरोप लगाने का कदापि साहस नहीं करता ।
उतरपक्ष ने पूर्वपक्षको मान्यताका विरोध करने के लिए त० ० पृ० ११७ से १२० तक जितना कथन किया है वह सर्व कथन भी मेरे द्वारा किये गये उपर्युक्त विवेचनसे निरर्थक सिद्ध हो जाता है और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने उस कथन में जो आगम प्रमाण प्रस्तुत किये हैं उनसे पूर्व पक्षको मान्यताका विरोध न होकर समर्थन ही होता है, क्योंकि पूर्वपक्षको मान्य व्यवहारथर्मरूप जीवदया के अखण्डित मिश्रित भाव में जितना अंश पुण्यमय दयारूप प्रवृत्तिका है वह बन्धका ही कारण होता है व इसके अतिरिक्त इसमें जितना अंश पापमय अवयारूप प्रवृत्तिसे निवृत्तिका है वह संचर- निर्जरा पूर्वक मोक्षका ही कारण होता है ।
यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त व्यवहारधर्मरूप जीवदया उस अखण्डित मिश्रित भाव में आसव और बन्धका कारणभूत जितना अंश गांवाके रूपमें पुण्यमय दयारूप प्रवृत्तिका है वह प्रकृतमें जीवकी क्रियाबत्ती शक्तिके परिणमनके रूपमें ही ग्राह्य है और उसमें संवर मिर्जराका कारणभूत जितना अंश रत्नत्रयांश रूपमें पापमय अदयारूप प्रवृत्तिसे निवृत्तिका है वह भी प्रकृत में जीवक क्रियावती शक्ति के परिणमनके रूपमें हो प्राह्य है । ये दोनों ही अंश प्रकृत में जीवकी भाववती शक्ति के परिणमन के रूपयं ग्राह्य नहीं है क्योंकि भाववती शक्ति न तो रागांश के रूपमें शुभ-अशुभ दया- अदयारूप परिणमन आनाव और बम्बके कारण होते हैं और न ही उस भाववती शक्तिके शुभाशुभरूपता से रहित शुद्धस्वभावभूत दयारूप परिणम संघर और निर्जरा के कारण होते हैं । इस विषयको सामान्य समीक्षामें विस्तार से स्पष्ट किया गया है ।
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
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(१४) उत्तरपक्षने तक च०ए०१२० पर आगे यह अनुच्छेद लिखा है-"अपरपक्षका कहना है कि चौथेसे सातवें गणस्थान तक शुभोपयोग होता है । अन्य कोई शुखोपयोग आदि उन गुणस्थानों में नहीं होता। किन्तु यह कथन भी यक्त नहीं, क्योंकि चतुर्थादि गुणस्थानोंमें आत्मानुभूति होती ही नहीं यह मानना मागम विरुद्ध है।" इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है
आगममें उपयोग के धर्म और अधर्म सापेक्ष तीन भेद बतलाये गये है-अशुभोपयोग, शूभोपयोग और शुद्धोपयोग। इनमें से अशुभोपयोग अधर्म सापेक्ष है तथा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग ये दोनों धर्म सापेक्ष हैं । इनके लक्षण निम्न प्रकार हैं:
___ जीवकी भात्रवती शक्तिके परिणमन स्वरूप हृदयके सहारेपर होनेवाले अतत्त्वश्रद्धान और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले अत्तस्यज्ञान पूर्वक इधित विचार दषित भावनायें आदिके रूप में जीवके जो बिद
उन्हें अशभोपयोग करता तथा जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप उदय के सहारेपर होनेवाले तत्वज्ञान और भस्तिक महारपर होनेवाले तत्वज्ञान पूर्वक उत्तम विचार, उत्तम भावनायें आदिके रूपमें जीवके शो विकला बनने हैं उन्हें शुभोपयोग कहते हैं । इसी प्रकार अशुभोपयोगकी गमाप्तिपूर्वक शुभोपयोगके रामाप्त हो जानेपर जीवको भावनप्ती शापितके परिणमन स्वरूप उपयोगको जो शुद्ध, स्वाधिन, अखण्ड, निर्विकल्पक और निश्चल दशा हो जाती है उसे गुद्धोपयोग कहत है। जीवमें इस शुद्धोपयोगके प्रगट होनेकी प्रक्रिया निम्न प्रकार है:
अभय और भव्य मिथ्यादूष्टि जीच अपनी क्रियावती शक्तिको परिणमनस्वरूप जो संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति किया करते है वह प्रवृत्ति घे अशुभोपयोग के आधारपर ही करते हैं और वे जीव यदि कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते है तो उसे वै शुभोपयोगके आधारपर करते हैं। इसके अनन्तर यदि वे दोनों प्रकारके जीव शुभोपयागके आधारपर उस संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिको सर्वथा त्यागकर क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप आरंभी पापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो इनकी वह प्रवृत्ति संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिस सर्वथा निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप हग्नेसे उपयहारधर्मका प्रारम्भिक रूप धारण कर लेती है । तथा इस प्रकारके व्यवहारवर्भके आधारपर अभव्य जीव अपने में क्षयोशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग इन चार लन्धियोंका विकास करता है और भव्य जीव इसी व्यवहारधर्मके आधारपर अपन में उन चार लब्धियों के साथ करणलब्धिका भी विकास कर लेता है व इस करणलब्बिके आधारपर वह भव्य जीव सर्वप्रथम दर्शनमोहनीयकर्मकी यथासंभव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्पग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकुतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कपायकी क्रोध, मान, माया और लोभमप चार इस तरह सात प्रवृत्तियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम करके चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें भाववती शक्तिक परिणमन स्वरूग निश्चय (भाव) सम्यग्दर्शन और निदचय (भाव) सम्यक्ज्ञान के रूपमें आत्मविशुद्धिको प्राप्त प.रता है। ऐसा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव शुभोपयोगके आधारपर ही क्रियावती शक्तिये परिणमन स्वरूप आरम्भी पापभय अशुभ प्रवृत्ति के एक देश त्यागपूर्वक पुण्यभय शुभ प्रवृत्तिरूप दूसरे प्रकार के व्यवहारवर्गको अपनाता है। तथा इस व्यवहारधर्म के अनुसार प्राप्त करलब्धिके आधारपर वह जीव चरित्रमोहनीयकर्म के द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम करके पंचमगणस्थानके प्रथम समयमै भावबती शक्तिको परिणमनस्वरूप निश्चय (भाव) देशविरति सम्यकचारित्ररूप आत्मविशुद्धिकी प्रगट करता है। ऐसा पंचमगुणस्थानवी जीव भी उसी शुभोपयोगके आधारपर
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
क्रियावती शक्तिके परिपनन स्वरूप बारंभी पापमय अशुभ प्रवृत्तिके सर्वदेश त्यागपूर्वक पुण्यभव शुभ प्रवृत्तिप व्यवहारधर्मको अपनाता है। तथा इस व्यवहारधर्मके अनुसार प्राप्त करणलब्धिके आधारपर वह जीव चारित्रमोहनीय कर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंजार क्षयोपशम करके सप्तम गुणस्थान के प्रथम समय में भाववती शक्ति के परिणमन स्वरूप निश्चय (भाव) सर्वविरति सम्यक्चारित्ररूप आत्मविशुद्धिको प्रगट करता है। इस सप्तम गुणस्थानवर्ती जीवको स्वस्थानाप्रमत्त कहते हैं और इसके जो शुभोपयोग होता है वह अबुद्धिपूर्वक होता है। वह सप्तम गुणस्थानवर्ती अबुद्धिपूर्वक शुभोपयोगका धारक स्वस्थानाप्रमत्त जीव अपना अन्तर्मुहूर्त काल रामाप्त करके नियम पष्ठ गुणस्थान में पतित हो जाता है अ उसके वहाँ जो शुभोपयोग होता है वह बुद्धिपूर्वक ही होता है। वह षष्ठ गुणस्थ' नवर्ती जीव भी अपना अन्तर्मुहूर्त काल समाप्त करके पुनः सप्तम गुणस्थान में पहुँचकर स्वस्थानाप्रमत्त हो जाता। प्रकार पुनः षष्ठ गुणस्थानमें पतित हो जाता है । इस प्रकार सप्तमसे पष्ठ और पष्ट राम गुणस्थान प्राप्त और वह भी उसी करने की प्रक्रियामें प्रवर्तमान षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव सप्तम गुणस्थानमे पहुँचकर यदि पुनः श्रेष्ठ गुणस्थान में पतित न हो तो तब उस सप्तम गुणस्थानवर्ती जीवको सातिशयाप्रमत्त कहा जाता है। जीव में यहीसे शुद्धोपयोगकी भूमिकाका प्रारम्भ होता है। शुद्धोपयोग की यह भूमिका आगे अष्टम भवम सौर दशम गुणस्थानों में उत्तरोत्तर सुदृढ़ होती हुई दशम गुणस्थानके अन्त समय में चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाती है। तथा दशम गुणस्थानवर्ती जीव यदि उपशमक हो तो एकादश गुणस्थानमें और क्षपक हो तो द्वादश गुणस्थानमें शुद्ध स्वाश्रित, अखण्ड, निर्विकल्प और निश्चल दशाको प्राप्त शुद्धोपयोगको प्राप्त कर स्त्रमें स्थिर हो जाता है ।
सप्तम गुणस्यानकी सातिशयाश्रमत्त दशासे लेकर दशम गुणस्थानवतीं जीवके उपयोगको शुद्धोपयोग न कहकर शुद्धोपयोग की भूमिका कहने में हेतु यह है कि इन गुणस्थानों में भी जीव प्रतिसमय यथायोग्य कर्मका आस्रव पूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप चारों प्रकारका बन्ध करता है जो बन्ध भोग प्रभावित जीवको क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप मनोयोग, वचनयोग और काययोग के आधारपर संभव है। इस तरह दशम गुणस्थान तकके जीवोंमें शुभपयोगको सत्ताको स्वीकार करना अनिवार्य है । फलतः शुभोपयोगका सद्भाव रहते हुए वहाँ शुद्धोपयोगका सद्भाव होना असंभव ही जानना चाहिए, क्योंकि जीव में दो उपयोग एक साथ कदापि नहीं होते हैं ।
इस विवेचनसे स्पष्ट होता है कि शुभोपयोगका प्रारम्भ प्रथम गुणस्थान से ही होता है। परन्तु चतुर्थगुणस्थानसे लेकर सन्लम गुणस्थानके स्वस्थानाप्रमत्त भाग तक ही नहीं, अपितु दशम गुणस्थान तक जीवके शुभोपयोग ही रहता है । इस तरह उनमें शुद्धोपयोगी कल्पना करना अयुक्त है। साथ ही अनुपयोग भी इन गुणस्थानोंमें नहीं रहता है। प्रथम गुणस्थान में अवश्य ही पहले तो अशुभोपयोग ही होता है, परन्तु बाद उसके शुभपयोगकी सम्भावनाको अस्वीकृत नहीं किया जा सकता उसका पूर्वोक्त प्रकार आत्मोत्कर्ष नहीं हो सकता है। इतना अवश्य है कि जीवके सातवें गुणस्थानके सातिक्योंकि शुभोपयोग के बिना पायाप्रमत्त भागमें विशेष प्रकारको करणलनिके विकासके आवापर शुद्धोपयोग की भूमिकाका निर्माण होता है ।
यद्यपि उतरपक्षको इस बातको स्वीकार करने में पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं कि चतुर्यादि गुणस्थानोंमें जीवको आत्मानुभूति होती है । परन्तु विचारणीय बात यह है कि वहाँ जीवको वह आत्मानुभूति होती किस प्रकारकी हुँ । विचार करने पर निशांत होता है कि जीवको चतुर्थगुणस्थानने लेकर दशम गुणस्थान
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा सक आत्मानुभूति होते हुए भी पूर्वोक्त प्रकार शुभोपयोगका सद्भाव मान्य करना असंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि आत्मानुभूति शुद्धोपयोगी जीवके हो होती है। चतुर्थगुणस्थानमें आत्मानुभूतिको स्वीकार करनेका आधार यह है कि वहाँ जीवमें निश्चय (भान) सम्पग्दर्शन और निश्चय (भाव) सम्यज्ञानके रूपमें आत्मविशुद्धि प्रगट होती है। पंचम गुणस्थानमें जीवको विशेषरूपसे आत्मानभूति होती हैं, क्योंकि वहीं उसमें निश्चय (भाव) देशविरति सम्यक्चारित्ररू, आत्मविशुद्धि प्रगट हो जाती है। प्रष्ट गुणस्थानमें जीवको और भी विशेष रूप आत्मानुभूति होती है, क्योंकि वहां उसमे निश्चय (भाव) सर्व विरति सभ्यक्चारित्ररूप आत्मविशुद्धि प्रगट रहती है। इसी तरह आगे भी उत्तरोत्तर जैसी-जैमी आत्मविशुद्धिकी विशेषता आती जाती है वैसी वैसी आत्मानुभूति में भी विशेषता आती जाती है। परन्तु इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं फि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक यदि आत्मानुभूति होता है तो उन गुणस्थानोंमें जीवोंके शुद्धोपयोगका सदभाव मान्य करना आवश्यक है। वास्तविक बात है कि आत्मानुभूति तो अशुभोपयोगी मिथ्यादष्टि जीवको भी होती है। परन्तु उसकी आत्मानुभूतिको आत्मानुभूति इसलिये नहीं कहा जाता है कि वह आत्मानुभूतिः विकूत आत्मस्थितिके अनुसार विकृतरूपमे ही होती है। इससे निर्णीत होता है कि आत्मानुभूति जीवको प्रत्येक गुणस्थान में होती है, परन्तु जहाँ जमी आल्गस्थिति रहा करती है जमोके अनुरूप वहाँ बसी ही आत्मानुभूति जीवको होती है। इसके अतिरिक्त यदि उत्तरपक्ष चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक वैसी आत्गालभतिको कल्पना करता है जैसी एकादशा और द्वादश गुणस्थानों में होती है तो यह उसका भ्रम है, क्योंकि एकादश और द्वादश गुणस्थानों में होनेवाली आरमानुभूतिके सदृश आत्मानुभूतिका होना इन गुणस्थानोंके पूर्व सम्भव नही है। यदि उत्तरपक्ष आत्मानुभूतिमें होनेवाली मग्नताको आत्मानुभति कहना चाहे तो यह मम्नता तो प्रत्येक गुणस्थान में भिन्न-भिन्न ढंगसे हआ करती है, क्योंकि अशुभ ध्यानस्वरूप मग्नता प्रथमगुणस्थानमें भी सम्भव है । इराका' यह आशय तो कदापि नहीं है कि जैराा शुद्धात्मानुभवन सतत जीवको एकादश और द्वादश गुणस्थानों में होता है वैसा ही शुद्ध आत्मानुभवन चतुर्थादि गुणस्थानों में अल्पकालके लिए होता है। हाँ, बदि उत्तरपक्ष सुदात्मतत्वके श्रद्धान और ज्ञानके रूपमें आत्मानुभूतिकी स्वीकृति चतुर्थादि गुणस्थानोंमें मानता हो तो ऐसा श्रद्धान और ज्ञान हुए बिना मिथ्यादृष्टि जीव चतुर्थ गुणस्थानको प्राप्त नहीं कर सकता है । इतना ही नहीं, अभय जीव भी ऐसा श्रद्धान और ज्ञान हुए बिना क्षयोपशम आदि चार लब्धियों का विकास नहीं कर सकता ।
उत्तरपक्षाका कहना है कि "चौसे सात गुणस्थान तक केवल शुद्धोपयोग हो होता है ऐसा जाननासमझना मिथ्या है । इतना अवश्य है कि इन गुणस्थानोंमें जो आत्मानुभूति होती है उसे धर्मभ्यान हो कहते है, शुक्लध्यान नहीं । शुक्लध्वानमें एक मात्र दाद्धोपयोग ही होता है । परन्तु धर्मध्यानमें शुभोपयोग भी होता है और शुद्धोपयोग भी। यही इन दोनोंमें विशेषता है।" (ताचा १० १२१) । सो उत्तरपक्षाका यह कथन अयुक्त है, क्योंकि धर्मध्यानमें तो शुभोपयोग ही होता है । मात्र हो पृथक्त्ववितर्क शुक्रध्यानमें शुभोपयोग ही होता है। उसमें भी शुद्धोपयोग नहीं होता। अन्यथा वहाँ अर्थ, चंजन और योगको संक्रान्ति होना असम्भव होगा। पथक्त्ववितर्क शुक्लध्यानमें शुद्धोपयोगी माना जाये और अर्थ, व्यंजन और योगको संक्रांति भी मानी जाये ये दोनों बात अखण्ड और निर्विकल्पक शुद्धोपयोग रहते हुए सम्भव नहीं है।
इसी प्रकरणमें त• च० पृ० १२१ पर ही आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि "चतुर्थादि गुणस्थानोंमें पाभोपयोगके काल में उससे आसाय-बन्ध तथा संबर-निर्जरा दोनों होते होग ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा
आत्मामें जो राम्यग्दर्शनादि रूप विराति होती है उसके कारण संवर-निर्जरा होती है और शुभोपयोगके कारण आस्त्रिव-बन्ध होता है" इत्यादि। परन्तु उत्तरपक्षका यह कथन भी अयक्त है, क्योंकि शुभोपयोग स्वयं साक्षात् आसव और उक्त प्रकारके बन्धका कारण नहीं होता । अपितु शुभोपयोगसे प्रभावित योग ही आस्त्रव और उक्त प्रकारके बन्धका साक्षात कारण होता है तथा योगका निरोध संवरका कारण होता है और निर्जरा तो क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप तपश्चरणसे अविपाक रूपमें होती है व निषेकक्रमसे सविपाक रूपमें स्वतः हुआ करती है। सम्यग्दर्शनादिरूप विशुद्धि संवर-निर्जराका कारण नहीं होती है । आस्रव और बन्ध तथा संवर ओर निर्जराके होने की प्रक्रियाका विस्तारसे युक्तिसंगत विवेचन सामान्य समीक्षामें किया जा चुका है।
उत्तरपक्षन चतुर्थादि गुणस्थानों में आत्मानुभूति होनेके आधार पर शुद्धोपयोगको सिद्धिके लिए जितने आगम प्रमाण यहाँ दिये है जन सन्त्र प्रमाणोंका समन्धय मेर उपयुक्त कथनके साथ होनमें कोई बाधा नहीं आती । केवल उत्तरपक्षको अपना दृष्टिकोण परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
इसी प्रकरणमें तच० ५० १२१ पर ही आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि ''अपरपक्षका कहना है कि एक कारणसे अनेक कार्य होते छग देखे जाते हैं। समाधान यह है कि शुभोपयोग संबर-निर्जराका विरोधी है।"
इसकी सगीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षके समावानरूप कथनसे यह बात तो सिद्ध होती ही है कि एक कारणसे अनेक कार्यों का होना उत्तरपक्षको भी अमान्य नहीं है। केवल शुभोपयोगको वह संबरनिर्जराका कारण नहीं मानना चाहता है। परन्तु मैं सामान्य समीक्षामें स्पष्ट कर चुका हूं कि न तो कोई उपयोग साक्षात आस्रव-घका कारण होता है और न ही कोई उपयोग साक्षात् संवर-निर्जराका कारण होता है। इतना अवश्व है कि यथायोग्य उपयोगस प्रभावित योग ही साक्षात आलव पूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्धका कारण होता है तथा योगका निरोध ही संवर पूर्वक निर्जराका कारण होता है। उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थनमें जितने भी आगम प्रमाण उपस्थित किये हैं उनका आवाय उसे आस्रव-बंध और संबर-निर्जरामें साक्षात् कारणभूत योग और योगनिरोधको लक्ष्यमें रखकर ही ग्रहण करना था । तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोगसे प्रभावित योग परिणाम और शभोपयोगसे प्रभावित योग परिणाम केवल आस्रव पूर्वक उपयुक्त बंधके ही कारण होते हैं। परन्तु शुभोपयोगक आधारपर ही योगमें अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृसिम्प परिणमन होता है इस तरह शुभोपयोग अशुभसे निवृत्तिरूप योग निरोधका कारण होनसे तो परम्परया संबरपूर्वक निर्जराका भी कारण सिद्ध होता है व शभमें प्रवत्तिका योगका कारण होनेसे परम्परया आसवपूर्वक उक्त प्रकारके बंधका कारण सिद्ध होता है । अशुभोपयोगका अभाव होनेपर योगको अशुभरूपताका व शुभोपयोगका अभाव होनेपर योगको शुभरूपताका तो अभाव होता है, परन्तु तब भी योग अपने शुद्धरूपमें अर्थात गुभरूपता और अशुभकगतासे रहित होकर विद्यमान रहता है । अतएक शुद्धोपयोगके सद्भाव में भी शुद्धयोगके आधारपर एकादा, द्वादश और प्रयोदश गुणस्थानोंमें यथायोग्य आस्रवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशके रूपमें बंध हुआ ही करता है। इसी तरह शुद्धोपयोग संवर और निर्जराका कारण नहीं होता है, क्योंकि शुद्धोपयोगका सदभाव रहते हुए भी ज्ञानावरणादि तीनों घातिकर्म तथा चारों अघातिकर्म अपना-अपना कार्य यथास्थान निराबाध करतं ही रहते हैं।
इसी प्रकरणमें उत्तरपक्षने तच०५० १२२ पर प्रथम तो पूर्वपक्षका मह कथन उद्धत किया है
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
कि 'पहला गुणस्थानवी जीव जब सम्यक्त्वके सन्मुख होता है तब शुद्ध परिणामोंके अभाव में भी असंख्यात गुणी निर्जरा, स्थितिकाण्डकपात और अनुभागकाण्डकघात करता ही है।" इत्यादि। इराके समाधानमें आगे उत्तरपनने लिखा है कि "प्रथम गुणस्थानमें इस जीवके परद्रव्य भावोंसे भिन्न आत्तास्थभावके सन्मुख होने पर जो विशुद्धि होती है वह विशुद्धि ही असंख्यातगुणी निर्जरा आदिका कारण है।' इत्यादि।
इस सम्बन्ध में मेरा कहना यही है कि प्रथम गणस्थानवी जीवके जो असंख्यातगणी निर्जरा आदि कार्य होते हैं वे सब कार्य करणलब्धिके प्रभावसे ही होते हैं। इतना अवश्य है कि उस करणलब्धिका विकास सस जीवमें शुभोपयोग पूर्वक ही होता है. इसलिये परम्परया भोपयोग भी उसमें कारण होता है । पूर्वपक्षके कथनका भी इतना ही आशय है ।
(१५) आगे त. च. पृ० १२२ पर ही उत्तरपक्ष ने जो वह लिखा है कि "अपरपक्षने दया धर्म है, इसकी पुष्टिमें स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, उसको टीका, नियमसारगाथा ६ को टीका, आत्मानुशासन, यशस्तिलक, आचार्य कुन्दकुन्तकृत द्वादशानुप्रेक्षा, भावपाहुड, शीलपाइड और मूलाराधनाके अनेक प्रमाण उपस्थित किये है। किन्तु उन सब प्रमाणोंसे यह प्रख्यापन होता है कि जो निश्चयदया अर्थात् वीतराग परिणाम है वही आत्माका यथार्थ धर्म है, सराग परिणाम आत्माका यथार्थ धर्म नहीं है" । इत्यादि ।
इस सम्बन्धमें मैं सामान्य समीक्षा हो स्पष्ट कर चुका हूँ कि जीवको भावयती शक्तिके शुद्ध परिणामस्वरूप जो दया धर्म है वह निश्चयधर्मके रूपमें यथार्थ है तथा जीवकी क्रिपावती शक्तिके परिणमनस्वरूप अपयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृतिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी शुभ-शुद्ध रूप व्यवहारधर्मके रूपमें यथार्थ ही है कल्पनारोपित नहीं है । इतना ही नहीं, पुण्यमय प्रवृत्तिरूप दया भी है जो इन दोनोंसे पथक् है। इनमें से किसका क्या कार्य है यह भी मामान्य समीक्षामें स्पष्ट किया जा चुका है। उत्तरपक्षने प्रकृत विषयको लक्ष्यमें लेकर आगे भी जितना विवेचन पूर्वपशकी आलोचनाके रूपमें किया है उसका निराकरण भी मेरे उपर्युक्त कथनसे हो जाता है ।
(१६) आगै त० च० पृ० १२४ पर उत्तरपक्षमै जो यह लिखा है कि "अपरपक्षने सम्यग्दृष्टिके शुभ भावोंको वीतरागता और मोक्ष प्राप्तिका हेतु कहा है और उसकी पुष्टिमें प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंका नामोलेख भी किया है। साथ ही यह भी लिखा है कि सम्यग्दृष्टि का शुभभाव कर्मचेतना न होकर ज्ञानचेतना माना गया है । किन्तु यह सब कथनमात्र है क्योंकि आगममें न तो कहीं शुभभावोंको वीतराग और मोक्षप्राप्ति का निश्चय हेतु बतलाया है और न कर्मचेतनात्रा अन्तर्भाव ज्ञानचेतनामें ही किया है ।'' इत्यादि ।
इस सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि पूर्वपक्षके तत च. पृ० १०६ पर किये गये प्रकुस विषय संबंधी कथनको न समझकर ही उत्तरपक्षने यह सब लिख डाला है। यदि उत्तरपक्ष प्रकृतमें पूर्वपक्षको स्वीकृत पुण्य, ब्यवहारवर्म और निश्चयधर्मके भेदको समझनकी चेष्टा करता तो उसे समझमें आ जाता कि पूर्वपक्षका यह कथन व्यवहारधर्मसे ही सम्बन्ध रखता है मात्र पुण्यसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। तथापि आगममें मात्र शुभ भावोंको भी वीतरागता और मोक्षप्राप्तिका परम्परवा हेतु बतलाया गया है तथा व्यवहारधर्मरूप शुभ भावोंको भी निश्चयधर्मरूप वीतरायताका और मीक्षप्राप्तिका हेतु बतलाया है। परन्तु यहाँ किसको किमरूपमें हेतु बतलाया है यह बात इसी प्रश्नोत्तरकी समीक्षामें पहले बतलाई जा चुकी है और प्रश्नोत्तर ४ की समीक्षामें भी इस बातको बतलाया जायेगा। उत्तरपक्षने अपने कपनमें जो यह लिखा है कि "शुभभाव
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा वीतरागता और मोक्षप्राप्तिका निश्चय हेतु नहीं है सो पूर्वपक्षने भी उसे निश्चय हेतु न मानकर व्यवहार हेतु ही माना है । परन्तु उत्तरपक्ष पदि शुभ भावोंकी व्यवहारहेतुताको कथनमात्र कहता है तो उसका ऐसा कहना सत्य नहीं है, बयोंकि प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि व्यवहार हेतु भी कार्योत्पत्ति में अपने ढंगसे कार्यकारी ही होता है, अकिंचित्कर नहीं बना रहता । उत्तरपक्षने अपने कथन में जो यह कहा है कि आग में कर्मचेतनाका अन्तर्भाव ज्ञान चेतनामें नहीं बतलाया है । सो पूर्वपक्षने कर्मचेतनाका ज्ञानचेतनामें अन्तर्भाव कहां बतलाया है। पूर्वपक्षने त• च पृ० १०६ पर तो यह कहा है कि सम्यग्दृष्टिका दमा आदि शुभ भाव वर्मनेतना न मानकर ज्ञानचेतना माना गया है।" जिसका अभिप्राय यही होता है कि आगममें चेतनाके जो तीन भेद बतलाये गये है उनमेंसे एकेन्द्रियसे असंझीपंचेन्द्रिय तकके जीवोंके तो कर्मफर रहती है, संजीपंनेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके कर्मचेतना रहती है और सम्यग्दृष्टि जीवोंके ज्ञानचेतना रहती है। अत: उत्तरपक्षका उपस कथन श्विकपूर्ण नहीं है। इस तरह चेतनाको लक्ष्यमें लेकर उत्तरपक्षने जितना विवेचन किया है वह अयुक्त एवं अनावश्यक है।
उत्तरपक्षने शागे त० च० १० १२५ रो १२८ तक जितना विवेचन किया है वह सब विवेचन उसने जीवकी क्रियावती शकिके परिणमनस्वरूप अशुभरी निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म तथा भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप आत्माके शुद्ध स्वभावभुत निपचयधर्मके स्वरूप भेदको नहीं समझकर ही किया है 1 फलतः उत्तरपक्षको वहांपर उरावे स्वयंके द्वारा उपस्थित और पूर्वपक्ष द्वारा उपस्थित आगम प्रमार्णोका अर्थ करनेमें बहुत खींचातानी करनी पड़ी है । वास्तव में प्रकृत प्रश्न के समाधानका आधार यही हो सकता है कि बदयाम अशुभ प्रवृत्तिके रूपों जीयकी क्रियावती शक्तिका परिणमन ही पापभूत अश्या है, दयारूप शुभ प्रवृत्ति के रूपमें जीवको क्रियावती शक्तिका परिणमन ही पुण्यभूत दया है तथा अदयाप अशुभ प्रवृतिसे निवृत्तिपूर्वक घयारूप शुभमें प्रवृत्ति के रूपमें जीवको क्रियावती शक्तिका परिणमन ही व्यवहारधर्मरूप दया है । इनके अतिरिक्त क्रोधकमों के उदयमें जीवको भावबती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो अदयारूप धिभाव परिणमन होता है यह भावरूप अदया है और उन क्रोधकमौके यथायोग्य उपशम क्षय या क्षयोपशमपूर्वक जीवकी भाववती शक्तिका जो दयारूप स्थभावपरिणाम होता है वह भावरूप दया है । ऐसा समझ लेनेपर ही तत्वका निर्णम किया जा सकता है, अन्यथा नहीं । तथा प्रकृत प्रश्नका समाधान भी इसी आधारपर हो सकता है।
प्रश्नोत्तर ४ की समीक्षा १. प्रश्नोत्तर ४ को सामान्य समीक्षा
पूर्वपक्षका प्रश्न-व्यवहारधर्भ निश्चयधर्ममें साधक है या नहीं ? त० च पृ० १२९ ।
उत्तरपक्ष का उत्तर-निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चमधर्मकी उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चवधर्ममें साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्मकी उत्पत्ति पनिरपेक्ष होती है। त० व. पृ० १२९ । धर्मका लक्षण
___वस्तुविज्ञान (द्रव्यानुयोग) को दृष्टिसे "वत्युसहाओ धम्मो" इस आगम वचन के अनुसार धर्म यद्यपि आत्माके स्वत:सिद्ध स्वभावका नाम है, परन्तु अध्यात्म विज्ञान (करणानुयोग और चरणानुयोग) की दृष्टिसे
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शंका-समाधान ४को समीक्षा
धर्म उसे कहते हैं जो जीवको संसारदुःखसे छुड़ाकर उत्तम अर्थात् आत्मस्वातन्त्रय रूप मोक्षसुखमें पहुंचा देता है। आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण
रत्नकरण्डश्रावकाचार में आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके रूपमें किया गया है जिन सभ्यरदर्शन, सम्यग्ज्ञानाचारिय शिबिर्सन, मिथ्याशान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण होते है।
आध्यात्मिक धर्मका निश्चय और व्यवहार दो रूपोंमें विभाजन और उनमें साध्य-साधक भाव
श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छहढाला में कहा है कि आत्माका हित सुख है। वह सुख आकुलताके अभावमें प्रकट होता है। आकुलताका अभाव मोझमें है, अतः जीवोंको मोक्षके मार्गमें प्रवास होना चाहिए । मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है1 एवं वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो भागों में विभक्त है । जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र सत्यार्थ अर्थात् आरमाके शुद्ध स्वभावभूत है उन्हें निश्चयमीत मार्ग कहते हैं व जो सम्पग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र निश्चयमोक्षमार्गके प्रगट होनेमें कारण हैं उन्हें व्यबहारमोक्षमार्ग कहते है।
छहहालाके इस प्रतिपादनसे मोक्षमार्गका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सभ्यकचारित्र के रूपमें विश्लेषण, उनकी निश्चय और व्यवहार दो भेदरूपता व निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमागोंमें विद्यमान साध्यसाधकभाव इन सबका परिज्ञान हो जाता है। इसके अतिरिक्त पंचास्तिकायको गाथा १०५ की भाचार्य जयसेन कृत टीकामे भी व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चममोक्षमार्गका कारण बतलाकर दोनों मोक्षमार्गोंमें साध्यसाघकभान मान्य किया गया है। तथा गाथा १५९, १६. और १६१ की आचार्य अमतचंद्र कृत टीका" में भी ऐसा ही बतलाया गया है।
१. देशयामि समीधीनं धर्म कर्ममिवहणम् । ___ संसारदुःखत: सल्वान् यो घरत्युत्तमे मुखे ।।२।। रत्नकरण्डश्रावकाचार २. सदृष्टिज्ञानप्रत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।।
यदीपप्रत्यनोकानि भवन्ति भयपद्धतिः ||३|| आतम को हित है सुन्न सो सुख आकूलता बिन कहिये । आफूलता शिवमाहि न तातें शिवमग लाग्यो चहिये ।। सभ्यदर्शन ज्ञान चरण शिव मग सो दविध विचारो।
जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो बबहारों ॥३-२०॥ ४. निश्चयमोक्षमार्गस्य परम्परया कारणभतो व्यवहारमोक्षमार्ग: ।-गा.१०५, टीका। ५. (क) निश्चमण्यवहारयोः साध्यसाक्कभावत्वात् । गा० १५९ की टीका
(ख) निश्चयमोक्षमार्गसाधकभावेन यहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । मा० १६० की टीका । (ग) व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । गा० १६१ की टीका ।
स०.३५
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जयपुर (खानिया) सत्वचर्चा और उसकी समीक्षा निश्चयधर्मको व्याख्या
__ करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार जीव अनादिकालसे मोहनीयकमसे बद्ध है और उसके उदय में उसको स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववती शक्तिका शुद्धस्वभावभूत परिणमनके विपरीत अशुद्ध विभावभूत परिणमन होता है। भाववती शक्तिके इस अशुद्ध विभावरूप परिणमनकी समाप्ति करणानुयोगको व्यवस्थाके अनुसार मोहनीयामके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या शयोपशमपूर्वक होती है। इस तरह जीवक्री भाववती शक्तिके अशुद्ध विभावभूत परिणमनके समाप्त हो जानेपर उसका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है उसे ही निश्चयधर्म जानना चाहिए । इसके प्रकट होनेकी व्यवस्था निम्न प्रकार है
(क) सर्वप्रथम नीवमें वर्णनमोहनीयकर्मको यथासम्भव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यस्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभला चार इन सात प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर उस जीबकी भाववती शक्तिका रतृर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चयसम्यग्दर्शन के रूपमें व निश्चयसम्परज्ञानके रूपमें शुद्धस्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है।
(ख) इसके पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरणकषायको नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववती शक्तिका पंचमगणस्थानके पा समयमें देशविरण दिलरापनामिके हममें शुद्ध स्वभात्र मत परिणमन प्रगट होता है।
(ग) इसके भी पश्चात् जोबमें चारित्रमोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्यास्थानावर णकषायको नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववती शक्तिका सप्तम गुणस्यानके प्रथम समय में सविरति निश्चयसम्यचारित्रके रूपमें शुवस्वभावभुत परिणमन प्रकट होता है। ऐसा सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे सप्तमसे षष्ठ और षष्ठमे सप्तम इस तरह दोनों गुणस्थानोंमें यथायोग्य समय तक सतत सूलेकी तरह झूलता रहता है।
(घ) यदि वह सप्तम गुणस्थानवी जीव पहलेसे ही उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो अथवा सप्तम गुणस्थानके कालमें ही वह उक्त औपमिक या क्षामिक निश्चयसम्पग्दर्शनको को प्राप्त हो जाये तो वह तब करणलब्धिके आधारपर नव नोकषायोंके साथ चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्यारूपानाबरण और तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण इन दोनों कषायोंफी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतिमोंका तथा उसके चतुर्थ भेद संज्वलनकषायवी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियों का भी यथास्थान नियमसे उपक्षम या क्षय करता है और उपशम होने पर उसकी भाववतो शक्तिका एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक यथास्थात निश्चयराभ्यक्चारित्रके रूपमें अथवा क्षय होनेपर उसको भाववती शक्तिका द्वादश गणस्थानके प्रथम समयमें शायिक यथाख्यात निश्चयसभ्य चारित्रक रूप में शुद्ध स्वभावभत परिणमन प्रगट होता है। व्यवहारधर्मकी व्याख्या
व्यवहारधर्मको व्याख्या करनेसे पूर्व यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नारकी, देव और निर्यच इन तीनों प्रकारके जीवोंमें केबल अगृहीत मिथ्यात्व पाया जाता है । अतः इनमें व्यवहारधर्मका
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
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व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव नहीं ले । केवल मनुष्य हो ऐसा दीव है जिसमें अगृहीत मिथ्यात्वके साथ गृहीत मिथ्यात्व भी पाया जाता है। फलतः मनुष्योंमें व्यवहारधर्मका व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव हो जाता है । अतः यहाँ मनुष्योंकी अपेक्षा क्यवहारधर्मका विवेचन किया जाता है ।
चरणानुयोगको व्यवस्थाके अनुसार पापभूत अघाप्तिकर्मोके उदयमें अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंकी भावदती शक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर अतत्त्वज्ञानके रूपमें मिथ्या परिणमन होते रहते हैं तथा जब उनमें पुण्यभूत अघातिकर्मोका उक्ष्य होता है तब अतत्त्वश्रद्धान और समजाजरूपमरणमनोनी नादि होनेगार जमली उस भावती शक्तिके हृदयके सहारेपर तस्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञान के रूपमें सम्पपरिणमन होने लगते है । भाववती शक्तिके दोनो प्रकारके सम्यक परिणमनोंमैसे तत्त्वश्रद्धानरूप परिणमन सम्धग्दर्शनके रूपमें व्यवहारचर्म कहलाता है और तत्त्वज्ञानरूप परिणमन सम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है।
चरणानुयोगको व्यवस्थाके अनुसार भावनती शक्तिके परिगमन स्वरूप उक्त अतत्त्वश्रवान और अतरवज्ञानसे प्रभावित अभत्र्य और भव्य मिथ्यादष्टि मनुष्य अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, दाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों किया करते हैं और कदाचिस् साथमें लौकिक स्वार्थवश 'पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करते हैं। तथा जब वे भाववती शक्तिके परिणमम स्वरूप उक्त तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होते हैं तब वे अपनो क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्यागकर मानसिक वाचनिक और कायिक आरंभी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ कर्तव्यवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियां भी करने लगते हैं। इतना ही नहीं, भावयती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानके आधारपर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि मन कदाचित् क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियांक सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त
आरंभी पापभूत अशुभ प्रत्तियोंका भी एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए अनिवार्य आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृतित्रों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियों करते हैं। इस प्रकार अमव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होकर अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वश्रा स्मागकर जो अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मारम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियों करते हैं उन प्रवृत्तियोंको नैतिक आघारके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। तथा वे ही मनुष्य जन्म संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों त्यागपूर्वक आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्ति यांका एकदेश अपचा सर्वदेश त्याग कर हुए पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियां करते हैं तब उन्हें क्रमशः देशविरति अथवा सर्वविरतिरूप सम्यक्चारित्रके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है।
प्रसंगवश मैं यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंको भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप हदयके सहारेपर होनेवाला अतस्वधद्वान व्यवहारमिथ्यादर्शन कहलाता है । और उनकी उसी भाषवती शक्तिके परिणमनस्वरूप मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वज्ञान व्यवहारमिथ्याज्ञान कहलाता है। तथा मिथ्यादर्शन और मिध्याज्ञान इन दोनोंसे प्रभावित उन मनुष्योंकी क्रियावती शक्तिके परिणाम स्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है वह व्यवहारमिथ्याचारित्र कहलाता है। यहां यह ध्यातव्य है कि उक्त प्रकारके व्यवहारमिथ्यावर्शन और
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
व्यवहार मिथ्याज्ञानके विपरीत व्यवहारसम्यदर्शन और व्यवहारसम्यग्जान से प्रभावित होकर वे अभय्य और भव्य मिध्यादृष्टि मनुष्य संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका सर्वथा त्याग करते हुए यदि अस्तिवश आरम्भी पापका अणुमात्र भी त्याग नहीं कर पाते हैं तो उनकी वह आरम्भी पापरूप अशुभ प्रवृत्ति व्यवहाररूप अविरति कहलाती है ।
यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार पूर्व में मोहनीयकर्मकी उन उन प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होनेवाले भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यक्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान व देशविरति सर्वविरति और यथास्यात सम्यक् चारित्र के रूपमें निश्चयधर्मका विवेचन किया गया है उसी प्रकार यहाँ प्रथम गुणस्थानमें मोहनीय कर्मको मिथ्यास्थ और अनन्तानुबन्धी दोनों प्रकृतियोंके उदयमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप मिध्यात्वभूत भाव मिथ्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्रके रूपमें द्वितीय गुणस्थान में मोहनीय कर्मकी अनन्तानुबन्धी प्रकृतिके उदय में भावी शक्तिके परिणमनस्वरूप सासादन सम्पवस्व भूत भावमिध्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्र के रूप में एवं तृतीय गुणस्थान में मोहनीयकर्म की सम्पक मिध्यात्वप्रकृति के उदय में भाववती शक्तिके परिणामस्वरूप सभ्यमिध्यात्वभूतादर्श सानिध्याज्ञान और भावभिथ्याचारित्र के रूपमें निश्चय (भाव)
धर्मका भी विवेचन करलेना चाहिए । यहाँ भी यह ष्यासभ्य है कि चतुर्थं गुणस्थानके जीव में नव नोकषायके उदयके साथ अत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संवलन कष्टायो के सामूहिक उदयमें जीवकी भागवती शक्तिका जो परिणमन होता है उसे भाव-अविरति जानना चाहिये। इसे न तो भावमिथ्याचारित्र कह सकते हैं और न विरतिके रूपमें भावसम्यक् चारित्र ही कह सकते हैं, क्योंकि भावमिष्पा शरित्र अनन्तानुबन्धी कषायके उदय होता है और विरतिके लिये कम-से-कम अप्रत्याख्यानावरणका क्षयोपशम आवश्यक है ।
उपर्युक्त दोनों प्रकार के स्पष्टीकरणोंके साथ ही यहां निम्नलिखित विशेषतायें भी ज्ञातव्य है(१) अभव्य जीवोंके केवल प्रथम मिध्यादृष्टि गुणस्थान हो होता है जबकि भव्य जीवोंके प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर चतुर्थदेश अयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त सभी गुणस्थान सम्भव है ।
(२) निश्वश्रमका विकास भव्य जीयोंमें ही होता है, जीवोंमें भी उस निश्चयधर्मका विकास चतुर्थ गुणस्थान के प्रथम गुणस्थानोंसे नहीं होता ।
अभव्य जीवोंमें नहीं होता । तथा भव्य समय से प्रारम्भ होता है, इसके पूर्वके
(३) जीवके चतुर्थ गुणस्थान के प्रथम समय में जो निश्चयका विकास होता है वह उस जीवकी भाववती शक्ति परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें होता है। इसके पश्चात् जीवके पंचम गुणस्थानके प्रथम समय में निश्चयधर्मका विकास उस जीवको भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप देशविरति निश्चयसम्यक् चारित्रके रूपमें होता है तथा इसके भी पश्चात् जीवके निश्चयधर्मका विकास सप्तम गुणस्थान के प्रथम समय में उस जीवको भाववती शक्ति के परिणमन स्वरूप सर्वविरति निश्वयसम्यक् चारित्रके रूपमें होता है और जीव में उसका सद्भाव पूर्वोक्त प्रकार पष्ठ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक उत्तरोसर उत्कर्ष के रूपमे विद्यमान रहता है। दशम गुणस्थानके आगे जीव के एकादश गुणस्थानके प्रथम समय में निश्चयधर्मका विकास जीवको भाववती शक्ति परिणमन स्वरूप औपपामिक यथास्यात निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है अथवा दशम गुणस्थानसे हो भागे जीवके द्वादश
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गुणस्थानके प्रथम समय में निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भावचती शक्तिके परिणभन स्वरूप क्षायिक यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्र के रूपमें होता है तथा यह जीवके आगे के सभी गुणस्थानों में विद्यमान रहता है ।
(४) पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि एक व्यवहाधर्म राम्यग्दर्शन के रूप में जीवकी भाववती शक्तिका हृदय के सहारेपर होने वाला परिणमन है और दूसरा व्यवहारधर्म सम्यग्ज्ञानके रूपमें जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाला परिणमन है । एवं तीसरा व्यवहारश्रर्म नैतिक आचार तथा देशविरति व सर्वविरतिरूप सम्यक् वारियरूपमें वचन और हरेपर होनेवाला जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन है । इस सभी प्रकार के व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थान में सभव है और अभव्य व भव्य दोनों प्रकार के जीवों में हो सकता है। इतना अवश्य हूँ कि उक्त सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूप तथा नैतिक आचाररूप व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थान में नियमसे होता है क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारका विकास किये बिना अमत्र्य जीव में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियोंका व भव्य जीवमें इन चारों लब्जियों के साथ करणलविका विकास नहीं हो सकता है ।
प्रथम गुणस्थान में देशविरति ओर सर्वविरति सम्यक्चारित्र रूप वहारधर्मके विकसित होने का कोई नियम नहीं है परन्तु देशविरति सम्यक्चारित्ररूप व्यवहारधर्मका विकास चतुर्थ गुणस्थान में होकर पंचम गुणस्थानमें भी रहता है । एवं सर्वविरति सम्यक् चारित्ररूप व्यवहारधर्मका पंचम गुणस्थानमें विकास होकर आगे षष्ठसे दशम गुणस्थान तक उसका सद्भाव नियमसे रहता है।
यहाँ इतना अवश्य ध्यातव्य है कि सप्तम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक उस व्यवहारधर्मका सद्भाव अन्तरंगरूपमें हो रहता है। तथा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानों में यथासम्भव रूपमें रहनेवाला व्यवहारधर्म भी अबुद्धिपूर्वक ही रहता है। एकादश गुणस्थान से लेकर आगे के सभी गुणस्थानोंमें व्यवहाधर्मका सर्वथा अभाव रहता है । यहाँ केवल निश्चयधर्मका ही सद्भाव रहता है । क्रियावती शक्तिके परिणमन caru व्यवहार अविरतिका सद्भाव प्रथम गुणस्थानसे चतुर्थ गुणस्थान तक ही सम्भव है ।
जीवको मोक्षकी प्राप्ति निश्चयधर्म पूर्वक होती है
प्रकृत में मोक्ष शब्दका अर्थ जीव और शरीर के विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद हो जाना है । जीव और शरीर के विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद चतुर्थदश गुणस्थानमें तब होता है जब उस जीवके साथ बद्ध चार अघाती कमका सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको चतुर्थदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब त्रयोदश गुणस्थान में कमसिन में कारणभूत जीवके योगका सर्वथा निरोध हो जाता है। जीवको प्रयोदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घाती कमका द्वादश गुणस्थान में सर्वया क्षय जाता है। जीवको द्वादश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ मोहनीयकर्मप्रकृतियोंका पूर्व में यथासमय क्षय होते हुए दशम गुणस्थानके अन्त समयमे शेष सूक्ष्म लोभ प्रकृतिका भी क्षय हो जाता है। द्वादश गुणस्थानका अर्थ हो दशम गुणस्थानके अन्त समयमे मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर जीवकी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मका पूर्णतः हो जाना है। इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि जीवको मोक्षको प्राप्ति निश्चयधर्म पूर्वक होती है ।
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rtant forecast प्राप्ति व्यवहारधर्मपूर्वक होती है।
जोयकी भाववती शक्तिका निश्चयधर्म के रूप में प्रारम्भिक विकास चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समय में होता है और उसका वह विकास पंचमादि गुणस्थानों में उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होकर एकादश गुणस्थान के प्रथम समय में औपशमिक यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्र के रूपमें अथवा द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में क्षायिक यथाख्यात सम्यक् चारित्रके रूपमें पूर्णताको प्राप्त होता है । निश्चयमंका वह विकास मोहनीय कर्मको उनउन प्रकृतियों के यथास्थान यथासंभव रूप में होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होता है । तथा मोहनीयकर्मकी प्रकृतियों का यथायोग्य वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम भव्य जीवमें आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर होता हैं व उसमें उस करणलब्धिका विकास क्षयोपशम, बिशुद्धि, देशना और प्रायोग्य प्रियों के विकासपूर्वक होता है। एवं जीव में इन लब्धियों का विकारा व्यवहारधर्म पूर्वक होता है। यह व्यव हारधर्म अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप होता है। जीवको इराकी प्राप्ति तब होती हैं जब उस जीव भाववती शक्ति हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्त्वश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यक्दर्शनकी और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि हो जाती है। इसके विकास की प्रक्रियाको पूर्व में व्यवहारमंत्री व्याख्यामें बतलाया जा चुका है। इस विवेचनये यह निर्णीत होता है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में कारण होता है। यह विषय प्रश्नोत्तर २ और ३ की समीक्षासे भी जाना जा सकता है।
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यहाँ यह ध्यातव्य है कि जीवको अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में कारणभूत मोहनीय कर्मका यथायोग्य उपशम, क्षत्र या क्षन्पशम करनेके लिए इस व्यवहारघर्मके अन्तर्गत एकान्त मिथ्यात्व के विरुद्ध प्रशभभाव, विपरीतमिध्यात्वके विरुद्ध संवेगभाव, विनयमिध्यात्वके विरुद्ध अनु कम्पाभाव संशयमिध्यात्वके विरुद्ध आस्तिक्यभाव और अविवेकरूप अज्ञानमिध्यात्वके विरुद्ध विवेकरूप सम्वरज्ञानभावको भी अपनेमें जागृत करनेकी आवश्यकता है। इसी प्रकार जीवको समस्त जीवोंके प्रति मित्रता ( समानता) का भाव, गुणीजनों प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवोंके प्रति सेवाभाव और विपरीत दृष्टि, वृत्ति और प्रवृत्ति वाले जीवोंके प्रति मध्यस्थता (तटस्थ ) का भाव भी अपनाने की आवश्यकता है। इस तरह सर्वांगीणताको प्राप्त व्यवहारधर्म उपर्युक्त प्रकार निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में साधक सिद्ध हो जाता है ।
२. प्रश्नोत्तर ४ के प्रथम दौरकी समीक्षा
प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षको दृष्टि
पूर्वपक्ष आगम प्रमाणोंके आधारपर आयवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक स्वीकार किया है । यह बात उसके द्वितीय और तृतीय दौरोंके प्रतिपादनोंसे ज्ञात होती है । यतः उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मको उत्तपत्तिमे साधक नहीं मानता है। अतएव पूर्वपने तत्त्वचर्चा के अवसरपर यह प्रश्न प्रस्तुत किया था कि "व्यवहारधर्म निश्चय में साधक है या नहीं" ?
उत्तरपक्षके उत्तरकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने प्रथम दौर में इस बातको सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक नहीं हूँ | इसके समर्थनमें उसका कहना है कि निश्चयधर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है। व इसकी पुष्टि के लिए वहीं पर उसने नियमसारको गाथा १३ और १४ को उपस्थित किया है और उनके आधार
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पर यह निष्कर्ष निकाला है कि सर्वत्र निश्चयवर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है। परन्तु नियमसारकी गाथा १३ और १४ से यह बात सिद्ध नहीं होती है । आमे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है ।
उत्तरपक्ष ने निश्चयधर्मको उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है इस मान्यताकी पुष्टिके लिए नियमसारको जिन दो गायोंको प्रस्तुत किया है वे गाथायें नियमसारके उपयोगप्रकरणकी है। उस प्रकरणकी अन्य गाथाओंके साथ इन गाथाओंपर दृष्टि डालनेसे स्पष्ट होता है कि उनके आधारपर निश्चयधर्मको उत्पत्ति परनिरपेक्ष सिद्ध नहीं होती है। इस बातका स्पष्टीकरण करने के लिए उपयोगप्रकरणकी सभी माथाओंको यहाँ उद्धृत किया जाता है।
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदसणो होइ । णाणुबओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं त्ति ॥१०॥ केवलमिदियरहियं असहाय तं सहावणाणं ति । सणाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११।। सण्णाणं चउभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज । अण्णाणं तिविथप्पं मदियाईभेददो चेव ॥१२॥ तह देसण उनओगो ससहावेदर-वियप्पदो दुविहो । केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥१३॥ चक्खु अचक्खू ओहो तिणि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति। पउजाओ दुषियप्पो सपरावेक्लो य णिरवेक्खो ॥१४॥ णरणारयसिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा ।
कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि मणिदा ॥१५॥ प्रकरणको देखते हुए इन गाथाओं से गाथा १४ के पूर्वाद्धका सम्बन्ध गाथा १३ के साथ है और उसके उत्तरार्द्धका सम्बन्ध गाथा १५ के साथ है। इस घातकी पुष्टि गाथा १४ के पूर्वार्तकी आचार्य पनप्रभमलधारिदेवकृत टोकाके आगे और उत्तराद्धकी टीकाके पूर्व में निर्दिष्ट "अनोपयोगव्याख्यानन्तरं पर्यायस्वरूपमुच्यते" वचनके आधारपर होती है। इस वचनका अर्थ है कि यहॉपर उपयोग के व्याख्यान के अनन्तर पर्यायके स्वरूपका कथन किया जाता है।
इस तरह माथा १०, ११, १२, १३ का और १४ के पूर्वाद्धका सम्मिलित अर्थ इस प्रकार है कि जोक उपयोगात्मक है। उपयोग जाम और दर्शन दो भेदरूप है। इनमें ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। इन्द्रियरहित और असहाय केवल ज्ञानोपयोग तो स्वभावज्ञानोपयोग है तथा प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे विभाव जानोपयोग दो प्रकार है। प्रशस्त मानोपयोग मति, श्रुत, अवधि और मनापर्ययके भेदसे चार प्रकारका है व अप्रशक्त विभावज्ञानोपयोग मति, श्रुत और अवधिके भेदसे तीन प्रकारका है। उसी प्रकार दर्शनोपयोग भी स्वभाव और विभावके भेदस दो प्रकारका है । इन्द्रियरहित और असहाय केवलदर्शनोपयोग तो स्वभावदर्शनोपयोग है तथा विभावदर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचशुर्दर्शन और अवधिदर्शनके भेदसे तीन प्रकारका है"।
इसी प्रकार गाथा १४ के उत्तरार्द्धका और गाथा १५ का सम्मिलित अर्थ इस प्रकार है कि पर्याय
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स्वपर सापेक्ष और निरपेक्ष अर्थात् परनिरपेक्षके भेदसे दो प्रकारकी है। इनमेंसे नर नारक, तिर्यग और पर्यायेविनायें हैविय स्वभाव पर्यायें है ।
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उत्तरपक्षने गाथा १३ और १४ का सम्मिलित अर्थ इस प्रकार किया है कि "इसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभाव के भेयसे दो प्रकारका है । जो केवल इन्द्रियरहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा गया है। तथा चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीनों विभावदर्शन कहे गये हैं, क्योंकि पर्यायें दो प्रकार की हैं - स्वपरसापेक्ष और निरपेक्ष" ।
इसके आगे तात्पर्यके रूपमें उसने लिखा है कि "सर्वत्र विभागपर्याय स्वपरसापेक्ष होती है और स्वभाव पर्याय परनिरपेक्ष होती है" ।
उत्तरपक्ष द्वारा कृत उक्त अर्धपर विचार
(१) उत्तरपक्ष द्वारा कृत उक्त अर्थ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम में यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि इसमें उत्तरपश्नने "केवरु" शब्दका भ्रमवश "मात्र" अर्थ किया है जबकि प्रकरण के अनुसार "केवल" शब्दका "केवलोगयोग" अर्थ ही संगत है ।
(२) इसके पश्चात् मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जब गाथा १४ के उत्तरार्द्धका सम्बन्ध गाथा १३ के साथ नहीं है तो उसके आधारपर उत्तरपक्षने केवलदर्शनोपयोगको जो परनिरपेक्ष सिद्ध किया है वह असंगत है। माना कि गाथा १३ के उत्तराद्ध में केवलदर्शनोपयोगको इन्द्रियरहित और असहाय बतलाकर स्वभाव पर्याय मान्य किया है, परन्तु विचारणीय बात यह है कि इतने मासे उसे क्या परनिरपेक्ष पर्याय मानना उचित है ? क्योंकि केवललब्धिका उपयोगाकार परिणमन पदार्थसापेक्ष होता है ।
तात्पर्य यह है कि " चेतनालक्षणो जीव:" (पंचाध्यायी २-३ ) के अनुसार जीवका लक्षण चेतना है । यह चेतना ज्ञान और दर्शन दो भागों में विभक्त है। दोनों ही चेतनाओंके लब्धि और उपयोग के रूप में दो-दो भेद हैं । ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयसे चेतनाका जो विकास होता है उसे लत्रिरूप ज्ञानचेतना कहते हैं। और दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयसे चेतनाका जो विकास होता है उसे लरूप दर्शनचेतना कहते हैं ।
समस्त ज्ञानावरणकर्मके क्षयसे ज्ञानचेतनाका जो विकास होता है उसे केवलज्ञान-त्रि कहते हैं। तथा मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले ज्ञानचेतनाक विकासको मतिज्ञानलब्धि, श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले ज्ञानचेतनाके विकासको श्रुतज्ञानलब्धि अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले ज्ञानचेतनाके विकासको अवधिज्ञानलब्धि और मन:पर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शन चेतनाके विकासको मन पर्ययज्ञानलब्धि कहा जाता है। इसी तरह समस्त दर्शनावरणकर्मकेायसे जो दर्शनचेतनाका विकास होता है उसे केवलदर्शनलब्धि कहते हैं । तथा चक्षुदर्शनदर्शनावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शन चेतना विकासको चनुर्दर्शनलब्धि, अचक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शनचेतनाके विकासको अचक्षुदर्शनलब्धि और अवधिदर्शनावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शनचेतनाके विकासको अवधिदर्शनलब्धि कहा जाता है ।
केवलज्ञानलब्धिका पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाला परिणमन केवलज्ञानोपयोग कहलाता हूं । तथा प्रतिज्ञातलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होने वाले परिणमनको वृतज्ञानोपयोग अवधिज्ञानलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको अवधिज्ञानोपयोग और मनः पर्ययज्ञानलब्धिके पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको मन:पर्ययज्ञानोपयोग
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कहते हैं । इसी तरह केवलदर्शनलविका पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाला परिणमन केवलदर्शनोपयोग क लाता है। तथा चक्षुर्दर्शनलब्धि के पदार्थविलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको चक्षुर्दर्शनोपयोग, अचक्षुर्दर्शनलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको अक्षुर्दर्शनोपयोग और अवधिदर्शनलब्धिके पदार्थालम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको अवधिदर्शनोपयोग कहते है ।
केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग दोनों पदार्थावलम्बनपूर्वक होकर भी यतः इन्द्रियरहित मौर असहाय होते हैं अतः इन्हें क्रमशः स्वभावभूत ज्ञानोपयोग और स्वभावभूत दर्शनोपयोग कहते हैं व मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग और मन:पर्ययज्ञानोपयोग इन्द्रियसहित और ससहाय होने के कारण विभावभूत ज्ञानोपयोग कहलाते हैं । तथा बनुदर्शनोपयोग, अचक्षुर्दर्शनोपयोग और अवजिदर्शनोपयोग भी इन्द्रिय सहित और ससहाय होने के कारण विभावभूत दर्शनोपयोग कहलाते है ।
मतिज्ञानोपयोग और श्रुतज्ञानोपयोग ये दोनों ज्ञानोपयोग तथा चक्षुर्दर्शनोपयोग और अचक्षुर्दर्शनीयोग दोनों और सहोते हैं यह बात तो स्पष्ट है, परन्तु अवधिज्ञानोपयोग और मन:पर्ययज्ञानोपयोग ये दोनों ज्ञानोपयोग तथा अवधिदर्शनोपयोग भी इन्द्रियसहित और ससहाय होते हैं । इसका कारण यह है कि एक तो इनके विषय इन्द्रिय और मनके विषयभूत रूपी पदार्थ होते हैं । दूसरे, वे पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादापूर्वक इनके विषय होते हैं ।
यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि प्रतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग और अवधिज्ञानोपयोग मिध्यादृष्टि जीव में मोहनीयक कि भेद मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनों प्रकृतियोंके उदयसे प्रभावित रहते हैं, सासादन सम्यक दृष्टि जीव में अनन्तानुबंधी कपायके उदयसे प्रभावित रहते हैं और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवमें सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदयसे प्रभावित रहते हैं, अतः इन्हें अप्रशस्त ज्ञानोपयोग कहते है । तथा चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर द्वादश गुणस्थान पर्यन्त ये तीनों ज्ञानोपयोग मोहनीयकर्मके यथायोग्य उपशम क्षय या क्षयोपशमसे प्रभावित रहते हैं, अतः उन्हें प्रशस्त ज्ञानोपयोग कहा जाता है। मन:पर्ययज्ञानोपयोग पष्ठ गुणस्थानसे लेकर द्वादश गुणस्थानन्त ही जीव में विद्यमान रहता है, अतः वह सतत मोहनीयकर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे प्रभावित रहने के कारण प्रशस्त होता है व केवलज्ञानोपयोग समस्त ज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर त्रयोदश गुणस्थान के प्रथम रामयमें प्रगट होता है, अतः वह प्रशस्त ही होता है । यतः सभी दर्शनोपयोग निर्विकल्पक होते हैं, इसलिये वे मोहनीयकर्मके उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशम से कदापि प्रभावित नहीं होते । फलतः सभी दर्शनोपयोगों में प्रशस्तपने और अप्रशस्तपका भेद नहीं है ।
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इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारकी उक्त गाथाओं में जो केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोगको इन्द्रियरहित और असहाय होने के कारण स्वभावभूत व शेष सभी ज्ञानोपयोगों और सभी दर्शनोपयोगोंको इन्द्रियसहित और ससहाय होनेके कारण विभावरूप बतलाया है उसमें उनकी दृष्टि केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोगको स्वभावरूपता के आधारपर परनिरपेक्ष व शेष सभी ज्ञानोपयोगों और सभी दर्शनोपयोगको विभावरूपता के आधारपर स्वपरसापेक्ष बतलाने की नहीं है, क्योंकि स्वभावरूप और विभावरूप सभी ज्ञानोपयोग और सभी दर्शनोपयोग पदार्थावलम्बनता के आधारपर परसापेक्ष ही सिद्ध होते हैं । इस तरह उत्तरपक्षका नियमसार गाथा १३ और १४ के आधारपर केवलदर्शनोपयोगको इन्द्रियरहित और असहाय होनेसे स्वभावरूप और दोष सभी दर्शनोपयोगों को इन्द्रियसहित और ससहाय होनेसे
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा विभावरूप बतलाना तो ठीक है, परन्तु दर्शनोपयोगको स्वभावरूपताके आधारपर परनिरपेक्ष बतलाना ठीक नहीं है और इस तरह निश्चयधर्मको उत्पत्तिको उसको स्वभावरूपताके आधारपर परनिरपेक्ष स्वीकार कर उसमें व्यवहारधर्मके साथ साध्य-साधकभादका निषेध करना ठीक नहीं है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि निश्चमरत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्मकी समानता ज्ञानोपयोगों और दर्शनापयांगोंके साथ नहाकर ज्ञानलब्धियां और दर्शनलब्धियों के साथ है, क्योंकि जीवको भाववती शक्तिका मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर निश्चयरलत्रयस्वरूप निश्चयधर्मके रूपमें विकास होता है व जीवको भाववती शक्तिका ही भानावरणकर्म के क्षयोपशम या क्षयके आधार पर ज्ञानलब्धिके रूपमें तथा दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयके आधारपर दर्शनल विधके रूपमें विकास होता है।
इसी प्रकार यह भी विचारणीय है कि निश्चयधर्म मोहनीकर्मफे उपदाम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक उत्पन्न होता है तथा ज्ञानलब्धि ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम या क्षयपूर्व दर्शनलब्धि दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयपूर्वक उत्पन्न होती है, अतः निश्पयधर्म औपशमिक, क्षाधिक और शायोपामिकरूपमें स्वभावभूत भी है और परसापेक्ष भी है। तथा सभी शानलविषयों और सभी दर्शनल ब्धियाँ भी क्षायोपशमिक और क्षायिकरूपमें स्वभावभूत भी है और परसापेक्ष भी हैं।
उत्तरपक्षने स्वभावभूत पर्यायकी उत्पत्तिको परनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिए नियमसार गाथा २८ को भी उपस्थित किया है । परन्तु उस गाथासे भी उसके मभीष्टको सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि उस गाथामै महा बतलाया गया है कि पुद्गलको अन्यनिरपेक्ष अखण्ड अणुरूप पर्याय तो स्वभावपर्याय है और स्कंघरूप पर्याय दो आबि अणुओंके संयोगके रूपमें है, इसीलिये विभावपर्याय है। उसमें यह नहीं बतलाया है कि अणुकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है, क्योंकि तत्त्वार्यसूत्रके "भेदादणु" (५-२७) सूत्रके अनुसार अणु भी जब स्कंत्रकी भेदनक्रिमाके आधारपर निष्पन्न होता है तो इस स्थिति में उराको उत्पत्तिको परनिरपेक्ष कैसे कहा जा सकता है ? अतः इस गाथाकै आधारपर भी स्वभावभूत निश्चधर्मकी उत्पत्तिको ब्यवहारधर्मनिरपेक्ष नहीं सिद्ध किया जा सकता है।
उत्तरपक्षने अपने इस दौरके अन्तमें जो यह लिखा है कि "तथापि चतुर्थगुणस्थानसे लेकर सविकल्पक दशामें व्यवहारधर्म निश्पयधर्मके साथ रहता है, इसलिये व्यवहारधर्म निश्चधर्मका सहचर होने के कारण सावक (निमित्त) कहा जाता है।" सो व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका सहचर होने के कारण साधक कहा जाता हो,ऐसी बात नहीं है, क्योंकि एक तो जब दोनों सहचर है तो दोनोंमेंसे किसको साध्य और किसको साधक कहा जाये ग्रह निर्णीत करना असंभव है। दूसरे, आगममें निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें सहायक होने के कारण ही व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक कहा गया है। इस विषयको प्रश्नोत्तर एककी समीक्षा स्थान-स्थानपर स्पष्ट किया जा चुका है । एक बात और है कि यद्यपि व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सहचर कहने में कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु उसका इन दोनों घर्मोमें साध्य-साधकभावका प्रतिपादन करनेवाले आगमवचनोंके आधारपर यही अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि व्यवहारधर्मके सद्भाव में ही निवनयधर्भकी उत्पत्ति होती है उसके अभावमें नहीं। इस प्रकार सहनर होकर भी दोनोंमें विद्यमान अविनाभावके आधारपर व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक ही सिब होता है। इस तरह इन दोनों धर्मोम स्वीकृत साम्य-साघकभावको कल्पित मानना अयुक्त है।
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
२८३ ३. प्रश्नोत्तर ४ के द्वितीय दौरको समीक्षा द्वितीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने वितीय दौरमें उत्तरपक्ष के प्रथम दौरकी आलोचना करते हुए आगम प्रमाणोंके आधारपर अपनी इस मान्यताको पुष्ट किया है कि "व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक है ।" द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षकी स्थिति और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दौरमें उत्तरका समर्थन करने के लिए सर्वप्रथम सा च १३२ पर नयचनको निम्न गाथाको उपस्थित किया है
ववहारादो बंधो मोक्खो जम्हा सहावसंजुत्तो ।
तम्हा कुरु तं गउणं सहावमाराहणाकाले १७७।। इस गाथाकी भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित नयचक्र ३४२ संख्या अंकित की गई है। इसका अर्थ उत्तरपक्षने इस प्रकार किया है
"यतः व्यवहारसे बन्ध होता है और स्वभावका आश्रय लेनेसे मोक्ष होता है इसलिये स्वभावको सारांधनाके कालमें अर्थात् मोक्षमार्ग में व्यवहारको गौण करो ।।७७।।
इस अर्थमें उतरपक्षने "स्वभावकी आराधनाके कालमें" इस अंशका जो "मोक्षमार्गमें" यह अभिप्राय ग्रहण किया। जसका गाथासे मेल बराता है या नहीं, इस बातपर उसे ध्यान देना चाहिए था और यदि मेल बैठता है तो उसका स्पष्टीकरण करना चाहिए था। मेरा कहना है कि उसका गाथाके साथ मेल नहीं बैठता है। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है
सम्पूर्ण गाथाका क्या अभिप्राय होना चाहिए, इस विषयमें मेरा यह कहना है कि आगममें अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें होने वाली जोवकी प्रवृत्तिको व्यवहारधर्म कहा है । तथा पूर्वोक्त प्रकार आगममें यह भी कहा है कि इस व्यवहारश्चर्मक "अदाभसे निवृत्ति" रूप अंशसे कर्मोंके संबर और निर्षरण होते हुए भी शुभमें होनेवाली प्रवृत्तिरूप अंशसे कर्मोके आस्रव और बन्ध ही हुआ करते हैं। इस तरह इस बातको ध्यानमें रखकर ही नयचक्रके कर्तान गाथामें "चवहारादो बंधो" यह पाठ किया है और यतः स्वभावका आश्रय लेनेपर ही मोक्षको प्राप्ति सम्भव है, इसके बिना नहीं, अत: उन्होंने गाथामें "मोक्लो जम्हा सहावसंजुत्तो" यह पाठ किया है। इस प्रकार व्यवहारसे बन्ध और स्वभावके आथयसे मोश्च बतलाकर अन्यकारने माथाके उत्तराद्ध में जीवोंको यह उपदेश दिया है कि स्वभावकी आराधनाके कालमें व्यवहारको गौण करो।
इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि आगमप्रमाणों के आधारपर व्यवहार और निश्चय दोनों मोक्षमार्गकी प्राप्तिके लिए उपयोगी सिद्ध होते है. परन्त आगमप्रमाणोंके आधारपर पह भी निर्णीत होता है कि सर्वधा संवर और निर्जरण होनेपर ही जोवको मोक्षकी प्राप्ति सम्भव है। यतः ऊपर कहे अनुसार जीब जबतक व्यवहारवर्ममें प्रवृत्त रहता है तबतक एक अपेक्षासे काँका संवर और निर्जरण होते हुए भी एक अपेक्षासे कोका आस्रव और बन्ध भी होता है, अतः नयचक्रके कत्ताको गाथामें यह लिखना पड़ा कि स्वभावकी आराधना कालम व्यवहारको गौण करो। दूसरी बात यह है कि गाथामें पठित "गौण" पदको स्पयहार धर्मकी मोक्षकारणताका निषेधक नहीं माना जा सकता है। उससे तो मोक्षप्राप्तिके लिए व्यवहार
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धर्मको सापेक्ष स्वीकृति हो सिद्ध होती है जिसका आशय यह है कि मोक्षमार्ग में प्रवन जीवको व्यवहारधर्म उपयोगी तो है परन्तु तभी तक उपयोगी है जबतक वह जोव स्वभावमें स्थिर नहीं होता । जीय स्वभावमें स्थिर तभी होता है जब यह स्वभावमें स्थिर होनेके अनुकूल पुरुषार्थ करता है और जीवको दृष्टि अबतक व्यवहारधर्मको ओर है तबतक वह स्वभावकी ओर अग्नतर नहीं हो सकता है। इस तरह स्वभावकी आराघनाके कालमें अर्थात स्वभाव स्थिरता प्राप्त करने के लिा पुरुषार्थ करते समय जीवको ब्यवहारधर्मकी ओरसे दृष्टि हटाने की आवश्यकता है। लेकिन इसका यह आशा नहीं कि व्यवहारधर्म मोक्ष प्राप्तिके लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि जबतक जीव स्वभावको ओर अग्रसर नहीं होता तबतक उसे व्यवहारधर्म पालनमें भी सजग रहना आवश्यक है। इसमें हेतु यह है कि वह जीव स्वभावकी ओर अग्रसर न होने के कालमें भी यदि व्यवहारधर्मकी उपेक्षा करता है तो वह स्वभावमें तो स्थिर होगा नहीं, साथ ही व्यवहारधर्मसे चपुत होकर अपने अनन्त संमारको ही वृद्धि करेगा।
वास्तवमें आगमके अनुमार मोक्षप्राप्तिकी पूर्वोक्त प्रकार यह प्रक्रिया है कि जीय प्रारम्भमें तो विपरीताभिनिवेश और मिथ्याजानके आधारपर आसक्तिवश संकल्पी गापमय प्रवृत्ति हो किया करता है और कदापित साथ संसारिक स्वार्थवश पुण्यमय प्रवृत्ति भी करता है। परन्तु वह जीव उस पुण्यमय प्रवृतिको पदि सम्यक अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञान पूर्वक कर्तव्यबश करने लग जाता है तो इस आधार पर उसे उस संकल्पी पापमय प्रवृत्तिसे घृणा हो जाती है । फलतः वह जीव तब उस संकल्पी पापमय प्रवृत्तिका सर्वथा त्यागकर अशक्तियश आरम्भी पापमय प्रवृत्ति करते हुए नियमसे कर्तव्यवश पुण्यमय प्रवृति किया करता है ।
धर्मका प्रारम्भिक रूप यही है और इस व्यवहारधर्म बलपर ही वह जीव अपने अन्दर क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है। इतना ही नहीं, यदि वह भव्य हुआ तो वह इन चारों लब्धियों के विकासके पबचात आत्मोन्मखतारूप करणलब्धिका विकास भी अपने अन्दर कर लेता है। इस तरह करणलब्धिको प्राप्त वह भन्ध जीव प्रथमतः मोहनीयके भेव दर्शनमोहनोयकर्मकी यथासम्भव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्बमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति रूप तीन व मोहनीयकर्मके ही प्रथम भेद चारित्रमोहनीयकर्मक प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कपायको नियममे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार इस तरह सात प्रकृतियों के यथायोग्य उपशम, सय या क्षयोपदाम पूर्वक चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के रूपमें निश्चयधर्मको प्राप्त करता है । इसके पश्चात् वह जीव यथाशक्ति आरम्भी पापमय प्रवृत्तिके एकदेश त्यागके साथ कर्त्तव्यवंश पुण्यमय प्रवृत्तिरूप व्यवहारचर्मके बलपर उपर्युक्त क्रमसे चारित्रमोहनीयकर्मक हितीय भेद अग्रत्याख्यानावरण कषावकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया
और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर पंचम गुणस्थानके प्रबम समयमें देशविरतिरूप निश्चयसभ्यक्चारित्रको प्राप्त करता है । इसके भो पश्चात् वह जीव शक्तिके अनुसार उस आरम्भी पापमय प्रवृत्तिके सर्वदेश त्याग के साथ पुण्यमय प्रवृत्ति रूप व्यवहारधर्मके बलपर ही उपर्युक्त कमसे चारित्रमोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायको नियमसे विद्यमान कोव, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका अयोपशम होनेपर सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें रावनिरति रूप निश्चयसम्यवचारित्रको प्राप्त करता है। यह सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्महर्त काल तक ही सप्तम गणस्थान में रह सकता है, क्योंकि उसमें वहाँ स्थिर रहनेकी दृढ़साका अभाव रहता है, इसलिये उसका पतन होना अवश्यंभावी है । इस तरह गिरकर वह षष्ठ गुणस्थानमें आ जाता है। इस षष्ट गुणस्थानवी जीवको व्यवहारधर्ममें सजग रहनेका उपदेश आगममें है क्योंकि षष्ठ
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गुणस्थान बाह्य प्रवृत्तिरूप होता है । परन्तु उस गुणस्थानका काल भी अन्तर्मुहूर्त है, अतः यदि वह अपने पदके अनुकूल व्यवहारधर्म के पालन में प्रमादी हो गया तो अपना काल समाप्त करके वह नीचेके गुणस्थानोंमें भी गिर सकता है। फलतः उसे आगममें यह उपदेश दिया गया है कि वह सप्तम गुणस्थानमें पहुँचने का ही पुरुषार्थ करे, क्योंकि वह सप्तम गुणस्थान में पहुँचनेका पुरुषार्थ करनेवर ही आत्मोन्मुख होकर सप्तम गुणस्थान में पहुँच सकता है । इसलिये उसे एक ओर तो व्यवहारधर्म में सजग रहना है और दूसरी ओर उसे इस तरहका पुरुषार्थ भी करना है कि वह आत्मोन्मुख होकर सप्तम गुणस्थान में पहुँच सके। इससे यह निर्णीत होता हैं कि पष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव जब स्वभावकी ओर झुक जायेगा तब तो उसे सप्तम गुणस्थान प्राप्त होगा और जबतक उसकी स्थिति स्वभावकी ओर झुकनेकी नहीं होगी तबतक वह षष्ठ गुणस्थान में बना रहेगा । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि गुजरात साधुका कर्तव्य यह है कि वह अपने व्यवहारधर्मको कर्त्तव्यनिष्ठा के साथ पालन करते हुए सतत पुरुषार्थ आत्मस्वभाव की ओर झुकने का ही करता रहे। जैसे चीटी किसी ऊपरी स्थानपर पहुंचने के लिए पुरुषार्थ तो चढ़ने का ही करती हैं, परन्तु यदि वह न सम्हल सकने के कारण गिरती भी है तो भी उसका पुरुषार्थ चढ़नेका हो होता है । ठीक यही दशा षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवको होती है। और यह तबतक होती रहती है जबतक वह सप्तम गुणस्थान में पूर्णरूप से स्थिर नहीं होता है, क्योंकि सप्तम गुणस्थान में स्थिर हो जानेपर हो वह जीव अपना समय समाप्त करके अष्टम गुणस्थानमें पहुँच सकता है
इस तरह षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव आत्मोन्मुख होनेके लिए जो पुरुषार्थ करता है वह पुरुषार्थं तभी हो सकता है जब वह जीव व्यवहारवमंको गौण कर देता है अन्यथा नहीं। वहाँ गौणशब्दसे यही अभिप्राय ग्रहण करना उचित है कि वह जीव व्यवहारधर्म का पालन तो करे, परन्तु उसे पुरुषार्थ प्रधानतया आत्मोन्मुख होने का ही करना चाहिए । यही कारण है कि नयचक्रको उक्त गाथामें स्वभावकी आराधना काल में अर्थात् स्वभावोन्मुख होने के लिए पुरुषार्थ करते समय षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवको व्यवहारधर्मको गौण करने की बात कही गई है ।
आगे त० च० पू० १३२ पर उत्तरपक्ष ने यह कथन किया है कि "इस सम्बन्धी प्रतिशंकाम प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह के विविध प्रमाण उपस्थित कर जो यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक है सो वह कथन असद्भूतव्यवहारनयकी अपेक्षा से ही किया गया है ।" इसकी समीक्षा में मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको जो असद्द्भूत्तव्यवहारनय का विषय मानता है इसमें हेतु यह है कि वह व्यवहारधर्मको जीत्र के सहयोग से होनेवाली शरीरको अशुभ क्रियासे निवृत्ति के साथ शुभ प्रवृत्तिरूप दारीरकी क्रिया ही मानता है । यतः पूर्वपक्ष हारधर्मको मन, वचन और कायके सहयोग से होनेवाली जीवकी अशुभ क्रियासे निवृत्तिके साथ होनेवाली जीवकी शुभ क्रिया मानता है, अत: वह (पूर्व पक्ष ) उस निवृत्तिके साथ प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्मको सद्भूतव्यवहारनयका विषय मानता है । इनमें पूर्वपक्षको मान्यता सम्यक् है, उत्तरपक्षकी मान्यता सम्यक नहीं हैं। इस बातको द्वितीय प्रश्नोतरकी समीक्षा में स्पष्ट किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त मेरा यह भी कहना है कि व्यवहारधर्म चाहे अद्भूत व्यवहारनयका विषय हो अथवा सद्भूत व्यवहारनयका विषय हो परन्तु वह निश्वयव मंकी उत्पत्ति में साधक होता ही है। इसलिये उसे मोक्ष की प्राप्ति में सर्वथा अकिचित्कर कदापि नहीं कहा जा सकता है अर्थात् मोक्षका साक्षात् कारण न होनेसे भले ही व्यवहारधर्मको अकिंचित्कर कहा जाये, परन्तु
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अयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा मोक्षके साक्षात्कारणमत निश्चयमोक्षमार्गकी उत्पत्तिमें साक्षात कारण होनेसे उसे परम्परया मोक्षका कारण कहना अयुक्त महीं है । इस विषयको प्रश्नोत्तर एककी समीक्षासे भी समझा जा सकता है।
उत्तरपक्षने पंचास्तिकाय गाथा १०५ की आचार्य जयसेन कृत टीकाके आधारपर और बृहद्रव्यसंग्रहको टीका पृष्ठ २०४ के कथनके आधारपर व्यवहारधर्मको परम्परया मोक्षका साधन मानकर भी उसके अभिप्रायको उलट-पुलट करनेकी चेष्टा की है और अपनी इस बातको उचित सिद्ध करने के लिए उसने पण्डितप्रवर टोडरमलजीके मोक्षमार्गप्रकाशकका निम्न कथन उपस्थित किया है
“सम्यग्दृष्टिक शुभोपयोग भये निकट शुद्धोपयोग प्राप्ति होय ऐसा मुख्यपना करि कहीं शुभोपयोगकों शुशोपयोगका कारण भो कहिये है।" पृ. ३७७ दिल्ली संस्करण ।
इसके विषय मेरा यह कहना है कि इस कथनका भो यही अभिप्राय राहण करना उचित है कि शुभोपयोगके अनन्तर ही शुद्धोपयोग प्राप्त होता है. अमुशोगयोगः नन्तर शुद्धोपयोगकी प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं है । इस तरह इस कथनसे शुभोपयोग और शुद्धोपयोग; साध्य-साधकभावकी ही सिद्धि होती है । मोक्षमार्गप्रकाशकके उक्त कथनमें जो 'कहीं पदका पाठ है उसका आशय यह है कि शुभोपयोग शुखोपयोगका कारण सर्वत्र नहीं होता है। व्यवहारमोक्षमार्ग मोक्षका परम्परया कारण क्यों है, इसका स्पष्टीकरण भी सामान्य समीक्षामें किया गया है।
उत्तरपक्षने त. च. पु. १३२ पर ही आगे लिखा है कि "वस्तुतः मोक्षमार्ग एक ही है। उसका निरूपण दो प्रकारका है। इसलिये जहाँ निश्चय मोक्षमार्ग होता है वहाँ उसके साथ होनेवाले व्यवहारधर्मरूप रागपरिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग आगममें कहा है और यतः वह सहचर होनेसे निश्चय मोक्षमार्गके अनुकूल है, इसलिये उपचारसे निश्चय मोक्षमार्गका साधक भी कहा है।" अपने इस कथनके समर्थन में भी उत्तरपक्षने श्री पं० टोडरमलजीके निम्न कथनको उपस्थित किया है
"जहाँ सांचा मोक्षमार्गको मोक्ष मार्ग निरूपण सो निश्चय मोक्षमार्ग है और जहाँ जो भोक्षमार्ग तो है नाहीं परन्तु मोजमार्गका निमित्त है व सहचारी है ताकी उपचार करि मोक्षमार्ग कहिये सो व्यवहार मोक्षमार्ग है। जात निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सांचा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार, तात निरूपण अपेक्षा दोय प्रकार मोक्षमार्ग जानना । एक निश्चय मोक्षमार्ग है. एक व्यवहार मोक्षमार्ग है ऐसे दोय मोक्षमा मानना मिथ्या है। बहरि निश्चय व्यवहार दोऊनि उपादेय मानें है सो भी भ्रम है। जात निश्चय व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध लिए है। मोक्षमार्गप्रकाशक पु० ३६५-३६६ देहली संस्करण"।
इस सम्बन्धमें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षका मोक्षमार्गको एक कहना और दो मोक्षमार्गोका निषेध करना इस रूपमें विवादकी वस्तु नहीं है। यदि कोई ऐसा माने कि एक व्यक्ति तो व्यवहारमोक्षमार्गनिरपेक्ष निश्चयमोक्षमार्गसे मोक्ष प्राप्त कर सकता है और दूसरा व्यक्ति निश्चयमोक्षमार्गनिरपेक्ष व्यवहारमोक्षमार्गसे मोक्ष प्राप्त कर सकता है, तो उसका ऐसा मानना मिथ्या है । परन्तु पूर्वपक्षका तो आगमके आवारपर यही कहना है कि जीयको भोक्षकी प्राप्ति निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्ति होनेपर ही होती है। किन्तु निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्ति जीवको तभी संभव है जब वह व्यवहारमोक्षमार्गपर आरूढ़ हो जाये। इससे ही यह निर्णीत होता है कि व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साक्षात् साधक है और मोक्षका
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
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परम्परया अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गका साधक होकर साधक है। इस तरह साक्षात् होनेसे निश्चयमोक्षमार्ग हो मोका वास्तविक कारण सिद्ध होता है और व्यवहारमोक्षमार्ग मोक्षका साक्षात् कारण तो है नहीं, अपितु निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर हो मोक्षका कारण है, अतः परम्परया कारण होनेसे मोक्षका उपचरित कारण है । इस तरह व्यवहारमोक्षमार्गको निश्वयमोक्षमार्गको प्राप्तिमें कारणता स्पष्ट हो जाती है । आगममें निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमागके मध्य निश्चय मोक्षमार्गकी साध्यता और व्यवहार मोक्षमार्गी सामान्य करने का यही अभिप्राय है । मोक्षमार्गप्रकाशकके उपर्युक्त वचनमें भी इसी अभिप्रायसे व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका निमित्त व सहचारी कहा है और उससे यदि केवल सहचारी पद भी होता तो उसका भी यही अभिप्राय ग्रहण करना आगम सम्मत होता । इस तरह उसमें पठित सहचारीपद लिन और व्यवहार दोनों मार्गो में साध्य साधकभावकी ही स्थापना करता है, क्योंकि यदि दोनों मोक्षमार्गो में उपर्युक्त प्रकार साध्य साधकभाव न हो तो यहाँ पर व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयशेक्षमार्गका सहचर बतलाने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती ।
त० च० १० १३३ पर ही उत्तरपक्षने जो प्रवचनसारका कथन उपस्थित किया है सो विचार कर देखा जाये तो उसके साथ पूर्वपक्ष की मान्यताका अणुमात्र भी विरोध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष व्यवहारमोक्षमार्गको मोक्षका साक्षात् व वास्तविक कारण नहीं मानता है अपितु परम्परया व उपचारित कारण ही मानता है और ऐसा इस मावारपर मानता है कि वह मोक्ष के साक्षात् कारणभूत निश्चयमोक्षमार्गका ही साक्षात् कारण होता है। इस तरह भूल उत्तरपक्ष की है कि वह आगमके अभिप्रायको नहीं समझ पा रहा है और इस लिये वह आगमके अभिप्रायको विपरीत ग्रहण कर मोक्षकी प्राप्ति में व्यवहारमोक्षमार्गको सर्वथा अकिंचिरकर मान लेता है । यद्यपि प्रवचनसारके उक्त कथन में मोक्ष की प्राप्ति में वीतरागचारित्रको उपादेय और सरागचारित्रको हेय प्रतिपादित किया गया है । परन्तु कोई व्यक्ति इस कथन के आधार पर यदि सरागचारित्रको प्राप्त किये बिना हो वीतरागचारित्रको प्राप्त करना चाहे तो वह सम्भव नहीं है। इसलिये प्रवचनसारके कनका यही अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि सरागचारित्र में रहते हुए भी जब तक सरागचारित्रका अभाव करके वीतरागचारित्रको नहीं प्राप्त कर लेता सब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती है। यहाँ पर ध्यातव्य है कि जीवको वीतरागचारित्रकी प्राप्ति एकादश गुणस्थानसे पूर्व सम्भव नहीं है। दशम गुणस्थान तक तो जीवके सरागचारित्र ही रहता है, क्योंकि दशम गुणस्थान तक संज्वलन सूक्ष्मलोभ के रूपमें कषायका उदय विद्यमान रहता है ।
४. प्रश्नोत्तर ४ के तृतीय दौरकी समीक्षा
तृतीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौर में उत्तरपक्ष के प्रथम और द्वितीय दौरोंकी आलोचना करते हुए अन्य आगम प्रमाणों के आधारपर भी अपनी इसी मान्यताको पुष्ट किया है कि - "व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है" ।
तृतीय दौर में उत्तरपक्षकी स्थिति और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने सूलीय दौर में पूर्वपक्ष के द्वितीय और तृतीय दौरोंकी आलोचना करते हुए अपनी "व्यवहारधर्म विश्ववधर्ममें साधक नहीं है" इस मान्यता की पुष्टिमें उसी ढंगको अपनाया है जिस ढंगको
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जयपुर (खानथिा) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उसने अपने प्रथम और द्वितीय दौरों में अपनाया था। अतः प्रथम और द्वितीय दौरोंकी समीक्षासे ही प्रायः उसके तृतीय दौरकी समीक्षा हो जाती है । फलतः यहाँ उसकी समीक्षा मथावश्यक रूपमें ही की जाती है। उत्तरपक्षके "उपसंहार" शीर्षकसे किये गये विवेचनको समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरके आरम्भमें त. च० पृ. १४४ पर “उपसंहार" शीर्षकसे जो विवेचन किया है उसकी समीक्षाके प्रशंगमें यहाँ इतना स्पष्ट करना आवश्यक है कि जहाँ उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दौरमें व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सापक असद्भूत-व्यवहारनपसे बतलाया है वहां पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौर में व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सापक सद्भूतव्यवहारनयसे बतलाया है। उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक असद्भूतव्यवहारनवमे क्यों मानता है और पूर्वपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक सद्भुतव्यवहारनयसे क्यों मानता है इन दोनों बातों को द्वितीय दौरकी समीक्षामें स्पष्ट किया जा चुका है अर्थात उत्तरपक्ष जीवके राहायोगसे होनेवाली शरीरकी यथायोग्य क्रियाको व्यवहारधर्म मानता है, अतः उसकी दृष्टिमें व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका माधक असद्भुतव्यबहारनयसे सिद्ध होता है । तथा पूर्वपन शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी यथायोग्य क्रियाको व्यवहारचर्म मानता है, अतः उनकी दृष्टिमें व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका सापक सद्भूतव्यबहारनवसे सिद्ध होता है। दोनों पक्षोंकी इन मान्यताओं से पूर्वपक्षको मान्यता ही सम्यक है, इस बातको प्रश्नोत्तर २ की समीक्षासे समझा जा सकता है।
अब यहा नललाना जा रहा है निः पूर्भपा दावहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक सद्भूतस्यवहारनपसे इसलिये मानता है कि मोहनीयकर्मको उन-उन प्रकृतियों का अथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर जीवको भावनती शक्तिका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है उसे आगममें यथायोग्य निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चपराम्परज्ञान और निश्चयसम्यक्वारित्ररूप निश्चयधर्म कहा है व आगममें यह भी कहा है कि हृदयके सहारेपर जीवको भावयत्री शक्तिका अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक जी तत्त्वश्रद्धानरूप शुभ परिणमन होता है यह व्यवहारसम्यक् दर्शन है। तथा मस्तिस्कके सहारेपर जोवकी भावनती शक्तिका अतत्वज्ञानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक जो तत्त्वज्ञानाप शन एरिणमन होता है वह व्यवहारसम्बज्ञान है । एवं जीवकी भाववती पाक्तिके तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानरूप उक्त शभ परिणमनोसे प्रभावित जीवकी नियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक अशुभ प्रवृत्ति से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति
और कायगुप्तिरूप निवृत्तिपूर्वक जो शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होता है वह व्यवहारराम्यचारित्र है । इस तरह व्यवहारधर्म निश्चयधर्मसे भिन्नताको प्राप्त होकर मी निश्चयधर्मके समान जीयका परिणाम सिद्ध होनेसे उसे पूर्वपक्ष द्वारा निश्चयधर्मका साधक सद्भूतव्यवहारनपसे बतलाना युक्त है ।।
___ उत्तरपक्षने अपने उक्त विवेचनमें जो वह कहा है कि "व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका सहचर होनेसे अनुकूल है, इसलिये इसमें मोक्षमार्गके साधकपनेका व्यवहार किया जाता है ।" इसके संबंध में द्वितीय दौरकी समीक्षा, स्पष्ट कर चुका हूँ कि घ्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोशमार्गका साधक सहचरताके आधारपर मान्य न होकर निश्चयोक्षमार्गकी उत्पत्तिमें सहायक होनेके आधारपर ही मान्य है। इसी तरह उत्सरपक्षने अपने उक्त कथनमै व्यवहारमोक्षमार्गमें निश्चयमोक्षमार्गक साधकपनका व्यवहार अनुकुलताके आधारपर करने की जो बात कही है इससे तो व्यवहारमोक्षमार्गका निश्चयमोक्षमार्गके प्रति साधकपना उत्तरपक्षको मान्य कल्पित अर्थात् आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा असद्रूप सिद्ध न होकर पूर्वपशको मान्य सद्प ही सिद्ध होता है, क्योंकि अनुकूलशब्दके प्रचलित अर्थ के अनुसार व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चममार्गकी उत्पत्तिमें सहायक होने
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
२८९ रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध होता है । अतः इस आधारपर व्यवहारमोक्षमार्गमें निश्चयमोक्षमार्गके प्रति गायकापनेका व्यवहार फल्पित अर्थात् कथनमात्र सिद्ध ग हैशास्तविक ही सिद्ध होता है। उत्तरपक्षक "प्रतिशंका ३ के आधारसे विवेचत" किसे किये गये वाथनों की समीक्षा
(१) उमरपक्षने तरच. पृ० १४४ पर ही "तत्काल प्रतिशंका ३ केभाषा से वृती पर विचार करना है" इत्यादि जो अनुच्छेद लिखा है उसमें उसने अपने प्रथम दौर में प्रागुन निवभसारको गाथाओं का प्रकृत विजय के साथ संबंध स्थापित करनेका इसलिये प्रयत्न किया है कि पृपिने सपने हनीय में इस संबंधका निषेध विधा है। परन्तु उत्तरपक्षका यह प्रयत्न निरर्थक ही 5, नयोंकि मैने प्रथम कारमा महिला नियमसारकी गाथाओका प्रकृत विषयक साथ सम्बन्ध न होनेवः बातको विस्तारस रपज 1741 है।
उत्तरपाने रक्त अनुच्छेद के अन्तमें जो व्यवहारधर्मको नियमधर्मका साधक तद्वारन वसभामा है वह तो ठीक है परन्तु वह पक्ष व्यवहारलय के विषयको कल्पित अर्थान् आकाशकुसमी तरह या सा मानकर व्यवहारनपको जो ऋथनमात्र कहता है वह मिथ्या है, कोंकि जनसामावलियनयानपान शब्दरूप आर ज्ञानरूप श्रुतमा का अंश है if सका विजय भी निरसन के समान दाक्षिा है । कल्पित अति आशकुसुमकी तरह सर्वथा अरान सिद्ध नहीं होता। ना
ज हा नियनयका विषय अभेदहा सत पदार्थ होता है वहाँ व्यवहारनवका विषय भवासन पदार्थ ITE नहीं निष्पनयका विषय स्थापित रात पदार्थ होता है वहाँ कपबहारनयका शिपा याला है। और जहाँ निश्मयनयका विषय भूतार्ग अर्थान् मुख्यरुप सा पदार्थ हाना वा सामान :: HA अभतार्थ अर्थात उपचरितरूप सत् पदार्थ होता है।
इरा विपकको उदाहरणों के द्वारा इस तरह स्पष्ट किया जा सकता कि यदि निश्ननामा जीयान अभेशात्मक सनहा तन्य धर्म है तो व्यवहारनाएका विपय जीव के मेदात्मक गदका दर्शन, बार नारिन में नीनों धर्म है। दर्शन, ज्ञान और नारिय सदरूप इसलिये है कि ये सदानन्याहु व ये CATE: विषय इसलिये हैं कि नो मान है बह जाग और चारित नहीं है, जो जान है ब शंग और जारि । ना और 'नो नारित्र है वह दर्शन और ज्ञान नहीं है। इसी तरह पदि निश्चयनय किया जप, दाग या गोपनमा आधरसर निष्पन्न जवके स्वाथिक्ष औरमिक, आयिक आरसायनयमिड सामानभत पदका धर्म है नो व्यवहारनयका विषम जी कमांदपजन्म पत्रित आf अल विभाजन सदरूप धर्म है। और इसी तरह यदि निश्वयनका विषय जोय का ज्ञानाद गण। साय पवाः सत्य तादात्म्प सम्बन्ध है तो व्यवहारजयका दिपा जीवनात अन्य पदार्थांके सा अयभार्थ भयो उसमरित मंयोग सम्बन्ध है। नात्पर्य यह है कि निश्चकनयके रामान बिहारन का विषय भी बदला होता है। फलित अनि आकाशमसुमनो तरह सर्वथा अरादा नहीं होता। परन्तनिश्च मन ना विगययाः अंगी मद्रूाता है उससे भिन्नापारहारनपके विषय ही साता है। इसमें निर्णत होता किनिय और व्यवहार दोनों नय सत् पदार्थको ही ग्रहण करते है। फलतः उत्तरपक्षया अनहारनमको कथनमा मानना मिथ्या है।
प्रकृति में निश्चय और व्यवहारनयों का समन्वय इस प्रकार होता है कि निश्चयधर्म और मोक्षम विद्यमान माव्य-राधिकमा यथार्थ सत है, क्योंकि निश्चयत्रम मोक्षका स्त्राश्रित और साक्षा कारण है अताव
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यह साध्य-साधकभाव निश्ववनयका विषय है । इसके अतिरिक्त व्यवहार का मोक्ष के साथ जो साध्यसाधकभाव है वह अयथार्थ अर्थात् उपचरित सत् है, क्योंकि व्यवहारधर्म मोक्षका स्वाश्रित और साक्षात् कारण न होकर पराश्रित और परम्परया कारण होता है अर्थात् व्यवहारमोक्षमार्ग मोक्ष के स्वाश्रित और साक्षात् कारणभूत निश्चयमोक्ष मार्गका कारण होकर हो मोक्षका कारण है । अतएव व्यवहारथर्म और मोक्षमें विद्यमान साध्य साधकभाव उपचरित सत् होनेसे व्यवहारनयका विषय है । यद्यपि व्यवहारधर्मका निश्चयधर्मके साथ साक्षात् साध्य-साधकभाव है, परन्तु निश्चयधर्म पूर्वोक्त प्रकार स्वाश्रितधर्म है और व्यवहारघ पूर्वोक्त प्रकार पराश्रित है इसलिये निश्चयश्रर्म और व्यवहारधर्म में विद्यमान साध्य साधकभाष साक्षात् होनेपर भी व्यवहारका ही विषय हैं ।
यहाँ यह व्यातव्य है कि मोक्ष और निश्चयधर्ममें विद्यमान साध्य - सावकभाव इस प्रकारका है कि भव्य जीवको गोकी प्राप्तिनिश्वधर्मपूर्वक ही होती है। तथा निश्चयधर्मकी प्राप्ति होनेपर उसे मोक्षकी प्राप्ति नियमसे होती है। निश्त्तयधर्म और व्यवहारधर्म में विद्यमान साध्य साम्रकभाव इस प्रकारका है कि भाजीवको निश्चयधर्म की प्राप्ति तो व्यवहार धर्मपूर्वक ही होती है, परन्तु व्यवहारधर्मपर आरूढ़ भव्यजीवको निश्वयधर्मकी प्राप्ति होना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं है। इसका कारण यह है कि व्यवहारधर्मपर आरूढ़ भव्य जीवको निश्चयधर्मकी प्राप्ति तभी होती है जब उसमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियों का विकास होनेपर का भी विकास हो जाता है। फलतः करणलब्धिका विकास निश्चयधर्म की प्राप्ति में अनिवार्य कारण सिद्ध होता है । यही कारण है कि अभव्य जीव में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्बियों का विकास होनेपर भी उसकी अभव्यता के कारण जन करणलब्धिका विकास सम्भव नहीं है तो उसे निश्चयधर्म की प्राप्ति नहीं होती है। इससे निर्णीत होता है कि व्यवहारधर्मपर आरूढ़ होनेपर निश्चयधर्मकी प्राप्ति होना ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । इतना अवश्य है कि जिस भव्यजीव में क्षयोपशम त्रिशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास होनेपर यदि करणलब्धिका विकास हो जाता है तो उसे नियमसेविको प्राप्ति होती है। भव्य और भव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायो ब्किा तथा भव्य जीवमें इनके साथ करणलब्धिका भी विकास व्यवहारधर्म पूर्वक ही होता है, इस बातको सामान्य समीक्षा प्रकरण में बतलाया जा चुका है। इस तरह भव्य जीवको निश्चय की प्राप्ति में व्यवहारधर्म साधक सिद्ध हो जाता है। इस विवेचनसे उत्तरपक्षकी "व्यवहारधर्म निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती हैं" यह मान्यता निरस्त हो जाती है ।
उत्तरपक्षने अपने उक्त अनुच्छेद के अन्त में जो यह लिखा है कि "व्यवहारधर्म को उसका साधक व्यवहारनयसे ही माना जा सकता है। यह परमार्थ कथन नहीं हूँ" सो उसका यह लेख पूर्वपक्ष को इस रूप में तो मान्य हो सकता है कि व्यवहारधर्म जीवका परिणाम होनेपर भी एक तो भावदती शक्ति के परिणामस्वरूप हृदय या मस्तिष्कके सहारेपर तथा क्रियावती शक्ति के परिणामस्वरूप मन, वचन और काय के सहारेपर उत्पन्न होता है अतः पराश्रित है। दूसरे, वह स्वयं निश्चयधर्मरूप न होकर निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में निमित्त ( सहायक ) मात्र होता है, अतः उसे निश्वयधर्मकी उत्पत्ति में निश्चयकारण न माना जाकर व्यवहारकारण ही माना जा सकता है । परन्तु उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको एक तो पराश्रित होनेसे जीवका परिणाम नहीं मानना चाहता है। दूसरे निश्चनधर्मको उत्पति उसे निमित्त मानकर भी सर्वथा अकिंचित्कर
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मानता है और इसी दृष्टि से उसने लिखा है कि "यवहारधर्मको उसका सावक व्यवहारनयसे ही माना जा सकता है, यह परमार्थ कथन नहीं है" । सो उत्तरपक्षका यह लेख आगमविरुद्ध होनेसे पूर्वपक्षको मान्य नहीं है, क्योंकि भव्य जीव आगमके अनुसार जबतक हृदयके सहारेपर होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप अतत्त्वश्रद्धानसे और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप अतत्त्वज्ञान एवं इनसे प्रभावित क्रिमावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक कम-से-कम संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्त होकर उसी प्रकारसे भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानपूर्वक क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभ प्रवृत्तिमें संलग्न नहीं होता तब तक वह अपने में निश्चयधर्मको उत्पन्न नहीं कर सकता है ।
यहाँ ये बातें भी विचारणीय है कि उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मको उत्पत्तिमें व्यवहारनयसे साधक मानकर भी जब उस व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें सर्वथा अफिविस्कर ही स्वीकार करता है तो ऐसी स्थिति में उसे हार्मको निनामकी उत्पत्तिम व्यवहारमयसे साधक कहनेकी किस लिये आवश्यकता हुई ? यद्यपि उसका कहना है कि निमित्तका ज्ञान कराना उस कथनका प्रयोजन है। परन्तु जब वह निमित्तको कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिंचित्कर मानता है तो उसे उस कार्योत्पत्तिके अवसरपर निमित्तका ज्ञान फरानेकी भी आवश्यकता क्यों हई ? और यदि यह कार्योत्पत्ति में निमित्तका ज्ञान कराना आवश्यक समझता है तो फिर वह निमित्तको कार्योत्पत्ति में सर्वथा अकिचितकर कहनेका माहस कसे कर सकता है?
(२) उत्तरपक्षने त घ• पृ० १४५ पर जो यह अनुच्छेद लिखा है कि अपने दूसरे पत्रकमें अपरपक्षने प्रवचनसार आदि अनेक ग्रन्थों के प्रमाण दिये हैं' इत्यादि । इसमें उसने पूर्वपक्ष द्वारा अपनी मान्यताके समर्थन में द्वितीय दौरमें प्रस्तुत प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंके प्रमाणोंके आधारपर निश्चय और व्यवहार धर्मों के साध्य-साधकभावों को स्वीकार करके भी उसी अनुच्छेदमें आगे जो यह लिखा है कि "किस नयसे उक्त शास्त्रोंमें ये प्रमाण उपस्थित किये गये हैं और उनका आशय क्या है? इस विषय में उसने एक दाब्द भी नहीं लिखा है ।" सो इस सम्बन्ध में उसे (उसरपक्षको) यह ज्ञात होना था कि पूर्वपक्षने तक च० पृ० १३४ गर स्पष्ट लिखा है कि "आपके उस कथनपर हमने प्रथचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया था कि व्यवहारधर्म (व्यवहाररत्नत्रय) साधक है और निश्चयधर्म (निश्चयरलत्रय) साध्य है" तथा इसका स्पष्ट आशय यही है कि व्यवहाररत्नत्रवस्वरूप व्यवहारधर्म निश्चयरत्नत्रयस्वरूप मिश्चयवर्म की उत्पत्तिमै निमित्त (सहायक) रूपसे साधक है । साथ ही पूर्वपक्षने निश्चय
और व्यवहार दोनों धर्मोंके साध्य-साधकभावको सद्भुतम्यवहारमयका विषय भी स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है। फलतः उत्तरपक्षका "विस नगते उक्त शास्त्रोंमें ये प्रमाण उपस्थित किये गये हैं और उनका आणय या है ?" इत्यादि धन निरर्थक सिद्ध हो जाता है
उत्तरपक्षने उक्त अनुच्छेदमें आगे जो यह लिखा है कि "हमारी दृष्टि नयदृष्टि से उनका आशय स्पष्ट करनेकी है जबकि अपरपक्ष उस स्पष्टीकरणको उपेक्षाकी दृष्टि से देखकर उसका अवलेलना करता है" । इस लेखसे उत्तरपक्षने अपने त च० ५० १३२ पर निर्दिष्ट "इस सम्बन्धी प्रतिशंकामें प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रहके विविध प्रमाण उपस्थित कर जो यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक है सो यह कथन असद्भुत व्यवहारनयकी अपेक्षा से ही किया गया है। इस कथनका ही संकेत दिया है। इस तरह उत्तरपक्षने अपने उपत लेखसे यह बतलाना चाहा है कि प्रवचनसार आदि उक्त
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आगम प्रमाणों में हारकर्मको निश्चयत्रका सावक असद्भूत व्यवहारनयसे ही कहा गया है। सी इससे तो यही निर्णत होता है कि दोनों के मध्य निश्चय और व्यवहार मोकामागोंमें स्वीकृत साध्य साधकभावको व्यव हारन मान्य करनेमें विरोध नहीं है क्योंकि उस साध्य साधकभावको पूर्वपक्ष भी निश्चयनयसे नहीं मानता है । इस दोनों पक्षोत्रे मध्य विरोध केवल इस बातका है कि जहाँ पूर्वपक्ष व्यवहार और निश्वय दोनों में स्वीकृत गाय भाव सद्भूतव्यवहारनवसे मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उस साध्य-राध्यक भावको समापने गानता है। इसलिये केवल यहीं बात विचारणीय रह जाती है कि उस गों तमनं स्वीकृन् राज्य-सायकमायको असद्द्भूतव्यवहारनपसे माना जाये या सद्भूतभ्यवहारयसे माना जाये या दोन हो उप माना जायें ? इन तीन विकल्पों में से कौन-सा विकल्प प्रमाणसम्मत है, इसका निर्णय यहां सवार गाथा ५१. ९५ और ८७ के आधारपर किया जाता है ।
है कि मिध्यात्व अज्ञान, यह बतलाया गया है कि
सारगामा ५१ में कहा गया है कि राग, द्वेष और मोह जीवके नहीं हैं और गाथा ५५ में गुष्ट कर लिया गया है कि पुद्गल है। परतु गाधा ८७ में यह बतलाया अरिति माह और क्रोध आदि भाव जीवके हैं। इनमें गाथा ५१ में जो राग द्वे के नहीं है। अभिप्राय यह है कि युद्धयकी दृष्टिसे विचार किया जाये तो राग द्वेग और मोह जीवके नहीं हैं अर्थात् वे जीवके अखण्ड चैतन्य समान स्वतः सिद्ध अनादिनिधन स्वभावभुत नहीं है। ना गाथा ५ में जो यह बतलाया गया है कि राग, द्वेष और मोह वृद्गल के हैं । इसका अगद्गृत अवहार पुद्गल है अर्थात् पुद्गलकर्मक उदयकी महायनारी ही जीवन है और माया ८७ में जो यह बताया गया है कि राग, द्वेष और मोह जीवके है | इनका वायं हि सद्भूत व्यवहारजयसे जीवके हैं अर्थात् पुद्गलवार्म के उदयकी सहायता मात्र मिलनंबर परिणत होता है । इसी तरह जिस प्रकार विश्चय जीवका स्वाश्रित परिणमन है उनान्प्रकारका स्वाश्रित परिणमत नहीं हैं, इसलिए जिस प्रकार निश्चयधर्म विश्वका विषय है उस प्रकार व्यवहारधर्म निश्चयका विषय नहीं है, अपितु परकी महायतासे उत्पन्न
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यह जहां अगद्हूत व्यवहारनयका विषय है वहीं परकी सहायतारो उत्पन्न होनेपर भी दह पति जेता ही है, इसलिए वह सद्भूत व्यवहारनयका भी विषय है तथा ऊपर यह भी बतलाया ना है कि विश्व के प्रति साक्षात् सहायक कारण होता है, अतः निश्चय के प्रति उसकी वह नाश्वात् राहायक कारणता अनुपचतिरूप में सद्भूत होनेसे अनुपचारित भभूत व्यवहारनयका विषय है और मोदा के प्रति व्यवहारथमं परम्परया कारण होता है। इसलिए मोक्षके प्रति उसकी यह परम्परथा सहायकका पता उपनतिरूपमें सद्भूत होनेसे उपचरित राभूतव्यवहारनयका विषय है व अनुपचरितसद्भूतबहारभवभूत वह अनुपचरितद्भूतायकारणता तथा उपचरितमभूतव्यवहारकी विद्यधभूत वह पचतिराहा ककारणता दोनों ही सद्भूत हूँ। कल्पित अर्थात् आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा १. श्रीरस्य णत्थि रागो ण वि दोस्रो व विज्जद मोहो ।
णो पच्चय ण कम्मं शोकम्मं चादि से गत्थि ॥५१॥ २. जीवट्टणाय गुणट्टणा व अस्थि जीवस्य ।
जंग एवं सब्बे पुग्गलवस्त परिणामा ॥५५॥ ३. मिच्छतं पुरा दुविहं जीवमजीव तहेब अष्णर्ण ।
अविद जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा || ८७३ |
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असद्भुत नहीं है। उत्तरपक्ष तो उक्त दोनों प्रकारको सहायक कारणताओंको कल्पित अति आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा अगदमत ही मानता है और इस आवारपर हो वह उन दोनों प्रकारको सहायककारणताओंको असद्भुत व्यवहारमयका विषय मानता है, जो आगम विरुद्ध है। अतः पूर्वपक्ष उसका विरोध करता है।
उपर्वत विवेचनस स्पष्ट होता है कि व्यवहारधर्म अपनी सापेक्ष सद्भूत व्यवहाररूपता और अराद्भूतश्यवहाररूपताके आधारपर क्रमशः सद्भूत और असद्भुत दोनों प्रकार के व्यवहारनयोका विषय है, इरालिए उत्तरपः: मानये मा भाग मानकर देश लगभृतव्यवहारमका विषय मान्य किया जाना अयुक्त है। इसी तरह उपक्त विवेचनसे यह भी स्पष्ट होता है कि व्यवहारधर्मका निश्चयंवर्मके साय स्वीकृत भाष्य-राधिकभाव मपनी अनुपचारितस तव्यवहाररूपताके भावारपर अनुपचरितसदभूतव्यवहारनयका विषय है व उरारे ज्यबहारसमका मोक्षके साथ स्वीकृत साध्यापकभाव अपनी उपचरितसद्भुतम्यवहाररूपताको आधारपर उपचन्तिराद्भूतन्यवहारनपका विषय है। इसलिए उत्तरपक्ष द्वारा इन दोनों प्रकार के राश्य-साधकभावोंको असद्भूतव्यवहाररूप मानकर असद्भूत व्यवहारनयका विषय मान्य किया जाना भी अयुक्त है । अतः उत्तरपक्षका प्रकत अनुच्छेदमें किया गया यह कायन वि. "हमारी धाट हो नमदृष्टिसे उसका आशय स्पष्ट करनेकी है"-असंगत सिद्ध हो जाता है और इस कथनके अमगत सिद्ध हो जानेगे, उसने वहींपर आगे जो यह कथन किया है कि "अपरपक्ष उस स्पष्टीकरणको उपेक्षाकी दृष्टि से देखकर उसकी अवहेलना करता है" यह भी असंगत सिद्ध हो जाता है। तथा इस कथनके भी असंगत सिद्ध हो जानेसे उसने वहींपर आगे जो यह कथन किया है कि क्या इसे ही परमप्रमाणभून, मृलसंधक प्रतिटापक यो कुन्दकुन्दाचार्य तथा अन्य आध्यात्मिक आचार्योंके आर्षवाक्योंको परमथनाल कौर तत्त्वत्रत्ता बनकर । स्वीकार करमा कहा जाये :" यह कथन भी असंगत सिद्ध हो जाता है।
इस विषयमें मेरा यह भी कहना है कि पूर्वपक्षने त० च० पृ० १३४ पर "आपके उस पत्रकार हमने प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया था कि कावहारधर्म (व्यवहाररत्नत्रय) साधक है और निश्चयधर्म (निश्चयरत्नत्रय) माध्य है" इस कथनके आगे जो यह कथन किया था कि “परमप्रमाणभूत, मूलसंघवे, प्रतिष्ठापक थी कुन्दकुन्दाचार्य तथा अन्य आभ्यास्मिक प्रमाणिक आचार्योक आप प्रमाण देखकर जिनवाणीका श्रद्धालु और तत्ववेत्ता नतमस्तक होकर उन्हें स्वीकार कर लेता है। ऐसी हो आशा आपसे भी थी। इसको लक्ष्यमें लेकर उत्तरपक्ष ने पुर्वपक्षवा उपहारा , करनेकी दृष्टिसे ही उक्त कथन किया है, सो उसकी इस उपहास करनेको दृष्टिको उपयुक्त आगमव्यवस्था को देखते हुये अशोभनीध ही कहा का जा सकता है ।
उत्तरपक्षन्ने प्रकृत अनुच्छेदमें ही आगे जो यह कथन किया है वि. 'पूर जिनागमको दृष्टि में रखकर जरावे हादको समझकर कल्याणवे. मार्ग में लगा जाये. यह हमारी दम्टि है और इसी दक्टिसे प्रत्येक उत्तरमें हम यथार्थका निर्णय बारमा प्रयत्न करते आ रहे हैं। अपरपक्ष भी इसी मार्गको स्वीकार कर ले, ऐसा मानस है। स्व-परवेः कल्याणका यदि कोई मार्ग है तो एक मात्र मही है। इसमें उसने जो जिनागमके हार्दको समझकर कल्याणके मार्ग में लगनेकी अपनी दृष्टि बतलाची है उसके सम्बन्ध विशंप कुछ न कहकर केवल इतना ही कहना पप्ति है कि कल्याणके मार्गपर वही व्यक्ति चल सकता है जिसके पुण्यकमोथे उदयके साथ कषायों की अत्यन्त मन्दता हो। यदि उत्तरपक्षकी यही स्थिति है तो वह स्वागत योग्य है, क्योंकि जो कल्याणके मार्गपर चलेगा उसका कल्याण होना निश्चित है और जो कल्याणके मार्गपर नहीं चलेगा
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उसका अकल्याण होना निश्चित है। तथा अपनी कल्याणके मार्गपर चलनेको दृष्टि बतलाने के अनन्तर उत्तरपक्ष ने जो पूर्वपक्षको उपदेश दिया है उसे भी में अनुचित नहीं मानता है, क्योंकि खानिवामें जो तत्त्वका आयोजन श्री १०८ आवार्य शिवसागर जी महाराज के तत्वावधान में स्व० प्र० सेठ हीरालालजी पाटन निवाई वालोंके आर्थिक सहयोगके बलपर म० लाइमलजीने किया था उसका भी मूल उद्देश्य कल्याणके मार्गको समझने और समझानेका ही था तथा दोनों ही पक्ष अपने अन्तःकरण में इसी भावनाको रखकर काशा और विश्वासके साथ बड़े उत्साहवे उसमें सम्मिलित हुये थे । यह बात अवश्य है कि चर्चा प्रारम्भ होते ही उत्तरपक्ष के हृदयमें पक्षव्यामोह उत्पन्न हो जानेसे उसको नीति में जो परिवर्तन आ गया था
उसके कारण वह आयोजन उद्देश्य की पूर्ति में सफल नहीं उत्तरपक्ष के द्वारा अपनाई गई प्रक्रियापर ध्यान देनेसे ज्ञात अन्य भी की है।
सका। मेरे इस कथन की वास्तविकता तत्त्वचर्चा में जाती है। उसकी इस प्रक्रियाको आलोचना
इसी
(३) पूर्वपक्षनेत० च० पू० १३४ पर जो " किन्तु आपने उन प्रमाणको स्वीकार नहीं किया और अद्भूत व्यवहारनयकी आड़ लेकर उन्हें टाल दिया है, जबकि वह कथन असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षासे नहीं है और न उसकी अपेक्षासे हो ही सकता है" यह कथन किया था। उसका उत्तर उत्तरपक्षनेत० ० पू० १४५ पर यह दिया है कि "हमने अपने दूसरे उत्तर में व्यवहारधर्मको असद्द्भूतव्यवहारनयसे निश्चय धर्मका साधक लिखकर उन प्रमाणोंको टालनेका प्रयत्न नहीं किया है। किन्तु उनके हार्दको ही रपष्ट करनेका प्रयत्न किया है।" तथा इसके आगे "व्यवहारधर्म आत्माका धर्म किस अपेक्षासे माना गया हूँ" यह लिखकर इसको स्पष्ट करने की दृष्टिसे उसने बृहद्रव्यसंग्रहकी गाथा ४५ के टीका- चचनको उपस्थित कर उसका अर्थ करते हुए आगे लिखा है कि "यह आगम प्रमाण है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि उपचरित असद्भूतव्यहारनकी अपेक्षा ही व्यवहारधर्म चारित्र या धर्मसंज्ञाको धारण करता है। वह वास्तव में आत्माका धर्म नहीं है । ऐसी अवस्था में उसे निश्चयधर्मका साधक उपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे ही तो माना जा सकता हूँ ।" सो उसका यह सब लेख संगत नहीं क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि एक व्यवहारधर्म व्यवहारसम्यग्वरूप है। दूसरा व्यवहारधर्म व्यवहारसम्यग्ज्ञानरूप है और तीसरा व्यवहारधर्म व्यवहारसम्यक्चारित्ररूप है | तथा इनमेरो जीवकी भागवती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक उसका हृदयके सहारेपर हो जो तत्वश्रद्धानरूप शुभ परिणमन होने लगता है वह व्यवहारसम्यग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म है व जीवको उसी भाववती शक्तिके मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक उसका मस्तिष्क के सहारेपर ही जो तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमन होने लगता है वह व्यवहारराम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म है। एवं जीवकी भाववती शक्तिके तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानरूप दोनों शुभ परिणमनोंसे प्रभावित होनेपर जीवको क्रिमावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृतिरूप परिणमनोंसे सर्वथा निवृत्ति पूर्वक उसी क्रियावतीशक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक आरंभी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमनोंके साथ जो उसी प्रकारके पुष्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं वे परिणमन नैतिक आचारणरूप व्यवहारसम्यक्चारित्र के रूपमें व्यवहारधर्म है एवं नैतिक आचारणरूप इस व्यवहारसम्यक्चारित्रके सद्भावमें जीवकी क्रियावती शक्तिके उक्त आरंभी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमनौरो एकदेश अथवा सर्वदेश निवृतिपूर्वक जो पुण्यमय
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१. 'शत्र योऽसौ बहिविषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितास भूतव्यवहारेण ॥'
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शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं वे भी क्रमशः देशविरति या सर्वपिरति रूप व्यवहारसम्पचारित्रके रूपमें व्यवहारधर्म है।
इस विवेचनसे सिद्ध होता है कि उक्त सभी व्यवहारधर्म यथायोग्य जीवकी भाववती अथवा क्रियावती दोनों प्रकारकी शक्तियोंके परिणमन होने के कारण सदृभूतव्यवहारधर्मके रूपमें सद्भसध्यवहारनयके विषय है। तथा जीवकी भाववती शक्तिको परिणमनस्वरूप व्यवहारपर्म यतः उदय अथवा मस्तिष्कके सहारेपर होते है व जीवकी क्रियावती शस्तिके परिणामस्वरूप व्यवहारधर्म यतः मन, वचन और कायके सहारेपर होते हैं, अतः उत्पत्तिमै पराश्रित हो जानेसे के सभी व्यवहारधर्म अनुपचारित असद्भुतव्यवहारधर्मके रूपमें अनुचरितअसदभूतव्यवहारनयके विषय है। इतना ही नहीं, व्यवहारसभ्यम्दर्शन और व्यवहारसम्परज्ञान रूप दोनों व्यवहारधर्म जीवादि बाह्य पदार्थोके प्रधान और ज्ञानरूप होनेसे तथा व्यवहार सम्यक चारित्ररूप व्यवहारधर्म पंचेद्रियोंके विषयभूत बाह्य पदाथोंके त्यागरूप होनेसे यथायोग्यरूपमें बाध पदार्थोके सापेक्ष होनेसे वे सभी व्यवहारधर्म उपचरितमसद्भूतव्यवहारधर्मके रूपमें उपचरितअसद्भूतव्यवहारनयके भी विषय है।
इस तरह उक्त सभी व्यवहारश्रम जीवकी यथायोग्य भाववती अथवा क्रियावती शक्तियों के परिणमन होनेसे यतः जीवके ही परिणमन है, अतः उनका जीवक्री भाववती शक्तिका परिणमन होनेसे जीवके परिणामस्वरूप निश्चयधर्मके साथ स्वीकृत साध्व-साधकभाव अनुपचारित सदभूत व्यवहारके रूपमें अनुपरितस तव्यवहारनयका विषय हो जाता है व उनका जीवकी भावबती शक्तिका परिणमन होनेसे जीवके परिणामनस्वरूप मोक्ष के साथ स्वीकृत साध्य साधक भाव उपचरितसद्भूतव्यवहारके में उपचरितसद्भूतव्यवहारनयका विषय हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए ।
इस विषयको उदाहरणके आधारगर इस तरह समझा जा सकता है कि घटकार्य तो एक है, परन्तु वह उपादानकारणभूत मिद्रीकी अपेक्षा उपादेय है और उसकी उत्पत्तिमें जिन मुख्य अघवा पर्यायरूप निमत्तोंकी सहायता आवश्यक है उनकी अपेक्षा वह नैमित्तिक भी है। इतना ही नहीं, निमित्तोंकी विविधरूपताके आधारपर बटकी वह नैमित्तिकता विविध रूपताको भी धारण किये हुए है। यतः उपादानकारणभूत मिट्टी घटरूप परिणत होती है अतः वह घटकी उत्पत्ति में निश्चयकारण है। तथा वह मिट्री क्रमशः स्थास, कोश और कुशूलरूप परिणत होतो हुई ही घटरूप परिणत होती है, अतः घटको उत्पत्तिमें मिट्टीको वे स्थास, कोश और कुशूल पर्यायें सद्भुतन्यवहारकारण है। इतना ही नहीं कुशूलपर्याव घटसे अव्यवहित पूर्वकालवर्ती पर्याय होमेसे घटोत्पत्ति में साक्षात् सद्भूतव्यबहारकारण होनेसे अनुपचरितसद्भूतव्यवहारकारण है । कोपर्याय शलपर्यापसे अव्यवहित पूर्वकालवी पर्याय होनेसे घटोत्पत्तिमें परम्परया व्यबहारकारण होनेसे उपचरितराभूतत्र्यवहारकारण है और स्थासपर्याय कोशपायसे अव्यवहित पूर्वकालवर्ती पर्याय होनेसे घटोत्पत्तिमें दुहरी परम्पराक रूपमें रादतव्यवहारकारण होनेसे उपचरितोपचरितसद्भत व्यवहारकारण है । फलतः घटोत्पत्तिके प्रति मिट्टी में विद्यमान निश्चयकारणता निश्चयनयका विषय होती है। कुशलपर्यायमें विद्यमान अनुपरितसद्भूतव्यवहारकारणता अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनयका विषय होती है। कोशपर्यायमें विद्यमान उपचरितसदृभतव्यवहारकारणता उपचरितसद्भुतव्यबहारनयका विषय होती है और स्थासपर्यायमें विद्यमान उपचरितोपचरितसद्भतव्यवहारकारणता उपचरितोपचरितसद्भुतव्यवहारनयका विषय होती है। इसी तरह इस अवस्थाके आधारपर घटकार्यमें उपादानकी अपेक्षा
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उपादेयता और निमत्तोंकी अपेक्षा नैमित्तिकता सिद्ध होकर निमित्त कारणों की विविधरूपताके आधारपर उस घटकी नैमित्तिकताकी विविधरूपता भी सिद्ध हो जाती है व घट में विद्यमान उस उगादेयताकी निश्चयनविषमता तथा उसी घट में विद्यमान नैमित्तिकताकी भी उस-उस रूप सद्भुतब्यवहारनविषयता भी सिद्ध हो जाती है। ऐगी हो सद्भूतब्यवहाररूप कार्यकारणभावव्यवस्था घट कार्य के साथ मिट्टी की स्थास, कोश और कुशलपर्यायोंकी क्षण-क्षणमें होनेवाली पर्यायोंकी अपेक्षा भी ममा लेना चाहिए तथा उनकी यथायोग्य सदभूतव्यवहारनयविषयताको भी इसी तरह समश लेना चाहिए।
यहाँ जिरा प्रकार मिट्टीने होने वाली घटोत्पत्तिमें मिट्टीकी ही स्यासादि स्थूल और सूक्ष्म पर्यायोंकी अपने-अपने ढंगसे राद्भुतव्यवहारकारणता और उसकी नयविषयताका प्रतिपादन दिया गया है उसी प्रकार जीवमें होनेवाली निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में 'जीवी ही व्यवहारधर्मरूप' पर्वायकी सद्भूतव्यवहारकारणताका और उसकी नयविश्यताका प्रतिपादन समझ लेना चाहिये।
यहाँ प्रसंगवश यह बात भी स्पष्ट करने योग्य है कि मिद्रीसे जो घटको उत्पत्ति होती है वह यद्यपि उपर्यत प्रकार स्थूलरूपरो मिट्टोको स्थास, कोचा और कुमालपर्यापों के क्रमिक विकास पूर्वक तथा सूक्ष्मरूपसे इन स्थान, कोश और कुशल पर्यायोंको क्षण-क्षणवर्ती पर्यायोंके क्रमिक विकास पूर्वक की होती है । गन्तु खानमें अथवा घटोत्पत्तिको क्षेत्रमें पड़ी हुई मिट्टीको प्राकृतिक हंगले प्राप्त बाय निमित्तों के सहयोगरा जो पनि सतत होती रहती हैं उन पर्यायों के समान मिट्टी की वे स्थास, कोश, कुशूल और घट रूप स्थूल पायें
और इन स्वात, कोश, कुमार और स्टाय पर्यायोंमें अन्तर्मग्न क्षण-क्षणयर्ती पर्वायें भी अनायास प्राप्त बाम निमित्तों के सहयोगसे ही हो जाती हों, ऐसा नहीं है अथवा मिदीकी स्वप्रत्यय पर्यायों की तरह बाह्य निमित्लोमा सहयोग के बिना हो जाती हों, ऐमा भी नहीं है। अपितु बुम्भकार द्वारा संकल्पपूर्वक तदनुकूल क्रियाव्यापार किये जाने पर ही होती हैं और जब तक कुम्भकार अपना तन्नुकूल क्रियान्यापार नहीं करता तब तमा मिट्टीमें ग पोंका उत्पन्न होना संभव नहीं है । इससे स्पष्ट है कि मिट्टी में उन पर्यायोंके उत्पन्न होने के लिए कुम्भकारका तदनुकूल क्रियाव्यापार अपेक्षित रहता है । अर्थात मिट्टी में घटोत्पत्तिके अवसरपर जो प्रथमतः स्थामपर्यायका, इसके पश्चात कोशपर्यायका और हमके भी पश्चात कुशलपर्यायका विकास हो जाने पर घटपर्यायका विकास होता है। वह सब निकास कुम्भकारका तदनुकूल क्रियाव्यापार चालू रहते ही होता है और इमलिये हो यह माना जाता है कि मिट्टी में रथाससे लेकर वट पर्यन्त क्रमशः होने वाली उन स्थास, कोश, कुशल और घटः पर्यायों तथा उनकी क्षण-क्षणवती पर्यायों की उत्पत्ति तदनकल क्रियावयापारमें प्रवृत्त बृम्भकार का राहयोग रहते ही होता है, अन्यथा नहीं । इतना अवश्य है कि जिस प्रकार उन पर्यायोंमें मिट्टीका प्रवेश रहता है, या के पर्या मिट्टीमें प्रविष्ट रहतो हैं उस प्रकार उन पर्यायोंमें तदनुकल क्रियाध्यापारमें प्रवस कुम्भकारका प्रवटा नहीं होता था ये पर्याचं उस कुम्भकारमें प्रविष्ट नहीं होती। अतएव मिट्टीकी उन पर्यायों के विकासमें उरा कुम्भवारको अराद्भूत व्यवहार कारण माना जाता है । इसके अतिरिक्त कुम्भकाका वह क्रियाव्यापार नगणशील चक्रक सहयोगसे होता देखा जाता है और चक्रका' वह भ्रमण तदनुफल क्रियाशील दाटी सहयोगी होता देखा जाता है, अतः यह भी माना जाता है कि कुम्भकारके उस क्रियाव्यापार में भ्रमणशोल चक्र असदभूत व्यवहारकारण है और चक्रके उस भ्रमधमें अयनुकूल क्रियाशील दण्ड असदभूत व्यवहारकारण है। यदि मिट्टीकी उन प्रर्यायोंकी उत्पत्तिको अपेक्षा विचार किया जाय तो इनकी इरा असदगत व्यवहारकारणतामें यह अन्तर भी पाया जाता है कि पिट्रोमें मन पर्यायोंकी उत्पत्ति में साक्षात् अनतन्यवहारकारण होनेसे कुम्भकार अनुपचरितअसद्भुतव्यवहारकारण है, चक्र
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पांका-समाधान ४ की समीक्षा
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परम्परया असद्भूतकारण होनेसे उपचरितअसद्द्भूतव्यवहारकारण है और दण्ड दुहरी परम्पराके रूपमें असद्भूत व्यवहारकारण होनेसे उपचरितोषचरित असद्द्भूतव्यवहारकारण है। तथा इस आधारपर कुम्भकारमें विद्यमान अनुपचरितअसद्द्भूतव्यवहारकारणता अनुपचरितअराद्भूतव्यवहारनयका विषय होती हैं । चक्र में विद्यमान उपचरितअसद्भूतव्यवहारकारणता उपचरितभसद्भूतव्यवहारनयका विषय होती है और दण्डमें विद्यमान उपचरितोषचरितअसद्भूतव्यवहारणकारणता उपचरितोपत्र रितअसद्भूतव्यवहानयका विषय होती है, ऐसा जानना चाहिये ।
यसः ऊपर यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि घटोत्पत्ति के अवसर पर मिट्टी में स्थाससे लेकरघटपर्यंन्त स्थास, कोश, कुशूल और घटके रूपमें जितनी स्थूल और उनमें अन्तर्मन सूक्ष्म पर्वायोंका क्रमशः विकास होता है उस विकासको प्रक्रिया तब तक ही चालू रहती है जब तक उस मिट्टीको कुम्भकार के तदनुकूल क्रियाव्यापारका सहयोग प्राप्त रहता है। अस: इस आधारपर यह निर्णीत होता है कि मिट्टीका वटपर्याय से अव्यवहित पूर्वरूप परिणमन हो जाने पर भी यदि कुम्भकार अपना तदनुकूल क्रियाव्यापार करना बन्द कर देता है तो उस स्थितिमें घटकी उत्पत्ति भी रुक जाती है । फलतः उत्तरक्षकी यह मान्यता कि "मिट्टी जब घटक अभ्यवहित पूर्वपर्ययरूप परिणत हो जाती है तो पटकी नियम उत्पत्ति होती है" निरस्त हो जाती है।
(४) व्यवहारघर्मके विषय में और उसका निश्चयधर्म व मोक्षके साथ यथायोग्य पृथक-पृथक रूपमें स्वीकृत साध्य-साधकाभाव के विषयमें प्रकृत प्रश्नोत्तरको समीक्षा में अब तक जो कुछ कहा गया है उससे उत्तरपक्ष द्वारा त० च० पृ० १४५ ये पृ० १५७ तक आगे जितना कथन किया गया है उसको भी समोक्षा हो जाती है, क्योंकि उस कथनमें उतरपक्षने अपनी "व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक नहीं है, इस मान्यताके समर्थन में ऐसी कोई नई बात नहीं कहीं है जिसकी अलग से समीक्षा करना आवश्यक हो । इतनी वात अवश्य है कि उसने त० च० पृ० १५६ पर यह विशेष कथन किया है कि "अपरपक्षका कहना है कि निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोग है । यह बात नही है, क्योंकि निश्चयधर्मका कथन मुख्यतः ग्रन्यानुयोगका विषय है !" तथा अपने इस कथन के समर्थन में उसने वहीं पर रत्नकरण्ड श्रावकाचार के पद्य ४६ को भी उपस्थित किया है जिसमें यह बतलाया गया है कि ब्रव्यानुयोग जीव और अर्जीव सुतत्त्वोंको तथा पुण्य और अपुण्य (पाप) को एवं बन्ध और मोक्षको विद्या आलोक (प्रकाश) के अनुरूप विस्तारता है ।" आगे उत्तरपक्ष के उक्त कथनको समीक्षा की जाती है
आगमको लौकिक और अध्यात्मिक दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । इनमेंसे लौकिक आगम जीवोंके लौकिक हितसे सम्बन्ध रखता है और अध्यात्मिक आगम जीवोंक अध्यात्मिक हितसे सम्बन्ध रखता हूँ | एवं लौकिक और अध्यात्मिक दोनों हो प्रकार के आगम प्रमाण और अप्रमाणके भेदसे दो-दो प्रकारके होते हैं। इनमें से जो लोकिक आगम जीनोंके लौकिक हितके विषयोंका सम्यक् प्रतिपादन करने में समर्थ और अचक पुरुषोंद्वारा रचा गया हो वह प्रमाण है व जो लौकिक आगम जीवों के लौकिक हिलके विषयोंका सम्यक् प्रतिपादन करने में असमर्थ है और तंत्रक पुरुषोंद्वारा रचा गया हो वह अप्रमाण है। इसी तरह जो आध्यात्मिक. आगम जीवोंके आध्यात्मिक हित के विषयोंका सम्वक् प्रतिपादन करतेमें समर्थ है तथा अवचक पुरुषोंहारा रवा गया हो वह प्रमाण है व जो आध्यात्मिक आगम जीवोंके आध्यात्मिक विषयोंका सम्यक् प्रतिपादन करमेमें असमर्थ और वंचक पुरुषोंद्वारा रचा गया हो वह अप्रमाण है । जैन संस्कृति में प्रमाणभूत आध्यात्मिक आगमके
स०-३८
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रणानयाग वहह।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा ही द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और प्रयमानुयोगके रूपमें चार भेद मान्य किये गये हैं । इनके स्वरूपको पृथक-पृथक् निम्नप्रकार समझा जा सकता है
(१) द्रव्यानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके पदार्थोंको स्वीकार करके उनके स्थत सिद्ध अतएव अनादि, अनिधन, स्वाश्रित और अखण्डस्वरूप एवं उनके स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंका विवेचन किया गया हो। इस अनुयोगको वस्तुविज्ञान भी कह सकते हैं । इसमें वस्तुतत्वके व्यवस्थापक समस्त दर्शनशास्त्रका अन्तर्भाव होता है।
वह है जिसमें जीवोंके संसारका और उसके कारणभूत कोंके उदयमें होनेवाले उपके शुभ-अशुभ परिणामों तथा जीवोंके मोक्ष और उसके कारणभूत कोके यथासंभव उपशम, क्षय और क्षयोपशममें होनेवाले उनके शुद्ध परिणमनोंका एवं उन कोंके आस्रव और बंध तथा संदर और निर्जरणका विवेचन किया गया हो । इसम धवल, जयधवल, महाववल, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार आदि अन्योंका अन्तर्भाव होता है।
(३) चरणानुयोग वह है जिसमें ज्ञानावरणादि कर्मक आस्रव और वन्धमें कारणभृत जीवोंके व्यवहारमिथ्यावर्षन, व्यवहारमिथ्याज्ञान और व्यवहारमिथ्याचारित्ररूप असम्यक् पुरुषार्थका व उन कोक संवर और निर्जरणमें कारणभूत जीवोंके व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्ररूप सम्यक् पुरुषार्थका विवेचन किया गया हो । इसमें धावकधर्म और मुनिधर्मके प्रतिपादक ग्रन्थोंका अन्तर्भाव होता है।
(४) प्रथमानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर जीवोंको असम्यक् पुरुषार्थके त्यागपूर्वक सम्यक् पुरुषार्थमें प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा देनेवाले महापुरुषोंके जीवनवृत्तों और ऐसे ही कथानकोंका प्रतिपादन किया गया हो । इसमें महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि पुराण-साहित्यका व कथा-साहित्यका अन्तर्भाव होता है।
चारों अनुयोगोंके इस पृथक्-पृथक् स्वरूपनिर्धारणसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनका अध्यात्मक साथ जो संबंध है वह पृथक्-पृथक् रूप में ही है । अर्थात् द्रव्यानुयोग जीवोंके लिए केवल आत्मस्वरूपकी पहिचानकरने में सहायक है, करणानुयोग जीवोंको उनके उत्थान और पतनका बोध कराता है, चरणानुयोग जीवोंके उत्यान और पतनमें कारणभूत उनके पुरुषार्थोका निर्देश कराता है और प्रथमानुयोग जीवोंको पतनके कारणभूत पुरुषार्थोको त्यागकर उत्थानके कारणभूत पुरुषार्थ में प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा देता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वपक्षद्वारा निश्चघमका प्रतिपादक करणानुयोगको मान्य किया जाना असंगत नहीं है, क्योंकि निरषयसम्पग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसभ्यचारित्रका नाम ही निश्चयधर्म है और ये निश्यसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयराम्यक् चारित यथायोग्य कमाके संवर और निर्जरणपूर्वक हो जीवमें प्रगट होते है। इसी तरह यह भी तथ्य है कि जैन साहित्यमें जीब, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके द्रव्यों के रूपमें जितना विवेचन पाया जाता है वह पथक है व जी. अजीय. आस्रव बन्ध. संवर. मिर्जरा और मोक्ष नामके तत्वोंके रूपमें जितना विवेचन पाया जाता है वह पृथक् है। अर्थात् द्रवरूप विवेचनको वस्तुविज्ञान कहना युक्त है और तत्त्वरूप विषेचनको अध्यात्मविज्ञान कहना युक्त है। इस तरह द्रव्यानुयोग और करणानुयोगके उपर्युक्त स्वरूप-विवे वनके अनुसार वस्तुविज्ञानको द्रमानुयोग कहना युक्त है और अध्यात्मविज्ञानको
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शंका-समाधान ४ को समीक्षा
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करणानुयोग कहना युक्त है । फलतः इस धाधारपर भी पूर्वपक्षद्वारा निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोगको मान्य किया जाना संगत सिद्ध होता है ।
स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डश्रावकाचारके पद्य ४६ में धूम्यानयोगके स्वरूपका जो विवेचन किया है उससे निश्चयधर्मका प्रतिपादक यद्यपि द्रव्यानुयोग ही सिद्ध होता है । परन्तु स्वामी समन्तभद्रका निश्चयधर्मका प्रतिपादक द्रव्यानुयोगको स्वीकार करनका आधार यह है कि उन्होंने करणानुयोगको लोक और अलोकके विभागके प्रतिपादन, व्यवहारकालके उत्सपिणी और अवसपिणी भेद तथा उत्सपिणीके दुःषमा-दुःषमा आदि छह और अवसर्पिणीके सुषमा-सुषमा मादि षट् कालोंके रूपमें होनेवाले युग-पविर्तनके प्रतिपादन एवं यथायोग्य उबलोक, मध्यलोक और अधोलोकमें विद्यमान स्वर्ग, मनुष्य, तिर्यग और नरक गतियों के प्रतिपादन तक ही सीमित रखा है । फलतः उनकी दृष्टि से तिलोयपण्पत्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और त्रिलोकशार आदि ग्रन्थोंका ही अन्तर्भाव करणानुयोगमें होता है। धवल, जयपवल, महाबन्ध, जीयकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रन्थोंका अन्तर्भाव करणानुयोगमें न होकर प्रन्यानयोगमें ही होता है जो सापेक्षदृष्टि से यद्यपि बिवादका वस्तु नहीं है । परन्तु इससे वस्तुविज्ञान और अध्यात्मविज्ञानको एक तो कदापि नहीं माना जा सकता है । इसलिये स्वामी रामन्तभद्रकी दृष्टिरो द्रव्यानुयोगके वस्तुविज्ञान और अध्यात्मविज्ञानके रूपमें दो भेद स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है । यतः आगममें यत्र-तत्र श्रवल आदि उक्त ग्रन्थोंको करणानुयोगमें भी अन्तर्भूत किया गया है, अत: अध्यात्मविज्ञान स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टि से द्रध्यानयोगका विषय होकर भी अन्य आचार्योकी दृष्टिसे उसे करणानुयोगका विषय मान्य किया जाना अयुक्त नहीं है। फलतः पूर्वपनद्वारा करणानुयोगको निश्चयधर्मका प्रतिपादक मानना भी युक्त है।
उत्तरपक्षके उक्तकथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि वह पक्ष बस्तुविज्ञान और अध्यात्मविज्ञान के अन्तरको नहीं समझ सका है और न वह आगममें प्रतिपादित व्यवहारधर्मके स्वरूप तथा स्थितिको ही समझ सका है। ऐसी अवस्थामें मही कहा जा सकता है कि वह केवल अध्यात्मके नाम पर सोनगढ़के अज्ञानपूर्ण, मिथ्या और मनघडंत मान्यताओंसे प्रभावित होकर ही तत्वचर्चा करनेके लिए तैयार हआ। यही कारण है कि वह अपने पक्षवे. समर्थन और पूर्वपक्ष की आलोचनामें तर्कपूर्ण व्यवस्थित प्रक्रियाको नहीं अपना सका तथा उसने तत्त्ववर्चाको वीतरागकथा नाम देकर भी विजिगीषुकथा बना दिया । एवं विजयकी भावनासे यदि उसे आगमका अर्थ-परिवर्तन करना भी आवश्यक समहामें आया तो उसने निःसंकोच भावसे पत्र-तत्र ऐसा भी किया है।
निष्कर्ष
प्रकृत प्रश्नोत्तरकी इस समीक्षामें निश्चय और व्यवहार धर्मोके स्वरूप और उनमें विद्यमान साध्यसाधकभावको स्पष्ट करनेके लिए जो कुछ कहा गया है उससे उत्तरपक्षको निम्नलिखित मान्यतायें निरस्त हो जाती है
(१) उत्तरपक्ष मानता है कि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी यथायोग्य कियाका नाम व्यवहारधर्म है।
पर यह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि इस संबंधमें इस समीक्षामें जो विवेचन किया गया
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा है उससे यह बात स्पष्ट है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी यथायोग्य क्रियाका नाम ही व्यवहारधर्म है। इसका तात्पर्य यह है कि शरीरके अंगभूत हृदयके सहारेपर जीवको अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो अतत्त्वश्रदान हो रहा था उसकी सर्वथा समाप्ति होकर हृदयके सहारेपर ही भाववती पातिक परिणमनस्वरूप जो तत्त्ववद्वान होने लगता है यह व्यवहारसम्मग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म है। शरीरके अंगभूत मस्तिष्वाके सहारेपर जीवको अपनी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप जो अतत्त्वज्ञान हो रहा था उसकी सर्वश्वा समाप्ति होकर मस्तिष्कवे सहारेपर ही भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो तत्त्वज्ञान होने लगता है वह व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूप में व्यवहारधर्म है। एवं शरीरके अंगभूत मन, वचन और कायके सहारेपर जीवका अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो अशुभ कियाव्यापार हो रहा था उससे यथायोग्य निवृत्तिपूर्वक मन, वचन और कायके सहारेपर ही क्रियाक्ती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो शुभ कियाध्यापार होने लगता है वह व्यवहारसम्यक्वारित्रके रूपमें व्यवहार है।
प्रसंगवश यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि शरीरका अंगभूत मन ही हृदय और मस्तिष्कके भेदसे दो प्रकारका है, इसलिये इस समीक्षामें जहाँ मनके सहारेपर होनेवाले जीवको भाववती शक्तिके परिणमन्नोंका कथन किया गया है वहाँ उन परिणमनोका कथन मनको हृदय और मस्तिष्क दो भागों में विभक्त करके पृथक-पृथक रूप में किया गया है। इसमें हेतु यह है कि जीवकी भावनती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्वश्रद्धान और अतत्त्वथद्धानरूप परिणमन अन्य है व जीवकी भाववती शक्तिके ही मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञान और अतत्त्वज्ञानरूप परिणमन अन्य है। यतः इस प्रकारका अन्यपना हृदय और मस्तिष्कके सहारेगर होनेवाले जीवक्री क्रियावती शक्ति के नियाव्यापाररूप परिणमनोंमें नहीं पाया जाता है। अतः इस समीक्षामें जहाँ हृदय और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले क्रियावती शक्तिके क्रियान्यापाररूप परिणमनोंका कथन किया गया है वहाँ उन क्रियाव्यापाररूप परिणमनोंका कथन हृदय और मस्तिकके सहारेपर पृथक्-पृथक् रूपमें महीं करके उक्त दोनों प्रकारसे होनेवाले उन परिणमनोंका कथन हृदय और मस्तिष्कसे अभिन्न मनके सहारेपर ही किया गया है।
(२) उत्तरपक्षको दूसरी मान्यता यह है कि व्यवहारधर्म जीबके लिए निवचयधर्मकी प्राप्ति होने में किचित्कर न होकर अकिंचिकर ही बना रहता है ।
मह मान्यता इस आघारपर निरस्त होती है कि इस समीक्षा में जीव होनेवाली निश्चयधर्भवी उत्पत्तिमें व्यवहारधर्मको मिट्टीमें होनेवालो घटोत्पत्ति में स्थास आदि पर्यायोंके समान सहायक होने रूपसे कार्यकारीही सिद्ध किया गया है।
(३) उत्तरपक्षकी तीसरी मान्यता यह है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्म की उत्पत्ति में असद्भूतव्यवहारकारण होता है।
__ यह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि इस समीक्षामें व्यवहारधर्मको यतः निश्चयधर्मके समान जीवका ही परिणाम सिद्ध किया गया है, अतः जिस प्रकार घटोत्पत्तिमें मिट्टीको स्थास जादि पर्याय मिट्टी के परिणाम होने से सद्भूतव्यवहारकारण होती हैं उसी प्रकार व्यवहारधर्म भी जीवका परिणाम होनेसे निश्चवधर्मकी उत्पत्तिमें सद्भूतव्यवहारकारण ही सिद्ध होता है । असद्भूतव्यवहारकारण नहीं ।
४. उत्तरपक्षको चौथी मान्यता यह है कि मिट्टी से होनेवाली घटोत्पत्तिमें स्थाससे लेकर कुशूल पर्यन्त
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
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सभी स्थुल और उनमें अन्तमग्न क्षण-क्षणवर्ती सभी सूक्ष्म पर्यायें सद्भूतव्यवहारकारण न होकर अनित्य उपादानकारणके रूप में निश्चयकारण ही होती हैं।
यह मान्यता इस माघारपर निरस्त होती है कि पूर्वोक्त प्रकार कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय विशिष्ट द्रव्यको ही अनित्य उपादानकारण मान्य किया जा सकता है, केवल कार्याध्ययहित पूर्वपर्यायको नहीं, क्योंकि कार्यरूप परिणति तो द्रव्यकी ही होती है। इतना अवश्य है कि द्रव्यको वह कार्यरूप परिणति द्रव्यके कार्याव्यवहित पूर्वपर्यायरूप परिणत हो जानेपर ही होती है ।
___ तात्पर्य यह है कि यद्यपि मिट्ठी में घटपर्यायकी उत्पत्ति तभी होती है जब मिट्टी कुशुलपर्यायरूप परिणत हो जाती है । तथा पिट्टीमें कुशूलपर्यायकी उत्पत्ति तभी होती है जब यह मिट्टी कोशपर्यायरूप परिणत हो जाती है। एवं मिट्टी में कोशपर्यायकी उत्पत्ति तभी होती है जब वह मिट्टी स्थासपर्यायरूप परिपत हो जाती है, परन्तु वहाँ उपादानकारण तो मिट्टीको ही माना जा सकता है, उन पर्यायोंको नहीं । इसमें हेतु यह है कि उस-उस कार्यरूप परिणतिको उन पर्यायोंकी परिणति न मानी जाकर मिट्टीकी हो मान्य करना युक्त है, क्योंकि उन पर्मायोंका तो विनाश होकर ही मिट्टीमें उस-उस कार्यकी उत्पत्ति होती है । इतना अवश्य है कि मिट्टी में कोशपर्याय स्थासपर्याय पूर्वक होती है, अतः कोशपथविमें वह स्थासपर्याय सद्भूतव्यवहारकारण होती है । तथा मिट्टी, कुशूलपर्याय कोशपर्याय पूर्वक होती है, अतः कुशूलपर्यायमें वह कोशपर्याय सद्भूतव्यवहारकारण होती है । एवं मिट्टी में घटपर्याय कुशूलपर्याय पूर्वक होती है, अतः घटपर्वायमें वह कुशूलपर्याय सद्भूतव्यवहारकारण होती है ।
(५) उत्तरपक्षकी पांचवी मान्यता यह है कि निश्चयकारणके काव्यिवहित पूर्वपर्यायरूप परिणत होनेपर कार्योत्पत्ति नियमसे होती है।
__मह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि इस समीक्षा पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि निश्चयकारणरूप मिट्टीमें घटपर्यायसे अव्यवहित पूर्वपर्यायरूप कुशलपर्यायका विकास हो जानेपर भी यदि असद्भुतब्यवहारकारणरूप कुम्भकार उस अवसरपर अपना तदनुकूल क्रियाव्यापार रोक देता है तो उस मिट्टीमें तब उस घटपर्याय रूप कार्यको उत्पत्ति भी रुक जाती है। यही व्यवस्था स्यासपर्याय, कोशपर्याय और कुशलपर्यायरूप कार्योंकी उत्पत्तिमें भी असद्भुत व्यवहारकारणरूप कुम्भकारकी अरेक्षा जान लेना चाहिए । तात्पर्य यह है कि मिट्टीमें स्थाससे लेकर क्रमशः कौश, कुशूल और घट पर्यायोंकी उत्पत्ति कुम्भकारके तदनुकूल क्रियाव्यापारका योग मिलनेपर ही होती है और न मिलनेपर नहीं होती है । फलतः जिस क्षण में कुम्भकार अपना तदनकल कियाव्यापार रोक देता है उसी क्षणसे आमेकी पयिोंकी उत्पत्ति भी वक जाती है, ऐसा जानना चाहिए ।
___इस विवेचनसे एक बात यह भी साष्ट हो जाती है कि कार्योत्पत्तिमें निश्चयकारणकी तरह सद्भुतव्यवहारफारणके साथ असद्भूतव्यवहारकारण भी कार्यकारी होते है । इतना अवश्य है कि कार्योस्पत्ति में अहाँ मिश्षयकारण कार्यरूपसे परिणत होमेसे कार्यकारी होता है वहाँ सद्भुत व्यवहार कारण उस कार्योत्पत्तिमें इस रूपसे कार्यकारी होते हैं कि कार्योत्पत्तिमें सद्भतव्यबहारफारणरूपकार्याव्यवहित पूर्वपर्यायके रूप में निश्चयकारणका परिणमन हो जानेपर ही वह निश्चयकारण कार्यरूप परिणत होता है। इसी प्रकार असद्भूतव्यवहारकारण उस कार्योत्पत्ति में इस रूपसे कार्यकारी होते है कि निश्चयकारणको कार्यरूप परिणति
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
तथा हमसे पूर्व उस व्यवहारकारणरूप परिणति दोनों ही परिणतियाँ निश्चयकारण और सद्भूतव्यवहारकारणसे भिन्न असद्द्भूतव्यवहारकारणरूप अन्य वस्तुओंके प्रेरक अथवा अप्रेरक ( उदासीन) रूपसे सहायक होनेपर ही होती हैं ।
(६) उत्तरपक्षको छठीं मान्यता यह है कि निश्चयनमके विषयभूत निश्चयकारणरूप पदार्थ के स्वतः नियतक्रमसे होनेवाले परिणमनोंको व्यवस्था में सद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत सद्भूतव्यवहारकारण और असद्भूतव्यवहारलय विषयभूत असद्भूतव्यवहारकारण कार्यके प्रति अकिंचित्कर हो जाने से ग्राह्म विषय के अभाव में वे सभी व्यवहारनय कथनमात्र सिद्ध होते हैं ।
यह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि उत्तरपक्षका सद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत स भूतव्यवहारकारको और असद्भूतव्यवहारनपके विषयभूत असद्भूतव्यवहारकारणको अकिंचित्कर मान्य करनेके विषय में जो यह दृष्टिकोण है कि "निश्चयनयके विषयभूत निश्चयकारण के परिणमन स्वतः नियतक्रम से ही होते हैं" इसका निराकरण प्रथम प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में किया जा चुका है और पंचम प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में भी किया जायेगा। इसके अतिरिक्त पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि जैनशासनमें एक तो निश्चयनयके विषयभूत निश्चयकारणकी कार्यरूप परिणति से पूर्व होनेवाली परिणतियोंको ही इस कार्यरूप परिणतिके प्रति सद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत सद्भूतव्यवहारकारणरूप मान्य किया गया है। दूसरे, जैनशासन में यह भी मान्य किया गया है कि निश्चयनयके विषयभूत निश्चयकारणको कार्यरूप परिणति और मोर उसकी इस कार्यरूप परिणतिमें कारणभूत पूर्व में होनेवाली अन्म परिणति में सभी असद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत असद्भूतव्यवहारकारणोंके प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपसे सहायक होनेपर हो होती हैं । फलतः सद्भूत और असद्भूत दोनों ही प्रकारके व्यवहारनयोंके ग्राह्य विषयका सद्भाव सिद्ध हो जानेसे उन्हें कथनमात्र कदापि नहीं सिद्ध किया जा सकता है ।
वात्पर्य यह है कि कार्य के प्रति उपादानकारणभूत वस्तुमें विद्यमान कार्यरूप परिणत होनेकी स्वभावभूत स्वतः सिद्ध योग्यतारूप नित्य निश्चयकारणता निश्चयनयका विषय निश्चित हो जाने से जिस प्रकार निश्चयनय कथनमात्र नहीं है उसी प्रकार कार्यके प्रति उस उपादानकारणभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिसे पूर्व होने बाली परिणतियों में पूर्व में जो अनुपचरित, उपवरित और उपचरितोषचरित रूपसे पूर्ववर्तित्व रूप संभूतकारणता बतलाई गई है वह क्रमशः अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपचरित सद्भूत व्यवहारनयका विषय हो जानेसे वे अनुपचरित उपचरित और उपचरितोपचरित सद्भूतव्यवहारलय भी कथनमात्र नहीं हैं । एवं कार्यके प्रति उपादानकारणभूत वस्तुसे भिन्न वस्तुओं में पूर्व में जो अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोषचरित रूपसे यथायोग्य प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपमें सहायक होने रूप असद्भूतव्यवहारकारणता बतलाई गई है वह क्रमश: अनुश्चरित उपचरित और उपचरितोषचरितअसद्भूत व्यवहारनयों का विषय हो जाने से वे अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोषचरित असद्भूतव्यवहारमय भी कथनमात्र नहीं है। जैसे चटकार्यके प्रति उपादानकारणभूत मिट्टी में विद्यमान घटकार्यरूप परिणत होने की स्वभावभूत स्वतः सिद्ध योग्यतारूण नित्य निश्चयकारणता निश्चयनयका विषय निश्चित हो जानेसे जिस प्रकार वहाँ निश्चयनय कथनमात्र नहीं है उसी प्रकार उस घटकार्यके प्रति उपादानकारणभूत मिट्टोकी घटकार्यरूप परिणतिके पूर्व होने के कारण कुशूल, कोश और स्वास परिणतियोंमें पूर्व में क्रमशः जो अनुपचरित उपचरित और उपचार - तोपचरित रूप से पूर्ववर्तित्व रूप सद्भूतव्यवहारकारणता बतलाई गई है यह वहाँ क्रमशः अनुपचरित, उप
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
३०३ चरित और उपचरितोपचरित सद्भूतम्यवहारनयोंका विषय निश्चित हो जानेसे के अनुपचरित, उपचरित और पसार पनि तयारमा कथनमात्र नहीं है। एवं उसी घटकार्मके प्रति उपादानकारण रूप मिट्टीसे भिन्न कुम्भकार, चक्र और दण्ड रूप वस्तुओंमें पूर्व में जो अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपपरित रूपसे प्रेरक रूपमें सहायक होने रूप असद्भूवम्पवहारकारणता मतलाई गई है वह वहाँ क्रमशः अनुपचरित, उपवरित और उपचरित्तोपचरित असद्भूतव्यवहारनयोंका विषय निश्चित हो जानेसे वे अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपचरित असद्भूतव्यवहारनय भी कथनमात्र नहीं है ।
यही यह ज्ञातव्य है कि सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय तथा इनके क्रमशः विषयभूत सद्भूतव्यवहारकारणता और असद्धृतव्यवहारकारणताक्री परम्परा उपचरितोचरितोपचरित मादिके रूप में अनुपचरित, उपवरित और उपचरितोपचरितके आगे भी वहाँ तक मानी जा सकती है जहाँ तक सम्भव हो।
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि कार्यके प्रति नित्य निश्चयकारण तो कार्यरूप परिणत होने की स्वभावभूत स्वतः सिद्ध योग्यता विशिष्ट जनादान कारणभूत वस्तु ही होती है व अनित्य निश्चयकारण उस निस्म निश्चयकारणभूत वस्तुकी कार्यभूत पर्यायसे पूर्ववर्ती पोगोंसे विशिष्ट वही उपादानकारणभूत वस्तु होती है । तथा उस नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुको कार्यभूत वस्तुसे पूर्ववर्ती वै पयार्य पूर्वोक्स प्रकार अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोगचरित आदिक रूपमें सद्भूतव्यवहारकारण होती हैं । एवं कार्यके प्रति नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुसे पृयन वे वस्तुएँ अनुपचरित, उचपरित और उपचरितोपचरित आदिक रूपमें असद्भूतव्यवहारकारण होती है जो निय निश्चयकारणभूत नस्तुको कार्यरूप पर्यायकी और उस कार्यरूप पर्यायसे पूर्ववर्ती पर्यायोंकी उत्पतिमें प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपसे सहायक होती हैं। इनमेंसे नित्य निश्चय कारणको कार्योत्पत्तिमें सर्वथा भूताचं कारण समझना चाहिए, क्योंकि नित्य निश्चयकारण कार्योत्पत्ति में सद्भूतव्यवहारणकारणरूप उक्त पर्यायों में और कार्यभूत पर्यायमें भी प्रविष्ट रहता है । तथा कार्योत्पत्ति में सद्भूतव्यवहारकारणभूत उक्त पर्यायों को भी यद्यपि भूतार्थ कारण ही समझना चाहिए, क्योंकि वे पर्याय नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुकी ही पर्याय है, परन्तु उन पायों का प्रवेश कार्यरूप परिणतिमें नहीं होता क्योंकि जैन शासनमें पूर्व-पूर्व पर्यायका विनाश होकर ही उत्तर-उत्तर पर्यायको उत्पत्ति मान्य की गई है। अतः उन पर्यायों को कथंचित् अभूतार्थ भी समझना चाहिए । इनके अतिरिक्त कार्य के प्रति नित्य निश्चगकारणभूस वस्तुसे पृथक् जो वस्तुएँ उन सद्भूत व्यवहारकारणभूत और कार्यभूत पर्यावोंकी उत्पत्तिमें प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपसे नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुको अपना सहयोग मात्र प्रदान करती है उन वस्तुओंको अभूतार्थ कारण समझना चाहिए ।
इस तरह इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि कार्योत्पत्तिके प्रति साधक रूपसे उपयोगी नित्य निश्ववकारणताको विवश करनेवाला निश्ववनय जिस प्रकार कथनमात्र नहीं है उसी प्रकार उस कापोत्पत्ति के प्रति सावक रूप से उपयोगी अनुपवरित, उपवरित और उपवरितोपचरित आदि रूप सदभतरूपवहारकारणताको विषा करनेवाला अनपवरित उपवरित और उपचरितोपवरित आदि रूप सद्भूतम्यवहारनय एवं कार्योत्पत्तिके प्रति साधक रूपसे उपयोगी अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपपरित आदि रूप असदभतब्यबहारकारणताको विषय करने वाला अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपचरित असहारा दानांना भाकपनमात्र नहीं है।
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा जैन शासनमें नयव्यवस्थाका आधार
जीवके विषय में यह विचार किया जा सकता है कि वह यथाशक्ति पदार्थको जानता है, जाने हुए पदार्थ का यथासम्भव विश्लेषण करता है और विश्लेषण करके उस पदार्थका अपनी इष्टसिद्धिके लिए उपयोग करता है। इतना ही नहीं, विश्लेषण करने के आधारपर वह जोव अन्य जीवोंको भी पदार्थका ज्ञान कराता है। इस तरह जैन शासनमें पदार्थोको जानने और जाने हुए पदार्थोका विश्लेषण करने के लिए मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यय और केवलके भेदसे पांच ज्ञानोंको माम्म किया गया है। इन पांचों शानों से मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलजान ये चार ज्ञान यथाशक्ति पदार्थो को जाननेके लिए उपयोगी है व श्रुतशाम जाने हुए पदार्थों का विश्लेषण करनेके लिए उपयोगी है।
यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है कि केवलज्ञानी जीव केवलज्ञानके द्वारा पदार्थोंको जानता तो है, परन्तु यह उन जाने हुए पदार्थोंका विश्लेषण नहीं करता, क्योंकि उसमें पदार्थका विश्लेषण करनेमें समर्थ थुतज्ञानशक्तिका अभाष पाया जाता है । यही कारण है कि वह दुसरे जीवोंके लिए उपदेश कर्ता नहीं है, अपितु मात्र भव्य जीवोंके भाग्यका निमित मिलमेपर वचनयोगके बलपर उसका उपदेश होता है और उराका वह सपदेश अनक्षरात्मक ओंकार जैसी ध्वनिके रूप में होता है। उस ध्वनिका केवलज्ञान प्रभावसे इतना अतिशय अवश्य है कि अनक्षरात्मक होते हुए भी उग ध्वनिक आधारपर सभामण्डलमें उपस्थित सभी जीव अपनी-अपनो योग्यताके अनुरूप पदार्थका ज्ञान कर लिया करते हैं। केवलज्ञानी जीवोंको छोड़कर मतिज्ञानी, अवधिजानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें यतः यथायोग्य मतिज्ञान, अवविज्ञान या मनःपर्ययज्ञान. द्वारा जाने हए पदार्थका विश्लेषण करने में समर्थ श्रुतज्ञानशक्ति पायी जाती है, अतः दे जोव यथायोग्य गतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान द्वारा पदार्थ का ज्ञान करके श्रुतज्ञान द्वारा इसका विश्लेपण भी किया करते हैं।
मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्षय और केवल इन पांचों ज्ञानों से मनःपर्यय और केवल ये दोनों जान सम्बर ही होते हैं, अतः इनसे होनेवाला पदार्यज्ञान कभी मिला नहीं होता। इनके अतिरिक्त मति. थत और अवधि ये तीनों ज्ञान सम्यक और मिथ्या दोनों प्रकार के होते है । इसलिये मतिज्ञान या अवधिज्ञानसे जो पदार्थज्ञान होता है वह सम्पक भी होता है और मिथ्या भी होता है । तथा पदार्यज्ञान यदि सम्यक होता है तो जाने हुए पदार्थका श्रुतज्ञानले विश्लेषण भो सम्यक होता है और पदार्थज्ञान यदि मिथ्या होता है तो जाने हुए पदार्थ का श्रुतज्ञानले विश्लेषण भी मिथ्या होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका सम्यक्पना एक तो इन्द्रियों और मनके स्वस्थपनेके आधारपर होता है। दूसरे, मोहनीयकर्मक उपशम, क्षय या क्षयोपशममें भी होता है। इसी तरह मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका मिथ्यापना भी इन्द्रियों और मनके अस्वस्थपनेके आधारपर भी होता है व मोहनीय कर्मके उदयमें भी होता है। अवधिज्ञानका सम्पपना केवल मोहनीयकर्मके उपदाम, थर, या क्षयोपशममें होता है और मिथ्यापना केवल मोहनीयकर्मके उदय में ही होता है, क्योंकि अवधिज्ञान इन्द्रियसापेश नहीं होता।
मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मतःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानसे पदार्थ का मान ज्ञान होता है। इन जानोंसे पदार्थका विश्लेषण नहीं होता। इस बातको इस तरह समझा जा सकता है कि एक भतिज्ञानी जीव नेत्रों के सहयोगले मतिज्ञान द्वारा खूटीपर टंगी हुई मणिमालाका ज्ञान कर रहा है तो उस समय उसे खूटी और मणिमालाके साथ मणिमालामें गुम्फित मणियोंका भी ज्ञान होता है। वन मणियोंके ययासम्भव मोल, त्रिकोण,
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
३०५ चतुष्कोण आदि आकारोंका तथा उनके यथासम्भव छोटे-मध्यम-बड़े परिमाणोंका भी ज्ञान होता है । इसके अतिरिक्त उन मणियोंके यथासम्भव लाल, हरे, पीले आदि रंगोंका भी ज्ञान होता है एवं उस मणिमाला मणिका कौन दाना क गुम्फित हैं उस स्थानका भी ज्ञान होता है। परन्तु वह जीव उस मतिज्ञानसे ऐसा विश्लेषण नहीं कर सकता है कि यह खुटी है। यह मणिमाला है । इस मणिमाला में मणियोंको संस्था अमुक परिमाण में हैं। मणियों अमुक दाने गोल है, अमुक दानें त्रिकोण हैं और अमुक दानें चतुष्कोण या अन्य अमुक आकार के हैं । अमुक दाने छोटे हैं, अमुक दानें मध्यम हैं और अमुक दानें बड़े हैं | अमुक दानें लाल हैं, अमुक दानें हरे हैं और अमुक दानें गीले अथवा अन्य अमुक रंगके हैं। तथा वह उस मतिज्ञानसे यह भी विश्लेषण नहीं कर पाता है कि अमुक दाना उस मणिमाला में अमुक स्थानपर गुम्फित हैं, अमुक दाना अमुक स्थानपर गुम्फित है यदि सही स्थिति अन्य इन्द्रियोंके सहयोग होनेवाले मतिज्ञानके विषयमें भी जान लेना चाहिए | एवं अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञानके विषयमें भी जान लेना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि सभी प्रकारके मतिज्ञानोंसे व अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानसे, साथ ही केवलज्ञानसे भी पदार्थको जाना तो जा सकता है, परन्तु उस जाने हुए पदार्थका उन जानोंसे विश्लेषण नहीं किया जा सकता है 1 इसका कारण यह है विज्ञानों द्वारा एक से हो सकता हैं जो वितत्मिक हो । परन्तु मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन ज्ञानों में वितर्कात्मकता का अभाव हो रहा करता है । केवल श्रुतज्ञान ही वितर्कात्मक होता है। जैसा कि तत्वार्थ सूत्रके "वितर्कः श्रुतम्" (९-४३ ) सूत्रसे ज्ञात होता है। एक बात यह भी है कि यदि इन सभी ज्ञानोंको वितर्कात्मक माना जाये तो श्रुतज्ञानकी निरर्थकताका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा, जबकि जैनागम में श्रुतज्ञानका मति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान इन चारोंसे पृथक् अस्तित्व मान्य किया गया है। तत्वार्थसूत्र के "श्रुतं मतिपूर्वम्" (१-२०) सूत्रसे श्रुतज्ञानका मतिज्ञानसे पृथक् ही अस्तित्व सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त यद्यपि इस सूत्रका अर्थ यह है कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, परन्तु इसका आशय यह नहीं ग्रहण करना चाहिए कि श्रुतज्ञान मात्र मतिपूर्वक ही होता है, क्योंकि सूत्रका आशय यही है कि जो श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है वह दो, अनेक और द्वादश भेटवाल है । फलतः ऐसा माननेमें कोई बाघा उपस्थित नहीं होती कि श्रुतज्ञान मविज्ञानके समान अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान पूर्वक भी होता है।
यहां पर मैंने मति श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानके विषय में जो उपर्युक्त विवेचन किया है उसपर विद्वानोंको विचार करना चाहिए, क्योंकि यह विवेचन यदि उनकी समझमें आ जाता है तो सोनगढ़को सम्पूर्ण मान्यता की निरर्थकता भी उनकी समझा में आ जायेगी ।
मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान द्वारा जीवोंको जो पदार्थज्ञान होता है वह विश्लेषणात्मक न होने से अखण्डात्मक हो होता है, इसलिए इन ज्ञानों द्वारा होनेवाले पदार्थज्ञानों में अंशोंकी परिकल्पना संभव नहीं है। फलतः इनमें नयव्यवस्था नहीं बन सकती है, क्योंकि नयको प्रमाणका अंश माना गया । यतः प्रमाणवितर्कात्मक होनेसे मति आदि ज्ञानों द्वारा जाने हुए पदार्थका विश्लेषण करता है, अत: उस श्रुतज्ञानको सांश मानना अनिवार्य 'जाता है । इस तरह श्रुतज्ञान में नयव्यवस्था बन जाती हूं और इसके आधारपर यह कहा जा सकता है कि मति आदि ज्ञानोंसे जाने हुए पदार्थ के एक-एक श्रंशका सज्ञान द्वारा विश्लेषण किया जाना तो नयज्ञान है और सभी अशोका सामूहिक विश्लेषण उसी श्रुतज्ञान द्वारा किया जाना प्रमाणज्ञान है ।
सु०-३९
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कार बतलाया जा चुका है कि जीव श्रुतज्ञानके द्वारा पदार्थका विश्लेषण करके दूसरे जीवोंको पदार्थका ज्ञान कराता है। इसलिए अब यहाँ यह बतलाया जाता है कि एक जीव दूसरे जीवको पदार्थका ज्ञान वचनों द्वारा ही करा सकता है। यतः पदार्थ भी सखण्ड होता है और वचन भी सखण्ड होता है अतः वचनमें भी नयच्चवस्था बन जाती है।
सर्वप्रथम वचनकी सखण्डता इस प्रकार सिद्ध होती है कि अक्षररो लेकर महा महावाक्य तक वचनके अनेक भेद हैं । उनसे अक्षरोंका समूह शब्द कहलाता है, यथायोग्य शब्दोंका समूह पद कहलाता है, पदोंका समूह वाक्य कहलाता है, वाक्योंका समूह महावाक्य कहलाता है और महावाक्योंका समूह महामहावाक्य कहलाता है। इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार महामहावाक्योंके समूह रूप भी बचन हुआ करते हैं। जैसे तत्वार्थसूत्र मोक्षमार्गका प्रतिपादक ग्रन्थ है। उसके दस अध्याय है तथा एक पाक अध्याय मोक्षमार्गके एकएक अंशका प्रतिपादन करता है इस तरह सम्पूर्ण तत्वार्थसूत्र मोक्षमार्गके सभी अंगोंका सामूहिक प्रतिपादन करता है, अतः सम्पूर्ण तत्वार्थसूष मोक्षमार्गका प्रतिपादक होनेसे प्रमाण-वचन है और एक-एक अध्याय एकएक अंशका प्रतिपादक होनेसे नयवचन हैं ।
इसी प्रकार नवाने अनेक अंश पाप आते है । जैसे कि पदगलमें रूप. रस, गंध और स्पर्श चार गण पाये जाते है । इनमें रूपके पाँच, रसके पांच, गंधके दो ओर स्पर्शके आठ भेद होते है। इस तरह पुद्गलके इन सभी गुणोंका सामूहिक प्रतिपादन करना प्रमाणवचन है और उसके एक-एक गुणका प्रतिपादन करमा नयवचन हैं।
इसके अतिरिक्त पदार्थ में परस्पर विरोधी दो धर्म भी पाये जाते है । जैसे पदार्थ नित्य भी है और नित्य भी है। इस तरह पदार्थको नित्यानित्यात्मक कहना प्रमाणवचन है व नित्यता और अनित्यताका उसके अंशके रूपमें प्रतिपादन करना नमवचन है।
ये प्रमाणवचन और नयवचन दोनों ही सम्यक है। परन्तु पदार्थको अनित्यनिरपेक्ष केवल नित्य कहना या निलनिरपेक्ष केवल अनित्य कहना अप्रमाण या प्रमाणाभासरूप वचन हैं।
इसी तरह जीवके व्यवहारधर्मको जीयका निश्चयधर्म कहना मयाभामवचन है। जैसे माणवक प्रयोजन और निमित्त वेगात् उपस्ति तो है, परन्तु इस आधारपर इसे वास्तविक शेर मान लेना नयाभास है । यह उदाहरण व्यवहारधर्मको निश्चयधर्म कहनेका उदाहरण है। तथा जीवके निश्चयधर्मको व्यवहारधर्म कहना यह भी नयाभासवचन है। जैसे जीवका चैतन्य निश्चयधर्म है। परन्तु उस चैतन्य की पंचभूतोरी उत्पत्ति कहना नयाभासदमन है । यह उदाहरण निश्चयश्रमको व्यवहारधर्म कहनेका उदाहरण है। तत्त्वार्थसूत्रके "प्रमाणनयंरधिगमः' (१-६) सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि-टीकामें जो "सकलादेशः प्रमाणाबीनो विकलादेशो नयाधीनः" यह वचन निर्दिष्ट किया गया है उससे प्रमाण और उसके अंशभूत नयका स्वरूप स्पष्ट समक्ष में आ जाता है तथा नयध्यवस्थाके आधारका भी ज्ञान हो जाता है। नयव्यवस्थाको मान्य करना अनिवार्य है
यतः पदार्थके अनेक धमो तथा परस्पर विरोधी दो धोका सखण्ड शुतज्ञानद्वारा ज्ञान व सखण्ड वचनद्वारा प्रतिपादन होता है, अतः उस श्रुतज्ञानमे एवं उस वचनमें नयव्यवस्थाको मान्य करना अनिवार्य हो जाता है । ऐसी नयव्यवस्थाका व्याख्यान वस्तुविज्ञान, लौकिकजीवन और आध्यात्मिकजीवन इन तीन दृष्टियोंसे पृथकपृथक् निश्चित होता है।
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शंका-समामा ४ को समीक्षा
वस्तुविज्ञानकी दृष्टिसे नमव्यवस्थाका रूप
___ वस्तुविज्ञानकी दृष्टिसे जैन शासनमें पदार्थको तत्त्वार्य सूत्रके "सद् द्रश्यलक्षणम्' (५-२९) व "उत्पादव्ययधोपयुक्तं सत" (५-३०) इन दो सूत्रोंद्वारा उत्पाद, व्यय और धौख्यात्मक मान्य करके "अपितानपितसिद्धः" (५-३२) सूत्रद्वारा उसके ज्ञान व प्रतिपादनकी व्यवस्थाको विवक्षाधीन बतलाया गया है। इससे वस्तुविज्ञानकी दृष्टिरो नयव्यवस्थाका रूप यह बनता है कि पदार्थ में जो भोव्यांश है वह द्रव्यांश है और जो उत्पादांश और व्ययांश है व पर्यायांश है। इनमेंसे द्रव्यांशका ज्ञान व प्रतिपादन तो द्रव्याथिकानय है व पर्यायांशका ज्ञान व प्रतिपादन पर्यायाथिकनय है। लोकजीवनमें नयव्यवस्थाका रूप
लोकजीवनको दृष्टि से नयव्यवस्थाका रूप इस प्रकार बनता है कि वैद्य एक ही वस्तुका एक रोगीके लिए उपभोग करने का आदेश देता है व अन्य रोगीके लिए उस वस्तुका उपभोग न करनेका आदेश देता है। बाजारमें जिम गालीको अनुचित माना जाता है वह गाली विवाहमें यदि गाने के रूपमें प्रयक्त न की जाये अर्थात् गाली न गायी जाये तो मेहमान अपना अनादर मानता है । एक ही थानके व.पड़ेसे एक व्यक्ति दर्जीको कोटनिर्माणका आदेश देता है, दूसरा व्यक्ति उस दजीको उस कपड़री कमीज, कुर्ता आदिवे, निर्माणका आदेश देता है । ठंड ऋतुमे पहिनने के कपड़े अन्य होते है और भीष्म ऋतु में पहिनने के कपड़े अन्य होते हैं । इत्यादि उदाहरणोंसे जाना जाता है कि लोकजीवन हानि-साभ, औचित्य-अनौचित्य एवं आवश्यकता-अनावश्यकता आदिरूप नयव्यवस्थाके बिना सुचारू रूपसे नहीं चल सकता है । आध्यात्मिक जीवन में नयव्यवस्थाका रूप
अध्यात्मका संबंध जीवी संसारसे मवितके साथ है। इस बात को ध्यान में रखकर जैनागममें नयव्यवस्थाको स्थान दिया गया है, जो निम्न प्रकार है
यद्यपि जीवका स्वभाव स्वतःसिद्ध होनेसे अनादि, अनिधन, स्वाश्रित और अखण्ड है, परन्तु पुदगलकमोंके सहयोगरो जसका वह स्वभाव सादि, सान्त. पराश्रित और खण्ड-खण्ड हो रहा है अर्थात् जीवका स्वभाष अषिकृत और अविनाशी होकर भी पुदगलकर्मके संयोगसे विकृत और विनाशशील हो रहा है। जैन शामनमें जीवको इन दोनों प्रकारको दशाओंमेसे स्वभावदशातो तो निश्चय, यथार्थ, मुख्य, सत्यार्थ, स्वाश्रित आदि नामोंसे पुकारा गया है और स्वभावदशासे विपरीत विभावदशाको व्यवहार, अयथार्थ, उपचरित, असत्यार्थ, पराश्रित आदि नामोंसे पुकारा गया है। इनमें निश्चय आदिरूप दशाका ज्ञान व प्रतिपादन निश्चयनय है एवं व्यवहार आदिरूप दशाका ज्ञान व प्रतिपादन व्यवहारनय है।
जो जीव पुद्गलकर्भ संयोगजन्य विभावदशासे मुक्त होना चाहता है उसे जैन शासनमें यह उपदेश दिया गया है कि वह सर्वप्रथम विभाव दशाके मार्गको त्यागकर स्वभावदशाके मार्गको ग्रहण करें । इसके लिए उसे दो बातें आवश्यक बतलायीं गई है-एक मक्ति और दूसरी मक्तिका मार्ग। इनमेसे भक्ति तो जीवका लक्ष्य होता है और जिसपर आरूढ होनसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है उसे मोक्षमार्ग कहते हैं । इस मोक्षमागके भी दो रूप होते है-एक तो यह कि जिस मार्गसे जीव अनादिकालसे संसारका निर्माण करता आ रहा है उसका धीरे-धीरे क्रमशः त्याग करे और दूसरा यह कि जिस मार्ग से उसे संसारसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है उसे पहण करे। इनमें से मोक्ष पानेके साक्षात् मार्गको तो मोक्षका निश्चयमार्ग, यथार्थमार्ग, मुख्यमार्ग, सत्यायमार्ग
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जयपुर (खनिया) तत्त्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा एवं स्वाचितमार्ग आदि नामोंसे पुकारा जाता है और संसारके मार्गके त्यागको व्यवहारमोक्षमार्ग, अयभार्थमोक्षमार्ग, उपचरित मोक्षमार्ग, असत्यार्थमोक्षमार्ग एवं पराश्रितमोक्षमार्ग आदि नामोंसे कहा आता है।
यहाँ यह बात समझनेको है कि संसारके मार्गका त्याग किये बिना मोक्षके मार्गपर आरूढ़ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह स्वभाविक बात है कि जिस मार्गपर जीव चल रहा है उस मार्गसे वह जीव जब तक विमुख नहीं होगा तब तक वह उससे विपरीत मार्गके उन्मुख नहीं हो सकता है। जैसे जिस जीवका लक्ष्य पश्चिमकी और है और वह यदि पश्चिमकी ओर चल रहा है तो यह विचारणीय बात नहीं है, परन्तु जिसका लक्ष्य पूर्वकी ओर है और वह पश्चिमकी ओर चल रहा है तो उसे अपने लक्ष्य की प्राप्तिके लिए सर्वप्रथम पशिचमकी ओर होनेवाले गमनका त्याग करना होगा, क्योंकि जब तक वह पश्चिमकी ओर गमन करना नहीं होगा तब तक वह पूर्वको और गमन नहीं कर सकता है। इसी तरह जिस जीवका लक्ष्य संसार है वह यदि संसारके मार्गपर चल रहा है तो यह विचारणीय बात नहीं है, परन्तु जिसका लक्ष्य पीक्ष बन गया है अर्थात् जो मुमुक्षु बन गया है उसे अपना लक्ष्य प्राप्त करनेके लिए सर्वप्रथम संसारके मार्गका त्याग करना अनिवार्य है क्योंकि संसारके मार्गका त्याग किये बिना मोक्षके मार्गको ग्रहण करना संभव नहीं है। इससे यह बात निर्णीत होती है कि ओवको मोक्षकी प्राप्ति यद्यपि निश्चयमोक्षमार्गपर आम होनेपर ही होती है, परन्तु यह निश्चयमोजमार्गपर तमी आरूढ़ हो राकता है जब वह संसारमार्गका त्याग करेगा । जैन शासनमें निश्चयमोक्षमार्गको जो निश्चयमोनमार्ग कहा गया है वह इसलिये कहा गरा है कि उसपर आरुड़ होनेपर ही मोक्षको प्राप्ति होती है परन्तु उस निश्चयमोक्षमार्गपर आरूतु हानेके लिए संसारमार्गका त्याग आवश्यक है उसे ही व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं, क्योंकि संसारके मार्गका त्याग किये बिना मोक्षको प्राप्तिमें साक्षात् कारणभूत निश्चमोक्षमार्गकी प्राप्ति संभव नहीं है। अतः व्यवहारसे या उपचारसे संसारके मार्गके त्यागको भी मोक्षमार्ग कहा गया है।
उत्तरपक्ष यदि आगमको इस दृष्टिको समझनेकी चेष्टा करता तो उसे पूर्वपक्षकी "व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक है" इस मान्यतामें विवादका अवसर ही नहीं आता।
इस प्रकार अध्यात्ममें भी निश्वयमोक्षमार्गका ज्ञान करना व प्रतिपादन करना निश्चयनय है और व्यकहारमोक्षमार्गका शान करना व प्रतिपादन करमा व्यवहारमय है। इस विवेचनसे यह बात भी निर्णीत हो जाती है कि न तो व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग या मोक्ष की प्राप्तिमें अकिचितकर है और न व्यवहार नय कथनमात्र है। आगम द्वारा व्यवहारनयकी उपयोगिताकी पुष्टि
समयसार गाथा १२ को आत्मख्याति टीकामें जैनागमवी एक गाथाका उस्लेख करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने व्यवहारनयको भी उतना हो महत्व दिया है जितना निश्चयनमको । वह गाथा निम्न प्रकार है
जइ जिणमर्थ पवजह ता मा ववहार-पिच्छए मुयह ।
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च । अर्थ-यदि जिनमतका प्रवर्तन इष्ट है तो निश्चय और व्यवहार दोनों नयों से किसीका भी परित्याग न करो, क्योंकि व्यवहारनयका त्याग कर देनेसे तीर्थ (मोक्षमार्ग) की प्रवृत्ति समाप्त हो जायेगी और निश्चयनयका त्याग कर देनेसे आत्मतत्व ही नष्ट हो जायेगा।
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु जीवको अपने अस्तित्व, स्वरूप और पतन तथा उत्थान आदिको समझाने की आवश्यकता है तथा पतनके करण क्या है और उत्थानके कारण क्या है, इसको भी समझना आवश्यक है । इनमेसे अपने अस्तित्व, स्वरूप, पतन और उ स्थान आदिको समझना तो निश्चयमय है और पतनके कारण क्या है और उत्थानके कारण क्या है, इस बातको समझना व्यवहारनय है । अब यदि निश्चयनयको उपेक्षा की गई तो तत्व नष्ट हो जानेसे धर्मतीर्थका आधार ही समाप्त हो जायेगा और यदि व्यवहारनयकी उपेक्षा की गई तो जीवके उत्थानमें कारणभत उपर्यत व्यवहार और निश्चय पर्मतीर्थ (मोक्षमार्ग) की समाप्ति हो जायेगी। इसलिये निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंको समझने और ग्रहण करनेकी आवश्यकता है।
__आचार्य अमृतचन्द्रनं पुरुषार्थसिक्युपाय प ४ में कहा है कि वे महापुरुष ही धर्म का प्रवर्तन करने में सक्षम होते है जिन्हें निश्चयनयको मख्यरूपता और व्यवहारनयकी उपचरितरूपताका यथार्थ ज्ञान हो तथा वहीं पर पद्य ८ में आचार्य महोदयने कहा है कि जिस व्यक्तिमे निश्चयनय और श्यवहारनय दोनोंको ठीक तरहसे जानकर दोनोंमें माध्यस्थ्यभाव अर्थात् दोनोंके समान महत्त्वको समझा है वही देशना (उपदेश के सम्पूर्ण फलको प्राप्त करता है । मोक्षमार्गमें व्यवहारधर्मका महत्व
__ आघार्य अमृत चन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धथुपायमें ही पद्य ३९ से पद्म ४८ तक व्यवहार अहिंसाका विवेचन करते हुए पद्य ४९ में यद्यपि यह बतलाया है कि जीवकी परवस्तुके कारण अणुमात्र भी हिंसा नहीं होती तथापि परिणामविशुद्धिके लिए हिंसाके आयतनोंका त्याग करना उचित है। इसके आगे पद्य ५० में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जिसने निश्चयको समझा नहीं और यह मान लिया कि जीवको परवस्तुके कारण अणुमात्र भी हिंसा नहीं होती वह जीब मूर्ख है, क्योंकि बह बाह्म क्रियाओंमें प्रमादी होकर बाह्य आचरणको नष्ट करता है।
इससे यह बात अच्छी तरह निर्णीत हो जाती है कि निश्चयधर्मकी प्राप्तिमें व्यवहारधर्मका अनपेक्षा गीय महत्व है 1 इति 1
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५०
८
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१३
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२२ २९
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११
२४
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४२
४२.
५०
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६३
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७३
८०
८८
९३
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पंक्ति
२
१८
९९
१०९
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२५
२८
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८
१२
२०
१२
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१३
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६
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२५
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१८
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३४
२९
૨૮
३४
२०
१२२
१२३
१३१
३०
१३२ १४
१३५
२६
१३६
१३८
१३९
१५५
३
२२
२२
२३
जयपुर (खानिया) चर्चाका शुद्धिपत्र
शुद्धि
एवं साक्षात् साधकत्वात्
अशुद्धि
एव साधकत्वात्
११५
कम्मा हुति
स्नेह न
उपादान सहकारी रूपमें
कार्मण वर्गगाएँ
प्रतीत नहीं
करता है
होने वाले
[ था ]
अपनी
ज्ञेय
रागवृद्धि
बनेको
परस्प
गरे के करण है
जीवके पचका
होती है
वह भी
भव्वजोषाणं || २ ||
होइ देउ
सामान्येन
गुणस्थान में
शुभ और अशुभ
तब
अवश्य ही होते हैं
लिंगाणि । १७५ ।।
कञ्चिदु
प्रतपनं
अतः
(पृष्ठ ३५)
गाथाओं में
जाता है
होनेसे
चिद्यन स्वभाव
११६
कम्मा हुति
स्नेहन
उपादान के सहकारी रूपमें
कार्माण वर्गणाएँ
नहीं प्रतीत
करता रहता है होने वाला
X X X
हमारी
ज्ञेय है
रागबुद्धि
आगेको
परभावं परस्प
दूसरे
जीवके उसके पगका
होती ही है।
वह सभी भक्व जीवाणं ||२५|
होइ हे
स सामान्येन
गुणस्थानोंमें
शुभ और शुद्ध
तब पहलेके
दूसरेका कहता है
अवश्य ही प्राप्त होते हैं
लिंगाणि ॥८५॥
कश्चिदु
प्रतपनं विजयनं
यतः •
X X X
गाथाओं में मी जानता है, देखता है
X X X चिद्घन स्वभाव
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.....
.
.
पृ०
पंक्ति
२५
२५
२२
जयपुर सानिया तहानाकी समीक्षाका शुद्धिपत्र अशुद्धि
शुद्धि १-प्रश्नोत्तरकी
१ प्रश्नोत्तर १ को अनुच्छेदमें
अनुच्छेद १ में कर्स-कर्स
कत कर्म उक्त-नमिसिक
उक्त निमित्त-नैमित्तिक भृतार्थ मानता है। इस पर
भूतार्थ मानता है, परन्तु प्रश्नके विषयसे भिन्म
होनेके कारण इसपर यथार्थ कारण और
अयथार्थ कारण और तुतीय दौरके अनुच्छेद में.
तृतीय दौरके अनुच्छेद १ में तृतीय दौरके अनुच्छेदमें
तृतीय दौरके अनुच्छेद २ में अन्त
अन्य वोपपद्यन्ते
वोपपद्यते उपादानमें विपरीत
उपादानमें योग्यताके विपरीत अर्थात् नहीं कर सकती है
अर्थात् नहीं कर सकता है, अन्निवार्यता
अनिवार्यता
उनका परिणतिमें
परिणति उसमें
उसने उसे अनित्य
उसे भी अनित्य स्वनिमित्तिक
स्वप्रत्यय सापक मानना चाहिये।
साधक मानना चाहिए । तथापि जहाँ पूर्वपर्याय.को उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति में कारण मानना
अनिवार्य है वहाँ पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय में पूर्वोत्तरभावरूप कार्यकारण मानता ही जममुक्त है। उत्पाद्योत्पादकभावरूप कार्य-कारणा
भाव नहीं। .. उत्पतिमें नियामक . .. उत्पत्ति में सर्वत्र नियामक अनन्तर
अनन्तर ही जो मोहित किया जाता है 'या' जो 'जो मोहित किया जाता है या 'जो मोहित होता मोहित होता है।'.. .
है वह मोहनीय है। . . . कर्मके विषयमें
कर्मकारकके विषय द्रव्यकर्मोदयको
उत्तरपक्षका व्यकर्मोक्ष्यको गाथा८०
गाषा ८७...
उसका
२८
३०
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३१२
पृ०
३५
४०
W
૧
૪૭
४७
४९
४९
५१
५९
६२
६४
૬૪
૬૪
६५
६५
६५
૬૬
६८
ه فا
पंक्ति
२४
११
१
१
१
६
१२
३०
९
२६
१२
७
८३
८३
३३
३३
६
२४
२५
२६
३२
१
७०
७०
७०
७०
७१
३३
७२ २५
८१
८१
६, ९
5
१५
१६
१८
५
२९
८१ २९
८२
५
१०
२५
८५ २६
८५
२९
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अशुद्धि
शुद्धि
पाठनक्रियारूप
उत्तरपक्ष के एक
पठनक्रियारूप उत्तरपक्षका एक
उनका
हो जाते हैं।
दृष्टि से
उससे
अतः
योग्यता के होनेपर
अनिवार्य रूपसे होती है
यह ही
गाथा १०८
सहायक न होने रूपसे
बनाकर
त्रिकामेल
हम मानते हैं
होती है ।
हमारे
निश्चयनममें
अशुद्ध निश्चय नयसे
यह पुद्गल
शुद्ध निश्चयनयसे पौगलिक रागादिका
शुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक
शुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक
अपने ऊपर
संधान
और किसीमें
प्रथम भागपर उत्तरपक्षने
० च० ५० ४५-४६ तक
(५-३८)
नियतिनयका
(५-३८)
अपितु
(त० सू० ५-२८ )
उसका
होते हैं ।
इसी दृष्टिसे उसमें
यतः
योग्यता के अनुरूप होनेपर
अनिवार्य रूपसे सहायक नियमसे होती है ।
यह भी
गाथा १०७
सहायक होने रूपसे
बनाकर )
त्रिकालमें
पूर्वपक्ष मानता
होती है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
पूर्वपक्ष के निश्चयनय से निश्चयनयसे
यह कि पुद्गल
निश्चयनयसे पौगलिक
रागादिको
निश्चयनय से पौद्गलिक
निश्चयनयसे पौद्गलिक
अपनी मान्यताके ऊपर
संयोग
और किसीने
प्रथम भागपर विचार करते हुए उत्तरपक्षन
० च० पृ० ४५-४६ पर
(५-३३)
अनिय विनयका
(५-३२)
परन्तु
(व० सू० ५-२९)
4
1
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-
--
-
शुद्धिपत्र
पंक्ति
शुद्धि
२७
२४
M.
P.
२५
उनमें
२८
अशुद्धि स० च० पू० ४८
ला प० पृ. ४७ अपरपसने सभी
अपरपक्षने "सभी क्योंकि न हमारी
क्योंकि न पूर्वपक्षकी हमारे इस कथनपर
पूर्वपक्षके इस कथनपर समझमें आ जाती है और
समझमें आ जाती और "मापने लिखा है कि"
"आपने लिखा है कि निश्चयनयसे नहीं "सर्वत्र
निश्चयनयसे नहीं" सर्वत्र उसे हमारे" दो द्रव्योंकी
हमारे "दो न्योंकी कार्यरूपसे उत्पन्न हुआ करता है कार्यरूपसे उत्पन्न हुषा" मान्य करता है स्वीकार किया गया है।
स्वीकार किया गया है। यथार्थ
अयथार्थघटपर्माय या
घटपर्यायसे
उसमें और असद्भुत
असद्भूत सामग्रीका
सामग्रीको अतः इस प्रकार
अत: जिस प्रकार सद्भूतघयवहारमयका और सदभूतव्यवहारमयका विषय है और लिखा है "फि परन्तु
लिखा है कि "परन्तु जो वस्तु कार्यरूप
अर्थात् जो वस्तु कार्यरूप कहा जाता है?
कहाँ आता है? सिद्ध करते हुए
सिद्धि करते हुए निश्चयनयका नहीं । प्रकट है निश्चयनयका नहीं, प्रकट है यह चिम्स्य है। किया जाना कल्पनारोपित किया जाना व्यवहारनयका विषय होनेपर भी
कल्पनारोपित (बाह्य सामग्री में)
बाह्य सामग्रीमें उपादानको सहकारिता एवं उपादानकी सहकारिता है एवं मान लेनमें न आगमविरोष है मान लेने में निमित्तताकी व्यबहारनयविषयताके
साथ न आममविरोध है अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें
अपना उपर्युक्त वक्तव्य बास्तविक मानता
वास्तविक मानता है यथार्थकारण या यथार्थकर्ता नहीं यथार्थकारण था यथार्थकर्ता नहीं मानता है मानता
अपितु अयथार्थकारण और अयथार्थकर्ता (उपचरितकाती) मानता है
१२० १२२ १२५ १२५ १२५
१२५ १२५
१२६
१२
_
१२६
..-.-
-..
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३१४
पु०
१२७
१२८
१२८
३
१३०
६१
१३३ १८
१३३
२२
१३७
पंक्ति
५
२
१३८
१३९
२५
२
५.
२
१४०
१४
१४३
५
૪૩ २१
१४५
३२
१४६ १९
૪૭
८
१५२
२०
१५५
६
१५९ ३१
१६५ १७
१६६
९
१६७
३२
३
१६८
१६८
४
१६८ १७
१७०
९
१७०
१७०
ܕ
११
जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
शुद्धि
परन्तु उत्तरपक्षका यह कथन ठीक नहीं है दोनोंको अपने-अपने रूपसे
इस अपेक्षास
परन्तु मैं इसी प्रश्नोत्तरके निमित्तकारणको
अशुद्धि
उत्तरपक्षका यह कथन ठीक नही हैं। दोनों को समानरूपसे
इस अपेक्षापर
मैं इसी प्रश्नोत्तरके
निमित्तकारण
उसमें
इस विगमको
उसे पूर्वोक्त प्रकारसे प्रेरक और उदासीन (अप्रेरक) दो रूप में
इतना ज्ञातव्य
जो महत्त्व कपड़े का है वही और
उतना
होती है
अन्य अन्य रूप दजों
व्यंजनपर्यायस
परन्तु
अतः
कार्याव्यवहित पर्यायी
अण
लिखा है
छपक
पक्षमें
एक साथ
पूर्वपक्ष की
"अपने रूप" हो है "इस कथन की
निदिष्ट" इस विषयमें
कार्यरूप
उम्रका
गलत है। उपादादिको
उनमें
इस विषयको
उस कार्यकारिताको पूर्वोक्त प्रकारको प्रेरकता और अप्रेरकता ( उदासीनता) के रूप में माम्य करते हुए निमित्तके प्रेरक निमित्त और अप्रेरक ( उदासीन ) निमित्त ये दो भेद प्रयोगभेदके साथ कार्यभेदके आधारपर
इतना अवश्य ज्ञातव्य
जितना महत्व कपड़े का है उतना
होता है
अन्य-अन्यरूपताको प्राप्त दर्जी व्यंजनपयायें
X
यतः
कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायको
ग्राह्य
लिया है
X
क्षपक
फेरमें
इसके साथ
उस पक्षकी
"अपने रूप" ही है" इस कयनकी निर्दिष्ट "इस विषयमें
कर्मरूप
उत्तरपक्ष का
गलत है, क्योंकि
इसी तरह उत्पादादिको
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________________
शुद्धिपत्र
पंक्ति
अशुद्धि
१७१
मान्यताकी क्रियामें ही स्वपप्रत्यय इस रूपमें
१७१ १७२
१७३
१७३
योग्यता अपरपक्षका योग्यता' ही ज्ञात होता है
१७४ १७५ १७५
जिसे
१७५
२५
१७७
पुद्धि मान्यताको उत्तरपक्षका क्रियामें स्वपरप्रत्यय इस रूपमें परमार्थ मूत न होकर भी एक द्रव्यको क्रियामें दूसरा द्रश्य सहायक होता है इस रूपमें योग्यताकी अनुरूपता उत्तरपक्षका योग्यताको अनुरूपता हो यही ज्ञात होता है जिससे. सिद्ध करना है शक्तिको xxx दिया है xxx पुद्गलका ही फर्मरूप स्व-रूप करना करना अयथार्थ कारण और वह पुद्गल व्रख्यकी क्रियापरिणाम हो जाता है पथको अवलम्जन लेते है भाववती या क्रियावती शक्तिका शक्तिका वाचनिक सहयोगसे जीवकी भाववती शारीर और सामान्य समीक्षाके तथा
सिद्ध करता है शक्ति अर्थात दिया जाता है (स्वतःसिद्ध) पुद्गलका कर्मरूप ही स्वरूप कुछ करना कुछ करना यथार्थ कारण
और पुद्गल द्रव्यको क्रियारूप परिणाम जाता है पदको अवलम्बन तो लेते हैं भाबचती शक्तिका पाक्तिका मानसिक, वावनिक सहयोगसे होनेवाली जीवको भानबत्ती शरीर सामान्य समीक्षाके मूलका सम्यमिथ्यादर्शन और निश्चयसम्यग्दिर्शन
१८२ १८५ १८६ १८९
१९२
३५ १८ ३२
२०१
२०२
२०२ २०४ २०५ २०५
२०५
२०८
सम्पम्मिथ्यादर्शन और निश्चयसम्बग्दर्शन
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पुरु २०९
पंक्ति २९
२२
२११ २१६ २१७ २२३ २२४ २२४ २२४ २२४
१२
२७
२२५१ २२५ २० २२५ २२६ २२७ २२८
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अशुद्धि गुरुको हितकर
गुरुको अहितकर अशिक्तवश
সন্ধি परिणमन हूँ
अथासंभव मानसिक, वाचनिक या कायिक
परिणमन है व्यवहार धर्म
व्यवहारधर्म और व्यवहार अधर्म हो जाता कि
हो जाता है कि कहना ही
मान्य करना हो (सच० ० ७९)
(त: च० १.० ८१) कि परमभावग्राहो
फि 'परमभावनाही तद्भूत व्यबहार और ससद्भुत ससद्भूत व्यवहार और अमदभूत लक्षण है, पूर्वपक्ष इसलिए
पूर्वपक्ष भी अयथार्थ कारण मानता है, परन्तु
वह इसलिये यह प्रश्नोत्तर
यह बात प्रश्नोत्तर दृष्टि रूपमें
दृष्ट रूपमें व्यवहारके
व्यवहारसे
सो यह प्राप्त न
प्राप्त प्रस्तुत
प्रत्युत निमित्त हुई तो
निमित्त हुई' सो ससकी
उसको किया करता है
क्रिया करता है अध्यापन किया करता है तो अध्यापन क्रिया करता है सो किया करता है
क्रिया करता है तःच.९३ पर
१० च० पू०८३ पर बनी
बन संसारवृद्धि
संसारवृतिका प्रतिक्रिया पदमें आये 'सुह' शब्दसे
पदसे बद्ध कर्मोंके संबर
कर्मोंके संवर प्रवृत्तिके रूपमें
प्रवृत्तिके रूपमें व्यवहारधर्म अदया
अदयारूप उसे
xxx सर्वापरति
सर्वविरति
तो यह
१७
२२८
२३१
२४
२३२
२३
२३२ २३२
१.
२३३
१७
२३५ २३७ २४४
प्रक्रिया
२४४ २४४ २६६ २६६ २७४
१७
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________________ शुद्धिपत्र पंक्ति शुद्धि भाववती पामारके 3 275 276 25 21 चतुर्दश ~ 'ওও 5 277 277 278 28. ર૫ 23 अशुद्धि भावती आधारके चतुर्थदश चतुर्थदश चतुर्थदश निश्चयधर्मका पूर्णतः (तटस्थ) दर्शनचेतनाके वह वह मोक्षमार्गकी प्रथम यदि जबतक भव्य और परिणामस्वरूप दृश्य परिणामस्वरूप मन जीव मिट्टीकी ही उपदेश कर्ता सभामण्डल वितात्मक 21 28 286 287 290 290 चतुर्दश चतुर्दश निश्चयधर्म की पूर्णता (तटस्थता) जानचेतनाक वह भी मोक्षमार्ग मोक्षकी xxx कि यदि जबतक जीव अभव्य और परिणमनके रूपमें हृदय परिणमनके रूपमें मन जीवमें मिट्टीकी ही परिणति उपदेश करता सभामण्डप वितकात्मक 30 24