________________
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा है या नहीं" इस प्रश्नमें उक्त विषयपर ही जोर दिया है जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। परन्तु उत्तरपक्षने अपने उत्तर में इस विषयको स्पर्श नहीं करते हए इतना ही उल्लेख किया है कि संसारी आत्माकै विकारभाव और चतुर्मतिभ्रमणका यथार्यकर्ता संसारी आत्मा ही है, व्यकर्मोदय नहीं, क्योंकि द्रव्यकर्मोदय उसमें निमित्त मात्र है। इसलिए वह उनका यथार्थकर्ता न होकर उपचरितकर्ता ही है। इसपर मेरा कहना है कि पूर्व और उत्तर दोनों पक्षों में एक तो इस विषयको लेकर विवाद ही नहीं है। दूसरे, प्रश्न भी इस विषयको लेकर नहीं किया गया है । अत: उसरपक्ष द्वारा प्रश्नके उत्तरमें जो कुछ कहा गया है वह प्रश्नके अनुरूप नहीं होनेसे पूर्वपक्षका यह प्रश्न असमाहित ही है कि ब्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण माना जाये या उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्तकारण ही मान लिया जाये ? पूर्वमें बहु बार ऊहापोह पूर्वक स्पष्ट कर दिया गया है कि द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाब और चतगतिनमणमें कार्यकारी निमिसकारण मानना आगमसम्मत और युक्त है, उसे अकिंचिकर निमित्तकारण मानना न युक्त है और न आगमसम्मत है।
उत्सरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्यके अन्त में तच. पृ०४४ पर लिखा है---''स्पष्ट है कि उक्त आठों आगमप्रमाण अपरपशके विचारोंके रामर्थक न होकर समयसारके उक्त कथनका ही समर्थन करते हैं अतएव जनसे हमारे विचारोंकी ही पुष्टि होती है।"
इसपर मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षपर यह मिथ्या आरोप लगाया है कि चूंकि यह (पूर्वपक्ष ) द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें यथार्थ कारण या मुख्यकर्ता मानता है, इसमे उसके उक्त आठों प्रमाण अपरपक्षके विचारोंके समर्थक नहीं है। परन्तु पूर्वपक्षने मार-चार स्पष्ट किया है कि वह द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव व चतुर्गतिभ्रमणमें यथार्थ कारण या मुख्य कर्ता नहीं मानता है, संसारी आत्माको ही उसका यथार्थकारण मा मुख्यकर्ता स्वीकार करता है। द्रव्यकर्म तो उसमें सहायक होने रूपसे मात्र कार्यकारी निमित्तकारण है। पूर्वपक्ष द्वारा बारबार इतना सब कुछ स्पष्ट किये जाने पर भी उसकी उपेक्षा करके उत्तरपक्षने सर्वत्र इसी बातको उछाला है कि पूर्वपा द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव व चतुर्गतिभ्रयणमें पथार्थकारण या मुख्यकर्ता भानता है तथा इसीके खण्डनमें उसने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाई है जो निरर्थक सिद्ध हुई है, क्योंकि पूर्वपक्ष यह मानता ही नहीं है कि द्रव्यकर्म का उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणका यथार्थकारण या मुख्यकर्ता होता है। उसे केवल पूर्वपथके इस मूल प्रश्नका ही उत्तर देना था कि द्रव्यकर्म का उदय संसारी आरमाके विकारभाव और धतुतिभ्रमणमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण होता है या वह वहां पर सहायक न होने रूपसे अकिचिकर निर्मिसकारण ही बना रहता है ।
पूर्वपक्षने अपनी मान्यताके रामर्थनमें त० च पृ० १३ पर पं० फूलचन्द्रजी द्वारा लिखित पंचाध्यायो अध्याय २ के पद्य ५० के विशेषार्थको भी उद्धत किया है, जो निम्न प्रकार है
"कर्म तो आत्माक्री विविध अवस्थाओंके होने में निमित्त है और उसमें ऐसी योग्यता उत्पन्न करता है जिससे वह अवस्थानुसार शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासकें योग्य पुद्गलको योग द्वारा ग्रहण करके तदरूप परिणमाता है।" इसपर उत्तरपक्षने त. च. १०४३ पर लिम्बा है-"तीसरा उल्लेख पंचाध्यायी