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शंका-समाधान १ की समीक्षा
बर्तनका संयोग मिलने पर ही होती है उसके बिना नहीं । इसका निष्कर्ष यह है कि न तो पीतलका बर्तन घी को विकाररूप परिणति में प्रविष्ट होता है और न पीतल के बर्तन के संयोगके अभाव में घी ही विकृत होता है किन्तु पीतलका वर्तन त्रीकी विकृत परिणतिमें संयोग सम्बन्धके आश्रयसे सहायक मात्र होता है। इससे सिद्ध होता है कि पीतल के बर्तनका घीको विकृतिमें प्रवेश आवश्यक नहीं है ।
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यदि कहा जाये कि जब पीतलके वर्तनका प्रवेश घीकी विकारी परिणतिमें नहीं होता तो उसे उस कार्य में सहायक न मानना ही उचित है, तो इसका उत्तर यह है कि पीतल के बर्तनमें बीके न रखनेपर उसके विकृत होने की संभावनाको ऊपर निरस्त किया जा चुका है। इस तरह यह मानना ही उचित है कि जीकी विकृत परिणति में दीसलका सहायका कारण होता है तथा संयोग सम्बन्धके साथ सहायक कारणता या निमित्तकारणताका कोई विरोध भी नहीं है । इसी प्रकारकी स्थिति 'मिट्टी घड़ा बनती है' ओर 'कुम्भकार घड़ा बनाता है' इत्यादि स्थलोंमें भी जान लेना चाहिए ।
यहाँ उत्तरपक्ष यदि यह कहे कि निमित्तका कार्य में प्रवेश न होनेसे वह अकिचित्कर माना गया है तो पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि इस मान्यता के विषय में पूर्वपक्षका उत्तरपक्ष के साथ कोई विरोध ही नहीं हैं। विवाद तो केवल दोनों पक्षोंके मध्य इस बातका है कि निमित्तको जहाँ पूर्वपक्ष कार्यमें उपादानका सहायक होने के आधारपर कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उसे वहाँ पर उपादानका सहायक न होने के आधारपर अर्कचित्र हो मान लेना चाहता है ।
उत्तरपक्ष द्वितीय दौरके इसी भागमें 'यः परिणमति स कर्ता इत्यादि समयसार कलश के आधारपर ओकर्ताका लक्षण 'जो परिणमन करता है अर्थात् परिणत होता है वह कर्ता होता है' ऐसा माना गया है सो इसके विषय में भी पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ कोई विरोध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष भी उत्तरपक्षकी तरह उपादानको ही कार्यरूप परिणत होने के आधारपर कर्ता मानता है । यतः उसकी भी मान्यतामं निमित्त कार्यरूप परिणत नहीं होता अतः उसे वह भी उत्तरपक्षकी तरह कर्ता नहीं मानता है और मानता भी है तो उतरपक्षके समान वह भी उसे उपचारसे ही कर्ता मानता है। दोनों पक्षोंकी इस मान्यतामें यदि कोई अन्तर है तो वह इस बात का है कि पूर्वपक्षको मान्यता में निमितको उपचरितकर्ता माननेका आवार निमित्त का कार्यरूप परिणत होने में उपादानकी सहायता करना जबकि उत्तरपक्षकी मान्यतामें निमित्तको उपचरितकर्ता माननेमें कोई आधार नहीं निश्चित किया गया है, क्योंकि वह उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त को सर्वथा अकिंचित्कर मानता है ।
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इसी प्रकार उत्तरपक्षने द्वितीय दौरके इसी भागके अन्त में यह भी लिखा है कि 'अतएव निमित्त - कर्ताको व्यवहार (उपचार) से कर्ता मानना मुक्तिसंगत है, क्योंकि एक द्रव्यका कर्तृधर्म दूसरे द्रव्यमें उपलब् नहीं होता" सो दोनों पक्षोंके मध्य इस विषय में भी कोई विरोध नहीं है। विरोध तो दोनों पक्षों के मध्य सामान्य रूपसे प्रेरक और उदासीन दोनों ही प्रकारके निमित्तोंको कार्यात्पत्ति में उपादानका सहायक रूपसे कार्यकारी मानने, न माननेका है और विशेषरूपसे द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्मा के रिकारभाव तथा चतुर्गति मण में सहायकरूपसे कार्यकारी मानने, न माननेका है। इसलिये उत्तरपक्षको अपने वक्तव्यमें इसी विषयपर अपना मन्तव्य प्रकट करना चाहिए था। परन्तु उसमें अपना मन्तव्य न तो इस विषय में स्पष्ट रूपसे
१. देखो त० च० पृ० ९