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अयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ही वस्तुकी कार्यरूप परिणति नहीं होती है। इनसे यह निष्कर्ष निकालना सही नहीं है कि कार्य केवल उपादानकारणभूत वस्तुकी स्वाभाविक योग्यताके बलपर ही हो जाता है और निमित्त वहाँ अफिचिकर ही बना रहता है। सत्य तो यह है कि कार्यरूप परिणति स्वयं उपादानकी होती है और वह उसमें विद्यमान स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है । परन्तु वह प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग मिलनेपर ही होती है। इस तरह दोनों निमित्त उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होंने रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध होते हैं । वे वहाँ सर्यथा अकिंचित्कर नहीं रहते हैं । यह पूर्वमें विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है तथा इष्टोपदेश पद्य ३५ में व उसको टीकाके 'नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेप: प्राप्नोति' इत्यादि कथनमें भी "निमित्त' शब्दका प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ टीकाके 'धर्मास्तिकायस्तु गत्युपग्राहकद्रव्यविशेषस्तस्याः सहकारिकारणं स्यात्' इस वचनके भाधारपर सहकारी कारण होता है। इस तरह दोनों निमित्तोंकी कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे अनिवार्यता सिद्ध है । यहाँ इतना स्पष्ट करना इसलिए आवश्यक हुआ कि उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिमें यदि उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त इन तीनोंको पूर्वोक्त प्रकार पृथक्-पृथक् उपयोगिताको समझ ले और यह भी समझ ले कि कार्योत्पत्ति उपादानमें ही होती है और उपादानगत कार्यानुकूल योग्यताके अनुरूप ही होती है, परन्तु प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग मिलनेपर ही वह होती है, तो प्रेरक निमित्तके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है यह मान्यता दोनों पक्षों के मध्य निविवाद सिद्ध हो जायेगी और तब उत्तरपक्षका बह भय भी समाप्त हो जायेगा।
उत्तरपक्ष संभवतः यह भी सोचता है कि यदि उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें प्रेरक और उदामीन निमित्त कारणोंका सहयोग अपेक्षित माना जाये तो उपादानकी तरह दोनों निमित्तकारणोंका कार्य में प्रवेश भी स्वीकार करना अनिवार्य हो जायेगा, सो उसका ऐसा सोचना मिथ्या है, क्योंकि उपादानको कार्यरूप परि
तिमें उक्त दोनों निमित्तोंका सहयोग आवश्यक होने पर भी उसका ज्यादान की तरह कार्यमें प्रवेश न तो संभव है और न आवश्यक ही है। निमित्तोंका कार्यमें प्रवेश सम्भव क्यों नहीं ?
जिस कारणके साथ कार्यका तादात्म्य सम्बन्ध होता है उसी कारणका कार्यमें प्रवेश हो सकता है। जिस कारणके साथ कार्यका तादात्म्य सम्बन्ध न हो किन्तु संयोग सम्बन्ध हो उस कारणका कार्य में प्रवेश कदापि नहीं हो सकता है, क्योंकि दो वस्तुयें परस्पर संयुक्त होकर भी एक नहीं हो सकती हैं। इस तरह तादात्म्य सम्बन्ध होनेके कारण उपादानका तो कार्य में प्रवेश होता है लेकिन तादात्म्य सम्बन्ध न होकर संयोग सम्बन्ध होने के कारण दोनों निमित्तोंका कार्य में प्रवेश संभव नहीं है। निमित्तोंका कार्यमें प्रवेश अनावश्यक क्यों ?
निमित्तोंका कार्य में प्रवेश अनावश्यक है, क्योंकि कारणका कार्यरूप परिणत होना एक बात है और उनका उसमें सहायक होना अन्य बात है। जैसे पीललके बर्तनमें रखा गया घी विकृत हो जाता है । इसमें ज्ञातव्य बात यह है कि विकृत तो घी होता है और वह उसमें विद्यमान विकृत होनेको निजी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार विकृत होता है, परन्तु वह तभी विकृत होता है जब उसे पीतलके बननमें रख दिया जाता है । इसके पूर्व उसमें विकृत होनेकी स्वाभाविक योग्यताका सद्भाव रहते हुए भी वह विकृत नहीं होता है । लोकमे ऐसा जानकर ही चीको पीतलके बर्तन में रखना अभीष्ट नहीं माना जाता है। इससे स्पाट समझमें आता है कि पीकी विकाररूप परिणतिमें चीमें विद्यमान उसकी स्वाभाषिक योग्यता अनुसार होकर भी पीतलके