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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
है अथवा सांख्यमता प्रसंग आता है। यदि यह माना जाय कि जीव पुद्गल द्रव्योंको कर्मरूपसे परिणामाता है तो ( प्रश्न होता है कि ) स्वयं नहीं परिणमते हुए उन पुद्गल द्रव्योंको चेतन मात्मा कैसे परिणमा सकता है। इसलिए यदि यह माना जाय कि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मरूपसे परिणमता है तो जीब कर्म अर्थात् पुद्गल द्रव्यको कर्मरूपसे परिणामाता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। इसलिए जैसे नियमसे कमरूप परिणत पुद्गल य कर्म ही है वैसे ही ज्ञानावरणादिरूप परिणत पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि हो हैं ऐसा जानो ।।११६-१२० ॥
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इस प्रकार इस अर्थपर दृष्टिपात करनेसे ये दो तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं- प्रथम तो यह कि अपर पक्षने उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है वह उन गाथाओंकी शब्दयोजनासे फलित नहीं होता । दूसरे इन गाषाओं में आये हुए 'स्वयं' पदका जो मात्र 'अपने रूप' अर्थ किया है वह ऐकान्तिक होनेसे ग्राह्य नहीं है । कर्त्ता के अर्थ में उसका अर्थ 'स्वयं हो' या 'आप ही करना संगत है। और यह बात आगमविरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि नित्येोपरि उत्पन्न करता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार में कहा भी है
भावं सुमहं करेदि आदा स तस्स खलु कप्ता । तं तस्स होदि कम्म सो तस्स दु वेदगो अप्पा ||१०२ ॥
आत्मा जिस शुभ या अशुभ अपने भावको करता है उस भावका वह वास्तव में कर्ता होता है और
बह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा कर्मरूप उस भावका भोक्ता होता है ॥ १०२ ॥
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए हरिवंदापुराण सर्ग ५८ में भी कहा है
अविद्यारागसंविलष्टो बम्भ्रमीति भवार्णवे । विद्यावैराग्यशुद्धः सन् सिद्धगत्यविकल स्थितिः ॥ १३॥ इत्यध्यात्म विशेषस्य दीपिका दीपिकेव सा । रूपादेः शमयत्याशु तमिस्रं तत्र सन्ततम् ॥ १४॥
अधिराग से संश्लिष्ट हुआ यह जीव संसाररूपी समुद्र में घूमता रहता है और विद्यावैराग्यसे शुद्ध होकर सिद्धगति अविकल स्थितिवाला होता है ||१३|| यह अध्यात्म विशेषको बतानेवाली दीपिका है । इसलिए जैसे दीपक रूपादि विषयक अन्धकारको शीघ्र नष्ट कर देता हैं उसी प्रकार यह भी अज्ञानान्धकारको शीघ्र नष्ट कर देता है ।। १४ ।।
इससे प्रकृतमें स्वयं पदका क्या अर्थ होना चाहिए यह स्पष्ट हो जाता है ।
यहाँ अपर पक्षने 'स्वयं' पदके 'अपने आप' अर्थका विशेष दिखलाने के लिए जो प्रमाण दिये हैं उनके विषय में तो हमें विशेष कुछ नहीं कहना है । किन्तु यहाँ हम इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते हैं कि एक तो प्रस्तुत प्रश्नके प्रथम व दूसरे उत्तर में हमने 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'अपने आप' न करके 'स्वयं ही' किया है। इस का 'अपने आप यह अर्थ अपर पक्षने हमारे कथन के रूपमें प्रस्तुत प्रश्नकी दूसरी प्रतिशंका में मानकर टीका करनी प्रारम्भ कर दी है जो युक्त नहीं है। हमने इसका विरोध इसलिए नहीं किया कि निश्चयकर्ताके अर्थ में 'स्वयमेव' पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं । ऐसी अवस्थामें 'अपने आप' पदका अर्थ होगा 'मरकी सहायता बिना आप कर्ता होकर ।' आशय