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शंका १ और उसका समाधान
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हो, कार्य अपने में हो वह दूसरेकी सहायता लिये बिना अपने कार्यका
इतना ही है कि जिसकी क्रिया अपने आप ही कर्ता होता है, अन्य पदार्थ नहीं ।
इस प्रकार प्रवचनसार गाथा १६९ को टीकामें 'स्वयमेव' पदका क्या अर्थ लेना चाहिए इसका खुलासा किया । अन्यत्र जहाँ-जहाँ कार्य कारणभाव के प्रसंगसे यह पत्र आया है वहां वहाँ इस पद का अर्थ करने में यही स्पष्टीकरण जानना चाहिये। यदि और गहराई से विचार किया जाय तो यह पद निश्चयकर्ता के अर्थ में तो प्रयुक्त हुआ ही है, इसके सिवाय इस पदसे अन्य निश्चयकारकोंका भी ग्रहण हो जाता है । आगे अपर पक्षने 'उपचार' पदके अर्थ के विषय में निर्देश करते हुए धवल पु० ६ १० ११ के आधारसे जो area अन्य धर्मको अन्यमें आरोपित करना उपचार है । इस अर्थको स्वीकार कर लिया है वह उचित ही किया है। उसी प्रकार वह पक्ष समयसार गाथा १०५ में आये हुए 'उपचार' पदका भी उक्त अर्थ ग्रहण करेगा ऐसी हमें आशा है, क्योंकि जिस प्रकार धवल पु० ६ पृ० ११ में जीवके कर्तृत्व धर्मका उपचार जीवसे अभिन्न ( एक क्षेत्रावगाही ) मोहनीय द्रव्यकर्म में करके जीवको मोहनीय कहा गया है उसी प्रकार रामगसार गाथा १०५ में कर्मणाओंके कर्तुत्व धर्मका आरोप जीव में करके जीवको पुद्गल कर्मका कर्ता कहा है। दोनों है। यहाँ मोहनीय कर्मोदय जीवके अज्ञानभाव के होनेमें निमित्त है । समयसार गाथा १०५ में जीवका अज्ञान परिणाम ज्ञानावरणादिरूप कर्म परिणाम में निमित्त है । इस प्रकार दोनों स्थलोंपर बाह्य सामग्रीरूपसे व्यवहार हेतुका सद्भाव है। अतएव समयसार गाथा १०५ मैं 'मुख्याभावे सति प्रयोजने' इत्यादि वचनकी चरितार्थता बन जाती है ।
समयसार गाथा १०५ को लक्ष्य रखकर अपर पक्षका कहना है कि 'परन्तु ऐसा उपचार प्रकृत में सम्भव नहीं है. कारण कि आत्माके फखका उपचार यदि द्रव्यकर्ममें आप करेंगे तो इस उपचार के लिए सर्वप्रथम आपको निमित्त तथा प्रयोजन देखना होगा कि जिसका सर्वथा अभाव है।' समाधान यह है कि यहाँ पर यवहारहेतु और व्यवहार प्रयोजनका न तो अभाव ही है और न ही आत्माके कर्तुत्व का उपचार द्रव्यकर्म में कर रहे हैं । किन्तु प्रकृतमें हम कर्मपरिणामके सन्मुख हुई कर्मवगंणाओंके कर्तुत्वका आरोप व्यवहारहेतु संज्ञाको प्राप्त अज्ञानभावसे परिणत आत्मामें कर रहे हैं। अतएव 'अतः यहाँ बाह्य हेतु और बाह्य प्रयोजनका सर्वथा अभाव है, इसलिए उपचारको प्रवृत्ति नहीं हो सकती' अपर पक्षका ऐसा अभिप्राय व्यक्त करना आगम विरुद्ध तो है ही, तर्क और अनुभव के भी विरुद्ध है। अपर पक्ष यदि उक्त गाथाकी रचनापर दृष्टिपात करे तो उसे ज्ञात होगा कि स्वयं आचार्यने गाथा पूर्वार्ध 'हेदुभूदे' पक्षका उल्लेख कर बाह्य निमित्तका निर्देश कर दिया है तथा 'बंधस्स दु परिसदूण परिणामं वचनका उल्लेख कर मुख्यकर्ता और मुख्य कर्मकी सूचना कर दी है। फिर भी ब्राह्म निमित्तके ज्ञान करानेरूप बाह्य प्रयोजनको लक्ष्य में रखकर मुख्यकर्ता स्थानमें पुद्गलकर्मधर्मणामोंके कर्तृत्वका उनसे अभिन्न ( एक क्षेत्रावगाही ) अज्ञान परिणत जीव में उपचार करके उपचारसे उक्त जीवको कर्मका कर्ता कहा गया है। स्पष्ट है कि समयसार गाथा १०५ में उपचार पदका वही अर्थ लिया गया है जिसका कि हम पिछले उत्तरमें संकेत कर आये हैं। और जिसे धवल पु० ६ ० ११ के मुह्यत इति मोहनीयम्' वचनके अनुसार अपर पक्षने भी स्वीकार कर लिया है।
इस प्रकार अपर पक्ष द्वारा उपस्थित किये गये मूल प्रश्नका अवान्तर विषयोंके साथ सांगोपांग विश्वार किया ।