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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उसका अकल्याण होना निश्चित है। तथा अपनी कल्याणके मार्गपर चलनेको दृष्टि बतलाने के अनन्तर उत्तरपक्ष ने जो पूर्वपक्षको उपदेश दिया है उसे भी में अनुचित नहीं मानता है, क्योंकि खानिवामें जो तत्त्वका आयोजन श्री १०८ आवार्य शिवसागर जी महाराज के तत्वावधान में स्व० प्र० सेठ हीरालालजी पाटन निवाई वालोंके आर्थिक सहयोगके बलपर म० लाइमलजीने किया था उसका भी मूल उद्देश्य कल्याणके मार्गको समझने और समझानेका ही था तथा दोनों ही पक्ष अपने अन्तःकरण में इसी भावनाको रखकर काशा और विश्वासके साथ बड़े उत्साहवे उसमें सम्मिलित हुये थे । यह बात अवश्य है कि चर्चा प्रारम्भ होते ही उत्तरपक्ष के हृदयमें पक्षव्यामोह उत्पन्न हो जानेसे उसको नीति में जो परिवर्तन आ गया था
उसके कारण वह आयोजन उद्देश्य की पूर्ति में सफल नहीं उत्तरपक्ष के द्वारा अपनाई गई प्रक्रियापर ध्यान देनेसे ज्ञात अन्य भी की है।
सका। मेरे इस कथन की वास्तविकता तत्त्वचर्चा में जाती है। उसकी इस प्रक्रियाको आलोचना
इसी
(३) पूर्वपक्षनेत० च० पू० १३४ पर जो " किन्तु आपने उन प्रमाणको स्वीकार नहीं किया और अद्भूत व्यवहारनयकी आड़ लेकर उन्हें टाल दिया है, जबकि वह कथन असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षासे नहीं है और न उसकी अपेक्षासे हो ही सकता है" यह कथन किया था। उसका उत्तर उत्तरपक्षनेत० ० पू० १४५ पर यह दिया है कि "हमने अपने दूसरे उत्तर में व्यवहारधर्मको असद्द्भूतव्यवहारनयसे निश्चय धर्मका साधक लिखकर उन प्रमाणोंको टालनेका प्रयत्न नहीं किया है। किन्तु उनके हार्दको ही रपष्ट करनेका प्रयत्न किया है।" तथा इसके आगे "व्यवहारधर्म आत्माका धर्म किस अपेक्षासे माना गया हूँ" यह लिखकर इसको स्पष्ट करने की दृष्टिसे उसने बृहद्रव्यसंग्रहकी गाथा ४५ के टीका- चचनको उपस्थित कर उसका अर्थ करते हुए आगे लिखा है कि "यह आगम प्रमाण है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि उपचरित असद्भूतव्यहारनकी अपेक्षा ही व्यवहारधर्म चारित्र या धर्मसंज्ञाको धारण करता है। वह वास्तव में आत्माका धर्म नहीं है । ऐसी अवस्था में उसे निश्चयधर्मका साधक उपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे ही तो माना जा सकता हूँ ।" सो उसका यह सब लेख संगत नहीं क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि एक व्यवहारधर्म व्यवहारसम्यग्वरूप है। दूसरा व्यवहारधर्म व्यवहारसम्यग्ज्ञानरूप है और तीसरा व्यवहारधर्म व्यवहारसम्यक्चारित्ररूप है | तथा इनमेरो जीवकी भागवती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक उसका हृदयके सहारेपर हो जो तत्वश्रद्धानरूप शुभ परिणमन होने लगता है वह व्यवहारसम्यग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म है व जीवको उसी भाववती शक्तिके मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक उसका मस्तिष्क के सहारेपर ही जो तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमन होने लगता है वह व्यवहारराम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म है। एवं जीवकी भाववती शक्तिके तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानरूप दोनों शुभ परिणमनोंसे प्रभावित होनेपर जीवको क्रिमावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृतिरूप परिणमनोंसे सर्वथा निवृत्ति पूर्वक उसी क्रियावतीशक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक आरंभी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमनोंके साथ जो उसी प्रकारके पुष्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं वे परिणमन नैतिक आचारणरूप व्यवहारसम्यक्चारित्र के रूपमें व्यवहारधर्म है एवं नैतिक आचारणरूप इस व्यवहारसम्यक्चारित्रके सद्भावमें जीवकी क्रियावती शक्तिके उक्त आरंभी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमनौरो एकदेश अथवा सर्वदेश निवृतिपूर्वक जो पुण्यमय
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१. 'शत्र योऽसौ बहिविषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितास भूतव्यवहारेण ॥'