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शंका-समाधान १ की समीक्षा
यहाँ पर मैं एक बात यह भी वह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन में जिस आगमकी पग-पग पर दुहाई दी है उसका उसने बहुत से स्वादपर साभिप्राय अनर्थ भी किया है। जैसा कि पूर्व में बलाया जा चुका है कि पद्मनन्दि पंचविचातिका १३ ७ का उसने पूर्वपक्षका मिय्या विरोध करनेके लिए जान-बूझकर विपरीत अर्थ करनेका प्रयत्न किया है और इसी तरहके प्रयत्न उसने आगे भी किये हैं जिन्हें यथास्थान प्रकाशमें लाया जायगा ।
अब आगे प्रकृत प्रस्नोत्तर के प्रत्येक दौरकी सामग्री की पृथक् पृथक् समीक्षा की जाती है । २. प्रश्नोत्तर १ के प्रथम दौरको समीक्षा
समयसार गाथा ८१ के अर्थमें उत्तरपक्षकी बौद्धिक भूल
उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के प्रश्नका जो उत्तर अपने प्रथम दौर में दिया है उसकी पुष्टि में उसने यहाँ पर समयसारकी ८० से ८२ तककी तीन गाथाओं को प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है। इनमेंसे गाथा ८१ का अर्थ उसने विपरीत किया है । वह अर्थ निम्न प्रकार है
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"जीव कर्म विशेषताको ( पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता। इसी प्रकार कर्म जीवमे विशेषताको (पर्यायको) उत्पन्न नहीं करता । परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनोंका परिणाम जानो । " - ० ० पृ० १
ऐसा अर्थ करनेमें उत्तरपक्ष की भूल यह है कि इसमें उसने आगमके आधारपर स्वयं स्वीकृत सिद्धान्त की उपेक्षा कर दी है। उसने आगमके आधारपर यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि जो परिणमता है या परि मन करता है वह कर्ता होता है । परन्तु गाथा ८१ का अर्थ करते समय उसने इस सिद्धान्तको भुला दिया 'है। उक्त सिद्धान्त के अनुसार गाथाका अर्थ निम्न प्रकार हैं
'जीव कर्मगुणको नहीं करता अर्थात् कर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और कर्म जीवगुणको नहीं करता अर्थात् जीवगुणरूप परिणत नहीं होता । परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनों का परिणाम जानो ।'
ऐसा मालूम होता है कि उत्तर पक्षने गाचामें पटित 'कर्मगुण' और 'जीवगुण' इन दोनों पदोंको सप्तमी तत्पुरुष के रूप में समस्त पद समझकर गायाका अर्थ किया जब कि उन पदोंको षष्ठी तत्पुरुष के
रूपमें समस्त पद मानकर गाथाका अर्थ करना चाहिए था ।
प्रश्न के उत्तर में उक्त गाथाओं की अनुपयोगिता
समयसार गाथा ८२ एक वस्तुमें अम्ल वरतुके कर्तुत्वका निषेध करती है जो निर्विवाद है । परन्तु प्रकृत प्रश्न के उत्तर में उसकी उपयोगिता नहीं है. क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रश्न द्रव्यकमोंदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको कार्यकारिता या अकिं चित्करताका निर्णय करनेकी दृष्टि में किया गया है। इस तरह ८० से ८२ तक्की उक्त गाथाओं में से केवल गाथा ८० की उपयोगीता ही प्रश्न के उत्तर में हो सकती हैं। गाथा ८१ की उपयोगिता भी कुछ अंशोंमें प्रश्नके उत्तर में सकती है. क्योंकि उसके उत्तरार्ध भी उक्त निमित्त नैमिसिक सम्बन्धकी पुष्टि कर्तृकर्म सम्बन्ध निषेध पूर्वक होती है । तथापि प्रश्नका जो उत्तर उत्तरपक्षने दिया है उसका जब प्रश्न के आशय से मेल नहीं खावा तो ये दोनों गाथाएँ भी वहां अनुपयोगी सिद्ध होती हैं ।
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