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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इन प्रमाणोंसे यह स्पष्ट है कि आगम में निमित्तकारणका लक्षण भी निर्धारित किया गया है तथा आग में जिसप्रकार उपादानकारणको कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर कार्यकारी मानकर उसकी वास्त विकताको स्वीकार किया गया है उसी प्रकार आगम में निमित्त कारणको उपादानकारणकी कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधारपर कार्यकारी मानकर उसको भी वास्तविकताको स्वीकार किया गया है ।
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हाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वस्तुतस्वकी वास्तविकता अनेक प्रकारसे अवगत की जाती है । उपादानकारणको जो वास्तविक कहा गया है वह इस आधारपर कहा गया है कि स्वयं वह कार्यरूप परिणत होता है । तथा निमित्तकारण यद्यपि स्वयं कार्यरूप परिणत नहीं होता तथापि वह उपादानकी कार्यरूप परिणति में अनिवार्य सहायक होने रूपसे कार्यकारी कारण होता है, अतः उसे भी वास्तविक माना जाता है। जैसे जलको शीतलता उसका स्वभावधर्म होनेसे वास्तविक है । किन्तु उष्णता स्वभावधर्म न होनेपर भी समयसार गाथा १४ की आत्मख्याति के अनुसार भूतार्थ ( वास्तविक ) है क्योंकि वह अनिके संयोगसे जन्य जलकी ही विकृति है ।
यद्यपि जलमें अग्नि संयोगसे उत्पन्न होनेवाली उष्णता तथा कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादान रूप वस्तुसे भिन्न निमित्तकारणरूण वस्तुमें उस कार्यके प्रति सहायक होते रूपसे पाई जानेवाली निमित्तकारणता दोनों ही वास्तविक सिद्ध होती हैं। परन्तु उनमें यह भेद है कि जहाँ जलमें पाई जानेवाली शीतलता जलका स्वभावधर्म होनेरो निश्चयनयका विषय है तथा जलकी परिणति होनेसे सद्भूतव्यवहारनयका और उसी जल में पाई जानेवाली उष्णता अग्निसंयोगजन्य होनेसे असद्द्भूतव्यवहारनयका विषय है वहाँ उपादानकारणता कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुका नित्यता (द्रव्य) के रूपमें स्वभावधर्म होनेसे निदचयनयका और अनित्यता ( पर्याय) के रूप में स्वभावधर्म होने से सद्भूतव्यवहारनयका विषय है तथा निमित्तकारणता कार्यरूप परिणत होने वाली वस्तुसे भिन्न कार्योत्पत्ति में सहायक होने वाली वस्तुका धर्म होनेसे असद्भूत व्यवहारका विषय है । उत्तरपक्षको आगमके इसी अभिप्राय के अनुसार वस्तुस्थिति प्रकट करना चाहिए ।
अतएव उपादानकर्तृत्व इसलिये यथार्थ है कि उपादानभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है और निमित्तकर्तृत्व इसलिये यथार्थ नहीं है कि निमित्तभूत वस्तु कार्यरूप परिणत नहीं होती है । तथापि निमित्तभूत वस्तु आलापपद्धति के उक्त वचन के अनुसार उपादानभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधार पर स्वीकृत उपचरितकर्तृत्व भी आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित न होकर उपचरित रूपमें वास्तविक ही है । तात्पर्य यह है कि उपादानकारणता और उपादानकर्तृत्व दोनों ही उपादानभूत वस्तु वास्तविक धर्म हुँ क्योंकि उपादानकारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है । यतः निमित्तभूत वस्तु उपा
नभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति में सहायक (निमित्त ) होती है। अतः निमित कारणता भी इस आधारवर निमित्तभूत वस्तुका वास्तविक धर्म सिद्ध है और चूंकि निमित कर्तृश्व निमित्तभूत वस्तुका उपचरित धर्म होता है, इसलिये वह भी उपचरित रूपमें वास्तविक धर्म सिद्ध होता है । वह आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं है ।
हम इस विवेचनसे जान सकते हैं कि उपादान और निमित्तकी वास्तविकता किस रूपमें है। उत्तरपक्षको इस पर ध्यान देना चाहिए ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथन के अन्तमें जो यह लिखा है कि "निमित्तकर्त्ता" या निमित्तकारणपरक व्यवहारको अनेक स्थलोंपर अज्ञानियोंका अनादिरूढ़ लोकव्यवहार ही बतलाया गया है । सो वह एक