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शंका-समाधान १ की समीक्षा
दृष्टिसे है, सर्वथा नहीं । आगममें निमित्तकर्ता या निमित्तकारणपरक व्यवहारको अज्ञानियोंका अनादिरूढ़ लोकव्यवहार बतलानेका अभिप्राय यह है कि जो जीव व्यवहारकी व्यवहाररूपताको और निश्चयरूपताको पृथक्-पृथक् नहीं समझकर व्यवहारको व्यवहाररूपताको निश्चयरूपता समझ बैठे है ये अज्ञानी है। ऐसे अशानियों के प्रति हो समयसारगाथा ८५-८६ की रचना आचार्य कुन्दकुन्दने की है, जिसका आशय यह है कि व्यवहारकी व्यवहाररूपताको निश्चयरूपता समझ लेनेसे व्यवहारमें व्यवहाररूपताके साथ निश्चयरूपताकी प्रसक्ति होती है जो जिनाज्ञाके विरुद्ध है। जैसे कुम्भकार घटके प्रति व्यवहारकारण अर्थात् निमित्तकारण होता है। अब यदि उसे घटका निश्चयकारण अर्थात उपादानकारण मान लिया जावे तो उसमें घटके प्रति सहायक होने रूप अपनी कियाके साथ घटरूप परिणत होने रूप क्रियाकी भी प्रसक्ति हो जावेगी, जो कि उपादानभूत मिट्टीकी क्रिया है ।
____ आगे सप्तरपक्षाने त० च० पु० ५४ पर ही लिखा है-"अपरपक्षने हमारे कथनको लक्ष्यकर जो यह लिखा है "कि परन्तु इस पर ध्यान न देते हुए उस लक्षणको सामान्यरूपसे क्रर्ताका लक्षण मानकर निमित्त-नैमित्तिक भावकी अपेक्षा आगममें प्रतिपादित कर्त-कर्मभावको उपचरित (कल्पनारोपित) मानते हुए आपके द्वारा निमित्तकर्ताको अकिंचित्कर (कार्य के प्रति निरूपयोगी) करार दिया जाना गलत ही है' । किन्तु अपरपनकी हमारे कथनपर टिप्पणो करना इसलिये अनुचित है, क्योंकि परमागममें एक कार्यके दो कर्ता वास्तव में स्वीकार ही नहीं किये गये हैं"।
इसकी पुष्टि में उत्तरपसने "नकस्य हि कत्रो द्वौ स्तः" इत्यादि समयसार कलश ५२ को भी उधत कर लिखा है--"इससे स्पष्ट विदित होता है कि अब एक कार्यके परमार्थरूप दो कर्ता ही नहीं है, ऐसी अवस्थामें परमागममें दो कर्ताओंके लक्षण निबद्ध किया जाना किसी भी अवस्था सम्भव नहीं है, इसलिये प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि 'यः परिणमति स कर्ता' इस रूपमें कर्ताका जो लक्षण निबद्ध किया गया है वह सामान्य रूपसे भी कर्ताका लक्षण है और विशेष रूपसे भी, क्योंकि जहाँपर दो या दो से अधिक एक जातिको वस्तुयें हों वहाँ पर ही सामान्य और विशेष ऐसा भेद करना सम्भव है। यहाँ जब एक कार्यका का एक ही है तो एक कर्ताके दो लक्षण कैसे हो सकते हैं ? यही कारण है कि एक कार्यका एक कर्ता होनेसे परमागममें कत्तका एक ही लक्षण लिपिबद्ध किया गया है। निमित्तकर्ता वास्तबमें कर्ता नहीं, इसलिये परमागममें इसका लक्षण भी उपलब्ध नहीं होता। यह तो व्यवहार मात्र है। अतएव इस सम्बन्धमें हमारा जो कुछ भी कथन है वह यथार्थ है ऐसा यहाँ समझना चाहिए" ।
इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है
लगता है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके अभिप्रायको ठीक तरह नहीं समझा है। उसने त. च० पू० १९ पर "परन्तु इसपर ध्यान न देते हुए' इत्यादि जो कथन किया है उसका अभिप्राय है कि आगममें कतकि दो भेद निश्चित किये गये है-एक उपादानकर्ता और दूसरा निमित्तकर्ता । इनमेंसे उपादानकर्ता कार्यरूप परिणत होनेके रूप में यथार्यकर्ता है और निमित्तकर्ता कार्यरूप परिणत न होकर उपादानकी कार्यप परिगतिमें सहायक होने रूपसे सहायककर्ता-अयथार्यकर्ता है। आलापपद्धतिके पूर्वोक्त वचनके अनुसार उसका आशय यही है। इससे स्पष्ट है कि आगममें कार्यके प्रति दो कर्ता माने गये हैं। पर वे दोनों एक जातिके नहीं है अर्थात् एक कर्ता तो वह है जो कार्यरूप परिणत होता है और दूसरा का वह है जो कार्य रूप परिणत न होकर उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे का होता है । "नकस्य हि कर्तारौ
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