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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१११ कर्ताका लक्षण मानकर निमित्त नमित्तकभावको अपेक्षा सामनन प्रतिपादित कर्तृ-कर्मभावको उपचरित (कल्पनारोपित) स्वीकार करके आपके द्वारा निमित्तकर्ताको अकिंचित्कर (कार्य के प्रति अनुपयोगी) करार दिया जाना गलत ही है" अपने इस कथनके समर्थन में पूर्वपश्चने वह पर समयसार गाथा १०० और उसकी आत्मख्याति टीकाको भी उधत किया है।
पूर्वपक्षके इस कथनपर उत्तरपक्षने त ब.० ५४ पर यह कथन किया है-"यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार आगममें उपादानकर्ता और उपादानकारणके लक्षण उपलब्ध होते है और साथ ही उन्हें यथार्थ कहा गया है उस प्रकार आगममें निमित्तकर्ता या निमित्तकारणके न तो कहीं लक्षण हो उपलब्ध होते है और न ही वहाँ उन्हें यथार्थ ही माना गया है, प्रत्युत ऐसे अर्थात् निमित्तकर्ता या निमित्तकारणपरक घ्यबहारको अनेक स्थलोंपर अशानियोंका अनादिरून लोकव्यवहार ही बतलाया गया है । देखो, समयसार गाथा ८४ और उसकी दोनों संस्कृत टीकार्य आदि ।'
उत्तरपक्षका यह कथन मिथ्या है क्योंकि आगममें उपादानकर्ता और उपादानकारणके लक्षणोंको तरह निमितकर्ता और निमित्तकारणके भी लक्षण उपलब्ध है, जिसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं
(१) आचार्य विद्यानन्दने त० श्लोक वा० १० १५१ पर निमित्तकारणका निम्नलिखित लक्षण निर्धारित किया है
'यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणम् ।' अर्थात् जिसके अनन्तर ही जो नियमसे होता है वह उसका सहकारी (निमिस) कारण है। इस विषयको पूर्व में विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है और पूर्वपक्षने इसे तत्त्वचर्चा में भी स्पष्ट किया है।
(२) आचार्य अकलंकवने अष्टशती ( अष्टसहस्री पृ० १०५) में निमित्तकारणको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित वचन निबद्ध किया है
'तदसामध्यमखण्डयदकिंचित्करं किम् सहकारिकारणं स्यात् ?' अति उपादान (कार्यरूप परिणत होनेको योग्यता विशिष्ट वस्तु) की असामर्य (कार्यरूप परिणत न हो सकने रूप अशक्ति) का खण्डन नहीं करता हुआ अकिचित्कर रहनेपर सहकारी कारण हो सकता है क्या? अर्थात् नहीं हो सकता है । इसमें निमित्तकारणका लक्षण स्पष्ट परिलक्षित है और पूर्वपक्षने भी तत्त्वचर्चामें इसे स्पष्ट किया है।
(३) आचार्य प्रभाचाद्रने भी प्रमेयकमलमार्तण्डके पृ० १८७ पर "यच्चोच्यते" इत्यादि कथन द्वारा सहकारी (निमित्त) कारणको कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारी स्वीकार किया है, जिससे सहकारी कारणका लक्षण बताना प्रभाचंद्रको इष्ट है। इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है और पूर्वपक्षने भी तत्त्वचर्चा में स्पष्ट किया है।
(४) आचार्य विद्यानन्दने त० श्लो० वा० के १० १५१ पर "तदेव व्यवहारनयसमाश्रयणे" इत्यादि द्वारा प्रतिपादन किया है कि असदभूतव्यवहारतयका विषयभूत निमित्त-मैमित्तिकभाव रूप कार्यकारणभाव पारमार्थिक ही होता है, कल्पनारोपित नहीं होता। इससे भी निमित्तकारणका लक्षण ध्वनित होता है। इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है और पूर्वपक्षाने तत्त्वचर्चा में भी स्पष्ट किया है ।