________________
शंका-समाधान १ को समीक्षा
१५७
उत्तरपक्षने इसका खण्डन करते हए त० च० ५० ६८ पर “आगे अपरपक्षने हमारे कथनको उद्धृत्त कर मोक्षको स्वपरप्रत्यय पर्याय सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु आगममें इसे किस रूप में स्वीकार किया गया है इसके विस्तृत विवेचनमें तत्काल न पड़कर उसकी पुष्टि में एक आगम प्रमाण देना उचित समझते हैं।" इतना लिखकर पंचास्तिकाय गाथा ३६ को आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाका उद्धरण दिया है जो निम्न प्रकार है
"सिद्धो हि उभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमृत्पादयन्नान्यत् किंचिदुत्पादयति" |
इसका अर्थ उसने यह किया है कि "उभय कर्मका क्षय होनेपर सिद्ध स्वयं आत्मा (सिद्ध पर्याय) को उत्पन्न करते हुए अन्य किसीको उत्पन्न नहीं करते ।"
इसपर मेरा कहना यह है कि दोनों पक्षोंकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय पर्यायोंकी मान्यताओंमें अपेक्षाभेदका ही अन्तर है, इसे ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ मैं पुनः स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आगममें द्रव्योंकी पड्मणहानिवृद्धि रूप पर्यायोंको स्वप्रत्यय और उनसे अतिरिक्त उनकी पथासम्भव शेष सभी पर्यायोंको स्वपरप्रत्यय माम्य किया गया है। पूर्वपक्षको मोक्षपर्याय उत्तरपक्षके समान स्वभावपर्याय मानने में आपत्ति नहीं है परन्तु वह कांके क्षयका निमित्त मिलने पर ही उत्पन्न होती है अत. वह स्वपरप्रत्यय पर्याय कही जाती है। पंवास्तिकाय गाया ३६ की आचार्य अमृतत्तन्द्र कृत टीकाके उत्तरपक्ष द्वारा अपने वक्तव्य में नदार उक्त बमनमे भी सोमायने कर्मों के लयको स्पष्ट रूपसे निमित्त स्वीकार किया गया है।
तात्पर्य यह है कि आगममें धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा जीव और पुद्गल इन मभी द्रव्योंकी षड्गुणहानिवृद्धि रूप पर्यायोंको स्वप्रत्यय व इनके अतिरिक्त उनकी एक दूसरे द्रव्यके निमित्तगे होनेवाली पर्यायोंको स्वपरप्रत्यय मान्य क्रिया मया है। सभी द्रव्योंकी षड्णहानिवृद्धि रूप म्बप्रत्यय पर्याय स्वभावरूप ही होता है तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल पोंकी स्वपरप्रत्यय पर्यायों को भी स्वभावपर्याय कहना युषितयत्रत है तथा पद गलकर्म और नोकर्म के सायद जीयोंकी जो कमों के उपशय, क्षय और क्षयोपशम होनेपर स्वपत्प्रत्यय पर्याय होती हैं उन्हें भी सभावपर्याय कहना अयुक्त नहीं है एवं उनकी कमौके उश्यमें होनेवाली स्वपरप्रत्यय पर्यायोंको जो विभाव पर्याय कहा जाता है । यह भी युस्तियुक्त है। इसी तरह पुद्गलोंकी स्कन्वरूप और कर्म-नोकर्म स्वपरप्रत्यय पर्यायों को अशुद्ध पर्याय कहना भी युक्तियुक्त है, ऐसा जानना चाहिए।
इस विवेचन के आधारपर मेरा कहना है कि उत्तरपक्ष का त० च पृ० ६८ पर निर्दिष्ट "इससे स्वप्रत्यय पर्याय और स्वपरप्रत्यय पर्यायके कथनमें अन्तनिहित रहस्का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। किन्तु अपरपक्ष दोनोको एक कोटिम रखकर उक्त रहस्यको दृष्टिपथमे नहीं ले रहा है। इतना ही हम यहाँ कहना पाहेंगे।" यह कथन पूर्वपक्षपर लागू नहीं होकर उत्तरगनपर ही लागू होता है। वास्तबमें तत्त्वजिज्ञासुओंके लिए यह समझना कठिन नहीं है कि क्रोन पक्ष उक्तः रहस्यको दृष्टिपथमें नहीं ले रहा है।
आगेतच. पृ० ६८ पर उत्तरपक्ष ने लिखा है कि "हमने पंचास्तिबायका अनन्तर पूर्व ही कथन उद्धृत किया है उसका जो आशय है वहीं आशय तत्वार्थसूत्रके "बन्धहत्वभाव" इत्यादि वनका भी है।" सो पंचास्तिकावफे उक्त टीका-वचनको समीक्षामें जो कहा गया हो वैसा ही यहां भी समझना चाहिए ।