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शंका-समाधान २ की समीक्षा
अलावा यदि वह यह कहे कि आत्मामें धर्म और अधर्म आत्माको कार्याव्यवहितपूर्वक्षणवर्ती पर्यायरूप नियतिके अनुसार होते है तो इस प्रकारको नियतिका निर्माण आत्माकी नित्व उपादान शक्ति (स्वाभाविक योग्यता) के आधारपर शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप आत्मपुरुषार्थ के बलपर ही होता है । इसका विशेष कथन प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किसानका है और आगे भी पहरणानमार किया जायेगा। प्रकृत विषयके संबन्धमें कतिपय आधारभूत सिद्धांत
(१) धर्म और अधर्म दोनों जीवको भाववती शक्तिके परिणमन है और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रिया उसको (जीवकी) क्रियावती शक्तिका परिणमन है । और जीवकी क्रियावती शक्तिका यह प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रियापरिणाम ही उसकी भाववती शक्ति परिणमन स्वरूप धर्म और अधर्म में कारण होता है।
(२) प्रकृतमें 'जीवित शरोर' पदके अन्तर्गत 'शरीर' शब्दसे शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन (बोलनेका स्थान मुख) और शरीर इन तीनोंका ग्रहण विवक्षित है, क्योंकि जीवकी भाववती दाक्तिके परिणमनस्वरूपधर्म और अधर्ममें जीवको क्रियावती शक्तिका प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप जो क्रियारूप परिणाम कारण होता है वह शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन (मुख) और शरीर इन तीनोंमेंसे प्रत्येकाकै सहयोगसे अलग-अलग प्रकारका होता है तथा जीवकी क्रियावती शक्तिका वह क्रियापरिणाम यदि बाह्य पदार्थोके प्रति प्रवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे आत्माकी उस भावबती शक्तिका वह परिणमन अधर्म रूप होता है और यदि उसी क्रियावती शश्तिका वह क्रिया परिणमन बाह्य पदाथोंके प्रति प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे आत्माकी उस भाववती शक्तिका वह परिणमन धर्मरूप होता है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
जीव द्रव्यमनके सहयोणसे शुभ-अशुभ संकल्प के रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है, वचन (मुख) के सहयोगसे शुभ-अशुभ बोलनेके रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रयत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-ब्वापार करता है और शरीरके सहयोगसे याभ-अशभ हलन-चलन के रूपमें प्रवत्तिरूप या उस प्रकारको प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है । द्रव्यमन, वचन और पारीरक सहयोगसे होनेवाला जीनका उक्त शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप वा उस प्रकारको प्रवत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापारका अपर नाम आत्म-पुरुषार्थ है और इसे ही जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमन रूपमें जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया कहते हैं।
(३) जीयका संसार, शरीर और भोगोंके प्रति अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, भोग और संग्रह रूप पांच पापीके प्रति उक्त प्रकारका मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप आत्म-व्यापार अशुभ कहलाता है व उसका देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दान, अणव्रत, महाव्रत, समिति आदिके प्रति मानसिक वाचनिक और काविक प्रवृत्तिरूप आत्मव्यापार शुभ कहलाता है। तथा उसका इन मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप आत्मव्यापारोंसे मनोगुत्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध आत्मव्यापार होता है।
(४) शरीरके अंग-भूत दव्य मन, बचन और शरीरके सहयोगसे होनेवाले उक्त तीनों प्रकारके आत्मव्यापारों से शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप दोनों प्रकारके आत्मव्यापारोंसे जीव यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मोंका बन्ध करता है व उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप आत्मव्यापरोसे जीव उन कर्मोंका संबर और निर्जरण करता है। इस तरह बद्धकोंके उदयसे जीवमें भाव