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शंका-समाध १ की समीक्षा
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मोहनीय द्रव्यकर्म किया है, परन्तु उस उपचारके आधार पर उसे ( उत्तरपक्षको ) जहाँ मोहनीय द्रव्यकर्मको मोहनीय कहना था वहां यह जीवको मोहनीय कह गया है। इस तरह यहाँ उसने उपचारको गलत प्रक्रियाको अपना लिया है। पूर्वपक्षने प्रकृत प्रश्नोत्तरके तृतीय दौर में त० ० पृ० ३१ पर जो यह लिखा है कि 'आत्माके कर्तृवचन उपचार यदि द्रव्यकर्म में आप करेंगे तो इस उपचार के लिये सर्वप्रथम आपको निमित्त तथा प्रयोजनको देखना होगा, जिनका कि यहां पर सर्वथा अभाव है, यह उसने उत्तरपक्ष के उस उपचारकी गलत प्रक्रियाको स्वीकार करने के कारण लिखा है। इसलिये मैं उत्तरपक्षसे यह कहना चाहूंगा कि जिस प्रकार वह समयसार गाथा १०५ में कर्मरूप परिणतिकी कर्तृभूत कर्मबर्गणाओंके कर्तृत्व धर्मका उपचार उसमें निमित्तभूत जीव में करके जीवको उपचारमे कर्त्ता स्वीकार करता है उसी प्रकार उसे (उत्तरपक्षको ) धवल पु० ६ १० ११ के वचनमें भी जीवके कर्तृत्य धर्मका उपचार एक क्षेत्रावगाही मोहनीय द्रव्यकर्म में स्वीकृत करने के आधारपर मोहनीयद्रव्यकर्मके ही उपचारसे मोहनीय कहना चाहिये । उत्तरपक्षसे मेरा एक यह भी अनुरोध है कि उसने अपने विवेचनोम आलापपद्धतिके 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते' इस बचनका गलत अभिप्राय प्रकट किया है, अतः गम्भीरता के साथ विचार कर उसमें भी सुधार कर लेना चाहिये ।
विषयका उपसंहार
स्वानिया तत्त्वचके प्रथम प्रश्नोत्तरकी इस समीक्षासे यह अच्छी तरह स्पष्ट होता है कि दोनों पक्षोंके मध्य प्रकृत विषय सम्बन्ध में अन्य कोई विवाद न होकर केवल निम्न विवाद हो थे—
(१) जहाँ पूर्वपक्ष संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष संसारो आत्माके उस विकारभार और चतुर्गति भ्रमण कर्मके उदयको सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्त कारण मानता है ।
(२) जहाँ पूर्वपक्ष संमारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको उम कार्यरूप परिणत न होकर उसमें सहायक मात्र होन के आधारपर यथार्थ कारण और उपचरितकर्ता मानता है वहाँ उसरपक्ष संसारी आत्माके विकारभाष और चतुर्गति भ्रमणमें द्रव्यकर्मके उदयको उस कार्यरूप परिणति न होने और उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर अथथार्थ कारण और उपचारिकर्त्ता मानता I (a) जहाँ पूर्वपक्ष संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको उस कार्यरूप परिणत न होने के आधारपर अभूतार्थं कारण और उस कार्य में सहायक होने के आधारपर भूतार्थ कारण मानकर व्यवहारनयका विषय मानता हूँ वहाँ उत्तरपक्ष संसारी आत्माके विकारभाव और चर्तुगति प्रमाण में श्यकर्मके उदनको उस कार्यरूप परिणत न होने और उसमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वधा अभूतार्थं मानकर व्यवहार नयका विषय मानता है ।
उत्तरपक्षको अपने उत्तर में प्रश्नके इन विषयों पर ही विचार करना था। परन्तु उसने इनकी उपेक्षा करके अप्रकृत और निर्विवाद विषयोंको विवादका विषय बनाकर उनके खण्डनमें हो अपनी शक्तिका अधिकतम उपयोग किया है। यद्यपि पूर्वपक्ष ने यथास्थान उस रपक्षको इसका स्मरण करानेका भी प्रयत्न किया है, परन्तु उत्तरपक्ष ने उसपर ध्यान न देकर अन्त तक अपनी प्रारब्ध प्रक्रियाको नहीं छोड़ा है। अतएव इस समीक्षा में मैंने पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के दृष्टिकोणों और मान्यताओंका विस्तारसे स्पष्टीकरण करते हुए सिद्धान्तका प्रतिपादन करनेका प्रयत्न किया है । आशा ही नहीं विश्वास भी है कि इससे सत्यजिज्ञासुओंको प्रकृत प्रश्नपर सैद्धान्तिक निर्णय करने में सरलता होगी । इति