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अपर पक्ष ने अपने दूसरे पत्रक में जो आगम प्रमाण दिये हैं, भला वह पक्ष हो बतलायें कि उनकी उपेक्षा करनेका साहस हम कैसे कर सकते थे। तभी तो हमने जीवदया के स्वदया और परदया ऐसे दो भेद करके स्वदाका अन्तर्भाव वीतरागभाव में और परदयाका अन्तर्भाव रागरूप पुण्य भाव में करके अपने दूसरे उत्तर में उनके फलका भी पृथक् निर्देश कर दिया है। अपर पक्षने सब प्रमाणों को एक पंक्ति में रख कर और उनका आशय खोले बिना उन सभी प्रमाणोंसे अपने अभिप्रायकी पुष्टि करनी चाही है । यह देखकर ही हमें अपने दूसरे उत्तर में मह लिखना पड़ा है कि 'में सब प्रमाण तो लगभग २० ही हैं। यदि पूरे जिनागममें से ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जावे ती एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ हो जाय, पर इन प्रमाणोंके आधारसे क्या पुण्यभावरूप दयाको इतने मात्रसे मोक्षका कारण माना जा सकता है ।"
हमने अपने पिछले उत्तर में जो यह लिखा है कि 'शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिननिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध ही होता है । उससे संचर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है। वह प्रवचनसार गाथा ११ तथा उसकी दोनों आचार्यों द्वारा रचित संस्कृत टीकाओंको लक्ष्य में रखकर ही लिखा है । हम आशा करते थे कि अगर पक्ष भी इसी प्रकार प्रत्येक आयम प्रमाणको उपस्थित करते हुए आगमका कौन वचन किस आशय से लिखा गया है इसे सुस्पष्ट करता जाता । उदाहरणार्थं जयघवला में कहा हैसुभ-सुद्धपरिणामेहि कमक्खयाभावे तखयाणुवदत्तदो ।
यदि
शुभ और शुद्धपरिणामोंसे कर्मोंका क्षय नहीं होता तो कमका क्षय हो ही नहीं सकता । । इसलिये ऐसे स्थलपर इसमें शुभ परिणामको शुद्ध परिणामोंके समान कर्मक्षयका कारण कहा अगर पक्षको चाहिये था कि वह इस वचनका आशय अन्य आगम वचनके प्रकाश में अवश्य हो स्पष्ट कर देता तो इससे कौन कथन किस विवक्षासे किया गया है यह सबको समझमें सुगमतासे आ जाता । प्रकृतमें कमसे कम इसका खुलासा किस प्रकारसे किया जाना इष्ट या इसके लिए प्रवचनसार गाथा ११ की आचार्य जयसेनकृत टीकापर दृष्टिपात कीजिए
तत्र यच्छुद्ध संप्रयोगशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते । निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभीपयोगरूपसरागचारित्रेण परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिक सुख विपरीत माकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं लभते । पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसभात्रे मोक्षं च लभते ।
यहाँ जो शुद्ध संप्रयोग शब्दका वाच्य शुद्धोपयोग स्वरूप वीतराग चारित्र है उससे निर्वाणको प्राप्त करता है। तथा निर्विकल्प समाधिरूप शुद्धोपयोगरूप शक्तिके अभाव में जब शुभोपयोगरूप सरागचारित्र रूपसे परिणमता है तब अनाकुलत्वलक्षण पारमार्थिक सुखसे विपरीत आकुलताके उत्पादक स्वर्गसुखको प्राप्त करता है । पश्चात् परम समाधिरूप सामग्रीके सद्भावमें मोक्षसुखको प्राप्त करता है ।
यह स्पष्ट किया
यह आगमप्रमाण है । इस द्वारा शुभ और शुद्ध दोनों प्रकारके भावोंका था फल गया है । इस द्वारा हम यह अच्छी तरह जान लेते है कि शुभ भावोंको जो श्रीजयधवलामें कर्मक्षयका हेतु कहा है वह किस रूप में कहा है। वस्तुतः तो वह पुष्यबन्धका ही हेतु है । उसे जो कर्मक्षयका हेतु कहा [ वह इस अपेक्षा से ही कहा गया है कि उसके अनन्तर जो शुद्धोपयोग होता है वह वस्तुतः कर्मक्षय का १५
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