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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
हेतु है, इसलिये उपचारसे उसे भी कर्मक्षयका हेतु कहा गया है। शुभभाव बम्धका कारण है इसका निर्देश करते हुए पंचास्तिकायमें भी कहा है
जेमहमहमुक्षिण भार करेदि जदि अप्पा।
सो तेण हदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण ॥१४७।। यदि आत्मा विकारी वर्तता हुआ उदीर्ण शुभ-अशुभ भावको करता है तो वह उस भावके निमित्तसे नाना प्रकारके पुद्गल कर्मोंसे बद्ध होता है ॥१४७॥
इससे शुभ परिणाम करनेका क्या फल है इसका सहज पता लग जाता है।
यह अपर गक्ष द्वारा अपने द्वितीय पत्रक उपस्थित किया गया एक उदाहरण है जिसका यहाँ हमने दो आगम प्रमाणोंके प्रकाशमें स्पष्टीकरण किया है। अपर पक्ष द्वारा उपस्थित किये गये प्रमाणोंके विषयमें भी इसीप्रकार स्पष्टीकरण जान लेना चाहिये। हमारी तो दृष्टि सवा कालसे तत्त्वविमर्शकी रही है और रहेगी। इसका विचार तो अपर पक्ष को ही करना है कि कोई भी जिनवाणीका भक्त महान् आचार्य और महान ग्रन्धों के नयविशेषसे किये गर्ने कथनको उसी रूप में ग्रहण न कर उसे सर्वथा रूपमें क्यों स्वीकार करता है ? इसका हमें विशेष आश्चर्य है।
हमने तो जीबदया किस अपेक्षासे शुभभाय है और किस अपेक्षासे वीतराग भाव है, मात्र इमका अपने पिछले उत्तरों में खुलासा किया। यदि अपर पक्ष उसे हमारा मूल विषयको छुए बिना विषयान्तरमें प्रवेश करना मानता है तो भले ही मानता रहे, उसकी इच्छा । किन्तु जिसका हमने पिछले उत्तरोंमें निर्देश किया है वह हमारा विषयान्तरमें प्रवेश करना नहीं है, अपि तु मूल प्रश्नका स्पष्टीकरण मात्र है ।
जीवदया स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं है। यह जीवका परिणाम है जो नविशेषसे शुभ भी हो सकता है और शुद्ध भी । पुरुषार्थसिद्ध युपाय आदि शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा इसीका स्पष्टीकरण किया गया है कि यदि जीवदयाको शुभ परिणामस्प लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव आम्नव और बन्धतत्त्वमें होता है और उसे शद्ध परिणामरूप लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव संवर, निर्जरा और मोक्ष तस्वमें होता है। अपर पक्ष इसे निर्विवादरूपमें स्वीकार कर ले यही इस प्रयासका फल है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसारमें लिखा है
सुह परिणामो पुण्णं असुहो पायं ति भणियमण्णे सु ।
परिणामो गणगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥१८॥ परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तथा जो परिणाम अन्यको लक्ष्यकर नहीं होता है उसे शास्त्रमें दुःखके क्षयका कारण कहा है ॥१८॥
हमने पिछले उत्तरमें इसी जिनागमको लक्ष्यमें रखकर दूसरे जीवोंकी दयाको पुण्यभाव और स्वदमाको वीतराग भाव कहा है । शुभभावका फल कर्मानव है और शुद्धभावका फल कर्मनिरोध है, इसके लिये प्रवचनसार गाथा १५६ तथा २४५ पर दृष्टिपात कीजिए।
दया कहो, करुणा कहो या अनुकम्पा कहो इन तीनोंका आशय एक ही है। आचार्य कुम्दकुन्द प्रव. बनसारमें जीवोंमें की गई अनुकम्पाको शुभोपयोग बतलाते हुए लिखते है---