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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ली गयी है तो वह व्यवहार धर्म कहना
ऐसे परिणामको सम्यक् व्यवहार धर्म मानना उपयुक्त हो है । किन्तु यदि बाह्य क्रियासे पुद्गलद्रव्यकी क्रियां परद्रव्यका परिणाम । सम्यग्दृष्टि के उसमें परबृद्धि हो गई, इसलिए उसे आत्माका उचित नहीं है। प्रशस्त रागपरिणति में वह निमित्त है, इसलिए उसे व्यवहार धर्म तो उपचरित धारणा भी उपचरितोपचार है। तथ्य समझ में आ जावें, इसलिए पद
है
स्पष्टीकरण किया है ।
अपर पक्षाने परिशिष्टके तीसरे पैरा आत्माके विशुद्ध-निर्विकार- वीतराग और स्वतन्त्र बनने के लक्ष्यको निश्चयधर्म संज्ञा दी है। किन्तु ऐसा लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि लक्ष्यका नाम निश्चय धर्म न होकर विशुद्ध-निर्विकार वीतरागरूप परिणतिका नाम निश्चय धर्म है ।
अपर पक्षका कहना है कि "अविरत सम्यग्दृष्टि भाषक और मुनियोंके बाह्याचाररूप व्यवहार धर्मको द्रव्यलिंग और इनके अन्तरंग आत्मविशुद्धिमय निश्चय धर्मको भावलिंग भी कहते हैं ।" समाधान यह है कि अपर पक्षने जो लिखा है उसपर विशेष ऊहापोह न करके मात्र उसका ध्यान भावप्राभूत के इस वचनकी ओर आकर्षित कर देना चाहते हैं
भावेण होइ लिंगीण हुलिंगी होइ दव्वमित्तेण ।
तम्हा कुणिज्ज भावं किं कोरइ दब्बलिंगेण ॥ ४८ ॥
भावसे ही मुनि लिगी होता है, द्रव्य मात्र से लिंगी नहीं होता। इसलिए भाव लिंगको धारण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्यलिंगसे क्या कार्य सघ सकता है ।। ४८ ।।
इस गाथामें द्रव्यलिंगी पद भावशून्य मुनिके लिए हो आया है । गाथा ५० में इसके लिए द्रव्य श्रमण पदका भी प्रयोग किया गया है। गाथा ७२ में सो ऐसे मुनिको ही द्रव्यनिर्ग्रन्थ लिखा है जो रागसंयुक्त है और जिनभावनासे रहित है। देखिए
जे रागसंग जुत्ता जिणमावण रहियदव्वणिग्गंथा |
ण लर्हति ते समाहिं बोहि जिणसासणे विमला ॥ ७२ ॥
जो द्रव्यनिर्ग्रन्थ रागसंग युक्त होकर जिनभावनासे रहित वे जिनशासन में समाधि और बोधिको नहीं प्राप्त होते ।। ७२ ।।
अपर पक्षका कहना है कि 'निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोग है किन्तु यह बात नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्म का कथन मुख्यतया द्रव्यानुयोगका विषय है । रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें द्रव्यानुयोग के स्वरूपका निर्देश करते हुए लिखा है-
जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्ध-मोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्या लोकमतनुते ॥ ४६ ॥
पानुयोगरूपी दीपक जीव, अजीव, पुण्य, पाप बन्ध और मोक्षतत्त्वरूपसे श्रुतविद्यारूपी आलोकको विस्तारता है || ४६ ॥
निश्चयधर्मका संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्वमें ही अन्तर्भाव होता है। अतः निश्चयधर्मका कथन sourcयोग किया गया है ऐसा निर्णय करना ही उचित है ।