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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
२८९ रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध होता है । अतः इस आधारपर व्यवहारमोक्षमार्गमें निश्चयमोक्षमार्गके प्रति गायकापनेका व्यवहार फल्पित अर्थात् कथनमात्र सिद्ध ग हैशास्तविक ही सिद्ध होता है। उत्तरपक्षक "प्रतिशंका ३ के आधारसे विवेचत" किसे किये गये वाथनों की समीक्षा
(१) उमरपक्षने तरच. पृ० १४४ पर ही "तत्काल प्रतिशंका ३ केभाषा से वृती पर विचार करना है" इत्यादि जो अनुच्छेद लिखा है उसमें उसने अपने प्रथम दौर में प्रागुन निवभसारको गाथाओं का प्रकृत विजय के साथ संबंध स्थापित करनेका इसलिये प्रयत्न किया है कि पृपिने सपने हनीय में इस संबंधका निषेध विधा है। परन्तु उत्तरपक्षका यह प्रयत्न निरर्थक ही 5, नयोंकि मैने प्रथम कारमा महिला नियमसारकी गाथाओका प्रकृत विषयक साथ सम्बन्ध न होनेवः बातको विस्तारस रपज 1741 है।
उत्तरपाने रक्त अनुच्छेद के अन्तमें जो व्यवहारधर्मको नियमधर्मका साधक तद्वारन वसभामा है वह तो ठीक है परन्तु वह पक्ष व्यवहारलय के विषयको कल्पित अर्थान् आकाशकुसमी तरह या सा मानकर व्यवहारनपको जो ऋथनमात्र कहता है वह मिथ्या है, कोंकि जनसामावलियनयानपान शब्दरूप आर ज्ञानरूप श्रुतमा का अंश है if सका विजय भी निरसन के समान दाक्षिा है । कल्पित अति आशकुसुमकी तरह सर्वथा अरान सिद्ध नहीं होता। ना
ज हा नियनयका विषय अभेदहा सत पदार्थ होता है वहाँ व्यवहारनवका विषय भवासन पदार्थ ITE नहीं निष्पनयका विषय स्थापित रात पदार्थ होता है वहाँ कपबहारनयका शिपा याला है। और जहाँ निश्मयनयका विषय भूतार्ग अर्थान् मुख्यरुप सा पदार्थ हाना वा सामान :: HA अभतार्थ अर्थात उपचरितरूप सत् पदार्थ होता है।
इरा विपकको उदाहरणों के द्वारा इस तरह स्पष्ट किया जा सकता कि यदि निश्ननामा जीयान अभेशात्मक सनहा तन्य धर्म है तो व्यवहारनाएका विपय जीव के मेदात्मक गदका दर्शन, बार नारिन में नीनों धर्म है। दर्शन, ज्ञान और नारिय सदरूप इसलिये है कि ये सदानन्याहु व ये CATE: विषय इसलिये हैं कि नो मान है बह जाग और चारित नहीं है, जो जान है ब शंग और जारि । ना और 'नो नारित्र है वह दर्शन और ज्ञान नहीं है। इसी तरह पदि निश्चयनय किया जप, दाग या गोपनमा आधरसर निष्पन्न जवके स्वाथिक्ष औरमिक, आयिक आरसायनयमिड सामानभत पदका धर्म है नो व्यवहारनयका विषम जी कमांदपजन्म पत्रित आf अल विभाजन सदरूप धर्म है। और इसी तरह यदि निश्वयनका विषय जोय का ज्ञानाद गण। साय पवाः सत्य तादात्म्प सम्बन्ध है तो व्यवहारजयका दिपा जीवनात अन्य पदार्थांके सा अयभार्थ भयो उसमरित मंयोग सम्बन्ध है। नात्पर्य यह है कि निश्चकनयके रामान बिहारन का विषय भी बदला होता है। फलित अनि आकाशमसुमनो तरह सर्वथा अरादा नहीं होता। परन्तनिश्च मन ना विगययाः अंगी मद्रूाता है उससे भिन्नापारहारनपके विषय ही साता है। इसमें निर्णत होता किनिय और व्यवहार दोनों नय सत् पदार्थको ही ग्रहण करते है। फलतः उत्तरपक्षया अनहारनमको कथनमा मानना मिथ्या है।
प्रकृति में निश्चय और व्यवहारनयों का समन्वय इस प्रकार होता है कि निश्चयधर्म और मोक्षम विद्यमान माव्य-राधिकमा यथार्थ सत है, क्योंकि निश्चयत्रम मोक्षका स्त्राश्रित और साक्षा कारण है अताव
रा-३७