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शंका १ और उसका समाधान
'इस तरह कोटका बनना तन्तक रुका रहा जबतक कि धर्जीके पास कोटके बनानेका अवकाश नहीं निकल आया । इस दृष्टान्तमें विचारना यह है कि कोट पहिननेकी आकांक्षा रखनेवाले व्यक्ति द्वारा खरीदे हुए उस कपड़ेमें, जब कि उसे दर्जीकी मर्जीपर छोड़ दिया गया है, कौनसी ऐसी उपादाननिष्ठ योग्यताका अभाव बना हुआ है कि वह कपड़ा कोटरूपसे परिणत नहीं हो पा रहा है और जिस समय वह दर्जी कोटके सीनेका व्यापार करने लगता है तो उस कपड़ेमें कौनसी उपादाननिष्ठ योग्यताका अपने-आप सद्भाव हो भाता है कि यह कपड़ा कोट बनकर तैयार हो जाता है। विचार कर देखा जाय तो यह सब साम्राज्य निमित्तकारण सामग्रीका ही है, उपादान तो बेचारा अपनी योग्यता लिए तभीसे तैयार बैठा है जब वह दकि पास पहुँचा था । यहाँपर हम उस कपड़ेकी एक एक क्षण में होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि कोट पर्यायफे निर्माणसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। हम तो यह कह रहे है कि पहलेसे ही एक निश्चित आकारवाले कपड़ेका वह टुकड़ा कोटके आकारको क्यों तो दजींके व्यापार करनेपर प्राप्त हो गया और जबतक पीने कोट बनानेरूप अपना व्यापार चालू नहीं किया तबतक वह क्यों जैसा-का-तैसा पड़ा रहा । जिस अन्वय-व्यतिरेकगम्य कार्य-कारणभावकी सिद्धि आगमप्रमाणसे हम पहले कर आये हैं उससे यही सिद्ध होता है कि सिर्फ निमित्त कारणभूत दर्जीकी बदौलत ही उस कपड़ेको कोटरूप पर्याय आनेको पिछड़ गई, कोटके निर्माण कार्यको उ देसी सम्भार भावना प्रमिः यायाम शाथ कहांतक बुद्धिगम्य हो सकता है यह आप ही जानें ।' आदि ।
यह प्रकृतमें अपर पक्षके बक्तव्यका कुछ अंश है । इस द्वारा अपर पक्ष यह बतलाना चाहता है कि अनन्त पुद्गल परमाणुओंका अपने-अपने स्पर्श विशेषके कारण संश्लेष सम्बन्ध होकर जो आहारवर्गणामोंकी निष्पत्ति हुई और उनका कार्पास व्यन्जन पर्यायरूपसे परिणमन होकर जुलाहेके विकल्प और योगको निमित्तकर जो वस्त्र बना उस वस्त्रकी कोट आदिरूप पर्याय दर्जीके योग और विकल्पपर निर्भर है कि अब पाहे वह उसकी कोटपर्यायका निष्पादन करे । न करना चाहे न करे। जो व्यवहारनयसे उस वस्त्रका स्वामी है वह भी अपनी इच्छानुसार उस वस्त्रको नानारूप प्रदान कर सकता है। वस्त्रका अगला परिणाम क्या हो यह वस्त्रपर निर्भर न होकर दी और स्वामी आदिको इच्छापर ही निर्भर है। ऐसे सब कार्योमें एकमात्र निमित्तका ही बोलबाला है, उपादानका नहीं । अपर पक्षके कथनका आशय यह है कि विवक्षित कार्य परिणाम के योग्य उपादानमें योग्यता हो, परन्तु सहकारी सामग्रीका योग न हो या आगे-पीछे हो तो उसी के अनुसार कार्य होगा। किन्तु अपर पक्ष का यह सब कथन कार्य-कारणपरम्पराके सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि जिसे व्यवहार नमसे सहकारी सामग्री कहते हैं उसे यदि उपादान कारणके समान कार्यका यथार्य कारण मान लिया जाता है तो कार्यको जैसे उपादानसे उत्पन्न होनेके कारण तत्स्वरूप माना गया है वैसे ही उसे सहकारी सामग्रीस्वरूप भी मानना पड़ता है, अन्यथा सहकारी सामग्नीमें यथार्थ कारणता नहीं बन सकती । दूसर दर्शनमें सन्निकर्षको प्रमाण माना गया है। किन्तु जमाघार्योंने उस मान्यताका खण्डन यह कह कर ही किया है कि सन्निकर्ष दोमें स्थित होनेके कारण उसका फल अर्थाधिगम दोनोंको प्राप्त होना चाहिए। (सर्वार्थ सिद्धि अ. १. सु. १०) वैसे ही एक कार्यकी कारणता यदि दो यथार्थ मानी जाती है तो कार्यको भी उभयरूप मानने का प्रसंग आता है। यतः कार्य उभयरूप नहीं होता, अतः अपर पक्षमें सहकारी सामग्रीको निर्विवादरूपसे उपचरित कारण मान लेना चाहिए।
अपर पक्ष जानना चाहता है कि बाजारसे फोटका कपड़ा सरोदनेके बाद अब तक दर्जी उसका कोट