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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
है । आगममें यह निश्चयनयका विषय न होकर व्यवहारनयका विषय इसलिये माना गया है क्योंकि वह निमित्तभूत बाह्य वस्तु उपादान भूत वस्तुके कार्यरूप परिणत न होकर उमका अनुरंजन व उपकार मात्र करती है और उसमें सहायक मात्र होती है ।
आशा है उत्तरपक्ष इस विवेचनपर ध्यान देगा और अपनी मान्यतामें परिवर्तन करेगा । इससे उसे यह लाभ होगा कि पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्लुत किये गये उपयुक्त तीनों उदाहरणोंमें जो उसे विसंगति जान पड़ती है वह दूर हो जावेगी।
दुसरा लाभ उसे यह होगा कि जो वह उपादानकी उपादानताकी तो वास्तविक मानता है, किन्तु बाध सामग्रीकी निमित्तताको कल्पनारोपित मात्र मानता है, क्योंकि उस भय है कि यदि बाह्य सामन्त्रीको निमित्तताको भी कार्यके प्रति वास्तविक माना जावे तो उसे भी निश्वयनयका विषम मानना पड़ेगा, सो उसका यह भय भी दूर हो जायेगा, क्योंकि कार्य के प्रति उपादानता और निमित्तता दोनोंको वास्तविक मान लेने में न आगम-विरोध है और न युक्ति-विरोध है ।
प्रतीत होता है कि उत्तरपक्षन्ने अपने उपयुक्त बक्तश्यमें ऐसा रामदाबार लिखा है कि पूर्वपक्ष मानो बाद्य सामग्रीको उपादानकी कायापातमें मुख्य कारण या मुख्य कत्तों व यथार्थकारण या यथार्थकर्ता मानता हो । परन्तु ध्यान रहे कि वह ऐसा नहीं मानता । वह तो बाद्य सामग्रीको उपादानकी कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपसे ही वास्तविक मानता तथा कार्यरूप परिणत न होनेके कारण उसे मुख्य कारण वा मुख्यकर्ता व यथार्थकारण या यथार्थकर्ता नहीं मानता । अब यदि उत्तरपक्ष उपयुक्त प्रकार से आगमसम्मत स्थितिको समस ले और स्वीकार कर ले तो दोनों पक्षोंका उक्त गतभेद समाप्त हो सकता है। उत्तरपक्षने अपने उक्त वक्तव्य अन्त में लिखा है कि "अपने प्रतिषेधक स्वभावके कारण निश्चवनयकी दृष्टि में यह प्रतिषेध्य भी है। इसका क्या आशय ग्रहण करने योग्य है इस विषयमें आगे प्रकाश डाला जावेगा। कथन ४४ और उसकी समीक्षा
(४४) आगे त. च. ५० ६१ पर उत्तरपक्षने लिखा है -"हमने पंचास्तिकाय गाथा ८८ के प्रकाशमें बाह्य सामग्रीमें किये गये निमित ग्यवहारको जहाँ दो प्रकार बतलाया है वहां उसी टीका वचनसे इन भेदोंको स्वीकार करने के कारणका भी पता लग जाता है। जो मुख्यतः अन क्रिया परिणाम द्वारा या राग और क्रिया परिणाम द्वारा उपादानके कार्यमें निमित्त व्यवहार पदवीको धारण करता है उसे आगममें निमित्तकर्ता या हेतुकर्ता कहा गया है। इसोको लोकमें प्रेरक कारण भी कहते है और जो उक्त प्रकारके सिवाय अन्य प्रकारसे हेतु होता है उसे आगममें उदासीन निमित्त कहने में आया है। यही इन दोनों में प्रयोगभेदका मुख्य कारण है । पंचास्तिकायके उक्त वचनसे भी यही सिद्ध होता है। इस प्रकार हमने इन दोनों भेदोंको क्यों स्वीकार किया है इसका यह स्पष्टीकरण है।"
इस विषय में इतना ही कहना पर्याप्त है कि प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके जो पृथक्-पृथक् लक्षण उत्तरपक्षने दिये है उनसे दोनों निमित्तोंमे प्रयोगभेद सिद्ध होनेपर भी उनका कार्यभेद सिद्ध नहीं होता, जबकि इनमें प्रयोगभेद और कार्यभेद दोनों हैं । पंचास्तिकायके कथनसे भी ऐसा ही निर्णीत होता है । इस विषयको मैंने इसी प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट किया है तथा वहीं इनके युक्तिमुक्त और