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करता है और उदासीन निमित्त कार्यरूप पा
शंका-समाधान की समीक्षा
१२७ आगमसम्मत पृथक-पृथक् लक्षणोंका भी निर्देश किया है। इसलिये इस विषयमें यहाँ और विचार करना आवश्यक नहीं रह जाता है।
यद्यपि उत्तरपक्षने त० च० पू० ६१ पर आगे यह भी लिखा है कि "अपरपक्ष इन दोनोंको स्वीकार करनेमें अपादानके कार्यभेदको मुख्यता देता है सो उपादानमें कार्यभेद तो दोनोंके सद्भावमें होता है।" उत्तरपक्षका यह कपन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रेरक निमित्तसे ही कार्यम वैशिष्टय आता है, उदासीन निमित्तसे नहीं । इस विषयमें पूर्वपक्षने अपने वक्तब्यमें आगम प्रमाण भी दिये है। परन्तु उत्तरपक्ष उनको अवहेलना कर रहा है। इस समीक्षामें भी आगम प्रमाणोंके आधारपर स्पष्ट किया गया है कि प्रेरक निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणत न हो सकाने रूप अशक्तिको समाम करके उसे कार्यरूप परिणत होने के लिए तैयार
है और उदासीन निमित्त कार्यरूप परिणत होने के लिए तैयार (उधत) उस उपादानको कार्यरूप परिणत होने में अपना उदासीन (अप्रेरक) सहयोग प्रदान करता है। इसके समर्थनमेंयह दृष्टान्त भी दिया है कि यद्यपि रेलगाड़ीके डिब्बोंमे गतिक्रिया करनेकी स्वभावतः योग्यता विद्यमान रहती है, परन्तु वे तभी गतिक्रिया करते हैं जब उनसे संमुक्त इंजिनमें गतिक्रिया होती है। इससे प्रकट है कि रेलगाडीके डिब्बोंकी गतिक्रिया में इंजिन प्रेरक निमित्त होता है तथा रेलपटरी अप्रेरक निमित्त होती है। उसपर यदि इंजिन और रेलगाड़ीके डिब्बे चलते हैं तो बह जनके चलने में सहायक हो जाया करती है । वह उनको न तो चलाती है और न उसे इस बातसे कोई मतलब है कि वे चलते हैं या नहीं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इंजिनकी मंद या तीव्र गतिके आधारपर उन डिब्बोंकी भी उसीके समान मन्द या तीक गति देखी जाती है । इस तरह यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उपादानके कार्वमें वैशिष्टय प्रेरक निमित्तस आता है, जबति उदासीन निमित्त उपादानके कार्यमें वैशिष्टय लाने में सदा असमर्थ रहता है । अतः उत्तरपक्षका "उपादानमें कार्यभेद तो दोनोंके सद्भावमें होता है" यह कथन मिथ्या है। उदासीन निमित्त उपादानके कार्गमें वैशिष्टय लाने में असमर्थ क्यों रहता है, इसका कारण यह है कि उदासीन निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणतिक अवसरपर उसकी सहायता उदासीन (अप्रेरक) रूपसे करता है। इसका मानना भी आवश्यक इसलिए है कि उसके अभावमें उपादान कार्यरूप परिणत नहीं होता है।
उत्तरपक्षने आगे रख बदलकर लिखा है कि "प्रश्न यह नहीं है, किन्तु प्रश्न यह है कि उस कार्यको वास्तममें कौन करता है ? जिसे आगममें हंत का कहा गया है वह या द्धपादान?" इत्यादि, सो पूर्व पक्षने अपने वक्तव्योंमें और मैंने भी अपने घक्तयों में बार-बार कहा है कि पूर्वपक्ष उत्तरपक्षके समान कार्यका मुख्यकर्ता उपादानको ही मानता है. बाला सामग्री उसमें निमित्तकर्ता, उपचरितकता या अयथार्थकत्ती ही होती है । दोनोंको मान्यताओंमें अन्तर केवल यही है कि उत्तरपक्ष जहाँ उपादानको कार्यरूप परिणति में बाध सामग्रीको सहायक न होनेके आधारपर अकिचिकर रूपमे निमित्तकर्ता आदि मानता है वहां पूर्वपक्ष उसमें बाह्य सामग्रीको सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी रूपमें . निमित्तकर्ता आदि मानता है । इनमें पूर्वपक्षकी मान्यता आगम सम्मत है।
____ आगे उत्तरपक्षने अपने वक्तव्य में यह भी लिखा है कि ''ऐसी अवस्थामें फलित सो यही तथ्य होता है कि उपादानने स्वयं यथार्थवत होकर अपना कार्य किया और बाह्य सामग्री उसमें ध्ययहार हेत हई।" इस कथनसे भी उत्तरपक्ष यही बतलाना चाहता है कि उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है बाह्य सामग्री नहीं । बाह्य सामग्री व्यवहार हेतु होनसे वह उतनी सार्थक नहीं, जितना उपादान है । इस तरह वह अकि