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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
करने लगता है तो उस कपड़े में कौनसी उपादाननिष्ठ योग्यताका अपने आप सद्भाव हो जाता है कि वह कपड़ा कोट बनकर तैयार हो जाता है। विचार कर देखा जाय तो यह सब साम्राज्य निमित्तकारण सामग्रीका ही है, उपादान तो बेनारा अपनी योग्यता लिये तभी से तैयार बैठा है जब वह दर्जीके पास पहुँचा था । यहाँ पर हम उस कपड़ेकी एक एक क्षणमें होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे है, क्योंकि कोट पर्याय के निर्माणसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । हम तो यह कह रहे हैं कि पहले से ही एक निश्चित आकारवाले कपड़े का वह टुकड़ा कोटके आकारको क्यों तो दर्जीके व्यापार करने पर प्राप्त हो गया और जब तक दर्जीने कोट बनाने रूप अपना व्यापार चालू नहीं किया तब तक वह वयों जैसाका सँसा पड़ा रहा। जिस अन्वय व्यतिरेकाभ्य कार्यकारणभाषकी सिद्धि आगम प्रमाणसे हम पहले कर आये हैं उससे यही सिद्ध होता है कि सिर्फ निमित्तकारणभूत दर्जीकी बदौलत हो उस कपड़ेको कोटरूप पर्याय आगेकी पिछड़ गयी । कोटके निर्माण कार्यकी उस कपड़े की सम्भाव्य क्षणवर्ती क्रमिक पर्यायोंके साथ जोड़ना कहाँतक बुद्धिगम्य हो सकता है ? यह आप ही जानें, क्योंकि एक तो प्रत्येक वस्तुमें अगुरुलघुगुणों के आधार पर क्षणिक पर्यायोंका होना सम्भव प्रतीत होता है, दूसरे कालिक सम्बन्धसे समयादिको अपेक्षा नवीनसे पुराने रूप परिवर्तनके रूपमें पर्यायोंका क्षणिकत्व सम्भव है। इसमें विचारनेकी बात यह है कि क्या इन पर्यायोंकी क्रमोत्पत्तिके आधार पर कपड़े में कोटरूप स्थूल पर्यायका निर्माण सम्भव है? यदि नहीं, तो फिर और कौनसो ऐसी क्षगिक पांयांका तोता उस कपड़े में विद्यमान है जिनको कमिकता के आधार पर कपड़ेकी अन्तिम पर्याय दर्जी आदि बाह्य सामग्रीके व्यापारकी अपेक्षा के बिना ही कोटका रूप धारण करने में समर्थ हो सकी । यह बात अनुभवगम्य है कि दर्जीके द्वारा कपड़े की कोट पर्यायके निर्माणके अनुरूप व्यापार करनेसे पहले उस कपड़े में जो भी पर्यायें कम या अक्रम रूप से होती आ रही हों, उन पर्यायोंके साथ कोट पर्यायका कोई भी क्रमिक सम्बन्ध नहीं जुड़ता है, क्योंकि कोट पर्यायके निर्माणसे पहले जहाँ तक सम्भव है वहीं तक कपड़ेका स्वामी कोटको छोड़कर यदि अन्य कोई वस्तुका निर्माण दर्ज करानेका निर्णय कर लेता है तो दर्जी उस कपड़े विषयमें अपना व्यापार कोट पर्याय के अनुरूप न करके उस वस्तुके अनुरूप करने लगता है जिसको कपड़ेका स्वामी उससे बनवाना चाहता है । इतनी बात अवश्य है कि दर्जी जब फोट पर्यायके निर्माणका कार्य प्रारम्भ करता है तो कोट के जितने अंग
उसे काटने हैं और उनकी सिलाई करना उन सब अंगोंके काटने व सोनेका कोई क्रम न होते हुए भी उनमें से जिस अंगको जब वह काटना व सोना प्रारम्भ करता है तब उस कपड़ेकी उस अंग रूप कटाई और सिलाई में क्रमिकता विद्यमान रहेगी ही याने उस अंगके जितने सिलसिलेवार प्रदेश है उन्हें क्रमसे ही काटेगा और क्रमसे ही उनकी सिलाई होगी, फिर भी इसमें भी यह सम्भव है कि फटाई व सिलाई के व्यापारके विषय स्वतन्त्र होने के कारण वह दर्जी कपड़े की कटाई व सिलाईको बीचमें अधूरी छोड़कर भी दूसरा व्यापार कर सकता है और बादमें कटाई व सिलाईके व्यापारको पुनः चालू कर सकता है। या दूसरा अन्य व्यक्ति भी उस कटाई व सिलाई रूप व्यापारको चालू कर सकता है। हमें आश्चर्य होता है कि यह सब व्यवस्था अनुभवगम्य और आपके पक्ष द्वारा जीवन व्यवहारमें अनिवार्य रूपसे अपनाई जाने पर भी इस वस्तु तत्व व्यवस्था में आप इसकी उपेक्षा कर रहे हैं ।
आगे आपने आचार्य पूज्यपाद के इष्टोपदेशका 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' यह बतलाने का प्रयत्न किया है कि 'जो कुछ होता है वह केवल उपादानकी होता है' परन्तु इसके विषयमें हम आपको बतला देना चाहते हैं कि इससे भी आप में असमर्थ ही रहेंगे । कारण कि उक्त श्लोक एक तो द्रव्यकर्मके विषयमें नहीं है।
इत्यादि लोक उपस्थित करके
अपनी योग्यताके बलपर ही
अपने मत की पुष्टि करने दूसरे वह हमें इतना ही