________________
शंका ३ और उसका समाधान
आपने अन्तमे लिखा है. यदि 'प्रकृतमें दयासे वीतराम परिणाम स्वीकार किया जाता है......" आदि । इसके विषयमें हमारा कहना है कि जब आगमके आधार पर सैद्धान्तिक चर्चा होती है तब किसी व्यक्ति विशेषकी मान्यताका प्रश्न नहीं रह जाता। हमारी तो आगमपर ही पूर्ण श्रद्धा है और आगमके उस्लेखोंकी संगति मैठानेका ही प्रयत्न करते हैं यही हमारी मान्यता है । किसी व्यक्ति विशेषकी स्वेच्छानुसार भान्यता या प्रतिपादनके अनुसार अपना पूर्वका आगमानुकूल श्रद्धान बदला नहीं जा सकता है और न बदलना ही चाहिए । आगममें क्या माना गया है यह सिद्ध करनेके लिए आपके समक्ष आर्ष ग्रन्थों के प्रमाण उपस्थित हैं, उन पर आप विचार करेंगे ऐसी आशा है।
अन्तमें आपने समयसार कलश १०६-१०७ लोक उजत कर मथितार्थ के रूपमें निम्नलिखित शब्द लिखे है-'इसलिए ज्ञान हो मोक्षका कारण है।' इसपर हमारा इतना ही संकेत है कि आपने जैसा समझा है वह ठीक नहीं है। यदि ज्ञानमात्र हो मोक्षका कारण होता तो श्री कुन्दकुन्द आचार्य मोक्ष पादृड ग्रन्थमें यों न लिखते
धुवसिद्धी तित्थयरा चजणाणजुदो करेइ तवयरणं ।
णाऊण धुबं कुरजा तवयरणं णाणजुत्तो वि ॥६०।। अर्थ-तीर्थकरको उसी भवसे अवश्य आत्मसिद्धि (मुक्ति ) होती है, तथा वे जन्मसे मति, श्रुत, अवधि ज्ञान सहित और मुनिदीक्षा लेते ही मन पर्मयशानसहित चार ज्ञानधारक हो जाते है। चार ज्ञानधारक होकर भी वे तपश्चरण करते हैं। ( तपस्या करने के बाद ही तीर्थकर मुक्त होते हैं। ) ऐसा जानकर ज्ञानसहित व्यक्तिको अवश्य तपस्या करना चाहिए । यानी बिना चारित्रके झानमात्रसे मुक्ति नहीं होती। तथात्र
तीर्थकरा जगज्येष्ठा यद्यपि मोक्षगामिनः ।
तथापि पालितञ्चैव चारित्रं मोक्षहेतुकम् ।। अर्थ-यद्यपि तीर्थकर जगत्त्रेष्ठ तथा मुफ्तिगामी होते हैं तो भी तीर्थंकरोंने मोक्षके कारणभूत चारित्रका पालन अवश किया है । सूत्रपातुड़में धो कुन्दकुन्द आचार्य लिखते है
ण चि सिलाइ वस्थधरो जिणसासगे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो वि मोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सब्ये ॥३२॥ अर्थ-जैनधर्ममें वस्त्रधारक (संयमरहित) तीर्थकर भी क्यों न हो, वह मुक्त नहीं हो सकते । मोलमार्ग नग्न दिगम्बर रूप है, शेष सभी जन्मार्ग है। मोक्षप्राभुतमें श्री कुन्दकुन्द आचार्य लिखते है
गाणं चरितहीणं दंसणहीणं तहिं संजुतं ।
अण्णेसु भावरहियं लिंगरगहणेण किं सोक्खं ॥५७|| अर्थात्-चारित्रसे रहित ज्ञान सुखकारी नहीं है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तस्वार्थसूत्र १-१।
अर्थ-सम्मग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ( रत्नश्रय ) मोक्षका मार्ग है । राजवातिकमें इसी सूत्रकी टीका श्री अकर्शकदेवने लिखा है
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाशानिना क्रिया।