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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अर्थ-मारिष रहित ज्ञान मोक्षमार्गमें कार्यकारी नहीं है।
इत्यादि अनेक आर्ष प्रमाणों द्वारा आपका यह लिखना कि 'ज्ञान ही मोक्ष का कारण है ।' अप्रामाणिक सिख होता है।
इस विषयमें समयसार (अहिंमा मन्दिर, १ दरियागंज, दिल्लीसे प्रकाशित) के पृष्ठ ११८ की टिप्पणी में लिखा है
एकान्तेन ज्ञानमपि न बन्धनिरोधक, एकान्तेन कियापि न बन्धनिरोधिका इति सिद्ध उभाभ्यामेव मोक्षः।
अर्थ-एकान्तसे न तो मात्र ज्ञान ही कर्म-बन्धका रोकनेवाला है और न केवल चारित्र-क्रिया हो कर्म-वन्धको रोकनेवाली है। इससे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान चारिव दोनोंके द्वारा ही मोक्ष होता है । इसी विषयको श्री कुन्दकुन्द आवार्यने समयसार को १५५वीं गाथामें कहा है
जीवादीसदहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं 1
रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ।। अर्थ-जोव अजोय आदि तस्त्रोंका श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, उन तत्वोंका जानना ज्ञान है, राग आदि भावोंका परिहार सम्यक्चारित्र है । ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्ष मार्ग है।
इस मायाको टीकामें श्री अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं---
मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रवानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानं । रागादिपरिहरणस्वभावम ज्ञानस्य भवनं चारित्रं । तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः।
___अर्थ-मोक्षका कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, मम्पक्चारित्र है। यहाँ सम्यग्दर्शन तो जीपाविक तत्त्वोंके श्रद्धानस्वभावसे ज्ञानका होना है। जीवादिक ज्ञानस्वभावसे शानका होना ज्ञान है । राग आदिके परिहार स्वभावसे ज्ञानका होना चारित्र है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र एक ही ज्ञानरूप होना सिद्ध हुआ । इसलिए ज्ञान ही परमार्थसे मोक्षका कारण है।
श्री अमृतचन्द्र सूरिके इस कथनके अनुरूप ही १७६-१०७ में कलशका अभिप्राय है । तदनुसार 'ज्ञान मोक्षका कारण है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यही है कि 'सम्यग्दर्शन सम्बचारित्र सहित ज्ञान मोक्षका कारण है'-मात्र ज्ञान (जीवादि तत्त्वोंका अधिगम) मोक्षका कारण नहीं है ।
इन उपर्युक्त आर्ष प्रमाणों द्वारा स्पष्ट. प्रमाणित होता है कि जीवदया संयमरूप है तथा संवर और निर्जराका कारण होनेसे धर्म है।
आपने अतपालनको शुभ भावमें गर्भित करके उससे संवर-निर्जरा तथा मोक्षसिद्धि होना असम्भव बतलाया है। इस विषयका निर्णय करनेके लिए सर्व प्रश्यम ब्रतोंका स्वरूप देखना आवश्यक हो जाता है। श्री तत्त्वार्थसूत्रके अध्याय ७ के सूत्र ? में अतोंका लक्षण निम्न प्रकार दिया है
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । अर्थ---हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रहसे विरक्ति प्रत है।