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शंका ३ और उसका समाधान
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उक्त लक्षणसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत विरहित अर्थात् निवृत्तिरूप है, प्रवृत्तिरूप नहीं है। इसी कारण यह सम्यक्वारित्रमें गर्मित है। जितनी भी निवृत्ति है वह केवल संवर तथा निर्जराकी ही कारण है, वह कभी भी बन्धका कारण नहीं हो सकती है। अतः प्रतीका पालन संघर-निर्जराका कारण है । सिद्धान्त में अणुव्रती एवं महाव्रतीके प्रत्येक समय असंख्यातगुणी निर्जग बतलाई है। अव्रत सम्यग्दृष्टिके लिये ऐसा नियम नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि वहाँ अत ही असंख्याप्तगुणी निर्जराके कारण है।
दप्तादान ग्रहण करना या सत्य बोलना आदि व्रतोंका लक्षण नहीं है । इनको व्रतोंका लक्षण स्वीकार कर लेने पर अश्याप्ति दोष आता है, क्योंकि दत्तादानको न ग्रहण करने की अवस्था या मौनस्थ आदि अवस्थामें मुनियोंके, यह लक्षण घटित न होनेके कारण, महाव्रत ही न रहेंगे । किन्तु यह इष्ट नहीं हो सकता है, क्योंकि मुनियोंके हर समय महावत रहते है, श्रेणी आदिके गुणस्थानमें स्थित मुनियों के भी महावत होना स्वीकार किया गया है । १२वें गुणस्थानमें अप्रमाद बतलाते हुए कहा हैपंच महन्वयाणि पंच समिदीयो तिषिण गुत्तोओ णिस्से सकसाय भावो च अप्पमादो णाम ।
-धवल पु० १४ पृ० ८६ अर्थ-पंच महानत, पंच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायोंके अभावका नाम अप्रमाद है।
इससे प्रमाणित होता है कि १२वें गुग स्थानमें भी पंच महावत आदिक होते हैं और वे अप्रमादरूप हैं। यह व्रत सम्यचारिकरूप है । इसके कुछ प्रमाण नीचे दिये जाते है
हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः ।
कारस्न्यैकदेशविरतश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।।४०।-पुरुषार्थसिद्धयुपाय अर्थ-हिंसासे, असरयभाषणसे, चोरीसे, कुशीलमे और परिग्रहसे सर्वदेश तथा एकदेश त्याग से, वह चारित्र दो प्रकार
हिंसानृतचौरेभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहान्यां च ।
पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ।।४९||-रत्नकरण्डश्रावकाचार अर्थ-हिंसा, अनुत, चौर्य, मैथुनसेवन, परिग्रह ये पाप आवनेके प्रनाला है, इनसे जो विरक्त होना सो सम्यग्ज्ञानीके चारित्र है।
पायारंभणिवित्ती पुष्णारंभे पउत्तिकरणं पि ।
णाणं धम्मज्माणं जिणभणियं सब्वजीवाणं ॥९७॥ रयणसार अर्थ-पापारम्भसे निवृत्ति तथा पुषयारम्भमें प्रवृत्ति भी. सर्व जीवोंके ज्ञान एवं धर्मध्यान है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ।
___ इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्यने व्रतोंको ज्ञान एवं प्रमंध्यान प्ररूपित किया है तथा चारित्रपाहह गा० २७ में इनको संयम और चारित्र बतलाया है
पंचिदियसंवरणं पंचवया पंचविसकिरियासु। पंचसमिदि तयगुत्ती संजभचरणं निरायारं ॥२७॥