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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा अर्थ-पंचेन्द्रियोंका संवरण, पंच व्रत, पच्चीस क्रिया, पंच समिति तपा तीन गुप्ति मुनियों के संयम एवं चारित्र है।
प्रत्येक जैन आगम अभ्यासीको यह तो मुविदित ही है वि चारित्र, संयम तथा धर्म्यध्यान संदरनिर्जरा एवं मोससिद्धिके कारण है। अत भी चारित्र, संयम एवं धर्म्यष्यानरूप होनेसे संबर-निर्जरा एवं मोक्षसिद्धिके कारण सिद्ध हो जाते है। अतः यह कहना कि व्रतपालनसे संघर-निर्जरा तथा मोक्षसिद्धि होना असम्भव है-सर्वथा आगमविरुद्ध है।
यह प्रश्न हो सकता है कि कहीं-कहीं आगममें व्रतोंको शुभ आत्र व-बन्धका भी कारण क्यों बतलाया है? उसका समाधान यह है कि उन व्रतोंके साथ दसादानका ग्रहण. सत्यभाषण बादिरूप जो रागसहित प्रवृत्ति अंश रहता है और जिसका इन प्रतोंमें त्याग नहीं किया गया है, उससे ही शुभ आसव-यय होता है । जैसे कि देव आयके आनद प्रत्ययोंमें तत्त्वार्यसूबमें 'सम्यक्त्वं च' अर्थात् सम्यक्त्वसे भी देव आयुका बन्ध होता है, ऐसा कहा गया है। वास्तवमें सम्यक्त्व बन्धका कारण नहीं है, किन्तु सम्यक्रवके साथ रहनेवाला रागांश ही देव आयु के बन्धका कारण एक मिमि नगर निगमोरी कारण राई । को बन्धका कारण कहा जाता है उसी प्रकार एक मिश्रित अखण्ड पर्याय होनेके कारण व्रतोंको भी शुभ बन्धका कारण कहा जाता है ।
एक मिश्रित अखण्ड पर्याय निवृत्ति तथा प्रवृत्ति (राग) दोनों अंश सम्मिलित है। अतः उससे भास्त्रव-बन्ध भी है और संबर-निर्जरा भी है। क्रमशः प्रवृत्ति (राग) अंधके क्षीण हो जाने पर माष संवरनिर्जरा ही होती है। रागके साथ जो पापोंसे निवृत्ति बनी रहती है, उससे उस समय भी संवर-निर्जरा बराबर होती रहती है।
आगममें जिस-जिस स्यानपर व्रतोंको छोडनेका उपदेश पाया जाता है, वहां सविकल्पसे निर्विकल्प समाधिमें पहुँचानेके लिये व्रतोंमें होनेवाला अध्यवसान या उसके प्रवृत्तिरूप रागांश अथवा व्रतोंके विकल्पको ही छुड़ाने का उपदेश है, न कि निवृत्ति रूप स्वयं यतोंको छोड़नेका । क्योंकि पापोरी निवृत्तिरूप ब्रतोंके छोड़नेका अर्थ होगा पापोंमें प्रवृत्ति करना, जो कि कभी इष्ट नहीं हो सकता है। जैसे ऊपर सप्रमाण बतलाया गया है-व्रत तो ऊपरके श्रेणीके गुणस्थान आदिमें भी कायम रहते हैं छोड़े नहीं जाते हैं।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणो । मंगले कुन्दकुन्दाों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
शंका ३ जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
प्रतिशंका ३ का समाधान
१. प्रथम-द्वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार जो बदया पदके स्वदया और परदया दोनों अर्थ सम्भव हैं। किन्तु प्रकृतमें मूल प्रश्न परदयाको घ्यानमें रखकर ही है, इस बातको ध्मानमें रखकर हमने प्रथम उत्तरमें यह स्पष्टीकरण किया कि यदि