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शंका-समाधान की समीक्षा
निश्चयनयका विषयभूत स्वद्रव्य-क्षेत्र काल-भावाश्रित अस्तित्व वस्तुका वस्तुत्व है उसी प्रकार व्यवहारनयका विषयभूत परब्रव्य-क्षेत्र काल - भावाश्रित नास्तित्व भी वस्तुका वस्तुत्व है। अर्थात् जिस प्रकार वस्तु के वस्तुकी सिद्धि के लिए स्वद्रव्य क्षेत्र - काल- भावाश्रित मस्तित्व धर्म वस्तु स्वीकृत करना आवश्यक है उसी प्रकार उसकी सिद्धिके लिए परद्रव्य-क्षेत्र काल-भावाश्रित नास्तित्त्र धर्म भी वस्तु स्वीकृत करना आवश्यक है, क्योंकि यदि वस्तु निश्चयनयाश्रित उक्त अस्तित्व धर्मके साथ व्यवहारनयाश्रित उक्त नास्तित्व धर्मको स्वीकार न किया जाये तो विश्वकी सभी वस्तुओं में अद्वैतगने की प्रसक्ति हो जायेगी, जो दोनों पक्षोंको इष्ट नहीं है । इसलिये उत्तरपक्षका वस्तुके व्यवहार धर्मको आकाशमकी तरह काल्पनिक अवास्तविक, कयनमात्र मानना युक्त नहीं है ।
कथन ९१ और उसको समीक्षा
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(९१) इसी तरह उत्तरपक्षने त० च० पृ० ७२ पर ही "व्यवहारनय असत् पक्षको कहने वाला है" कहते हुए उसके समर्थनमें वहीं पर लिखा है कि "वह अन्य द्रव्यके धर्मको अभ्यका कहता है" तथा इसकी पुष्टि उसने वहीं पर समयसारकी गाथा ५६ की भाचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका और पं० टोडरमलजी के मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ २८७ तथा पृष्ठ ३६९ पर निर्दिष्ट कथनों के उद्धरणों द्वारा की है।
इस संबंध में प्रथम तो यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "व्यवहारनय असव् पक्षको कहने वाला है" उसका निराकरण करते हुए मैंने पूर्वमें स्पष्ट क्रिया है कि व्यवहारनयका विषय भी निश्चयन विषयको तरह अपने ढंग से वास्तविक ही है। वह आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा असत् नहीं है । इतना ही है कि व्यवहारनयका विषय निश्वमनयके विषय के समान सदरूप नहीं है । दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि अपने कथन के समर्थन में उत्तरपक्षने लिखा है कि "वह अन्य द्रव्य धर्मको अन्यका कहता है" सो इससे उसके उक्त कथनका समर्थन नहीं होता, क्योंकि उसके द्वारा उद्धृत समयसार गाथा ५६ को आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका और पं० टोडरमलजीके मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ० २८७ व २६९ के वचनोंसे यही आशय प्रकट होता है कि पवहारना निश्चयकी तरह स्वाश्रितरूपमें यथार्थ अर्थको ग्रहण न करके पराश्रित रूपमें अयथार्थ अर्थात् उपचरित अर्थ को ही ग्रहण करता है, जिस पराश्रित रूपको आगम में आकाशकुसुमकी तरह सर्वषा असत् न माना जाकर अपने ढंगसे सद्रूप ही माना गया है। इस तरह उत्तरपक्षका "व्यवहारनय असत् पक्षको कहने वाला है" यह करन आगम के अभिप्रायके विरुद्ध हो सिद्ध होता है । कथन ९२ और उसकी समीक्षा
(१२) उत्तरपक्षने भागे त० च० पृ० ७३ पर अपने कथनका निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है कि "इस प्रकार इतने विवेचन द्वारा यह सुगमतासे समझ में आ जाता है कि समयसारकी उक्त गाथाओं द्वारा पुद्गल द्रव्य के स्वतः सिद्ध परिणामस्वभावका ही कप्पन किया गया है। जबकि पुद्गल द्रव्य परकी अपेक्षा किये बिना स्वभाव से स्वयं परिणामी स्वभाव है ऐसी अवस्था में वह परसापेक्ष परिणामी स्वभाव है इसका निषेध ही होता है, समर्थन नहीं । यह बात इतनी स्पष्ट जितना कि सूर्यका प्रकाश ।"
इसकी समीक्षामें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षके 'सभवसारकी उक्त गाथाओं द्वारा पुद्गल द्रव्यके स्वतः सिद्ध परिणाम स्वभावका ही कथन किया गया है।" इस कथनका निषेध पूर्वपक्ष ने नहीं किया है। यह तो पूर्वपक्षकी ही मान्यता है । उसका निषेध तो उत्तरपक्षके इस कथन से होता हैं कि 'पुद्गल द्रव्य परकी