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जयपुर (खानिया) तरवचर्चा और उसकी समीक्षा
अपेक्षा किये बिना स्वभावरो स्वयं परिणामी स्वभाव है। क्योंकि 'पुद्गलका परिणामी स्वभाव स्वतः सिद्ध है। और 'पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है। इन दोनोंके अभिप्रायमें अन्तर है। पहले कथनका अभिप्राय यह है कि कप नरिणा , खराः सर्व परिणाम स्वभावके आधारपर तो होता है, परन्तु जीवको रागादि परिणतिका सहयोग मिलनेपर होता है, जब कि दूसरे कथनका यह अभिप्राय है कि पुद्गलका कर्मरूप परिणमन उसके स्वतःसिद्ध परिणमन स्वभावके आधारपर जीवकी रागादि परिणतिके सहयोगके जिना अपने आप होता है। इनमें पहला कथन ही आगम सम्मत है. दूसरा कथन आगम विरुद्ध है । इसे पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है।
इस विवेचनसे उत्तर पक्षका त. च० पृ०७३ पर निर्दिष्ट यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि 'इस प्रकार उक्त निवे उनसे एकमात्र यही सिद्ध होता है कि पुद्गल स्वयं परिणामी स्वभाव है' और ऐसी अवस्था में उसका यह फलितार्थ भी निरस्त हो जाता है कि 'अपरपक्षने अपने तौके आधारपर उक्त माधाओंका जो अर्थ किया है वह ठीक नहीं है ।' कथन ९३ और उसको समीक्षा
(९३) उत्तरपक्षने त० च० १० १७३-७४ पर ही अपने उक्त वक्तव्यफे आगे यह कथन किया है कि "वैसे तो यहाँपर उक्त गाथाओंका अर्थ देने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु अपरपक्षने जब उमका अपनी मतिसे कल्पित अर्थ अपनी प्रस्तुत प्रतिशंका दिया है ऐसी अवस्थामें महा सही अर्थ दे देना आवश्यक है। और इसके आगे उसने उक्त गाथाओं का जो सही अर्थ समक्षा है वह भी लिखा है जो निम्न प्रकार है. "यदि यह पुद्गल द्रम्प जीवमें स्वयं नहीं बन्धा और कर्मभावसे स्वयं नहीं परिणमता तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है। ऐसी अवस्था कर्म वर्गणाओंके कर्मरूपसे स्वयं नहीं परिणमनेपर संसारका अभाव प्राप्त होता है अथवा सांस्यमतका प्रमंग आता है। यदि यह माना जाये कि जीव पुद्गल द्रव्योंको कर्मरूपसे परिणामाता है, तो ( प्रदन होता है कि ) स्वयं नहीं परिणमते हुए उन पुद्गल द्रव्योंको चेतन आत्मा से परिणमा सकता है। इसलिये यदि यह माना जाये कि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मरूपसे परिणमता है तो जीव कर्म अर्थात पदगल द्रव्यको कर्मरूपसे परिणमाता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। इसलिये जैसे नियमसे कर्मरूप परिणत पुद्गल द्रव्य कर्म ही हं वैसे ही ज्ञानावरणादि रूप परिणत पुद्गल द्रव्य ज्ञानाबरणादि हो है ऐसा जानो" । (११६-१२०)
इसकी समीक्षामें प्रथम बात तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष "पुदगल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है" ऐसा मानकर इसका आशय 'स्वयं' पदका 'अपने आप' अर्थ करके यह लेना चाहता है कि पुद्गल द्रव्यका स्वभाव अपने आप अर्थात् निमित्तभूत जोवके सयोगके बिना परिणमन करनेका है और पूर्वपक्ष "पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है' ऐसा मानकर इसका आशय "स्वयं" पदका 'अपने रूप" अर्थ करके यह लेना चाहता है कि पुद्गल द्रश्यका स्वभाव अपने रूप अर्थात् परिणमन करनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप परिणमन करनेका है। इस तरह पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी स्वभाव है इस आगमवाक्यका दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने टंगसे परस्पर भिन्न आशय स्वीकार किये जानके आधारपर यह निष्कर्ष निकलता है कि यद्यपि दोनों ही पक्ष यह मानते है कि कर्मरूप परिणमन पुद्गलका ही होता है या पुद्गल ही कर्मरूप परिणत होता है। परन्तु जहाँ पूर्वपक्ष की मान्यताके अनुसार पुद्गलका वह कर्मरूप परिणमन उसमें विद्यमान