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शंका-समाधान १ को सभीक्षा (३) और किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है। इनमेंसे प्रथम हेतुके सम्बन्धमें उत्तरपक्ष के मन्तब्यकी समीक्षा ऊपर की जा चुकी है।।
द्वितीय हेतुके सम्बन्धमें उत्तरपक्षने त० थ० पृ. ४७ पर जो मन्तव्य प्रकट किया है उसपर पूर्वपक्षने अपने "सर्वकार्योका सर्वथा कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इसके समर्थनमें दूसरा तर्फ यह प्रस्तुत किया है कि "और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है। जिसका आशय यह है कि लोकमें
4 तो नियतक्रमसे या नियतकालमें होते हुए देखे जाते हैं और कोई कार्य अनियतक्रमसे या अनियतकालमें होते हुए देख्ने जाते हैं। जैसे पूर्व भी बतलाया है कि माम्रफलको यदि डाली में ही लगा रहने दिया जाये तो वह नियतकालमे ही पक्वताको प्राप्त होगा और उसे तोड़कर यदि कृत्रिम ऊष्मामें रस्म दिया जायेगा तो वह असमयमें ही पककर तैयार हो जायेगा । इसी तरह कोई दर्जी किसी एक व्यक्ति के कपड़े की सिलाई कर रहा है लेकिन उसके पास यदि कोई अन्य व्यक्ति कपड़ा सिलानेके लिये पहुँच जाये तो उसके आग्रह पर वह अपने चालू कामको रोककर उस अन्य व्यक्तिके कपड़ेकी सिलाई करने लग जावेगा । ऐसा अनेक उदाहरण प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्तिकी दृष्टिमें आते रहते हैं। उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के इस आशय पर ध्यान देता तो उसने जो ऊपर तच. पृ० ४७ पर असत्य कथन किया है उसका अवसर उसे प्राप्त नहीं होता। उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके कथनके भाशयको सम सनेकी चेष्टा नहीं की और बिना सोने समझे उसने द्वितीय भागके अन्तर्गत त० च०प०४७ पर अपने असत्य वक्तव्यमें कुतर्क किया है कि पूर्वपक्ष प्रायमें अवस्थित कार्यकरणक्षम उस योग्यताका अपने इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञान कर लेता है जिसे सभी आचार्योने अतीन्द्रिय स्वीकार किया है।
वास्तवमें पूर्ववक्षने त० च०५०१५ पर अनच्छेद (अ) में जो तर्क दिया है कि "और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है" उसका आशय पूर्वोक्त प्रकार यही है कि कार्यको उत्पत्ति समय असमय पर नियतक्रम और अनियतक्रम दोनों तरहसे होती हुई प्रत्यक्ष देखी जा सकती है । स्वयं उत्तरपक्षने भी त० च .४५ पर पूर्वपशके उक्त कथनको "सभी कार्योका काल सर्वथा नियत नहीं है ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है" इस कथनके रूप में मान्य किया है। परन्तु उत्तरपक्षने त०च०१० ४७ पर पूर्वपक्षके उक्त कथनको उत्कटपुलर करके निबद्ध किया है कि ''अपरपक्षका अपने पक्षके समर्थनमें दूसरा तर्क यह है कि सभी कार्योका काल सर्वथा नियत है ऐसा प्रत्यक्षसे ज्ञात नहीं होता" जो पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनके और उसके उपर्युक्त प्रकारके आशयके तथा उत्तरपक्षके त. २० पृ. ४५ पर निर्दिष्ट कथनके सर्वथा विपरीत है। इस तरह उत्तरपक्ष द्वारा त० ०१० ४७ पर निर्दिष्ट अपने कथनमें जो पूर्वपक्षपर उपर्युक्त आरोप लगाया है उसका मिथ्यापन उत्सरपक्षके अपने उक्त कथनसे ही सिद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह कि पूर्वपक्षके कथनसे यह सिञ्च नहीं होता कि वह अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष द्वारा द्रव्यमें अवस्थित कार्यकरणक्षम योग्यताका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेना चाहता है जिसे आचार्योन एक मतसे अतीन्द्रिय मान्य किया है । वास्तविक बात यह है कि पूर्वपक्ष भी उत्तरपक्षकी तरह द्रव्यमें अवस्थित कार्यकरणक्षम योग्यताको अतीन्द्रिय ही मानता है तथा इसके समर्थन में उत्तरपक्षने जो आचार्य प्रभाचन्द्र और स्वामी समन्तभद्रके वचनोंको प्रमाण रूपसे उपस्थित किया है उन्हें भी वह स्वीकार करता है। अतएव उत्तरगक्षका पूर्वपक्षके ऊपर उपर्युक्त प्रकारका आरोप वेबुनियाद है। उत्तरपक्षने दूसरे तर्कको जिस रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया है उस रूपमें पूर्वपक्षने उस अनुष्छेद (अ) में नहीं उपस्थित किया है। अतः उसे पूर्वपक्षकी ओरसे उस रूपमें उपस्थित किया जाना उत्तरपक्षका मनपढ़त है।