________________
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
स्ततः सिद्ध स्वयं सत् है । उसकी परसे प्रसिद्धि करना यह तो मात्र व्यवहार है" क्योंकि वस्तु में उत्पाद और व्यय स्वप्रत्ययके माय स्वारप्रत्यय भी आगममें स्वीकार किये गये है। इसके अतिरिक्त उत्तरपक्षने तथा पृ०४६ के इसो अनुच्छेदमें जो और लिखा है उससे भी उत्तरपक्षका तत्त्व ऊपर किये गये विबंधनके अनुसार फलित नहीं होता। अन्तमें उसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "जिस द्रन्यकी जो पर्याय जिस कालमें जिस देशमें जिस विधिसे होना निश्चित है.' इत्यादि, उसके विषयमं आगे तच के पंचम प्रश्नोतरको समीक्षामें विचार किया जायेगा ।
(२) उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के त. च० पु०१५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद (अ) के द्वितीय भागपर विचार
। आगे चल १०४७ पर लिखा है कि "अपरपक्षका अपने पक्षके समर्थनमें दसरा तर्क है कि सभी कार्योंका काल सर्वथा नियत है ऐसा प्रत्यक्षसे ज्ञात नहीं होता । इसके साथ उसका यह भी कहना है कि उनका किसीने कोई क्रम भी नियत नहीं किया है अतः कौल कार्य पहले होने वाला बादमें हुआ और बादमें होनेवाला पहले हो गया यह प्रश्न ही नहीं उठता। इसके आगेत.प. ४८ पर ही उसने लिखा है-"मह अपरपक्ष का अपने पक्ष के समर्थनमं वक्तब्यका सार है । इस द्वारा अपरपक्षन अपने पक्ष के समर्थनमें दो तर्क उपस्थित किये हैं। प्रथम तकको उपस्थित कर वह अपने इंद्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षा (जो परोक्षा है) द्वारा यह दावा करता है कि वह अपने उक्त ज्ञान द्वारा द्रञ्चमें अवस्थित कार्यकरणाम उस योग्यताका प्रत्यक्ष कान कर लेता है जिसे सभी आचार्योने अतीन्द्रिय कहा है। किन्तु उस पक्षका ऐसा दावा करना उचित नहीं है, क्योंकि सभी बाचाोंने एक स्वरसे कार्यको हेत मानकर उस द्वारा विबक्षित कार्य करने में समर्थ अंतरंग योग्यताके ज्ञान करनेका निर्देश किया है"। इसके आगे वहींपर उत्सरपक्षाने अपने कथनके समर्थनमें एक प्रमाण तो आचार्य प्रभाचंद्रके प्रयकमलमार्तण्ड पृ०२३७ का दिया है और दूसरा प्रमाण स्वामी समन्तभद्रकृत स्वयंभू स्तोत्रके अन्तर्गत सुपापर्व जिनकी स्तुतिके "अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतयम्" इत्यादि पद्यको दिया है। इसके भी आगे वहीं पर उसने यह भी लिखा है कि "यद्यपि कहीं-कहीं कारणको देखकर भी कार्यका अनुमान किया जाता है। यह सच है, परन्तु इस परतिसे कार्य का ज्ञान बहीं पर सम्भव है जहां पर विवक्षित कार्यके अविकल कारणोंकी उपस्थितिकी सम्यक जानकारी हो और साथ ही उससे भिन्न कार्यके कारण उपस्थित न हों। इतने पर भी इस कारणमें इस कार्यके करनेकी आंतरिक योग्यता है ऐसा ज्ञान तो अनु. मान प्रमाणसे ही होता है" । अन्त में उपयुक्त सम्पूर्ण कथनके आधारपर उत्तरपक्षने वहीं पर यह निष्कर्ष निकाला है कि "अतः सभी कार्योंका कार्य सर्वथा नियत नहीं है ऐसा दाबा अपरपक्ष अपने प्रत्यक्ष प्रमाचके बलपर तो त्रिकालमें नहीं कर सकता"।
यहाँ इसकी समीक्षा की जाती है
मैं पूर्वमें स्पष्ट कर चुका है कि पूर्वपशने उत्तरपक्षके "प्रेरक कारणके बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा" इस कथनकी असंगतिको सिद्ध करने के लिये त. च० १० १५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद (अ) में सर्वकार्योंका सर्वथा कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है यह लिखकर इसके समर्थन में तीन हेसु दिये है
(१) प्रवचनसारकी अपनी टीकार्मे थी अमृतचन्द्र आचार्य ने कालनय और अकालनय, नियतिनय और अनियतिनय इन नयोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बतलाई है ।
(२) और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है।