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जयपुर (खानिया) सत्वचर्चा और उसकी समीक्षा निश्चयधर्मको व्याख्या
__ करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार जीव अनादिकालसे मोहनीयकमसे बद्ध है और उसके उदय में उसको स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववती शक्तिका शुद्धस्वभावभूत परिणमनके विपरीत अशुद्ध विभावभूत परिणमन होता है। भाववती शक्तिके इस अशुद्ध विभावरूप परिणमनकी समाप्ति करणानुयोगको व्यवस्थाके अनुसार मोहनीयामके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या शयोपशमपूर्वक होती है। इस तरह जीवक्री भाववती शक्तिके अशुद्ध विभावभूत परिणमनके समाप्त हो जानेपर उसका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है उसे ही निश्चयधर्म जानना चाहिए । इसके प्रकट होनेकी व्यवस्था निम्न प्रकार है
(क) सर्वप्रथम नीवमें वर्णनमोहनीयकर्मको यथासम्भव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यस्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभला चार इन सात प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर उस जीबकी भाववती शक्तिका रतृर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चयसम्यग्दर्शन के रूपमें व निश्चयसम्परज्ञानके रूपमें शुद्धस्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है।
(ख) इसके पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरणकषायको नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववती शक्तिका पंचमगणस्थानके पा समयमें देशविरण दिलरापनामिके हममें शुद्ध स्वभात्र मत परिणमन प्रगट होता है।
(ग) इसके भी पश्चात् जोबमें चारित्रमोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्यास्थानावर णकषायको नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववती शक्तिका सप्तम गुणस्यानके प्रथम समय में सविरति निश्चयसम्यचारित्रके रूपमें शुवस्वभावभुत परिणमन प्रकट होता है। ऐसा सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे सप्तमसे षष्ठ और षष्ठमे सप्तम इस तरह दोनों गुणस्थानोंमें यथायोग्य समय तक सतत सूलेकी तरह झूलता रहता है।
(घ) यदि वह सप्तम गुणस्थानवी जीव पहलेसे ही उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो अथवा सप्तम गुणस्थानके कालमें ही वह उक्त औपमिक या क्षामिक निश्चयसम्पग्दर्शनको को प्राप्त हो जाये तो वह तब करणलब्धिके आधारपर नव नोकषायोंके साथ चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्यारूपानाबरण और तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण इन दोनों कषायोंफी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतिमोंका तथा उसके चतुर्थ भेद संज्वलनकषायवी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियों का भी यथास्थान नियमसे उपक्षम या क्षय करता है और उपशम होने पर उसकी भाववतो शक्तिका एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक यथास्थात निश्चयराभ्यक्चारित्रके रूपमें अथवा क्षय होनेपर उसको भाववती शक्तिका द्वादश गणस्थानके प्रथम समयमें शायिक यथाख्यात निश्चयसभ्य चारित्रक रूप में शुद्ध स्वभावभत परिणमन प्रगट होता है। व्यवहारधर्मकी व्याख्या
व्यवहारधर्मको व्याख्या करनेसे पूर्व यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नारकी, देव और निर्यच इन तीनों प्रकारके जीवोंमें केबल अगृहीत मिथ्यात्व पाया जाता है । अतः इनमें व्यवहारधर्मका