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शंका १ और उसका समाधान
अर्थात् जो आत्माको परतन्त्र करते हैं वे कर्म है।
समयसारकी निम्नलिखित गाथामे श्री कुन्दकुन्दाचार्यने पौद्गलिक कर्मका फल आत्माको दुःख होना बतलाया है
अष्टविहं पि य कम्मं सब्बं पुद्गलमयं जिणा विति ।
जस्स फलं तं बुच्चइ दुक्खं ति बिपञ्चमाणस्स ॥४५॥ चवला पुस्तक ६ पृष्ठ ६ पर लिखा हैतं आवरेदि त्ति पाणावरणीयं कम्म । अर्थात् आत्माके ज्ञानगुणका जो आवरण करता है वह ज्ञानावरण कर्म है।
घवला पुस्तक ५ पृष्ठ १८५ तथा २२३ तथा पुस्तक १६ पृष्ठ ५१२ पर रागादि विभावभावोंको कर्मजनित कहा है
तत्थ ओघभवो णाम अट्ठकम्माणि अट्टकम्मणिदजीवपरिणामो वा।
इनके अतिरिक्त समस्त धवल, जयधवल, महाघवल, राजवातिक, श्लोकवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, तत्त्वार्थसूत्र आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में आत्मा तथा द्रव्यकोका परस्पर विकार्य-विकारभाव स्पष्ट बतलाया है।
इसके आगे आपने जो पञ्चास्तिकायकी गाथा ८९ का उद्धरण दिया है, वह भी हमारे प्रश्नसे संगत नहीं है, क्योंकि यह उखरण उदासीन निमित्त कारणसे सम्बन्धित है। साथ ही स्वयं अमृतचन्द्र सुरिने उसी पञ्चास्तिकायकी ८७ और ९४ वीं गाथाकी टोकामें उदासीनको भी अनिवार्य निमित्तकारण बतलाया है।
गाथा ८७ को टीका
तत्र जीव-पुद्गलो स्वरसत एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नौ । तयोर्यदि गतिपरिणाम तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मों न भवेतां तदा तयोनिरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत ?
अर्थ-वहाँ जीव और पुद्गल स्वभावसे ही गति और स्थिति परिणामको प्राप्त है । सो उनके इस परिणमनको स्वयं अनुभव करते हुए यदि धर्म और अधर्म द्रब्य बहिरङ्ग कारण न हों तो उनका यह परिणमन निरगल-निधि हो जायगा और इस दशामें उनका सदभाव अलोकम भी कौन रोक सकेगा?
गाथा ९४ की टीका
यदि गतिस्थित्योराकाशमेव निमित्तमिष्येत् तदा तस्य सर्वत्र सद्भावाज्जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योनिःसीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको हीयते ।
अर्थ-यदि आकाश ही गति और स्थितिका कारण माना जाय तो उसका सर्वत्र सद्भाव होनेसे जीव और पद्गलकी गति तथा स्थिति सीमा रहित हो जायगी अर्थान् वह अलोकमें भी होने लगेगी और ऐसा होमेसे अलोकका परिमाण प्रति समय कम होता जायगा । . सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ मूत्र २२ में काल द्रव्यकी अनिवार्य उदासीन कारणता बतलाई है
धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्याय निर्वृति प्रति स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वत्यभावात् तत्प्रवर्तनोपलक्षितः कालः ।