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शंका १ और उसका समाधान
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अनुसार जिस कर्ममें जिस समय जो कार्य होता है वह नियमित क्रमसे ही होता है । अतः कर्मशास्त्र के अनुसार किसी भी कार्यको आगे गीले होने का दावा करना किसी भी अवस्था में उचित नहीं कहा जा सकता ।
इस प्रकार जिन तीन हेतुओंके आधार से अपर पक्षने सम्यक् नियतिका विरोध किया है वे तीनों हेतु यथार्थ कैसे नहीं हैं इसका नागमके आधारसे यहाँ विचार किया । अतएव प्रकृत में यही समझना चाहिए कि सम्यक् नियति आगमसिद्ध है, अन्यथा न तो पदार्थव्यवस्था हो बन सकती है और न ही कार्य-कारणव्यवस्था ही बन सकती है ।
६. प्रसंग प्रकृतोपयोगी नयोंका खुलासा
इसी प्रसंग अपर पक्षने नयोंकी चरचा करते हुए व्यवहार नयको असभूत माननेसे अस्वीकार किया है। उस पक्ष का ऐसा कहना मालूम पड़ता है कि जिसने प्रकारके व्यवहार नय आगममें बतलाये गये हैं वे सब सद्भूत ही हैं। यह प्रश्न अनेक प्रसंगों पर अनेक प्रश्नोंमें उठाया गया है । यदि अपर पक्ष आगमपर दृष्टिपात करता तो उसे स्वयं ज्ञात हो जाता कि आगममें व्यवहारनगके जो चार भेद किये हैं उनमें से दो सद्भूत व्यवहारमय के भेद हैं और दो अद्भूत व्यवहारनयके भेद हैं । जहाँ प्रत्येक द्रव्यको व्यवहारनयसे अनित्य कहा है वहीं वह सद्भूत व्यवहारमय से ही कहा गया है, जिसे आगम पञ्चलिमे पर्यायार्थिक निश्चय नयरूपसे स्वीकार किया गया है। किन्तु जहाँ किसी एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य कार्यको अपेक्षा निमित्त व्यवहार किया गया है वहाँ वह सद्भूत व्यवहारनयका विषय न होकर असद्द्भूत व्यवहारनयका ही विषय हैं । कारण कि एक द्रव्य कार्यका कारण धर्म दुसरे द्रव्यमें रहता हो यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। अतः एक द्रव्यके कार्यका दूसरे द्रव्यको निमित्त अर्थात् कारण कहना उपचरित ही ठहरता है । यही कारण है कि आलापपञ्चतिमें असद्भूत्त व्यवहारका लक्षण करते हुए लिखा है
अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । मसद्भूतव्यवहार एवोपचारः । उपचारादप्युपचारं यः करोति स उपचरितासभूतव्यवहारः ।
अन्यत्र प्रसिद्ध हुए धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भूत व्यवहार है। असद्भूत व्यवहारका नाम ही उपचार है । उपचारके बाद भी जो उपचार करता है वह उपचरितासद्भूतव्यवहार है। (देखो समयसार गाथा ५६ टीका, आलाप पद्धति तथा नयचक्रादिसंग्रह पृ० ७९ गाथा २२३ )
यह ती अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि प्रत्येक द्रव्यके गुणधर्म उसके उसीमें रहते हैं। विचार कीजिए कि कुम्भकार भिन्न वस्तु है और मिट्टी भिन्न वस्तु है। यदि मिट्टी के किसी धर्मको कुम्भकारमें या कुम्भकार किसी धर्मको मिट्टी में परमार्थसे स्वीकार किया जाता है तो इन दोनोंमें एकता प्राप्त होती है । किन्तु मिट्टी अपने स्वचतुष्टयकी अपेक्षा भिन्न वस्तु है, उसमें कुम्भकारके स्वचतुष्टयका अत्यन्त अभाव है | उसी प्रकार कुम्भकार अपने स्वचतुष्टयकी अपेक्षा भिन्न वस्तु है, उसमें मिट्टीओ स्वचतुष्टयका अत्यन्त अभाव हैं । ऐसी अवस्थामें यदि घटका कर्ता कुम्भकारको कहा जाता है वो घटका कर्ता धर्म कुम्भकार में आरोपित हो तो मानना पड़ेगा और इसी प्रकार कुम्भकारका कर्म यदि घटको कहा जाता है तो कुम्भकारका कर्मधर्म घटमें आरोपित ही तो मानना पड़ेगा। यही कारण है कि हमने सर्वत्र निमित्तनैमित्तिक सम्बन्त्रको असद्भूतoreहारनयका विषय बतलाकर उसे उपचारित ही प्रसिद्ध किया है। नय एक विकल्प है । वह सद्भूतको तो विषय करता ही है । कालप्रत्यासत्तिमादिकी अपेक्षा जिसमें निमित्त व्यवहार या नैमित्तिक व्यवहार
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