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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कि प्रकृत में शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियाको ही पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रिया मानता है, जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरकी क्रियाको नहीं। परन्तु उत्तरपक्ष इससे विपरीत जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको हो जीवित शरीरकी क्रिया मानता है, शरीर के सहयोग होनेवाली जीवकी क्रियाको नहीं 1 इतना ही नहीं, उत्तरपक्ष शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियाको भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया मानता है। दूसरे में यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने कथनमें जो यह लिखा है कि 'अपरपक्षका कहना है कि क्रियाको तो सर्वथा धर्म-अधर्म हम भी नहीं मानते तो क्या इसपर से यह आशय फलित किया जाय कि अपरपक्ष जीवित शरीरको क्रियाको कथंचित् धर्म-अधर्म मानता है, सो इसके विषय में मेरा यह कहना है कि पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाको कथंचित् धर्म-अधर्म तो स्वीकार करता है, परन्तु वह 'जीवित शरीरका क्रिया' इस बचाए होग होनेवाली जीवकी क्रिया यह अर्थ मान्य करके ही ऐसा स्वीकार करता है, 'जीवित शरीरको क्रिया' इस वचनका उत्तरपक्षको मान्य 'जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया यह अर्थ मान्य करके नहीं। इसके साथ ही पूर्वपक्ष 'कथंचित्' पदका 'व्यवहार' अभिप्राय ग्रहण करता है जिससे यह स्पष्ट हो जाता कि पूर्वपन शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियाको आत्माकी वास्तविक धर्म-अधर्मरूप परिणतियों के प्रगट होने में कारण होनेके आधारपर व्यव हार अर्थात् उपचरितरूपसे धर्म-अधर्म स्वीकार करता है। व्यवहार या उपचारका स्पष्टीकरण प्रश्नोत्तर १ की समीक्षा में विस्तारसे किया गया है तथा आवश्यकतानुसार इस प्रश्नोत्तर २ की समीक्षामें भी पहले किया जा चुका है।
उत्तरपक्षने अपने इसी कथनमें आगे जो यह लिखा है कि "यदि यही बात है तो अपरपक्षके इस कथनको कि 'धर्म और अधर्म आत्माकी ही परिणतियों है और वे आत्मामें ही अभिव्यक्त होती है' क्या सार्थकता रही ?" सो इस विषयमें मेरा यह कहना है कि पूर्वपक्ष प्रकृत में वास्तविक धर्म-अधर्म तो जीवको भाव
शक्तिके स्वाश्रित परिणामोंको मानता है तथा व्यवहाररूप या उपचरित धर्म-अधर्म जीवको भागवतीशक्ति के मानसिक परिणामको व जीवकी क्रियावतीशक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणामोंको मानता हूँ । इस तरह उत्तरपक्षका वहीं पर यह लिखना कि "यदि यह बात नहीं हूँ तो उस पक्ष को इस बातका स्पष्ट खुलासा करना था" अनावश्यक हो जाता है ।
बात वास्तव में यह है कि उतरपक्षने पूर्वपक्षके प्रति जो आपत्ति प्रस्तुत की है, वह उसने 'जीवित शरीरकी क्रिया' इस वचनका 'जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रिया' यह अर्थ स्वीकार कर की है जबकि प्रकृत में पूर्वपक्ष ने 'जीवित शरीरकी क्रिया इस वचनका 'शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवको किया' यही अर्थ स्वीकार किया है। अतः उत्तरपक्षको ही यह विचार करना है कि उसका कथन सम्यक है या पूर्वपक्षका कथन सम्यक् है ? मैंने इस प्रश्नोत्तरमें जो विवेचन किया है उससे स्पष्ट है कि पूर्वपक्षका कथन ही सम्यक् है, उत्तरपक्षका नहीं । तत्व जिज्ञासुओं को ध्यान देकर इसका निर्णय करना चाहिये ।
कथन ६ और उसकी समीक्षा
आगे त० च० पृ० ८७ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है- 'यह तो अपरपक्ष भी जानता है कि निमित्त और कारण पर्यायवाची संज्ञायें हैं। वह वाह्य भी होता है और आभ्यन्तर भी । उसमें से आभ्यन्तर निमित्त कार्यका मुख्य निश्चय हेतु है। यही कारण है कि बाचार्य समन्तभद्रने स्वयंभू स्तोत्र कारिका ५९ में मोक्षमार्ग में बाह्य निमित्त की गोणता बतलाकर आभ्यन्तर हेतुको पर्याप्त कहा है। इस कारिकामें लाया हुआ 'अंगभूतम्'