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शंका-समाधान १ की समीक्षा
कथन १४ और उसकी समीक्षा
(१४) उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेद में आगे यह भी कयन किया है कि "उपायानमें होने वाले व्यापारको पृथक् सत्ताक बाह्य सामग्री त्रिकालमें नहीं कर सकती है। इस तथ्यको अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा । अतएव आत्मामें उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष और मोह कर्मोदयसे उत्पन्न होते है ऐसा कहना व्यवहार कपन ही तो ठहरेगा । उसे परमार्थभूत (यथार्थ) कथन तो किसो अवस्थामें नहीं कहा जा सकता है।"
इस सम्बन्धमें मेरा कहना यह है कि उपादान में होने वाले व्यापारको पृथक् सत्ताक बाह्य सामग्री त्रिकालमें नहीं कर सकती है, यह निर्विवाद है, परन्तु यदि इसमें उत्तरपक्षका यह अभिप्राय हो कि वह बाह्य मामग्री उपादान में होने वाले कार्य की उत्पत्तिमें सहायक भी नहीं हो सकती है, तो यह अमुक्त है, क्योंकि उपादानको कार्यरूप परिणति में वह बाध सामग्री आवश्यक एवं अनिवार्यरूपसे होती है। उसके बिना उपादान भी पंगु रहता है। दोनोंको संघटनासे ही कार्य होता है। यह पूर्वमें आगमके आषारपर प्रमाणित भी किया आ चुका है। अतएव यह सुनिश्चित है कि आत्मामें उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष और मोहकी उत्पत्तिमें कर्मोदय सहावक हुआ करता है और वह इस आधारपर ही व्यवहारनयका विषय होता है । यतः उत्तरपक्ष राग, द्रव और मोहकी उत्पत्ति में कर्मोदयको आत्माका सहायक न माननेके कारण उसे सर्वथा अकिचि हो मानता है अतः उसके मतमें उसे पत्रहारनयका विषय कहना भी असंगत हो जाता है उत्तरपक्षने अपने इसी कथनमें जो यह कहा है कि "इसे परमार्थभत (यथाथ) कथन तो किसी भी अवस्थामे नहीं माना जा सकता है" सो इसमें पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वह भी इसे परमार्थभूत (यथार्थ) कथन न मानकर उपचारभूत (अयथार्थ) कथन ही मानता है। किन्तु उत्तरपक्ष जहाँ उपचारको कल्पनारोपित मात्र मानता है वहाँ पूर्वपश उसे उपचार कामें वास्तविक ही मानता है। इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। कथन १५ और उसकी समीक्षा
(१५) उत्सरपक्षने उक्त अनुच्छेदके अन्तमें कहा है कि "यदि अपरपक्ष निमित्तन्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीमें यथार्थ कर्तुत्वको बुद्धिका परित्याग कर दे तो पूरे जिनागगको संगति बैठ जाये।" यह उत्तरपक्षका पूर्वपक्षपर मिथ्या आरोग लगाकर तस्वजिज्ञासुओंकी दृष्टि में उसे गिरानका मात्र दुष्प्रयल है, क्योंकि पूर्वपम भी बाह्य सामग्री को उपादानको कार्योत्पत्तिमें यथार्थकारण न मानकर अयथार्थकारण ही मानता है । पर पूर्व पक्ष उक्त बाह्य सामग्रीको उपादानको कार्यात्पत्ति में जो अयथार्थ कारण मानता है सो उसरपक्षकी तरह उसमें सहायक न होने के आधारपर न मानकर पूर्वमें आगमसे प्रमाणित सहायक होने के आधारपर ही मानता है। यदि उत्तरपक्ष उक्त बाह्य सामग्रीको पूर्वपक्षकी तरह उपादानको कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे ही अयथार्थकारण मान ले तथा सहायक न होने रूपसे उसे वहांपर अयथार्थकारण मान्य करने की अपनी हठकों छोड़ दे तो पूरे जिनागमकी संगति बैठ जाये । कथन १६ और उसकी समीक्षा
(१६) पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौरमें तत्त्वचर्चा पृ० ११ पर आत्मामें उत्पन्न होने वाले विकारी भावोंकी उत्पत्ति में द्रश्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण सिद्ध करने के लिए गंचास्तिकाय गाथा १३१, १४८ व १५० की टोकाओंको और गाथा १५६ को भी प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है। उत्तरपक्षने इन सबका मात्र संकेत देते हातच. पु. ३६ पर अपना निम्न मन्तव्य प्रकट किया है