________________
जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा "जब यह जीव मोहनीयकर्मके उदयका अनुवर्तन करता है तभी यह उससे रंजित उपयोग वाला होता है और तभी यह परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है" । इसमें पूर्वपक्षको कोई विवाद नहीं है । परन्तु उसने अपना यह मन्तव्य आस्मामें उत्पन्न होनेवाले यिकारीभावोंकी उत्पत्तिमें अन्यकर्मोदगको सहायक न होने रूपसे अकिचिकर सिद्ध करने के लिए प्रगट किया है। इसके अतिरिक्त आगेके अतुच्छेदमें उसने यह भी लिखा है कि "इस प्रकार समयसार और पंचास्तिकायके उक्त उल्लेखोंसे उसी तथ्यकी पुष्टि होती है जिसका हम पूर्वमें निर्देश कर आये है । बाह्य सामग्री दूसरेको बलात् अन्यथा परिणमाती है यह उक्त वचनोंका गाशय नहीं है जैसा कि अपरपक्ष उन वचनों द्वारा फलित करना चाहता है' तो यह मन्तव्य भी उत्तरपक्षने आत्मामें उत्पन्न होनेवाले विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें द्रध्यकर्मफे उदयको प्रेरक न होने रूपसे अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए प्रगट किया है। इसको समीक्षा निम्न प्रकार है
पूर्वमें आगमके आधार पर स्पष्ट किया जा सका है कि उपादानको कार्यरूप परिणतिमें प्रेरक और सदासीन दोनों ही निमित्त सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध होते हैं। साथ ही आममके आधारपर मैं यह भी सिद्ध कर चुका हूँ कि प्रेरक निमित्तके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता हूं। अतः उत्तरपक्ष के उक्त दोनों मन्तव्य प्रमाणसंगत नहीं है । पूर्वपक्ष यह कहाँ मानता कि बाह्म सामग्री दूसरेको बलात् अन्यथा परिणमाती है। उत्तरपक्षका पूर्वपशपर यह आरोप सर्वथा गलत एवं मिथ्या है, क्योंकि आगम, मुक्ति और अनुभवके आधारपर तथा लोकव्यवहारके आमारपर भी हम पूर्व में यह निर्णय कर आये है कि कार्योत्पत्ति उपादानमें विद्यमान उसकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है। पर वह कार्योत्पत्ति तभो होती है जब प्रेरक निमित्तका उसके अनुकूल सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है । इस तरह प्रेरक निमितके बलसे कार्य आगे पीछे तो किया जा सकता है, परन्तु वह (प्रेरक निमित्त) इस प्रकारका उल: फेर नहीं कर सकता है कि उसके बल से जड़ चेतन और चेतन जड़ बन जाये, क्योंकि जड़में चेतन बनने की और चेतनमें जड़ बननेकी स्वाभाविक योग्यताका अभाव है। उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर इस प्रकारके गलत आरोप लगाकर प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी कार्योत्पत्ति में सहायकता और उनकी कार्यवारिताका अपलाप नहीं कर ककता।
कथन १७ और उसकी समीक्षा
(१७) पूर्वपक्ष ने अपने मन्तव्यके समर्थन में तच पृ० ११ व १२ पर परमात्मप्रकाशके जिन दो पद्योंको उद्धृत किया है उनका उसरपक्षने जो आशय ग्रहण करनेकी सूचना त० च गृ. ३६ गर की है उसका निराकरण पूर्व (कथन नं० ३ की समीक्षा)में किया जा चुका है। कथन १८ और उसकी समीक्षा
(१८) पूर्वपक्षने प्रेरक निमित्तोंके सम्बन्ध में अपनी उपयुक्त मान्यताकी पुष्टि के लिये मूलाराधनाकी गाथा १६२१ और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा २११ का भी तचप. १२ पर उल्लेख किया है। इनमेंसे मूलाराक्ना गाथा १६२१ फे विषयमें उत्तरपक्षने तार• पृ० ३७ पर निम्नलिखित कथन किया है
(क) “मूलारामनामें बलयाई कम्माई" "यह गाया उस प्रसंगमें आई है जबकि निर्यागकानार्यक्षपकको अपनी ममाधिमें पढ़ करना अभिप्रायमे कर्मकी बलवत्ता बतला रहे है और गाथ ही उसमें अनुरंजायमान न होकर समताभाव धारण करनेकी प्रेरणा दे रहे है। यह तो है कि जिस समय जिस कर्मका उदय-उदीरणा