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शंका-समाधान १ को समीक्षा
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होती है उस समय आत्मा स्वयं उसके अनुरूप परिणमनका कत्र्ता बनता है, क्योंकि अपने उपादानके साथ उस परिणामको अन्तर्धाप्ति है। इसी प्रकार उस कर्मके उदय के साथ उसकी बहियाप्ति है। फिर भी आचार्यन यहांपर कर्मादयको बलबत्ता बतलाकर उसमें अनुरंजायमान न होनेकी प्रेरणा इसलिए दी है कि जिसमें यह आत्मा अपनी स्वतंत्रताके भावपूर्वक कर्मोदयको निमित्तकर होने वाले भावों में अपने को आबद्ध न किये रहे।
उत्तरपक्ष ने अपने इस बक्तव्यमें जो कुछ लिखा है वह पूर्वपक्षके लिए विवादको वस्तू नहीं है, क्योंकि सब आगमके अनुसार है। पर प्रश्न यह है कि गाथामें कर्मकी जो बलवत्ता बतलाई गई है वह क्या काल्पनिक है या यथार्थ है? यदि काल्पनिक है तो फिर आचार्यको ऐसा बतलानका निरर्थक प्रयत्न नहीं करना चाहिए था। यतः आचार्यने क्षपकको समाधिमें दाह करने के लिए उसका उपदेश दिया है और क्षपकपर उनके उस उपदेशका अवश्य प्रभाव पड़ता है । अतः निर्णीत होता है कि कर्मको बलवत्ता काल्पनिक नहीं है, वास्तविक है। उससे ग्रह भी निर्णीत होता है कि आत्मामें विकारो भावोंके उत्पन्न होने में क्रममा॑दय सहायक होनेके रूपसे कार्यकारी ही होता है, अकिचित्कर नहीं रहता है। यही कारण है कि जब पक कर्मोदयसे प्रभावित होने लगता है तो निर्यापकाचार्य उसे अपना मानसिक, वाचनिक और कामिक पुरुषार्थ उसके प्रतिकल जगाने और सम्मलन रखनेकी प्रेरणा देते हैं। इस तरह इस गाथाके आधारपर संसारी आत्माके विकारभाष और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति आत्मामें ख्यकर्मोदयकी सहायक होने रूपसे कार्यकारिताकी पुष्टि निःसन्देह होती है। उत्तरपक्ष गाथाके प्रसंग आदि द्वारा असार लीपापोती नहीं कर सकता। यह तथ्य ऐसा है कि वह उक्त कार्यके प्रति कर्मकी बलवत्ता अर्थात प्रेरकरूपमें सहायक होनेम्पसे विद्यमान कार्यकारिताको टाल नहीं सकता है। यह सब व्यवहारनय का विषय इसलिए माना गया है कि कर्मोदय संसारी आत्माके विकाररूप परिणत न होकर संसारी आत्माकी उस विकाररूप परिणतिमें सहायक मात्र हुआ करता है।
(ख) स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा २११ के सम्बंधमें भी उत्तरपक्षने त० च पृ० ३७ पर निम्न कथन किया है
"स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा २११ द्वारा पुद्गल द्रव्यको जिस शक्तिका निर्देश दिया गया है उसका आशय इतना ही है कि जब यह जीव केवलज्ञानके अभावस्पसे परिणमता है तब केवलज्ञानावरण द्रव्यकर्मका उदय उसमें निमित्त होता है। यदि ऐसा न माना जाये और पुद्गलद्ब्यकी सर्वकाल यह शक्ति मानी जाये कि वह केवलज्ञानस्वभावका सर्वदा विनाश करनेकी सामर्थ्य रखता है तो कोई भी जीव केवलज्ञानी नहीं हो सकता । स्पष्ट है कि उक्त वचन द्वारा आचार्य ने पुदगल द्रव्यकी केवलज्ञानावरणरूप उस पर्यायकी उदयशक्तिका निर्देश किया है जिसको निमित्तकर जीव केवलज्ञानस्वभावरूपमें स्वयं नहीं परिणमता। ऐसा ही इसमें निमित्त-नैमित्तिक योग है कि जब वह जीव केवलज्ञानरूपसे नहीं परिणमता तब उसमें केवलज्ञानावरणका उदय सहज निमित्त होता है। इसीको व्यवहारनयसे यों कहा जाता है कि केवलज्ञानावरण के उदयके कारण इस जीवके फेवलज्ञानका घात होता है। स्वामिकातिक्रयानुप्रेक्षाका यह उपकार प्रकरण है। इसी प्रसंग उस्त गाथा आई है । अतएव प्रकरणको ध्यान में रखकर उसके हार्द को ग्रहण करना चाहिये।
हमें आश्चर्य है कि उत्तरपक्षको पूर्वपक्षका जो उत्तर देना चाहिए वह न देकर वह मात्र व्याख्यान देने लगता है। पूर्वपक्षने इस माथाका अपने वक्तव्यमें जो उलए किया है वह केवल आत्माके विकारी भावोंकी उत्पत्तिम व्यकर्मके उदयकी प्रेरकरूपसे सहायताको ध्यान में रखकर किया है। अर्थात् इस गाथाके