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शंका १ और उसका समाधान
कोई जीव दुष्करतर और मोक्षसे पराङ्मुख कर्मोके द्वारा स्वयमेव (जिनाजाके बिमा) क्लेश पाते है तो पाओ और अन्य कोई जीव (मोक्षोन्मुत्र अर्थात् कथंचित् जिनाझामें कथित) महाव्रत और तपके भारसे बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश करें तो करो, किन्तु जो साक्षात् मोलस्वरूप है, निरामयका स्थान है और स्वयं संवेधमान है ऐसे इस ज्ञानको ज्ञानगण के बिना किसी भी प्रबारसे ये प्राप्त नहीं कर सकते ॥१४२।।
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि परम वोत गग चारित्रकी प्राप्तिका साक्षाप्त मार्ग एकमात्र स्वभाव सन्मुख हो तन्मय होकर परिणमना ही है, इसके सिवाय अन्य सब निमित्तमात्र है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारमें गृहस्थ और मुनियों द्वारा ग्रह्ण किये गये व्यलिंगके विकल्पको छोड़कर दर्शन-ज्ञान-धारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग में अपने आस्माको ग्रुयात करने का उपदेश दिया है । समयसारका वह वचन इस प्रकार है
तम्हा जहितु लिंगे सागारणगारएहि व गहिए।
दसण-णाण-चरित्ते अप्पाणं झुंज मोक्लपहे ।।४११॥ इसकी टीकामें आचार्य अमुतचन्द्र लिखते है
यतो द्रव्यलिंग न मोक्षमार्गः समः सहस्तमपि नारि रहा दर्शन-नन यागिन चेव मोक्षमार्गत्वात् आत्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः ॥४११||
यतः इध्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, अतः सभी द्रव्यलिंगोंको छोड़कर मोक्षमार्ग होनेसे दर्शन-ज्ञानचारित्रमें हो आत्माको मुक्त करना चाहिए ऐसा परमागमका उपदेश है ॥४११॥
अपर पक्षका कहना है कि 'भावलिंग होनेसे पूर्व द्रव्यलिंगको तो उसकी उत्पत्तिके लिए कारणरूपसे मिलाया जाता है। किन्तु अपर पक्ष का यह कथन इसीसे भ्रान्त ठहर जाता है कि एक द्रव्यलिंगी साधु आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि काल लक व्यलिंगको धारण करके भी उस द्वारा एक क्षणके लिए भी भालिंगको धारण नहीं कर पाता और आत्माके सन्मुख हुआ एक गृहस्थ परिणाम विशुद्धिको वृद्धिके साथ ब्राह्य में निर्ग्रन्य होकर अन्तम हुर्तमें अपकणिका अधिकारी होता है। स्पष्ट है कि जो ट्रयलिंग भावलिंगका सहचर होनसे निमित्त संभाको प्राप्त होता है यह मिलाया नहीं जाता, किन्तु परिणाम विशुदिकी वृद्धिके साथ स्वपमेच प्राप्त होता है। आगममें द्रव्य लिंगको मोक्षमार्गका उपचारसे साधक कहा है तो ऐसे ही द्रश्यलिंगको कहा है । मिथ्या अहंकारसे 'पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्डके प्रतीकस्वरूप व्यलिंगको नहीं । अपरपक्षने
युगपत् होते ह प्रकाश दीपक तें होई ।-छहवाला बाल ४,१ बचनको उद्धृत फर यह स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि निश्चय चारित्रका सहचर ट्रम्यलिंग ही आगममें व्यवहारनयसे उसका साधन कहा गया है। अतः पूर्वमें धारण किया गया द्रव्यलिंग भावलिंगका साधन है, अपर पक्षके इस कथनका महत्व सुतरा कम हो जाता है। थाली भोजनका साधन कहा जाता है, पर जैसे पालीसे भोजन नहीं किया जाता उसी प्रकार अन्य जिन साधनोंका उल्लेख यहाँ पर अपर पक्षने किया है उनके विषयमे जान लेना चाहिए। वे यथार्थ साधन नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मुख्य साधन वह कहलाता है जो स्वयं अपनी क्रिया करके कार्यरूप परिणमता है। अन्यको यथार्थ साधन कहना कल्पनामात्र है। यह प्रत्यक्षसे ही दिखलाई देता है कि बाह्य सामग्री न तो स्वयं कार्यरूप ही परिणमठी