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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा सहायक न होने रूपसे अकिंचिकर ही मानता है और पूर्वपक्ष उस उपचारको परमार्थ, वास्तविक व सत्य इसलिए मानता है क्योंकि वह सहायक कारण कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी है । और चूंकि सहायक कारण कार्योत्पत्तिमें उपादान कारणसे भिन्न निमित्तकारणभूत वस्तु रूप होता है । अतः “पराश्रितो व्यवहारः" इस आगमवच नके अनुसार यह कथंचित् असद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है, सर्वथा काल्पनिकताके रूपमें असद्भूत व्यवहारनयका विषय नहीं।
आगे इसी अनुच्छेद में उत्तरपक्षने लिखा है-"आचार्यने सहकारी कारणका लक्षण करते हुए जो वाक्यरचना निबद्ध की है थोड़ा उसपर दृष्टिपात कीजिए। वे सहकारी कारणका यह लक्षण नहीं लिख रहे है कि जिसका व्यापार जिलो काम करता है सकारा हिन्तु इसने इपानपर वह यह लिख रहे है कि जिसके अनन्तर जो नियमसे होता है यह सहकारी कारण है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि बाहा सामग्री का व्यापार अन्य द्रव्य में कार्यको उत्पन्न नहीं करता । पदि उसे अन्य द्रव्यके कार्यका सहकारी कारण कहा भी गया है तो केवल इसलिये कि उसके अनन्तर अन्य प्रश्यका यह कार्य निममसे होता है" । इसकी समीक्षा निम्मप्रकार है
यह सीक है कि आचार्य विद्यानन्दने महकारीकारणके लक्षणके विषयमें यह नहीं लिखा है कि जिसका व्यापार जिसे उत्तान्न करता है वह सहकारी कारण है क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षकी मान्यतामें भी सहकारी कारण अन्य व्यके कार्यको त्रिकालमै उत्पन्न नहीं कर सकता है । परन्तु यह अवश्य है कि वह अन्य द्रव्यके कार्यमें सहायक नियमसे होता है। अतः पूर्वपक्षकी मान्यता आगमसम्मत है। किन्तु उत्तरपक्षको मान्यता आगमसम्मत नहीं है। इसे पूर्व में विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है। पूर्व में यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि तत्वार्थक्लोफवार्तिकके उक्त वचनका यह अर्थ नहीं है कि "जिसके अनम्तर जो
होता है वह उसका सहकारी कारण है" प्रत्यत जसका अर्थ यह है कि जिसके अन्तर ही जो नियमसे होता है वह उसका सहकारी कारण है । इससे यह निर्णीत होता है कि सहकारी कारणके सद्भावमें उसकी सहायतासे ही कार्य होता है । वह न तो सहकारी कारणके अभावमें होता है और न उसकी सहायताके बिना होता है । इस तरह तन्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथनमें पठित 'अनन्तर' शब्दका यही अभिप्राय लेना चाहिए कि सहकारी कारण के सद्भावमें उसकी सहायतासे ही कार्यको उत्पत्ति होती है। इसलिये उत्तरपक्षका मह दृष्टिकोण कि "कार्य सहकारी कारणको सहायताके बिना अपने आप ही हो जाया करता है" असंगत है।
आगे त. च० १०५२ पर उत्तरपक्षने लिखा है-"समयसारकलशमें जो 'न जात' इत्यादि कलश निबद्ध किया है वह भी इसी अभिप्रायसे निबद्ध किया गया है कि एक द्रव्य दूसरे दृश्यको परिणमा ता नहीं" सो उसमें पूर्वपक्षको विवाद नहीं है। इसके भी आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि "इसमें आया हा 'परसंग' पर ध्यान देने योग्य है। अपने रामरूप परिणामके कारण आत्मा परकी.संगति अर्थात परमें राग बद्धि करता है और इसीलिये उसे परके संयोगमे सुख-दुःखादि रूप फलका भागी होना पड़ता है, उससे वह बच नाये स्पष्ट है कि यहां परको सुख-दुःखादि रूप परिणमानेवाला नहीं कहा गया है। किन्तु परकी संगति करने रूप अपने अपराधको ही सुख-दुःखादिका मूल हेतु कहा गया है"। सो इसमें भी पूर्व पक्षको विवाद नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष भी परको जीवके सुखदुःखादिका कर्ता नहीं मानता है । पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि परका संयोग जीवकी सुख-दुःखादि रूप परिणतिमें निमित्त (सहायक) मात्र होता है। आगमका भी यही अभिप्राय है।