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शंका-समाधान १ को समीक्षा अर्थ-उसकी (उपादानकारणभूत वस्तुकी) कार्योत्पत्ति न हो सकने रूप असामर्थ्य (अशक्ति) का खण्डन न करते हुए बाह्यवस्तु वहाँपर यदि अकिंचित्कर. ही बनी रहती है तो क्या असे सहकारीकारण कहा जा सकता है ? अर्थात नहीं कहा जा सकता है।
___ यतः तत्त्वार्थश्लोकवातिक और अट सहनीके रचयिता आचार्य विद्यानंद ही हैं अतः अष्टसहस्रीमें निर्दिष्ट होने के कारण उनके द्वारा मान्य अष्टशतीफे उक्त पचनका तत्वार्थश्लोकवातिकके उक्त बचनके साथ सामंजस्य स्थापित करनेके लिए उसका (तत्त्वार्थश्लोकवातिकके उक्त वचनका) तदनुकूल अर्थ ही ग्रहण करना उचित है । इस कथनसे यह निर्णीत होता है कि उपादानवारणभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति होनेके अवसरपर सहायक कही जानेवाली वस्तूकी केवल उपस्थिति दोनों की कालप्रत्यासत्ति नहीं है प्रत्युत उस वस्तुका उपादान कारणभूत वस्तुको कार्यरूप परिणत होने के लिए समर्थ बना देना ही दोगोंकी कालप्रत्यासत्ति है ।
सा वह निष्कर्ष निकलता ई रितु रूपानकारगर वस्तुकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे हो कार्यकारी होती, वह सहायक न होने पसे अकिंचित्कर नहीं रहती है।
तात्पर्य यह है कि सहकारीकारणभूत द्रव्यकर्मोदयके होनेपर उगादासकारणभूत संसारी आत्मा अपनी रागादिरूप परिणत न हो सकने रूप असामर्थ्यको नष्ट कर विकारमान और चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणत होता है अर्थात कार्यकी उपादानशक्ति (कार्य रूप परिणत होनकी योग्यता) विशिष्ट संसारी
आत्मा द्रश्यकर्मोदयकी सहायता प्राप्त होनेपर ही रागादि रूप परिणत होता है और संसार परिभ्रमण किया करता है । और यदि कर्मोदयका अभाव हो जावे तो वह न तो रागादिरूप परिणत हो सकता है और न संसार परिभ्रमण कर सकता है। यही कारण है कि जिनागममें जीवोंको द्रब्यकर्मोदयको समाप्ति करनेका उपदेश दिया गया है । यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि सहकारी कारण होनेरो द्रव्यकर्मोदयका प्रवेश संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण रूप कार्य में प्रसक्त हो जायेगा, क्योंकि कार्य में उपादान कारणके हो प्रवेशका नियम है, सहकारी कारणके प्रवंशका नहीं। इस सम्बन्धमें हम पहले भी काफी प्रकाश डाल चुके हैं।
यही कारण है कि कुम्भकारके बदानुकूल व्यापारके बिना उपादानकारणभूत मिट्टी की घटरूप परिणत नहीं हो सकती है। अतएब कुम्भकार स्वयं अथवा अन्यकी प्रेरणासे जब घटानुकूल च्यापार करने में प्रवृत्त होता है तभी मृतिका घटरूप परिणत होती है।
इस प्रकार उत्तरपक्षका ऐसा मानना भ्रान्तिपूर्ण है कि जब मिट्टी अपना परिणमन घटरूप करनेके लिये उद्यत होती है त। कुम्भकार भी अपना तदनुकूल व्यापार करनेमें प्रवृत्त होता है। इसके विपरीत यही सम्यक् है कि जब कुम्भकार अपना व्यापार घटोत्पत्तिके अनुकूल करता है तभी उपादान कारणभूत मिट्टी अपना घटरूप परिणमन किया करती है ।
आगे उत्तरपक्षने लिखा है-"किन्तु इसके स्थान में उक्त कथबका यदि यह अर्थ किया जाये कि जिसे सहकारी कारण कहा गया है यह अपने व्यापार द्वारा अन्य व्यके कार्यको उत्पन्न करता है तो उक्त कथनका ऐसा अर्थ करना यथार्थ न होकर उपचारित हो होगा" । सो उत्तरपक्षक इस कथनको पूर्वपक्ष भीम परन्तु उत्तरपक्ष जहाँ उस उपचारको आकाशकसमकी तरह कल्पनारोपित मात्र मानता है वहां पुर्व कल्पनारोपित मात्र न मानकर सहायककारणताके आधारपर परमार्थ, वास्तविक सत्य मानता है। उत्तरपक्षके उस उपचारको कल्पनारोपित माननेका कारण यह है कि वह सहायक कारणको कार्योत्पत्सिमें