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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
करना चाहिए था और तीसरे, यह प्रश्न भी होता है कि उत्तरपक्षकी मान्यता के अनुसार जब कुम्भकार घटोत्पत्तिके प्रति मिट्टीकी निश्चयकारणताका बोध कराता है तो फिर उसे वहाँपर सर्वथा अकिचित्कर कैसे कहता है ?
आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष आगमके तथ्य और पूर्वपक्ष की दृष्टिपर ध्यान न देकर केवल अपने पूर्वाग्रह पर ही तत्त्वचर्चा में प्रवृत्त हुआ है, उसको दृष्टि अणुमात्र भी तत्व फलित करनेकी नहीं रही है । कथन ३२ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने सहकारी कारणके लक्षणके प्रसंग तु० च० पू० ५२ पर आचार्य विद्यानंदके तत्त्वार्थलोकवाकि कि है-
" यदनन्तर हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत् कार्यमिति । "
इसका अर्थ भी उसने यह किया है कि "जो जिसके अनन्तर नियमसे होता है वह उसका सहकारी कारण है दूसरा कार्य है" ।
उक्त वचनका उत्तरपक्ष द्वारा किया गया यह अर्थ असंगत है, क्योंकि सहकारी कारणके सद्भाव में भी बाधक कारणके उपस्थित हो जानेपर अथवा विवक्षित वस्तु कार्यको उपादान शक्तिका अभाव रहनेपर कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है । जैसे त्रयोदश गुणस्थान के प्रथम समयमें मोक्षमार्गको पूर्णता हो जानेपर भी Saree कारणभूत योग और अत्रातिया कर्मोका सद्भाव रहने के कारण जीवको मोक्षको प्राप्ति नहीं होती है । तथा कुंमकारके घटानुकूल व्यापाररूप सहायक कारण के सद्भाव में भी उपादानशक्तिरहित घालू मिश्रित मिट्टी से घटोत्पत्ति नहीं होती है। अतः उक्त वचनका अर्थ मद्द करना चाहिए कि जिसके अनन्तर हो जो नियमसे होता है वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है" । उक्त वचनका ऐसा अर्थ करने से एक तो उपर्युक्त दोनों प्रकारके दोषों का निराकरण हो जाता है, दूसरे उस वचनमें विद्यमान 'हि' शब्दकी इससे सार्थकता सिद्ध हो जाती है जबकि उत्तरपक्ष द्वारा किये गये अथसे उक्त वचनमें विद्यमान 'हिं' शब्द निरर्थक ठहरता है।
आगे उत्तरपक्षने लिखा है- "इसका तात्पर्य यह है कि जब जो कार्य होता है तब उसका जो सहकारी कारण कहा गया है वह नियमसे रहता है ऐसी इन दोनोंमें कालप्रत्यासति है । यह यथार्थ है अर्थात् उस समय विवक्षित कार्यका होना भी यथार्थ है और जिसमें सहकारी कारणमा स्थापित की गई है उसका होना भी यथार्थ है यह इन दोनोंकी कालप्रत्यासत्ति हूँ" ।
उत्तरपक्षने अपने इस वक्तव्य से यह सूचित करनेका प्रयत्न किया है कि कार्योत्पत्तिके अवसर पर उसका सहकारी कारण भी वह उपस्थित रहता है। इससे वह यह बतलाना चाहता है कि कार्यात्पत्ति के ब सरपर सहकारी कारणके उपस्थित रहनेपर भी उसका कार्योत्पत्ति में कोई उपयोग नहीं होता है। उत्तरपक्षका यह दृष्टिकोण सम्यक नहीं है, क्योंकि हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं कि अष्टसहस्री पृ० १०५ पर निर्दिष्ट अष्टशतीके वचनानुसार बाह्यवस्तुमें कार्य के प्रति सहकारीकारणताका व्यवहार करनेके लिए उस बाह्यवस्तुकी उस कार्य के प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारिताको स्वीकार करना परम आवश्यक है । अष्टशतीका वह वचन निम्न प्रकार है
तदसामर्थ्य मखण्डयद किचित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ?"