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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा है । अत्तः हरिवंशपुराणके उक्त कथनसे उत्तरपक्षके इस अभिप्रायकी पुष्टि नही होती है कि कार्योत्पत्तिमें बाह्य सामग्री अकिंचित्कर ही रहा करती है।
इरा विवेचनसे तत्त्वपर्चा पृ० ६४ पर ही निर्दिष्ट उत्तरपक्षका यह कथन भी निरर्थक हो जाता है कि “यह आगम प्रमाण है । इससे जहां प्रत्येक कार्यके विशिष्ट कालका ज्ञान होता है वहाँ उससे यह भी शात हो जाता है कि वैव अर्थात् द्रव्यमें कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके राभाव में ही बाह्य सामग्रीको उपयोगिता है, अन्यथा नहीं।" तात्पर्य यह है कि उत्तरपक्षने अपने इस कयनमें कार्यकारी अन्तरंग योग्यताका अभिप्राय मुख्यतया स्वकाल अर्थात् कार्याव्यवहित पूर्वपर्यायके रूपमें लिया है परन्तु ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जसका कोई संकेत हरिवंशपुराणके उक्त कथनमें नहीं है । दूसरे, ऊपर यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि कार्याव्यवहित उस पूर्वपर्यायको उत्पत्ति निमित्तभूत बाह्य मामग्रीबी सहायतापर ही निर्भर है । इससे यही निर्णीत होता है कि हरिवंशपुराणवो जनत कथनमें दैवबलका अभिप्राय मुख्यतया वस्तुकी द्रव्यशक्ति ही है । यही कारण है कि कार्योत्पत्तिम कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय वारणभूत द्रव्यशक्तिके विशेषणके रूपमें ही प्रयुक्त होता है । इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यातव्य है कि कार्यकारणभाव कार्य और ध्यरूप उपादानशक्तिमें ही उत्पाद्योत्पादकभावके रूपमें होता है। कार्य और पर्यायरूप उगादानशक्तिमें तो पूर्वोत्तरभावरूप कार्यकारणभाव ही होती है, उत्पाद्योत्पावभावरूप कार्यकारणभाव नहीं। यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है और आवश्यकतानुसार आगे भी पट की जागी .
____ उत्तरपक्षने “देव" पदका अर्थ जो "कार्यकारी अन्तरंग योग्यता" ग्रहण किया है इसके विषय में उसका कहना है कि यह उसने आप्तमीमांसा कारिका ६८ की अष्टशती टीकाके आधारपर किया है। इसके साथ ही उसमें वहां अष्टशतोके उस दवनको भी उल्लू त किया है और उसका यह अर्थ भी निर्दिष्ट किया है कि "योग्यता और पूर्वकर्म इनको "देव" संज्ञा है। ये दोनों अदृष्ट है । किन्तु इहचेष्टितका नाम पौरुप है जो दृष्ट है।"
आगे वहींपर उगने लिखा है कि ''आचार्य समन्तभद्रने कार्यमें इन दोनोंके गौण-मुख्य भावसे ही अनेकान्तका निर्देश किया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि कपडा जब कोट बनता है अपनी द्रव्यपर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे ही बनता है और तभी दर्जीका योग तथा विकल्प आदि अन्य सामग्री उसकी उस पर्वायकी उत्पत्ति निमित्त होती है ।"
इसके विषयमें मेरा कहना है कि अष्टशतीके वचन और आचार्य समन्तभद्रके अभिप्रायको प्रगट करने वाले उत्तरपक्ष के उक्त कथन दोनोंसे पद्म पि देव पदके अर्थके रूप में "कार्यकारी अन्तरंग योग्यता' के ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु वह कार्याध्यवाहित पूर्वपर्याय विशिष्ट द्रव्यशक्तिके रूप में ही ग्रहण किया जा सकता है, द्रव्यशक्तिविशिष्ट पर्यायशक्तिके रूप में नहीं। इसमें हेतु यह है कि उक्त पर्याय पूर्वोक्त प्रकार कार्यरूप ही मानी गई है तथा उसकी उत्पति निमित्तभृत बाा सामग्रीकी सहायतासे ही होती है।
इससे यह भी स्पष्ट विदित होता है कि कपड़ा जब कोट बनता है तो अपनी द्रव्यपर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे ही बनता है, परन्तु दर्जी के योग और विकल्प आदि बाहा साग्रीका महयोग मिलनेपर ही वह बनता है । अतएव उत्तरपक्षका यह मानना कि "कपड़ा जब भी बोट बनता है अपनी